Thursday 20 June 2019

एक देश एक चुनाव : जनता से भी तो पूछो

प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने दूसरी पारी शुरू करते ही एक देश एक चुनाव की दिशा में जो कदम बढ़ाया उससे लगता है वे आने वाले पांच वर्षों में इसे लागू करवाने का हरसंभव प्रयास करेंगे। उनकी कार्यशैली को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि वे जो ठान लेते हैं उसके लिए पूरी ईमानदारी और मेहनत से काम करते हुए आगे बढ़ते हैं। गत दिवस उन्होंने 40 राजनीतिक दलों के अध्यक्षों को इस मुद्दे पर चर्चा करने बुलाया था लेकिन केवल 21 ही उस बैठक में आये। कांग्रेस, सपा-बसपा, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, अद्रमुक, तेलुगु देशम और आम आदमी पार्टी जैसे दलों ने बैठक से दूरी बनाकर रखी जबकि एनडीए के बाहर कांग्रेस की सहयोगी एनसीपी के अलावा, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, बीजू जनता दल, टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस ने बैठक में मौजूद रहकर एक साथ चुनाव का समर्थन किया। शिवसेना इस मामले में प्रधानमंत्री से सहमत है लेकिन पार्टी का स्थापना दिवस होने के कारण वह बैठक में नहीं आई। वामदल बैठक में तो आये लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री की इस मुहिम का विरोध किया। हालाँकि श्री मोदी ने साफ  किया कि ये उनका निजी मुद्दा नहीं अपितु एक राष्ट्रीय विषय है। बैठक के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बताया कि इस बारे में एक समिति बनाई जावेगी जो अपनी रिपोर्ट जल्द पेश करेगी। उल्लेखनीय है लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों की विधानसभा के चुनाव करवाने की जो परम्परा 1967 तक चली उसे पुनर्जीवित करने की इच्छा सर्वोच्च न्यायालय के अलावा विधि आयोग और चुनाव आयोग भी समय-समय पर व्यक्त कर चुके हैं। अनेक स्वयंसेवी संगठन और बुद्धिजीवी भी इसके पक्ष में हैं। लेकिन देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस इसका विरोध करती आ रही है। अन्य भाजपा विरोधी पार्टियां भी उसके स्वर में स्वर मिला रही हैं। सबके अपने-अपने तर्क हैं। मायावती की शर्त है कि यदि ईवीएम की जगह मतपत्र से चुनाव करवाये जाने पर विचार हो तभी वे इस तरह की मुहिम का हिस्सा बनेंगी। जहां तक ममता बैनर्जी का प्रश्न है तो वे प्रधानमन्त्री के सामने आने से बचना चाहती हैं जबकि चन्द्र बाबू नायडू का अपराधबोध उनका पीछा नहीं छोड़ रहा। लेकिन इन सबसे हटकर यदि देश के जनमानस को टटोला जावे तब नि:संकोच कहा जा सकता है कि एक देश एक चुनाव को भारी जनसमर्थन प्राप्त है। हालाँकि देश का चुनावी कैलेंडर इस कदर बिगड़ चुका है कि 1967 तक चली आम चुनाव की व्यवस्था को दोबारा लागू करना आसान नहीं है किन्तु पूरे पांच साल तक किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहने की वजह से देश को जो नुकसान हो रहा है उसके मद्देनजर इस दिशा में आगे बढना समय की मांग है। यदि श्री मोदी देश भर में घूम-घूमकर एक देश एक चुनाव के मुद्दे को सार्वजानिक विमर्श का विषय बना दें तब विपक्ष भी कुछ नहीं कर सकेगा लेकिन ये बहुदलीय प्रजातंत्र की मूल भावना के विरुद्द्ध होगा। इसीलिये बजाय कोई भी एकपक्षीय फैसला करने के उन्होंने सर्वदलीय बैठक बुलाई तो कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों को उसमें शामिल होकर अपनी बात रखनी चाहिए थी। एक साथ चुनाव करवाने के फायदे गिनवाने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस बारे में काफी लिखा और कहा जा चुका है। सबसे बड़ी बात इस सम्बन्ध में नीतिगत अनिश्चितता की है। चुनाव दर चुनाव की स्थिति में केंद्र और राज्य सरकारें दूरगामी नीतियाँ लागू करने का साहस ही नहीं दिखा पातीं। क्षेत्रीय महत्व के मुद्दे राष्ट्रीय हितों पर हावी हो जाते हैं जिसकी वजह से विकास सम्बन्धी महत्वपूर्ण फैसले लम्बित पड़े रहते हैं। जो लोग संघीय ढांचे की आड़ में इस मुहिम का विरोध कर रहे हैं वे दरअसल इस बात को लेकर भयभीत हैं कि सभी राज्यों और लोकसभा के चुनाव एक साथ होने पर उनकी राजनीतिक दुकानों पर ताले लटक जायेंगे। ममता, मायावती, चन्द्र बाबू और अखिलेश जैसे नेताओं को डर है कि भाषा, क्षेत्र, जाति और धर्म के नाम पर वोट बटोरने की बजाय विकास अब मुख्य मुद्दा बनता जा रहा दिया है। उप्र और बिहार में लगातार दो लोकसभा चुनावों में भाजपा का शानदार प्रदर्शन इस बात की पुष्टि करता है कि मतदाता भी अब संकुचित दायरे से बाहर निकलकर देश के व्यापक हितों को दृष्टिगत रखते हुए मत देने लगा है। एक देश एक चुनाव को लागू करने में अनेक संवैधानिक, प्रशासनिक और व्यवहारिक परेशानियाँ आयेंगी। लेकिन जहां सवाल लोकतंत्र की मजबूती और देश के हितों का हो तब रास्ते की समस्त बाधाओं को हटाकर आगे बढऩा ही होगा। कांग्रेस को ये स्पष्ट करना चाहिए कि वह इस मुहिम का विरोध आखिर किस आधार पर कर रही है? उसे ये नहीं भूलना चाहिये कि क्षेत्रीय दलों का अपना एजेंडा हो सकता है लेकिन एक राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते उसकी जवाबदेही कहीं ज्यादा है। त्यागपत्र देने के बाद भी पार्टी अध्यक्ष बने हुए राहुल गांधी को ये समझ लेना चाहिए कि प्रधानमंत्री बहुत आगे की सोचकर कदम उठाते हैं। बीते पांच साल का अनुभव बताता है कि श्री मोदी का विरोध करने के नाम पर कांग्रेस विशेष रूप से राहुल की छवि नकारात्मक बन गयी है। दूसरी तरफ  प्रधानमंत्री अपनी हर मुहिम पर जनता की स्वीकृति प्राप्त करने में सफल होते रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि वे बड़ी ही चतुराई से ये साबित करने में कामयाब हो जाते हैं कि उसमें उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं है जबकि कांग्रेस तथा भाजपा का अंध विरोध करने वाली पार्टियां अपनी बात लोगों के गले नहीं उतार पा रहीं। श्री मोदी ने दोबारा देश की सत्ता सँभालते ही एक देश एक चुनाव की जो पहल की वह कितनी सफल होगी ये अभी से कह पाना भले ही कठिन हो लेकिन इतना जरूर तय है कि इसका विरोध कर रही पार्टियां और उनके नेतागण अवश्य जनता की निगाह में खलनायक बन जायेंगे। उन्हें ये नहीं भूलना चाहिये कि प्रधानमंत्री राजनीतिक तौर पर पूर्वापेक्षा ज्यादा मजबूत हैं और आगामी वर्ष के पूर्वार्ध में ही राज्यसभा में भी उनकी सरकार का बहुमत हो जाएगा। वैसे इस संबंध में जनता का अभिमत जानने का प्रयास भी होना चाहिए। ज्वलंत मुद्दों पर जनमत का जायजा लेते रहना प्रजातंत्र को और सार्थकता प्रदान करेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment