Tuesday 4 June 2019

सपा-बसपा में टूट : जातिवादी राजनीति का उतार शुरू

लोकसभा चुनाव के दौरान जब नरेंद्र मोदी कहते थे कि उप्र में बसपा-सपा महागठबंधन 23 मई की शाम के बाद टूट जाएगा तब उसे सियासी दांव समझा जाता था। लेकिन गत दिवस वह बात सच साबित हुई। भले ही औपचारिक रूप से अभी दोनों पार्टियों ने अलगाव की घोषणा नहीं की और अखिलेश यादव अपने निर्वाचन क्षेत्र आजमगढ़ में बसपा कार्यकताओं के साथ मिलकर काम करने की बात कह रहे हों लेकिन दूसरी तरफ  मायावती ने निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा के 11 उपचुनाव अकेले लडऩे की घोषणा करते हुए ये भी कह दिया कि बसपा को इस महागठबंधन से कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि सपा समर्थक यादव मतदाता उसके प्रत्याशियों के पक्ष में नहीं आये। मायावती ने अखिलेश पर ये तंज भी कसा कि वे अपनी पत्नी और भाई तक को नहीं जितवा सके। हालाँकि उन्होंने मुस्लिम मतदाताओं के समर्थन की बात स्वीकार जरुर की। यद्यपि अभी तक सपा ने मायावती के फैसले पर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की लेकिन मायावती के बाद जिस तरह से बसपा के दूसरे नेताओं ने भी सपा पर असहयोग का आरोप मढऩा शुरू कर दिया उससे गठबंधन में दरार चौड़ी होने की संभावना और भी बढ़ गई है। लोकसभा चुनाव में वैसे तो बसपा को 10 गुना लाभ हुआ क्योंकि 2014 में उसे एक भी सीट नहीं मिली थी और उस लिहाज से लोकसभा में बीते पांच साल से वह पूरी तरह से प्रतिनिधित्वविहीन रही। उस दृष्टि से देखें तो सपा का नुकसान ही हुआ। मुलायम सिंह यादव के साथ ही अखिलेश भले जीत गये लेकिन उनके भाई और पत्नी की हार बड़ा धक्का कही जायेगी। ऐसे में होना तो ये चाहिये था कि वे बसपा पर असहयोग का आरोप लगाते। परिणामों से स्पष्ट हो चुका है कि भले ही मायावाती और अखिलेश के बीच गठबंधन हुआ हो लेकिन दोनों पार्टियों में निचले स्तर पर उस फैसले को स्वीकार्यता नहीं मिली। रही-सही कसर पूरी कर दी कांग्रेस द्वारा अलग से मैदान में उतरने के फैसले ने। इससे बसपा और सपा दोनों की नाराजगी बढ़ी जिसका खामियाजा राहुल गांधी को अमेठी में भोगना पड़ गया। इस चुनाव ने उप्र ही नहीं बिहार में भी जातिवादी जमावड़े की हवा निकाल दी। पिछड़े के बाद अति पिछड़े और दलित के बाद अति दलित जैसे विशेषणों को जनता ने जिस तरह से दरकिनार किया वह एक सकारात्मक संकेत है। बसपा और सपा के बीच हुआ समझौता किसी विचारधारा से प्रेरित तो था नहीं। वैसे भी अब न तो सपा में समाजवाद बचा है और न ही बसपा में दलितों के उत्थान की सोच। दोनों विशुद्ध रूप से निजी जागीर बन चुकी हैं जिसके नेता जातिगत भावनाओं को भुनाकर अपना वर्चस्व कयाम रखना चाहते हैं। सपा जैसी पार्टी जब अनिल अम्बानी, जया बच्चन सहित बड़े-बड़े बिल्डरों को राज्यसभा में भेजती है तब उसके समाजवादी चेहरे पर पूंजीवाद की झलक साफ दिखाई देती है। इसी तरह बसपा को दलितों की बेहतरी से कुछ लेना देना नहीं है। जिस तरह से मायावती चुनावी टिकिटों की सौदेबाजी करती हैं वह सर्वविदित है। दूसरी पार्टियों की देखासीखी उन्होंने भी अपने भतीजे को उत्तराधिकारी के तौर पर स्थापित करने की शुरुवात की जिससे ये स्पष्ट हो गया कि उनकी सोच में स्व. कांशीराम जैसी दूरदर्शिता नहीं है। वैसे भी गेस्ट हाउस काण्ड जैसी अपमानजनक घटना को भुलाकर मायावती द्वारा सपा से गठबंधन किया जाना दलित स्वाभिमान पर बहुत बड़ी चोट थी। मैनपुरी में मुलायम सिंह के लिए मायावती का वोट मांगने जाना बसपा के सैद्धांतिक पलायन का प्रतीक बन गया। अब जब उन्होंने अपनी तरफ  से सपा का साथ लिए जाने को नुकसानदेह बताकर उससे पल्ला झाडऩे की शुरुवात कर दी और आगामी विधानसभा उपचुनाव अकेले लडऩे का ऐलान कर दिया तब अखिलेश के सामने बड़ी ही विकट स्थिति पैदा हो गयी। 2017 के उप्र विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने अचानक राहुल गांधी से गठबंधन कर लिया जो बुरी तरह पिटा। उसके बाद राज्य में हुए लोकसभा और विधानसभा के कुछ उपचुनावों में उन्होंने बसपा से गठजोड़ किया जिसे मिली सफलता ने बुआ-बबुआ नामक समीकरण को जन्म दिया लेकिन तात्कालिक लाभ को स्थायी मानकर महागठबंधन बनाने का प्रयोग मतदाताओं ने पूरी तरह से ठुकराकर जता दिया कि दो नेताओं द्वारा अपनी-अपनी जातियों के ठेकेदार बनने का जमाना लद चुका है। ये लगातार तीसरा अवसर है जब उप्र के मतदाताओं ने जातिवादी गठजोड़ के धुर्रे उड़ा दिए। इसे भारतीय राजनीति में एक बड़े बदलाव के तौर पर देखा जाना चाहिए। पिछड़ी और दलित जातियों का सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक उत्थान देश के विकास के लिए बड़ी प्राथमिकता है लेकिन उनके नाम पर कुछ नेता और उनके परिजनों का उत्थान होता रहे ये अब उनके अनुयायियों को मजूर नहीं रहा। नरेंद्र मोदी को इस बात के लिए बधाई देनी चाहिए कि उन्होंने जाति के नाम पर होने वाले गठबंधन के खौफ  से राजनीति को काफी हद तक तो मुक्ति दिलवा दी। सपा-बसपा गठबंधन पूरी तरह से एक स्वार्थ आधारित समझौता होने से उसका यही हश्र अपेक्षित था। मायावती तो खैर कांशीराम की शिष्या रहीं इसलिए उनके सियासी पैंतरों से किसी को न आश्चर्य होता है न ही दु:ख लेकिन विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त और जाति से बाहर विवाह करने का साहस दिखा चुके अखिलेश जब लाल टोपी पहिनकर जातिवादी घेरे में कैद हो जाते हैं तब हैरानी होती है। यही वजह है कि 2019 का जनादेश सही मायनों में अखिलेश जैसे नेता की राजनीति के लिए बड़ा धक्का है जिनसे युवा पीढ़ी को काफी आशाएं थीं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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