Friday 7 June 2019

आर्थिक मोर्चा : लोगों के चेहरे पर खुशी लाने का प्रयास हो

मोदी सरकार पर बीते दो सालों से ये आरोप लगता रहा कि वह देश के सबसे बड़े वित्तीय संस्थान भारतीय रिजर्व बैंक  की स्वायत्तता पर हमले कर रही है। उसके पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के साथ तो सरकार के रिश्ते बेहद तल्खी भरे हो गए थे। लेकिन इस सम्बन्ध में उठे विवादों के बीच ये कहना भी गलत नहीं होगा कि श्री राजन ने अर्थव्यवस्था की मजबूरियों को समझकर सामंजस्य बनाने की बजाय टकराव का रास्ता अपनाया जिससे ये आरोप भी लगा कि वे विपक्ष के हाथों खेलते हुए चुनावी वर्ष में सत्तारूढ़ पार्टी के लिये मुसीबतें खड़ी कर सकते हैं जो नोटबन्दी और जीएसटी से उत्पन्न परिस्थितियों से वैसे भी रक्षात्मक बनी हुई थी। रिजर्व बैंक के पास चूंकि बैंक ऋणों की दरें निश्चित करने के साथ ही नगदी उपलब्धता की सीमा तय करने का अधिकार होता है इसलिए हर तीन माह में मौद्रिक समीक्षा बैठक पर सरकार के साथ ही बैंकिंग और उद्योग-व्यापार जगत की निगाहें लगी रहती हैं । श्री राजन के हटते ही उनके जो उत्तराधिकारी आए उनके बारे में कहा गया कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कृपापात्र हैं और उनके जरिये सरकार रिज़र्व बैंक में बेजा हस्तक्षेप करते हुए उसका राजनीतिकरण करेगी। विपक्ष ने भी तरह-तरह के आरोप लगाकर उनके चयन को कठघरे में खड़ा करने की खूब कोशिश की। रिजर्व बैंक से जो सालाना लाभांश केंद्र सरकार को मिलता है उसकी राशि बढ़ाने के सरकारी आग्रह पर भी तनातनी हुई। बहरहाल लोकसभा चुनाव के छह महीने पहले से रिजर्व बैंक ने दो मर्तबा रेपो रेट में .25 फीसदी की कमी करते हुए केंद्र सरकार के लिए राहत का इंतजाम किया। अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार ऋण सस्ते होने से बाजार में मुद्रा का प्रवाह बढ़ता है जिसकी वजह से मांग बढ़ती है और उसका परिणाम महंगाई बढऩे के रूप में सामने आता है। मोदी सरकार पर ये आरोप लगातार लगता रहा है कि उसने भले ही महंगाई पर लगाम लगाए रखी हो लेकिन वह बाजार में मांग बढ़ाने में विफल रही। ऐसा कहा जाता है कि नोटबन्दी से पैदा हुए असामान्य हालातों से बाजार आज तक नहीं उबर सका। उद्योग-व्यापार में छाई मंदी ने रोजगार के क्षेत्र में अत्यंत ही निराशाजनक चित्र प्रस्तुत कर दिया जिसे छिपाने की कोशिशों को लेकर सरकार की जबरदस्त फजीहत भी हुई। लोकसभा चुनाव के पहले तक सरकार बेरोजगारी पर ज्यादा बात करने को तैयार नहीं थी। चुनाव बाद उसकी अधिकृत जानकारी आ जाने से सही स्थिति पता लग गई। प्रधानमंत्री द्वारा बेरोजगारी की समस्या दूर करने के लिए मंत्री स्तर की समिति बनाये जाने से ये स्पष्ट हो गया कि दूसरी पारी में श्री मोदी इस समस्या के हल के प्रति चिंतित हैं। उन्हें पता है कि बरसात बाद कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को यदि लोकसभा जैसी सफलता चाहिए तब आर्थिक मोर्चे पर कुछ न कुछ ऐसा करना पड़ेगा जो अर्थव्यवस्था में महसूस किए जा रहे ठहराव को दूर करे। रिजर्व बैंक द्वारा रेपो रेट में .25 प्रतिशत की जो कमी की गई उससे ऋण सस्ते होंगे तथा बाजार में अधिक धन उपलब्ध होने से मांग में वृद्धि का नतीजा उद्योग-व्यापार के अच्छे दिन के तौर पर देखने मिलेगा। हालांकि उसकी गारंटी इतनी जल्दी देना सम्भव नहीं है लेकिन मोदी सरकार अब कड़े वित्तीय अनुशासन को ज्यादा समय तक जारी रखने का जोखिम भी नहीं उठा सकती। बीते वित्तीय वर्ष में विकास दर का अपेक्षित 7 फीसदी से नीचे रहना चिंता के कारण उत्पन्न करने वाला बन गया क्योंकि भारत चीन से भी पीछे रह गया जिससे उसकी विश्व रेटिंग प्रभावित हुई जो विदेशी निवेश की आवक घटा सकती है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के जानकारों के मुताबिक तो 2019-20 और उसके बाद के सालों में भारत की वार्षिक विकास दर 7 फीसदी से ज्यादा रहेगी औऱ दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था का उसका दावा और मजबूत होगा। लेकिन उसके लिए जरूरी है केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियां विकासमूलक हों तथा कारोबार में जटिलता दूर की जाए। ये तभी सम्भव है जब रिजर्व बैंक की भूमिका सहयोगात्मक रहे। सुखद संयोग है कि प्रधानमंत्री 2014 के पहले नियुक्त किये गए नौकरशाहों और सलाहकारों से पूरी तरह मुक्त हैं। संवैधानिक पदों पर बैठे अधिक़तर लोग भी उनके अनुकूल हैं। ऐसी ही परिस्थितियां स्व. इंदिरा गांधी के दौर में में थी। उस दृष्टि से प्रधानमंत्री के पास स्वर्णिम अवसर है आर्थिक मोर्चे पर खुलकर खेलने का। रिजर्व बैंक लगातार सहयोगात्मक बना हुआ है। राजनीतिक तौर पर भी श्री मोदी बेहद सुविधाजनक और चिंतारहित हैं। 2020 के शुरुवाती महीनों में एनडीए को राज्यसभा में भी बहुमत मिल जाएगा। पूरे परिदृश्य का सूक्ष्म अवलोकन करने के बाद ये अपेक्षा करना गलत नहीं होगा कि दूसरी पारी की शुरूवात कर ढांचे को युक्तिसंगत बनाने से की जावे। प्रत्यक्ष कर (आयकर) की दरों में कमी के अलावा जीएसटी के अनेक स्तर घटाकर ज्यादा से ज्यादा दो किये जायें तथा उसकी प्रक्रिया में बची-खुची खामियां दूर कर उसे आकर्षक बनाया जावे। पिछले कार्यकाल में नोटबन्दी और जीएसटी को लागू करने का फैसला काफी देर से लिया गया था। उसकी वजह सरकार का अनुभवहीन रहना भी माना जा सकता है लेकिन इस बार प्रधानमंत्री के पास पांच वर्ष के अच्छे-बुरे अनुभव हैं जो उन्हें तेजी से कदम बढ़ाने में सहायक बन सकते हैं। 2014 के चुनाव में अच्छे दिन आने वाले हैं का आश्वासन जनमानस को लुभा गया। वैसे वह जमीनी हकीकत नहीं बन सका बावजूद उसके जनता ने मोदी है तो मुमकिन है पर भरोसा जताते हुए अपनी तरफ  से पूरी दरियादिली दिखा दी। प्रधानमंत्री को चाहिए वे बिना समय गंवाए विश्व के अनेक देशों द्वारा अपनाए राष्ट्रीय प्रसन्नता सूचकांक जैसी व्यवस्था भारत में भी लागू करते हुए लोगों के चेहरे से उदासी दूर करने के कदम उठाएं। अर्थव्यवस्था का कुशल संचालन इसमें सहायक बन सकता है। लोकसभा के पहले सत्र में पेश होने वाला बजट इस सरकार के इरादों का संकेत देगा जिसकी अच्छी शुरूवात रिजर्व बैंक द्वारा कर दी गई है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment