Monday 30 April 2018

किम जोंग का नया रुख बड़े बदलाव का संकेत


जो लोग अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर नजर रखते हैं उन्हें 1972 में अमेरिका के तत्कालीन विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर की गुप्त चीन यात्रा की याद जरूर होगी। पाकिस्तान के जरिये बीजिंग पहुंचे किसिंजर की उस यात्रा को पिंगपाँग कूटनीति का नाम दिया गया। दो जानी दुश्मनों के बीच रिश्तों की बर्फ  पिघलने की उस शुरुवात ने 20 वीं सदी के उत्तरार्ध में ही विश्व राजनीति के संतुलन को पूरी तरह बदल डाला। दो धु्रवों में बंटी दुनिया में चीन के रूप में एक नई महाशक्ति का उदय हुआ जिसे प्रारंभिक तौर पर हल्के में लेने वाले भी अब उसका लोहा मानने लगे हैं। उसके काफी बाद जब सोवियत संघ विघटित हुआ और उसके शिकंजे से निकलकर पूर्वी यूरोप के तमाम साम्यवादी देश भी नई राह पर चल पड़े तब दुनिया में फिर उथलपुथल मची लेकिन चीन उससे भी अछूता रहा। जर्मनी का एकीकरण और बर्लिन की दीवार का अस्तित्वहीन हो जाना भी बीती हुई सदी के यादगार ऐतिहासिक लम्हों में से था। ऐसा लगने लगा था कि उन सबके बाद दुनिया में अमेरिका का इकतरफा दबदबा हो जाएगा लेकिन चीन के निरन्तर ताकतवर होते जाने से वह उम्मीद पूरी नहीं हो सकी और अमेरिका सहित जो पश्चिमी मुल्क चीन से राजनयिक सम्बन्ध रखने तक से परहेज करते थे वे ही अपनी पूंजी लेकर चीन जा पहुंचे और इस तरह लौह आवरण से घिरा यह एशियाई देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए एक बड़े आश्रय स्थल के तौर पर स्थापित हो गया। आज की दुनिया आर्थिक विकास के लिए पूंजीवादी या साम्यवादी की बजाय चीनी मॉडल से प्रभावित होती जा रही है। विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए तो चीन की प्रगति अध्ययन और अनुसरण दोनों का विषय बन गई है। न सिर्फ सामरिक और वैज्ञानिक अपितु आर्थिक मोर्चे पर भी चीन ने विश्व बिरादरी के बीच महाशक्ति का दर्जा हासिल कर लिया। लेकिन उसकी कूटनीति का जो मॉडल है उसे लेकर पूरी दुनिया आशंकित और काफी हद तक भयभीत रहती है। धर्म को अफीम मानने वाला चीन जब कट्टरपंथी पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध संरक्षण देता है तो वह विरोधाभास लगता है। उसी तरह उसने साम्यवादी तानाशाही के नए प्रतीक उत्तर कोरिया को बढ़ावा देकर अमेरिका को चुनौती देने वाले एक अन्तर्राष्ट्रीय गुंडे के तौर पर किम जोंग सरीखे बिगड़ैल राष्ट्रप्रमुख को खड़ा कर दिया। बीते साल भर से किम जोंग धड़ाधड़ परमाणु परीक्षण करते हुए अमेरिका और उसके बेहद निकट रहने वाले जापान को धमकाने वाली भाषा बोलते रहे। तमाम प्रतिबंधों के बावजूद भी किम जोंग उत्तर कोरिया को विश्व युद्ध की राह पर आगे बढ़ाते नजर आ रहे थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका को जिस प्रकार की धमकियां किम जोंग ने दीं उतनी तो कभी सोवियत संघ और क्यूबा के तानाशाह मरहूम फिदेल कास्त्रो तक ने नहीं दी होंगी। इसकी वजह उत्तर कोरिया की सामरिक ताकत कम और चीन का संरक्षण ज्यादा था। अपने पड़ोसी दक्षिण कोरिया से उत्तर कोरिया का जन्मजात बैर रहा है। बीते कई दशक से दोनों के बीच युद्ध के हालात बने हुए थे। ये भी सही है कि उत्तर की अपेक्षा दक्षिण कोरिया ने आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में ज्यादा तरक्की कर ली। इन  दोनों के बीच का फर्क  ठीक वैसा ही है जैसा एकीकरण के पूर्व पश्चिमी और पूर्वी जर्मनी के बीच दिखाई देता रहा। किम जोंग के पिता भी साम्यवादी तानाशाही के प्रतीक रहे किन्तु बहुत ही कम उम्र में सत्ता संभालने वाले किम जोंग ने तो सनकीपन की पराकाष्ठा कर दी। अपने निकट रिश्तेदारों और सहयोगियों को जरा से शक पर बेरहमी से मरवा देने वाले किम जोंग जीते जी एक किंवदन्ती बनते जा रहे थे। अमेरिका को वे जिस जुबान में धमकाते थे उसे देखकर हिटलर की स्मृतियां सजीव हो जाती थीं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा परिणाम भुगतने की चेतावनी के जवाब में परमाणु बम पटकने की धमकी देने का दुस्साहस करने वाले किम जोंग की गतिविधियां विश्व युद्ध के आसार उत्पन्न करने लगी थीं। अचानक ट्रंप और किम के बीच वार्ता की खबरें आने लगीं। दोनों तरफ से कूटनीतिक प्रयास चले। हाल ही में किम जोंग ट्रेन से चीन जा पहुंचे। उसी दौरान उन्होंने परमाणु परीक्षण नामक पागलपन को रोकने की घोषणा भी कर डाली। यही नहीं तो वे परमाणु परीक्षण केंद्र को नष्ट करने के साथ ही अमेरिका और दक्षिण कोरिया को उसका निरीक्षण करने की अनुमति देने तक को राजी हो गए। ऐसा लगता है इस बदलाव के पीछे भी चीन की समझाईश ही है जिसका अमेरिका के साथ व्यापार को लेकर जबर्दस्त टकराव चल रहा है। ज्योंही चीन को लगा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और किम दोनों के सनकीपन में कहीं उसके हित प्रभावित न होने लगें त्योंही उसने स्थितियों को पूरी तरह उलट पुलट दिया। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अनौपचारिक शिखर वार्ता को भी चीन, उतर कोरिया और अमेरिका के बीच चल रहे तनाव से जोड़कर देखने वाले भी कम नहीं हैं। दक्षिण कोरिया के साथ अचानक मतभेद सुलझाकर शांति और सहयोग के जिस नए युग की शुरुवात किम जोंग और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रप्रमुख के बीच हुई वार्ता के बाद होती दिखाई दे रही है वह कोई साधारण बात नहीं हो सकती। किम जोंग का ये बयान कि अमेरिका यदि उनके देश पर हमला न करने का वचन दे तब वे सभी आण्विक हथियार नष्ट करने राजी हैं और उसी के साथ दक्षिण कोरिया के साथ पुश्तैनी तनाव खत्म कर शांति और सहयोग का दौर शुरू करने जैसी ख़बरें न सिर्फ  दक्षिण एशिया वरन पूरे विश्व के लिए राहत का पैगाम है। ट्रंप के साथ अपनी भेंट के पहले किम जोंग का ये नया अवतार अक्लमंदी का परिणाम है या भय का ये फिलहाल कह पाना तो कठिन है लेकिन यदि माहौल इसी तरह सौजन्यतापूर्ण बना रहे तो 21 वीं सदी के एशिया की सदी बनने का अनुमान यथार्थ में बदलते देर नहीं लगेगी। किम जोंग के बदलते रुख की वजह से कोरिया के एकीकरण की सम्भावना भले नहीं बने किन्तु उस क्षेत्र में मंडराने वाले युद्ध के बादल जरूर बिना बरसे लौट सकते हैं जो दोनों कोरिया और चीन के अलावा भारत सहित अन्य एशियाई देशों के लिए भी राहत का बड़ा सन्देश होगा। इस यू टर्न के पीछे किम जोंग की आर्थिक मजबूरियां भी हो सकती हैं क्योंकि लगातार परमाणु परीक्षण की वजह से लगे अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों से उनके देश की आर्थिक स्थिति गड़बड़ाने के साथ ही दक्षिण कोरिया की आर्थिक प्रगति और समृद्धि भविष्य में किम जोंग के प्रति नाराजगी की वजह भी बन सकती थी। ये भी सम्भव है कि चीन की यात्रा के दौरान किम जोंग को चीन की तरफ से वैसा आश्वासन नहीं मिला जैसा उन्हें अपेक्षित रहा होगा। जो भी हो एशिया का राजनयिक माहौल अचानक जिस तरह से बदलता दिखाई देने लगा है वह एक शुभ संकेत है। उल्लेखनीय है भारत और उत्तर कोरिया के बीच काफी व्यापार होता है। यद्यपि दक्षिण कोरिया और अमेरिका से रिश्ते सुधरने के बाद उत्तर कोरिया को भारत से होने वाले निर्यात पर विपरीत असर होगा लेकिन इसके दूरगामी परिणाम भारत के लिए लाभदायक ही रहेंगे। उस दृष्टि से ट्रंप और किम जोंग की मुलाकात विश्व राजनीति में बहुत बड़े बदलाव का आधार बन सकती है। 1972 में किसिंजर की चीन यात्रा और जर्मनी के एकीकरण सदृश ऐतिहासिक घटना की पुनरावृत्ति भले न हो लेकिन किम जोंग का दक्षिण कोरिया के साथ शांति वार्ता के साथ ही परमाणु परीक्षण रोकने और अमेरिका से आक्रमण न होने का आश्वासन मिलने पर आण्विक जखीरा नष्ट करने पर सहमति देने जैसी बातें यदि वास्तविकता में बदल सकीं तो पूरी दुनिया राहत की सांस ले सकेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 28 April 2018

चीन : स्वागत-सत्कार से खुशफहमी न पालें मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चौथी चीन यात्रा को लेकर जो खबरें आ रही हैं या प्रचारित की जा रहीं हैं  उनसे तो ऐसा प्रतीत होता है मानों भारत के साथ चीन के रिश्ते बहुत ही प्रगाढ़ हों। राष्ट्रपति शी चिनपिंग ने गर्मजोशी से सामान्य शिष्टाचार तोड़कर श्री मोदी का स्वागत करते हुए जिस तरह से दोस्ती की कसमें खाईं और भारत का गुणगान किया वह हालिया अतीत में उनके अपने और चीनी राजनयिकों के बयानों सहित वहां के सरकारी प्रचारतंत्र पर प्रसारित भारत विरोधी सामग्री के एकदम विपरीत है। डोकलाम विवाद में दोनों देशों की सेनाओं के आमने-सामने आकर खड़े हो जाने के कारण लम्बे समय तक जबरदस्त तनाव बना रहा। अनेक अवसर पर तो लगा कि युद्ध अवश्याम्भावी है किंतु इसकी नौबत नहीं आई। लेकिन चीन द्वारा उस इलाके में सड़कें बनाने का काम जारी है और अभी भी वह डोकलाम के बड़े इलाके पर कब्जा जमाने के मंसूबे पाले हुए है। भारतीय प्रधानमन्त्री की चीन यात्रा जिस माहौल में शुरू हुई उसे कूटनीतिक दृष्टि से अनुकूल नहीं माना जा रहा था। विदेश नीति के अनेक जानकारों के अनुसार चीन और अमेरिका के बीच आर्थिक मामलों को लेकर उत्पन्न जबर्दस्त तनाव की वजह से भी स्थितियां सही नहीं लग रही थीं। उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी एक दूसरे पर गुर्राने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहे थे। भारत चूंकि अमेरिका के काफी करीब माना जाता है इसलिए चीन भी मन ही मन भन्नाया हुआ था। जापान के साथ भी उसका झगड़ा जारी है जिसके साथ श्री मोदी ने काफी दोस्ताना बना लिया है। राष्ट्रपति चिनपिंग की महत्वाकांक्षी वन रोड वन बेल्ट परियोजना से दूरी बनाकर भी भारत ने चीन को चिढ़ाने का जो साहस दिखाया उसकी वजह से ही बाकी तनाव पैदा हुए। अरुणाचल और तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा को लेकर भी बीजिंग में बैठे हुक्मरान भारत के प्रति अपनी नाराजगी ज़ाहिर करते रहे हैं। बीते दिनों चिनपिंग ने ज्योंही अपने आजीवन राष्ट्रपति बने रहने सम्बन्धी व्यवस्था की त्योंही ये कयास लगने लगे थे कि वे भी माओत्से तुंग की तरह कठोर तानाशाह बनकर सामने आएँगे लेकिन श्री मोदी की मौजूदा दो दिवसीय यात्रा में जो माहौल दिखाई दिया वह चौंकाने वाला कहा जा सकता है। चिनपिंग जिस तरह से शक्तिशाली राष्ट्रप्रमुख बने उसके बाद पूरी दुनिया उनसे जो अपेक्षा करती थी उसके ठीक विपरीत उनका व्यवहार श्री मोदी की यात्रा के दौरान रहना भारतीय कूटनीति की वजनदारी मानी जा सकती है लेकिन चीन का इतिहास और चरित्र दोनों उसकी किसी भी सदाशयता पर आसानी से भरोसा करने की इजाजत नहीं देते और उस आधार पर श्री मोदी को भी बीजिंग में हुए भव्य स्वागत और मीठी-मीठी बातों से पिघलने से बचना होगा। चीन ने द्विपक्षीय सहयोग के तमाम विषय इस दौरान उठाते हुए भारत के साथ मिलकर विश्व रंगमंच पर साझा भूमिका निर्वहन करने की जो बात कही वह सुनने में तो अच्छी लगती है। लेकिन दोनों देशों के बीच विवाद के जो दो प्रमुख कारण हैं उन पर चिनपिंग ने न तो कोई खास आश्वासन दिया और न ही अपनी नीति में परिवर्तन का संकेत। इनमें पहला है सीमा विवाद और दूसरा पाकिस्तान को बीजिंग का स्थायी समर्थन। जब तक ये दोनों मुद्दे नहीं सुलझते तब तक चीन से कितनी भी अच्छी बातें हों उनसे लाभ नहीं होने वाला। नरेंद्र मोदी विदेश नीति के मोर्चे पर काफी सक्रिय और प्रभावशाली साबित हुए हैं। उनकी हालिया यूरोप यात्रा भी काफी सफल बताई गई। सभी विश्वशक्तियों से वे जिस आत्मविश्वास के साथ बात करते हैं उससे उनकी और भारत दोनों की बेहतर छवि बन सकी है लेकिन चीन सबसे अलग ही नहीं धूर्त भी है। चिनपिंग को भारत में श्री मोदी ने जो आदर सत्कार दिया उसका प्रतिफल बहुत आशाजनक नहीं मिला। पाकिस्तान को लेकर उनकी नीति यथावत है वहीं अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारत के महत्व को बढऩे से रोकने में भी वह कोई संकोच नहीं करता। ये सब देखते हुए श्री मोदी को बीजिंग में मिले स्वागत से किसी खुशफहमी में नहीं आना चाहिए क्योंकि धोखेबाजी चीन के डीएनए में है और उसकी विदेश नीति में सज्जनता का पूरी तरह अभाव है। चिनपिंग भले ही ऊपर से कितने भी आधुनिक और हँसमुख दिखाई देते हों लेकिन उनका दिल भी माओ युग की कुटिलताओं से भरा है। यदि नरेंद्र मोदी इसे नहीं समझते तो फिर उन्हें भी पछतावा झेलना पड़ेगा ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 27 April 2018

बहुमत की तानाशाही और न्यायपालिका की स्वछंदता दोनों अस्वीकार्य

सतही तौर पर देखें तो लगता है उत्तराखंड विधानसभा सम्बन्धी निर्णय की खुन्नस निकालते हुए मोदी सरकार ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के एम जोसेफ  को सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त करने सम्बन्धी कॉलेजियम की सिफारिश को वापिस लौटा दिया । उनके साथ भेजी गई एक अन्य सिफारिश मंजूर करते हुए केंद्र सरकार ने वरिष्ठ अधिवक्ता इंदु मल्होत्रा के नाम पर स्वीकृति प्रदान कर दी जिस पर 100 अधिवक्ता सर्वोच्च न्यायालय गए । उनका कहना था कि सरकार कॉलेजियम से भेजी गईं सिफारिशों पर अलग-अलग विचार नहीं कर सकती । उसे या तो दोनों स्वीकार करनी चाहिए थीं या दोनों नामंजूर । मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अधिवक्ताओं की दलील रद्द करते हुए सरकार के फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि एक साथ भेजी गईं कॉलेजियम की सिफारिशों पर वह अलग-अलग विचार कर सकती है । इस फैसले की जहां कांग्रेस एवं वाम दलों ने आलोचना की है वहीं याचिका लगाने वाले भाजपा विरोधी खेमे के अधिवक्ताओं को भी ये गले नहीं उतर रहा। आज इंदु मल्होत्रा को बतौर न्यायाधीश शपथ दिलाने का निर्णय भी कल ही हो गया था । कॉलेजियम प्रणाली के अनुसार यदि दोबारा श्री जोसेफ  के नाम की सिफारिश भेजी गई तब सरकार के पास उसे मंजूर करने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बच रहेगा लेकिन उसके लिए कोई समय सीमा नहीं होने से वह उसे असीमित समय तक ठन्डे बस्ते में डालकर रख सकती है । दूसरी तरफ  केंद्र सरकार  की तरफ  से कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आलोचनाओं का जवाब देते हुए जो बातें कहीं उनके अनुसार श्री जोसेफ  का नाम वरिष्ठता क्रम में 45 वें स्थान पर है वहीं उच्च न्यायालयों के 11 मुख्य न्यायाधीश भी उनसे वरिष्ठ हैं । केंद्र सरकार ने श्री जोसेफ  के नाम को मंजूरी नहीं देने के पीछे क्षेत्रीय असंतुलन को भी एक वजह बताया है । वे केरल के हैं जिसका प्रतिनिधित्व सर्वोच्च न्यायालय में है जबकि कुछ राज्यों से कोई न्यायाधीश नहीं है । कानून मंत्री ने उत्तराखंड सम्बन्धी निर्णय को आधार बनाने के आरोप का खंडन करते हुए कहा कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को रद्द करने वाले श्री जे एस केहर को भी मुख्य न्यायाधीश बनाने में सरकार ने कोई संकोच नहीं किया था । श्री प्रसाद ने उल्टे कांग्रेस पर अतीत में न्यायाधीशों की नियुक्ति में पक्षपात करने और वरिष्ठता को नजर अंदाज किये जाने का आरोप लगाया । इस विवाद को दो विभिन्न कोण से देखने पर अलग-अलग बातें मन में आती हैं। दोनों पक्षों के तर्क अपनी जगह सही हो सकते हैं लेकिन झगड़े की जड़ कॉलेजियम प्रणाली ही बनी हुई है। न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच नियंत्रण और सन्तुलन रूपी आदर्श व्यवस्था होनी चाहिए । दोनों में से किसी के भी द्वारा मर्यादाओं का उल्लंघन प्रजातन्त्र की नींव को कमजोर करता है । जब न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्बन्धी कानून संसद से पारित हो गया तब उसे सिरे से रद्द करने का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय इस बात का संकेत था कि वह अपने एकाधिकार को किसी भी स्थिति में छोडऩा नहीं चाहता । बीती जनवरी में सर्वोच्च न्यायालय के जिन चार न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के ऊपर आरोपों की झड़ी लगाते हुए न्यायपालिका के भीतर सब कुछ गड़बड़ होने की बातें सार्वजनिक कीं उनमें एक एतराज ये भी था कि महत्वपूर्ण प्रकरणों की सुनवाई हेतु आवंटन करते समय मुख्य न्यायाधीश वरिष्ठ न्यायाधीशों की उपेक्षा करते हैं। बाद में भी रोस्टर तय करने के मुख्य न्यायाधीश के अधिकार पर उंगलियां उठाई जाती रहीं । इससे ये साफ  होता है कि वरिष्ठता क्रम का उल्लंघन उन न्यायाधीशों को भी नागवार गुजरता है जो मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध खुलकर मैदान में उतर आए । उस आधार पर अगर केंद्र सरकार ने वरिष्ठता क्रम को मुद्दा बनाकर श्री जोसेफ  सम्बन्धी  कॉलेजियम की सिफारिश को लौटा दिया तो वह अपनी जगह सही लगती है । लेकिन कानून मंत्री की दलील को भी आंख मूंदकर स्वीकार नहीं किया जा सकता। बेहतर हो न्यायपालिका को  लेकर विभिन्न स्तरों और मंचों पर चल रही फुटकर-फुटकर बहस को एक स्थान पर केंद्रित करते हुए संविधान सभा की तर्ज पर संसद का विशेष संयुक्त अधिवेशन बुलाकर इस पर सार्थक विमर्श किया जाए। क्योंकि संसदीय प्रणाली का अर्थ यदि बहुमत की तानाशाही नहीं है तो न्यायपालिका की स्वच्छन्दता भी स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। 45 वरिष्ठ न्यायाधीशों की उपेक्षा करते हुए किसी नाम की अनुशंसा करने का औचित्य कॉलेजियम को भी साबित करना चाहिए । उच्च न्यायालयों में पदस्थ 11 मुख्य न्यायाधीशों को लांघकर श्री जोसेफ  को ही सर्वोच्च न्यायालय क्यों भेजा जाए इस सवाल का सन्तोषजनक उत्तर दिए बिना कॉलेजियम यदि दोबारा उनके नाम की अनुशंसा भेजता है और उससे असंतुष्ट होने पर केंद्र सरकार उसे दबाकर बैठी रहती है तो वह स्थिति भी अच्छी नहीं होगी । ये सब देखते हुए उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में  न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्बन्धी कोई पारदर्शी व्यवस्था कायम करना सर्वोच्च प्राथमिकता है । न्यायपालिका के प्रति देश भर में चाहे-अनचाहे सम्मान रहा है । लेकिन जब उसी के भीतर से उस पर सवाल उठ रहे हों तब विधायिका और कार्यपालिका हाथ पर हाथ धरे बैठी रहें ये किसी भी लिहाज से देशहित में नहीं होगा । जिस तरह न्याय में विलम्ब को न्याय से इंकार कहा जाता है ठीक वैसे ही इस तरह के विवादों को टालते रहना बीमारी को लाइलाज बनाने जैसा होगा।
-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 26 April 2018

कलियुगी भगवानों से सावधानी जरूरी


लाखों ही नहीं करोड़ों लोगों के आराध्य आसाराम (बापू) को जो सजा मिली उस पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। वृद्धावस्था के बाद भी उन्हें ताउम्र जेल में रखने के अदालती फैसले से असहमति रखने वाले भी गिने चुने होंगे। आसाराम के प्रति अखंड आस्था रखने वाले उनके आध्यात्मिक अनुयायी भी समझ नहीं पा रहे हैं कि किस तरह से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें क्योंकि उन पर एक बालिका के साथ दुराचार का आरोप प्रमाणित हुआ है। आसाराम के साथ उस दुष्कर्म में सहयोगी रहे अन्य लोगों को भी कड़ी सजा अदालत ने दी। हालांकि अभी उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में अपील का अवसर उन सभी के पास है लेकिन जिस तरह का प्रकरण है उसे देखते हुए कोई राहत शायद ही मिल सके। ऐसे ही कुछ और मामले दूसरी जगह विचाराधीन हैं जिनमें आसाराम और उनके बेटे नारायण साईं को दंडित किया जा सकता है। आसाराम की उम्र को देखते हुए ये सोचना गलत नहीं होगा कि शायद जेल की दीवारों के पीछे ही उनका जीवन कट जाए। लेकिन उनको मिली सजा उतना बड़ा मुद्दा नहीं जितना ये कि आखिर उन जैसे गृहस्थ व्यक्ति आध्यात्म के दुनिया में इतने प्रतिष्ठित कैसे हो गए? आसाराम का पूरा का पूरा परिवार एक आर्थिक साम्राज्य का मालिक बन बैठा। देश में उनकी कुल सम्पत्तियों की कीमत अरबों-खरबों में होगी। आसाराम पहले व्यक्ति नहीं हैं जो इस तरह के पाखंड के जरिये कुकृत्य करते रहे। इसके पहले राम-रहीम और कुछ अन्य  व्यक्ति भी आध्यात्म की आड़ में अवैध धंधे करते हुए पकड़े जा चुके हैं। सभी की कार्यप्रणाली करीब-करीब एक सी थी। लोगों की भावनाओं का शोषण करते हुए अपनी वासनाएं पूरी करने का ये तरीका जिस तेजी से बढ़ा उसके लिए केवल अशिक्षा और अंधविश्वास को दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अच्छे -अच्छे सुशिक्षित और संपन्न लोग भी जिस तरह से इन फर्जी भगवानों के मोहपाश में फंस जाते हैं वह देखकर आश्चर्य होता है। प्रशासनिक अधिकारी और न्यायाधीशों तक को इनके इर्द-गिर्द मंडराते देखा जा सकता है। इनके आभामंडल के विस्तार में सबसे बड़े सहायक बनते हैं राजनेता। चूंकि इन बाबाओं के पास अनुयायियों की बड़ी फौज होती है लिहाजा हर राजनीतिक दल को लगता है कि इन आध्यात्मिक हस्तियों को खुश करने से इनके चेलों का वोट थोक के भाव कबाड़ लिया जा सकता है। हाल के कुछ वर्षों में साधु-सन्त खुद  होकर भी सियासत में रुचि लेने लगे हैं। हाल ही में मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कई बाबाओं को राज्यमंत्री का दर्जा देकर अपनी भद्द पिटवाई। इसी तरह हरियाणा और पंजाब के विधान सभा चुनाव में बाबा राम रहीम का समर्थन लेने दोनों राष्ट्रीय दलों के नेता मत्था टेकते रहे। जब भाजपा ये करती थी तब बाकी पार्टियाँ उसका मजाक उड़ाया करती थीं लेकिन गुजरात के चुनाव में राहुल गांधी भी मंदिरों के चक्कर काटते देखे गए और अब कर्नाटक में राहुल तथा अमित शाह वहां के मठों में जा-जाकर वोटों का प्रसाद मांग रहे हैं। एक समय था आसाराम के आगे-पीछे भी नेतागण मंडराते दिखाई देते थे। उनके पकड़े जाने के बाद उमा भारती और सुब्रमण्यम स्वामी ने उनके पक्ष में बयान भी दिए थे। हिन्दू बाबाओं के अलावा भी दुष्कर्म एवं इसी तरह के अपराधों में अन्य धर्मों से जुड़े धर्माचार्य भी लिप्त पाए जा रहे हैं। मदरसों में यौन अपराध के साथ ही ईसाई नन भी शारीरिक शोषण की शिकार हो रही हैं। इस तरह की घटनाओं से आध्यात्मिक विभूतियों के प्रति आस्था और सम्मान तो कम हो ही रहा है धर्म के बारे में भी विपरीत धारणाएं बनने लगी हैं। धर्म और साधु-संत पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुके हैं ये कहना तो गलत होगा लेकिन कलियुग की जो कल्पना पूर्वज कर गए वह काफी हद तक सही साबित होती लग रही है। आसाराम के पहले भी संतों के भेष में कुकर्म करने वालों का पर्दाफाश हो चुका है लेकिन उसके बाद भी लोगों की आंखें नहीं खुलतीं तो उसके लिए राजनीतिक नेता और समाज के वे प्रभावशाली शख्स जिम्मेदार हैं जो इन बाबाओं को सिर पर बिठाकर भगवान बना देते हैं। समय आ गया है जब इन फर्जी भगवानों से धर्म और आध्यात्म को आज़ाद करवाया जावे। लेकिन एक दिक्कत ये भी तो है कि जिन धर्माचार्यों के जिम्मे इस बीमारी को ठीक करने का जिम्मा है वे खुद भी इसे प्रश्रय दे रहे हैं। महामंडलेश्वर और जगद्गुरु की पदवी खरीदी जाने लगी है जिसका प्रमाण राधे मां जैसे लोग हैं। राम रहीम और आसाराम को सजा होने से धर्म के नाम पर फर्जीवाड़ा और अनैतिक काम रुक जाएंगे ये सोचना गलत होगा क्योंकि अंधविश्वास को फैलाने में समाज के जिम्मेदार तबके के साथ ही  समाचार माध्यमों का भी हाथ रहता है। बेहतर यही होगा कि राजनेता इन बाबाओं की चरणवंदना बन्द कर दें क्योंकि राजनीति की देखासीखी अन्य वर्ग भी अन्धभक्ति के जाल में फंसते हैं। आज भी देश में अनेक संत और धर्म स्थान हैं जहां पूरी तरह से सात्विकता है लेकिन आज का इंसान अच्छे बुरे में भेद करने की बजाय जल्दबाजी में किसी का भी अनुसरण करने लग जाता है। जिसका लाभ राम रहीम और आसाराम जैसे शातिर लोग उठा लेते हैं। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि उनको बिगाडऩे में भक्तों की भूमिका भी रहती है जो बिना कुछ समझे अपने घर की बच्चियों और महिलाओं को इनके आश्रम में जाने की छूट देते हैं। कुल मिलाकर पेट्रोल और आग को दूर  रखने जैसी सावधानी समाज को बरतनी होगी वरना ये घिनौना कारोबार यूँ ही चलता रहेगा ।

-रवीन्द्र वाजपेयी