Monday 23 April 2018

महाभियोग : ये तो होना ही था


जैसी संभावना थी वही हुआ। उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कांग्रेस द्वारा देश के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध राज्यसभा में प्रस्तुत महाभियोग के नोटिस को अमान्य कर दिया है। श्री नायडू ने अनेक संविधान एवं संसदीय प्रक्रिया के विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा  के बाद उक्त निर्णय लिया। गत दिवस अपनी आंध्र यात्रा बीच में छोड़कर जब वे दिल्ली लौट थे तभी ये आभास हो गया था कि आज वे कोई न कोई  फैसला कर ही लेंगे। इस जल्दबाजी की एक वजह रविवार को कांग्रेस द्वारा की गई पत्रकार वार्ता में श्री मिश्रा से सर्वोच्च न्यायालय में प्रकरणों की सुनवाई रोक देने की मांग भी थी। महाभियोग नोटिस स्वीकार होने की स्थिति में मुख्य न्यायाधीश द्वारा अदालती कार्रवाई में भाग लेने पर वैधानिक से ज्यादा नैतिक संकट उत्पन्न हो जाता। इसीलिए उपराष्ट्रपति ने और इंतज़ार किया बिना कांग्रेस के नोटिस को आधारहीन मानते हुए विचार करने योग्य नहीं समझा। जिन लोगों से श्री नायडू ने सलाह ली उनके अलावा सर्वोच्च न्यायालय के अनेक पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने भी महाभियोग के औचित्य पर प्रश्न उठाते हुए उसे अनावश्यक और अनुचित बताया था। विशेषज्ञों की सलाह और पूर्व न्यायाधीशों की प्रतिक्रियाओं से भी श्री नायडू को निर्णय लेने में सहूलियत हुई। यद्यपि अभी भी पूर्व लोकसभा अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता सोमनाथ चटर्जी जैसे कुछ लोगों ने उपराष्ट्रपति के फैसले को जल्दबाजी में उठाया कदम बताकर उसकी आलोचना की। ऐसा करने वालों में कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य और दिग्गज अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी भी हैं जिन्होंने महाभियोग के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर नहीं किये थे। वैसे कांग्रेस को श्री नायडू से इसी तरह के फैसले की उम्मीद ही रही होगी। उसे ये भी पता था कि महाभियोग किसी भी स्थिति में राज्यसभा द्वारा पारित किए जाने की संभावना नहीं है क्योंकि उच्च सदन में मौजूद विपक्षी दलों में ही इसे लेकर एक राय नहीं बन सकी। ये बात पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है कि  महाभियोग का असली उद्देश्य श्री मिश्रा को उन महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई से अलग रखना था जिन्हें लेकर भाजपा विरोधी खेमा काफी भयभीत हो चला था। अब अगले कदम के तौर पर कांग्रेस सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकती है लेकिन वहाँ भी पीठ का गठन तो श्री मिश्रा के अधिकार क्षेत्र में ही होगा जिसे लेकर कांग्रेस बवाल मचाए बिना नहीं रहेगी। बहरहाल महाभियोग प्रस्ताव के जरिये कांग्रेस एक वर्ग विशेष को अपनी बात समझाने में भले ही सफल हो गई हो लेकिन उसके इस पैंतरे के पीछे की राजनीति भी उजागर हुए बिना नहीं रह सकी। यदि देश भर के विधिवेत्ता और सेवानिवृत्त न्यायाधीशगण एक स्वर में महाभियोग को सही और आवश्यक बता देते तब शायद उपराष्ट्रपति भी दबाव में रहे होते लेकिन कांग्रेस ने कुछ गलतियां करते हुए अपना प्रकरण कमजोर कर लिया। इनमें सबसे पहले उपराष्ट्रपति को सौंपे प्रस्ताव के ब्यौरे को सार्वजनिक करना रहा । खुद श्री नायडू ने इस पर अप्रसन्नता व्यक्त कर दी थी। इसी तरह महाभियोग प्रस्ताव विचारार्थ मंजूर होने के पहले ही मुख्य न्यायाधीश को अदालत में सुनवाई करने से रोकने की मांग से भी ये लगा कि कांग्रेस जानती थी कि उसके प्रस्ताव में कोई दमखम नहीं है। इसलिए उसने जितना हो सके उतना सियासी लाभ लेने की कोशिश की। लेकिन उपराष्ट्रपति ने उसे अधिक अवसर नहीं दिया और बिना समय गंवाए विधि विशेषज्ञों की सलाह के आधार पर महाभियोग प्रस्ताव को खारिज कर दिया। मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध चार न्यायाधीशों द्वारा चलाई गई मुहिम के पीछे कोई राजनीतिक चाल थी ये बिना ठोस प्रमाण के कहना अनुचित होगा किन्तु उनकी बगावतनुमा कोशिश को कांग्रेस ने लपकते हुए उसको राजनीतिक रंग दे दिया। ऐसा प्रचारित किया गया मानो देश की न्यायिक व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध पुराने मामले उखाड़कर उनकी छवि धूमिल करने का भी अभियान चलाया गया। खैर, उपराष्ट्रपति के फैसले के बाद भले ही मामला सर्वोच्च न्यायालय में अपील के रूप में ले जाया जाए लेकिन उसका नूर उतर चुका है। बागी बनकर सामने आए चार न्यायाधीशों में वरिष्ठतम श्री चेलमेश्वर की सेवानिवृत्ति को महीना भर बचा है। श्री मिश्रा भी अक्टूबर में निवृत्त हो जाएंगे। संसद का मानसून सत्र भी अभी दूर है। कर्नाटक के विधानसभा चुनाव के परिणाम मई के दूसरे हफ्ते में आ ही जायेंगे जिसके बाद राष्ट्रीय राजनीति की दिशा नए सिरे से शुरू होगी  इस आधार पर देखें तो कांग्रेस के लिए अफसोस की बात ये है कि जोरशोर से उठाए इस मुद्दे को वह ज्यादा लम्बा नहीं खींच सकी। इसकी एक वजह ये भी रही कि ये विषय न्यायपालिका के भीतर रहता तब उसकी गम्भीरता बनी रह सकती थी लेकिन राजनीति में आते ही उसकी अहमियत खत्म होती गई। कांग्रेस की इस जल्दबाजी ने उन चार न्यायाधीशों की पहल को भी नुकसान पहुंचा दिया और उन पर भी भाजपा विरोधी होने का आरोप लगने लगा। कुल मिलाकर फिलहाल तो कांग्रेस की मेहनत पर पानी फिर गया है। उसने ऐसा माहौल बना दिया था मानो महाभियोग पेश होते ही मुख्य न्यायाधीश इस्तीफा देकर खुद चलते बनेंगे जैसा पिछले अधिकतर महाभियोगों में हुआ लेकिन श्री मिश्रा विचलित नहीं हुए। वेंकैया नायडू भी संसदीय प्रक्रिया के अच्छे जानकार हैं। इसलिए वे भी दबाव में नहीं आये। उनके निर्णय के बाद बेहतर होगा कांग्रेस और उसके सहयोगी दल न्यायपालिका में सुधार लाने के लिए सकारात्मक सुझावों के साथ सामने आएं तो देश भी उन्हें गम्भीरता से लेगा लेकिन अभी भी यदि वह इसे घसीटती रही तब ये आरोप और मज़बूत हो जाएगा कि वह मुद्दा विहीन होकर रह गई है। महाभियोग मामले में उपराष्ट्रपति का फैसला जिन विशेषज्ञों की सलाह पर लिया गया उनकी प्रामाणिकता पर किसी को कोई संदेह नहीं है इसलिए इस निर्णय को स्वीकार करना ही सही होगा क्योंकि न्यायपालिका की छवि खराब करने से समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था कलंकित होती है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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