Thursday 12 April 2018

वरना मुख्य का मतलब ही क्या ....


जिस पदनाम के साथ प्रधान या मुख्य जुड़ा हो उसे साधारण मानना ही औचित्यहीन है। गत दिवस एक याचिका का निराकरण करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीश वाली पीठ ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि मुख्य न्यायाधीश महज एक पद न होकर अपने आप में एक संस्था हैं जो शेष न्यायाधीशों के प्रधान हैं और उन्हें  पीठ के गठन का पूरा अधिकार है। यद्यपि वर्तमान मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा  स्वयं निर्णय देने वाली पीठ में थे किंतु अन्य दोनों न्यायाधीशों ने भी मुख्य न्यायाधीश की संवैधानिक सर्वोच्चता तथा संस्थागत सम्मान की पुष्टि कर दी। कुछ माह पूर्व चार न्यायाधीशों द्वारा सार्वजनिक तौर पर श्री मिश्रा की कार्यप्रणाली पर उंगली उठाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में पारदर्शिता की कमी को लेकर पूरे देश में शोर मचा दिया गया। पीठ के गठन और न्यायाधीशों को  सुनवाई हेतु मामलों के आवंटन में मुख्य न्यायाधीश के विशेष अधिकार को भी चुनौती दी गई। यहां तक कहा गया कि मुख्य न्यायाधीश सर्वशक्तिमान नहीं हैं तथा प्रशासनिक कार्यों में उन्हें सभी न्यायाधीशों से सलाह करनी चाहिए। जिन चार न्यायाधीशों ने उक्त विवाद खड़े किए उनकी नाराजगी कुछ महत्वपूर्ण प्रकरण उनसे कनिष्ठ न्यायाधीशों को सुनवाई हेतु आवंटित किए जाने पर थी। उसके साथ ही अन्य मुद्दे छेड़कर ऐसा माहौल खड़ा कर दिया गया मानों सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश  की स्वेच्छाचारिता के चलते न्याय व्यवस्था चौपट होकर रह गई। बात और बढ़ी तो मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध संसद में महाभियोग लाने की घोषणा भी कतिपय कांग्रेस सांसदों द्वारा की गई। कुल मिलाकर समूचा विवाद श्री मिश्रा और चार अन्य न्यायाधीशों के बीच अहं की लड़ाई का रूप ले चुका है। जिस तरह से राजनीतिक दल उसमें कूदे उसकी वजह से मुख्य न्यायाधीश के  विरुद्ध खुलकर सामने आए चारों न्यायाधीशों पर भी सवाल उठने लगे। गत दिवस आए फैसले के बाद मुख्य न्यायाधीश की सर्वोच्चता को लेकर मचाये जा रहे विवाद समाप्त हो जाएंगे ये मान लेना गलत होगा क्योंकि इस मसले की तह में न तो सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा की चिंता है और न ही पारदर्शिता की। पूरा विवाद कुछ विशेष प्रकरणों की सुनवाई से जुड़ा हुआ है वहीं वरिष्ठता और कनिष्ठता को लेकर चल रही खींचातानी भी एक वजह है। कतिपय न्यायाधीश श्रेष्ठता के भाव से भी ग्रसित दिखाई देते हैं। सार ये है कि सर्वोच्च हो या उच्च न्यायालय सब में राजनीति का वायरस घुस गया है। इसीलिए अब न्यायाधीशों की चयन प्रणाली में समयानुकूल सुधार एवं परिवर्तन किया जाना चाहिए। न्यायपालिका स्वतन्त्र हो ये सभी चाहते हैं किंतु उसकी स्वच्छन्दता और निरंकुशता पूरी तरह असहनीय है। मुख्य न्यायाधीश की सर्वोच्चता यदि न रहे तब उनके होने न होने का अर्थ ही क्या रह जाएगा?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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