Saturday 7 April 2018

जो देश को चलाती है वह खुद नहीं चलती !

आखिरकार संसद का बजट सत्र बिना कुछ खास किये ही समाप्त हो गया। दो चरणों में चले इस सत्र में बजट पारित तो हो गया किन्तु उस पर कोई चर्चा नहीं हुई। हंगामे के बीच ध्वनि मत से उसे मंजूरी मिल गई। ऐसा ही राष्ट्रपति के अभिभाषण को लेकर हुआ। यहां तक कि उस पर प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान पूरे समय टीका-टिप्पणी चलती रही। आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर सरकार और एनडीए छोडऩे वाली तेलुगू देशम पार्टी के साथ कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों ने अपने-अपने मुद्दों पर दबाव बनाने के लिए संसद को औजार बनाया और बजट सत्र सरीखे महत्वपूर्ण अवसर को एक तरह से बर्बाद कर दिया। सत्र के दूसरे चरण में कार्रवाई नहीं चलने की वजह से एनडीए सांसदों द्वारा वेतन-भत्ते नहीं लेने का निर्णय तो अच्छा कदम है लेकिन मात्र इतने से ही उस नुकसान की भरपाई नहीं की जा सकती जो संसद को ठप्प रखने से हो गया। कांग्रेस और भाजपा दोनों एक दूसरे को इसके लिए जिम्मेदार बता रहे हैं , वहीं क्षेत्रीय दलों के अपने तर्क हैं लेकिन दोषारोपण के इस चिरपरिचित खेल को देखते-देखते अब लोग त्रस्त हो चुके हैं। सही मायनों में मुद्दा संसद के अधिवेशनों पर खर्च होने वाले करोड़ों रुपये से कहीं अधिक सांसदों में बढ़ता जा रहा दायित्वबोध का अभाव है। बात-बात में संसद परिसर के भीतर बनी गांधी जी की प्रतिमा के सामने बैठकर फोटो खिंचवाने वाले सांसदों को इस बात पर तनिक भी लज्जा नहीं आती कि संसद को जाम करने का कृत्य राष्ट्रपिता का अपमान होने के साथ ही राष्ट्रीय अपराध भी है। बजट सत्र सबसे महत्वपूर्ण होता है। इसीलिए उसकी अवधि भी सबसे अधिक रखी जाती है। बीते वर्ष की आर्थिक समीक्षा के साथ ही आगामी वर्ष की समूची योजना इसी सत्र में तय होती है। विपक्ष के पास इस दौरान अपनी बात रखने का समुचित अवसर होता है किंतु देश का दुर्भाग्य है कि वह भी क्षणिक राजनीतिक लाभ लेने के फेर में अपने संसदीय कर्तव्य से विमुख हो जाता है। तेलुगु देशम ने आंध्र को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर सदन न चलने देने की जिद पकड़ ली और अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस भेज दिया। कांग्रेस को लगा कि केंद्र सरकार को घेरने का ये अच्छा अवसर है तो उसने भी उस मुहिम को अप्रत्यक्ष समर्थन दे दिया। यदि वह कह देती कि अविश्वास प्रस्ताव पर समर्थन तभी मिलेगा जब तेलगु देशम सदन को सुचारू रूप से चलने दे तब संभवत: हंगामा रुक जाता लेकिन कांग्रेस ने भी बजाय राष्ट्रीय पार्टी की भूमिका का निर्वहन करने के क्षेत्रीय दलों जैसा आचरण किया। गलती भाजपा की तरफ  से भी कम नहीं हुई। एनडीए में रहकर नाराज चल रही शिवसेना  ने भी सदन को अवरुद्ध करने में विपक्ष का साथ दिया जिसे समझाना सत्ता पक्ष के प्रबंधकों का काम था, जिसमें वे असफल रहे। अक्सर ये मांग उठती है कि सदन न  चलने की स्थिति में सांसदों को वेतन-भत्ते न दिए जाएं लेकिन एनडीए सांसदों द्वारा 23 दिनों के वेतन-भत्ते न लिए जाने का निर्णय भी लादा हुआ लगता है। भले ही सांसदों ने भयवश मुंह न खोला हो किन्तु डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी जैसे मुंहफट राज्यसभा सदस्य ने खुलकर कह दिया कि संसद नहीं चलने में मेरा क्या कसूर क्योंकि मैं तो रोज समय पर सदन में पहुँचा था। आपसी बातचीत में एनडीए तो क्या भाजपा तक के अनेक सांसद संसदीय कार्यमंत्री के उक्त ऐलान से असहमत दिखे। विपक्ष में तो किसी ने भी वेतन-भत्ते त्यागने की सौजन्यता नहीं बरती। अंदरखानों की खबर ये है कि सत्ता पक्ष हंगामों को रोकने के लिए कोई विधायी बंदिश लगाने पर विचार कर रहा है जिसका खुलासा निकट भविष्य में हो सकता है। यदि ऐसा होता है तो उस कदम को जनता का भरपूर समर्थन मिलेगा क्योंकि जनमानस में संसद को सब्जीमण्डी से भी बदतर बनाने के प्रयासों को लेकर जबरदस्त गुस्सा है। जिसे अनुचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जिस संस्था के ऊपर देश को संचालित करने की संवैधानिक जिम्मेदारी हो यदि उसे ही चलने से रोक दिया जाए तो फिर लोकतंत्र पूरी तरह विकलांगता का शिकार होकर रह जाएगा। संविधान की शपथ लेकर सदन में  बैठने वाले सांसद कोई दिहाड़ी मजदूर नहीं हैं जिन्हें काम न करने पर मेहनताने से वंचित कर फुर्सत पा ली जावे। दरअसल सदन बाधित करने को दण्डनीय अपराध बनाना चाहिए। एक-दो बार चेतावनी दिए जाने के बाद भी जो सदस्य उदण्डता की पराकाष्ठा पर उतारु हो जाएं उनकी सदस्यता समाप्त करने जैसा प्रावधान जब तक नहीं बनाया जाता तब तक संसद का सम्मान इसी तरह मिट्टी में मिलाने का दुस्साहस होता रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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