Wednesday 11 April 2018

दो बंद : क्या खोया क्या पाया


एक बंद और हो गया। दलितों पर अत्याचार करने वालों पर कानूनी कार्रवाई को थोड़ा सा व्यावहारिक बनाने की जो कोशिश हुई उसे लेकर दलित राजनीति के  ठेकेदारों ने बवाल मचा दिया। इनमें वे मायावती भी शरीक हैं जिनकी सरकार उप्र में वैसा ही बदलाव 2007 में ही कर चुकी थी। गत 2 अप्रैल को दलित आक्रोश भारत बन्द के रूप में सामने आया तो गत दिवस उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप सवर्ण जातियों ने आरक्षण का विरोध करने हेतु भारत बंद का आयोजन कर डाला। दोनों बन्द अपने-अपने ढंग से प्रभावशाली रहे। फर्क केवल इतना था कि दलितों के आंदोलन में तो नेतृत्व नजर आया तथा जिन लोगों ने बाहर से समर्थन दिया वे भी  खुलकर सामने आ गए किन्तु कहा जा रहा है गत दिवस आयोजित बन्द सोशल मीडिया के नेतृत्व में हुआ जिस वजह से किसी व्यक्ति अथवा संगठन को उसके लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि आरक्षण प्राप्त दलित , आदिवासी और पिछड़ा वर्ग में शामिल अन्य जातियों के तो राजनीतिक संरक्षक स्पष्ट हैं लेकिन सवर्ण कही जाने वाली जातियों का कोई माई बाप नहीं होने से उनके जवाबी बन्द का शासन-प्रशासन पर कोई दूरगामी प्रभाव पड़ेगा ऐसा नहीं लगता। दलितों की नाराजगी दूर करने की कोशिश में तो नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी सहित हर पार्टी  सिर के बल खड़ी होने सहर्ष राजी दिखाई देती है लेकिन व्यक्तिगत तौर पर कोई कुछ भी कहे किन्तु कोई नेता, लेखक, पत्रकार अथवा सामाजिक कार्यकर्ता आरक्षण की मौजूदा  व्यवस्था को लेकर सवर्ण जातियों में व्याप्त नाराजगी को दूर करने के लिए आगे नहीं आता। ये सिद्ध करता है कि सवर्ण मतदाताओं को घर की मुर्गी दाल बराबर मान लिया गया है। राजनीतिक दलों में सक्रिय सवर्ण नेता और कार्यकर्ता भी मन ही मन कितना भी बुदबुदाते रहें किन्तु आरक्षण के विरुद्ध जुबान खोलने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ती। इसकी वजह ये है कि अलग-अलग जातियों में बंटे होने के बाद भी दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियां आरक्षण से छेड़छाड़ के सवाल पर बाहें चढ़ाकर खड़ी हो जाती हैं वहीं संगठित नहीं होने से सवर्ण जातियों की आवाज में बुलंदी नहीं महसूस होती। दलित समाज के अनेक भाजपाई सांसदों ने बीते कुछ दिनों में सीधे प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपने समुदाय की नाराजगी से अवगत करा दिया किन्तु सवर्ण जातियों में से एक भी नेता ऐसा साहस नहीं कर सका। मप्र उच्च न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण के विरुद्ध फैसला सुनाया तो शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने बिना समय गंवाए सर्वोच्च न्यायालय से स्थगन आदेश हासिल कर लिया जिससे उस पर आरक्षण विरोधी होने का आरोप न लग जावे किन्तु उच्च जातियों के जो भाजपाई विधायक और मंत्री हैं उनमें से कोई भी उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने के विरोध में एक शब्द नहीं बोला। ये स्थिति केवल मप्र की हो ऐसा नहीं है। प्रादेशिक और केंद्रीय दोनों स्तरों पर कमोबेश यही हालात बने हुए हैं जिसकी वजह से आरक्षित और गैर आरक्षित समुदाय के बीच का सौहाद्र्र और सामंजस्य खत्म होने की तरफ  बढ़ चला है। गांधी जी के अछूतोद्धार से चलते-चलते आरक्षण के जरिये सामाजिक न्याय की जो व्यवस्थाएं की गईं उनका लाभ कितना हुआ ये तो गहन विश्लेषण का विषय है ही लेकिन इससे समाज के दूसरे वर्ग में जो कुंठा बढ़ रही है उसका भी अध्ययन होना चाहिए।  गत दिवस हुआ बंद इस लिहाज से चिंताजनक था क्योंकि उसका कोई घोषित या प्रकट नेता नहीं था। ऐसे में दिशाहीनता का ख़तरा बढ़ता है जिसकी परिणिति अक्सर अराजकता के तौर पर नजर आती है। तकरीबन एक सप्ताह के अंतर पर आयोजित दो भारत बंद से किसे क्या हासिल हुआ तो इस सवाल के उत्तर में कहा जा सकता है कि तुम्हारी भी जै जै, हमारी भी जै जै न तुम हारे न हम हारे वाली बात ही होकर रह गई किन्तु राष्ट्रीय जीवन में इस तरह के वाकये 20 ओवरों के क्रिकेट मैच सरीखे नहीं होते जिन्हें कुछ देर बाद भुला दिया जावे। इस विषय में गंभीरता से चिंता और चिंतन दोनों करने का समय आ गया है। सवर्ण युवाओं में जो गुस्सा है उसे निरर्थक नहीं माना जा सकता। अतीत में हुई सामाजिक गलतियों को सुधारने का ये अर्थ कतई नहीं होता कि जिसने अन्याय किया उसके वंशजों पर अन्याय किया जावे। जाति के नाम पर शोषण और अत्याचार के लिए सभ्य और स्वतंत्र समाज में कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। छुआछूत जैसी बात भी आज के दौर में गले नहीं उतरती। सामाजिक और आर्थिक उन्नयन हेतु  वंचित वर्ग को प्रोत्साहन और संरक्षण मिले ये भी आवश्यक है किंतु किसी भी चीज का अतिरेक बुरा होता है। सामाजिक न्याय का अर्थ सभी के किये समान अवसर और भेदभाव रहित व्यवस्था से है। आरक्षित वर्ग को मिल रही सुविधाएं और विशेष अधिकार अपनी जगह सही हैं बशर्ते उससे सामाजिक सद्भाव और संतुलन न बिगड़े। उसी तरह सवर्ण जातियों को भी ये सोचने की जरूरत है कि वे अब उस वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाजिक व्यवस्था को पुनस्र्थापित नहीं कर सकतीं जो भारतीय समाज में हजारों साल तक चलते हुए अंत में जाति के रूप में बदल गई। छुआछूत मिटाने के अलावा और भी ऐसे समाज सुधार के कार्य हुए जिन्होंने हिन्दू समाज की मान्यताओं और परंपराओं को बदल दिया। आर्य समाज की स्थापना भी उनमें से एक थी। देश के लगभग सभी हिस्सों में अनेक ऐसी विभूतियाँ हुईं जिन्होंने अपने समकालीन समाज का प्रतिरोध झेलते हुए भी सुधारवादी आंदोलन चलाए और सफलता प्राप्त की। धीरे-धीरे ही सही किन्तु समाज ने उन्हें आत्मसात भी किया किन्तु कड़वा सच ये है कि वे सभी गैर राजनीतिक स्तर पर हुए प्रयास थे जिनमें गांधी जी द्वारा प्रारम्भ अछूतोद्धार का अभियान भी था। 20 वीं सदी के उस भारतीय समाज में भी यदि उसका विशेष विरोध नहीं नजर आया तो उसकी वजह केवल ये रही कि बापू का मुख्य उद्देश्य आज़ादी की लड़ाई में पूरे समाज को एकजुट होकर लडऩे के लिए तैयार करना था जो जातियों में खड़ी दीवारों के चलते नामुमकिन था। उस मुहिम का कितना गहरा असर हुआ ये सर्वविदित है। उसी वजह से आज़ादी के बाद जब अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण नामक सुविधा संविधान के जरिये दी गई तब शायद ही किसी ने उसका विरोध किया। लेकिन शनै: शनै: वह व्यवस्था राजनीतिक नफे-नुकसान में उलझकर रह गई जिसकी वजह से सामाजिक समरसता ने विद्वेष का रूप ले लिया। रही-सही कसर पिछड़े वर्ग की जातियों को दिए आरक्षण ने पूरी कर दी। इन दो भारत बंद से एक बात तो स्पष्ट है कि आरक्षण हटाने की कोई संभावना दूरदराज तक नजऱ नहीं आती। न ही उसमें संशोधन की मानसिकता किसी भी स्तर पर है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि आजादी के बाद आरक्षण सामाजिक तौर पर जरूरी था वहीं अब इसे जारी रखना राजनीतिक मज़बूरी बन गई है। सवर्ण समाज को ये बात समझ लेनी चाहिए कि वे जब तक अपने बिखरे वोट बैंक को सहेजकर एक दबाव समूह नहीं बनेंगे तब तक उनके अपने नेता भी उन्हें भाव नहीं देने वाले। गत दिवस हुए बंद में किसी भी दल के नेता की गैरमौजूदगी काफी कुछ कह गई। उस दृष्टि से देखें तो आरक्षण की स्थिति में किसी भी तरह के सुधार अथवा बदलाव की संभावना न के बराबर है। प्रजातन्त्र में चुनाव जीतने के लिए वोट बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उस लिहाज से दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक सभी चुनाव परिणामों को प्रभावित करते हैं। सवर्ण जातियों में चूँकि राजनीतिक तौर पर एक राय और समान  प्राथमिकता का अभाव है इसलिए आरक्षण के दो बंद : क्या खोया क्या पाया
एक बंद और हो गया। दलितों पर अत्याचार करने वालों पर कानूनी कार्रवाई को थोड़ा सा व्यावहारिक बनाने की जो कोशिश हुई उसे लेकर दलित राजनीति के  ठेकेदारों ने बवाल मचा दिया। इनमें वे मायावती भी शरीक हैं जिनकी सरकार उप्र में वैसा ही बदलाव 2007 में ही कर चुकी थी। गत 2 अप्रैल को दलित आक्रोश भारत बन्द के रूप में सामने आया तो गत दिवस उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप सवर्ण जातियों ने आरक्षण का विरोध करने हेतु भारत बंद का आयोजन कर डाला। दोनों बन्द अपने-अपने ढंग से प्रभावशाली रहे। फर्क केवल इतना था कि दलितों के आंदोलन में तो नेतृत्व नजर आया तथा जिन लोगों ने बाहर से समर्थन दिया वे भी  खुलकर सामने आ गए किन्तु कहा जा रहा है गत दिवस आयोजित बन्द सोशल मीडिया के नेतृत्व में हुआ जिस वजह से किसी व्यक्ति अथवा संगठन को उसके लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि आरक्षण प्राप्त दलित , आदिवासी और पिछड़ा वर्ग में शामिल अन्य जातियों के तो राजनीतिक संरक्षक स्पष्ट हैं लेकिन सवर्ण कही जाने वाली जातियों का कोई माई बाप नहीं होने से उनके जवाबी बन्द का शासन-प्रशासन पर कोई दूरगामी प्रभाव पड़ेगा ऐसा नहीं लगता। दलितों की नाराजगी दूर करने की कोशिश में तो नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी सहित हर पार्टी  सिर के बल खड़ी होने सहर्ष राजी दिखाई देती है लेकिन व्यक्तिगत तौर पर कोई कुछ भी कहे किन्तु कोई नेता, लेखक, पत्रकार अथवा सामाजिक कार्यकर्ता आरक्षण की मौजूदा  व्यवस्था को लेकर सवर्ण जातियों में व्याप्त नाराजगी को दूर करने के लिए आगे नहीं आता। ये सिद्ध करता है कि सवर्ण मतदाताओं को घर की मुर्गी दाल बराबर मान लिया गया है। राजनीतिक दलों में सक्रिय सवर्ण नेता और कार्यकर्ता भी मन ही मन कितना भी बुदबुदाते रहें किन्तु आरक्षण के विरुद्ध जुबान खोलने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ती। इसकी वजह ये है कि अलग-अलग जातियों में बंटे होने के बाद भी दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियां आरक्षण से छेड़छाड़ के सवाल पर बाहें चढ़ाकर खड़ी हो जाती हैं वहीं संगठित नहीं होने से सवर्ण जातियों की आवाज में बुलंदी नहीं महसूस होती। दलित समाज के अनेक भाजपाई सांसदों ने बीते कुछ दिनों में सीधे प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपने समुदाय की नाराजगी से अवगत करा दिया किन्तु सवर्ण जातियों में से एक भी नेता ऐसा साहस नहीं कर सका। मप्र उच्च न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण के विरुद्ध फैसला सुनाया तो शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने बिना समय गंवाए सर्वोच्च न्यायालय से स्थगन आदेश हासिल कर लिया जिससे उस पर आरक्षण विरोधी होने का आरोप न लग जावे किन्तु उच्च जातियों के जो भाजपाई विधायक और मंत्री हैं उनमें से कोई भी उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने के विरोध में एक शब्द नहीं बोला। ये स्थिति केवल मप्र की हो ऐसा नहीं है। प्रादेशिक और केंद्रीय दोनों स्तरों पर कमोबेश यही हालात बने हुए हैं जिसकी वजह से आरक्षित और गैर आरक्षित समुदाय के बीच का सौहाद्र्र और सामंजस्य खत्म होने की तरफ  बढ़ चला है। गांधी जी के अछूतोद्धार से चलते-चलते आरक्षण के जरिये सामाजिक न्याय की जो व्यवस्थाएं की गईं उनका लाभ कितना हुआ ये तो गहन विश्लेषण का विषय है ही लेकिन इससे समाज के दूसरे वर्ग में जो कुंठा बढ़ रही है उसका भी अध्ययन होना चाहिए।  गत दिवस हुआ बंद इस लिहाज से चिंताजनक था क्योंकि उसका कोई घोषित या प्रकट नेता नहीं था। ऐसे में दिशाहीनता का ख़तरा बढ़ता है जिसकी परिणिति अक्सर अराजकता के तौर पर नजर आती है। तकरीबन एक सप्ताह के अंतर पर आयोजित दो भारत बंद से किसे क्या हासिल हुआ तो इस सवाल के उत्तर में कहा जा सकता है कि तुम्हारी भी जै जै, हमारी भी जै जै न तुम हारे न हम हारे वाली बात ही होकर रह गई किन्तु राष्ट्रीय जीवन में इस तरह के वाकये 20 ओवरों के क्रिकेट मैच सरीखे नहीं होते जिन्हें कुछ देर बाद भुला दिया जावे। इस विषय में गंभीरता से चिंता और चिंतन दोनों करने का समय आ गया है। सवर्ण युवाओं में जो गुस्सा है उसे निरर्थक नहीं माना जा सकता। अतीत में हुई सामाजिक गलतियों को सुधारने का ये अर्थ कतई नहीं होता कि जिसने अन्याय किया उसके वंशजों पर अन्याय किया जावे। जाति के नाम पर शोषण और अत्याचार के लिए सभ्य और स्वतंत्र समाज में कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। छुआछूत जैसी बात भी आज के दौर में गले नहीं उतरती। सामाजिक और आर्थिक उन्नयन हेतु  वंचित वर्ग को प्रोत्साहन और संरक्षण मिले ये भी आवश्यक है किंतु किसी भी चीज का अतिरेक बुरा होता है। सामाजिक न्याय का अर्थ सभी के किये समान अवसर और भेदभाव रहित व्यवस्था से है। आरक्षित वर्ग को मिल रही सुविधाएं और विशेष अधिकार अपनी जगह सही हैं बशर्ते उससे सामाजिक सद्भाव और संतुलन न बिगड़े। उसी तरह सवर्ण जातियों को भी ये सोचने की जरूरत है कि वे अब उस वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाजिक व्यवस्था को पुनस्र्थापित नहीं कर सकतीं जो भारतीय समाज में हजारों साल तक चलते हुए अंत में जाति के रूप में बदल गई। छुआछूत मिटाने के अलावा और भी ऐसे समाज सुधार के कार्य हुए जिन्होंने हिन्दू समाज की मान्यताओं और परंपराओं को बदल दिया। आर्य समाज की स्थापना भी उनमें से एक थी। देश के लगभग सभी हिस्सों में अनेक ऐसी विभूतियाँ हुईं जिन्होंने अपने समकालीन समाज का प्रतिरोध झेलते हुए भी सुधारवादी आंदोलन चलाए और सफलता प्राप्त की। धीरे-धीरे ही सही किन्तु समाज ने उन्हें आत्मसात भी किया किन्तु कड़वा सच ये है कि वे सभी गैर राजनीतिक स्तर पर हुए प्रयास थे जिनमें गांधी जी द्वारा प्रारम्भ अछूतोद्धार का अभियान भी था। 20 वीं सदी के उस भारतीय समाज में भी यदि उसका विशेष विरोध नहीं नजर आया तो उसकी वजह केवल ये रही कि बापू का मुख्य उद्देश्य आज़ादी की लड़ाई में पूरे समाज को एकजुट होकर लडऩे के लिए तैयार करना था जो जातियों में खड़ी दीवारों के चलते नामुमकिन था। उस मुहिम का कितना गहरा असर हुआ ये सर्वविदित है। उसी वजह से आज़ादी के बाद जब अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण नामक सुविधा संविधान के जरिये दी गई तब शायद ही किसी ने उसका विरोध किया। लेकिन शनै: शनै: वह व्यवस्था राजनीतिक नफे-नुकसान में उलझकर रह गई जिसकी वजह से सामाजिक समरसता ने विद्वेष का रूप ले लिया। रही-सही कसर पिछड़े वर्ग की जातियों को दिए आरक्षण ने पूरी कर दी। इन दो भारत बंद से एक बात तो स्पष्ट है कि आरक्षण हटाने की कोई संभावना दूरदराज तक नजऱ नहीं आती। न ही उसमें संशोधन की मानसिकता किसी भी स्तर पर है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि आजादी के बाद आरक्षण सामाजिक तौर पर जरूरी था वहीं अब इसे जारी रखना राजनीतिक मज़बूरी बन गई है। सवर्ण समाज को ये बात समझ लेनी चाहिए कि वे जब तक अपने बिखरे वोट बैंक को सहेजकर एक दबाव समूह नहीं बनेंगे तब तक उनके अपने नेता भी उन्हें भाव नहीं देने वाले। गत दिवस हुए बंद में किसी भी दल के नेता की गैरमौजूदगी काफी कुछ कह गई। उस दृष्टि से देखें तो आरक्षण की स्थिति में किसी भी तरह के सुधार अथवा बदलाव की संभावना न के बराबर है। प्रजातन्त्र में चुनाव जीतने के लिए वोट बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उस लिहाज से दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक सभी चुनाव परिणामों को प्रभावित करते हैं। सवर्ण जातियों में चूँकि राजनीतिक तौर पर एक राय और समान  प्राथमिकता का अभाव है इसलिए आरक्षण के विरोध में उनके आंदोलन का वैसा प्रभाव नहीं पड़ता जैसा अन्य समुदायों का होता है। एक सामाजिक विषय का राजनीति द्वारा अपहरण किये जाने का इससे अच्छा उदाहरण दूसरा नहीं मिलेगा जिसके आगे मन्दिर-मस्जि़द सब बेअसर होकर रह जाते हैं।विरोध में उनके आंदोलन का वैसा प्रभाव नहीं पड़ता जैसा अन्य समुदायों का होता है। एक सामाजिक विषय का राजनीति द्वारा अपहरण किये जाने का इससे अच्छा उदाहरण दूसरा नहीं मिलेगा जिसके आगे मन्दिर-मस्जि़द सब बेअसर होकर रह जाते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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