Monday 2 April 2018

उत्पीडऩ और प्रताडऩा दोनों गलत


दलित संगठनों द्वारा आज भारत बंद का जो आयोजन किया गया उसके औचित्य और आवश्यकता को लेकर बहस चल पड़ी है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बीते दिनों अनु.जाति/जनजाति कानून के अंतर्गत बिना जांच किये किसी पर मुकदमा और गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी। इसका उद्देश्य उक्त कानून का दुरुपयोग रोकना है। पूर्व में दलित उत्पीडऩ की शिकायत पर तत्काल प्रकरण दर्ज करते हुए मुकदमा कायम करने की जो व्यवस्था थी उसका बेजा उपयोग होने की खबरें अक्सर आया करती थीं। यही हाल तकरीबन दहेज विरोधी कानून के साथ भी था जिसमें वधु पक्ष द्वारा की गई रिपोर्ट के बाद पुलिस वर के पूरे परिवार को ही पकड़ लेती थी। उस के बारे में भी पर्याप्त जांच के बिना गिरफ्तारी किये जाने पर रोक लगा दी गई। सर्वविदित है कि दहेज संबंधी शिकायत पर किस तरह पुलिस बुजुर्गों तक को उठाकर ले आती थी। अनु.जाति/जनजाति कानून का भी इसी तरह दुरूपयोग होने की शिकायतों पर सर्वोच्च न्यायालय ने बिना जाँच किये गिरफ्तारी और मुकदमे पर रोक लगाने वाला जो फैसला किया वह हर दृष्टि से विधि सम्मत और उचित है। लेकिन उसको लेकर राजनीति शुरू हो गई। फैसला दिया सर्वोच्च न्यायालय ने और आलोचना प्रारम्भ हो गई केंद्र सरकार की। कर्नाटक चुनाव सिर पर होने से सरकार भी दबाव में आ गई और आज ही सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पुनर्विचार हेतु अर्जी लगाने की बात गत रात्रि सामने आ गई। दलित संगठनों के बंद में शासकीय कर्मचारी भी सामूहिक अवकाश लेकर  शामिल होंगे। इस तरह उनके साथ ही वोटों के सौदागरों ने भी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को अन्यायपूर्ण साबित करने के लिए घेराबंदी कर डाली। आगे क्या होगा ये कह पाना कठिन है किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने सन्दर्भित कानून के प्रावधानों को लागू करने में होने वाली जल्दबाजी को रोकने का काम किया तो उसमें गलत क्या है? केंद्र सरकार भी वोट बैंक के दबाव में व्यर्थ के अपराधबोध से ग्रसित हो गई। दलितों के सम्मान और सुरक्षा की जरूरत से कोई इनकार नहीं करेगा। अनु.जाति/जनजाति सम्बन्धी कानून से भी किसी को ऐतराज नहीं है। दलित समुदाय का अपमान और शोषण करने वालों के साथ कोई रियायत भी नहीं होनी चाहिये  लेकिन यदि उन्हें बराबरी पर लाना है तो फिर बहुत सी दीवारें गिरानी होंगी। दलित समुदाय का असली शोषण तो उसके नाम से नेतागिरी कर रहे सफेदपोश करते हैं फिर चाहे वे राजनीतिक नेता हों या कर्मचारी संगठनों के कर्ताधर्ता। आज के बंद से सरकार पर भले दबाव बना दिया जावे किन्तु सर्वोच्च न्यायालय पर इसका कोई प्रभाव शायद ही पड़े जिसने कानून के अव्यवहारिक प्रावधान को बदलने का फैसला दिया। उसे सीधे-सीधे दलित विरोधी बता देना न्यायपालिका के प्रति भी एक तरह का अविश्वास है। सबसे बड़ी बात ये है कि दलितों के सम्मान से खिलवाड़ जितना बड़ा अपराध है उतना ही दलित उत्पीडऩ के झूठे आरोप में किसी को अकारण प्रताडि़त करना भी। उस दृष्टि से जिस तरह का सुधार न्यायपालिका ने दहेज विरोधी कानून में किया करीब-करीब वैसा ही अनु. जाति/जनजाति कानून में किया गया तब उसे सकारात्मक भाव से लिया जाना चाहिए। भारत बंद को पूरे समाज का समर्थन मिलता तब तो सर्वोच्च न्यायालय को भी एक बार सोचना पड़ेगा लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों का समर्थन भी शायद ही मिल सकेगा। अब जरा सोचें कि कल को अनु.जाति और जनजाति को छोड़कर शेष जातियों ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के समर्थन में जवाबी शक्ति प्रदर्शन कर दिया तब बेमतलब के संघर्ष की स्थिति समाज में पैदा होना तय है। इसलिए बेहतर होगा दलित समाज बहकावे में न आए। सामाजिक समरसता के लिए दोनों हाथ से ताली बजाना जरूरी है। दलितों पर अत्याचार किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए किन्तु दलित उत्पीडऩ के नाम पर बेकसूर लोगों को प्रताडि़त किये जाने की छूट भी नहीं दी जा सकती। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के परिप्रेक्ष्य में वोटों की जो खींचातानी शुरू हो गई वह अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि इससे दलित वर्ग को समाज की मुख्य धारा में लाने की प्रक्रिया के अवरुद्ध होने का भय है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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