Wednesday 4 April 2018

मायावती ने भी गिरफ्तारी पर रोक लगाई थी

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले पर तत्काल रोक लगाने इंकार करते हुए जो बातें अटॉर्नी जनरल से कहीं यदि दलितों के नेता ठीक से समझ लें तब उनका गुस्सा ठंडा हो सकता है लेकिन जिस तरह से देश के बड़े हिस्से में आंदोलन की आग फैलाई गई वह स्वप्रेरित न होकर पूरी तरह प्रायोजित लगती है। सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस सरकार द्वारा प्रस्तुत पुनर्विचार याचिका पर जो कहा उस पर दलित समुदाय के समझदार लोगों को गम्भीरता से विचार करना चाहिए क्योंकि उसके जिस निर्णय को लेकर दलित वर्ग आसमान सिर पर उठाए हुए है वैसा ही निर्णय  बसपा की अध्यक्ष और दलित राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा कही जाने वाली मायावती ने बतौर मुख्यमंत्री उप्र में 2007 में ही कर लिया था। दलित समुदाय को आपत्ति इस बात पर है कि अनु.जाति/जनजाति कानून के उस प्रावधान को सर्वोच्च न्यायालय ने बदल दिया जिसके तहत दलित वर्ग के उत्पीडऩ की रिपोर्ट पर तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान था। मायावती ने वह कदम उप्र के सवर्ण समाज को खुश करने के लिए उठाया था। उल्लेखनीय है 2007 में मायावती को उप्र की सत्ता मिलने के पीछे उच्च जातियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी जो मुलायम सिंह यादव के राज में उनके सजातीय लोगों के कारनामों से त्रस्त हो गईं थीं। उस दौर में मायावती पर उच्च जातियों को खुश करने की धुन इस कदर सवार हुई कि तिलक, तराजू और तलवार - इनको मारो जूते चार का नारा हाथी नहीं गणेश है - ब्रह्मा, विष्णु, महेश है, में बदल गया। बहुजन समाज पार्टी को ब्राह्मण समाज पार्टी तक कहा जाने लगा। खुद को दलित समुदाय  की बजाय सर्व समाज का नेता साबित करने के फेर में मायावती ने दलितों की एफआईआर पर तत्काल गिरफ्तारी की जगह शिकायत की विवेचना उपरांत कार्रवाई करने जैसा संशोधन करवा दिया जिसका कोई विरोध न तो उप्र में हुआ न ही देश के किसी अन्य हिस्से में दलित समुदाय से विरोध का कोई स्वर उठा। बीते दो दिनों में ये बात कई मर्तबा उठी लेकिन समूची राजनीतिक जमात के बीच दलित तुष्टीकरण की जो होड़ मची उसमें मायावती सरकार के उस कृत्य को जान बूझकर उपेक्षित किया गया। अब जबकि वह बात स्पष्ट हो गई है तब दलितों को भड़काकर समाज में जातिगत संघर्ष उत्पन्न करने वालों की नीयत का भी पर्दाफाश होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के दो टूक इंकार और स्पष्टीकरण के बाद अब दलित वर्ग द्वारा मायावती को कठघरे में खड़ा करना चाहिए जिन्होंने अपनी सत्ता की सुरक्षा की खातिर अपने प्रतिबद्ध समर्थक वर्ग को धोखा दिया। यदि मायावती का वह फैसला दलित विरोधी नहीं था तब सर्वोच्च न्यायालय का ताजा निर्णय किस तरह दलितों के लिए नुकसानदेह है ये विचारणीय प्रश्न है। दलितों को तो चलो छोड़ भी दें लेकिन सवर्णों के आधिपत्य वाली भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां भी यदि दलितों के वोटों की लालच में सच्चाई को सामने लाने से डर रही हैं तब ये मान लेना ही सही रहेगा कि समाज को जातियों के नाम पर बांटने के पाप में वे भी बराबरी की साझेदार हैं। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने अटॉर्नी जनरल द्वारा दी गई दलीलों की जिस तरह धज्जियां उड़ाईं उससे एक बात तो साफ  हो ही गई कि राजनीतिक दलों की तरह न्यायपालिका न तो किसी भी तरह के अपराधबोध से ग्रसित है और न ही उसे वोट बैंक के बिखरने का डर है। जिस दिन सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आया था उसके बाद यदि भाजपा और कांग्रेस के वरिष्ठ नेतागण मायावती सरकार के सन्दर्भित फैसले को सामने रखकर दलित समुदाय को समझाइश देते तब हो सकता है हालात इतने न बिगड़े होते। इसके ठीक उलट भाजपा ख़ुद को दलितों का सबसे बड़ा हिमायती साबित करने में जुट गई वहीं कांग्रेस उसे दलितों का दुश्मन ठहराने के लिए उठापटक में व्यस्त हो गई। उसके बाद जो हुआ वह सबके सामने है। सर्वोच्च न्यायालय ने 10 तारीख को पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करने कहा है। लगे हाथ उसने साफ  कर दिया कि न तो वह दलित  विरोधी है और न ही उंसने मूल कानून को बदला है। दण्ड विधान संहिता की मंशानुसार बिना जांच किये सीधे गिरफ्तारी को रोकने जैसे निर्णय को बिना पूरी तरह समझे चारों ओर भय का वातावरण बना देना पूरी तरह गैर जिम्मेदाराना कदम है। भाजपा का उच्च नेतृत्व भी इस मुद्दे पर व्यर्थ के दबाव में आ गया। कुल मिलाकर ये मामला राजनीतिक बिरादरी की अपरिपक्वता को उजागर कर गया। दलितों की आड़ में बीते दो दिनों में जो कुछ भी हुआ या किया गया वह किसी बड़े षड्यंत्र का हिस्सा लगता है, जिसका पर्दाफाश जरूरी है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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