Saturday 21 April 2018

मिश्रा जी तो बहाना हैं - मोदी असली निशाना हैं

आखिर कांग्रेस ने देश के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध महाभियोग का नोटिस राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू को दे ही दिया। 71 सदस्यों के हस्ताक्षरयुक्त उक्त नोटिस पर संविधान में वर्णित प्रक्रिया के तहत महाभियोग चलाया जावेगा। वैसे इसके पारित होने की कोई सम्भावना नहीं है क्योंकि उच्च सदन में आवश्यक दो तिहाई बहुमत महाभियोग पेश करने वालों के पास नहीं है। विपक्ष में भी इसे लेकर अंतर्विरोध है। कल्पना के तौर पर मान भी लें कि राज्यसभा इसे स्वीकार कर ले तब भी लोकसभा में तो विपक्ष के पास महाभियोग पेश करने लायक सदस्य संख्या तक नहीं है। इसलिए ऐसा लगता है इस प्रस्ताव का हश्र भी सरकार के विरुद्ध साधारणतया पेश किए जाने वाले अविश्वास प्रस्ताव की तरह होगा जिसका गिरना तय होता है लेकिन सदन में बहस के जरिये विपक्ष जनता तक अपनी बात प्रेषित कर ले जाता है। मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग कोई राजनीतिक मसला नहीं है इसलिए उस पर सदन में होने वाली बहस अथवा अन्य कार्रवाई का अकादमिक महत्व ही रहेगा। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर कांग्रेस सहित कुछ विपक्षी दलों को क्या सूझा जो वे उसका परिणाम जानते हुए भी महाभियोग जैसा असामान्य कदम उठाने बाध्य हुए? चूंकि आम जनता को भी इस विषय से कोई सरोकार नहीं है इसलिए महाभियोग से क्या हासिल होगा ये भी समझ से परे है। लेकिन बुद्धिजीवी वर्ग के अलावा विधि क्षेत्र से जुड़े लोगों को भी ये बात समझ आ रही है कि इस पूरी कवायद का उद्देश्य न्यायपालिका पर दबाव बनाना है। मुख्य न्यायाधीश पर जो आरोप लगाए गए हैं वे कितने सही हैं ये तो जांच से ही पता चल सकेगा किन्तु सामान्य अवधारणा ये है कि उनके कतिपय फैसलों से कांग्रेस और उससे जुड़े कुछ अन्य विपक्षी दलों को परेशानी हो रही थी। सबसे अधिक चर्चा इस बात को लेकर भी है कि श्री मिश्रा द्वारा राम जन्मभूमि विवाद की सुनवाई तेजी से करते हुए उसे निश्चित समय सीमा में निपटाने की जो पहल की गई वह कांग्रेस की चिंता का सबसे बड़ा कारण है। उल्लेखनीय है महाभियोग लाने में सबसे आगे रहने वाले कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल इस प्रकरण की सुनवाई आगामी लोकसभा चुनाव के बाद करवाने का अनुरोध सर्वोच्च न्यायालय में कर चुके थे जिसे श्री मिश्रा ने अस्वीकार करते हुए सुनवाई तेज कर दी। ऐसा लगता है कांग्रेस को डर है कि अयोध्या विवाद पर यदि फैसला मंदिर के पक्ष में हुआ तब 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा राम लहर को पुनर्जीवित करने में कामयाब हो जाएगी और खुदा न खास्ता सर्वोच्च न्यायालय ने मस्जि़द समर्थकों की बात को सही करार दिया तब उसकी सहज प्रतिक्रिया हिन्दू ध्रुवीकरण के रूप में नरेंद्र मोदी का बेड़ा पार लगाने में सहायक होगी। इसके अलावा मुख्य न्यायाधीश के प्रति खुन्नस तीन तलाक़ के विरोध में दिए गए निर्णय भी रहे और उसके बाद मुस्लिम समाज में बहुपत्नी प्रथा और हलाला जैसी रीतियों को समाप्त करने सम्बन्धी याचिकाओं पर भी श्री मिश्रा द्वारा स्वयं सुनवाई करने से भी कांग्रेस आशंकित है क्योंकि तीन तलाक़ की तरह यदि बहु पत्नी और हलाला जैसी प्रथा भी गैरकानूनी घोषित हो गई तो उससे मुस्लिम समुदाय जाहिर तौर पर नाराज होगा जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप हिन्दू मतदाताओं के गोलबंद होने की सम्भावना स्वाभाविक रूप से बढ़ जाएगी। यदि श्री मिश्रा की बजाय कोई अन्य न्यायाधीश उक्त मामलों की सुनवाई कर रहा होता तब शायद महाभियोग जैसा दांव न चला जाता। मुख्य न्यायाधीश पर एक निजी संस्थान सम्बन्धी मामले में अतिरिक्त रुचि लेकर हस्तक्षेप करने का जो आरोप है वह अवश्य प्रथम दृष्ट्या विचारणीय लगता है। शेष आरोपों में सर्वोच्च न्यायालय की प्रशासनिक व्यवस्था सम्बन्धी उनकी स्वेच्छाचारिता ही प्रमुख है। महाभियोग का आधार सही मायने में जनवरी माह में सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों द्वारा पत्रकार वार्ता में श्री मिश्रा के विरुद्ध लगाए गए आरोपों के बाद ही तैयार कर लिया लगता है। पत्रकार वार्ता के फौरन बाद उनमें से एक न्यायाधीश श्री चेलमेश्वर से सीपीएआई नेता डी.राजा का मिलने जाना राजनीतिक षडय़ंत्र के संकेत भी दे गया। महाभियोग में उन चार न्यायाधीशों के उस आरोप को भी मुद्दा बनाया गया जिसके अनुसार श्री मिश्रा महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई वरिष्ठ न्यायाधीशों की बजाय कनिष्ठों को दे दिया करते हैं। इसी विवाद के चलते एक न्यायाधीश के निर्णय को दूसरे द्वारा उलटने जैसे वाकये भी देखने मिले। मुख्य न्यायाधीश के कतिपय फैसलों पर भी कांग्रेस को ऐतराज है। कुल मिलाकर श्री मिश्रा के विरुद्ध लाया गया महाभियोग केवल ये प्रचार करने का जरिया बनेगा कि न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं है । मुख्य न्यायाधीश पर भाजपा समर्थक होने का आरोप इसलिये नहीं ठहरता क्योंकि बतौर न्यायाधीश उनका कैरियर कांग्रेस सरकार के समय प्रारम्भ हुआ था और सर्वोच्च न्यायालय में आकर मुख्य न्यायाधीश बनने तक किसी ने उन पर उंगली नहीं उठाई। उनके अनेक फैसले तो भाजपा और केंद्र सरकार दोनों को हजम नहीं हुए। इसीलिए ये मान लेना पूरी तरह गलत नहीं होगा कि महाभियोग एक सुविचारित रणनीति का हिस्सा है जिसका असली उद्देश्य वह नहीं है जो बताया जा रहा है। यही वजह है कि पूरा विपक्ष उसके साथ नहीं खड़ा हुआ। यहां तक कि भाजपा की सबसे बड़ी विरोधी ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस तक ने उससे दूरी बना ली। इसी तरह सलमान खुर्शीद जैसे वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने जो खुद भी जाने माने अधिवक्ता हैं, महाभियोग के औचित्य पर सवाल उठाकर ये संकेत दे दिया कि इस मुहिम पर पार्टी के भीतर भी एक राय नहीं है। लोकसभा में महाभियोग के पेश होने की कोई सम्भावना नहीं होना और राज्यसभा में उसके पारित होने लायक संख्याबल के अभाव को देखते हुए उसका हश्र कांग्रेस भी अच्छी तरह जानती है। ज्यादा से ज्यादा ये होगा कि ऐसा करके वह अन्य न्यायाधीशों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना सके किन्तु चार न्यायाधीशों की नाराजगी को अपने लिए फायदेमंद मानने वाली कांग्रेस और कपिल सिब्बल सरीखे उसके सलाहकार भूल जाते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के बाकी न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश के पक्ष में हैं। रही बात प्रशासनिक दृष्टि से न्यायाधीशों के अधिकारों और कार्य विभाजन की तो तमाम न्यायविद और एक दो को छोड़कर अधिकांश पूर्व न्यायाधीशों ने भी खुले तौर पर कहा है कि मुख्य न्यायाधीश मास्टर ऑफ रोस्टर होने के कारण किसे कौन सा प्रकरण सुनवाई हेतु आवंटित किया जावे ये तय करने स्वतंत्र हैं। ऐसे में पूर्व से चली आ रही व्यवस्था पर अचानक सवाल खड़े कर देना सन्देह उत्पन्न करता है। मुख्य न्यायाधीश पर व्यक्तिगत रूप से जो आरोप लगे हैं उनकी सफाई उन्हें अवश्य देनी चाहिए। बाकी सब राजनीति प्रेरित लगते हैं। कुल मिलाकर कहें तो ये महाभियोग मुख्य न्यायाधीश के बहाने मोदी सरकार पर निशाना साधने की कोशिश लगती है लेकिन अति उत्साह में पांसा उल्टा पड़ा तो कांग्रेस के लिए ये कदम आत्मघाती भी हो सकता है। वैसे भी कपिल सिब्बल वकील कितने भी बड़े हों किन्तु उनकी राजनीतिक समझ बहुत अच्छी नहीं कही जाती। अतीत में भी वे कांग्रेस के नुकसान का कारण बनते रहे हैं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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