Monday 9 April 2018

अपनी लड़ाई छोड़ दूसरों के मोहरे बन गए हार्दिक

हार्दिक पटैल का नाम ढाई-तीन बरस पहले गुजरात में पाटीदार समाज के लिए आरक्षण की मांग को लेकर हुए आंदोलन के समय चर्चा में आया था। उस आंदोलन में खूब हिंसा हुई और तत्कालीन मुख्यमन्त्री आनंदीबेन पटैल को अपनी कुर्सी तक गंवाना पड़ी। एक समय ये युवक भाजपा के करीब था लेकिन अब उसका घोर विरोधी। गुजरात के पिछले विधानसभा चुनाव में हार्दिक ने कांग्रेस के साथ मिलकर भाजपा को काफी नुकसान पहुंचाया था। यद्यपि वे भाजपा को सत्ता में आने से नहीं रोक सके लेकिन डेढ़ दर्जन सीटों के नुकसान की वजह से उसका बहुमत घटाने में जरूर सफल रहे। उस परिणाम के कारण वे भाजपा विरोधी खेमे के अत्यंत प्रिय बन बैठे। मप्र के मंदसौर में किसानों पर गोली चलने पर भी उन्होंने वहां आकर नेतागिरी करने का प्रयास किया था। गुजरात चुनाव के बाद हार्दिक विपक्षी एकता की मुहिम में भी सक्रिय दिखे। इन दिनों वे मप्र के चक्कर काट रहे हैं। मालवा में पाटीदार समाज काफी है। उसके अलावा भी प्रदेश के अन्य हिस्सों में पटैल बड़ी संख्या में हैं। उनको राज्य सरकार के विरुद्ध भड़काकर विधानसभा चुनाव में भाजपा को नुकसान पहुँचाने की रणनीति के साथ हार्दिक काम कर रहे हैं। हालांकि अभी तक उन्होंने मप्र में गुजरात की तरह पाटीदार आंदोलन का कोई संकेत नहीं दिया लेकिन एक बात स्पष्ट है कि वे कांग्रेस के छद्म प्रचारक के तौर पर सक्रिय हैं। जिस तरह की भाषा और भावभंगिमा का वे प्रदर्शन कर रहे हैं उससे उनके इरादे ज़ाहिर हैं लेकिन सवाल ये उठता है कि हार्दिक ने गुजरात में पाटीदारों के लिए अपनी लड़ाई विधानसभा चुनाव सम्पन्न होते ही खत्म क्यों कर दी? यदि उनका उद्देश्य वाकई पाटीदारों का हित संवर्धन करना था तब वे चुनाव के बाद भी नई सरकार पर तत्सम्बन्धी दबाव बनाते लेकिन ऐसा लगता है मानों उनका उद्देश्य भाजपा के लिए मुसीबतें पैदा करना मात्र था। गुजरात के पाटीदार बहुल इलाकों में भाजपा को काफी नुकसान हुआ। हार्दिक के प्रभाव में आकर उन्होंने कांग्रेस को वोट तो दे दिया किन्तु उसके बदले में उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ। भाजपा से उनकी दूरी बन गई और कांग्रेस कुछ देने में सक्षम नहीं रही। हार्दिक को भी जब लगा कि फिलहाल वे पाटीदारों को आरक्षण नहीं दिलवा सकेंगे तो उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए बाहर हाथ पांव मारने शुरू कर दिए। मप्र के उनके दौरे पाटीदारों के फायदे के लिए न होकर ऐलानिया तौर पर भाजपा को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से हो रहे हैं जिसके पीछे निश्चित रूप से कांग्रेस का समर्थन है। इंदौर में हार्दिक पर स्याही फिंकने की घटना पर ज्योतिरादित्य सिंधिया का त्वरित बयान इसका प्रमाण है। लेकिन इस सबसे हटकर देखें तो हार्दिक सरीखे नेता जनता की भावनाएं भड़काकर क्षणिक उन्माद तो पैदा कर देते हैं लेकिन उसके उपरांत वे असली मकसद को भूलकर अपने स्वार्थ साधने में लग जाते हैं। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है तो उसके लिए हार्दिक जैसे चेहरे मात्र दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त वाली कहावत को चरितार्थ करते हैं। वैचारिक दृष्टि से हार्दिक की कोई प्रतिबद्धता नहीं है। उनका अपना कोई दल भी नहीं है। ये देखते हुए लगता है वे भी अरविंद केजरीवाल की तरह केवल अपनी महत्वाकांक्षाओं की खातिर मैदान में उतरे हैं। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का अपहरण कर आम आदमी पार्टी का गठन और फिर दिल्ली की सत्ता हासिल करने के बाद श्री केजरीवाल ने किस तरह की राजनीति की ये सर्वविदित है। पहले -पहल तो उन्हें समर्थन देकर कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बनवा दिया लेकिन बाद में वही आम आदमी पार्टी दिल्ली में कांग्रेस के समूल नष्टीकरण का कारण बन गई। शुरू शुरू में केजरीवाल एंड कम्पनी को लगा कि वे हिंदुस्तान को जीतने लायक हो गए हैं लेकिन बाद में उनका वह सपना धूल में मिल गया। सीधे प्रधानमंत्री पर हमले करने की रणनीति अपनाकर खुद को तुर्रमखां साबित करने की उनकी मूर्खता हाल ही में थोक के भाव मांगी गई माफियों से उजागर हो गई। हार्दिक को भी ये लग रहा है कि छोटे मुंह बड़ी बात करने से वे भी बड़े सियासतदां बन सकेंगे किन्तु वे भूल रहे हैं कि उन जैसे अनेक मौसमी नेता देश और प्रदेशों में पैदा हुए और धूमकेतु की तरह छाने के बाद गुमनामी के शिकार हो गए। इसकी वजह उनका मुख्य उद्देश्य को छोड़ निजी महिमामंडन में जुट जाना रहा। हार्दिक की पकड़ गुजरात में तो पूरी तरह बन नहीं सकी। पाटीदार समाज के बीच भी उनका प्रभाव अब पहले जैसा नहीं रहा। क्योंकि उनके बीच भी ये भावना जोर मारने लगी है कि आरक्षण के फेर में हासिल तो कुछ हुआ नहीं ऊपर से भाजपा के साथ पुराने रिश्ते बिगड़ गए। जब हार्दिक को लगने लगा कि गुजरात में फिलहाल उनके पास करने को कुछ बचा नहीं है तो वे बाहर हाथ पांव मारने लगे। सवाल ये है कि भाजपा से उनका विरोध है किस कारण? यदि हार्दिक किसी राजनीतिक विचारधारा को मानते हैं तो उन्हें उसका खुलासा करने चाहिए क्योंकि जब वे जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर के साथ बैठकर नरेंद्र मोदी और भाजपा को गरियाते हैं तब वे पाटीदार आंदोलन के नेता की बजाय केवल भाजपा विरोधी नजर आते हैं। मप्र में उनकी चहलकदमी के पीछे यदि पाटीदारों को संगठित करना होता तब उनकी छवि अपेक्षाकृत बेहतर होती किन्तु अब उनकी पहिचान उस शख्स जैसी बनती जा रही है जो नकारात्मक राजनीति करने के लिए किसी का भी मोहरा बनने तैयार हो जाता है। यही हाल रहा तो राजनीति में हार्दिक ज्यादा दूर तक नहीं चल पाएँगे क्योंकि वे अपना मकसद भूलकर दूसरों के हाथ के औजार बन गए हैं। मप्र में वे भाजपा का कितना नुकसान और कांग्रेस का कितना फायदा कर सकेंगे ये तो अभी निश्चित नहीं है किंतु इतना तय है कि गुजरात में उनका आभामंडल कमजोर होते-होते नष्ट होना अवश्यम्भावी है। क्षेत्रीय छत्रप बनने के पहले ही राष्ट्रीय नेता बनने की उनकी कोशिशें चौबे जी के छब्बे बनने के फेर में दुबे बन जाने जैसी हो सकती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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