Saturday 14 April 2018

कड़ा कानून और बेटी बचाओ के नारे ही काफी नहीं

उन्नाव और कठुआ में हुए दुष्कर्म के प्रकरणों ने निर्भया कांड के समय बने माहौल को को ताजा कर दिया। इन्हें लेकर राजनीति भी अपने चरम पर है। कठोर कानून की मांग नए सिरे से उठ खड़ी हुई है। अवयस्क के साथ दुष्कर्म करने वाले को फांसी दिए जाने सम्बन्धी प्रावधान वाले कानून को पूरे देश में लागू किये जाने की चर्चा भी चल पड़ी है। निर्भया हादसे के उपरांत कुछ राज्यों ने ऐसा कानून बनाकर दुष्कर्मियों के मन में खौफ  उत्पन्न करने का प्रयास भी किया। अदालतों ने दरिंदगी करने वालों के मामले सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर निपटाने की पहल भी की। लेकिन इन सब कोशिशों का कोई असर होता नहीं दिख रहा। पूरे देश से जो खबरें आया करती हैं वे दहला देने वाली हैं। किसी बालिग युवती के साथ बलात्कार को महज एक अपराध मानकर कानूनी प्रक्रिया चलती रहती है लेकिन जब नन्हीं मासूम बच्चियों को भी हवस का शिकार बनाया जाने लगे तब ये केवल कानून के दायरे वाली बात नहीं रह जाती। भारतीय समाज में नारी को विशेष सम्मान देने के जो संस्कार रहे हैं उनकी वजह से ही उसे देवी का दर्जा दिया गया। माँ, बहिन, पत्नी और बेटी की श्रेणी में हर महिला को रखकर उसके प्रति आदर और सम्मान का भाव समाज का चरित्र माना जाता था। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि सामाजिक ही नहीं बल्कि पारिवारिक रिश्तों में तक मर्यादा और पवित्रता की भावना का क्रमश: ह्रास होता जा रहा है। दुष्कर्म के बढ़ते मामलों का यदि सामाजिक स्तर पर अध्ययन किया जावे तो ये बात निकलकर आएगी कि संस्कारों के प्रति बढ़ती उदासीनता ने कहीं न  कहीं व्यक्ति की मानसिकता को विकृत किया है। महिला से दुराचार कोई नई बात नहीं है। पौराणिक काल में भी कतिपय उदाहरण मिल जाएंगे किन्तु मौजूदा समय में जो दिखाई दे रहा है वह हृदयद्रावक है। निर्भया कांड के बाद पूरे देश में जो रोषपूर्ण प्रतिक्रिया हुई उससे लगता था कि दुष्कर्म के प्रति वितृष्णा और भय पैदा होगा लेकिन वैसा कुछ भी नहीँ हुआ। आए दिन जिस तरह की खबरें मिलती हैं उनसे लगता है कि लोगों की सोच ही दूषित हो चली है। ऐसी स्थिति में केवल कानून बनाकर या बेटी बचाओ के नारे लगाकर समस्या का हल ढूढऩा कोरा आशावाद ही होगा। फांसी की सजा तो अपराध के बाद की स्थिति है लेकिन दुष्कर्म को पाप समझने की प्रवृत्ति विकसित किये बिना ऐसे जघन्य अपराध रोकना संभव नहीं होगा। बीते कुछ वर्षों में अदालतों ने बलात्कार के अनेक मामलों में दोषियों को कठोरतम दंड दिया है। उसके बाद भी यदि स्थिति में लेशमात्र सुधार नहीं आया तब ये मानना ही पड़ेगा कि केवल कानून और दंड प्रक्रिया से इस बुराई को रोकना नामुमकिन है। बेहतर हो हर समस्या को हल करने की जिम्मेदारी राजनेताओं और सरकार पर डालकर लंबी तानकर सोने की प्रवृत्ति त्यागकर समाजिक स्तर पर उन संस्कारों और सोच को पुनस्र्थापित करने की कोशिश हो जिनके होते हुए समाज में बहू-बेटियां सुरक्षित और सम्मानित थीं। कहने का आशय ये नहीं है कि कानून की सार्थकता और उपयोगिता नहीं है लेकिन जब तक सामाजिक दबाव न हो तब तक कानून, अदालत, पुलिस और सरकार कुछ नहीं कर सकेगी। प्रश्न ये है कि आखिर समाज अपनी जिम्मेदारी कब समझेगा? नारी के प्रति नजरिये में बदलाव रातों-रात नहीं आया और न ही उसे केवल भोग्या समझ लेने की मानसिकता को पलक झपकते बदला जा सकता है। दुष्कर्म कोई संस्थागत या योजनाबद्ध अपराध न होकर एक मानसिक रोग है जिसका इलाज इक्का दुक्का अपवाद छोड़कर किसी अस्पताल या चिकित्सक के पास नहीं हो सकता। समय आ गया है जब नई पीढ़ी को महिलाओं के प्रति अपने आचार और व्यवहार में शालीनता और सभ्यता के लिए दीक्षित करने का कार्य परिवार और शालाओं के स्तर पर प्रारम्भ किया जावे। इसके साथ ये भी जरूरी है कि बात केवल महिला सशक्तीकरण तक ही सीमित न रखकर किशोरावस्था से ही लड़कियों को मेलमिलाप में सामाजिक मर्यादाओं के प्रति सजग रहने की शिक्षा माता-पिता द्वारा दी जाए। आधुनिकता किसी भी दृष्टि से बुरी नहीं बशर्ते वह सीमोल्लंघन न करे। अभिजात्य वर्ग में भी बढ़ते यौन अपराध इस बात का प्रमाण है कि केवल उच्च शिक्षा और आर्थिक संपन्नता से संस्कारों का संचार नहीं होता जब तक कि उनका बीजारोपण बाल्यकाल से ही न किया जावे। कुछ दिन तक सम्वेदनशीलता और गुस्सा दिखाने के बाद फिर सब सामान्य हो जाने के सिलसिले को तोड़कर जब तक दुराचार को केवल अपराध न मानते हुए एक सामाजिक बुराई के तौर पर उसका प्रतिकार नहीं होता तब तक उसे रोकने की कोशिशें कामयाब नहीं होने वालीं। किसी बड़ी घटना के बाद अक्सर अरब देशों का हवाला देकर बलात्कारी को चौराहे पर मृत्युदंड देने जैसी मांग भी उठती है लेकिन फिर ऐसी ही व्यवस्था हर उस अपराध को लेकर हो जिसके लिए इस्लामिक देशों में सार्वजनिक फांसी या गोली मारने की व्यवस्था है। यही देखते हुए ये कहना सही रहेगा कि दुष्कर्म की घटनाओं को रोकने के लिए सामाजिक स्तर पर निरन्तर अभियान चलाया जाता रहे। इसमें समय जरूर लगेगा लेकिन ये बात पूर्णत: प्रमाणित है कि कोई भी कानून तब तक प्रभावी नहीं होता जब तक समाज उसके प्रति सहयोगात्मक न रहे ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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