देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में अनु.जाति/जनजति कानून में किये हल्के से संशोधन से असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि जिस तरह उक्त निर्णय का हिंसात्मक विरोध हुआ उसके मदद्देनजऱ सर्वोच्च न्यायालय को फैसला करते समय उसकी प्रतिक्रिया का ख्याल भी रखना चाहिए। श्री बालकृष्णन का ये भी कहना था कि चूंकि अब लोग न्यायपालिका के निर्णयों पर उग्र प्रतिक्रिया जाहिर करने लगे हैं इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को ऐसे निर्णय करना चाहिए जिन्हें लोग स्वीकारें। पूर्व मुख्य न्यायाधीश दलित समुदाय से होने की वजह से उक्त संशोधन से आहत हुए होंगे वरना इसके पूर्व शायद ही किसी अन्य ज्वलन्त मुद्दे पर उन्होंने इस तरह की प्रतिक्रिया या सलाह दी हो। उनकी बात यदि मानी जाए तब न्यायपालिका भी किसी राजनीतिक दल की तरह हो जाएगी जिसे हर समय जनता की नाराजगी का भय सताया करता है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने कावेरी जल विवाद में कर्नाटक के पक्ष में जो फैसला दिया उसकी वजह से पूरा तमिलनाडु आंदोलित है। ऐसे में सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या न्यायपालिका सर्वोच्च स्तर पर जनभावनाओं के अनुरूप फैसले देने हेतु बाध्य की जा सकती है। बाबा राम रहीम को आजन्म कारावास की सजा सुनाई जाते ही हरियाणा और पंजाब में बड़े पैमाने पर हिंसा फैल गई थी। यदि न्यायाधीश उस संभावना पर ध्यान देते तब क्या एक दुष्कर्मी को उसके किये की माकूल सजा दी जा सकती थी? श्री बालकृष्णन के विधि सम्बन्धी ज्ञान और अनुभव पर सवाल उठाए बिना ये कहना गलत नहीं होगा कि अदालत चाहे छोटी हो या बड़ी उसका काम कानून सम्मत फैसले करना है न कि किसी व्यक्ति अथवा वर्ग का तुष्टीकरण। अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला यदि लोगों की स्वीकार्यता के अनुसार किये जाने की बात उठ खड़ी हुई तब समूची न्यायप्रक्रिया धरी रह जायेगी। श्री बालकृष्णन की सलाह पर विधि क्षेत्र के अन्य महारथी क्या कहते हैं ये देखने वाली बात होगी ।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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