Thursday 31 March 2022

रूस - अमेरिका दोनों के गले की हड्डी बन गया यूक्रेन



यूक्रेन और रूस के बीच चल रही जंग को एक महीने से ज्यादा बीत चुका है | लेकिन पूरी ताकत लगाने के बावजूद रूस अब तक यूक्रेन को घुटनाटेक नहीं करवा सका | राजधानी कीव पर कब्जे की कोशिशें सफल नहीं होने के कारण उसने बौखलाहट में अन्य शहरों पर बारूदी बरसात करते हुए तबाही के मंजर पैदा कर दिए | असैन्य  ठिकानों सहित  नागरिकों पर हमले कर उसने सामान्य युद्ध नियमों की धज्जियां भी उड़ाईं | हालाँकि ये आश्चर्यजनक है कि पूरी तरह बेमेल मुकाबले के बाद भी यूक्रेन ने अब तक हार नहीं मानी | उसकी सेनाएं ही नहीं अपितु जनता भी जबरदस्त साहस का प्रदर्शन करते हुए रूस की अपार सैन्य शक्ति को चुनौती दे रही है | सबसे बड़ी बात ये है कि अभी तक यूक्रेन की रक्षा  हेतु सीधे तौर पर न अमेरिका आगे आया और न ही दूसरे  देश | हालाँकि सैन्य साजो – सामान के साथ ही आर्थिक सहायता काफी मात्रा में उसे मिल रही है | अन्य  जरूरी चीजें भी दुनिया के अनेक देश यूक्रेन को भेज रहे हैं | लेकिन जिस नाटो की सदस्यता हासिल करने के फेर में इस देश को रूसी राष्ट्रपति पुतिन की नाराजगी झेलना पड़ रही है उसने  अब तक यूक्रेन की धरती पर उतरकर रूसी हमले का जवाब देने की हिम्मत नहीं दिखाई जिससे अमेरिका की साख को जबरदस्त धक्का पहुंचा | लेकिन इन सबके बाद भी  रूस अब तक यूकेन पर न जीत हासिल कर सका और न ही  युद्धविराम हेतु अपनी शर्तें थोपने में  कामयाब हुआ | इससे एक बात तो साफ़ है कि बिना बाहरी मदद के यूक्रेन इतने दिनों तक रूस जैसी महाशक्ति से नहीं निपट सकता था परन्तु  ये भी स्पष्ट होता जा रहा है कि अमेरिका अफगानिस्तान से निकालने के बाद जल्द दूसरी वैसी किसी मुसीबत को गले नहीं लगाना चाहता | इसके साथ ही उसे ये भी लगता है कि यूक्रेन में घुसकर रूस से सैनिक टकराहट उसके दीर्घकालीन हितों के लिए नुकसानदेह होगी | लगभग ऐसा ही विचार पुतिन के मन में विचरण कर रहा है | वैसे अमेरिका चाहता है कि ये युद्ध लंबा चले | ऐसे में वह बाहर रहकर यूक्रेन को उसी तरह मदद करता रहेगा जिस तरह कभी वियतनाम में अमेरिकी फौजों से लड़ रहे साम्यवादी लड़ाकों को चीन और अफगानिस्तान में तालिबानों को रूस करता रहा | अमेरिका जानता है कि रूस भी एक सीमा के बाद ऐसा कुछ नहीं करेगा जिससे विश्व जनमत पूरी तरह से उसके विरूद्ध हो जाए | पुतिन को हिटलर का हश्र अच्छी तरह याद है | इसीलिये वे टर्की , इजरायल और भारत के जरिये युद्धविराम की कोशिशों पर सकारात्मक रवैया दिखा रहे हैं | उनको भी एक बात समझ में आ चुकी है कि अमेरिका के दोगलेपन को महसूस करने के बाद अब यूक्रेन नाटो में शामिल होने का जोखिम शायद ही उठाएगा और अमेरिका भी दूसरे देश की जमीन पर जाकर अपनी शक्ति का अपव्यय नहीं  करना चाहेगा | लेकिन  जंग जारी रही तब रूस के ऊपर आर्थिक प्रतिबंधों का शिकंजा कसता ही जायेगा जिससे उसकी अर्थव्यवस्था चौपट हो जायेगी | विश्व बाजार में रूस अनाज , प्राकृतिक गैस , कच्चा तेल और सैन्य सामग्री का बड़ा निर्यातक है किन्तु  यूक्रेन पर हमले के बाद यूरोप सहित अमेरिका समर्थक अनेक देश उससे कन्नी काटने लगे | अमेरिका की असली चाल यही है कि रूस को यूक्रेन में लम्बे समय तक उलझाए रखकर उसे कूटनीतिक और आर्थिक मोर्चे पर कम्जोर कर दिया जाए | सीरिया में पुतिन ने जिस तरह अमेरिका के दबाव को बेअसर किया उसके कारण वह भन्नाया हुआ था | यूक्रेन ने उसे  बदले का अवसर दे दिया | लेकिन दोनों महाशक्तियों के लिए ये युद्ध प्रतिष्ठा से बढकर गले की हड्डी बन गया है | प. एशिया में चले युद्ध में  दोनों परदे के पीछे थे लेकिन यूक्रेन ने इन दोनों को सामने लाकर खड़ा कर दिया है | यदि अमेरिका , उसको केवल आर्थिक और सैन्य सहायता देने तक ही सीमित बना रहता तब उसका रूस से सीधा टकराव न होता लेकिन पुतिन ने जैसे ही युद्ध शुरू किया त्योंही आर्थिक प्रतिबंधों के रूप  में अमेरिका ने उससे सीधा पंगा ले लिया जिसकी वजह से ये आशंका व्यक्त की जाने लगी कि ये लड़ाई विश्व युद्ध में तब्दील हो सकती है |  यूक्रेन भी आये दिन ये चेतावनी देता रहता है | ये देखते हुए कहना गलत न होगा कि दोनों महाशक्तियां इस संकट में बुरी तरह उलझकर रह गई हैं | अमेरिका को लगता है कि यदि रूस  विजेता बनकर उभरा तब उसका दबदबा बढ़ने के साथ ही चीन भी ताइवान में ऐसी ही सैन्य कार्रवाई करने की जुर्रत कर सकता है | वहीं रूस को लगने लगा है कि उसने कदम पीछे खींचे तो जो  देश उसके साथ व्यापारिक संबंध बनाए हुए हैं वे भी अमेरिका के दबाव के चलते उससे छिटकने न लगें | भारत के तटस्थ बने रहने और चीन द्वारा दूर से बैठकर नजारा देखने की वजह से भी पुतिन का उत्साह कुछ ठंडा पड़ा है | भले ही अमेरिका और रूस दोनों ऊपरी तौर पर आस्तीनें चढ़ाते दिखते हों लेकिन मन ही मन दोनों  समझ रहे हैं कि ये लड़ाई उन दोनों के लिए जी का जंजाल बनती जा रही है | इतना जरूर है कि दोनों महाशक्तियों के बीच वर्चस्व की खींचातानी में यूक्रेन पूरी तरह तबाही की स्थिति में आ गया | जैसी खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक रूसी सेना आगे बढ़ने के बजाय पीछे हट रही है जिसे कुछ लोग उसकी हताशा बता रहे हैं तो कुछ का मानना है कि ये किसी रणनीति का हिस्सा है | परमाणु युद्ध की जो धमकी पुतिन शुरुवात में दे रहे थे उनमें भी कमी आई है | युद्ध के मैदान से दूर युद्धविराम की कोशिशें भी जारी हैं लेकिन इस बारे में अब तक किसी प्रकार की पुख्ता जानकारी नहीं मिल सकी | आश्चर्य की बात ये है कि सुलह करवाने के लिए बजाय किसी महाशक्ति के टर्की , इजरायल और भारत जैसे  देशों का नाम सामने आ रहा है | ये विवाद कहाँ जाकर थमेगा ये फिलहाल कहना कठिन है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि दुनिया को दो खेमों में बांटने वाली महाशक्तियां यूक्रेन में बुरी तरह फंस गयी हैं और उनके लिए इधर कुआ उधर खाई वाली स्थिति बन गई है | 


-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 30 March 2022

गड़करी द्वारा कांग्रेस को शुभकामना देना सोची – समझी रणनीति का हिस्सा



 केन्द्रीय परिवहन मंत्री नितिन गड़करी अपनी कार्यकुशलता के साथ ही स्पष्टवादिता के लिए भी जाने जाते हैं | उनकी सोच बहुत ही व्यवहारिक और समयानुकूल होती है | सार्वजनिक मंचों पर अनेक बार वे ऐसी बातें कह जाते हैं जो सतही तौर पर उनकी पार्टी से मेल नहीं खाती किन्तु उनकी  छवि  आम राजनेताओं से अलग हटकर है | हाल ही में उन्होंने कांग्रेस को लेकर जो कहा उसकी राजनीतिक जगत में  काफी चर्चा हो रही है | पुणे में बोलते हुए उन्होंने कांग्रेसजनों को सलाह दी कि वे पार्टी न छोड़ें क्योंकि हर पार्टी के साथ इस तरह के उतार - चढ़ाव आते रहते हैं | भाजपा का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि 1984 में उसे लोकसभा में मात्र 2 सीटें मिलीं थीं | यहाँ तक की अटल जी तक चुनाव हार गये | उस समय अनेक  लोगों ने उन्हें भाजपा छोड़ने की सलाह दी किन्तु वे उसी में बने रहे | कालान्तर में मेहनत करते – करते पार्टी ने देश की सत्ता हासिल कर ली | उन्होंने कांग्रेस के कमजोर होने पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि उसकी कीमत पर  क्षेत्रीय दलों का उभार  लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है | कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है और लोकतंत्र के  दूसरे पहिये के रूप में उसका होना जरूरी है | इसके साथ ही श्री गड़करी ने ये भी कहा कि कांग्रेस के प्रति उनकी शुभकामनाएं हैं और वे उसे मजबूत होते देखना चाहेंगे | उनके इस बयान पर समाचार माध्यमों में बहस छिड़ गई क्योंकि ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के विपरीत सोच का परिचायक है | कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसमें श्री मोदी का विरोध भी देखने लग गए | दूसरी तरफ कांग्रेस के भीतर इस बयान के बाद परिवहन मंत्री के प्रति प्रशंसा का भाव जागा है | वैसे भी बतौर मंत्री उन्होंने राजनीतिक सीमाओं से ऊपर उठकर अपना समर्थक वर्ग तैयार कर लिया है |  लेकिन कांग्रेस को मजबूत होने की मंगलकामना देना और पार्टी छोड़ने की सोचने वाले नेताओं में  अच्छे दिन आने का आशावाद जगाने का उनका प्रयास राजनीतिक जगत में किसी आश्चर्य से कम नहीं लगता | ये बयान ऐसे समय आया है जब कांग्रेस के भीतर जी - 23 नामक नेताओं का गुट गांधी परिवार के एकाधिकार को चुनौती दे रहा है | पंजाब में सत्ता गंवाने और उ.प्र में पूरी तरह धराशायी हो जाने के बाद कांग्रेस का मजाक उड़ने लगा | प. बंगाल में उसे जब एक भी सीट नहीं मिली तो ममता बैनर्जी ने तंज कसा कि विपक्ष को अब उनके नेतृत्व में एकजुट हो जाना चाहिए क्योंकि कांग्रेस में श्री मोदी का सामना करने का दम नहीं बचा | हाल में उनका एक बयान और आया जिसमें उन्होंने कांग्रेस को तृणमूल में विलीन होने की सलाह तक दे डाली | इसी तरह पंजाब में धमाकेदार जीत के बाद आम आदमी पार्टी ने भी ये कहना शुरू कर दिया कि वह कांग्रेस का विकल्प बनने की राह पर बढ़ रही है क्योंकि उसमें भाजपा को हराने की क्षमता नहीं है | राजनीतिक समीक्षक भी ये मान बैठे हैं कि 2014 के बाद से कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से कमजोर होती जा रही है उसकी वजह से वह भाजपा का विकल्प बनने की स्थिति में नहीं रह गई | उ.प्र , बिहार , प.बंगाल , तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में  दयनीय हालत देखते हुए उसका केन्द्रीय सत्ता में लौटना दिवास्वप्न ही लगता है | 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी गठबंधन की जो संभावनाएं टटोली जा रही हैं उनके केंद्र बिंदु के तौर पर ममता बैनर्जी , उद्धव ठकरे और केसी राव के नाम हैं | तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन के अलावा सपा नेता अखिलेश यादव भी चर्चा में रहते हैं | वैसे इस समय भाजपा के विरोधी के तौर पर आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल का नाम भी काफी प्रमुखता से लिया जा रहा है लेकिन उसकी रीति – नीति में एकला चलो का भाव दिखाई देता है | इसलिए लौट – फिरकर बात फिर वहीं आ जाती है कि विपक्ष के गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा ? अब तक कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी  इस बारे में पहल करती आईं थीं लेकिन दशा ये हो गयी है कि बाकी विपक्षी दल  कांग्रेस को डूबता जहाज मानकर उसके साथ बैठने से कतरा रहे हैं | इन हालातों में श्री गड़करी द्वारा उसके मजबूत होने की कामना करना  पर बेहद चौंकाने वाला है | प्रधानमंत्री के अलावा गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का एक भी दिन ऐसा नहीं जाता होगा जब वे कांग्रेस को न कोसते हों | निकट भविष्य में गुजरात , हिमाचल , म.प्र , राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना हैं वहां कांग्रेस ही भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंदी है | ऐसे में श्री गड़करी द्वारा अपने सबसे प्रमुख राजनीतिक प्रतिस्पर्धी के मजबूत होने की कामना करते हुए उसके नेताओं को निराश न होने की जो सलाह दी गयी वह आज के दौर की राजनीति के लिए किसी अजूबे से कम नहीं है | भाजपा में जबसे मोदी – शाह युग प्रारम्भ हुआ है तबसे कांग्रेस के प्रति किसी भी तरह की रियायत बरतने से परहेज किया जाने लगा है | अटल – आडवाणी के समय की भाजपा को आज की  तुलना में अधिक सहनशील माना जाता था | ऐसे में श्री गड़करी ने जो कुछ कहा वह आश्चर्य में डालने वाला है | लेकिन उनके संदर्भित बयान में राजनीतिक दूरदर्शिता भी नजर आती है | बीते कुछ समय से ये देखने में आ रहा है कि क्षेत्रीय पार्टियाँ कांग्रेस की तुलना में भाजपा का बेहतर तरीके से मुकाबला कर रही हैं | बिहार में भले ही राजद और उ.प्र में सपा हार गई किन्तु उनकी तरफ से भाजपा को कड़ी चुनौती पेश की गई | प. बंगाल में भी तृणमूल का वर्चस्व कायम रहा | ऐसे में श्री गड़करी का बयान कांग्रेस का मनोबल बढाकर क्षेत्रीयं दलों को आगे बढ़ने से रोकने की रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है | उल्लेखनीय है वे पार्टी के अध्यक्ष भी रह चुके हैं और रास्वसंघ के भी काफी निकट हैं | आने वाले दिनों में राष्ट्रीय राजनीति में अनेक उतार – चढाव आने वाले हैं जिनमें कांग्रेस की भूमिका पर सबकी नजर रहेगी | ये बात सभी मानते हैं कि देश में एक सक्षम राष्ट्रीय विकल्प का होना लोकतंत्र की सेहत के लिए जरूरी है और आज की परिस्थिति में कांग्रेस ही उसके लिए सबसे सही चयन होगा | लेकिन उसे स्वयं को इसके लिए तैयार करना होगा | परिवहन मंत्री ने अपनी  पार्टी के बुरे दिनों की याद दिलाते हुए उसको जो सीख दी यदि  पार्टी की लगाम  थामे बैठे नेता वह समझ सकें तो वह मौजूदा दुरावस्था से निकल सकती है | वरना जैसा श्री गड़करी ने आशंका जताई क्षेत्रीय दल खाली स्थान भरने तैयार बैठे हैं , जो संसदीय लोकतंत्र के साथ ही संघीय ढांचे के लिए भी चिंताजनक होगा | श्री गड़करी के बयान का आशय ये भी लगाया जा सकता है कि भाजपा को भी बतौर प्रतिद्वंदी कांग्रेस ज्यादा सुविधाजनक लगती है , बजाय क्षेत्रीय दलों के |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 29 March 2022

सबका सपना घर हो अपना : मोदी की योजना को शिवराज ने सफल कर दिखाया



 म.प्र में आज प्रधानमंत्री आवास योजना – ग्रामीण के अंतर्गत निर्मित 5 लाख 21 हजार घरों में गृह प्रवेश होगा | राज्य सरकार द्वारा दी गई जानकारी के  अनुसार अब तक स्वीकृत  30 लाख से ज्यादा आवास में से 24 लाख का निर्माण हो चुका है | म.प्र उन सौभाग्यशाली राज्यों में से है जिनको इस योजना का बड़ा हिस्सा नसीब हुआ | सबसे अधिक संख्या उ.प्र के खाते में गई जो उसकी बड़ी आबादी को देखते हुए उचित भी है | म.प्र में इस योजना की जरूरत इसलिए भी ज्यादा  थी क्योंकि यहाँ आदिवासी जनसँख्या काफी अधिक है जो आज भी जीवनस्तर  के मापदंडों पर काफी पीछे हैं | यद्यपि सड़क और बिजली पहुँचने से आदिवासी इलाकों में भी विकास की रोशनी आने लगी है लेकिन अभी भी बहुत बड़ी संख्या  झोपड़ियों में बसर करने मजबूर हैं | आर्थिक दृष्टि से कमजोर अन्य वर्गों के पास भी सिर छिपाने के लिए छत नहीं है | शहरों में भी झुग्गियों का जाल बिछा हुआ है   | इस समस्या को हल करने के लिए वैसे तो स्व. राजीव गांधी ने 1985 में इंदिरा आवास योजना शुरू की थी किन्तु ये कहना पूरी तरह सही होगा कि नरेंद्र मोदी ने इस योजना को जिस तरह गतिशील और प्रभावशाली बनाया वह किसी सामाजिक क्रांति से कम नहीं है | उ.प्र में हुए विधानसभा चुनाव में सर्वेक्षण करने निकले पेशेवर लोगों को मतदाताओं से ये सुनने मिला कि उन्हें मोदी ने रहने को घर दिया है इसलिए वे भाजपा का ही समर्थन करेंगे | जिन्हें मकान नहीं मिला वे भी इस बात के प्रति  आशान्वित दिखे कि देर – सवेर उनको भी आवास मिल ही जावेगा | इस योजना ने प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में अकल्पनीय वृद्धि  तो की ही लेकिन उससे भी बड़ी बात ये हुई कि  जनता के मन में व्यवस्था के प्रति विश्वास उत्पन्न हुआ | वरना जनहित में बनाई गयी अनेक अच्छी सरकारी योजनाएं जमीन पर आते – आते तक दम तोड़ देती हैं | उस दृष्टि से  श्री मोदी की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने सत्ता सँभालते ही इस तरह की  जितनी भी योजनाएं शुरु कीं उनमें से अधिकतर पर प्रभावशाली तरीके से अमल हुआ | बताया जाता है प्रधानमंत्री कार्यालय इनके क्रियान्वयन पर पैनी निगाह रखता है  जिससे उनको समय पर लागू किया जाना संभव हो सका | म.प्र में चूंकि भाजपा का राज है इसलिए ऐसी  योजनाएं यहाँ समय पर सफलता के साथ लागू हो रही हैं | मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो वैसे भी जनता को लुभाने वाली योजनाओं के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध हैं | उनसे सीख लेकर  अन्य राज्यों ने भी उन योजनाओं को लागू किया जिनमें कुछ गैर भाजपा शासित भी हैं | आज जो कार्यक्रम आयोजित है वह निश्चित रूप से काफी बड़ा है | गर्मियों की शुरुवात में ही 5 लाख से ज्यादा बेघरबार लोगों को छत की छांव मिलना किसी सपने के साकार होने जैसा ही है | भारत में आज भी करोड़ों लोगों के पास पक्का तो क्या कच्चा मकान तक नहीं है | इसी तरह शौचालय जैसी मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति के प्रति श्री  मोदी ने जो संकल्पित भाव दिखाया उसका परिणाम शहरी बस्तियों के साथ ग्रामीण इलाकों में देखा जा सकता है | हालाँकि स्वच्छता अभियान की तरह से ही शौचालय की समस्या पूरी तरह हल नहीं हुई है लेकिन इन दोनों के प्रति जन साधारण के मन में रूचि तो जागी ही जो  बहुत बड़े सामाजिक परिवर्तन का संकेत है | अटल जल योजना श्री मोदी का अगला कदम है जिसके अंतर्गत हर घर में नल के द्वारा पानी पहुँचाने का भगीरथी प्रयास किया जा रहा है | इस योजना के पूरी तरह अमल में आने के बाद बिजली , पानी और सड़क जैसी समस्याएं दूर हो जायेगीं | लेकिन प्रधानमंत्री आवास योजना  सबसे क्रांतिकारी साबित हुई है | म.प्र सरकार इस बात के लिए प्रशंसा की हकदार है जो उसने प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत आवंटित राशि को समय पर खर्च कर लक्ष्य पूरा करने में तत्परता दिखाई | वैसे भी  सत्ता में बैठे राजनीतिक नेताओं की नजर सदैव आगामी चुनाव पर रहती है | और शिवराज सिंह तो इस मामले में बहुत ही आगे हैं  | एक साथ 5 लाख 21 हजार घरों का लोकार्पण निश्चित रूप से बड़ी उपलब्धि है जिसके लिए श्री मोदी और श्री चौहान दोनों बधाई के पात्र हैं | हालाँकि  कुछ राज्य ऐसे भी हैं जो राजनीतिक विद्वेष के कारण मोदी सरकार की जन कल्याणकारी नीतियों को लागू करने से परहेज करते हैं | इनमें प. बंगाल प्रमुख है किन्तु श्री चौहान इस मामले में बहुत ही व्यवहारिक हैं | इसीलिये केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार रहने के दौरान भी उन्होंने केंद्र से आई योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू करते हुए अपना  जनाधार सुदृढ़ किया | प्रधानमंत्री आवास योजना देश के आम लोगों को सुविधा और स्वाभिमान के साथ जीने का अवसर प्रदान करती है |  उससे उनके जीवन में आने वाले स्थायित्व और निश्चिंतता  की वजह से उनकी उद्यमशीलता बढ़ती है जिसका असर देश के विकास पर पड़ता है | ग्रामीण क्षेत्रों में आवास समस्या हल करना और भी जरूरी है ताकि  वहां रह रहे मानव संसाधन का पूरा उपयोग किया जा सके  | जनता की तकलीफों को दूर करने के मामले में यदि सत्ता में बैठे लोग ईमानदार और समर्पित रहें तो राजनेताओं के प्रति आम जनता के मन में जो वितृष्णा व्याप्त है वह लुप्त हो सकती है | दिल्ली में आम आदमी पार्टी और उ.प्र में भाजपा को लगातार दोबारा सत्ता मिलना ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि जनता काम करने वाले को पुरस्कृत करने में न कंजूसी करती है और न भेदभाव | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 28 March 2022

बैंक हड़ताल : मांगें उचित हो सकती हैं लेकिन समय गलत है



श्रमिक आन्दोलन में हड़ताल अंतिम हथियार के तौर पर उपयोग की जाती है | अपनी मांगों को लेकर श्रमिक संगठन हल्के और सांकेतिक तरीकों से विरोध कर सरकार पर दबाव बनाते हैं | लेकिन जब बात नहीं बनती तब उन्हें हड़ताल जैसा कदम उठाना पड़ता है | और इसके लिए भी बाकायदा पूर्व सूचना देनी होती है , अन्यथा वह अवैधानिक करार दी जाती है | उस दृष्टि से देश भर के बैंकों में आज और कल दो दिवसीय हड़ताल श्रमिक संगठनों द्वारा पूर्व में दिए जा चुके नोटिस के अंतर्गत हो रही है जो श्रमिक कानूनों के अंतर्गत पूरी तरह से वैध है | बैंकों के कर्मचारी संगठन सरकारी बैंकों के निजीकरण और विलीनीकरण के अलावा इस क्षेत्र में किये जा रहे अन्य नीतिगत बदलावों के विरुद्ध आवाज उठाते रहे हैं | आर्थिक सुधारों को लागू करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा उठाये जा रहे विभिन्न क़दमों को कर्मचारी विरोधी मानकर उन्हें रोकने के लिए भी श्रमिक संगठन सरकार से लगातार मांग करते आ रहे  हैं | इसके पहले भी अनेक बार हड़ताल जैसा कदम उठाया गया किन्तु ऐसा लगता है कि दोनों पक्षों के बीच सहमति नहीं बन सकी जिसका परिणाम ये दो – दिवसीय हड़ताल है | बैंक कर्मचारियों की मांगें कितनी जायज हैं ये अलग विषय है , वहीं  दूसरी तरफ सरकार का भी अपना पक्ष है  | ऐसे में बातचीत के जरिये  गतिरोध दूर न होने के कारण हड़ताल की नौबत आ गयी | भारत में श्रमिक संगठनों को अपनी मांगों के लिए आन्दोलन करने का पूरा अधिकार है किन्तु इसके साथ उनको इस बात  का ध्यान  भी रखना चाहिए कि उससे आम जनता को तकलीफ न हो |  इसके साथ ही राष्ट्रीय हितों की चिंता करना भी उनका कर्तव्य है | उस दृष्टि से जब देश भर में वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर सरकारी और निजी क्षेत्र में वार्षिक लेखा बंदी चल्र रही हो तब साल के अंतिम दिनों में प्रत्यक्ष बैंकिंग सेवाओं को अवरुद्ध कर देना उचित  नहीं कहा जा सकता | भले ही डिजिटल लेन देन के कारण बैंक संबंधी बहुत से काम  घर बैठे होने लगे हैं किन्तु आज भी बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो मोबाइल या इंटरनेट बैंकिंग से अनभिज्ञ होने के कारण  बैंक की शाखा के जरिये ही लेनदेन करते हैं और चैक के जरिये भुगतान लिया और दिया जाता है | ये देखते हुए वित्तीय वर्ष की समाप्ति के ठीक पहले दो दिन बैंक की शाखाओं में काम न होने से अकल्पनीय परेशानी आम उपभोक्ता के साथ सरकारी विभागों को भी होगी | इस बारे में उल्लेखनीय बात ये है कि बीते शनिवार और रविवार को भी नियमित  अवकाश रहने से सोमवार और मंगलवार मिलाकर बैंकों में चार दिन तक काम बंद रहने की स्थिति बन गई | निश्चित रूप से देश भर में बड़ी संख्या में बैंकिंग से जुड़े उपभोक्तओं को इसकी वजह से तरह – तरह की  दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है |  वृद्धावस्था और निराश्रित पेंशन  की तरह ही अन्य शासकीय अनुदानों के लाभार्थी वर्ग  को भी इस हड़ताल से परेशानी होगी | 30 मार्च को बैंकों में कामकाज शुरू होने पर भारी भीड़ उमड़ेगी जिससे ग्राहकों को होने वाली परेशानियों का अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है | ये देखते हुए श्रमिक संगठनों द्वारा हड़ताल के समय का जो चयन किया गया वह जनहित में नहीं है | बैंकिंग सेवा अब केवल संपन्न वर्ग तक सीमित नहीं रहते हुए उन लोगों तक भी जा पहुँची है जो गरीबी रेखा से भी  नीचे रहकर जीवन यापन करते हैं | जनधन योजना के अंतर्गत खुले करोड़ों खातेदारों में से अधिकतर ने उसके पहले बैंकों में शायद ही कदम रखा होगा | और भी ऐसे वर्ग हैं जिनके लिए लगातार चार दिनों तक बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध न होना मुसीबत का कारण बन गया है | बहरहाल इस बारे में सरकार को भी पूरी तरह निर्दोष नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह भी ऐसे मामलों में समय पर फैसले लेने की बजाय टालती रहती है | बेहतर होता श्रम और वित्त  मंत्रालय बैंक कर्मचारी संगठनों से बातचीत कर हड़ताल को  इन तिथियों पर टालने के लिए राजी करता | हालाँकि ऐसा होना काफी मुश्किल होता क्योंकि हड़ताल के आयोजक श्रमिक संगठनों में अधिकतर केंद्र सरकार के वैचारिक विरोधी राजनीतिक दलों से सम्बद्ध हैं | ये भी विचारणीय बात है कि जिन मांगों  को लेकर बैंक हड़ताल हो रही है उनसे मिलते जुलते मुद्दे सार्वजनिक क्षेत्र के लगभग सभी उद्यमों के कर्मचारी उठा रहे हैं | मुख्य रूप से जिन बातों पर कर्मचारी वर्ग आंदोलित और आक्रोशित है , वे हैं निजीकरण , विनिवेश और विदेशी पूंजी को अनुमति आदि | लेकिन ये भी देखने में आया है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में कार्यरत कर्मचारी कहने को ही श्रमिक रह गया है | उसका वेतन , भत्ता एवं अन्य सुविधाएँ तुलनात्मक तौर पर इतनी तो हैं ही कि वह साधारण स्तर से बेहतर ज़िन्दगी जी सकता है | यही वजह है कि आन्दोलन भी अब महज औपचारिकता बनकर रह गये हैं | समय आ गया है जब श्रमिक संगठनों को भी अपने तौर – तरीकों में समयानुकूल सुधार करना चाहिये जिससे उनके आंदोलनों को जनता की सहानुभूति मिले न कि नाराजगी | ये देखते हुए वित्तीय वर्ष के आखिरी दिनों में लगातार चार दिन बैंक बंद रहने से सरकार और जनता के लिए तो परेशानी पैदा हुई ही है लेकिन इसके साथ ही देश की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगी | भविष्य में यदि श्रमिक संगठन अपने आन्दोलन के साथ ही जनता को होने वाली असुविधा का ध्यान नहीं रखेंगे तो फिर उनका प्रभाव और भी कम होता जायेगा | वैसे उन्हें ये भी समझ लेना चाहिए कि निजीकरण , विनिवेश और विदेशी पूंजी अब अर्थव्यवस्था का स्थायी हिस्सा बन चुका है | खुदा न खास्ता अगर साम्यवादी सरकार भी देश में बन जाए तो आज की दुनिया में उसे भी इसी तरह की आर्थिक नीतियों को अपनाना पड़ेगा | चीन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 26 March 2022

पचमढ़ी जाने की क्या जरूरत थी : ये तो भोपाल में भी हो सकता था



 म.प्र के मुख्यमंत्री अपने मंत्रीमंडल के साथ बस में बैठकर कल रात प्रदेश के हिल स्टेशन पचमढ़ी जा पहुंचे | आज और कल दो दिन तक चलने वाले इस चिंतन शिविर में 2023 में होने वाले  विधानसभा चुनाव के लिए रणनीति बनाई जावेगी | इसके लिए सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों को प्रभावी तरीके से लागू करने पर विचार करते हुए ये सुनिश्चित किया जावेगा कि उनका लाभ पूरी तरह आम जनता तक पहुंच सके | उ.प्र के हालिया परिणाम से प्रेरणा लेते हुए मुख्यमंत्री ने मंत्रीमंडल को चुनावी चुनौतियों  का सामना करने हेतु तैयार करने का जो कदम उठाया वह उन्हें एक कुशल सेनापति का प्रमाणपत्र देने के लिए पर्याप्त है | भाजपा चूंकि संगठन आधारित पार्टी है इसलिए उससे ऐसी अपेक्षा की भी जाती है | मुख्यमंत्री चूंकि संगठन के निचले स्तर से उठकर ही इस मुकाम तक पहुंचे हैं इसलिए वे हवा में उड़ने के बजाय ज़मीनी सच्चाई से वाकिफ हैं | अति आत्मविश्वास किस हद तक नुकसानदेह होता है इसका कटु अनुभव वे 2018  में कर चुके थे | इसीलिये इस बार कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते | बीते कुछ दिनों से अपने स्वभाव के विपरीत श्री चौहान जिस तरह से प्रशासनिक आक्रामकता दिखा रहे हैं उससे लगता है उन्होंने योगी आदित्यनाथ के तौर - तरीके अपना लिये हैं  | दूसरे की सफलता से सीखना वैसे भी समझदारी होती है | चूंकि इस मंत्रीमंडल में दर्जन भर वे मंत्री भी हैं जो ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में आये ,  इसलिए शायद श्री चौहान को लगा होगा कि उन्हें पार्टी की चुनावी कार्यशैली में पारंगत किया जाये क्योंकि  कांग्रेस में चुनाव प्रत्याशी लड़ते हैं जबकि भाजपा में पार्टी  | लेकिन इस बारे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि पूरे मंत्रीमंडल को उठाकर भोपाल से पचमढ़ी ले जाने का औचित्य क्या है ? राजधानी में स्थित सचिवालय में बैठकर भी तो  मंत्रीगण सरकार की नीतियों और जनहित के कार्यक्रमों का सही तरीके से क्रियान्वयन करने की  कार्ययोजना बना सकते थे | आखिर मंत्रीमंडल की नियमित बैठकें भी तो उसी जगह होती हैं | और फिर वहां समस्त सरकारी दस्तावेज और अमला भी उपलब्ध है जो जरूरी जानकारी और अन्य सेवायें प्रदान करवा सकता था | ऐसे में भोपाल छोड़कर हिल स्टेशन जाना समझ से परे है | हालांकि  आजकल राजनीतिक दलों की राष्ट्रीय बैठकें भी सितारा होटलों के अलावा महंगे रिसार्ट में होने लगी हैं | लेकिन भोपाल में तो भाजपा के पास सर्वसुविधायुक्त कार्यालय भी है  जिसमें बड़े – बड़े आयोजन होते रहते हैं | यदि मुख्यमंत्री सचिवालय से दूर रहकर चिंतन करना चाहते थे तो पार्टी दफ्तर उसके लिए उपयुक्त स्थान होता  | चूंकि मंत्रियों के दो दिवसीय शिविर का मूल उद्देश्य चुनावी तैयारी है इसलिए पार्टी मुख्यालय में इस तरह का आयोजन पूरी तरह स्वाभाविक और आडम्बर रहित होता |  बस में जाने के पीछे शायद सरकारी धन बचाने का उद्देश्य रहा हो किन्तु जहां पूरी सरकार बैठी हो वहां प्रशासनिक और सुरक्षा व्यवस्था पर तो खर्च होगा ही , जिसका ब्यौरा सामने आने से रहा | चूंकि बैठक मंत्रीमंडल की है लिहाजा वह पूरी तरह से सरकारी कार्यक्रम   ही है | बेहतर होता  सरकारी पर्यटन से बचते हुए भोपाल में बैठकर ही चिंतन – मनन  किया जाता  | और फिर  शिविर में कोई आध्यात्मिक चिंतन तो होना नहीं है जिसके लिए शहर के वायु और ध्वनि  प्रदूषण से दूर एकांत की जरूरत हो | मंत्रीमंडल के सदस्यों की कार्यशाला जैसी व्यवस्था भोपाल में आसानी से कम खर्च में हो जाती | ऐसे में जब प्रदेश पर कर्ज का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है और अपना खर्च चलाने के लिए प्रदेश सरकार पेट्रोल – डीज़ल पर भारी – भरकम करारोपण करते हुए जनता का तेल निकाल रही हो तब इस तरह के जलसे सामंती दौर की याद दिलवाते हैं |  म.प्र आर्थिक दृष्टि से अच्छी स्थिति में होता तब इस तरह की  बैठक कहीं भी होती तो किसी को उंगली उठाने का मौका नहीं मिलता | लेकिन रोजमर्रे के काम चलाने के लिए जो सरकार लगातार कर्ज ले रही हो उसका मंत्रीमंडल अपने कामकाज में कसावट लाने के लिए राजधानी छोड़कर किसी हिल स्टेशन में जाए , ये बात आसानी से गले उतरने वाली नहीं है | पार्टी विथ डिफ़रेंस का दावा ऐसे आयोजनों से संदेह के घेरे में आ जाता है | भाजपा के वैचारिक अभिभावक रास्वसंघ की भी चिंतन बैठकें होती हैं | लेकिन उनका स्वरूप बेहद साधारण होता है | पता नहीं सत्ता में बैठने के बाद भाजपा नेता संघ से मिले संस्कारों को क्यों भूल जाते हैं ? म.प्र में कुछ समय पहले ही भाजपा द्वारा  संभागीय संगठन मंत्री नामक व्यवस्था महज इसलिए समाप्त कर दी गई क्योंकि उससे जुड़े अधिकांश व्यक्ति संघ के संस्कारों से दूर होने लगे थे | शिवराज सिंह स्वयं संघ रूपी पाठशाला से आये हैं | बेहतर होता वे अपनी  सरकार को भी उसी सादगी में ढालते  | सवाल और भी हैं लेकिन फिलहाल तो भाजपा और उसकी सरकार को केवल ये जवाब देना चाहिए कि जो चिंतन पचमढ़ी  की शीतल वादियों में बैठकर किया जा रहा है , क्या वह भोपाल के सचिवालय या भाजपा के प्रदेश कार्यालय में सम्भव नहीं था ? आखिर वहां भी तो एयर कंडीशनर लगे हैं |

- रवीन्द्र वाजपेयी


 

Friday 25 March 2022

मुफ्त उपहारों की सौगात और खाली होते सरकारी खजाने



भारत एक लोकतान्त्रिक संघीय गणराज्य है | वैचारिक मतभिन्नता के बावजूद केंद्र और राज्य एक दूसरे के साथ समन्वय बनाकर काम करते हैं | हालाँकि राजनीतिक स्वार्थों के कारण दोनों  के बीच टकराव भी बढ़ता जा रहा है जिसका ताजा प्रमाण प. बंगाल है | बावजूद इसके संघीय ढांचे का अस्तित्व कायम है जिसके अंतर्गत दोनों ही  संविधान के दायरे में रहकर अपनी – अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं | यही वजह है कि पंजाब में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसके संयोजक अरविन्द केजरीवाल को बधाई देते हुए पंजाब के विकास में केंद्र द्वारा भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया जो कि औपचारिकता भी थी  और परम्परा भी | इसी तरह राज्य का नव निर्वाचित मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री  के अलावा केन्द्रीय मंत्रियों से सौजान्य  भेंट कर पारस्परिक सम्बन्ध मजबूत करते हुए अपने राज्य के विकास हेतु केंद्र के सहयोग की उम्मीद व्यक्त करता है | गत दिवस पंजाब के नये  मुख्यमंत्री भगवंत मान इसी सिलसिले में प्रधानमंत्री श्री मोदी से मिले और  राज्य की खस्ता वित्तीय स्थिति को देखते हुए आगामी दो साल तक प्रति वर्ष 50 हजार करोड़ रु. देने के मांग की | इस प्रकार 1 लाख करोड़ की राशि की मांग श्री मान द्वारा प्रधानमंत्री के समक्ष रख दी गई | सोशल मीडिया के दौर में इस तरह की मेल – मुलाकात भी बिना देर लगाये चर्चा में आ जाती है | मुख्यमंत्री द्वारा प्रधानमंत्री से राज्य की दयनीय आर्थिक को देखते हुए 1 लाख करोड़ के पैकेज की मांग पर फौरन  उनका मजाक उड़ाया  जाने लगा कि मुफ्त बिजली और ऐसी ही सौगातें बांटकर वाहवाही आप लूटें और उसके लिए पैसा केंद्र सरकार दे | हालाँकि श्री मान पहले मुख्यमंत्री नहीं हैं जो अपने राज्य के खाली खजाने का रोना रोते हुए केंद्र सरकार के पास मदद हेतु गए हों | प्राकृतिक आपदा के समय भी ऐसा देखने में आता है |  विकास की दौड़ में पीछे रह  गये राज्यों के मुख्यमंत्री अक्सर विशेष पेकेज की मांग किया करते हैं | लेकिन श्री मान के आग्रह पर जिस तरह की टिप्पणियाँ आईं उनमें से अधिकांश का अभिप्राय ये है कि चुनाव लड़ने वाले दलों को ये पता  कर लेना चाहिये कि वे मुफ्त उपहारों के जो वायदे कर रहे हैं ,  उनको पूरा करने के लिए सरकारी खजाने में धन है या नहीं और वे उनसे पड़ने वाले बोझ की व्यवस्था किस प्रकार करेंगे ? आम आदमी पार्टी में एक से बढकर एक पेशेवर हैं | पंजाब के प्रभारी बनाये गये राघव चड्डा तो खुद ही चार्टर्ड अकाऊंटेंट हैं | इसलिए ये अपेक्षा करना गलत नहीं है कि उन्होंने पंजाब की वित्तीय स्थिति का सही – सही आकलन किया होगा | ऐसे में मुफ्त बिजली , पानी और पेंशन आदि के लिए धन की व्यवस्था कैसे होगी इस बात का ब्यौरा भी वायदे के साथ किया जाता तब वह उस किस्म की नई राजनीति कही जाती जिसका दावा श्री केजरीवाल किया करते हैं | हालांकि किसी राज्य द्वारा केंद्र से पैकेज मांगना अति स्वाभाविक है | लेकिन उसके साथ उसके उद्देश्य को भी स्पष्ट किया जाना चाहिये | पंजाब देश के समृद्धतम राज्यों में अग्रणी था | हरित क्रांति के साथ ही औद्योगिक विकास से वहां खुशहाली आई थी | लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह ने मुफ्त बिजली किसानों को देकर मुफ्त उपहारों का जो सिलसिला शुरू किया उसके  कारण हालात बिगड़ना शुरू हुए और राज्य अरबों – खरबों के कर्ज में डूब गया | ये बात केवल पंजाब के बारे में नहीं है | देश  के सभी राज्य इसी हालात का शिकार हैं | उ.प्र में भी समाजवादी पार्टी ने मुफ्त बिजली का कार्ड खेला था लेकिन मतदाताओं ने उस पर ध्यान नहीं दिया | केंद्र सरकार के साथ ही राज्य भी गरीबों को सस्ता और मुफ्त अनाज आदि दे रहे हैं | लोक कल्याणकारी शासन में जनता के लिए ऐसा किया जाना अपेक्षित ही है किन्तु जिस तरह रासायनिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग कर ज्यादा से ज्यादा  फ़सल लेने के फेर में खेती  की जमीन खराब हो गई उसी तरह वोटों की अधिकतम फसल के फेर में जिस मुफ्त रूपी खाद और दवाइयों का उपयोग धड़ल्ले से किया जाने लगा उसने सरकारों  की आर्थिक उर्वरता को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया है | मुफ्त बिजली की बजाय यदि उसके दाम कम किये जाएँ तो समाज के प्रत्येक वर्ग को लाभ मिल सकेगा | मुफ्त शिक्षा और चिकित्सा जैसे कदम निश्चित रूप से दूरगामी लाभ देने वाले होते हैं | आम आदमी पार्टी को दिल्ली में मुफ्त  बिजली और पानी जैसे  वायदों पर मिली चुनावी सफलता हर जगह कारगर हो जायेगी , ये जरूरी नहीं है क्योंकि हर राज्य की परिस्थितियाँ अलग  होती हैं | श्री मान ने प्रधानमंत्री से मिलने के बाद ये भी कहा कि दो वर्ष के भीतर वे राज्य की माली हालत सुधार लेंगे | यद्यपि  इसका कोई ठोस उपाय वे नहीं बता सकते क्योंकि पंजाब की सत्ता संभालने के बाद अब आम आदमी पार्टी स्वाभाविक रूप से वहां  लोकसभा चुनाव में ज्यादा से सीटें जीतने के लिए जनता पर नये कर लगाने से बचना  चाहेगी | देश की हर राजनीतिक पार्टी सत्ता पाने और उसमें बने रहने के लिए इसी तरह के उपाय करने लगी है | यही वजह है कि एक तरफ तो मुफ्त में उपकृत होने वाला बड़ा वोट बैंक है वहीं  दूसरी तरफ महंगाई की मार से हलाकान करदाता | उ.प्र के चुनाव में मुफ्त अनाज वितरण भाजपा की जीत में काफी निर्णायक रहा | वैसे भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत 2 रु. और 1 रु. प्रति किलो में क्रमशः चावल और गेंहू दिया ही जा रहा था | लेकिन ये सच है कि सरकारें चाहे किसी भी पार्टी की हों , वे  येन केन प्रकारेण वोटों की  फसल काटने में लगी रहती हैं | सस्ता और मुफ्त बांटकर महंगा पेट्रोल , डीजल और रसोई गैस के अलावा गैर लाभार्थी तबके को महंगी बिजली देकर इसको दे , उससे ले वाली स्थिति बनाई जा रही है | जिन लोगों ने श्री मान का मजाक उड़ाया वे निश्चित रूप से उनके राजनीतिक विरोधी होने के साथ ही उस वर्ग के होंगे जिन्हें सरकारी खैरात नहीं मिलती | लेकिन ये बात पूरी तरह सही है कि बिना ठोस  आर्थिक प्रबंध के इस तरह के वायदों पर कानूनी रोक लगनी चाहिए | सर्वोच्च न्यायालय हालाँकि इस बारे में अनेक बार पूछताछ कर चुका है  | लेकिन सभी राजनीतिक दल ऐसे मामलों में एक ही थैली के चट्टे – बट्टे हैं इसलिए कोई उसका संज्ञान नहीं लेता | उ.प्र में भाजपा द्वारा मुफ्त अनाज बांटने को मुद्दा बनाये जाने पर विरोधी ये कहकर आलोचना करते रहे कि ये मतदाताओं को लालच देकर खरीदने जैसा है | ये भी कहा गया कि क्या केवल पांच किलो अन्न से ज़िन्दगी चल सकती है ? ऑटो वालों को माह में एक बार मुफ्त ईंधन के अलावा होली – दीपावली पर मुफ्त गैस सिलेंडर जैसी सौगातों के ऐलान भी हुए | ऐसे में भविष्य में जो पार्टी जितना ज्यादा मुफ्त बांटेंगी वह सत्ता हासिल करती जायेगी | यदि यही नई राजनीति है तब सरकारी खजाना खाली का खाली ही रहेगा और करदाताओं पर बोझ बढ़ाने का सिलसिला भी |  

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 24 March 2022

ममता बंगाल संभालें क्योंकि क्षेत्रीय दलों की उंची उड़ान जनता को पसंद नहीं



भारतीय राजनीति में ये देखा गया है कि जिस भी क्षेत्रीय नेता ने राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित होने की कोशिश की तो उसकी अपने राज्य में ही पकड़ कमजोर पड़ गई | इसका कारण ये है कि क्षेत्रीय दलों की  राजनीति स्थानीय अथवा जातिगत मुद्दों पर आधारित होने से  जनता की उनसे अपेक्षा होती है कि वे उन्हीं के इर्द - गिर्द रहकर काम करें | जिन दलों ने इस सूत्र को समझ लिया वे लम्बे समय तक अपना प्रभाव कायम रख सके | इसके जो सबसे अच्छे उदहारण हैं उनमें पहला तमिलनाडु के दोनों दल द्रमुक और अद्रमुक हैं जो पचास साल से राज्य की राजनीति पर काबिज हैं | केंद्र की अनेक सरकारें इन दोनों के समर्थन पर टिकी रहीं लेकिन इन्होंने एक नगरनुमा केंद्र शासित पुडुचेरी के अलावा अन्य किसी राज्य में कदम नहीं रखे  | तमिल भाषा के नाम पर हिन्दी का विरोध और दलित आन्दोलन की भावना को जिन्दा रखना इनकी कार्यप्रणाली है | यद्यपि दोनों ही पार्टियां परिवारवाद और व्यक्ति पूजा में डूबी रहीं किन्तु क्षेत्रीय पहिचान बनाए रखने के कारण इन्होंने राष्ट्रीय दलों को वहां पैर नहीं ज़माने दिए | दूसरा उदाहरण है उड़ीसा का बीजू जनता दल जिसके मुख्यमंत्री नवीन पटनायक राजनीति से सर्वथा दूर रहते थे | लेकिन अपने पिता बीजू पटनायक की मृत्यु के बाद उन्होंने उनकी विरासत संभाली और शुरुवात में कमजोर नजर आने के बाद अपनी पकड़ इतनी मजबूत बनाई कि लगातार पांचवी बार मुख्यमंत्री बन गये | उनके पिता तो राष्ट्रीय राजनीति में  रूचि लेते भी थे किन्तु नवीन ने अपने को उड़ीसा तक सीमित रखा और इसीलिये  जनता सीधे – सादे समझे जाने वाले इस नेता को सिर आँखों पर बिठाये हुए है | श्री पटनायक  विपक्ष के गठबंधन से  दूरी बनाकर केवल राज्य के हितों पर ध्यान देते हैं  | इतिहास साक्षी है कि चौधरी चरण सिंह , एन टी रामाराव , देवीलाल , मुलायम सिंह यादव और लालू यादव जैसे नेताओं की राष्ट्रीय राजनीति में पैर जमाने की महत्वाकांक्षा उनके लिए नुकसानदेह साबित हुई और वे अपने राज्य में ही कमजोर होते गये | शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे  भी क्षेत्रीय दल के तौर पर अपनी सीमाएं जानते थे | इसलिए  राष्ट्रीय राजनीति में टांग अड़ाने से बचते रहे | अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में शिवसेना के शामिल होने के बावजूद वे उनके शपथ ग्रहण तक में नहीं गये | मुम्बई और महाराष्ट्र तक सीमित रहने का ही परिणाम रहा कि किसी की भी  सत्ता  रही हो लेकिन स्व. ठाकरे का रूतबा कम नहीं हुआ | शिवसेना भी हिंदुत्व के साथ ही मराठी भाषा और संस्कृति की समर्थक  रहने से महाराष्ट्र में एक ताकत बनी हुई है | यद्यपि अनेक राज्यों में  उसकी शाखाएँ हैं लेकिन शिवसेना और महाराष्ट्र एक दूसरे  के पर्याय हैं | बीच में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी राष्ट्रीय राजनीति का चस्का लगा था | हालाँकि वे लम्बे समय तक केंद्र में मंत्री रह चुके थे लेकिन ज्योंही उन्होंने  बिहार के बाहर कदम बढ़ाने चाहे , उनकी  ज़मीन खिसकने लगी और चतुराई दिखाकर वे प्रादेशिक राजनीति में  रहते हुए  सत्ता में बने हुए हैं | क्षेत्रीय नेता के दायरे में खुद को  रखने के दो और उदाहरण आंध्र के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी और तेलंगाना में  केसी राव हैं | इनमें जगन तो आंध्र तक ही सीमित रहते हैं क्योंकि वे अपने पूर्ववर्ती चंद्रबाबू नायडू का हश्र देख चुके हैं किन्तु केसी राव बीच  – बीच में उचका करते हैं जिसकी वजह से उन्हें राजनीतिक दृष्टि से नुकसान भी  हो रहा है | लेकिन इन दिनों सर्वाधिक चर्चा जिस क्षेत्रीय नेता की होती है वे हैं प.बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बैनर्जी ,  जो प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर आसीन होने की इच्छा ज़ाहिर करते हुए कह चुकी हैं कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने का माद्दा  केवल उन्हीं में है | गोवा विधानसभा के हालिया चुनाव में उन्होंने तृणमूल प्रत्याशी उतारे और वाराणसी में अखिलेश यादव के साथ रोड शो करने भी पहुँची | कांग्रेस को तृणमूल में विलीन होने जैसा सुझाव देकर ममता ने ये दिखाना चाहा कि वही विपक्ष की  सबसे बड़ी राष्ट्रीय नेता हैं | हालाँकि शरद पवार भी काफी  समय तक राकांपा नामक अपनी पार्टी का फैलाव अन्य राज्यों में करने की कोशिश कर चुके हैं लेकिन आखिर में उनको समझ आ गया कि महाराष्ट्र के एक इलाके  को छोड़कर उनकी पार्टी को कोई जगह नहीं है | जहां  तक बात ममता की है तो वे  प्रशांत किशोर जैसे पेशेवर के जरिये  अपने आभामंडल को प.बंगाल से बाहर निकालकर राष्ट्रीय स्वरूप देना चाह रही हैं , लेकिन इससे उनके अपने राज्य में शासन और प्रशासन की स्थिति खराब होने लगी है | गत वर्ष चुनाव जीतते ही उनको ये गुमान होने लगा कि वे श्री मोदी का विकल्प बनने में सक्षम हैं और कांग्रेस की  दयनीय स्थिति के कारण बाकी विपक्षी दल उनके झंडे के नीचे आने राजी हो जायेंगे | सोनिया गांधी की अस्वस्थता और राहुल गांधी में नेतृत्व क्षमता के अभाव  से सुश्री बैनर्जी का हौसला और बुलंद होने लगा | शरद पवार के अलावा मुलायम सिंह यादव भी  वृद्धावस्था के कारण राष्ट्रीय स्तर पर असरकारक नहीं रह गए | लालू यादव का जेल योग भी खत्म  होने का नाम नहीं ले रहा | इसलिए ममता के मन में प्रधानमंत्री बनने की  इच्छा बलवान हो उठी परन्तु प.बंगाल से जो खबरें आ रही हैं उनसे लगता है बतौर मुख्यमंत्री  उनकी पकड़ कमजोर होने लगी है |  भारी भरकम बहुमत पाने के बाद उन्होंने भाजपा में गए अनेक तृणमूल नेताओं की वापिसी करवाने के साथ ही विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर हमलों  की छूट अपने लोगों को दे दी जिसके कारण  दर्जनों हत्याएं हो चुकी हैं | चूंकि कांग्रेस का सफाया हो चुका है और वामपंथी दलों के साथ रहे  असामाजिक तत्व तृणमूल में आ चुके हैं इसलिए ममता का सामना करने के लिए भाजपा ही सामने है | हालाँकि उसके कार्यकर्ताओं में भी इस बात पर भारी  नाराजगी है कि विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने उन्हें असुरक्षित छोड़ दिया है | लेकिन अब देखने में आ रहा है कि तृणमूल कांग्रेसजनों की गुंडागर्दी का जवाब भी मिलने लगा है | बीते दो – तीन दिनों से बीरभूम जिले से आ रही खबरें इसका प्रमाण हैं जहां तृणमूल नेता की हत्या के बाद दर्जनों लोगों को जलाकर मार डाला गया | पता चला है इसके पीछे जमीन - जायजाद का विवाद था जो  राजनीतिक रंग ले बैठा | इस काण्ड से ममता की प्रशासनिक पकड़  कमजोर होने का संकेत मिला रहा है | ये बात पूरी तरह साफ होती जा रही है कि राष्ट्रीय स्तर पर उभरने की  लालसा में बात – बात पर केंद्र सरकार से टकराने की प्रवृत्ति के कारण वे अपने राज्य पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे पा रहीं जिससे  अराजकता का बोलबाला  है | स्मरणीय है वाममोर्चे के राज में होने वाली राजनीतिक हिंसा के विरुद्ध लड़कर ही ममता सत्ता तक पहुंच सकीं लेकिन अब वे भी साम्यवादी तौर – तरीके से सरकार चला रही हैं |  बीते एक साल के भीतर हालाँकि तमाम उपचुनाव और स्थानीय निकाय तृणमूल ने जीत लिए किन्तु उसमें भी आतंक की बड़ी भूमिका रही | ऐसे में इस बात का खतरा है कि राष्ट्रीय नेता बनने की कोशिश में कहीं वे अपने घर में ही कमजोर न हो जाएँ | उन्हें एक बात समझ लेनी होगी कि बिना भाजपा या कांग्रेस की अगुआई स्वीकार किये राष्ट्रीय स्तर का कोई गठबंधन आकार नहीं ले सकता | यदि उन्होंने  इस वास्तविकता को अनदेखा किया  तो आगे  पाट पीछे सपाट वाली स्थिति बनाना तय है |  मुस्लिम मतों के थोक समर्थन से राजनीतिक अमरत्व की अवधारण उ.प्र में लगातार जिस तरह ध्वस्त होती जा रही है उससे ममता को सीख लेनी चाहिए |

-रवीन्द्र वाजपेयी



Wednesday 23 March 2022

बेलगाम होता भ्रष्टाचार शिवराज सरकार की उपलब्धियों पर पानी फेर रहा



म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान  हर समय चुनावी मूड में रहते हैं | राजधानी भोपाल में बैठकर राज करने की बजाय पूरे प्रदेश में भ्रमण करते हुए आम जनता से  संवाद बनाये रखना ही उनकी लोकप्रियता का असली कारण है | विरोधी चाहे जितना भी कहें लेकिन प्रदेश के हर कोने में उनका चेहरा जितना जाना – पहिचाना है , उतना किसी अन्य  नेता का नहीं  | हालाँकि इसका  कारण  रिकॉर्ड समय तक मुख्यमंत्री बने रहना भी  है किन्तु इसमें दो राय नहीं हो सकती कि वे म.प्र में भाजपा के सबसे बड़े चेहरे हैं | ख़ास बात ये है कि मुख्यमंत्री बनने के पहले तक उनके पास  संगठन और सांसद – विधायक के रूप में किये गए कार्यों का ही अनुभव था | इसलिए जब बाबूलाल गौर जैसे अनुभवी प्रशासक की जगह उन्हें प्रदेश की सत्ता संभालने का अवसर दिया गया तब आम धारणा ये थी कि वे  शायद सफल नहीं रहेंगे | उमाश्री भारती और उनके बाद श्री गौर जिस तरह जल्दी – जल्दी मुख्यमंत्री पद से हटे उसके कारण आम जनता के मन में पहले से व्याप्त ये अवधारणा और मजबूत होने लगी थी कि भाजपा को सरकार चलाना नहीं आता | ऊपर से उमाश्री द्वारा बगावत किये जाने से स्थितियां और जटिल होने लगीं | 2008 के चुनाव में शिवराज के सामने कांग्रेस के साथ – साथ उमाश्री की जनशक्ति पार्टी की चुनौती भी थी किन्तु वे विजयी होकर निकले और यहीं से उनकी स्थिति मजबूत होने लगी | सरल स्वभाव , मिलनसारिता और विनम्रता के कारण जल्द ही उन्होंने जनसाधारण के बीच अपनी स्वीकार्यता कायम कर ली | जनकल्याण की अनेक योजनाओं ने उनकी लोकप्रियता को और बढ़ा दिया | मामा बनकर लोगों से सीधा रिश्ता जोड़ने की शैली ने लोगों को उनका चहेता बना दिया , जो 2013 के चुनाव में जीत का आधार बना  | सबसे बड़ी बात ये रही कि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने तक उन्हें  कांग्रेस की केंद्र सरकार के दौर में काम  करना पड़ा | बावजूद उसके लोकप्रिय नीतियों के साथ – साथ उन्होंने  विकास पर काफी ध्यान दिया | उन्हें अच्छी तरह पता था कि दिग्विजय सिंह की सरकार बिजली , सड़क और पानी के मुद्दे पर ही गई थी | इसलिए उन्होंने इस दिशा में अच्छा काम करते हुए प्रदेश को बीमारू और पिछड़े राज्य के कलंक से मुक्त करवाया | किसान परिवार से होने के कारण कृषि उनकी रुचि का विषय बना जिसका परिणाम इस क्षेत्र में प्रदेश का अग्रणी बन जाना है | गेहूं उत्पादन में पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों को पछाड़कर म.प्र ने अपनी धाक जमाई | और भी अनेक क्षेत्र हैं जिनमें श्री चौहान ने उल्लेखनीय कार्य किये | इससे प्रदेश की छवि में जबरदस्त सुधार हुआ  जिसका प्रमाण पर्यटन उद्योग में हुई जबर्दस्त तरक्की है | लेकिन भ्रष्टाचार  उनकी तमाम  उपलब्धियों पर पानी फेरने का काम कर रहा है | ये कहने में कुछ भी अनुचित नहीं है कि 2014 में अनुकूल केंद्र सरकार  आने के बाद 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में जीत की देहलीज पर आकर भाजपा के रुक जाने के पीछे भ्रष्टाचार ही सबसे बड़ा कारण बना | डंपर काण्ड से तो किसी तरह शिवराज उबर गये  लेकिन व्यापमं घोटाले ने उनकी सरकार के साथ ही भाजपा की छवि को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया | जिसकी वजह से युवा मतदाताओं में जबरदस्त गुस्सा फैला  | हालाँकि गलत टिकिट वितरण भी उस हार का एक कारण बना लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते हुआ | यद्यपि महज 15 माह के बाद श्री चौहान का राजयोग प्रबल हो उठा और कांग्रेस की  अंतर्कलह ने उन्हें फिर मुख्यमंत्री पद दिलवा दिया | लेकिन इसकी कीमत उन्हें  दर्जन भर उन  विधायकों को मंत्री बनाकर चुकानी पड़ी जो ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोडकर भाजपाई बने | वैसे भी श्री सिंधिया को भाजपा हाईकमान ने जो भाव दिया उसके कारण वे प्रदेश में एक नए सत्ता केंद्र के तौर पर पाँव ज़माने में सफल हो गए | उनके कोटे से जो मंत्री बने वे शिवराज के बजाय महाराज के प्रति समर्पित हैं | कांग्रेसी शैली में ढले ये मंत्री वही सब कर रहे हैं जो ये पहले  किया करते थे | इस वजह से शिवराज सरकार के राज में होने वाला भ्रष्टाचार और बढ़ने की चर्चा सर्वत्र व्याप्त है  | कुल मिलाकर ये कहना पूरी तरह सही है कि मुख्यमंत्री  की लोकप्रियता के बावजूद उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप दिन ब दिन गहरे होते जा रहे हैं | कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि नौकरशाही इतनी स्वछन्द कभी नहीं रही और  एक भी ऐसा शासकीय विभाग नहीं है जिसमें बिना लेन – देन जनता का कोई काम होता हो | मुख्यमंत्री द्वारा आम जनता की तकलीफों का  त्वरित और पारदर्शी निवारण करने हेतु बनाई गयी सीएम हेल्पलाइन का खूब ढिंढोरा पीता जाता है | लेकिन वह भी सतही तौर पर ही सफल दिखती है क्योंकि मुख्यमंत्री कार्यालय से दिखाई जाने वाली कार्यकुशलता निचले स्तर पर आकर दम तोड़ने लगती है | सच्चाई ये है कि भ्रष्टाचार के मोर्चे पर इस सरकार की चौतरफा  विफलता उसकी तमाम उपलब्धियों पर भारी पड़ जाती है | जहां तक चुनाव जीतते जाने का सवाल है तो मुख्यमंत्री को ये नहीं भूलना चाहिए कि हार ने एक बार ही सही लेकिन उनका घर देख लिया है |  इसलिए वे भ्रष्टाचार को अनदेखा करते हुए निश्चिंत बैठे रहे तो 2023 में पिछली  पराजय की पुनरावृत्ति होने का अंदेशा बना रहेगा | इसकी एक वजह ये भी है कि  सिंधिया भक्त मंत्री उनके प्रभाव में नहीं हैं जिन्हें छेड़ना बर्र के छत्ते  में पत्थर मरने जैसा होगा | इन हालातों में आज जब श्री चौहान अपनी चौथी ताजपोशी की दूसरी वर्षगांठ मना रहे हैं तब उन्हें भ्रष्टाचार के धब्बों से अपनी सरकार का दामन साफ़ करने की हिम्मत दिखानी होगी | उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस भले ही राष्ट्रीय स्तर पर अंतर्कलह का शिकार हो लेकिन म.प्र वह राज्य  है जहां वह मुकाबले की स्थिति में है | दमोह में हुए विधानसभा उपचुनाव में भाजपा जिस तरह लम्बे अंतर से हारी वह इसका प्रमाण है | यद्यपि कोरोना के कारण  इस पारी में  शिवराज सरकार को  सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने वाले हालात का सामना करना पडा लेकिन 2023 आते – आते तक जनता वह सब भूल चुकी होगी | उ.प्र में भाजपा  सरकार की वापिसी में बेरोजगारी और महंगाई जैसी बाधाएं थीं  लेकिन योगी आदित्यनाथ की सरकार चूंकि भ्रष्टाचार के आरोपों से पूरी तरह मुक्त रही इसलिए मतदाताओं ने विपक्ष के जबरदस्त प्रचार के बावजूद उसे एक बार फिर जनादेश दे दिया | देखा देखी  श्री चौहान भी योगी शैली में बुलडोजर चलवा रहे हैं , वहीं  बिजली और सड़क संबंधी शिकायतें भी  नहीं हैं |  हालाँकि बिजली , पेट्रोल और डीजल की कीमतें जनता को नाराज करती हैं | फिर भी  केंद्र और राज्य सरकार से गरीबों को मिलने वाले मुफ्त  अनाज के कारण लाभार्थी नामक जो नया मतदाता समूह बन गया है उस पर भाजपा की उम्मीदें टिकी हुई हैं परन्तु सरकारी अमले के भ्रष्टाचार पर अंकुश न लगाया जा सका तो फिर शिवराज सिंह के लिए चुनावी मुकाबला आसान नहीं रहेगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 22 March 2022

राज्यसभा को सौदेबाजी और नेताओं के पुनर्वास का जरिया बनने से रोकना जरूरी



 
राज्यसभा संसद का उच्च सदन कहलाती है | अंग्रेजी में इसे हाउस ऑफ एल्डर्स कहते हैं | जहाँ – जहाँ संसदीय लोकतंत्र है उन देशों में इस तरह के उच्च सदन का अस्तित्व है | हालाँकि अमेरिका में राष्ट्रपति प्रणाली वाला लोकतंत्र है किन्त्तु वहां की संसद (कांग्रेस) में भी सीनेट नामक उच्च सदन है | हमारे देश में चूंकि ब्रिटिश संसदीय प्रणाली अपनाई गई , लिहाजा हाउस ऑफ लॉर्ड्स की तरह से राज्यसभा नामक सदन का प्रावधान किया गया | उच्च सदन की विशेषता ये  है कि ये कभी  भंग नहीं होता | इसके सदस्यों का कार्यकाल लोकसभा के पांच की बजाय छह वर्षों का होता है | दो वर्षों के अंतराल में एक तिहाई सदस्य निवृत्त होते हैं जिनका चुनाव राज्यों की विधानसभा से किया जाता है | विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करने वाली हस्तियों को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाने की भी व्यवस्था है | लोकसभा के भंग रहने की दशा में काम चलाऊ सरकार उच्च सदन के माध्यम से महत्वपूर्ण फैसले कर सकती है | इस सदन को गठित करने का असली उद्देश्य समाज के उन प्रतिभाशाली और उज्जवल छवि के लोगों को संसदीय प्रक्रिया में शामिल करना है जो चुनाव लड़ने से बचते या यूँ कहें कि राजनीति से अमूमन दूर रहते हैं | इसके अलावा राजनीतिक दलों में भी अनेक ऐसे नेता होते हैं जो चुनाव चक्कर  से दूर रहने के बावजूद देश के लिए बेहद उपयोगी समझे जाते हैं | इसलिए अपेक्षा ये  रहती है कि राजनीतिक दल उच्च सदन की गरिमा के मद्देनजर ऐसे व्यक्तियों का चयन  करें जिनकी सेवाएं और सुझाव राष्ट्रहित में हों | अनेक ऐसे बड़े नेता जिनके लोकसभा चुनाव हार जाने  के बावजूद संसद में उनकी उपस्थिति  आवश्यक प्रतीत होती है , तब उन्हें भी उच्च सदन के रास्ते सांसद बनाया जाता है | उल्लेखनीय है कि 10 वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे डा. मनमोहन सिंह राज्यसभा के माध्यम से ही सांसद बनते आये हैं | अपने जीवन में उन्होंने केवल एक मर्तबा लोकसभा चुनाव दिल्ली से लड़ा जिसमें वे पराजित हो गये | और भी अनेक ऐसे दिग्गज हैं जिनका संसदीय जीवन राज्यसभा में ही व्यतीत हुआ | तमाम ऐसे नेता हैं जो राज्यसभा में रहकर लोकप्रिय हुए और तब उनकी पार्टी ने उनको लोकसभा चुनाव लड़वाया | कहने का आशय ये है कि राज्यसभा महज संसद का सदन मात्र न होकर एक ऐसा मंच है जहां विभिन्न क्षेत्रों  के श्रेष्ठ  और योग्य व्यक्तित्वों की प्रतिभा का राष्ट्र के विकास में उपयोग किया जाना  अपेक्षित है  |  भारत में   आजादी के कुछ समय बाद तक तो इस बात का ध्यान रखा गया कि इसकी गरिमा बनी रहे लेकिन कालान्तर में उसे अनदेखा किये  जाने का दुष्परिणाम ये हुआ कि वह पिछले दरवाजे से संसद में घुसने का जरिया बन गया | चुनावों में हारे नेताओं के अलावा उद्योगपतियों को इसकी सदस्यता अघोषित तौर पर बेची जाने लगी | अनेक बड़े अधिवक्ताओं ने राजनेताओं के मुकदमे लड़ने के उपकारस्वरूप उच्च सदन की सदस्यता हासिल की | झारखंड और कर्नाटक में निर्दलियों के साथ ही राजनीतिक दलों के विधायकों तक ने धनकुबेरों को अपना मत बेचा | अन्यथा कोई कारण नहीं था कि बिना किसी राजनीतिक आधार के विजय माल्या जैसा व्यक्ति राज्यसभा में आता और अनिल अम्बानी समाजवादी पार्टी द्वारा उच्च सदन के सदस्य बनाये जाते |  यदि राज्यसभा का इतिहास खंगाला जावे तो अनेक ऐसे नाम मिलेंगे जिनका इस सदन में आना संसदीय गरिमा के सर्वथा विरुद्ध था |  सवाल ये है कि इसके लिए दोषी कौन है और उत्तर है हमारे राजनीतिक दल जिन्होंने उच्च सदन की उच्चता का मजाक बनाकर रख दिया | गत दिवस आम आदमी पार्टी ने पंजाब से जिन लोगों को राज्यसभा के लिए उम्मीदवार बनाया उनमें राघव चड्डा भी हैं जो वर्तमान में दिल्ली से विधायक हैं | 33 वर्षीय राघव उच्च सदन में सबसे कम उम्र के सदस्य होंगे | पेशे से वे चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं | उनके साथ ही दिल्ली आईईटी के प्रोफ़ेसर संदीप पाठक भी प्रत्याशी हैं | जिनकी पेशेवर योग्यता और अनुभव प्रभावित करता है | क्रिकेटर हरभजन सिंह को भी पार्टी ने राज्यसभा की उम्मीदवारी दी है | यद्यपि दो अन्य  नामों की योग्यता उनकी आर्थिक सम्पन्नता ही है | इसी तरह दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी ने कुछ पूंजीपतियों को राज्यसभा में भेजा था जिसके बाद  नई राजनीति का दावा ठोकने वाले अरविन्द केजरीवाल की नीयत पर उनकी अपनी ही पार्टी के भीतर सवाल उठे और पार्टी की स्थापना करने वाले अनेक नेता उससे किनारा कर गये | ऐसा लगता है श्री केजरीवाल ने उससे सबक लिया जिसकी झलक पंजाब में बनाये गये  राज्यसभा उम्मीदवारों से मिलती है | हालंकि इस बारे में एक बात और भी देखी जाती है कि राजनीतिक दल अपने वर्चस्व वाले राज्यों में दूसरे राज्यों के अपने नेताओं या धन्ना सेठों को राज्यसभा में भेजते हैं | राघव चड्डा इसका ताजा उदाहरण हैं |  केन्द्रीय मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान और तमिलनाडु के एल.मुरुगन म.प्र से राज्यसभा सदस्य हैं | डा.मनमोहन सिंह को कांग्रेस  असम से लगातार  राज्यसभा में लाती जा रही है | लेकिन उच्च सदन का जायजा लेने पर ये साफ़ हो जाता है कि इसमें अनेक ऐसे चेहरे हैं जो उनकी  पार्टी के लिए भले ही उपयोगी हों लेकिन उच्च सदन के मापदंडों के लिहाज से वे कमतर प्रतीत होते हैं | इनमें से कुछ सदस्य तो ऐसे हैं जो शायद ही सदन में बोलते देखे जाते हों |  गुटीय और  जातिगत संतुलन बनाये रखने के लिए भी अनेक लोगों को राजनीतिक दलों द्वारा राज्यसभा में बिठा दिया जाता है | इनमें से कुछ बेशक अपने चयन को सार्थक साबित करते हैं जबकि अधिकतर मिट्टी की माधो साबित होते रहे हैं | राजनीतिक दलों के लिए राज्यसभा की सीट चुनावी चंदे का स्रोत भी मानी जाती है | इसका संकेत  आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्यों में से भी कुछ को देखकर मिल जाता है | हालाँकि केन्द्रीय मंत्रीमंडल में शामिल किये गये एस. जयशंकर , हरदीप पुरी और अश्विन वैष्णव जैसे लोग अपने चयन को सही साबित करते हैं वहीं  कुछ  ऐसे वरिष्ठ राजनेता हैं जो चुनाव हार जाने के  बाद दबाव बनाकर उच्च सदन में आ जाते हैं | म.प्र में दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच हुई राज्यसभा सीट की  खींचतान के कारण ही कमलनाथ सरकार का पतन हो गया | इस प्रकार उच्च सदन के गठन के पीछे जो मूल भावना थी वह समय के साथ लुप्त होती चली गयी जिससे वह राजनीतिक पुनर्वास   , सौदेबाजी और एहसानों का बदला चुकाने का केंद्र बन गया | आश्चर्य की बात है कि संसदीय प्रणाली में सुधार हेतु तो बहुत बातें होती हैं लेकिन राज्यसभा को उसका सही  स्वरूप प्रदान करने के बारे में कोंई चिंता नहीं  करता | इसका एक कारण शायद ये भी है कि जिन्हें ये करना चाहिए उनमें से भी अधिकतर इस सदन के माध्यम से सांसद बनने की हसरत पाले बैठे हुए हैं | देश के प्रधान  न्यायाधीश और मुख्य चुनाव आयुक्त रहे महानुभावों का उच्च सदन में आना बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता है |  

-रवीन्द्र वाजपेयी

 

Monday 21 March 2022

पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन की आहट भारत के लिए खतरे का संकेत



यूक्रेन पर रूसी हमले का समर्थन करने मास्को पहुंचकर खुद को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास करने वाले पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान अपने ही देश में चौतरफा घिर गये हैं | विपक्ष द्वारा पेश किये जा रहे अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने में उनके हाथ - पाँव बुरी तरह फूल रहे हैं | उन्होंने अपने समर्थकों की भीड़ एकत्र कर विपक्ष को धमकाना चाहा  तो जवाब में भी जनसैलाब सड़कों पर उतर आया | उसके अलावा देश के अनेक हिस्सों में जिस तरह से आतंकवादी धमाके हो रहे हैं उसके कारण भी  अस्थिरता का माहौल बन गया है | जिस तालिबान की जीत पर इमरान खुशी  से फूले नहीं समा रहे थे वही अब उनके गले में सांप की तरह लिपट गया है और उसके इलाकों को कब्जाने  पर आमादा है | पश्चिमी सीमान्त पर जिन आतंकवादी गुटों को अमेरिका के विरुद्ध लड़ने के लिए पाकिस्तान ने पनाह दे रखी थी वे  उन इलाकों को अपना बताकर मरने – मारने पर उतारू हो चले हैं | अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की विदाई के बाद वहां भारत द्वारा संचालित प्रकल्पों के खतरे में पड़  जाने से पाकिस्तान बहुत खुश था | उसे लगने लगा था कि तालिबानी हुकूमत भारत से अपने रिश्ते पूरी तरह खत्म कर लेगी जिससे पाकिस्तान पर उसकी निर्भरता बढ़ेगी किन्तु भारत से वहां गेंहू की खेफ पहुँचने के लिए पाकिस्तान को अपना रास्ता जिस तरह से उपलब्ध करवाना पड़ा उससे उसकी उम्मीदों को ठेस पहुँची |  यूक्रेन संकट के बहाने रूस की सहानुभूति और समर्थन हासिल करने का इमरान का मंसूबा भी कामयाब होता नहीं दिखा क्योंकि  राष्ट्रपति पुतिन ने तो बीते कुछ दिनों में ही भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से  फोन पर अनेक बार लम्बी बातचीत की ही, चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग के साथ भी श्री मोदी की बातचीत हुई | अमेरिका ने पाकिस्तान को तो रूस के समर्थन में खड़े होने पर   लताड़ा किन्तु भारत के तटस्थ रहने से नाराजगी के बावजूद भी किसी तरह की धमकी या प्रतिबन्ध की उसकी हिम्मत नहीं हुई | जबकि जिनपिंग को अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाईडेन रूस की सहायता करने के विरुद्ध चेतावनी दे चुके हैं | इस वजह से चीन भी खुलकर इमरान सरकार को टेका लगाने से बचता लग रहा है | आखिरी दांव के  तौर पर इमरान ने भारत के साथ व्यापार बढ़ाने के साथ ही कूटनीतिक रिश्तों में मधुरता लाने की पेशकश भी की किन्तु भारत ने आतंकवाद को रोकने की  शर्त के साथ उसे ठुकरा दिया | आर्थिक दृष्टि से खोखले हो चुके पाकिस्तान को कर्ज देने के लिए न कोई देश तैयार है और न ही अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान | इन सबके कारण इमरान तेजी से अपना प्रभाव खोते जा रहे थे जिसका लाभ लेने के लिए विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव के जरिये उनको हटाने का पैंतरा चल दिया | इस पर इमरान ने जनता के समर्थन से विपक्ष को दबाने का जो प्रयास किया वह भी औंधे मुंह गिरा और विपक्ष ने उससे बड़ा शक्ति  प्रदर्शन कर डाला | और तब उन्होंने सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा की शरण ली  जिनकी  कृपा से अल्पमत में होने के बाद भी वे सत्ता पर काबिज हो सके थे | लेकिन जैसी कि खबर आई है जनरल ने उनको सलाह  दी है कि इस सप्ताह  इस्लामाबाद में होने जा रहे वैश्विक इस्लामिक सम्मेलन के बाद अविश्वास प्रस्ताव के पूर्व ही इस्तीफ़ा देकर किसी और को प्रधानमंत्री बनाकर राजनीतिक अनिश्चितता समाप्त करें ताकि समय पूर्व चुनाव टाला जा सके | इसके अलावा सेनाध्यक्ष ने उनको ये चेतावनी भी दी कि वे भीड़ का इस्तेमाल कर विपक्ष को दबाने जैसी हरकत से बाज आयें अन्यथा सेना को मजबूर होकर कदम उठाने पड़ेंगे | पाकिस्तान में इस्लामिक सम्मेलन का आयोजन कर इमरान इस्लामिक जगत के नेता बनने का ख़्वाब देखने के साथ ही देश की जनता को भी अपने अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव का एहसास करवाना चाह रहे थे , लेकिन जनरल बाजवा की खरी – खरी सुनने के बाद उनके लिए सभी  रास्ते बंद नजर आ रहे हैं | इमरान खान किसी और को सत्ता सौंपकर हट जायेंगे या फिर हेकड़ी  दिखाकर संघर्ष के हालात पैदा कर देंगे,  ये देखने वाली बात होगी क्योंकि उस स्थिति में जैसा जनरल बाजवा ने कहा , फौज हस्तक्षेप करने से नहीं चूकेगी और ऐसा होने  पर भारत के लिए खतरा बढ़ जाएगा  क्योंकि जनरल बाजवा भारत के विरुद्ध सदैव आक्रामक रवैया अपनाने पर आमादा रहते हैं | कश्मीर में उपद्रव करवाने के लिए आतंवादियों के प्रशिक्षण का जो काम  वहां की सेना करती है उसके पीछे जनरल की भूमिका किसी से छिपी हुई नहीं है | वैसे भी पाकिस्तान में जब – जब भी फौजी शासन आया तब - तब भारत के साथ सीधे युद्ध हुआ | यदि  सीधा युद्ध न हुआ तो भी आतंकवाद की शक्ल में छद्म युद्ध तो हम पर लादा ही जाता रहा | ये देखते हुए पाकिस्तान के मौजूदा हालात भारत की चिंता बढाने वाले हैं | चुनी हुई सरकार के कमजोर होने के बाद वहां सेना का सत्ता प्रतिष्ठान पर पूरी तरह काबिज होना तय है | वैसे भी इमरान सरकार को जनरल बाजवा ही इतने समय तक टिकाये रहे और जब उन्हें लगने लगा कि वे उन पर बोझ बनते जा रहे हैं तो उन्होंने भी अपना हाथ खींच लिया | एक चुनी हुई सरकार के प्रधानमन्त्री द्वारा अपने विरूद्ध विपक्ष के अविश्वास का सामना करने के लिए सेनाध्यक्ष से परामर्श करने मात्र से ये स्पष्ट हो जाता है कि इस पड़ोसी देश का प्रजातंत्र किस हद तक फौज का बंधुआ है | इमरान सरकार बचेगी या जायेगी , उनकी जगह दूसरा कोई प्रधानमंत्री बनेगा या जनरल बाजवा खुद सत्ता पर काबिज हो जायेंगे , इन सब सवालों का जवाब जल्द  सामने आ जाएगा | लेकिन भारत को पाकिस्तान के भीतर होने वाली हर उठापटक पर पैनी नजर रखनी होगी क्योंकि उसका सीधा असर हम पर पड़ता है | जम्मू – कश्मीर में विधानसभा चुनाव करवाने की तैयारियां केंद्र सरकार की तरफ से की जाने लगी हैं | इसलिए वहां राजनीतिक गतिविधियों के साथ ही  आतंकवादी वारदातों में भी तेजी आ सकती है | बीते कुछ दिनों में अनेक पंचों – सरपंचों की हत्या इसका संकेत है | हालाँकि आतंकवाद विरोधी मुहिम भी बिना रुके जारी है लेकिन पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आने वाला | इस्लामिक सम्मलेन में हुर्रियत कांफ्रेंस को न्यौता भेजा जाना इसका प्रमाण है | उस दृष्टि से ये सप्ताह बेहद संवेदनशील होगा | यूक्रेन संकट में बेहद सूझबूझ के साथ कूटनीतिक कदम उठाने के बाद भारत सरकार के लिए पाकिस्तान का मौजूदा राजनीतिक घटनाचक्र किसी चुनौती से कम न होगा |  

-रवीन्द्र वाजपेयी


                             

Thursday 17 March 2022

यूक्रेन संकट के बाद के हालात में भारत विश्व शक्ति की भूमिका में होगा



यूक्रेन में युद्ध  का तीसरा हफ्ता शुरू हो चुका है | वहीं रूस के साथ उसकी बातचीत से सुलह के आसार बढ़ रहे हैं | हालांकि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश यूक्रेन को सैन्य और आर्थिक सहायता दे रहे हैं किन्तु यूक्रेनी राष्ट्रपति नाटो में शामिल न होने की रूस की मांग के सामने घुटने टेकने का आश्वासन देकर अपनी गर्दन बचाने का प्रयास करने में जुट गये हैं | इसका कारण रूस का निरंतर आक्रामक होते जाना है | भले ही वह अभी तक राजधानी कीव पर काबिज नहीं हो सका हो लेकिन यूक्रेन को भी ये समझ में आ चुका है कि युद्ध जारी रहने पर वह पूरी तरह तबाह होकर रह जाएगा | रूस जिस निर्दयता से नागरिक ठिकानों पर हमले कर रहा है उसके कारण यूक्रेन में सर्वत्र बर्बादी का आलम है | उसका तात्कालिक उद्देश्य भी मात्र इतना है कि वह किसी भी तरह से अमेरिका के साथ सैन्य संधि में शामिल न हो | यदि यूक्रेन तदाशय का आश्वासन शुरुवात में ही दे देता तब शायद उसे इस तरह की विनाशलीला  नहीं देखनी पड़ती | इस संकट से वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी भारी  उथल - पुथल मच गई है | अमेरिका की अगुआई में तमाम बड़ी ताकतों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों की झड़ी लगा दी | राष्ट्रपति पुतिन सहित रूसी सरकार की जो संपत्तियां विदेशों में थीं उनके साथ ही रूसी कारोबारियों की जमा राशि  भी जप्त करने जैसी कार्रवाई की गई | इससे भी बड़ी बात ये हुई कि दुनिया के अधिकतर संपन्न देशों ने रूस से व्यापारिक रिश्ते पूरी तरह तोड़ लिए | इसका असर उसकी  अर्थव्यवस्था पर तो हुआ ही किन्तु प्रतिबन्ध लगाने वाले देशों को भी यूक्रेन संकट से जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ रहा है | सबसे ज्यादा हलचल मची कच्चे तेल और गैस में | इसके अलावा गेंहू की आपूर्ति पर भी इस लड़ाई का असर पड़ने  लगा है क्योंकि रूस और यूक्रेन दोनों इसके  बड़े उत्पादक हैं | शुरुवाती संकेतों के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी इस युद्ध का विपरीत असर होने की आशंका थी | जिस तरह कच्चे तेल के वैश्विक दाम बढ़े उसे देखते हुए भारत में घबराहट का माहौल था | ये आशंका जताई जा रही थी कि दीपावली के बाद से पेट्रोल – डीजल की जो कीमतें स्थिर रखी गईं थीं , उनका  पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद जबर्दस्त तरीके से बढ़ना तय है | अनेक आर्थिक विशेषज्ञ तो 150 रु. लीटर तक की बात कर रहे थे | लेकिन चुनाव परिणाम आने के एक सप्ताह बाद भी  दाम नहीं बढ़ाये गए तो इसका कारण ये है कि रूस ने भारत को इनके निर्यात के लिए जो समझौता  किया उसके अनुसार उसने  सस्ती दरों पर कच्चा तेल और गैस आपूर्ति के साथ परिवहन और बीमा का खर्च वहन करने की बात भी स्वीकार की है | इस सौदे की सबसे बड़ी विशेषता ये होगी कि  भारत इसका भुगतान अपनी मुद्रा अर्थात रूपये में करेगा | अब तक वैश्विक व्यापार में विनिमय का आधार अमेरिकी डालर ही हुआ करता था किन्तु अमेरिकी लॉबी द्वारा  रूस को विश्व व्यापार से अलग करने की जो रणनीति बनाई गई उसके कारण वह भी डालर से अलग हटकर निर्यात और आयात करने की समानांतर व्यवस्था बना रहा है , जिसका सीधा लाभ  भारत को मिलना तय  है | हालाँकि अमेरिका को ये सौदा नागवार गुजरा किन्तु थोड़ी सी ना – नुकुर  के बाद उसने अपनी आपत्ति वापिस ले ली | सुनने में आ रहा है कि चीन ने भी सऊदी अरब से इसी तरह का समझौता किया है और वहां से खरीदे जाने वाले कच्चे तेल के लिए चीन भी अपनी मुद्रा युआन में ही भुगतान करेगा | विश्व की एक तिहाई से भी ज्यादा की जनसंख्या वाले इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्था पर पूरी दुनिया की नजर है |  भारत जहां सबसे बड़ा बाजार है ,  वहीं चीन सबसे बड़ा उत्पादक | यदि ऐसा न होता तो अब तक अमेरिका यूक्रेन संकट में तटस्थ रहने के कारण भारत पर भी आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने में संकोच नहीं करता | इसीलिए  आज की स्थिति में यूक्रेन संकट से उत्पन्न परिस्थितियों में भारत के लिए खुशखबरी भी आ रही हैं |  रूस पर लगे प्रतिबंधों का सीधा लाभ भारत को मिलने की सम्भावना बढ़ी हैं | सौभाग्य से बीते दो साल से भारत में गेंहू और चावल का रिकॉर्ड उत्पादन होने से उनका निर्यात हो रहा है | चावल  के  मामले में तो हमने चीन को भी पीछे छोड़ दिया है | इसके अलावा भी हमारे औद्योगिक उत्पादनों की  वैश्विक बाजारों  में मांग बढ़ने से निर्यातकों के अच्छे दिन आ गये हैं | यद्यपि व्यापार घाटे से भारत अब तक नहीं उबर सका क्योंकि आयात का अनुपात  निर्यात की अपेक्षा काफी ज्यादा है | लेकिन जिस तरह से दुनिया भर में भारतीय उत्पादों की मांग बढ़ रही है , वह सुखद संकेत है | इसका एक कारण कोरोना के बाद चीन की विश्वसनीयता पर आया संकट भी है | बीते कुछ दिनों के भीतर वहां कोरोना की चौथी लहर के आने से  उत्पादन इकाइयां बड़ी संख्या में बंद होने से भारत के लिए निर्यात की  उम्मीदें और उज्ज्वल होने लगी हैं | यूक्रेन संकट में फंसे भारतीय छात्रों को जिस तत्परता से सरकार ने सुरक्षित निकाला उससे भी हमारी क्षमता और प्रबंध कौशल पूरे विश्व में सराहा गया | इस संकट को लेकर कुछ देशों को छोडकर जब समूची दुनिया अमेरिकी लॉबी के प्रभाव में आकर इकतरफा नजर आने लगी  तब भारत ने जिस संतुलित कूटनीति का उदाहरण पेश करते हुए  राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि मानकर बीच का रास्ता अपनाया , उसकी वजह से भी  भारत को एक जिम्मेदार देश के तौर पर मान्यता मिली | कुल मिलकर यूक्रेन पर रूस के हमले से उत्पन्न स्थिति हमारे लिए आपदा में अवसर लेकर आई है | हालाँकि इस बारे में खुश होकर हवा में उड़ने से बचना भी जरूरी है क्योंकि ऐसे संकट में हालात कब करवट बदल लें कहना कठिन है | फिर भी जिस तरह से भारत ने अमेरिका को नाराज होने का अवसर दिए बगैर रूस को अपने पक्ष में  झुकाया उसका  दूरगामी फायदा न सिर्फ आर्थिक और रक्षा क्षेत्र , अपितु कूटनीतिक मंचों पर भी मिले  बगैर  नहीं रहेगा | ये भी उल्लेखनीय है कि इस संकट के पीछे रूस और चीन द्वारा अमेरिकी डालर की वैश्विक वजनदारी खत्म करने की रणनीति  है | ये बात समझने वाली है कि आर्थिक प्रतिबंधों को लेकर अब कोई भी देश बहुत देर तक कठोर नहीं बना रह सकता | सऊदी अरब के अलावा संयुक्त अरब अमीरात के देशों के साथ इजरायल के बढ़ते कारोबारी  रिश्ते विश्व राजनीति में आ रहे  लचीलेपन का प्रमाण हैं | भारत के लिए 21 वीं सदी  ऊंचाइयां छूने वाली हो सकती है  , बशर्ते वह अपनी घरेलू और वैश्विक नीतियों के क्रियान्वयन में दृढ़ रवैया अपनाता रहे | मोदी सरकार के स्थायित्व को लेकर किसी भी प्रकार की शंका न रहने से भी भारत की छवि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत अच्छी है | यूक्रेन संकट के उपरान्त  जिस तरह की वैश्विक व्यवस्था बनने की बात कही जाने लगी है उसमें भारत की भूमिका एक विश्व शक्ति जैसी रहेगी , इसके आसार नजर आने लगे हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 16 March 2022

शाह बानो फैसला रद्द न किया जाता तो हिजाब जैसे विवाद पैदा ही नहीं होते



 कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हिजाब को इस्लाम का हिस्सा न मानते हुए कुछ महाविद्यालयीन छात्राओं की उस याचिका को अस्वीकार कर दिया  जिसमें  उन्होंने  प्रबन्धन द्वारा कक्षा के भीतर हिजाब पहिनने से रोके जाने को  अपने धार्मिक अधिकारों का हनन बताया था |  न्यायालय ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के साथ ग्वालियर के एक मुस्लिम अधिवक्ता के तर्कों का भी संज्ञान लिया जो बतौर हस्तक्षेपकर्ता  शामिल हुए थे | फैसले में  दो टूक कहा गया है कि इस्लाम में हिजाब धारण करना चूंकि धार्मिक अनिवार्यता की श्रेणी में नहीं आता इसलिए छात्राओं  को शिक्षण संस्था द्वारा लागू गणवेश का पालन करना होगा | न्यायालय ने शैक्षणिक सत्र के बीच इस विवाद के उत्पन्न होने पर यह आशंका भी जताई कि इसके पीछे  कुछ अदृश्य ताकतें हैं | साथ ही  याचिककर्ता छात्राओं से ये भी पूछा था कि उन्होंने हिजाब का  इस्तेमाल कब से शुरू किया | उल्लेखनीय है याचिकाकर्ता छात्राओं ने अचानक  कक्षा के भीतर हिजाब की अनुमति माँगी जिसे प्रबंधन ने अस्वीकार कर दिया | उसके बाद कर्नाटक के अनेक शहरों में उपद्रव होने के साथ ही अन्य राज्यों में भी इस विवाद की तपिश महसूस की गयी | उ.प्र विधानसभा चुनाव में भी इसकी गूँज सुनाई दी | जिस तरह इस विवाद की शुरुवात हुई उससे किसी साजिश का संदेह भी सुरक्षा एजेंसियों को हुआ जिसकी जांच जारी है | ये भी स्पष्ट हो चुका है कि कैम्पस  फ्रंट ऑफ इण्डिया नामक मुस्लिम छात्र संगठन के आह्वान पर कुछ छात्राओं ने  हिजाब को  मुद्दा बनाकर विवाद को जन्म दे दिया | याचिकाकर्ता को प्रबंधन के आदेश के विरुद्ध स्थगन देने से अदालत  पहले ही इंकार कर चुकी थी | इसे लेकर हिंदू और मुस्लिम संगठन आमने -  सामने आ गये | ये कहना भी गलत न होगा कि इस मुद्दे को भी नागरिकता संशोधन कानून ( सीएए ) की तरह से ही विवादित बनाने की पुरजोर कोशिश भी की गई | मुस्लिम  महिला संगठनों से ये बयान भी दिलवाए गये कि हिजाब भी पहिनावे का हिस्सा है और कोई  लड़की स्वेच्छा से उसे धारण करती है तब उसे रोकना गलत है | बात सिखों की पगड़ी और हिन्दू महिलाओं द्वारा लगाई जाने वाली बिंदी तक की भी हुई | अदालत ने सभी पहलुओं पर विस्तार से विचार करने के बाद गत दिवस जो फैसला दिया उसमें एक बात पूरी तरफ साफ़  है कि हिजाब व्यक्तिगत पसंद या नापसंद का विषय हो सकता है किन्तु उसका इस्लाम से कोई सम्बन्ध नहीं है और इसलिए महाविद्यालय प्रबंधन द्वारा उस पर रोक लगाये जाने को  धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं  माना जा सकता | साथ ही उसने ये भी स्पष्ट कर दिया कि छात्रों के लिए शैक्षणिक संस्थान द्वारा निश्चित किये गये गणवेश संबंधी नियमों का पालन करना अनिवार्य होगा | फैसले के बाद मुस्लिम समुदाय के अनेक राजनीतिक और धार्मिक नेताओं ने उसकी आलोचन शुरू कर दी | हालाँकि इक्का – दुक्का उलेमाओं ने इस फैसले के बाद विवाद खत्म करने की बात  कहते हुए याचिकाकर्ताओं को सुझाव दिया  है कि यदि वे  नाखुश हैं तो  उच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका लगाने के अलावा सर्वोच्च न्यायालय भी जा सकती हैं | बहरहाल मामला चूंकि अदालत से जुड़ा हुआ है इसलिए अब उसका निराकरण भी वहीं से होगा क्योंकि प्रदेश और देश की मौजूदा सरकार इस फैसले को उलटने के लिए विधानसभा या संसद का उपयोग नहीं करेगी | दरअसल धार्मिक मामलों , विशेष तौर  पर मुस्लिम समाज से जुड़े विषयों पर अदालती फैसलों के विरोध की ये स्थिति न बनती यदि स्व. राजीव गांधी  के शासनकाल में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शाह बानो को गुजारा भत्ता दिए जाने संबंधी  फैसले को मुसलिम समाज के दबाव में संसद द्वारा उलट न दिया गया होता | स्व. गांधी को प्रगतिशील  सोच वाला राजनेता माना जाता था जिन्होंने देश में  कम्प्यूटर और मोबाइल जैसी अत्याधुनिक तकनीक के जरिये संचार क्रान्ति की शुरुवात की | लेकिन उन्होंने भी  तुष्टीकरण के फेर में फंसकर  अपने विशाल बहुमत के जोर पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बेअसर करवा दिया | राजनीति के जानकार भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि शाह बानो फैसले को  रद्द करवाना स्व. गांधी के लिए बेहद नुकसानदेह साबित हुआ और उसी के बाद देश में ध्रुवीकरण की राजनीति का जोर बढ़ा | सबसे बड़ी बात मुस्लिम धर्मगुरुओं के मन में ये बात बैठ गई कि शरीयत और मुस्लिम पर्सनल ला के नाम पर राजसत्ता को  झुकाया जा सकता है | लेकिन  तीन तलाक के बाद हिजाब संबंधी इस फैसले ने ये साबित कर दिया कि मुस्लिम समाज में अनेक  ऐसे  रीति – रिवाज लागू हैं जिनका शरीयत से कोई सम्बन्ध नहीं है | ये बात पहले ही सामने आ चुकी है कि तीन तलाक़ जैसी प्रथा अनेक इस्लामिक देशों द्वारा महिला विरोधी मानते हुए समाप्त की जा चुकी है | इसी तरह हिजाब पर भी प्रतिबन्ध अनेक देश लगा चुके हैं | ये सब देखते हुए लगता है कि भारत में मुस्लिम समुदाय आज जिस वैचारिक द्वन्द का शिकार है उसके लिए शाह बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को स्व. राजीव गांधी की सरकार द्वारा रद्द किया जाना सबसे बड़ा कारण बन गया | यदि वह फैसला जस का तस लागू किया गया होता  तो इस तरह की समस्याएं पैदा नहीं होतीं | कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भी  इस बात की सम्भावना व्यक्त की है कि हिजाब संबंधी विवाद के पीछे कोई सुनियोजित योजना थी | मुस्लिम धर्मगुरुओं और राजनेताओं को अब ये  समझ लेना चाहिए कि वे राजनीतिक दृष्टि से उतने ताकतवर नहीं रह गये | बल्कि उनकी गोलबंदी ने जवाबी ध्रुवीकरण को मजबूत कर दिया | उ.प्र के ताजा चुनाव परिणाम इस बात का संकेत हैं कि मुसलमानों को वोट बैंक के तौर पर अलग – थलग रखने की रणनीति कारगर नहीं हो रही | समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने भी इस चुनाव में हिन्दू मतदाताओं की नाराजगी से बचने के लिए अनेक मुस्लिम प्रत्याशियों की टिकिट काट दी और पहली बार अयोध्या में हनुमान गढ़ी के दर्शन करने जा पहुंचे | काशी विश्वनाथ मंदिर में उनका जाना भी हिन्दुओं को खुश करने का दांव माना गया | यही नहीं तो वे ब्राह्मणों की मिजाजपुर्सी करने के लिए भगवान परशुराम की प्रतिमा लगवाने जैसी बात तक करने लगे |  ऐसे में उन्हें ये समझना चाहिए कि जो राजनीतिक नेता उनके हितचिन्तक बनने का दिखावा करते हैं वे सही मायनों में उनका शोषण करते हैं | एक समय था जब आज़म खान  मुलायम सिंह यादव के  दायें हाथ माने जाते थे किन्तु जब उत्तराधिकार सौंपने की बारी आई तब मुलायम सिंह ने अपने बेटे को आगे कर दिया जिसके कारण आज़म भी खून का घूँट पीकर रह गये | ये देखते हुए कहा जा सकता है कि मुस्लिम  समाज को मुख्यधारा में आने का जो अवसर शाह बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दिया था वह स्व. राजीव गांधी की नासमझी से बेकार चला गया | उनके पास जिस तरह का जनादेश था उसे देखते हुए वे चाहते तो मुस्लिम समुदाय के मन में ये बात बिठा सकते थे कि उनको देश के संविधान और न्यायपालिका का पालन करना ही होगा | यदि ये बात उसी समय जोरदारी से रख  दी जाती तब मुसलमानों को शरीयत के नाम पर बरगलाने वाली ताकतों का हौसला कब का ठंडा पड़ चुका होता | तब से अब तक  देश और दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी हैं | लेकिन मुस्लिम समाज तरक्की की दौड़ में पीछे रह गया तो उसके लिए वह खुद जिम्मेदार है |   मुसलमानों को ये बात सोचनी और समझनी होगी कि वे बदलाव के साथ खुद को जोड़ें क्योंकि 21 वीं सदी में 18 वीं सदी की सोच से बंधकर कोई कौम आगे नहीं बढ़ सकती |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 15 March 2022

कश्मीर फाइल्स : सच है तो कड़वा होगा ही



पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने यूक्रेन संकट से लोगों का ध्यान हटाने में कमायाबी हासिल की | उ.प्र सहित चार राज्यों में भाजपा की  वापिसी के अलावा पंजाब में आम आदमी पार्टी के  ऐतिहासिक बहुमत के साथ राज्याभिषेक की खबरें सुर्खियाँ बटोर रहीं थीं और उनका पोस्ट मार्टम करने वाले अपने काम में जुटे थे | लेकिन इसी बीच एक फिल्म के प्रदर्शन को लेकर पूरे देश में चुनाव जैसा ध्रुवीकरण नजर आने लगा | कश्मीर फाइल्स नामक इस फिल्म में 1990 में कश्मीर घाटी से हिन्दू पंडितों के पलायन की त्रासदी दर्शाई गयी है | इस विषय पर अनेक पुस्तकें पहले ही आ चुकी थीं किन्तु उनकी पहुँच उतनी व्यापक न हो पाने से चर्चित होने के बाद भी वे बहुत ज्यादा प्रसारित नहीं हो सकीं किन्तु इस फिल्म को लेकर पूरे देश में विरोध और समर्थन के  स्वर सुनाई दे रहे हैं  | दरअसल फिल्म के प्रमोशन से कपिल शर्मा शो के आयोजकों द्वारा इंकार करने के बाद  उसे लेकर उत्सुकता बढ़ी | वैसे भी इस तरह के विवाद संचार क्रांति के इस दौर में पलक झपकते वैश्विक विमर्श का विषय बन जाते हैं | चूंकि फिल्म  अपने ही वतन में शरणार्थी बनने के लिए मजबूर किये गये हजारों कश्मीरी पंडितों की दर्दनाक दास्ताँ पर केन्द्रित है , इसलिए उसके प्रति अतिरिक्त   उत्सुकता दिखाई दे रही है | अमूमन इस तरह की फ़िल्में कब आती और चली जाती हैं ये पता  ही नहीं चलता | इसीलिये  उसके प्रदर्शन हेतु  देश भर में मात्र 600 सिनेमा स्क्रीन उपलब्ध करवाई गईं किन्तु महज तीन दिनों के भीतर उनकी संख्या 2200 तक पहुंचना इस बात का प्रमाण है कि दर्शक उसे  हाथों  – हाथ ले रहे हैं | टिकिट बिक्री के आंकड़े भी किसी सफल फिल्म जैसे ही हैं | लेकिन बात इतने तक ही सीमित नहीं रही | प्रधानमन्त्री सहित अनेक विशिष्ट हस्तियों ने उसे देखकर न सिर्फ प्रशंसा की अपितु उसे देखने की सिफारिश भी कर डाली | भाजपा शासित अनेक राज्यों ने उसे टेक्स फ्री भी कर दिया | दूसरी तरफ एक वर्ग विशेष उसके विरोध में मुखर हो उठा है | इसमें वामपंथियों के अलावा बुद्धिजीवियों और राजनेताओं की वह जमात भी शामिल है जिसे कश्मीर फाइल्स मे मुस्लिम विरोध नजर आ रहा है | इनका कहना है कि तीन दशक पुराने उस हादसे को लोग भूलने लगे थे लेकिन इस फिल्म के कारण जो घाव समय के साथ भरने लगे थे , वे फिर से हरे हो जायेंगे | लेकिन इतिहास में जो पाप या अत्याचार हो चुका है उसे भूलने से उनकी पुनरावृत्ति की गुंजाईश ज्यादा  रहती है | कश्मीर पर बनी  संदर्भित फिल्म के पहले भी आतंकवाद और कश्मीर पर अनेक फ़िल्में आईं जिन्हें दर्शकों ने पसंद भी किया और नापसंद भी | उनके कथानक को लेकर भी छोटे – मोटे विवाद हुए लेकिन कश्मीर फाइल्स को लेकर जिस तरह का बवाल मचाया जा रहा है ये उसी गिरोह का काम है जिसे भारत इसलिए रहने लायक नहीं लगता क्योंकि यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता का अभाव है | अवार्ड वापिसी के माध्यम से खुद को मानवाधिकारों का पहरुआ साबित करने वाले इन लोगों को याकूब मेनन की  फांसी रुकवाने के लिए राष्ट्रपति को हस्ताक्षरित ज्ञापन देने में तो शर्म नहीं आई किन्तु कश्मीरी पंडितों पर हुआ अमानवीय  व्यवहार इनके लिये भूल जाने योग्य वाकया है | ये वही  लोग हैं जिन्हें अफज़ल गुरु निर्दोष लगता था और जेएनयू में भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे लागाने वाले आजादी के सिपाही | कश्मीर में उस दौर में जो हुआ उस पर ये कहते हुए पर्दा नहीं डाला जा सकता कि 15 हज़ार कश्मीरी मुसलमान भी आतंकवादी हिंसा के शिकार हो चुके हैं | असली  सवाल तो ये है कि इसके बावजूद कश्मीरी मुसलमान आतंकवादियों के जनाजे में पकिस्तान समर्थक नारे लगाते हुए क्यों शामिल होते रहे ? किसी मकान में घुसे आतंवादियों को घेरने वाले सुरक्षा बल के जवानों पर पत्थर फेंकने वाले कश्मीरी मुसलमान इसीलिये सहानुभूति के पात्र नहीं बन सके | बुरहान बानी जब सुरक्षा बलों द्वारा घेर लिया गया तब लोगों की भीड़ उसे बचाने जमा हो गई थी | ऐसे में ये अवधारणा गलत नहीं है कि कश्मीर में रहने वाले आम  मुसलमान मन ही मन अलगाववाद के समर्थक थे | वैसे इसका एक कारण उनके मन में आतंकवादियों के हाथों मारे जाने का डर भी था परन्तु  ये त्रासदी तो पंजाब में खालिस्तानी आतंक के दौर में  सिखों ने भी तो भोगी  और नक्सल प्रभावित इलाकों के लोगों को भी उनकी हिंसा का शिकार होना पड़ता है | लेकिन जब आतंकवाद की जड़ों में मठा डालने के लिए संविधान की धारा 370 और 35 ए हटाई गई तब उसका विरोध जितना कश्मीर घाटी में हुआ उतना ही देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले उन नेताओं , बुद्धिजीवियों और पत्रकारों ने भी किया जिनकी नजर में केंद्र सरकार का वह कदम मानवाधिकारों का उल्लंघन था | कश्मीर में कर्फ्यू , सेना की तैनाती और संचार सुविधाएँ बंद कर देने के विरुद्ध भी इस तरह की आवाजें उठाई गईं मानों वे किसी शत्रु देश द्वारा किया गया निर्णय  हो | कश्मीर फाइल्स के विरोध ने इन ताकतों को एक बार फिर बेपर्दा कर दिया है | हाल ही के चुनाव परिणामों से मिली निराशा भी इस फिल्म के विरोध के पीछे है | दरअसल देश विरोधी ताकतें राष्ट्रवाद की किसी भी मुहिम का इसी तरह विरोध करती रही हैं  | कश्मीर फाइल्स एक फिल्म है जिसके कथानक में कुछ हद तक नाटकीयता हो सकती है किन्तु उसके विरोध में एक अभियान छेड़ देना संदेहों को जन्म देता है | जिसके पीछे वही लोग हैं जो किसी फिल्म में हिन्दू ऐतिहासिक पात्र के गलत चित्रण का विरोध करने वालों को गलत ठहराते रहे हैं | यूरोप में आज भी द्वितीय विश्व युद्ध पर फ़िल्में बनती हैं | भारत के विभाजन पर भी गर्म हवा और तमस जैसी फिल्मे बनीं |  अनेकानेक पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ | हर कृति अपने – अपने स्तर पर महत्वपूर्ण है क्योंकि इतिहास किसी की बपौती नहीं और 21 वीं सदी बाबरनामा या अकबरनामा की मोहताज नहीं है | जिस तरह महात्मा गांधी पर बनी फिल्म में उन्हें गोली मारते नाथूराम गोडसे को दिखाया जाना इतिहास  के साथ न्याय है उसी तरह कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों का वास्तविक प्रस्तुतीकरण न्यायोचित है | बेहतर हो हम समय के साथ परिपक्व और बौद्धिक होना सीखें | अतीत को विस्मृत कर देना अपने अस्तित्व से अपरिचित हो जाने जैसा होगा | भारत के विभाजन की दर्दनाक दास्ताँ इसलिए याद रखना जरूरी है ताकि हम अखंडता की कीमत को जान सकें | कश्मीर में बीते सात दशक के दौरान  तमाम ऐतिहासिक गलतियाँ  हुई हैं | उन्हें भूल जाने से नई गलतियों की ज़मीन तैयार होने का खतरा बना रहेगा | कश्मीरी पंडितों की  नई पीढ़ी उस त्रासदी के बाद युवा हो चुकी है | उसे अपने पूर्वजों पर आई उस विपत्ति की जानकारी मिलना ही चाहिए | आज पूरी दुनिया सीरिया से निकले शरणार्थियों पर रहम खाती है | यूक्रेन से पलायन कर रहे लाखों शरणार्थी पूरी दुनिया की सहानुभूति और संरक्षण के पात्र हैं | कल को हॉलीवुड इन घटनाओं पर भी फ़िल्में बनाएगा जिनमें वास्तविकता का बेबाक चित्रण होगा | ऐसे में हमारे देश के जिन लोगों को अपने ही वतन में शरणार्थी होने का अपमान और पीड़ा झेलनी पड़ी उनके दर्द को परदे पर उतार देने की साहसिक कोशिश का स्वागत होना चाहिए | रही बात विरोध की तो कुछ लोग स्थायी रूप से कुंठा ग्रसित हैं | इनमें कुछ को ये देश तो कुछ को उ.प्र अच्छा नहीं लगता |

-रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 14 March 2022

कांग्रेस वैभव से पराभव की ओर : गलतियों को दोहराते रहने का नतीजा



कांग्रेस किसे अपना नेता बनाये ये उसका आंतरिक मामला है किन्तु देश की  सबसे पुरानी पार्टी होने के नाते वह जनमानस  से इस कदर जुड़ी  र्ही कि उसके बिना कोई भी राजनीतिक विमर्श पूरा नहीं होता | इसीलिये जब नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत  का नारा उछाला तब बहुत सारे उन लोगों को ये नागवार गुजरा , जिनका मानना है कि कांग्रेस इस देश के लिए अवश्यम्भावी है | इसमें दो राय नहीं कि स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व करने के कारण उसकी पहुँच देश के प्रत्येक कोने में थी | लेकिन धीरे – धीरे वह वैभव क्षीण होने लगा और 2014 से वह पराभव का पर्याय बनने लगी | हाल ही में पांच राज्यों के जो  परिणाम आये उनमें सबसे दयनीय स्थिति उसी  की बनी | पंजाब उसके हाथ से निकल गया | लेकिन सबसे  बड़ी बात ये रही कि सर्वाधिक आबादी वाले उ.प्र में वह मात्र 2 सीटों पर लुढ़क गयी | कांग्रेस महासाचिव प्रियंका वाड्रा बीते काफी समय से इस राज्य पर पूरा ध्यान दे रही थीं और प्रत्याशी चयन से  प्रचार तक की पूरी रणनीति उन्हीं ने बनाई थी | उ.प्र में ये पार्टी  का अब तक का सबसे ख़राब प्रदर्शन है जिससे ये माना जाने लगा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में वह भाजपा का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं रह गई है | प. बंगाल में कांग्रेस के शून्य पर आकर टिक जाने के बाद ममता बैनर्जी ने सार्वजनिक तौर पर कह दिया कि राहुल गांधी में अब श्री मोदी का सामना करने की क्षमता नहीं बची है इसलिए विपक्ष का नेतृत्व वे करेंगी | लेकिन उ.प्र के चुनाव परिणाम के बाद तो वे यहाँ  तक बोल गईं कि अब कांग्रेस को तृणमूल में विलीन हो जाना  चाहिए | चौंकाने वाली बात ये है कि इस तंज  के बारे में कांग्रेस के किसी भी नेता या प्रवक्ता में कुछ कहने का साहस नहीं हुआ | वैसे पार्टी  को अपनी हैसियत का अंदाज इसी से लग जाना चाहिए था कि उ.प्र में किसी ने भी उसके साथ गठबंधन करने में रूचि नहीं दिखाई क्योंकि क्षेत्रीय दलों को भी वह  बोझ लगने लगी है | हालिया चुनावी हार के बाद राहुल गांधी ने गलतियों से सीखने जैसी बात  कही थी जिससे  ये कयास लगने भी शुरू हो गये कि संभवतः पार्टी नेतृत्व में बदलाव होगा ताकि भावी चुनौतियों के लिए कमर कसी जा सके | गत दिवस कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के पहले जी - 23 नामक नेताओं के नाराज समूह ने भी इसी आशय की मांग करते हुए मुकुल वासनिक का नाम अध्यक्ष  हेतु उछाल दिया | ये खबर भी तेजी से उड़ी कि सोनिया गांधी कार्यकारी अध्यक्ष का पद त्याग देंगी किन्तु बैठक के पूर्व ही पार्टी प्रवक्ता ने इसका खंडन कर दिया | जैसी जानकारी आई उसके अनुसार बैठक शुरू होते ही श्रीमती गांधी के साथ ही राहुल और प्रियंका ने त्यागपत्र की पेशकश की किन्तु जैसा होता आया है उसे  नामंजूर करते हुए  सोनिया जी को ही संगठन चुनाव होने तक कार्यकारी अध्यक्ष बनाये रखने का फैसला हो गया | बैठक में असंतुष्ट गुट के दो - तीन नेता मौजूद थे लेकिन उनकी आवाज अनसुनी होकर रह गयी | स्मरणीय है 2019 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल ने पार्टी अध्यक्ष का पद त्यागकर आदर्श पेश किया जिसके बाद कई महीनों तक उनकी मान - मनौव्वल चलती रही | उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि उनके परिवार का कोई भी भी व्यक्ति अध्यक्ष पद पर नहीं आएगा | जब गतिरोध नहीं सुलझा तब श्रीमती गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर तदर्थ व्यवस्था कर दी गई | लेकिन चुनाव करवाने की बजाय राहुल को ही दोबारा अध्यक्ष  बनाये जाने की कवायद की जाने लगी | कल हुई बैठक के समय भी बाहर कार्यकर्ताओं की प्रायोजित भीड़ उनकी ताजपोशी किये जाने की मांग करती रही | राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो बैठक के पहले ही श्री गांधी के पक्ष में बयान  दे डाला | कुल मिलाकर  हार की समीक्षा कर आगामी  चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन को सुधारने की बात तो गौण होकर रह गयी और नेतृत्व परिवर्तन की मांग को ख़ारिज करने पर ही पूरा जोर लगा दिया गया | पार्टी के  भीतरखानों में व्याप्त चर्चा के अनुसार ले - देकर राहुल के सिर पर ही दोबारा ताज रखने की पूरी – पूरी तैयारी हो चुकी है |  सवाल ये है कि  इसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं है तब इस बारे में फैसला क्यों नहीं किया जाता ? 1996 में कांग्रेस जब केंद्र की सत्ता से बाहर हुई तब स्व. अर्जुन सिंह द्वारा सोनिया गांधी को कमान सौंपने की वकालत करते हुए कहा गया था कि गांधी परिवार ही कांग्रेस को एकजुट रखने वाली ताकत है |  उसके लिए जिस तरह सीताराम केसरी का सामान कांग्रेस कार्यालय से  फिंकवाया गया वह किसी से छिपा नहीं है | उसके बाद जब पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव की मृत्यु हुई तब उनके शव को अंतिम  दर्शन हेतु पार्टी मुख्यालय में  रखने तक से मना कर दिया गया | दरअसल राव साहब से गांधी परिवार की नाराजगी इस बात पर थी कि उन्होंने प्रधानमन्त्री रहते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद भी अपने पास रखकर पार्टी को  गांधी  परिवार के वर्चस्व से बाहर निकलने का  दुस्साहस किया | इसी तरह स्व. केसरी की प्रधानमन्त्री बनने की महत्वाकांक्षा  उनके लिए नुकसानदेह साबित हुई | इसीलिये 2004 में जब सोनिया जी ने प्रधानमन्त्री पद ठुकराया तब किसी जनाधार वाले नेता की बजाय डा. मनमोहन सिंह का राजतिलक करवा दिया जो कभी भी  सत्ता या संगठन पर अपना रुतबा कायम नहीं कर सके | इसीलिये जब 2014 में कांग्रेस सत्ता से हटी तब किसी ने भी मनमोहन सिंह को दोष नहीं  दिया | उनकी सरकार जाने के लिए भ्रष्टाचार के बड़े मामले काफी हद तक जिम्मेदार होने के बाद भी उनके दामन पर दाग नहीं आये |  ये अवधारणा हर किसी के मन में बैठ चुकी थी कि वे  नाममात्र के प्रधानमन्त्री थे और सरकार का संचालन गांधी परिवार रिमोट कंट्रोल से करता था | यही वजह है कि कांग्रेस की  दुर्गति के लिए ज्यादातर लोग गांधी परिवार को ही कसूरवार मानते हैं  | राहुल गांधी ने जब पार्टी की कमान संभाली तब उन्होंने जो कोर ग्रुप बनाया उसमें अनेक  उदीयमान और प्रतिभाशाली युवा नेता थे | लेकिन धीरे – धीरे ये साबित हो गया कि उन्हें स्वतंत्र होकर काम करने की छूट नहीं है और  इसीलिये वह ग्रुप छिन्न – भिन्न होकर रह गया | ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद तो भाजपा में आ गये वहीं सचिन पायलट और मिलिंद देवड़ा भी अपनी उपेक्षा से खिन्न हैं | नए चेहरों को पदोन्नत करने के बजाय परिवार के करीबियों को ही  उपकृत किया जाने लगा जिसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम पंजाब में देखने मिला जहाँ नवजोत सिद्धू के  कहने पर कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटा दिया गया | अब वही सिद्धू राहुल  पर उस फैसले की जिम्मेदारी थोप रहे हैं | इसी तरह उ.प्र में तमाम वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा करने का नतीजा ये हुआ कि पार्टी 2 सीटों पर आ गई और उसका मत प्रतिशत भी घटकर छोटी – छोटी जातिवादी स्थानीय स्तर की पार्टियों से भी कम हो गया | इसीलिये   कांग्रेस के भीतर से ही ये आवाजें उठने लगीं कि नेतृत्व में बदलाव हेतु संगठन के चुनाव करवाए जावें | लेकिन जैसा दिख रहा है उसके अनुसार तो अंततः राहुल ही अपनी माँ का स्थान लेंगे और उनकी बहिन भी पार्टी में अपनी मौजूदा जगह बनाए रखेंगी | देखने वाली बात ये है कि पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद आने वाले सालों में विभिन्न राज्यों के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव हेतु विपक्षी दलों का गठबंधन बनाने की चर्चा में कांग्रेस को कोई महत्व नहीं मिल रहा | उलटे आम आदमी पार्टी में मुख्य विपक्षी दल बनने की सम्भवनायें खोजी जाने लगी हैं | सही बात ये है कि जब तक गांधी परिवार इस खुशफहमी को नहीं छोड़ता कि कांग्रेस पर उसका पुश्तैनी अधिकार है तब तक पार्टी की स्थिति में सुधार होना संभव  नहीं होगा | देखने वाली बात ये है कि भाजपा ने अटलबिहारी वाजपेयी का दौर समाप्त होते ही  उनका विकल्प तलाश लिया लेकिन कांग्रेस आज भी पुराने ढर्रे पर चलना चाह रही है जबकि हर चुनाव में करोड़ों नए मतदाता तैयार हो जाते हैं | गत दिवस संपन्न कार्यसमिति की बैठक के दौरान गांधी परिवार के तीनों सदस्यों द्वारा अपने दायित्व से मुक्त होने की इच्छा जताए जाने के बाद भी उन्हें बनाये रखने की अपील महज औचारिकता है | पार्टी के सबसे शक्तिशाली परिवार के विरोध का साहस करने वाले जी – 23 नामक समूह के नेता भी घुमा – फिराकर यही कहते सुने जा सकते हैं कि संगठन के चुनाव करवाए जाएं जिनमें भले ही राहुल को ही फिर से अध्यक्ष बना दिया जावे | पता नहीं पराजय पर चिंतन और गलतियों से सबक लेने का ये कौन सा तरीका है ? कभी – कभी तो ये लगता है कि कांग्रेस मुक्त भारत का जो नारा श्री मोदी ने दिया उसे सच करने का काम कांग्रेस और उसका नेतृत्व खुद ही करने में जुटा हुआ है |

-रवीन्द्र वाजपेयी



 

Saturday 12 March 2022

गांधी परिवार के भरोसे रही तो कांग्रेस का डूबना निश्चित



पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद एक तरफ भाजपा में हर्षोल्लास का माहौल है तो आम आदमी पार्टी भी सातवें आसमान पर है क्योंकि दिल्ली के बाद  पंजाब के रूप में एक पूर्ण राज्य की सत्ता उसे जिस अंदाज में हासिल हुई उसने राजनीति के जानकारों के दिमाग की खिड़कियाँ खोल दी हैं | हालाँकि दिल्ली फतह करने  के पहले से ही अरविन्द केजरीवाल ने राष्ट्रीय राजनीति में कदम रखने के इरादे जता दिए थे | 2014 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी से उनके नरेंद्र मोदी के मुकाबले उतरने के साथ ही अमेठी में कुमार विश्वास को राहुल गांधी से भिड़ने भेजा गया | हालाँकि  सफलता मिली पंजाब में जहाँ उसके चार सदस्य जीते जिनमें एक भगवंत मान भी थे जो वहां  के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं | 2017 के विधानसभा चुनाव में पंजाब में पार्टी को ख़ास सफलता तो नहीं  मिली परन्तु उसके कारण अकाली दल सत्ता से बाहर हो गया |  उसके बाद से ही  श्री केजरीवाल एक चतुर रणनीतिकार के रूप में अपनी कार्ययोजना पर काम करते रहे जिसके परिणाम सामने हैं | इसीलिये पंजाब में जीतने के फौरन बाद पार्टी ने गुजरात के आगामी चुनाव में उतरने का ऐलान कर दिया | भाजपा भी उसके इरादे को भांप चुकी है और इसी के चलते प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी गत दिवस अहमदाबाद जा पहुंचे | उनके प्रवास का मकसद एक सरकारी कार्यक्रम में शिरकत करना था किन्तु उसके पहले उन्होंने एक लम्बा रोड शो कर डाला जिसमें उमड़े जनसैलाब ने उनके गृहराज्य में भाजपा की मजबूत पकड़ की पुष्टि की | आम आदमी पार्टी ने भी जल्द ही तिरंगा यात्रा के माध्यम से गुजरात में अपना जनाधार बढ़ाने की घोषणा कर दी है | लेकिन गुजरात में जिस कांग्रेस ने पिछले चुनाव में भाजपा के छक्के छुड़ा दिए थे उसकी तरफ से आगामी मुकाबले के लिये तैयारी करने का हल्का सा भी संकेत नहीं है | उ.प्र में उसका जिस तरह सफाया हुआ उसके बाद से वह  सन्निपात की स्थिति में है | हालाँकि पंजाब , उत्तराखंड और गोवा में वह प्रमुख विपक्षी दल की हैसियत में है लेकिन उ.प्र में जो दुर्गति  हुई  उसके कारण पार्टी के भविष्य पर ही सवाल उठने लगे हैं | इसका एक कारण ये है कि उ.प्र की कमान लम्बे समय से प्रियंका वाड्रा के जिम्मे रही  जिन्होंने इस बार 40 फीसदी सीटें महिलाओं को देकर एक नवाचार किया था लेकिन उसका जरा सा भी प्रभाव नहीं दिखा | कांग्रेस का मत 3 प्रतिशत से भी कम हो जाना उसकी दयनीय स्थिति का प्रमाण है | रायबरेली और अमेठी के पुश्तैनी गढ़ भी पूरी तरह ध्वस्त हो चुके हैं | यदि सपा और बसपा ने हमेशा की तरह अपना प्रत्याशी नहीं उतारने का  निर्णय बदल लिया तब सोनिया गांधी का रायबरेली से अगला  चुनाव जीतना असंभव होगा | वैसे खबर ये है कि प्रियंका अपनी माँ की सीट से सांसद बनने का मंसूबा पाले बैठी हैं किन्तु ताजा नतीजे उनके लिये खतरे का संकेत हैं | राहुल गांधी भी अब अमेठी से दोबारा उतरने का साहस शायद ही बटोर सकेंगे |  उ.प्र के अलावा बिहार और प. बंगाल में भी कांग्रेस पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुकी है | तमिलनाडु और महाराष्ट्र में भी उसके लिए कुछ ख़ास गुंजाईश नहीं दिख रही | सबसे बड़ी बात ये है कि जिस गांधी परिवार को  पार्टी का भाग्य विधाता माना जाता रहा वही अब उसके पतन का कारण बन रहा है जिसके कारण न सिर्फ वरिष्ठ नेता जहां नाराज हैं वहीं युवा नेता भी अपने भविष्य के प्रति चिंतित हो उठे हैं | हर पार्टी समय – समय पर ऐसे हालातों से गुजरती रही है लेकिन संघर्ष के बलबूते उसने कालान्तर में वापिसी की | स्व. इंदिरा गांधी इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं | लेकिन ऐसा लगता है राहुल और प्रियंका राजनीति को मन बहलाने के साधन के तौर पर लेते हैं और यही वजह है कि बीते सात साल से कांग्रेस की स्थिति  लगातार कमजोर होती जा रही है और मुख्यधारा वाले राज्यों में उसका जनाधार पूरी तरह खत्म होने के कगार पर है | पंजाब में  जो दुर्गति हुई उसके लिए आम आदमी पार्टी से ज्यादा राहुल और प्रियंका जिम्मेदार हैं जिन्होंने नवजोत सिंह सिद्धू जैसे व्यक्ति के मोहपाश में फंसकर कैप्टन अमरिंदर सिंह को सत्ता से हटाने जैसी मूर्खता कर डाली | उ.प्र में प्रियंका ने पूरी कमान सम्भाल रखी थी किन्तु पूरे चुनाव में लगा ही नहीं कि कांग्रेस कहीं मुकाबले में भी थी | बसपा के बारे में तो ये कहा जा सकता है कि उसने अखिलेश यादव को सत्ता में आने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया किन्तु कांग्रेस तो न खुद  खुद खेल पाई और न किसी का खेल बिगाड़ने की क्षमता ही उसने प्रदर्शित की |  इसीलिए वह हारने के बाद ढंग से अपनी प्रतिक्रिया तक जाहिर नहीं कर सकी  | राहुल और प्रियंका ने ट्विटर पर ही अपने कार्यकर्ताओं को सन्देश दे दिया जिसमें  गलतियों से सबक लेने और संघर्ष करते रहने जैसी घिसी –  पिटी बातें रहीं | लेकिन इस बात का कोई उत्तर उनके पास नहीं है कि कांग्रेस आखिर कितनी  गलतियों के बाद  सीखेगी | गत दिवस जी- 23 नामक उन नेताओं ने दिल्ली में बैठक की जो बीते काफी समय से  संगठन  चुनाव  की मांग करते आ रहे हैं | हालाँकि इनमें से अधिकतर का जनाधार नहीं है और वे सब राज्यसभा के जरिये ही राजनीति करते रहे | ये भी कहा जाता है कि कांग्रेस के सिमटते जाने से इनकी राज्यसभा सदस्यता खतरे में आ गयी है जिससे ये छटपटा रहे हैं |  2019 के लोकसभा चुनाव की पराजय की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए राहुल ने अध्यक्ष का पद तो छोड़ दिया लेकिन पार्टी पर कब्जा बनाये रखने का मोह नहीं छोड़ सके और इसीलिये किसी ऊर्जावान नए चेहरे को आगे लाने के बजाय सोनियां जी को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर पार्टी को तदर्थवाद के खूँटे पर टांग दिया गया | असंतुष्टों में अधिकतर नेता वे ही हैं जो कल तक गांधी परिवार के दरबारी हुआ करते थे लेकिन अब उनकी समझ में भी आ चुका है कि उसके भरोसे रहने से पार्टी का भट्टा बैठ जाएगा | गत दिवस शशि थरूर ने भी कहा कि  बदलाव होना चाहिए | एक राष्ट्रीय पार्टी बीते तकरीबन ढाई साल से अपने संगठनात्मक ढांचे को पूरी तरह से खड़ा करने में असफल रहे तो वह चुनौतियों का सामना  किस प्रकार कर सकेगी ये गम्भीर प्रश्न है | हमारे देश में चुनाव चूंकि कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया है इसलिए हर राजनीतिक दल उसके प्रति अपनी तैयारियां रखता है | लेकिन कांग्रेस  तो आग लगने के बाद कुआ खोदने से भी ज्यादा उदासीनता दिखा रही है | पंजाब में यदि वह बतौर विपक्ष पर्याप्त संख्याबल के साथ विधानसभा में बैठती तब शायद उसकी संभावनाएं  जिन्दा रहतीं किन्तु जिस तरह दिल्ली में उसे पूरी तरह धराशायी करते हुए आम आदमी पार्टी ने सत्ता हासिल की ठीक वही पंजाब में दिखा | कांग्रेस ही वह पार्टी है जिसकी राजनीतिक पूंजी छोटे – छोटे दल तक लूटते जा रहे हैं और उसका मालिक बना बैठा गांधी परिवार निष्फिक्र बना बैठा है | ये स्थिति कुछ समय और चली तो 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष के  संभावित गठबंधन में  कांग्रेस की  स्थिति किसी छोटे दल से ज्यादा नहीं रह जायेगी | एक राष्ट्रीय दल के लिए ये बेहद शर्मनाक है | वैसे जी – 23 में शामिल नेता भी पार्टी की दुर्गति के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं क्योंकि इसके पहले तक वे सभी गांधी परिवार के घोर समर्थक थे किन्तु  जो मुद्दे वे उठा रहे हैं वे पूरी तरह जायज हैं | लेकिन जब तक  राहुल गांधी  हम नहीं सुधरेंगे की जिद पकड़े बैठे रहेंगे तब तक कांग्रेस की स्थिति दिन ब दिन और बिगड़ती जायेगी |

-रवीन्द्र वाजपेयी