Thursday 24 March 2022

ममता बंगाल संभालें क्योंकि क्षेत्रीय दलों की उंची उड़ान जनता को पसंद नहीं



भारतीय राजनीति में ये देखा गया है कि जिस भी क्षेत्रीय नेता ने राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित होने की कोशिश की तो उसकी अपने राज्य में ही पकड़ कमजोर पड़ गई | इसका कारण ये है कि क्षेत्रीय दलों की  राजनीति स्थानीय अथवा जातिगत मुद्दों पर आधारित होने से  जनता की उनसे अपेक्षा होती है कि वे उन्हीं के इर्द - गिर्द रहकर काम करें | जिन दलों ने इस सूत्र को समझ लिया वे लम्बे समय तक अपना प्रभाव कायम रख सके | इसके जो सबसे अच्छे उदहारण हैं उनमें पहला तमिलनाडु के दोनों दल द्रमुक और अद्रमुक हैं जो पचास साल से राज्य की राजनीति पर काबिज हैं | केंद्र की अनेक सरकारें इन दोनों के समर्थन पर टिकी रहीं लेकिन इन्होंने एक नगरनुमा केंद्र शासित पुडुचेरी के अलावा अन्य किसी राज्य में कदम नहीं रखे  | तमिल भाषा के नाम पर हिन्दी का विरोध और दलित आन्दोलन की भावना को जिन्दा रखना इनकी कार्यप्रणाली है | यद्यपि दोनों ही पार्टियां परिवारवाद और व्यक्ति पूजा में डूबी रहीं किन्तु क्षेत्रीय पहिचान बनाए रखने के कारण इन्होंने राष्ट्रीय दलों को वहां पैर नहीं ज़माने दिए | दूसरा उदाहरण है उड़ीसा का बीजू जनता दल जिसके मुख्यमंत्री नवीन पटनायक राजनीति से सर्वथा दूर रहते थे | लेकिन अपने पिता बीजू पटनायक की मृत्यु के बाद उन्होंने उनकी विरासत संभाली और शुरुवात में कमजोर नजर आने के बाद अपनी पकड़ इतनी मजबूत बनाई कि लगातार पांचवी बार मुख्यमंत्री बन गये | उनके पिता तो राष्ट्रीय राजनीति में  रूचि लेते भी थे किन्तु नवीन ने अपने को उड़ीसा तक सीमित रखा और इसीलिये  जनता सीधे – सादे समझे जाने वाले इस नेता को सिर आँखों पर बिठाये हुए है | श्री पटनायक  विपक्ष के गठबंधन से  दूरी बनाकर केवल राज्य के हितों पर ध्यान देते हैं  | इतिहास साक्षी है कि चौधरी चरण सिंह , एन टी रामाराव , देवीलाल , मुलायम सिंह यादव और लालू यादव जैसे नेताओं की राष्ट्रीय राजनीति में पैर जमाने की महत्वाकांक्षा उनके लिए नुकसानदेह साबित हुई और वे अपने राज्य में ही कमजोर होते गये | शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे  भी क्षेत्रीय दल के तौर पर अपनी सीमाएं जानते थे | इसलिए  राष्ट्रीय राजनीति में टांग अड़ाने से बचते रहे | अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में शिवसेना के शामिल होने के बावजूद वे उनके शपथ ग्रहण तक में नहीं गये | मुम्बई और महाराष्ट्र तक सीमित रहने का ही परिणाम रहा कि किसी की भी  सत्ता  रही हो लेकिन स्व. ठाकरे का रूतबा कम नहीं हुआ | शिवसेना भी हिंदुत्व के साथ ही मराठी भाषा और संस्कृति की समर्थक  रहने से महाराष्ट्र में एक ताकत बनी हुई है | यद्यपि अनेक राज्यों में  उसकी शाखाएँ हैं लेकिन शिवसेना और महाराष्ट्र एक दूसरे  के पर्याय हैं | बीच में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी राष्ट्रीय राजनीति का चस्का लगा था | हालाँकि वे लम्बे समय तक केंद्र में मंत्री रह चुके थे लेकिन ज्योंही उन्होंने  बिहार के बाहर कदम बढ़ाने चाहे , उनकी  ज़मीन खिसकने लगी और चतुराई दिखाकर वे प्रादेशिक राजनीति में  रहते हुए  सत्ता में बने हुए हैं | क्षेत्रीय नेता के दायरे में खुद को  रखने के दो और उदाहरण आंध्र के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी और तेलंगाना में  केसी राव हैं | इनमें जगन तो आंध्र तक ही सीमित रहते हैं क्योंकि वे अपने पूर्ववर्ती चंद्रबाबू नायडू का हश्र देख चुके हैं किन्तु केसी राव बीच  – बीच में उचका करते हैं जिसकी वजह से उन्हें राजनीतिक दृष्टि से नुकसान भी  हो रहा है | लेकिन इन दिनों सर्वाधिक चर्चा जिस क्षेत्रीय नेता की होती है वे हैं प.बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बैनर्जी ,  जो प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर आसीन होने की इच्छा ज़ाहिर करते हुए कह चुकी हैं कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने का माद्दा  केवल उन्हीं में है | गोवा विधानसभा के हालिया चुनाव में उन्होंने तृणमूल प्रत्याशी उतारे और वाराणसी में अखिलेश यादव के साथ रोड शो करने भी पहुँची | कांग्रेस को तृणमूल में विलीन होने जैसा सुझाव देकर ममता ने ये दिखाना चाहा कि वही विपक्ष की  सबसे बड़ी राष्ट्रीय नेता हैं | हालाँकि शरद पवार भी काफी  समय तक राकांपा नामक अपनी पार्टी का फैलाव अन्य राज्यों में करने की कोशिश कर चुके हैं लेकिन आखिर में उनको समझ आ गया कि महाराष्ट्र के एक इलाके  को छोड़कर उनकी पार्टी को कोई जगह नहीं है | जहां  तक बात ममता की है तो वे  प्रशांत किशोर जैसे पेशेवर के जरिये  अपने आभामंडल को प.बंगाल से बाहर निकालकर राष्ट्रीय स्वरूप देना चाह रही हैं , लेकिन इससे उनके अपने राज्य में शासन और प्रशासन की स्थिति खराब होने लगी है | गत वर्ष चुनाव जीतते ही उनको ये गुमान होने लगा कि वे श्री मोदी का विकल्प बनने में सक्षम हैं और कांग्रेस की  दयनीय स्थिति के कारण बाकी विपक्षी दल उनके झंडे के नीचे आने राजी हो जायेंगे | सोनिया गांधी की अस्वस्थता और राहुल गांधी में नेतृत्व क्षमता के अभाव  से सुश्री बैनर्जी का हौसला और बुलंद होने लगा | शरद पवार के अलावा मुलायम सिंह यादव भी  वृद्धावस्था के कारण राष्ट्रीय स्तर पर असरकारक नहीं रह गए | लालू यादव का जेल योग भी खत्म  होने का नाम नहीं ले रहा | इसलिए ममता के मन में प्रधानमंत्री बनने की  इच्छा बलवान हो उठी परन्तु प.बंगाल से जो खबरें आ रही हैं उनसे लगता है बतौर मुख्यमंत्री  उनकी पकड़ कमजोर होने लगी है |  भारी भरकम बहुमत पाने के बाद उन्होंने भाजपा में गए अनेक तृणमूल नेताओं की वापिसी करवाने के साथ ही विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर हमलों  की छूट अपने लोगों को दे दी जिसके कारण  दर्जनों हत्याएं हो चुकी हैं | चूंकि कांग्रेस का सफाया हो चुका है और वामपंथी दलों के साथ रहे  असामाजिक तत्व तृणमूल में आ चुके हैं इसलिए ममता का सामना करने के लिए भाजपा ही सामने है | हालाँकि उसके कार्यकर्ताओं में भी इस बात पर भारी  नाराजगी है कि विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने उन्हें असुरक्षित छोड़ दिया है | लेकिन अब देखने में आ रहा है कि तृणमूल कांग्रेसजनों की गुंडागर्दी का जवाब भी मिलने लगा है | बीते दो – तीन दिनों से बीरभूम जिले से आ रही खबरें इसका प्रमाण हैं जहां तृणमूल नेता की हत्या के बाद दर्जनों लोगों को जलाकर मार डाला गया | पता चला है इसके पीछे जमीन - जायजाद का विवाद था जो  राजनीतिक रंग ले बैठा | इस काण्ड से ममता की प्रशासनिक पकड़  कमजोर होने का संकेत मिला रहा है | ये बात पूरी तरह साफ होती जा रही है कि राष्ट्रीय स्तर पर उभरने की  लालसा में बात – बात पर केंद्र सरकार से टकराने की प्रवृत्ति के कारण वे अपने राज्य पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे पा रहीं जिससे  अराजकता का बोलबाला  है | स्मरणीय है वाममोर्चे के राज में होने वाली राजनीतिक हिंसा के विरुद्ध लड़कर ही ममता सत्ता तक पहुंच सकीं लेकिन अब वे भी साम्यवादी तौर – तरीके से सरकार चला रही हैं |  बीते एक साल के भीतर हालाँकि तमाम उपचुनाव और स्थानीय निकाय तृणमूल ने जीत लिए किन्तु उसमें भी आतंक की बड़ी भूमिका रही | ऐसे में इस बात का खतरा है कि राष्ट्रीय नेता बनने की कोशिश में कहीं वे अपने घर में ही कमजोर न हो जाएँ | उन्हें एक बात समझ लेनी होगी कि बिना भाजपा या कांग्रेस की अगुआई स्वीकार किये राष्ट्रीय स्तर का कोई गठबंधन आकार नहीं ले सकता | यदि उन्होंने  इस वास्तविकता को अनदेखा किया  तो आगे  पाट पीछे सपाट वाली स्थिति बनाना तय है |  मुस्लिम मतों के थोक समर्थन से राजनीतिक अमरत्व की अवधारण उ.प्र में लगातार जिस तरह ध्वस्त होती जा रही है उससे ममता को सीख लेनी चाहिए |

-रवीन्द्र वाजपेयी



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