Tuesday 15 March 2022

कश्मीर फाइल्स : सच है तो कड़वा होगा ही



पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने यूक्रेन संकट से लोगों का ध्यान हटाने में कमायाबी हासिल की | उ.प्र सहित चार राज्यों में भाजपा की  वापिसी के अलावा पंजाब में आम आदमी पार्टी के  ऐतिहासिक बहुमत के साथ राज्याभिषेक की खबरें सुर्खियाँ बटोर रहीं थीं और उनका पोस्ट मार्टम करने वाले अपने काम में जुटे थे | लेकिन इसी बीच एक फिल्म के प्रदर्शन को लेकर पूरे देश में चुनाव जैसा ध्रुवीकरण नजर आने लगा | कश्मीर फाइल्स नामक इस फिल्म में 1990 में कश्मीर घाटी से हिन्दू पंडितों के पलायन की त्रासदी दर्शाई गयी है | इस विषय पर अनेक पुस्तकें पहले ही आ चुकी थीं किन्तु उनकी पहुँच उतनी व्यापक न हो पाने से चर्चित होने के बाद भी वे बहुत ज्यादा प्रसारित नहीं हो सकीं किन्तु इस फिल्म को लेकर पूरे देश में विरोध और समर्थन के  स्वर सुनाई दे रहे हैं  | दरअसल फिल्म के प्रमोशन से कपिल शर्मा शो के आयोजकों द्वारा इंकार करने के बाद  उसे लेकर उत्सुकता बढ़ी | वैसे भी इस तरह के विवाद संचार क्रांति के इस दौर में पलक झपकते वैश्विक विमर्श का विषय बन जाते हैं | चूंकि फिल्म  अपने ही वतन में शरणार्थी बनने के लिए मजबूर किये गये हजारों कश्मीरी पंडितों की दर्दनाक दास्ताँ पर केन्द्रित है , इसलिए उसके प्रति अतिरिक्त   उत्सुकता दिखाई दे रही है | अमूमन इस तरह की फ़िल्में कब आती और चली जाती हैं ये पता  ही नहीं चलता | इसीलिये  उसके प्रदर्शन हेतु  देश भर में मात्र 600 सिनेमा स्क्रीन उपलब्ध करवाई गईं किन्तु महज तीन दिनों के भीतर उनकी संख्या 2200 तक पहुंचना इस बात का प्रमाण है कि दर्शक उसे  हाथों  – हाथ ले रहे हैं | टिकिट बिक्री के आंकड़े भी किसी सफल फिल्म जैसे ही हैं | लेकिन बात इतने तक ही सीमित नहीं रही | प्रधानमन्त्री सहित अनेक विशिष्ट हस्तियों ने उसे देखकर न सिर्फ प्रशंसा की अपितु उसे देखने की सिफारिश भी कर डाली | भाजपा शासित अनेक राज्यों ने उसे टेक्स फ्री भी कर दिया | दूसरी तरफ एक वर्ग विशेष उसके विरोध में मुखर हो उठा है | इसमें वामपंथियों के अलावा बुद्धिजीवियों और राजनेताओं की वह जमात भी शामिल है जिसे कश्मीर फाइल्स मे मुस्लिम विरोध नजर आ रहा है | इनका कहना है कि तीन दशक पुराने उस हादसे को लोग भूलने लगे थे लेकिन इस फिल्म के कारण जो घाव समय के साथ भरने लगे थे , वे फिर से हरे हो जायेंगे | लेकिन इतिहास में जो पाप या अत्याचार हो चुका है उसे भूलने से उनकी पुनरावृत्ति की गुंजाईश ज्यादा  रहती है | कश्मीर पर बनी  संदर्भित फिल्म के पहले भी आतंकवाद और कश्मीर पर अनेक फ़िल्में आईं जिन्हें दर्शकों ने पसंद भी किया और नापसंद भी | उनके कथानक को लेकर भी छोटे – मोटे विवाद हुए लेकिन कश्मीर फाइल्स को लेकर जिस तरह का बवाल मचाया जा रहा है ये उसी गिरोह का काम है जिसे भारत इसलिए रहने लायक नहीं लगता क्योंकि यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता का अभाव है | अवार्ड वापिसी के माध्यम से खुद को मानवाधिकारों का पहरुआ साबित करने वाले इन लोगों को याकूब मेनन की  फांसी रुकवाने के लिए राष्ट्रपति को हस्ताक्षरित ज्ञापन देने में तो शर्म नहीं आई किन्तु कश्मीरी पंडितों पर हुआ अमानवीय  व्यवहार इनके लिये भूल जाने योग्य वाकया है | ये वही  लोग हैं जिन्हें अफज़ल गुरु निर्दोष लगता था और जेएनयू में भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे लागाने वाले आजादी के सिपाही | कश्मीर में उस दौर में जो हुआ उस पर ये कहते हुए पर्दा नहीं डाला जा सकता कि 15 हज़ार कश्मीरी मुसलमान भी आतंकवादी हिंसा के शिकार हो चुके हैं | असली  सवाल तो ये है कि इसके बावजूद कश्मीरी मुसलमान आतंकवादियों के जनाजे में पकिस्तान समर्थक नारे लगाते हुए क्यों शामिल होते रहे ? किसी मकान में घुसे आतंवादियों को घेरने वाले सुरक्षा बल के जवानों पर पत्थर फेंकने वाले कश्मीरी मुसलमान इसीलिये सहानुभूति के पात्र नहीं बन सके | बुरहान बानी जब सुरक्षा बलों द्वारा घेर लिया गया तब लोगों की भीड़ उसे बचाने जमा हो गई थी | ऐसे में ये अवधारणा गलत नहीं है कि कश्मीर में रहने वाले आम  मुसलमान मन ही मन अलगाववाद के समर्थक थे | वैसे इसका एक कारण उनके मन में आतंकवादियों के हाथों मारे जाने का डर भी था परन्तु  ये त्रासदी तो पंजाब में खालिस्तानी आतंक के दौर में  सिखों ने भी तो भोगी  और नक्सल प्रभावित इलाकों के लोगों को भी उनकी हिंसा का शिकार होना पड़ता है | लेकिन जब आतंकवाद की जड़ों में मठा डालने के लिए संविधान की धारा 370 और 35 ए हटाई गई तब उसका विरोध जितना कश्मीर घाटी में हुआ उतना ही देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले उन नेताओं , बुद्धिजीवियों और पत्रकारों ने भी किया जिनकी नजर में केंद्र सरकार का वह कदम मानवाधिकारों का उल्लंघन था | कश्मीर में कर्फ्यू , सेना की तैनाती और संचार सुविधाएँ बंद कर देने के विरुद्ध भी इस तरह की आवाजें उठाई गईं मानों वे किसी शत्रु देश द्वारा किया गया निर्णय  हो | कश्मीर फाइल्स के विरोध ने इन ताकतों को एक बार फिर बेपर्दा कर दिया है | हाल ही के चुनाव परिणामों से मिली निराशा भी इस फिल्म के विरोध के पीछे है | दरअसल देश विरोधी ताकतें राष्ट्रवाद की किसी भी मुहिम का इसी तरह विरोध करती रही हैं  | कश्मीर फाइल्स एक फिल्म है जिसके कथानक में कुछ हद तक नाटकीयता हो सकती है किन्तु उसके विरोध में एक अभियान छेड़ देना संदेहों को जन्म देता है | जिसके पीछे वही लोग हैं जो किसी फिल्म में हिन्दू ऐतिहासिक पात्र के गलत चित्रण का विरोध करने वालों को गलत ठहराते रहे हैं | यूरोप में आज भी द्वितीय विश्व युद्ध पर फ़िल्में बनती हैं | भारत के विभाजन पर भी गर्म हवा और तमस जैसी फिल्मे बनीं |  अनेकानेक पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ | हर कृति अपने – अपने स्तर पर महत्वपूर्ण है क्योंकि इतिहास किसी की बपौती नहीं और 21 वीं सदी बाबरनामा या अकबरनामा की मोहताज नहीं है | जिस तरह महात्मा गांधी पर बनी फिल्म में उन्हें गोली मारते नाथूराम गोडसे को दिखाया जाना इतिहास  के साथ न्याय है उसी तरह कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों का वास्तविक प्रस्तुतीकरण न्यायोचित है | बेहतर हो हम समय के साथ परिपक्व और बौद्धिक होना सीखें | अतीत को विस्मृत कर देना अपने अस्तित्व से अपरिचित हो जाने जैसा होगा | भारत के विभाजन की दर्दनाक दास्ताँ इसलिए याद रखना जरूरी है ताकि हम अखंडता की कीमत को जान सकें | कश्मीर में बीते सात दशक के दौरान  तमाम ऐतिहासिक गलतियाँ  हुई हैं | उन्हें भूल जाने से नई गलतियों की ज़मीन तैयार होने का खतरा बना रहेगा | कश्मीरी पंडितों की  नई पीढ़ी उस त्रासदी के बाद युवा हो चुकी है | उसे अपने पूर्वजों पर आई उस विपत्ति की जानकारी मिलना ही चाहिए | आज पूरी दुनिया सीरिया से निकले शरणार्थियों पर रहम खाती है | यूक्रेन से पलायन कर रहे लाखों शरणार्थी पूरी दुनिया की सहानुभूति और संरक्षण के पात्र हैं | कल को हॉलीवुड इन घटनाओं पर भी फ़िल्में बनाएगा जिनमें वास्तविकता का बेबाक चित्रण होगा | ऐसे में हमारे देश के जिन लोगों को अपने ही वतन में शरणार्थी होने का अपमान और पीड़ा झेलनी पड़ी उनके दर्द को परदे पर उतार देने की साहसिक कोशिश का स्वागत होना चाहिए | रही बात विरोध की तो कुछ लोग स्थायी रूप से कुंठा ग्रसित हैं | इनमें कुछ को ये देश तो कुछ को उ.प्र अच्छा नहीं लगता |

-रवीन्द्र वाजपेयी


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