Tuesday 31 August 2021

जाते – जाते अमेरिका ने गृहयुद्ध के हालात बना दिए अफगानिस्तान में



आख़िरकार अमेरिका ने अफगानिस्तान पूरी तरह छोड़ दिया | गत रात्रि 12 बजे के पहले ही उसके बचे हुए सैनिक और राजनयिक विमानों के जरिये काबुल से निकल गये | वहां  से जुड़े कूटनीतिक मसले अब वह कतर की राजधानी दोहा  से संचालित करेगा | उसके काबुल छोड़ने के दौरान आईएस ( इस्लामिक स्टेट ) ने राकेटों से हवाई अड्डे पर हमला किया | हालांकि कोई जनहानि नहीं  हुई किन्तु अफगानिस्तान के भीतरी हालात अनियंत्रित होने का संकेत जरूर मिल गया | यद्यपि गोलियां तालिबान के लोगों ने भी चलाईं लेकिन वे अमेरिकी विमान काबुल की  हवाई पट्टी से उड़ जाने के बाद चलीं जिनकी  वजह से नगरवासी दहशत में आ गये | लेकिन तालिबान की तरफ से तत्काल ये ऐलान कर  दिया गया कि वैसा अमेरिका के पूरी तरह से देश छोड़ने के जश्न  स्वरूप किया गया था | लेकिन आईएस द्वारा  अमेरिकी दस्तों की मौजूदगी में ही राकेट दागे जाने का मकसद पूरी दुनिया को ये बताना था कि अफगानिस्तान में तालिबान का  एकाधिकार भ्रम है | ये बात बिलकुल सही है कि अमेरिका द्वारा अपनी सेनाएं वापिस बुलाने की प्रक्रिया शुरू होते ही तालिबान की तरफ से उसके किसी सैनिक , नागरिक अथवा राजनयिक पर हमला नहीं किया गया | बीते सप्ताह काबुल हवाई अड्डे के बाहर हुए बम धमाके भी  आईएस  की कारस्तानी थे जिसे उसकी तरफ से स्वीकार भी किया गया | गत रात्रि दागे गये रॉकेट की जिम्मेदारी लेने में भी उसने न संकोच किया  और न ही देर  लगाई | उधर अमेरिका ने भी  डेरा उठाने के पहले ही ड्रोन हमलों के जरिये अपनी मौजूदगी जारी रहने की बात  साबित कर दी है | राष्ट्रपति जो बाईडन ने भी ऐलान कर दिया है कि अमेरिका सहित बाकी नाटो देश अफगानिस्तान में सक्रिय आईएस के विरुद्ध जंग जारी रखेंगे | इस बारे में ये जिज्ञासा सहज रूप से उठ  खड़ी हुई है कि आखिर अमेरिकी ड्रोन कहाँ से संचालित हो रहे हैं ? और इसका जवाब है पाकिस्तान में मौजूद अमेरिकी सैन्य अड्डे | इस बारे में ज्ञात हुआ है कि अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ज्योंही  तालिबान से समझौता वार्ता प्रारम्भ की त्योंही उनके देश ने पाकिस्तान के भीतर अपने एक सैन्य अड्डे को और उन्नत बनाते हुए अफगानिस्तान पर नजर रखने का इंतजाम कर दिया था | वैसे भी ये अब तक रहस्य बना हुआ है कि अमेरिका ने इतनी जल्दी अपने सैनिक अफगानिस्तान से क्यों हटा लिए ? और फिर जब उसे ये अच्छी तरह मालूम था कि वह मुल्क छोड़ना है तब उसने बहुत बड़ी संख्या में बेशकीमती  अत्याधुनिक हथियार , बख्तरबंद गाड़ियाँ , हेलीकाप्टर और लड़ाकू विमान वहाँ क्यों छोड़ दिए ? जबकि वह जानता था कि ये जखीरा तालिबान के अलावा वहां सक्रिय अन्य आतंकवादी संगठनों के हाथ लग जायेगा  | इस बारे में ये आशंका व्यक्त की जा रही है कि भले ही अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपनी सैन्य उपस्थिति खत्म करते हुए उसे तालिबान के सुपुर्द कर दिया लेकिन उसकी रूचि और दखल परोक्ष तौर पर जारी रहेगा | ये बात पूरी दुनिया जानती है कि तालिबान मूलतः अमेरिका की अवैध संतान ही हैं | यही नहीं तो कुछ और इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को भी वही दाना – पानी देता है | ऐसे में ये सोचना गलत न होगा कि जिसे लोग अमेरिका की पराजय मान रहे हैं उसके पीछे भी कोई दूरगामी रणनीति हो | वरना उसके पास इतने संसाधन हैं कि वह अपना छोटे  से छोटा सामान उठा ले जाता | और फिर समझौते में तय की गई तारीख से पहले ही अफगानिस्तान से वापिसी शुरु कर देना , सरकारी सेना का अघोषित आत्मसमर्पण तथा राष्ट्रपति अशरफ गनी का रहस्यमय तरीके से देश छोड़कर चल देना भी किसी पूर्व नियोजित कार्ययोजना का हिस्सा  लगता है | इस्लामी जगत में जो अमेरिकी प्रभाव वाले देश हैं उनका अफगानिस्तान के प्रति ठंडा रवैया भी विश्लेषण का विषय है |  जहाँ तक बात पाकिस्तान की है तो वह भी  तालिबान को निरंकुश नहीं  होने देना चाह रहा  जिसका प्रमाण काबुल पर तालिबान का कब्जा होते ही आईएस का धमाकेदार अंदाज में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना है | कुल मिलाकर ये कहा  जा सकता है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं भले ही वापिस बुलवा लीं किन्तु वह तालिबान को भी चैन से नहीं बैठने देगा | इसके पीछे उसकी चिंता ये है कि चीन  और रूस जिस तरह तालिबान  के साथ रिश्ते जोड़ने को आतुर हैं वह वाशिंगटन को पसंद नहीं है | जहाँ तक बात अफगानिस्तान में बहुमूल्य खनिज संपदा के दोहन की है तो अमेरिका को पता है कि कबीलाई प्रभुत्व के चलते ऐसा करना आसान नहीं होगा | लेकिन अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए ही चीन और रूस वहां अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं | जिस तरह से ईरान के साथ अमेरिका की तनातनी चली आ रही है उसे देखते हुए अफगानिस्तान एक बार फिर वैश्विक राजनीति का मोहरा बन सकता है | अमेरिका पिछले 20 साल तक वहां रहने के बाद भी जो न कर सका वह अब बाहर  निकलकर करना चाहेगा | और इसके लिए जरूरी है कि इस  देश को अशांत बनाकर  गृहयुद्ध की आग में जलने छोड़ दिया जाए | यहाँ एक बात और भी है कि चीन और रूस के बीच भी अविश्वास बना रहता है | बीजिंग में बैठे हुक्मरानों की अतृप्त महत्वाकांक्षाओं के अलावा  मध्य एशियाई देशों में चीन की बढ़ती रूचि से रूस बेहद चौकन्ना है | ऐसे में उन दोनों का एक साथ अफगानिस्तान में सक्रिय होना भी नये तनाव को जन्म  दे सकता है | जो नये हालात बने हैं उनमें अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता ही भारत के हित में हैं क्योंकि तालिबान यदि पूरी तरह काबिज होकर पूरे देश का समर्थन हासिल कर सके तो ये हमारे लिए खतरनाक होगा | तालिबान की हुकूमत को जितनी ज्यादा चुनौतियां वहां मौजूद दूसरे आतंकवादी  गुट देंगे उतना ही पाकिस्तान का सिरदर्द बढ़ेगा | आखिरकार ये सांप भी तो उसी के पाले हुए हैं | इसीलिये फ़िलहाल  भारत ने देखो और प्रतीक्षा करो की जो नीति अपना रखी है वही उचित प्रतीत होती है | 


-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 28 August 2021

केरल की खबरों से पूरे देश को सतर्क हो जाना चाहिए



कोरोना की तीसरी लहर को लेकर चिकित्सा जगत  में वैसे तो मतभिन्नता रही किन्तु एक बिंदु पर सभी सहमत थे कि कोरोना का तीसरा हमला होगा जरूर । हालांकि उसकी तीव्रता और भयावहता के बारे में जरूर अनिश्चितता व्यक्त होती रही। उसके आने और चरम पर पहुँचने के प्रति भी चिकित्सक अलग - अलग अभिमत रखते रहे। आईआईटी कानपुर के शोधकर्ताओं ने भी इस बारे में कुछ भविष्यवाणी कीं। आम जनता के मन में यद्यपि अदृश्य भय तो है लेकिन जैसा परिदृश्य  आम तौर पर दिखाई देता है  उससे तो लगता था जैसे वह मान बैठी है कि कोरोना का काम - तमाम हो चुका है। मास्क और शारीरिक दूरी जैसी सावधानियों की भी उपेक्षा साफ दिखने लगी । दूसरी लहर के कमजोर पड़ते जाने और टीकाकरण अभियान के गति पकड़ने से  भी कोरोना से डर के बावजूद भी लापरवाही बढ़ने लगी। ओणम और रक्षाबंधन जैसे त्यौहारों पर बाजारों में उमड़ी भीड़ से भी आशंकाओं के बादल उमड़ने लगे। शुरू - शुरू में ये भी कहा गया कि ये सब दवाई बेचने वाली कंपनियों का खेल है जो  कोरोना काल में लोगों का भयादोहन करते हुए जमकर कमाई कर चुकी थीं । लेकिन बीते कुछ  दिनों से कोरोना संक्रमण में जिस तेजी से वृद्धि हो रही है वह खतरे की घण्टी है। बीते दिन नए मरीजों का आंकड़ा 46 हजार पार कर गया जो अप्रत्याशित  होते हुए भी वास्तविकता है। सबसे चौंकाने वाली बात ये कि इनमें से दो - तिहाई  मामले अकेले केरल के हैं । कोरोना की पिछली दो लहरों में  महाराष्ट्र सबसे आगे रहा था। केरल में ओणम के समय दी गई छूट का दुष्परिणाम अब जाकर सामने आ रहा है । लेकिन इसके बाद ये आशंका प्रबल हो रही है कि  रक्षाबंधन के त्यौहार पर  बाजारों में जो बेतहाशा भीड़ दिखाई दी उसका  असर आने वाले दिनों में देखने मिलेगा। और यदि ऐसा हुआ तब दूसरी लहर के बाद अर्थव्यवस्था की जो गाड़ी पटरी पर आ रही थी वह फिर उतर सकती है। एक तरफ तो विभिन्न राज्य सरकारें शैक्षणिक संस्थान खोलने की तैयारी कर रही हैं वहीं दूसरी तरफ  कोरोना की तीसरी लहर  का प्रकोप दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। हालांकि विशेषज्ञ ये भी कह रहे  हैं कि देश में टीकाकरण जिस तेजी से होता जा रहा है उसे देखते हुए  तीसरी लहर का प्रकोप उतना घातक नहीं होगा जितना दूसरी का था।  ऑक्सीजन की मारामारी भी नहीं है और अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या भी पहले से काफी अधिक है । ये भी कहा जा रहा है कि मृत्युदर भी ज्यादा नहीं रहेगी क्योंकि तीसरी लहर में कोरोना  पूर्ववत गम्भीर नहीं रहेगा इसलिए अस्पताल में भर्ती हुए बिना भी मरीज घर पर ही इलाज करवाकर स्वस्थ हो जाएंगे । बावजूद इस सबके कोरोना को लेकर किसी भी प्रकार की अनदेखी महंगी पड़ सकती है क्योंकि जो आंकड़े आ रहे हैं उनमें मरने वालों की संख्या 500 के करीब है। ये देखते हुए इस बात की जरूरत है कि कोरोना से बचाव हेतु जो मूलभूत  सावधानियां बताई गईं उनका पालन गम्भीरता से किया जावे। केरल में जिस बड़े पैमाने पर कोरोना का संक्रमण देखने मिल रहा है वह ओणम के दौरान लोगों ने जिस लापरवाही का  प्रदर्शन किया , उसका परिणाम है । ये देखते हुए पूरे देश में कोरोना से बचाव के प्रति गम्भीरता बरती जानी चाहिए। आने वाले दिनों में त्यौहारों की श्रृंखला शुरू होने वाली है। इस दौरान बाजारों में भीड़ बढ़ेगी । इसलिए जरूरत इस बात की है कि कोरोना की तीसरी लहर के प्रति उतनी ही सावधानी रखी जाए जितनी पहले सुझाई गई थी। कोरोना की पहली और दूसरी लहर तक जो अनभिज्ञता थी वह अब नहीं रही । इसलिए अब अपेक्षा है कि लोग पूरी तरह सतर्क हो जाएं । केरल से आ रही खबरों से पूरे देश को सबक लेना चाहिये क्योंकि कोरोना संक्रामक रोग है और जरा सी लापरवाही से वह महामारी में बदल सकता है । इसके पहले कि पूरे देश में उसका फैलाव हो  सबको सावधान हो जाना चाहिए वरना  तीसरी लहर के लिए हम किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकेंगे। यदि छोटी - छोटी सावधानियों का पालन किया जाता रहे तो तीसरी लहर से होने वाले नुकसान को कम से कम किया जा सकता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 27 August 2021

तेल संपन्न अरब के बजाय अफीम संपन्न अफगानिस्तान होगा युद्ध का नया मैदान



अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के बाहर हुए विस्फोटों में तकरीबन 100 लोगों की मौत और सैकड़ों के घायल होने की खबर है | एक दर्जन से ज्यादा अमेरिकी सैनिक भी धमाके के शिकार होकर जान गँवा बैठे | इस घटना के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन की उनके अपने देश में थू- थू होने लगी तब उन्होंने अंजाम भुगतने की धमकी तो दी किन्तु ये बात भी दोहरा दी कि 31 अगस्त तक अमेरिकी सैनिक पूरी तरह से अफगानिस्तान खाली कर देंगे | तालिबान ने तो पहले ही इस तारीख के बाद किसी भी तरह की मोहलत न देने की चेतावनी दे दी थी | उल्लेखनीय है काबुल हवाई अड्डा अभी तक अमेरिकी सेना के कब्जे में ही है और वही उड़ानों के आने - जाने संबंधी व्यवस्था का संचालन कर रही है | काबुल छोड़कर जाने के इच्छुक अफगानी या दूसरे देशों के नागरिक भी हवाई अड्डे के भीतर आने के बाद खुद को सुरक्षित मान रहे थे | लेकिन कल हुए धमाकों के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति भी ये कहने लगे कि वहां रहना खतरे से खाली नहीं है | लेकिन उनका ये कहना  कि अमेरिका हमलावार्रों की तलाश कर  बदला लेगा , इस बात का संकेत हो सकता है कि नाटो देश अफगानिस्तान में बने रहने का नया बहाना खोज रहे हों | लेकिन उक्त घटना इसलिए अचरज में डालने वाली है  क्योंकि तालिबान ने उसे आतंकी वारदात बताया है | उसके बाद ये खुलासा भी हुआ कि आई.एस.आई.एस ( खुरासान ) नामक गुट का इन विस्फोटों में हाथ था | यदि ये सच है तब अफगानिस्तान एक बार फिर आतंकवादी संगठनों की क्रीड़ास्थली  बनने जा रहा है | वैसे भी  पाकिस्तान के साथ लगी उसकी सीमा पर अनेक आतंकवादी गुटों के अड्डे हैं | तालिबान को अपना भाई बताने वाला पाकिस्तान भी इसे लेकर चिंतित है | गत दिवस की घटना में आई.एस.आई.एस ( खुरासान ) का हाथ होने से तालिबान के माथे पर भी पसीना छलछलाया होगा क्योंकि ये उसके एकाधिकार के लिए भी चुनौती है | अमेरिका को 31 अगस्त तक देश छोड़ देने की चेतावनी देकर तालिबान अपने वर्चस्व को साबित करना चाह रहा था किन्तु किसी और आतंकवादी संगठन द्वारा हवाई अड्डे के बाहर किया गया विस्फोट अफगानिस्तान में आने वाले  संकट का ऐलान है | आई.एस.आई.एस ( खुरासान ) द्वारा किये गये धमाकों का उद्देश्य अब तक स्पष्ट नहीं है | लेकिन जब काबुल हवाई अड्डा छोड़कर लगभग पूरे देश पर तालिबान का कब्ज़ा हो चुका हो तब उक्त विस्फोट किसे डराने के लिए किये गये ये बड़ा सवाल है | ये भी  गौरतलब है कि सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को व्यवस्थित तरीके से संपन्न  करने के लिए बनाई गयी संयोजन समिति के प्रमुख और अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई को गत दिवस घर में नजरबंद करते हुए उनकी सुरक्षा वापिस ले ली गई और वाहन भी छीन लिए गये | इन सब बातों की वजह से तालिबान द्वारा सत्ता हासिल होते ही अपनी छवि बदलने की खातिर किये गये वायदे हवा – हवाई साबित हो रहे हैं | पूरे देश में सशस्त्र लड़ाके लूटपाट, हत्या और बलात्कार जैसी वारदातें करने में जुटे हैं | कानून – व्यवस्था का नामो – निशान कहीं नहीं है | महिलाओं को इस्लाम के अनुसार सम्मान देने का आश्वासन भूलकर ये धमकी दी जा रही हैं कि वे घर पर ही रहें क्योंकि तालिबान लड़ाकों को उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए इसकी तालीम नहीं  दी गई है | इस तरह की और भी बातें सामने आ रही हैं जिनके आधार पर तालिबान की सोच में आये बदलाव की उम्मीद खत्म हो चली है और पूरी दुनिया इस बात से भयभीत है कि आई.एस.आई.एस सहित अन्य इस्लामी आतंकवादी संगठनों का मुख्यालय कहीं  अफगानिस्तान न बन जाए | वैसे इस आशंका से तालिबान को भी खतरा है क्योंकि एक से अधिक आतंकवादी गुटों की मुल्क में मौजूदगी गृह युद्ध का कारण बन सकती है | इस बारे में ध्यान देने योग्य बात ये है कि अफगानिस्तान दुनिया का सबसे बड़ा अफीम उत्पादक देश होने से आतंकवादी संगठनों के लिए धन का सबसे बड़ा स्रोत है | चूँकि तालिबान खुद भी आतंकवादी है अतः वह चाहकर भी अन्य संगठनों को रोकने की स्थिति में नहीं है | इसीलिये अब ये कहा जाने लगा है कि इस मुल्क के दुर्भाग्य का नया अध्याय शुरू हो गया है | बीते दो दशक में जो सुखद परिवर्तन हुए थे वे एक झटके में मिट्टी के घरोंदे की तरह बिखरकर रह गये हैं | कल हुए धमाकों ने सत्ता के लिए होने वाले संघर्ष का एक और मोर्चा खोल दिया है | बड़ी बात नहीं इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने वाले संगठन  तालिबान से अपना हिस्सा मांगें क्योंकि पाकिस्तान के जरिये वे सब भी अमेरिका के विरुद्ध लड़ाई में उसके साथ थे | इस प्रकार काबुल में सत्ता के हस्तान्तरण के बाद शांति की उम्मीदें  नाउम्मीदी में बदलती दिखाई देने लगी हैं | बड़ी बात नहीं अफगानिस्तान पर अगला हमला सोवियत संघ से अलग हुए किसी मध्य एशियाई देश की तरफ से हो क्योंकि कबीलों में बंटे अफगानिस्तान में बड़ी आबादी पड़ोसी देशों के मूल की भी है जिनके पठानों से नस्लीय झगड़े चले आ रहे हैं | अमेरिकी राष्ट्रपति  द्वारा आई.एस.आई.एस के विरुद्ध मोर्चा खोल देने का आदेश अपनी सेना  को देने के बाद अफगानिस्तान में  ठीक वैसी ही कार्रवाई हो सकती है जैसी बीस साल पहले ओसामा बिन लादेन की खोज में  की गई थी | ये भी जानकारी आ रही है कि आई.एस.आई.एस ( खुरासानी ) नामक इस गुट को पाकिस्तान ने ही दूध पिलाकर पाला है और इसकी तालिबान से पुरानी दुश्मनी है | इसका आशय ये हुआ कि पाकिस्तान भी दोहरी नीति अपना रहा है क्योंकि तालिबान  सर्वशक्तिमान होते ही उसके  उन  सीमावर्ती इलाकों पर अपना कब्जा जमाने से बाज नहीं आयेगा  जिनमें उसके अड्डे काम कर रहे हैं और जिन्हें अफगानिस्तान का ही क्षेत्र वे मानते हैं | कुल मिलाकर ये लगने लगा है कि पश्चिम एशिया के तेल संपन्न देशों से खिसक कर अब दुनिया की ताकतें अफीम संपन्न अफगानिस्तान को युद्ध का मैदान बनायेंगी | यूँ भी नशे के कारोबारियों का हथियारों के सौदागरों से पुराना रिश्ता रहा है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 26 August 2021

लोकतंत्र के नव सामंतों के सामने जाँच एजेंसियां असहाय होकर रह जाती हैं



सर्वोच्च न्यायालय ने सांसदों - विधायकों के विरुद्ध सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय ( ईडी ) द्वारा की जाने वाली जांच और प्रकरण के निपटारे में होने वाले विलम्ब पर  नाराजगी जताते हुए सरकार से पूछा है कि क्या जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध जांच और मामलों के निपटारे के लिए अतिरिक्त  संसाधनों की जरूरत है ? अदालत ने इस बात पर भी रोष जताया  कि सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय ने सांसदों  और विधायकों के मामलों में होने वाले विलम्ब का कोई ठोस कारण नहीं बताया | 10 - 15 साल तक प्रकरण को  टाँगे रखने पर भी  तीखी टिप्पणी की गई | इस सम्बन्ध में प्रस्तुत एक याचिका में ये तथ्य भी अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया गया कि अनेक मामलों में बरसों तक प्रकरण  को लम्बित रखने के बाद उनको वापिस ले लिया गया | पता नहीं न्यायालय की  फटकार युक्त पूछ्ताछ का कितना असर होगा लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा उठाये गये सवाल और उनके बारे में जांच एजेंसियीं का निरुत्तर रहना कानून बनाने वाले सांसदों और विधायकों के सामने उनकी  निरीहता को दर्शाने के लिए पर्याप्त है | हालाँकि आम जनता को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उसके मन में ये बात काफ़ी गहराई तक समा चुकी है कि लोकतंत्र का चोला ओढ़कर व्यवस्था पर काबिज हो चुके नव सामंत कानून को अपनी जेब में रखकर घूमते हैं | हत्या जैसे जघन्य अपराध के आरोपी भी जब सांसद और विधायक बनकर मंत्री पद तक हासिल कर लेते हों तब सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय में तैनात अधिकारियों के मन में ये भय सदैव समाया रहता है कि जिसे वे अपराधी साबित करना चाह रहे है वही न जाने कब उनकी ही जाँच करवाने की हैसियत में आ जाये | चकाजाम और धरना प्रदर्शन जैसे मामले वापिस लिए जाने की बात तो फिर भी  समझ में आती है किन्तु गम्भीर किस्म के अपराध की जांच बरसों – बरस खींचने के बाद प्रकरण वापिस ले लेना एक तरह से न्याय प्रणाली की सरासर अवहेलना है | लोकतांत्रिक व्यवस्था संवैधानिक प्रावधानों के अलावा स्वस्थ परंपराओं और नैतिक मूल्यों पर आधारित होती है , जिसमें राजा और प्रजा जैसे शब्द अर्थहीन होकर रह जाते हैं | राज करने वाले किसी राजघराने में जन्म लेने वाले न होकर आम जन के बीच से चुने जाते  हैं | उस दृष्टि से वे थोड़े से खास भले ही हो जाएं लेकिन आख़िरकार होते तो आम ही हैं | इसीलिए क़ानून के सामने समानता का सिद्धांत संविधान में उल्लिखित है | सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी की आपराधिक कर्म पत्री सार्वजनिक किये जाने को लेकर भी सख्त आदेश दिए गये थे | अब उसने सांसदों और विधायकों के विरुद्ध चलने वाली जाँच और प्रकरणों में विलम्ब पर नजर टेढ़ी की है | हालाँकि इसके बाद भी सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय निडर होकर कार्रवाई करने आगे आयेंगे ऐसा नहीं लगता | विपक्षी दल सदैव सरकार पर आरोप लगाया करते हैं कि वह उक्त जाँच एजेंसियों का उपयोग विरोधियों की आवाज दबाने के लिए करती  है | सर्वोच्च न्यायालय भी सीबीआई को पिजरे में बंद तोता कहते हुए उसका मज़ाक उड़ा चुका है | हाल के वर्षों में प्रवर्तन निदेशालय भी काफ़ी चर्चाओं में रहा है | लेकिन सांसदों और विधायकों के जितने मामले जांच और अदालत में लम्बित हैं उनका हश्र अधर में लटका रहता है | ऐसा लगता है कि जनसेवक कहलाने वाले सांसद और विधायकों को जाँच एजेंसियां भी राज परिवार के सदस्यों जैसा मानकर  दण्डित करवाने से बचती हैं | ये सिलसिला सरकारें बदलने के बावजूद अपरिवर्तित है | इन जाँच एजेंसियों की स्वायत्तता को लेकर भी चर्चाएँ होती रहती हैं लेकिन विपक्ष में रहते हुए ऐसी मांग करने वाले सत्ता में  आते ही इन पर नियन्त्रण बनाये रखने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करते | अतीत में मुलायम सिंह यादव और मायावती के विरूद्ध दायर भ्रष्टाचार के प्रकरण सीबीआई द्वारा वापिस लिए जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर दोबारा खोले गये थे | लेकिन उनका अंजाम क्या हुआ ये भी  जाँच का विषय है | दरअसल  देश में राजनीतिक नेताओं के रूप में स्थापित नव सामंतों का  एक अभिजात्य वर्ग  समूची शासन व्यवस्था पर कुण्डली मारकर बैठ गया है | इस वर्ग के लोगों में कहने को तो वैचारिक और सैद्धांतिक मतभेद हैं किन्तु अधिकतर मामलों में ये लगता है कि मतभेद जनता को मूर्ख बनाने के लिए हैं और भीतर – भीतर सभी एक दूसरे  की मदद को तैयार रहते हैं | भूले – भटके कोई सांसद – विधायक जेल चला भी जावे तो उसके लिए वहां ऐशो – आराम के सारे इंतजाम किये जाते हैं | वैसे तो ज्यादातर समय वे अस्पताल में सरकारी खर्च पर अपना इलाज करवाते हुए ही काटते हैं | सर्वोच्च न्यायालय की भी मजबूरी है कि वह सवाल पूछने और नाराजगी व्यक्त करने में भले पीछे न रहे लेकिन जांच और दंड प्रक्रिया को गतिशील बनाने का उपाय उसके पास भी नहीं है | और फिर न्यायाधीश की आसंदी पर विराजमान मी लॉर्ड में बहुत बड़ी संख्या उनकी होती है जो वकालत करने के दौरान मामले को टालने के विशेषज्ञ  माने जाते थे | इस प्रकार न्याय में विलम्ब , न्याय से इंकार का सिद्धांत व्यवहार में आते तक निरर्थक हो उठता है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 25 August 2021

आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में जहरीली होती राजनीति



महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में केंन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री नारायण राणे को गत दिवस महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ्तार किया | लेकिन रात में ही अदालत ने उनको जमानत भी  दे दी | 15 अगस्त के दिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे भाषण के दौरान  स्वाधीनता किस साल मिली ये भूल गये थे , जिस पर श्री राणे ने टिप्पणी कर डाली कि वे वहां होते तो उनको जोरदार थप्पड़ मारते | इस पर उनके विरुद्ध थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई गई और कल जब वे रत्नागिरी में जन आशीर्वाद यात्रा निकालने गये थे तब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया | इसके बाद हुआ घटनाक्रम राजनीति में बेहद आम है |  बयानों के तीर दोनों तरफ से चले | शिवसेना और भाजपा कार्यकर्ताओं में शक्तिप्रदर्शन और  पार्टी  दफ्तरों में तोड़फोड़ के दृश्य भी दिखाई दिए | सरकार ने कानून के राज का एहसास दिलाया तो भाजपा ने केन्द्रीय मंत्री की गिरफ्तारी को लोकतंत्र विरोधी बताते हुए केंद्र और राज्य के रिश्तों में  खटास पैदा करने वाला कदम निरुपित किया | श्री राणे और उद्धव ठाकरे के बीच मतभेद राजनीतिक प्रतिद्वन्दिता  से बढ़ते  - बढ़ते कटुता और शत्रुता तक जा पहुंचे हैं | शिवसेना से श्री राणे के निकलने के पीछे उद्धव की महत्वाकांक्षा ही बड़ी वजह बताई जाती है  | वरना एक ज़माने में वे स्व. बाल ठाकरे के नजदीकी होने के कारण ही मुख्यमंत्री बन बैठे थे  | शिवसेना छोड़कर पहले उन्होंने कांग्रेस का  दामन थामा और फिर भाजपा की शरण में आकर राज्यसभा पहुंच गये | मोदी मंत्रीमंडल के हालिया पुनर्गठन में उनको कैबनेट मंत्री बना दिया गया | इसके पीछे प्रशासनिक अनुभव अथवा योग्यता से ज्यादा महाराष्ट्र के कोंकण अंचल में उनका प्रभाव और  शिवसेना को उसी की शैली में जवाब देने की क्षमता है | बीते काफी समय से वे उद्धव के बेटे आदित्य के ऊपर तीखे हमले करते आ रहे थे  | अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या वाले प्रकरण में भी  उन्होंने आदित्य पर गम्भीर आरोप लगाये | इन सबसे ठाकरे परिवार बहुत नाराज था | लेकिन जबसे वे केन्द्रीय बनाये गये तबसे शिवसेना को उनसे ज्यादा खतरा महसूस होने लगा | मुम्बई महानगरपालिका के आगामी चुनाव 2022 में  होने वाले हैं जिनमें श्री राणे शिवसेना के लिए गड्ढा खोदने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे | केंद्र में कैबिनेट मंत्री बनाये जाने से उनके  रुतबे  और आभामंडल में भी कुछ  वृद्धि तो  हुई ही है जिससे ठाकरे पारिवार चौकन्ना है | हालांकि जिस बयान को बहाना बनाकर उद्धव सरकार ने श्री राणे को गिरफ्तार करवाया उससे कहीं ज्यादा तीखे बयान वे पूर्व में दे चुके थे | लेकिन उन्हें केन्द्रीय मंत्री बनकर राज्य की राजनीति में वजनदार माना जाने लगे उसके पहले ही  मुख्यमंत्री  ने उन्हें  कमतर साबित करने के लिए ये कदम उठाया ताकि उनके साथ जुड़ने की सोच रहे  शिवसैनिक हतोत्साहित हो जाएँ | इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि श्री राणे ने जो कुछ मुख्यमंत्री के बारे में कहा वह किसी भी राजनेता को शोभा नहीं देता । राजनीतिक या व्यक्तिगत मतभेद कितने भी गहरे हों किन्तु केंद्र सरकार के एक मंत्री द्वारा राज्य के मुख्यमंत्री को थप्पड़ मारने जैसी  बात कहना शालीनता के विपरीत है | लेकिन ये भी मानना पड़ेगा कि श्री राणे ने राजनीति की जो शैली शिवसेना में रहते हुए सीखी उसे वे इस उम्र में आने के बाद शायद ही भूल सकेंगे | शिवसेना के  प्रवक्ता संजय राउत तो आये दिन कुछ न कुछ ऐसा बोलते ही रहते हैं जो सार्वजनिक तौर पर  टिप्पणी लायक नहीं होता | अतीत में उ.प्र  के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा छत्रपति  शिवाजी महाराज की मूर्ति पर खड़ाऊँ पहिनकर माल्यार्पण किये जाने पर उद्धव ने उनको उसी चप्पल ( खड़ाऊँ ) से मारने की बात कही थी | श्री राणे की टिप्पणी पर आपाराधिक मामला बनता है या नहीं ये तो अदालत और विधि विशेषज्ञ ही  बता सकेंगे किन्तु जहाँ तक बात कानून का एहसास करवाने की है तो श्री ठाकरे और उनके निकटस्थ शिवसेना नेताओं के दर्जनों सार्वजनिक बयान ऐसे मिल जायेंगे जिनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई हो सकती थी | पार्टी के मुखपत्र सामना में तो प्रथम पृष्ठ पर जिस तरह की टिप्पणियाँ देश की बड़ी – बड़ी हस्तियों के विरूद्ध प्रकाशित होती रहीं उनको किसी भी दृष्टि से स्तरीय नहीं कहा जा सकता | महाराष्ट्र के पूर्व  मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस के अलावा भाजपा के अनेक नेताओं ने भी  श्री राणे द्वारा प्रयुक्त शब्दावली का समर्थन नहीं किया किन्तु उनको जिस तरह गिरफ्तार किया गया उसकी वजह से केन्द्रीय मंत्री का पलड़ा मजबूत हो गया | हालाँकि ये मान लेना मूर्खता होगी  कि इस घटना के बाद राजनीतिक बयानबाजी में शालीनता और मर्यादा का पालन होने लगेगा क्योंकि न तो ठाकरे एंड कम्पनी को उनका ध्यान है और न ही श्री राणे से ये उम्मीद  कि  गत दिवस जो हुआ उसके बाद वे सोच समझकर बोलने लगेंगे परन्तु इस सबसे  एक विषबेल देश में फ़ैल रही है जो   केंद्र और राज्यों के रिश्तों में जहर घोलकर संघीय ढांचे को कमजोर करने में कामयाब हो सकती है | प. बंगाल इसका ताजा उदाहरण है और अब वही सब महाराष्ट्र में देखने मिल रहा है | राजनीतिक चश्मे  से इस घटना को देखें तो उद्धव ठाकरे ने एक बार फिर अपरिपक्वता का परिचय देते हुए अपने कट्टर विरोधी को बेवजह प्रसिद्धि और सहानभूति हासिल करने का अवसर दे दिया |  श्री राणे ने श्री ठाकरे  के बारे में जो कुछ कहा उसे आम तौर पर किसी ने पसंद नहीं किया लेकिन ये भी सही है कि मुख्यमंत्री को स्वाधीनता प्राप्ति का साल याद नहीं रहना साधारण गलती नहीं थी | यदि उद्धव ने केन्द्रीय  मंत्री की बात को उपेक्षित कर दिया होता तब शायद लोग इस बात को ही भूल जाते कि उसके पीछे का कारण क्या था ? अब जबकि श्री राणे गिरफ्तार होने के बाद रिहा भी हो चुके हैं तब उनके हाथ में बैठे - बिठाये एक मुद्दा आ गया | बहरहाल जो कुछ भी हुआ उसे कोई भी समझदार व्यक्ति पसंद नहीं करेगा | इसका राजनीतिक लाभ उद्धव ठाकरे को मिलेगा या नारायण राणे को ये उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना ये कि राजनीति में शालीनता , सौजन्यता और सहिष्णुता जैसे तत्व धीरे – धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं | आजादी के  अमृत महोत्सव वर्ष में इस बारे में विचार नहीं हुआ तो जिस तरह ओटीटी प्लेटफॉर्म पर प्रदर्शित फिल्मों में वास्तविकता के नाम पर अश्लील गालियों की भरमार की जा रही है उसी तरह के नज़ारे राजनेता सड़कों पर पेश करते दिखेंगे |

 - रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 24 August 2021

सरकारी संपत्तियों की बिक्री पर जनता को भरोसे में लेना भी जरूरी



केंद्र सरकार द्वारा रेलवे और राजमार्गों सहित अन्य विभागों की सरकारी संपत्तियां बेचने और लंबी समयावधि पर लीज ( किराये ) पर देने की घोषणा पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी का ये तंज सामयिक  है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो कहा करते थे कि देश नहीं बिकने दूंगा , किन्तु  उनके राज में सरकारी संपत्तियां  धड़ल्ले से बेची जा रही हैं | विपक्ष के नेता से तो खैर ऐसे विषयों पर इसी तरह की टिप्पणी अपेक्षित होती किन्तु आम जनता के मन में भी ये बात  बैठती जा रही है कि मोदी सरकार बीते सात दशक में जमा की गई पूंजी बेच – बेचकर काम चला रही है , जिसे भारतीय सोच के अनुसार अच्छा अर्थ प्रबन्धन नहीं माना जाता | लेकिन दूसरी तरफ ये भी सही है कि जिस उदारवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था की बुनियाद स्व. पी. वी. नरसिम्हा राव  के शासनकाल में बतौर वित्तमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने रखी थी उसकी आलोचना करने वाली पार्टियों और नेताओं ने भी सत्ता में आने के बाद आर्थिक सुधारों के नाम पर उसी नीति को आगे बढ़ाया | स्व. राजीव गांधी ने देश में लायसेंस राज खत्म करने का जो फैसला लिया , दरअसल वही निजीकरण की दिशा में उठाया गया पहला कदम था | वर्तमान केंद्र सरकार स्वदेशी  नामक जिस भावना से प्रेरित और प्रभावित है उसमें देश का विकास विदेशी पूंजी की बजाय घरेलू संसाधनों से करने पर जोर दिया जाता है | लेकिन मोदी सरकार इस बात पर गर्व करती है कि उसके शासनकाल में देश का विदेशी मुद्रा भंडार नए – नए कीर्तिमान  स्थापित कर रहा है |  जिसका कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेशकों का बढ़ता विश्वास बताया जाता है | भारत के उद्योगपति भी विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्त उपक्रम लगा रहे  हैं | इसके अलावा भी अनेक बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भारत में अपनी  इकाइयाँ लगाई हैं | ऑटोमोबाइल , इलेक्ट्रानिक्स और मोबाईल के उत्पादन में इसीलिये देश  काफी आगे निकलता जा रहा है | कोरोना के बाद से चीन के प्रति वैश्विक निवेशकों का मोहभंग होने के कारण भी भारत में विदेशी निवेश आने  की सम्भावना बढ़ रही है | इन सबके बीच भारत सरकार द्वारा अपनी कंपनियों के विनिवेश के साथ ही अचल संपत्ति और  सेवा क्षेत्र का स्वामित्व अथवा संचालन निजी क्षेत्र को सौंपकर विकास कार्यों के लिये धन जुटाने का जो प्रयास किया जा रहा है उसे लेकर तरह – तरह के सवाल उठ रहे हैं  | हालाँकि विनिवेश की प्रक्रिया तो कांग्रेस के शासन में  ही  शुरु कर दी गई थी |  घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रमों तथा अनुपयोगी पड़ी अचल संपत्ति से धन जुटाने की तरकीब मूलतः डा. मनमोहन सिंह द्वारा प्रारंभ किये गये आर्थिक सुधारों में सुझाई गई थी लेकिन मोदी सरकार इसके लिए इसलिए आलोचना झेल रही है क्योंकि वह इस बारे में बेझिझक होकर फैसले करते हुए उनको शीघ्रता से लागू करने के प्रयास कर रही है | एयर इण्डिया के अलावा भारत पेट्रोलियम और भारतीय जीवन बीमा निगम जैसे संस्थानों के दरवाजे निजी क्षेत्र के लिए खोलने पर आश्चर्य व्यक्त करने वाले भी कम नहीं हैं | कुछ सरकारी बैंक भी निजी क्षेत्र को देने की तैयारी चल रही है | इसी  बीच गत दिवस श्रीमती सीतारमण द्वारा रेलवे और राजमार्गों सहित अनेक सरकारी संपत्तियों को बेचने अथवा किराए पर देने संबंधी घोषणा करते हुए आलोचकों को नया मुद्दा दे दिया गया | लेकिन इसका दूसरा पहलू ये है कि अधिकतर आर्थिक  विशेषज्ञ और उद्योग जगत विनिवेश के जरिये आ रहे निजीकरण से खुश हैं | इसका कारण सरकारी क्षेत्र में आमदनी कम और खर्च ज्यादा की स्थिति है | ऊंचे वेतनमान के बावजूद सरकारी अमला उत्पादकता के मामले में चूँकि बेहतर परिणाम नहीं दे पाता इसीलिये सरकारी उपक्रम सफेद हाथी के तौर पर जाने जाते हैं | निजीकरण की जो प्रक्रिया 1991 से प्रारंभ हुई वह हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ी क्योंकि लगातार मिली – जुली सरकारों के कारण  नीतिगत  मतभिन्नता से नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाले हालात बने रहे | 2014 में पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद वह बाधा दूर हो गई जिससे विनिवेश और निजीकरण संबंधी निर्णयों में तेजी आई | इस बारे में आलोचना तो सरकार को अपने वैचारिक  परिवार के बीच भी झेलनी पड़ती है लेकिन वह उसे अनसुना करने का दुस्साहस दिखा रही है | ये बात सभी मानेंगे कि सरकारी क्षेत्र का एकाधिकार होने से काम की गति और गुणवत्ता दोनों अपेक्षानुरूप नहीं रहे | इस वजह से विकास  प्रक्रिया के विलम्बित होने से उसकी लागत बढ़ती जाती है | विशेष रूप से अधो संरचना ( इन्फ्रा स्ट्रक्चर ) के कार्य  समय सीमा के भीतर पूर्ण नहीं होने से बहुत नुकसान होता है | हालाँकि निजी क्षेत्र को एकाधिकार सौंप देना भी बुद्धिमत्ता नहीं होगी | अतः सरकार को चाहिए कि वह संतुलन बनाकर काम करे | घाटे की इकाइयों और अनुपयोगी संपत्तियों को बेचकर या किराये पर देकर यदि विकास परियोजनाओं के लिए धन जुटाया जा सकता है तो उसमें बुराई नहीं है लेकिन उसका  सरकारी फिजूलखर्ची में उपयोग किया जाना धोखाधड़ी मानी जायेगी | सरकार द्वारा दिए जा रहे आश्वासनों पर सिरे से अविश्वास करना जल्दबाजी हो सकती है लेकिन उसे भी देश का ये भरोसा दिलाना होगा कि सरकारी संपत्ति के विक्रय , विनिवेश अथवा लीज पर देकर अर्जित किये जाने वाले  धन का उपयोग देश के विकास के  लिए होगा जो भावी पीढ़ियों के सुखी और सुरक्षित भविष्य के लिए जरूरी है | इस बारे में सरकार को ये बात ध्यान रखनी होगी कि उसकी आर्थिक नीतियां चाहे कितनी भी अच्छी हों लेकिन उनके फायदे मिलने के पहले ही लोकसभा चुनाव आ जाएंगे और तब उसे  लोगों को संतुष्ट करना का बेहद कठिन होगा  क्योंकि अकेले  प्रधानमन्त्री की ईमानदारी और कर्मठता के बल पर चुनाव नहीं जीता जा सकता | वरना  2004 में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी और 2014 में डा.मनमोहन सिंह की सरकार को जनता सत्ता से अलग नहीं करती |  

- रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 23 August 2021

सिद्धू का सलाहकार : बन्दर के हाथ उस्तरा साबित हो रहा


 
पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोतसिंह सिद्धू के साथ विवाद खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे | मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के खुले विरोध के बावजूद हाईकमान की कृपा से  पार्टी संगठन की बागडोर हाथ आते ही उन्होंने जो चार सलाहकार नियुक्त किये उनमें से एक मालविंदर सिंह माली ने अपने फेसबुक पेज पर पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. इंदिरा गांधी का एक स्कैच पोस्ट किया है जिसमें उन्हें इंसानी खोपड़ियों पर खड़ा बताया गया है | उनके हाथ में जो बंदूक है  उसके सिरे पर भी एक खोपड़ी है | जन तक पैगाम नामक एक पंजाबी पत्रिका में वर्ष 1989 में उक्त स्कैच प्रकाशित हुआ था | उस समय श्री माली ही उसके संपादक थे जिसका आशय इंदिरा जी को सिखों के नरसंहार से जोड़ना था | इसके कुछ दिन पहले भी उन्होंने कश्मीर को  लेकर बेहद आपत्तिजनक बयान दिया था जिसमें जम्मू – कश्मीर को अलग देश बताते हुए कहा था कि भारत और पाकिस्तान ने चूँकि उस पर अवैध कब्जा कर रखा है , इसलिए उसे आजाद कर देना चाहिए | उल्लेखनीय है बीते 11 अगस्त को ही नवजोत ने उनको अपना सलाहकार नियुक्त किया था | भारी विरोध के बाद भी श्री माली ने फेसबुक पेज से इंदिरा जी का संदर्भित स्कैच हटाने के प्रति बेरुखी दिखाई है जिसका  न सिर्फ मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह वरन आनंदपुर साहिब सीट से कांग्रेस के लोकसभा सदस्य मनीष तिवारी ने भी तगड़ा विरोध किया है | इस बारे में चौंकाने वाली बात ये है कि श्री सिद्धू की ओर से इस बारे में न तो कोई प्रतिक्रिया आई और न ही उन्होंने  श्री माली की छुट्टी करने का संकेत  दिया | विधानसभा चुनाव के कुछ महीनों पहले नवजोत और अमरिंदर में लम्बे समय से चला आ रहा  शीतयुद्ध जब गर्म युद्ध में बदलने लगा तब हाईकमान हरकत में आया और उसने मुख्यमंत्री के ऐतराज को दरकिनार करते हुए नवजोत को संगठन की कमान थमा दी | इससे अमरिंदर तो नाराज हैं ही परन्तु मनीष तिवारी और निवर्तमान प्रदेश  अध्यक्ष सुनील जाखड़ को भी सिद्धू की ताजपोशी जमी नहीं | हालाँकि श्री सिद्धू द्वारा  अध्यक्ष का  कार्यभार ग्रहण करते समय  मुख्यमंत्री ने उपस्थित होकर भाषण भी दिया था किन्तु उस दौरान  भी दोनों में  बातचीत नहीं हुई | तबसे लगातार उनके बीच किसी न किसी बात को लेकर आरोप – प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है | लेकिन अपने सलाहकार की करतूत ने उनके विरोधियों को श्री सिद्धू की पगड़ी उछालने का जोरदार अवसर दे दिया | कश्मीर पर भारत के अवैध कब्जे संबंधी बयान के अलावा इंदिरा जी को नरमुंडों के साथ खड़ा  दिखाने वाला स्कैच सोशल मीडिया पर प्रसारित करने जैसी हिमाकत  करने वाले व्यक्ति को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यदि अपना सलाहकार बनाये  रखते हैं  तब तो ये मान लेने में कुछ भी गलत नहीं है कि ज्यादा जुबान चलाने के कारण उनका दिमाग चलना बंद हो गया है | उससे भी बड़ी गलती कांग्रेस हाईकमान विशेष रूप से गांधी परिवार की कही जायेगी जिसने राज्य के मुख्यमंत्री सहित अनेक वरिष्ठ नेताओं के विरोध को ठेंगा दिखाते हुए चुनावी वर्ष में श्री सिद्धू को पार्टी संगठन का मुखिया बना दिया जो अपनी ही प्रदेश सरकार के विरोध में सार्वजनिक बयानबाजी और आन्दोलन की  धमकी देने से बाज नहीं आये | अमरिंदर और उनके साथ ही राज्य इकाई के अनेक नेताओं ने तो नवजोत के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई करने तक की मांग कर डाली थी  किन्तु गांधी परिवार ने बजाय दण्डित करने के उन्हें पुरस्कृत कर दिया | कांग्रेस में चली आ रही परम्परा के अनुसार छोटी – छोटी नियुक्तियाँ भी गांधी परिवार की अनुमति और सहमति से ही की जाती रही हैं | ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि श्री सिद्धू ने अपने लिए जो चार सलाहकार नियुक्त किये क्या उनके लिए भी पार्टी के सर्वेसर्वा परिवार से पूछा गया या मनमर्जी से निर्णय लिया गया ? बहरहाल श्री माली ने जो हरकत की वह इंदिरा जी के अपमान के साथ ही राष्ट्रीय संप्रभुता का भी खुला विरोध है जो उनकी देशभक्ति पर संदेह पैदा करने के लिए पर्याप्त है | इस बारे में ये भी गौरतलब है कि श्री सिद्धू पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री और पूर्व क्रिकेटर इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में उनके न्यौते पर न सिर्फ  गये बल्कि वहां के सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा से गले भी मिले जिसके लिए देश में उनकी  जोरदार आलोचना हुई । उनके सलाहकार मालविंदर सिंह माली के देशविरोधी बयान और कांग्रेस  पार्टी की आराध्य नेता रहीं इंदिरा जी का आपत्तिजनक स्कैच प्रसारित किये जाने के बाद एक बार फिर श्री सिद्धू विवादों में घिर गये हैं | विपक्ष आलोचना करता उसके पहले कांग्रेस  पार्टी के भीतर ही उनकी  मुखालफत खुलकर सामने आने लगी है | अमरिंदर सिंह और मनीष तिवारी पहले भी उनके विरुद्ध बोलते और हाईकमान को पत्र लिखते रहे हैं | इस बार भी दोनों ने सीधा हमला  करने में देर नहीं की है | वैसे इस मसले पर पार्टी हाईकमान के सामने भी असमंजस की स्थिति है क्योंकि वह सिद्धू पर श्री माली को हटाने का दबाव डालती है तो उससे अमरिंदर खेमा मजबूत होगा और यदि वह ऐसा नहीं करती तब उसके लिए मुंह छिपाना मुश्किल हो जाएगा | ये देखते हुए कहना सही है कि पंजाब को लेकर गांधी परिवार जिस तरह लापरवाही दिखा रहा है , वह कांग्रेस को महंगी पड़ सकती है | नवजोत सिंह सिद्धू की बेलगाम जुबान के बाद उनके सलाहकार की देश  विरोधी दुस्साहसी हरकत बन्दर के हाथ उस्तरा थमाने वाली कहावत को चरितार्थ कर रही है | इंदिरा जी का नरमुंडों पर खड़ा स्कैच भी यदि गांधी परिवार को क्रोधित नही कर पा रहा तब फिर कहने को बचता ही क्या है ?

- रवीन्द्र वाजपेयी


 

Saturday 21 August 2021

विपक्षी एकता बाद में , पहले कांग्रेस खुद तो एकजुट हो ले



कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आमंत्रण पर गत दिवस आभासी माध्यम के जरिये विपक्षी दलों की बैठक में 19 दलों के नेतागण हुए शामिल हुए | उनमें शरद पवार , ममता बैनर्जी , उद्धव ठाकरे और एम . के. स्टालिन ही प्रमुख  कहे जा सकते हैं | हालाँकि जम्मू – कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री डा. फारुख अब्दुल्ला के अलावा सीपीएम नेता सीताराम येचुरी भी बैठक का हिस्सा बने , लेकिन राष्ट्रीय राजनीति को दिशा देने  वाले राज्य  उ.प्र की प्रमुख विपक्षी पार्टियों में से न बसपा आई और न ही सपा | सपा की अनुपस्थिति के पीछे अखिलेश यादव के संबंधी की मृत्यु बताई गई जबकि बसपा ने सोनिया जी के आमंत्रण की उपेक्षा कर दी | दिल्ली के बाद पंजाब में बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभर रही आम आदमी पार्टी ने जानकारी  दी कि उसको बैठक का न्यौता ही नहीं दिया गया | बैठक में केंद्र सरकार के विरुद्ध विपक्षी लामबंदी पर सहमति बनने के साथ ही आगामी 20 से 30 सितम्बर तक पूरे देश में संयुक्त रूप से आन्दोलन किया जावेगा | बैठक का असली उद्देश्य 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी एकता की बुनियाद रखना बताया गया  | बीते दिनों ममता बैनर्जी ने दिल्ली यात्रा के दौरान सोनिया जी और श्री पवार सहित अन्य विपक्षी दलों से भेंट करते हुए भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की पहल की थी | उनके पहले पवार साहेब भी एक बैठक कर चुके थे किन्तु उसमें कांग्रेस मौजूद नहीं थी |  राहुल गांधी ने भी हाल ही में विपक्षी नेताओं को नाश्ते पर बुलाया | यद्यपि श्रीमती गांधी द्वारा गत दिवस आहूत बैठक को काफी महत्व मिला परन्तु ये केंद्र सरकार को चुनौती देने से ज्यादा कांग्रेस के जी – 23 नामक असंतुष्ट नेताओं को जवाब देने  के लिए चला गया दांव था | स्मरणीय है हाल ही में उक्त गुट के नेता कपिल सिब्बल ने अपने जन्मदिन के बहाने तमाम विपक्षी नेताओं को भोज पर बुलाया किन्तु  गांधी परिवार को बुलावा नहीं भेजा | श्री सिब्बल ने उस भोज का मकसद भाजपा विरोधी विपक्षी गठबंधन बनाना बताया था लेकिन गांधी परिवार ने उसके निहित उद्देश्य को समझते हुए जवाबी कदम उठाने का निर्णय किया और उसी के तहत श्रीमती गांधी द्वारा  संदर्भित बैठक बुलाई गई | वरना 2024 के पहले विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे जिनमें से कुछ में क्षेत्रीय पार्टियां ही भाजपा का मुकाबला करने लायक हैं | उ.प्र को ही लें तो वहां बसपा और सपा दोनों में से एक भी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को ज्यादा भाव नहीं देंगी  | इसी प्रकार  पंजाब , उत्तराखंड और गोवा में आम आदमी पार्टी कांग्रेस के लिए सिरदर्द बनने जा रही है | अकाली दल से तो वैसे भी उसका सांप और नेवले जैसा रिश्ता है | बंगाल में भी विधानसभा चुनाव कुछ महीने पहले ही  हुए हैं जिनमें कांग्रेस शून्य पर सिमटकर रह गई | ममता ने हाल ही में महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुष्मिता देव को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया जबकि पूर्व राष्ट्रपति स्व.प्रणव मुखर्जी के पुत्र अभिजीत पहले ही तृणमूल का दामन थाम चुके थे | इसी तरह शरद पवार महाराष्ट्र में कांग्रेस को शायद ही पनपने देंगे | जम्मू – कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस का गठबंधन पहले भी  होता रहा है लेकिन उसकी हैसियत  कनिष्ठ भागीदार की ही है | राष्ट्रीय से क्षेत्रीय पार्टी में तब्दील होते जा रहे वामपंथी दलों का वैचारिक और मैदानी असर भी  अब पहले जैसा नहीं रहा | सोनिया जी की  बैठक में शरीक  हुईं शेष विपक्षी पार्टियों में से एक - दो को छोड़कर बाकी कांग्रेस की सहायक बनने की बजाय बोझ बन जाएँ तो आश्चर्य नहीं होगा | तेलंगाना से टी.आर.एस , आंध्र से वाई.एस.आर कांग्रेस  और उड़ीसा से बीजू जनता दल उक्त बैठक में आये नहीं अथवा उनको बुलाया नहीं गया ये स्पष्ट नहीं है | तेलुगु देशम के चन्द्र बाबू नायडू भी  कांग्रेस की संगत का दंड भोग चुके हैं | भले ही तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी द्रमुक कांग्रेस के साथ है लेकिन वह भी कब पलटी मार जाए ये कहा नहीं जा सकता | कर्नाटक  से जनता दल ( एस ) भले आ गयी लेकिन अब देवगौड़ा परिवार का प्रभाव ढलान पर है | इस तरह देखें तो दो - चार नाम छोड़कर एक भी ऐसा नेता या दल नहीं है जिसके साथ आने से श्रीमती गांधी  2004 वाला करिश्मा दोहरा सकें  जब अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार को अप्रत्याशित रूप से पराजय का सामना करना पड़ा | तब भाजपा के पास अपने  बलबूते सरकार बनाने लायक ताकत नहीं होती थी लेकिन 2014 और 2019 में उसने खुद ही बहुमत हासिल कर एक मिथक तोड़ दिया | अटल जी के पराभव के उपरान्त भाजपा ने तो नरेंद्र मोदी के तौर पर वैकल्पिक चेहरा देश के सामने रखा , वहीं अपने संगठन में भी युवाओं को महत्व देते हुए अगली पीढ़ी के  नेताओं को तैयार करने की प्रक्रिया भी शुरू कर  दी किन्तु कांग्रेस सोनिया जी से बढ़कर पहले राहुल और प्रियंका पर आकर रुकी और फिर वापिस उन्हीं के पास लौट आई | हालांकि कल की बैठक के बारे में भाजपा का ये कहना निरर्थक है कि गठबंधन की कोशिश कर कांग्रेस ने अपनी हार स्वीकार कर ली क्योंकि भाजपा पूर्ण बहुमत के बाद भी उ.प्र में छोटे  – छोटे दलों के साथ गलबहियां किये हुए है | मोदी सरकार में भी अनेक छोटे दलों के मंत्री हैं | लेकिन कांग्रेस के साथ ये समस्या है कि वह चंद नेताओं की पार्टी बनकर रह गई है और उनमें से भी बहुतायत उनकी है जो गांधी परिवार के इर्द – गिर्द मंडराने को ही राजनीति मान बैठे हैं | जी – 23 नामक गुट में भी जनाधारविहीन नेता ही हैं | ये सब देखते हुए कहना गलत न होगा कि कांग्रेस भले ही कोशिश कर  रही हो लेकिन 2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए  उ.प्र में भाजपा को सत्ता से अलग करना होगा किन्तु आज की स्थिति में कांग्रेस के लिए वैसा कर पाना असम्भव है | सपा – बसपा जैसी क्षेत्रीय ताकतें भी उसे बोझ मान रही हैं | यद्यपि विपक्ष में बैठीं तमाम क्षेत्रीय पार्टियाँ भाजपा को तो हटाना  चाहती हैं किन्तु वे कांग्रेस को भी दोबारा ताकतवर नहीं होने देना चाहतीं क्योंकि उसका पुनरोदय उनको अस्ताचल की ओर भेज देगा | श्रीमती गांधी भी ये जानती हैं कि शरद पवार , ममता बैनर्जी , अखिलेश यादव , मायावती और तेजस्वी यादव जैसे नेता कांग्रेस को मजबूत नहीं होने देंगे |  जहां तक राहुल गांधी का सवाल है तो आज विपक्ष की राजनीति में एम .के स्टालिन ,अखिलेश और तेजस्वी यादव के अलावा अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता युवा वर्ग को ज्यादा आकर्षित कर पा रहे हैं | कपिल सिब्बल का ये तंज वाकई मायने रखता है कि भला पूर्णकालिक अध्यक्ष के बिना भी कोई पार्टी चलती है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 20 August 2021

तालिबान को चरित्र प्रमाणपत्र देने में जल्दबाजी गलत : कूटनीति में धैर्य सबसे बड़ा हथियार है



 क्रिकेट के खेल में अच्छा बल्लेबाज शॉट लगाने के लिए कमजोर गेंद का इंतजार करता है | महान बल्लेबाज सुनील गावस्कर  नये बल्लेबाजों को ये नसीहत देते रहे  हैं कि गेंद के पीछे भागने की बजाय उसके बल्ले तक आने की प्रतीक्षा करना चाहिए | यही बात कूटनीति में भी बेहद कारगर है | इसीलिये किसी भी घटना के बारे में प्रतिक्रिया व्यक्त करते समय जल्दबाजी से बचा जाता है | दो देशों के बीच राजनयिक संबंधों में भी धैर्यपूर्वक आगे बढ़ने की नीति अपनाई जाती है | अति उत्साह में दिया गया आश्वासन और आकस्मिक नाराजगी दोनों कूटनीति के लिहाज से नुकसानदेह होते हैं | अफगानिस्तान में हुए हालिया सत्ता परिवर्तन के बारे में भारत सरकार द्वारा अब तक किसी भी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं किये जाने की  पूर्व विदेश मंत्री और विदेश सचिव नटवर सिंह , पूर्व केन्द्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और  वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक ने आलोचना करते हुए कहा है कि भारत को तत्काल तालिबान से बातचीत कर कूटनीतिक सम्बन्ध कायम करना चाहिए जिससे भविष्य में वहां भारत के हित सुरक्षित रहें | उनका इशारा अतीत में तालिबान की सत्ता के साथ हमारे कूटनीतिक रिश्ते न होने से कंधार विमान अपहरण कांड के समय बंधकों की रिहाई में आई अड़चनों की तरफ था | इस तरह का सुझाव और भी कुछ लोगों की तरफ से आया है | कतिपय मुस्लिम नेताओं के अलावा मुनव्वर राणा जैसे शायर ने भी तालिबान की तारीफ़ में कसीदे पढ़ते हुए उनको जीत की बधाई देने के साथ ही इस बात का प्रमाण पत्र भी जारी कर दिया कि नये तालिबान शासक पुराने वालों से सर्वथा अलग होने से कट्टर नहीं हैं तथा भारत के प्रति उदार रहेंगे | उल्लेखनीय है काबुल पर तालिबान का आधिपत्य होते ही भारत ने अपने राजदूत सहित दूतावास के सारे कर्मचारियों को वापिस बुलवा लिया | हालाँकि तालिबान की ओर से आयोजित पहली पत्रकार वार्ता में काश्मीर को भारत – पाकिस्तान के बीच का मामला बताने के साथ ही ये आश्वासन भी दिया कि भारत द्वारा अफगनिस्तान में किये जा रहे काम जारी रखे जा सकते हैं किन्तु  उसके फौरन बाद ही ये खबर भी आ गई कि तालिबान के हुक्मरानों ने भारत के साथ होने वाले व्यापार को पूरी तरह रोक दिया है |  इससे जाहिर हो गया कि तालिबान की कथनी और करनी विरोधाभासी है | भारत में बैठे तालिबान के हमदर्द और प्रशंसक उसके ह्रदय परिवर्तन के बारे में चाहे जो कह रहे हों लेकिन वहां  से आ रही खबरें न सिर्फ भारतीय अपितु समूचे विश्व समुदाय को विचलित कर रही हैं | काबुल में ही तालिबान लड़ाकों ने आतंक का राज  स्थापित कर रखा  है | खुलेआम लूटखसोट होने के साथ ही बात – बात में गोली मारने की घटनाएँ सामने आ रही हैं | राजधानी से कुछ दूर निकलते ही तालिबान के लड़ाकों का राक्षसी रवैया नजर  आने लगता है | मासूम लड़कियों तक को हवस का शिकार बनाने के साथ ही युवतियों  को घरों से जबरन उठाकर उनकी नीलामी की जा रही है | पुरुषों से जान बख्शने की कीमत उनकी पत्नी के रूप में वसूली जा रही है | राह चलते लोगों को रोककर कीमती सामान छुड़ा लेना आम हो गया है | तालिबान के हथियारबंद गुंडे देश छोड़कर जाने के इच्छुक लोगों को काबुल हवाई अड्डे के भीतर नहीं जाने दे रहे | ऐसी ही घटना में एक महिला को जब हवाई अड्डे में जाने से रोका गया तो उसने  अपनी गोद में से बच्ची को ये कहते हुए भीतर फेंक दिया कि मेरा जो होगा वह होगा , कम से कम से ये तो दरिंदों से बच जायेगी | ये सब देखते हुए भी जो राजनेता , बुद्धिजीवी , पत्रकार और मुस्लिम  समुदाय के स्वयंभू प्रवक्ता भारत सरकार की चुप्पी पर सवाल उठा रहे हैं उनकी अक्ल पर तरस खाएं या नीयत पर शक करें ये फिलहाल तय नहीं किया जा सकता किन्तु इतना तो मानना ही पड़ेगा कि या तो इन्हें तालिबान की असलियत नहीं पता या फिर ये सरकार के विरोध की आड़ में राष्ट्रीय हितों को नजरंदाज कर रहे हैं | मुनव्वर राणा ने तो तालिबान की तुलना रास्वसंघ और उसके अनुषांगिक संगठनों से कर अपनी खीझ निकाली परन्तु कांग्रेस के प्रवक्ता द्वारा भी सरकार की चुप्पी पर सवाल खड़े करना चौंकाने वाला है क्योंकि दशकों तक  देश की सत्ता में रही पार्टी को कम से कम इतनी समझ तो होनी ही चाहिए कि तालिबान के बदले हुए चरित्र की पुष्टि करने में समय लगेगा | और फिर भारत के लिए अफगानिस्तान में हुआ सत्ता परिवर्तन केवल उसका आंतरिक मसला न होकर हमारी सुरक्षा के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न करने वाला भी हो सकता है क्योंकि भारत विरोधी अनेक  इस्लामी आतंकवादी संगठन उस देश की धरती पर पल रहे है जिन्हें तालिबान का खुला  समर्थन और संरक्षण  है | इसके अलावा भारत के दो सबसे बड़े घोषित दुश्मन चीन और पाकिस्तान जिस तरह से तालिबान को हाथों – हाथ उठा रहे हैं वह देखते हुए भारत का अफगानिस्तान की नई सत्ता से रिश्ता बनाने में फूंक – फूंककर कदम उठाना पूरी तरह सही और बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन है | इस बारे में ये बात  भी विचारणीय है कि तालिबान की तरफ से भी भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने जैसी कोई पहल नहीं हुई | ऐसे में उसके द्वारा शराफत और मानवीयता का जो दावा किया जा रहा है उसकी असलियत परखे बिना कूटनीतिक रिश्ते कायम कर लेना धोखे और शर्मिंदगी का कारण बन सकता है | कूटनीति की साधारण समझ रखने वाला भी ये मानेगा कि अफगानिस्तान के नए सत्ताधीश तालिबान चाहे कितने भी सुधरे हुए हों लेकिन चीन और पाकिस्तान की संगत में रहने के बाद  वे भारत के प्रति भी सद्भावना रखेंगे ये भरोसा नहीं होता | ये सब देखते हुए केंद्र सरकार द्वारा समूचे घटनाक्रम और उससे पैदा हुईं परिस्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन करने के उपरांत ही कोई कदम उठाने की  रणनीति समयानुकूल है | और फिर कूटनीति परदे के पीछे चलने वाली सतत प्रक्रिया है जिसे रोज – रोज सार्वजानिक नहीं किया जा सकता |

 -रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 19 August 2021

खाद्य तेल: उत्पादन बढ़ाने के साथ ही शुद्धता और कीमत पर ध्यान देना भी जरूरी



भारत में हरित क्रांति के परिणामस्वरूप खाद्यान्न विशेष रूप से गेंहू , धान आदि का उत्पादन तो इतना होने लगा है जिसे हम निर्यात कर सकें | लेकिन दलहन और तिलहन की पैदावार जरूरत से कम रहने पर उनका आयात करना पड़ता है | इससे एक तो  आयात खर्च बढ़ता है और दूसरा देश के किसान को होने वाली कमाई विदेश चली जाती है | केंद्र सरकार बीते कुछ सालों से दलहन और तिलहन का उत्पादन बढ़ाने की दिशा में काफी प्रयास कर रही है | जिससे  दालों की पैदावार में तो मामूली ही सही लेकिन बढ़ोतरी हुई परंतु खाने वाले तेल का आयात किया जाता  है | विशेष रूप से पाम ऑयल बड़ी मात्रा में बुलाना पड़ता है , जिसका सबसे बड़ा निर्यातक मलेशिया है | इसे खाद्य तेल में मिलाने के कारण उनकी लागत कम हो जाती  है  | बीते कुछ समय से मलेशिया से हमारे रिश्ते तनावपूर्ण हैं  | कश्मीर और नागरिकता संशोधन विधेयक पर उसने टर्की के साथ मिलकर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत का खुला विरोध किया | यही नहीं तो  कट्टरपंथ को बढ़ावा देने वाले जाकिर नाइक नामक इस्लामी  प्रचारक को अपने यहाँ शरण दे दी जो भारत में  आतंकवादी गतिविधियों का आरोपी है | उसके बाद से ही मोदी सरकार ने मलेशिया से पाम ऑयल का आयात पहले तो बंद कर दिया लेकिन बाद में उसकी मात्रा घटाते  हुए इंडोनेशिया और वियतनाम जैसे दक्षिण एशियाई देशों से  खरीदी बढ़ा दी  | इस प्रकार केंद्र सरकार ने मलेशिया की अकड़ कम करते हुए पाम ऑयल के आयात हेतु  वैकल्पिक स्रोत तलाश लिए लेकिन अब खाद्य तेल संबंधी आत्मनिर्भरता अर्जित करने हेतु राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन का शुभारम्भ कर 11000 करोड़ की बड़ी राशि का प्रावधान भी कर दिया | भारत के  12 तटीय राज्यों में पाम खेती की संभावनाएं हैं जिनका मौसम दक्षिण एशिया के उक्त देशों जैसा ही है | इस मिशन के अंतर्गत पाम  खेती का  रकबा 10 लाख हेक्टेयर तक किये जाने का लक्ष्य है जिसके लिए किसानों को प्रति हेक्टेयर मौजूदा 12 हजार रु. प्रति हेक्टेयर से बढ़ाकर 29 हजार रु. प्रति हेक्टेयर की सहायता दी जावेगी | खर्च यदि कमाई से ज्यादा हुआ तब उसकी क्षतिपूर्ति का प्रावधान भी रखा गया है | एक अध्ययन से ज्ञात हुआ कि देश में पाम खेती का रकबा 28 लाख हेक्टेयर तक किया जाना संभव है और ऐसा होने के बाद भारत से पाम ऑयल का निर्यात हो सकेगा क्योंकि अफ्रीकी और यूरोपीय देशों को भारत से पाम ऑयल मंगाना दक्षिण एशियाई देशों की तुलना में सस्ता पड़ेगा  | हालाँकि निर्यात की स्थिति आने में तो फ़िलहाल समय लगेगा लेकिन यदि मिशन की उम्मीद के मुताबिक  2025 तक पाम खेती का रकबा लक्ष्य को छू सके तो खाद्य तेल के आयात से बचने की स्थिति तो बन ही सकती है  | राजनीतिक मुद्दों से परे  हटकर देखें तो इसमें संदेह नहीं है कि केंद्र  सरकार का यह  निर्णय देश के दूरगामी हितों के संरक्षण में सहायक होगा | वैसे भी हमारा देश कृषि प्रधान है और  अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान सर्वविदित है | बीते दो वर्ष में कोरोना जैसी आपदा  के कारण जब समूचा उद्योग और व्यापार तकरीबन ठप्प पड़ गया था तब भारत के किसानों ने खेतों में जो परिश्रम किया उसी के कारण 80 करोड़ लोगों को  मुफ्त और सस्ता अनाज बांटने जैसा जनहितकारी कार्य संभव हो सका  | वरना  बेरोजगार हुए गरीब अराजकता पर उतारू हो  सकते थे  | देश में बीते एक साल के भीतर खाद्य तेल के दाम जिस तेजी से बढ़े उसके मद्देनजर राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन एक क्रन्तिकारी कदम है | पाम के साथ ही  सरसों , तिली , मूंगफली और नारियल आदि के उत्पादन पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए जो खाद्य  तेलों के  परम्परागत स्रोत हैं | वैसे एक शिकायत ये भी है कि आयातित पाम ऑयल की मिलावट स्वीकृत मात्रा से ज्यादा खाद्य तेलों में करते हुए अनाप – शनाप मुनाफा तेल उत्पादकों ने अर्जित किया | वहीं इससे  गुणवत्ता भी घटी | खाद्य तेलों की शुद्धता वाकई बहुत बड़ा मुद्दा है जिसका सीधा  सम्बन्ध जनस्वास्थ्य से है | राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन ने  देश में उत्पादन बढ़ाकर आयात को घटाने का जो संकल्प लिया वह समय की मांग है | लेकिन उसे शुद्धता के बारे में भी सख्ती बरतनी होगी क्योंकि आम तौर पर ये देखने में आया है कि निर्यात के लिए बनाये जाने वाले सामान की गुणवत्ता तो वैश्विक मानकों के अनुरूप रहती है जबकि घरेलू उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराया जाने वाला वही सामान तुलनात्मक रूप से उतना अच्छा नहीं होता | बहरहाल इस नये प्रयास की शुरुवात शुभ संकेत है | लेकिन इसके साथ ही सरकार को खाद्य तेलों के दामों में हो रही बेतहाशा वृद्धि को भी रोकना चाहिये जिसने आम जनता का बजट बिगाड़  रखा  है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

 

Wednesday 18 August 2021

अच्छी – अच्छी बातों के बावजूद तालिबान पर भरोसा नहीं किया जा सकता



काबुल पर कब्जा कर लेने के बाद जब तालिबान नेताओं को लगा कि विश्व बिरादरी ही नहीं  अफगानिस्तान की जनता भी उनसे भयभीत है तो उसके प्रवक्ता ने  अनेक अच्छी – अच्छी बातों के साथ ही इस तरह के आश्वासन भी दिए  जिनसे ये लगे कि वह अब पहले जैसा नहीं रहा | महिलाओं को काम पर लौटने के साथ ही अफगानी  नागरिकों से देश नहीं छोड़ने की  अपील भी  की गई | समाचार माध्यमों को अपनी आलोचना की छूट भी तालिबान ने देने की बात कही  बशर्ते वे इस्लामिक गतिविधियों को भी समुचित महत्व दें | महिलाओं के अधिकारों और सम्मान के प्रति  तालिबान शासन की प्रतिबद्धता व्यक्त करने के साथ ही ये शर्त भी जोड़ दी गयी कि उन्हें इस्लामी तौर – तरीकों का पालन करना होगा | भारत को वहां अपना कारोबार जारी रखने की छूट देते हुए तालिबान ने  कश्मीर विवाद को भारत – पाकिस्तान के बीच का द्विपक्षीय मामला  बताकर  संकेत दिया कि वह इससे दूर रहेगा | सबसे बड़ी बात ये कही गई कि अफगानिस्तान  की धरती का उपयोग किसी और देश के विरुद्ध किये जाने की अनुमति नहीं दी जायेगी | अपना उदारवादी रूप दिखाते हुए  ऐलान  किया गया कि नई सत्ता ने उसका विरोध करने वालों को भी माफ़ कर दिया है और किसी के विरुद्ध कोई  कार्रवाई नहीं की जायेगी |  हालाँकि  प्रवक्ता ने हर बात में ये जरूर जोड़ा कि उनका देश इस्लामिक व्यवस्था से संचालित होगा और सबको उसी के अनुरूप चलना होगा |  अर्थात जिन आजादियों का आश्वासन दिया गया वे सब सशर्त हैं और इस्लामी कानूनी और सामाजिक व्यवस्था ही वहां हावी रहेगी | दरअसल तालिबान की वापिसी पर जिस प्रकार की प्रतिक्रिया दुनिया भर में हुई उसने इस कट्टरपंथी संगठन को चिंता में डाल दिया | पश्चिम  एशिया में हो रहे खून - खराबे के बावजूद आईएसआईएस अब तक कामयाब नहीं हो सका जबकि युद्ध की विभीषिका ने अरब जगत के अनेक देशों की आर्थिक स्थिति खराब कर दी | अफगानिस्तान वैसे भी बहुत ही गरीब है | उस लिहाज से बीते बीस साल में विकास का जो दौर शुरू हुआ है यदि उस पर विराम लग गया तब  देश के भीतर तालिबान को विरोध का सामना करना होगा  |  | नए सत्ताधीशों को ये खौफ भी है कि बड़ी संख्या में देश छोड़कर जाने वाले अफगानी नागरिक  तालिबान की सत्ता के विरुद्ध विश्व जनमत को प्रभावित कर सकते हैं | बीते दो – तीन दिन में तालिबान लड़ाकों  द्वारा महिलाओं के साथ किये गये आपत्तिजनक व्यवहार की खबरें जिस तेजी से आईं उसके कारण पूरी दुनियां में  नई सत्ता के प्रति गुस्सा देख़ने मिला | मानवाधिकारों की रक्षा को लेकर तो इस संगठन की छवि पहले से ही  खराब रही है | तालिबान के प्रमुख नेताओं को ये फ़िक्र भी है कि चीन और पाकिस्तान से मिला खुला समर्थन उनके लिए मुसीबत न बन जाये क्योंकि बीते दो दशक में वहां जो युवा पीढ़ी पनपी वह धार्मिक कट्टरता को आसानी से पचा नहीं सकेगी | शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं को मिले अवसर छीनने पर भी अंदर ही अंदर विरोध पनपेगा | तालिबान नेताओं को एक बात समझ में आने तो लगी है कि विश्व जनमत की उपेक्षा करने पर वे  अलग -  थलग पड़ जायेंगे और उस स्थिति में फिर से महाशाक्त्तियाँ अफगानिस्तान पर शिकंजा कस सकती हैं | आर्थिक प्रतिबंध की आशंका भी बनी हुई है | हालाँकि ये बात भी कूटनीतिक क्षेत्रों में सुनी जा रही है कि अफगानिस्तान से अमेरिका द्वारा अपना डेरा जिस तरह उठाया गया और तालिबान टहलते  हुए काबुल तक चले आये वह उनके और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाईडन  के बीच हुए किसी गोपनीय समझौते का परिणाम है | और इसीलिये इस्लामी कट्टर छवि को धोने के लिए तलिबान की ओर से चिकनी – चुपड़ी बातें की जा रही हैं | लेकिन उन  बातों पर उसके देश के ही लोग भरोसा करने राजी नहीं हैं | इसका प्रमाण देश छोड़कर भागे अफगानी पुरुषों और  महिलाओं द्वारा व्यक्त की जा रही बातों से मिलता है | ये बात भी सामने आ रही है कि काबुल  के पहले जिन – जिन इलाकों पर तालिबान काबिज होते गये वहां उन्होंने जमकर लूटमार की और महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाया | इसीलिये दुनिया भर में रह रहे अफगानी अपने उन परिजनों की खैरियत को लेकर चिंतित हैं जो अब तक देश में ही  रह रहे हैं | तालिबान द्वारा गत दिवस आश्वासनों का जो पिटारा खोला गया उनकी विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है | पिछली सरकार के लोगों को माफी और महिलाओं को सरकार में शामिल होने के न्यौते के अलावा अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी से जुड़ने की उसकी चाहत के पीछे ईमानदारी कितनी है ये पक्के तौर् पर कोई नहीं कह पा रहा | इसीलिये भले ही चीन ने उसे मान्यता दे दी और पाकिस्तान भी बेशक उसका अनुसरण करेगा किन्तु विश्व की बाकी बड़ी आर्थिक शक्तियां जब तक उसकी सत्ता को स्वीकार नहीं करेंगी तब तक तालिबान अलग – थलग ही  रहेगा | जहाँ तक भारत का सवाल है तो भले ही उसके प्रवक्ता  ने कितनी भी अच्छी बातें की हों लेकिन चीन और पाकिस्तान के साथ नजदीकी रखने के बाद वह भारत के प्रति लचीलापन दिखायेगा ये मान लेना अपने आप को धोखा देना होगा | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 17 August 2021

बलूचिस्तान और तिब्बत की आजादी का मुद्दा उठाने का सही मौका



अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्ज़ा अब एक सत्य है | पूरी दुनिया काबुल हवाई अड्डे के वे दृश्य देखकर मर्माहत है जिनमें देश छोड़ने के लिए जमा भीड़ ने उड़ान भरते हुए हवाई जहाज से लटकने तक का दुस्साहस किया  |  विमान के पहियों वाली जगह घुसकर बैठ गए तीन लोग ऊँचाई पर उसके पहुंचते ही नीचे आ गिरे | दुनिया के विभिन्न हिस्सों में रह रहे अफगानी  नागरिक विशेष रूप से महिलाएं और युवा  मुल्क के अचानक कट्टरपंथियों के शिकंजे में आने से दुखी और चिंतित हैं | उनको लग रहा है कि बीते २० सालों  में अफगानी समाज   में जो सकारात्मक  बदलाव आये तथा महिलाओं को शिक्षा के साथ ही रोजगार के क्षेत्र में आगे बढ़ने के  अवसर मिले , वे शायद ही जारी रहें | दुनिया भर से वहां  के हालात पर  चिंता व्यक्त की जा रही है लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान सहित अनेक राष्ट्रप्रमुखों के मुताबिक अफगानिस्तान ने आजादी हासिल की है | उनका आशय अमेरिका की सेनाओं के  पलायन से है जिसे इस्लामी जगत  महाशक्ति की  पराजय निरुपित कर रहा है  | भारत में भी ऐसी  सोच रखने वाले कम नहीं हैं | सपा सहित कुछ और पार्टियों के मुस्लिम नेताओं ने तालिबान की  जीत पर खुशी व्यक्त की है | टीवी चैनलों की बहस में शामिल अनेक मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने तालिबान के राज में कट्टरपंथ का बोलबाला होने की बात को नजरंदाज करते हुए भारत को इन्तजार करो और देखो की नीति पर चलने की सलाह भी दे डाली | ऐसे लोगों को इस बात की तनिक भी परवाह नहीं है  कि तालिबान की  सत्ता पाकिस्तान और चीन द्वारा पोषित रहने से भारत के लिए नुकसानदेह रहेगी | इन तीनों की जुगलबंदी से  हमारी सीमाओं पर संकट के बादल और घने हो सकते हैं | चूँकि चीन ने तालिबान का समर्थन कर दिया है इसलिए भारत का वामपंथी तबका भी तालिबान की विजय को लेनिन और माओ की  क्रान्ति का प्रतिबिम्ब मान रहा है | सही बात ये है कि जो लोग अफगानिस्तान में तालिबान की वापिसी का जश्न मना रहे हैं उनमें से अधिकांश दरअसल अमेरिका विरोधी मानसिकता से ग्रसित हैं | लेकिन जब बात अफगानिस्तान के लोगों को अमेरिका के दखल  से आजादी मिलने पर खुश होने की है तो उसमें वह रूस भी शामिल है जो सोवियत संघ के तौर पर  कई  साल तक अफगानिस्तान में अपनी फौजें उतारकर तालिबान से लड़ता रहा और आखिर में उसी तरह मैदान छोड़कर भागा था जैसे हाल ही में अमेरिकी सेनाएं वहां से निकलने को मजबूर हुईं | लेकिन जो चीन और पाकिस्तान आज अफगानिस्तान में अमेरिका की हार को आजादी की जीत बता रहे हैं क्या वे खुद क्रमशः बलूचिस्तान और तिब्बत पर बलात कब्जा कर दमनचक्र चलाने के अपराधी नहीं हैं ? १९४७ में भारत के बंटवारे के समय तक बलूचिस्तान एक स्वतंत्र इकाई था , जिसका विभाजन के दस्तावेज में कोई उल्लेख नहीं था | लेकिन पाकिस्तान ने उस पर जबरन कब्जा  जमा लिया | दुनिया भर में फैले बलूच पाकिस्तान  के विरुद्ध आवाज उठाते हैं | संरासंघ तक में उसकी आजादी का मसला चर्चा में आया है | इसी तरह चीन में साम्यवादी शासन आते ही उसने तिब्बत नामक स्वतंत्र देश पर सैन्यबल से आधिपत्य जमा लिया | वहां की सत्ता बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा के हाथ थी जो अपने भरोसेमंद सहयोगियों के साथ हिमालय के दुर्गम रास्तों से पैदल चलते हुए भारत आये जिसने उन्हें राजनीतिक शरण तो दी लेकिन तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे को भी मान्यता देकर अपने पैर में कुल्हाड़ी मार ली | तत्कालीन नेहरु सरकार का वह नीतिगत निर्णय पूर्णरूपेण विरोधभासी रहा | तिब्बत को उसका क्षेत्र मानने का एहसान जताना तो दूर रहा लेकिन दलाई लामा को शरण देकर वहां  की निर्वासित सरकार का मुख्यालय भारत में कायम किये  जाने की  अनुमति से भन्नाकर चीन ने पं. नेहरु के हिन्दी – चीनी भाई – भाई के नारे और पंचशील नामक समझौते को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए १९६२ में भारत पर हमला कर दिया | हमारी सेनाएं चूँकि उस  समय तक इतनी साधन सम्पन्न नहीं थीं इसलिए मुकाबला करने में असफल रहीं और उसने हमारी हजारों वर्गमील जमीन कब्जा ली | आज जब चीन और पाकिस्तान ,  अफगानिस्तान में  अमेरिकी हस्तक्षेप के खत्म होने पर फूले नहीं समा रहे तब भारत को भी आक्रमण ही सर्वोत्तम सुरक्षा की नीति पर चलते हुए  तिब्बत और बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के हनन का मामला विश्व मंच पर उठाना चाहिए | कुछ लोगों का मानना है कि ऐसा करने पर चीन और पाकिस्तान कश्मीर में जनमत संग्रह का मामला उठा सकते हैं | लेकिन अब तो संरासंघ भी इससे अपना पल्ला झाड़ चुका है और फिर  भारत ने कश्मीर पर बलात कब्जा नहीं किया अपितु भारतीय संघ में उसके विलय के बावजूद पाकिस्तान ने उस पर हमला करते हुए एक तिहाई हिस्सा कब्ज़ा लिया | तालिबान की वापिसी के बाद वैश्विक राजनीति विशेष रूप से एशिया के शक्ति संतुलन में बड़ा बदलाव आ सकता है | इसके पहले कि भारत पूरी तरह असहाय और अप्रासंगिक हो जाए हमें भी कूटनीतिक चालें तेज करनी चाहिए | प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने कुछ साल पहले लालकिले से बलूचिस्तान के लोगों के संघर्ष के प्रति भारत की हमदर्दी दिखाई तो पूरी दुनिया में वह मुद्दा  गरमा उठा था | ये सही मौका है जब भारत को तिब्बत और बलूचिस्तान की आजादी के संघर्ष को खुला समर्थन देना चाहिए | चीन और पाकिस्तान से हमारे रिश्ते वैसे भी तनावपूर्ण हैं जिनके सुधरने के आसार  भी दूरदराज तक नहीं हैं | पाकिस्तान के अंदरूनी हालात और आर्थिक स्थिति बहुत ही  जर्जर है वहीं चीन भी ताईवान के अलावा दक्षिणी समुद्र पर आधिपत्य को लेकर अमेरिका , जापान , ऑस्ट्रेलिया , वियतनाम , दक्षिण कोरिया आदि के विरोध का सामना कर रहा है जिसमें भारत भी  शामिल है | कूटनीति में अवसर बेहद महत्वपूर्ण होता है | दलाई लामा वयोवृद्ध हो चुके हैं और उनके सहयोगियों की वैश्विक स्तर पर वैसी स्वीकार्यता और सम्मान नहीं है | ऐसे में भारत को बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के कूटनीतिक मोर्चा खोलना चाहिए | तालिबान की छवि दुनिया की निगाहों में अच्छी नहीं है जिसका लाभ भारत को उठाना चाहिए क्योंकि अपने पाँव जमाते ही वह हमारे लिए मुसीबत बने बिना नहीं रहेगा |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 16 August 2021

आज की राजनीति में अटल जी का अभाव बहुत खलता है : आज उन जैसा निर्विवाद और निष्कलंक कोई नहीं - आलेख : रवीन्द्र वाजपेयी



आज पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तृतीय पुण्य तिथि है | आजाद भारत में एक से एक बढ़कर राजनेता हुए लेकिन पं. जवाहरलाल नेहरू और  इंदिरा गांधी के अलावा अटल जी ही एक मात्र  थे जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर जैसी लोकप्रियता हासिल हुई | लेकिन नेहरू जी और इंदिरा जी सत्ता की राजनीति से ही जुड़े रहे वहीं अटल जी ने विपक्ष में ही अपनी अधिकतर राजनीतिक यात्रा पूरी की | भले ही वे 71 वर्ष की आयु में पहली बार प्रधानमंत्री बने किन्तु उसके पहले  भी जनता के बीच उनका सम्मान प्रधानमन्त्री से कम नहीं था | इसकी वजह उनकी सैद्धांतिक दृढ़ता और साफ़ सुथरी राजनीतिक थी | 1996 में जब वे प्रधानमंत्री बनने जा रहे थे तब दूरदर्शन ने उनका साक्षात्कार लिया | उसमें उनसे पूछा गया कि आपकी विशेषता क्या है ? और अटल जी ने बड़ी ही सादगी से जवाब दिया -  मैं कमर से नीचे वार नहीं करता | उनके उस उत्तर की सच्चाई पर उनके विरोधी तक संदेह नहीं  करते थे | 

विपक्ष में रहते हुए राष्ट्रीय महत्व के किसी भी विषय पर उन्होंने दलगत सीमाओं से ऊपर उठकर अपने विचार  व्यक्त करने में संकोच नहीं किया | इसकी वजह से उनको राजनीतिक नुकसान भी हुआ लेकिन उन्होंने उसकी परवाह नहीं की | पं. नेहरू के निधन पर संसद में उन्होंने जो श्रद्धांजलि ढ़ी वह आज भी उद्धृत की जाती  है | नेहरू जी ने उनकी तेजस्विता को भांपते हुए भविष्यवाणी कर दी थी कि आने वाले समय में ये नौजवान देश  का प्रधानमंत्री बनेगा | 

हिन्दी के ओजस्वी वक्ता के तौर पर वे लोकप्रियता के चरमोत्कर्ष तक जा पहुंचे | उनकी जनसभाओं में उनके  विरोधी भी बतौर श्रोता देखे जाते थे | लाखों की भीड़ को लम्बे समय तक अपनी  वक्तृत्व कला से मंत्रमुग्ध करने की उनकी क्षमता भूतो न भविष्यति का पर्याय बन गई |

बिना सत्ता हासिल किये भी लोकप्रियता और सम्मान अर्जित करने।का उनसे बेहतर उदाहरण नहीं  हो सकता | 1977 में जनता सरकार में वे विदेश मंत्री बने और मात्र 27 माह के कार्यकाल में ही उन्होंने वैश्विक पटल पर भारत की छवि में जबरदस्त सुधार करते हुए अपनी क्षमता और कूटनीतिक कौशल का परिचय दिया | संरासंघ की  महासभा में हिन्दी में भाषण देने की परम्परा की शुरुवात उन्होंने ही की थी | उसकी वजह से ही हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकी |

मूलतः वे एक कवि थे | अपने जीवन का प्रारंभ उन्होंने बतौर पत्रकार किया था | यद्यपि  व्यस्तताओं की वजह से वे उस विधा को पूर्णकालिक नहीं बना सके और अनेक अवसरों पर उन्होंने ये स्वीकार भी  किया कि राजनीति के मरुस्थल  में काव्यधारा सूख गयी किन्तु समय मिलते ही वे काव्य सृजन करते रहे | देश के अनेक मूर्धन्य कवि और साहित्यकार उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानते रहे | आज के दौर के सबसे लोकप्रिय कवि डॉ.  कुमार विश्वास तो खुलकर कहते हैं कि अटल जी उनके काव्यगुरू हैं | सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनका संपर्क और सम्मान उनकी  विराटता का प्रमाण था | संसद में उनकी  सरकार गिराने वाली पार्टियां और नेता भी बाद में निजी तौर पर अफ़सोस व्यक्त किया करते थे | अटल जी के व्यक्तित्व की ऊंचाई का ही परिणाम था कि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और पीवी नरसिम्हा राव सार्वजनिक रूप से उन्हें अपना गुरु कहकर आदर देते थे | दो विपरीत ध्रुवों पर रहने के बाद भी इंदिरा जी अक्सर अटल जी से गम्भीर मसलों पर सलाह किया करती थीं  |

आपातकाल के दौरान लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद जब विपक्षी नेताओं को रिहा कर  दिया गया और दिल्ली के रामलीला मैदान में उनकी बड़ी सभा हुई तो लाखों जनता उमड़ पड़ी | लोकनायक जयप्रकाश नारायण और मोरारजी के अलावा अनेक दिग्गज नेता  मंच पर थे लेकिन अटल जी का भाषण सबसे अंत में रखा गया क्योंकि आयोजक जानते थे कि उन्हें सुनने के लिए श्रोता रुके रहेंगे | इंदिरा सरकार ने दूरदर्शन पर बॉबी फिल्म का प्रसारण करवा दिया लेकिन जनता अटल जी को सुनने के लिए रुकी रही | वे खड़े हुए और भाषण की शुरुवात करते हुए ज्योंही कहा - 
बाद मुद्दत  के मिले हैं दीवाने , 
तो पूरा मैदान करतल ध्वनि से गूँज उठा | अगली पंक्तियों में वे बोले - 
कहने सुनने को हैं बहुत अफ़साने |  
खुली हवा में चलो कुछ देर सांस ले लें ,
कब तक रहेगी आजादी कौन जानें | और उसके बाद पूरे  रामलीला मैदान में विजयोल्लास छा गया |  आपातकाल का भय काफूर हो चूका था | अटल जी के  उस भाषण ने देश में लोकतंत्र को पुनर्जीवन दे दिया |

भारतीय संस्कृति और जीवनमूल्यों में उनकी गहरी आस्था थी | हिन्दू तन मन , हिन्दू जीवन नामक उनकी कविता उनके व्यक्तित्व का  बेजोड़ चित्रण प्रतीत होती है | बतौर प्रधानमंत्री गठबंधन सरकार चलाकर उन्होंने जिस राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया वह भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण अध्याय है | भारतीय विदेश नीति को उन्होंने नए आयाम दिए | परमाणु परीक्षण के साहसिक फैसले के बाद लगे वैश्विक आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करने की उनकी दृढ इच्छाशक्ति के कारण देश का आत्मविश्वास बढ़ा और अंततः दुनिया को भारत के प्रति नरम होना पड़ा |

विदेशों में बसे अप्रवासी भारतीय मूल के लोगों को अपनी मातृभूमि से भावनात्मक लगाव रखने के लिए उन्होंने जिस तरह प्रेरित किया वह भारत की प्रगति में बहुत सहायक हुआ | स्वर्णिम चतुर्भुज रूपी  राजमार्गों के विकास , विशेष  रूप से ग्रामीण सड़कों के निर्माण की  उनकी योजना देश की प्रगति  में क्रांतिकारी साबित हुई |

जीवन के अंतिम दशक में वे बीमारी के  कारण राजनीति और सार्वजनिक जीवन से दूर चले गए लेकिन उनके प्रति सम्मान में लेशमात्र कमी नहीं आई | मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न से भी  विभूषित किया लेकिन देश की जनता ने तो उन्हें बहुत पहले से ही सिर आँखों पर बिठा रखा था | अटल जी  भारतीय राजनीति में  एक युग के प्रवर्तक कहे जा सकते हैं | एक दलीय सत्ता के मिथक को तोड़कर उन्होंने लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत किया | यही वजह है कि उनके घोर विरोधी तक उनका जिक्र आते ही आदर  व्यक्त करना नहीं भूलते |

उन्हें गये तीन वर्ष बीत गये | भारतीय राजनीति आज जिस मोड़ पर आ पहुंची है उसमें उनका अभाव खलता है | संसदीय राजनीति में उनका योगदान इतिहास में अमर रहेगा | देश में नेताओं की भरमार है  लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उन जैसा निर्विवाद और निष्कलंक व्यक्तित्व  दूरदराज तक नजर नहीं आता | सत्ता से दूर रहकर भी जनता का विश्वास जीतने की उन जैसी क्षमता भी किसी में नहीं दिख रही |

पावन स्मृति में सादर नमन |

अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत भारत के लिए खतरे की शुरुवात



अफगानिस्तान अंततः २० साल बाद फिर से तालिबान के कब्जे में चला गया जो इस्लाम को कट्टरता के साथ लागू करने में यकीन रखते हैं | हालांकि ये मुल्क पहले भी उसके कब्जे में रहा है और उस दौर की यातनाएं अफगानी  जनता भूली नहीं है | इसीलिये गत दिवस जैसे ही तालिबान काबुल पर काबिज हुए और राष्ट्रपति – उपराष्ट्रपति ने देश छोड़ा त्योंही हजारों की संख्या में लोग अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जमा होकर  देश से बाहर जाने का प्रयास करने लगे  | हालांकि  तालिबान ने ये आश्वासन दिया था  कि किसी को डरने की जरूरत नहीं है | उनके प्रवक्ता ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा का भरोसा भी दिलाया लेकिन बीती रात काबुल हवाई अड्डे पर बिना बुर्के पहने कुछ महिलाओं को गोली मारे जाने की खबर से ये आशंका मजबूत हो चली है कि तालिबान का रवैया लेशमात्र भी नहीं बदला | राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का  देश छोड़ना  तो समझ में आता है लेकिन आम नागरिक और तमाम बुद्धिजीवी भी वहां से पलायन करने मजबूर हो गये हैं | दिल्ली की जेएनयू में पढ़ रहे अफगानी छात्र भी  वापिस लौटने से डर रहे हैं जबकि उनके वीजा खत्म होने को हैं | ये सब खबरें इस बात की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त हैं कि तालिबान की धार्मिकता आतंक की बुनियाद पर टिकी हुई है | हालांकि अमेरिका को ही इसके जन्म के लिए जिम्मेदार माना  जाता है | अतीत में अफगानिस्तान पर तत्कालीन सोवियत संघ का आधिपत्य भी रहा | दरअसल अस्सी के दशक में वहां नजीबुल्लाह के नेतृत्व में साम्यवादी रुझान वाली  सरकार के विरुद्ध इस्लामी मुजाहिदीन ने संघर्ष छेड़ दिया था  | जब ऐसा लगा कि वे नजीबुल्लाह हुकुमत को हरा देंगे तब १९७९ में सोवियत सेनाएं अफगानिस्तान में घुस आईं और गृहयुद्ध की स्थिति बन गई | जवाब में अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से मुजाहिदीनों को सैन्य प्रशिक्षण तथा हथियार और धन उपलब्ध करवाया  | १० साल चले गृहयुद्ध में लाखों लोगों की मौत हुई | आखिर में १९८९ में सोवियत सेनाएं भी लौट गईं | उसके  बाद १९९२ में मुजाहिदीनों के बढ़ते दबाव के बाद नजीबुल्ल्लाह काबुल स्थित सोवियत दूतावास में शरण लेकर बैठ गये लेकिन उन्हें वहां  से निकालकर मार  डाला गया | और इस तरह अफगानिस्तान में तालिबान हुकूमत का दौर शुरू हुआ | उसने अफगानिस्तान को कट्टर इस्लामी देश बनाने का अभियान चलाते हुए वही सब किया जो शाह पहलवी की सत्ता के पतन के बाद खोमैनी ने ईरान में किया | तालिबान का शासन २००१ तक जारी रहा | लेकिन इस दौरान वैश्विक स्तर पर पनपे इस्लामिक आतंकवाद ने अमेरिका को चुनौती दे डाली | ११ सितम्बर २००१ को न्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की दो गगन चुम्बी इमारतों को हवाई हमले में ध्वस्त करने का कारनामा अल कायदा नामक  संगठन द्वारा किये जाने के बाद अमेरिका अफगानिस्तान से नाराज हो गया क्योंकि इस संगठन का तालिबान से याराना था और अमेरिका को पता चल चुका था कि अल कायदा का मुखिया ओसामा बिना लादेन अफगानिस्तान में ही छिपा हुआ है | उसके बाद अमरीकी फौजों ने अफगानिस्तान पर हमला करते हुए तालिबान को हुकुमत छोड़ने  के लिए बाध्य कर दिया | उसके बाद से ही  ये  देश एक बार फिर गृहयुद्ध की चपेट में फंस गया | यद्यपि काबुल में अमेरिका समर्थित सरकारें बैठी रहीं और प्रजातंत्र भी  लौटा | उसके बाद वहां विकास का दौर शुरू हुआ जिसमें भारत ने   महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हुए दर्जनों प्रकल्पों को सफलतापूर्वक पूरा किया | ओसामा को तो अमेरिका ने  अफगान सीमा से सटे पाकिस्तानी क्षेत्र में मार गिराया लेकिन  तालिबान के साथ उसका संघर्ष जारी  रहा |  हालाँकि ये रहस्य आज तक अनसुलझा है कि अमेरिका से २० साल तक लड़कर उसे मैदान छोड़ देने के लिए बाध्य करने में सफल हुए तालिबान को धन , प्रशिक्षण और अस्त्र – शस्त्र कौन देता रहा ? सतही तौर पर तो पाकिस्तान पर शक की सुई घूमती है लेकिन  कई मामलों में तालिबान के साथ उसके भी विवाद हैं | पश्तो भाषा बोलने वाले अनेक सीमावर्ती कबीलाई पाकिस्तानी क्षेत्रों पर तालिबान अघोषित तौर पर कब्जा किये हुए हैं | और फिर पाकिस्तान की अपनी माली हालत भी इतनी अच्छी नहीं है  कि वह तालिबान का खर्च उठा सके | ऐसे में चीन को लेकर ये सोचा जा सकता है कि उसने  तालिबान को सहायता और संरक्षण दिया | बहरहाल काबुल में तालिबान फिर आ बैठे हैं | उनका भारत विरोधी रुख बहुत ही साफ़ है | काबुल पर कब्जा करने के पूर्व ही उनकी तरफ से भारत को सैन्य हस्तक्षेप करने पर अंजाम भुगतने जैसी चेतावनी दिया जाना उनके मन में भरे ज़हर का परिचायक है | वहां कार्यरत भारतीय नगरिकों तो निकाल लिया गया है लेकिन अफगानिस्तान में अनेक हिन्दू और सिख परिवार पीढ़ियों से रह रहे हैं | उनकी सुरक्षा भी भारत  की चिन्ताओं में है | बीते दशक में वहां  किया गया अरबों रूपये का भारतीय निवेश तालिबानी सत्ता के आने के बाद कितना सुरक्षित रह सकेगा ये कह पाना कठिन है | हालाँकि सत्ता हस्तान्तरण के लिए बनी समिति में पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई का प्रमुख बनना भारत के लिए राहत की बात है  लेकिन तालिबान का अतीत और  चरित्र धोखाधड़ी और वहशीपन भरा रहा  है और उस आधार पर ये कहना गलत न होगा कि भारत के लिए एक नया शत्रु खड़ा हो गया है जिसे चीन और पाकिस्तान का खुला समर्थन है | चीन ने तो तालिबान  का समर्थन करने की पूर्व में ही घोषणा कर रखी है | दरअसल अमेरिका के अफगानिस्तान  छोड़ने का सबसे फायदा चीन ही उठाने में सक्षम है क्योंकि रूस सहित सोवियत संघ के पुराने घटकों को तालिबान अपने लिए खतरा प्रतीत होते हैं | अभी तालिबान सरकार को मान्यता देने के बारे में  विश्व बिरादरी असमंजस में है | अमेरिका और उसके समर्थक शायद ही उससे  कूटनीतिक रिश्ते रखें | वहीं इस्लामिक मुल्कों का फैसला भी अभी तक नहीं आया है | हालांकि कतर के दोहा शहर में चली वार्ता में तालिबान के नेताओं ने महिलाओं साहित सभी नागरिकों के सम्मान और मानवाधिकारों की रक्षा करने का वचन दिया है लेकिन वह उस पर कितना कायम रहेगा ये कहना मुश्किल है | भारत के लिए  इस बदलाव से गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं | सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या अफगनिस्तान  बीते २० बरस में  हुए विकास को आगे बढ़ाने की बुद्धिमत्ता दिखाकर अपनी छवि सुधारेगा या फिर वहां शरीया के नाम पर फिर वही खूनी  खेल शुरू हो जाएगा जिसके भय से अफगानी नागरिक वतन छोड़कर भागने  बाध्य हैं | आने वाले कुछ दिनों तक इसीलिये पूरी दुनिया की निगाहें काबुल पर लगी रहेंगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 14 August 2021

अपनी बनाई जंजीरों से मुक्त हुए बिना आज़ादी अधूरी रहेगी



स्वाधीनता का ७५ वां वर्ष कल से प्रारंभ हो जाएगा | इस हेतु सरकारी स्तर पर काफी पहले से तैयारियां की जा रही हैं | १५ अगस्त को लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनकल्याण की कुछ योजनाओं के साथ ही कोरोना काल के बाद देश के समक्ष  उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के बारे में भी नीतिगत घोषणाएं कर सकते हैं | जैसा कि होता आया है ,  मौजूदा हालातों में विश्व रंगमंच पर  भारत की भूमिका के बारे में भी वे अपनी सरकार का दृष्टिकोण देश और दुनिया के सामने रखेंगे | घरेलू मोर्चे पर जो समस्याएँ हैं उनके समाधान के बारे में भी जनता उनसे सुनना चाहेगी |  आगामी वर्ष  भारत के लिए भावनात्मक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है |  ७४ साल पहले प्राप्त आजादी  के बाद  सामाजिक और आर्थिक तौर पर हुए  परिवर्तनों की समीक्षा के साथ ही भविष्य की कार्ययोजना बनाना भी आगामी वर्ष की विषय सूची में होगा | बीते ७४ वर्ष से हमारा देश संसदीय प्रजातंत्र  से संचालित है | आज का विश्व कमोबेश इस व्यवस्था को अपना चुका है जिसमें हर नागरिक को अपना मत व्यक्त करने की आजादी हासिल है | वयस्क मताधिकार के जरिये करोड़ों मतदाता ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक में अपने प्रतिनिधि भेजते हैं | इस बात का ध्यान हमारे संविधान निर्माताओं ने रखा था कि समाज के उस तबके को भी निर्णय प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जावे जो सदियों से उपेक्षित और शोषित रहा और उसे किसी भी प्रकार से अधिकार संपन्न नहीं होने  दिया गया | इसका लाभ ये हुआ कि वंचित और शोषित वर्ग का आत्मविश्वास बढ़ा और उसमें आत्मसम्मान के साथ जीने की इच्छा  जागी | सर्वविदित है कि जातिवाद के नाम पर ऊंच - नीच का भेद भारतीय समाज को टुकड़ों – टुकड़ों में बांटने का कारण बना जिसका लाभ पहले मुगलों और बाद में अंग्रेजों ने उठाते हुए सैकड़ों साल तक हमें गुलाम बनाकर रखा | महात्मा गांधी ने सामाजिक समरसता का अनुष्ठान प्रारम्भ करते हुए  छुआछूत रूपी कलंक को धोने का  जो ऐतिहासिक प्रयास किया वह बहुत  बड़ा सामाजिक परिवर्तन था | आजादी  के बाद प्रख्यात समाजवादी चिंतक  डा. राममनोहर लोहिया ने तो जाति तोड़ो जैसा  नारा तक दिया | इस सबके पीछे  सोच यही थी कि स्वाधीन भारत  एक ऐसा समाज होगा जिसमें जातिगत आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं रहेगा और विकास के अवसरों पर कुछ लोगों का एकाधिकार नहीं रहेगा | एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था की  इस कल्पना को मूर्तरूप देने के लिए संविधान में ही अनेक प्रावधान कर दिये गए थे | कालान्तर में समयानुकूल उनका और विस्तार भी किया गया | आरक्षण नामक इस व्यवस्था का उद्देश्य बहुत ही पवित्र और दूरदर्शितापूर्ण था | सदियों से प्रताड़ना सहते आये वर्ग को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने का प्रयास भारत की तकदीर और तस्वीर बदलने में सक्षम था | इसके प्रणेताओं को उम्मीद रही होगी कि आजादी के बाद एक – दो दशक के भीतर ऐसे  नए समाज की रचना की जा सकेगी जो जाति की बेड़ियों को तोड़कर मानवीयता पर आधारित होगा और जिसमें किसी एकलव्य का अंगूठा नहीं काटा जावेगा |  लेकिन आजादी के ७५ वें वर्ष में प्रविष्ट होते हुए ये सवाल हर जिम्मेदार नागरिक को झकझोर रहा है कि क्या हम वह समाज बना पाए ? और उसका उत्तर खोजने पर नजर आता है कि जाति नामक जिस जाल से देश को निकालने का लक्ष्य रखा गया था वह और भी घना होता जा रहा है और उससे निकलने के  जितने भी जतन आज तक हुए वे या तो आधे रास्ते ही दम तोड़ बैठे या फिर लक्ष्य से भटक गये | अछूतोद्धार और जाति तोड़ो का नारा लगाने वालों के अनुयायियों ने जातियों के दायरे को और बढ़ा दिया | जातियों के भीतर उपजातियां , पिछड़ों के बीच अति पिछड़े और दलितों में महादलित तलाशकर सामाजिक एकता को मजबूत करने की बजाय  छिन्न – भिन्न करने का जो महापाप हुआ  उसकी वजह से आरक्षण नामक उपाय भी  सियासत के मकड़जाल में फंसकर सामाजिक वैमनस्य और ईर्ष्या का कारण बनने लगा  | अनु. जाति और जनजाति से शुरू हुई बात कहाँ तक आ पहुँची और आगे कहाँ जाकर रुकेगी ये कोई नहीं  बता पा रहा | विदेशी सत्ता से तो हमने आजादी हासिल कर ली  किन्तु हम अपनी ही बनाई जंजीरों की पकड़ से आजाद  नहीं हो पाए ,  जो किसी विडंबना से कम नहीं है | आज देश उस दौर में आ खड़ा हुआ है जब पूरी दुनिया उसकी तरफ उम्मीदों के साथ देख रही है | महर्षि अरविन्द और स्वामी विवेकानंद ने आजादी के काफी पहले भविष्यवाणी कर दी थी कि २१ वीं सदी भारत की होगी और वह एक बार फिर दुनिया को दिशा दिखायेगा | बीते ७४ सालों में देश  ने हर क्षेत्र में अपने कदम आगे बढ़ाये हैं | ज्ञान – विज्ञान का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें हमारी उपस्थिति न हो | सपेरे और मदारी अब हमारी पहिचान नहीं रहे | धरती के गर्भ से अन्तरिक्ष की अनन्त ऊंचाइयों तक भारत की प्रशस्ति गुंजायमान है | आर्थिक और सामरिक दृष्टि से हमें विश्व के विकसित देशों के समकक्ष माना जाता है | देश की युवा प्रतिभायें पृथ्वी  के प्रत्येक हिस्से में अपनी सम्मानजनक मौजदूगी से प्रभावित कर रही हैं | भारत के प्रति बढ़ते वैश्विक विश्वास के प्रतीकस्वरूप विदेशी मुद्रा का भण्डार निरंतर बढ़ता ही जा रहा है | केन्द्र में राजनीतिक स्थायित्व से भी अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत को महत्व मिलने लगा है | लेकिन जातियों में विभाजित होते जा रहे देश के भविष्य को लेकर जो चिंताएं मन – मष्तिष्क में उठ रही हैं वे डराने वाली हैं | आजादी की ७५ वीं जयंती का जश्न कल से शुरू होने जा रहा है किन्तु सबसे बड़ा और यक्ष प्रश्न ये है कि क्या भारतीय समाज जातीय संघर्ष में फंसकर उसी तरह विभाजित तो नहीं  होने जा रहा जिसकी वजह से अतीत में  विदेशी शक्त्तियाँ यहाँ आने का दुस्साहस कर सकीं | आज भी  देश शत्रुओं से घिरा हुआ है जो हमारी किसी भी कमजोरी का लाभ उठाने में नहीं चूकेंगे | जातियों के नाम पर  पैदा हुए नेता कबीलों के सरदारों की तरह आचरण करते दिख रहे हैं और राजनीति उन्हें सिर पर बिठाने पर आमादा है क्योंकि वे वोट बैंक के ठेकेदार जो  हैं | दुर्भाग्य से बीते सात दशक में चुनाव जीतने के लिए किये जाने हथकंडों ने बहुत नुकसान किया जिसकी वजह से भ्रष्टाचार जड़ों तक जा पहुंचा है | ये अवसर उन विसंगतियों को दूर करने के लिए कार्ययोजना बनाने का है जिनके कारण हमें आज भी आजादी अधूरी प्रतीत होती है | आइये , हम सब मिलकर उस भारत के निर्माण का संकल्प लें जो सामाजिक एकता और सद्भाव के साथ आगे बढ़ते हुए विश्व का मार्गदर्शन कर सके | जरूरत है अपनी उन अंतर्निहित शक्तियों और गुणों के पुनर्जागरण की जिनको भुला देने के कारण हमें गुलामी का जहर पीना पड़ा था |

स्वाधीनता दिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ |

 रवीन्द्र वाजपेयी



Friday 13 August 2021

कमंडल के बाद अब मंडल पर भी भाजपा की नजर



 अनु. जाति और जनजाति के लोगों को आरक्षण देने का प्रावधान संविधान निर्माताओं द्वारा ही कर लिया गया था |  लेकिन 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की  सरकार ने  दायरा बढ़ाकर उसमें अन्य पिछड़ी जातियों को भी शामिल करते हुए उनके लिए 27 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित कर दिया | दरअसल 1977 में बनी जनता पार्टी सरकार ने जो मंडल आयोग बनाया था उसने अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की सिफारिश की थी | लेकिन वह सरकार ज्यादा चली नहीं और   सिफारिश ठन्डे बस्ते में चली गई | 1990 में बनी जनता दल सरकार में भी मंडल समर्थक नेताओं का दबदबा था | उनको ये एहसास भी था कि वह सरकार  ज्यादा चलने वाली नहीं थी | लिहाजा उन्होंने समय गंवाए बिना अन्य पिछड़ी जातियों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था करवा दी | उस सरकार को भाजपा बाहर से समर्थन  दे रही थी | उसे मंडल आयोग की सिफ़रिशों के लागू होने का राजनीतिक परिणाम समझ में आ गया था | इसीलिये उसने भी राममंदिर आन्दोलन तेज करते हुए सोमनाथ से अयोध्या तक  लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा निकालने का दांव चल दिया | बिहार के समस्तीपुर में लालू यादव की सरकार ने ज्योंही  उनको गिरफ्तार किया त्योंही  पूर्व घोषणानुसार भाजपा ने विश्वनाथ सिंह सरकार से समर्थन वापिस ले लिया | उसके बाद का दौर भारी राजनीतिक उथल - पुथल का रहा |  सरकारें बनती – बिगड़ती रहीं , चुनाव दर चुनाव भी हुए | लेकिन उस सबके बीच भाजपा राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आकर कांग्रेस का विकल्प बन बैठी और  सवर्ण जातियों को उसमें अपना भविष्य दिखने लगा | लेकिन केंद्र की पूर्ण सत्ता  उसे तब ही हासिल हो सकी जब उ.प्र और बिहार ही नहीं , दूसरे राज्यों में भी अन्य पिछड़ी जातियों के अलावा अनु.जाति और जनजाति वर्ग में  उसे जबरदस्त समर्थन मिला | इसका सबसे बड़ा प्रमाण उ.प्र है जहाँ पिछले दो लोकसभा और एक विधानसभा चुनाव में भाजपा ने सपा और बसपा का सफाया कर दिया | आदिवासी बहुल म.प्र , झारखंड , उड़ीसा , महाराष्ट्र आदि में भी उसे जो कामयाबी मिली उसका कारण वही जातिगत सामाजिक समीकरण रहे जिनके बल पर मंडल  समर्थक राजनीतिक दलों को उभरने का अवसर मिला था  | भाजपा का प्रभावक्षेत्र बढ़ने के पीछे उसकी हिंदूवादी छवि मानी जाती रही है | वहीं उसकी  मातृसंस्था रास्वसंघ के विरोधी उसे  ब्राह्मणवादी बताते रहे | 2015 के  बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान संघ प्रमुख डा. मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा किये जाने जैसा बयान दे दिया जिसे लालू प्रसाद यादव ने लपककर ये प्रचार किया कि संघ और भाजपा आरक्षण विरोधी हैं | हालाँकि 2020 के चुनाव में नीतिश कुमार के साथ मिलकर लड़ी भाजपा ने सबसे ज्यादा सीटें जीतकर अपना प्रभाव साबित कर दिया | लेकिन उ.प्र की योगी सरकार के शासन में कुछ ब्राह्मण अपराधी सरगनाओं के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने के बाद उस सरकार को ब्राह्मण विरोधी प्रचारित किया जाने लगा | आगामी वर्ष फरवरी में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्दे नजर बसपा और सपा ने तो बाकायदे ब्राह्मण सम्मलेन आयोजित करते हुए भाजपा के सबसे प्रतिबद्ध मतदाताओं में सेंध लगाने की चाल चली | इस खतरे को भांपते हुए भाजपा ने संसद के मॉनसून सत्र में अन्य पिछड़ी जाति संशोधन विधेयक पारित करवा लिया | जिसके आधार पर अब राज्य सरकारों को अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में और जातियों को जोड़ने का अधिकार होगा | इस संशोधन का कांग्रेस  सहित बाकी विपक्ष ने भी बिना शर्त समर्थन  किया जबकि सत्र के शेष समय हंगामा किया जाता रहा | इस निर्णय के उपरान्त  रास्वसंघ के सरकार्यवाह दत्तात्रय होसबोले का ये बयान आ गया  कि जब तक आरक्षण आवश्यक है तब तक उसे जारी रखा जाना चाहिये |  उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि बिना दलितों के देश का इतिहास ही  अधूरा है | संघ प्रमुख भी हाल के वर्षों में इसी आशय के बयान देते रहे हैं | संसद में पारित हुए ताजा संशोधन को लेकर भाजपा और संघ विरोधी राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि  ये दांव मंडल समर्थक राजनीतिक ताकतों को पूरी तरह धराशायी करने के लिए चला गया है | संघ की जो राष्ट्रीय बैठक कुछ समय पूर्व चित्रकूट में सम्पन्न हुई थी उसमें भी ये रणनीति बनाई गई थी कि संघ और भाजपा को सवर्ण समर्थक अपनी छवि से बाहर निकलना बहुत जरूरी है | इसी के साथ ही उ.प्र में सवर्ण जातियों की संभावित नाराजगी से होने वाले नुकसान की भरपाई अन्य पिछड़ी जातियों में सपा के बचे खुचे प्रभाव को नष्ट करते हुए किये जाने की योजना भी है | हालांकि जैसा कि अनुमान है सवर्ण मतदाता अभी भी भाजपा को ही अपना संरक्षक मान रहे हैं | अयोध्या में राममंदिर का निर्माण तेजी  से चलने की वजह से उसकी साख भी बची रह गई | लेकिन संघ का सोचना ये है कि समूचे हिन्दू समाज को एकजुट किया जावे और उसके लिये उसकी आधी से ज्यादा आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली अन्य पिछड़ी जातियों को साधना जरुरी है | संघ को ये भी समझ में आ गया है कि धारा 370 और राममंदिर अब पहले जैसे  चुनावी मुद्दे नहीं बन सकेंगे | इसके अलावा मौजूदा हालातों में सत्ता विरोधी रुझान भी  नजर आने लगा है | बंगाल के कड़वे अनुभव से भी संघ और भाजपा का नेतृत्व सतर्क है | यही कारण है कि कमंडल और सवर्ण समर्थक छवि से बाहर आकर पार्टी अब पूरे हिन्दू समाज को अपने साथ जोड़ना चाह रही है | उ.प्र विधानसभा का आगामी चुनाव सही मायनों में 2024 के  लोकसभा चुनाव की झलक दे देगा | इसीलिये विपक्षी दलों की संभावित एकता में छोटी  – छोटी जातिवादी राजनीतिक पार्टियों की भूमिका को प्रभावहीन करने के लिए ही भाजपा ने मंडल समर्थक पार्टियों के आधार को हिलाने का प्रयास किया है | इसका क्या असर होगा ये तो  भविष्य ही बतायेगा क्योंकि आरक्षण का खुलकर समर्थन करने की नीति उसकी परम्परागत समर्थक  ऊंची जातियों को उससे दूर कर सकती है । लेकिन संघ और भाजपा के भीतर ये अवधारणा तेजी से घर कर चुकी है कि सत्ता में बने रहने के लिए जातिगत समीकरणों को अपने पक्ष में मोड़ना नितांत आवश्यक है क्योंकि जाति भारतीय समाज में उस अमरबेल की तरह है जिसे जितना काटो वह उतनी ही बढ़ती है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 12 August 2021

सबसे घटिया सांसदों का भी चयन हो : संसद पर होने वाले खर्च का औचित्य सवालों के घेरे में



 
राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू सदन में ये कहते हुए रो पड़े कि बीते दिन हुए हंगामे से दुखी होकर रात भर नहीं सो सके | वहीं लोकसभा के अध्यक्ष ओम  बिरला ने सत्र स्थगित करने के बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी , कांग्रेस की कार्यकारी  अध्यक्ष सोनिया गांधी , लोकसभा में नेता अधीर रंजन चौधरी सहित विपक्ष के बाकी नेताओं को एक साथ बिठाकर भविष्य में  सदन की कार्यवाही सुचारु तरीके से संचालित करने के बारे में चर्चा की | श्री नायडू की नाराजगी से ये संकेत भी मिला कि ज्यादा हंगामा करने वाले कुछ  सदस्यों के विरुद्ध वे कड़ी कार्रवाई कर सकते हैं | संसद के मानसून सत्र में कहने को तो सरकार द्वारा अनेक विधेयक पारित करवा लिए गये लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग संशोधन को छोड़कर बाकी  किसी पर भी न बहस हुई और न चर्चा | दोनों सदनों में आखिरी दिन तक सिवाय हंगामे के कुछ नहीं हुआ | सत्र की समाप्ति  के बाद एक बार फिर बताया जा रहा है संसद को चलाने में प्रति मिनिट  और पूरे सत्र पर कितने करोड़ खर्च हो गए | वैसे संसद में हंगामा , बहिर्गमन , नारेबाजी नई बात नहीं है , जिसकी देखा - सीखी विधानसभाओं में भी वैसा ही नजारा देखने मिलने लगा | सदन नहीं चलने देने के लिए सत्ता पक्ष और विरोधी दल एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करते हुए खुद को बेकसूर बताते हैं लेकिन असलियत यही है कि दोनों इस मामले में बराबर के दोषी हैं | संसद के मानसून सत्र को ही लें तो  विपक्ष ने पेगासस जासूसी मामले में चर्चा करवाने की जिद पकड़कर सदन की कार्यवाही नहीं चलने दी | दूसरी तरफ सत्ता पक्ष ने उसकी इस कमजोरी को भांपकर बहस नहीं करवाने की जो रणनीति अपनाई उसमें विपक्ष उलझ गया | उसकी सबसे बड़ी विफलता ये रही कि सरकार  ने तो अपना विधायी कार्य पूरी तरह संपन्न करवा लिया और बड़ी ही चतुराई से हंगामे के बीच भी आनन – फानन  तमाम विधेयक सदन से विधिवत पारित करवा लिए किन्तु विपक्ष न जासूसी के मुद्दे पर बहस करवा सका और न ही कृषि कानून , कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हुई जनहानि , पेट्रोल – डीज़ल के अलावा अन्य जरूरी चीजों की महंगाई जैसे मुद्दों पर ही  सरकार को घेर सका | यदि वह पेगासस प्रकरण को पकड़कर नहीं बैठा होता तब  सरकार को बात – बात पर घुटनाटेक करवा सकता था | बावजूद इसके कि लोकसभा के साथ ही राज्यसभा में भी सरकार के पास बहुमत होने से वह विपक्ष के चक्रव्यूह से सुरक्षित बाहर निकलने में सक्षम है , विपक्ष के पास शब्दबाणों से हमले की जो ताकत है उसके उपयोग से वह जनता को अपनी मौजूदगी का एहसास करवा सकता था | इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि आजकल सत्ता पक्ष बहुमत के बाद भी सदन में बहस से बचता है और मौका मिलते ही सत्रावसान करने की चाल चलकर विपक्ष को असहाय साबित कर देता है | संसद के मानसून सत्र का चलना न चलना एक तरह से बराबर ही रहा | विपक्ष के पास अब सरकार को कोसने के अलावा और कुछ बचा ही नहीं है किन्तु संसद के माध्यम से जनता की तकलीफों को  पेश करने का अवसर गंवाने के पीछे उसकी अपरिपक्व और गैर जिम्मेदार नीति ही रही | अब सवाल ये है कि  जनता के कर से चलने वाली संसद को ठप्प करने का ये सिलसिला कब तक जारी रहेगा  ? जो  सदस्य लोकतंत्र का मंदिर कहलाने वाली संसद या विधानसभा की गरिमा तार – तार करते हैं उनको महज एक या कुछ दिन के लिए निलम्बित करने का रत्ती भर भी असर नहीं होता | ये कहना अच्छा तो नहीं लगता लेकिन कुछ सदस्य बेशर्मी की हद तक उद्दंड हो चले हैं | उनकी पार्टी के नेता उन्हें न टोकते हैं और न ही रोकने की कोशिश करते हैं | जिससे लगता है हंगामेबाजों को प्रोत्साहन मिलता है | गत दिवस लोकसभा अध्यक्ष के बुलावे पर सोनिया जी सहित बाकी विपक्षी  नेता भले ही आ  गये हों लेकिन किसी ने भी सत्र का अधिकांश समय बर्बाद होने पर अफसोस जताया हो , ऐसा सुनने  नहीं मिला | लोकतंत्र के रखवालों का ये रवैया  कुत्ते की पूंछ के सीधे नहीं होने जैसा है | जो मतदाता सांसदों और विधायकों  का चुनाव करते हैं  उनमें से कोई सदन की दर्शक दीर्घा में नारेबाजी या हंगामा कर दे तो उसे जेल भेज दिया जाता है | लेकिन उसके चुने हुए सांसद या विधायक गर्भगृह में नारेबाजी  करें , आसंदी पर कागज  फेंकें , विधेयक छीनकर फाड़ दें और टेबिल पर खड़े होने जैसा आशोभनीय आचरण  करें तो उन्हें ज्यादा से ज्यादा  कुछ समय तक के लिए निलम्बित किये जाने के अलावा और कुछ नहीं किया जाता | संसद में हर साल सर्वश्रेष्ठ सांसद चुने जाते हैं और उनका सम्मान भी किया जाता है | लेकिन अब समय आ गया है कि सदन के भीतर सबसे घटिया व्यवहार  करने  वाले सांसदों को चुनकर उनकी सार्वजनिक निंदा जैसा आयोजन भी किया जाना चाहिए | संसद का सत्र यदि इसी तरह चलाना है तब बेहतर है उसे एक – दो दिन के लिए ही बुलाया जाए जिससे संवैधानिक बाध्यता पूरी हो सके और उसी में सरकार अपने सभी विधेयक पटल पर रखकर बहुमत  से पारित करवा ले | रही विपक्ष की बात तो उसे जब सदन में चर्चा करनी ही नहीं तो करोड़ों की बर्बादी का औचित्य ही क्या  है ? 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 11 August 2021

लोकतंत्र : अपराधियों का , अपराधियों द्वारा और अपराधियों के लिए !



राजनीति के  अपराधीकरण पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी चिंता व्यक्त्त करने के साथ ही ये भी बता दिया कि वह इस मामले में असहाय है | सरकार के अधिकार क्षेत्र में दखल देने से परहेज करते हुए उसने कहा कि वह केवल कानून बनाने वालों की अंतरात्मा से अपील कर सकता है |  हालाँकि न्यायालय ने इस बात पर नाराजगी व्यक्त की कि राजनीतिक दल जिन उम्मीदवारों को टिकिट देते हैं उनके आपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी का समुचित प्रचार नहीं किया जाता | भविष्य में 48 घंटे के भीतर तत्सम्बन्धी जानकारी देना अनिवार्य होगा | राज्य सरकारों द्वारा जनप्रतिनिधियों पर चल रहे  आपराधिक  प्रकरण वापिस लेने के पूर्व सम्बन्धित उच्च न्यायालय की अनुमति को भी सर्वोच्च न्यायालय ने  अनिवार्य कर दिया है | राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले  तत्वों की बढ़ती संख्या पर तीखी टिप्पणी करते हुए उसने  कहा कि ऐसे  नेताओं को क़ानून बनाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए | देश की  सर्वोच्च न्यायिक आसन्दी से निकली उक्त सभी बातें पूरे देश के संज्ञान में हैं | आम आदमी तक ये देखकर दुखी और परेशान है कि उसके लिए  साफ़ – सुथरी छवि के जनप्रतिनिधियों को चुनना कठिन होता जा रहा है | अनेक सीटों पर प्रमुख उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के होने से नागनाथ और सांपनाथ में से किसी एक का चयन करना  मजबूरी बन जाती है | नेताओं द्वारा किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने के लिए अपराधी तत्वों का सहयोग लेने से राजनीति का अपराधीकरण प्रारम्भ हुआ | शुरू – शुरू में नेताओं की मदद करने वाले अपराधियों को बाद में ये लगने लगा कि जब वे दूसरों को चुनाव जितवा सकते हैं तब क्यों न खुद ही विधानसभा और लोकसभा में जाकर बैठ जाएँ | धीरे – धीरे  राजनीति और अपराधियों में इतना घालमेल हो गया कि उनमें अंतर करना कठिन होने लगा | सर्वोच्च न्यायालय काफी पहले से इस विषय में अपनी चिंता व्यक्त करता आ रहा है | चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड का उल्लेख नामांकन पत्र में किये जाने के साथ ही  समाचार माध्यमों के जरिये उनकी जानकारी मतदाताओं को देने की बाध्यता भी उत्पन्न की | लेकिन कानून की नजर में कोई आरोपी तब तक अपराधी  नहीं कहलाता  जब तक न्यायालय में  दोषी साबित न हो जाये | इसी प्रावधान का लाभ लेते हुए कुख्यात अपराधी तत्व चुनाव मैदान में उतरने लगे और मतदाता भी उनके खौफ से बचने के लिए उनको जिताने मजबूर होते गये | हत्या , अपहरण , डकैती जैसे संगीन मामलों में आरोपी होने के कारण जेल में बंद एक सांसद को कड़ी सुरक्षा के बीच  राष्ट्रपति चुनाव में मतदान हेतु  संसद भवन लाये जाने जैसे दृश्य लोकतंत्र को कलंकित करने के लिए पर्याप्त हैं | सर्वोच्च न्यायालय  के इस अभिमत से भला कौन असहमत होगा कि आपराधिक छवि वाले नेताओं को कानून बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती | लेकिन ये सवाल  भी उठता  है कि आपराधिक छवि का निर्धारण कौन और कैसे करेगा ? कुख्यात डकैत स्व. फूलन देवी के उ.प्र की मिर्जापुर सीट से लोकसभा के लिए चुने जाने का मुख्य कारण वैसे तो  उस क्षेत्र में उनके सजातीय  मल्लाहों का बाहुल्य होना था | लेकिन समाजवादी पार्टी  उम्मीदवार न बनाती तब शायद वे नहीं जीत पातीं | हालांकि अनेक कुख्यात अपराधी सरगना निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर भी जीतकर आते रहे हैं लेकिन संसद और विधानसभाओं ही नहीं वरन नगरीय निकायों तक में प्रमुख राजनीतिक दल उनको उम्मीदवारी देने लगे  हैं | संसदीय लोकतंत्र के लिए ये स्थिति निश्चित रूप से शोचनीय है क्योंकि जिस देश की कानून बनाने वाली संस्थाओं में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग बैठने लगें वहां के समाज में सज्जनों की स्थिति दांतों के बीच जीभ जैसी होकर रह जाती है | क्षेत्रीय दलों पर अक्सर ये आरोप लगा करता था कि वे अपराधी  तत्वों को चुनाव में उम्मीदवार बनाते हैं , परन्तु  अब तो भाजपा और कांग्रेस  जैसे राष्ट्रीय दल भी आपराधिक व्यक्तियों को सांसद और विधायक बनाने में संकोच नहीं करते क्योंकि उनके लिए उम्मीदवार की छवि से ज्यादा उसकी चुनाव जीतने की क्षमता  महत्वपूर्ण होने लगी है | पहले धनकुबेरों को इसी वजह से उम्मीदवार बनाया जाता था लेकिन उसके बाद बात आपराधिक तत्वों तक जा पहुँची जिसके कारण राजनीति का चेहरा बदसूरत होते – होते अंततः विकृत हो गया | सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस जो पीड़ा व्यक्त की वह सही मायनों में उन करोड़ों देशवासियों की  अभिव्यक्ति है जो लोकतंत्र की पवित्रता को बचाए रखने के लिए निरंतर चिंता में डूबे रहते हैं | अमेरिका के महान राष्ट्रपति स्व. अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि वह  जनता की , जनता द्वारा और जनता के लिए बनी शासन प्रणाली है | लेकिन हमारे देश में सत्ता की  वासना ने उस परिभाषा को बदलकर अपराधियों की  , अपराधियों द्वारा और अपराधियों के लिए प्रचलित शासन प्रणाली बनाने की परिस्थिति निर्मित कर दी है | ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय की नसीहतों पर अमल होने की उम्मीद करना व्यर्थ है क्योंकि उसकी  स्थिति घर के उस बुजुर्ग की तरह हो गई  है जिसकी बात सुनने का नाटक तो सभी करते हैं लेकिन मानता कोई नहीं है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 10 August 2021

क्या विपक्ष की जिम्मेदारी केवल वोट बैंक से जुड़े क़ानून का समर्थन मात्र है



संसद के मानसून सत्र में पहले दिन से ही विपक्ष हंगामे पर उतारू है | पेगासस जासूसी मामले को लेकर वह संसद के कामकाज में लगातार व्यवधान डाल रहा है | इस वजह से रोज सदन की कार्रवाई स्थगित हो जाती है | ठीक से बहस नहीं हो पाने के कारण अनेक विधेयकों को बिना चर्चा के ही पारित कर दिया गया | गत दिवस राज्यसभा में जब  लद्दाख में केन्द्रीय विश्वविद्यालय खोलने का विधेयक  ध्वनि मत से पारित किया गया तब भी विपक्षी सदस्य बहिर्गमन कर रहे थे | इसी तरह लोकसभा में भी  हंगामे के बीच ही तमाम महत्वपूर्ण विधेयकों को मंजूरी दे दी गई | लेकिन जब सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग  ( ओबीसी ) सम्बन्धी संशोधन विधेयक पेश किया तब कांग्रेस ने इसका समर्थन करने का ऐलान कर दिया | सदन में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी ने विपक्ष की जिम्मेदारी का हवाला देते हुए उक्त विधेयक को पारित करवाने में सरकार का साथ देने  का आश्वासन दे डाला | बाकी विपक्षी  पार्टियाँ भी इसको पारित कराने के लिए तैयार हैं जिसके कानून बन जाने पर  राज्य सरकारें अन्य पिछड़ी जातियों की सूची  स्थानीय आधार पर बना सकेंगी | सर्वोच्च न्यायालय द्वारा महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को अवैध करार दिए जाने के बाद जो स्थितियां उत्पन्न हुईं उनको दृष्टिगत रखते हुए केंद्र सरकार यह विधेयक लेकर आई है | हालाँकि इसके पीछे पिछड़ी जातियों के उत्थान का उद्देश्य न होकर विशुद्ध वोट बैंक की राजनीति है | अन्य पिछड़ी जातियों की जनगणना कराये जाने के चौतरफा दबाव के साथ ही उ.प्र विधानसभा के आगामी चुनाव में पिछड़ी जातियों के वोटों की फसल काटने की गरज से उक्त विधेयक इसी सत्र में पेश करने की जल्दबाजी की गई | इसके पारित होने के बाद चुनाव  वाले राज्य नई जातियों को अन्य पिछड़ी जातियों के सूची में शामिल कर उनका राजनीतिक तुष्टीकरण कर सकेंगे | सवाल ये है कि बाकी  जो विधेयक  संसद में  हंगामे के दौरान बिना किसी भी तरह की चर्चा के ही पारित हो गये,  उनके बारे में विपक्ष इतना लापरवाह क्यों रहा ? क्या उनका देश और जनता से कोई सरोकार नहीं था ? लद्दाख जैसे पिछड़े इलाके में केंद्रीय विवि खोलने संबंधी विधेयक का समर्थन करने की बजाय विपक्ष द्वारा सदन छोड़कर चला जाना बेहद गैर  जिम्मेदाराना  कदम ही कहा जाएगा | ऐसे में अधीर रंजन का ये कहना कि हम विपक्ष की जिम्मेदारी समझते हैं , हास्यास्पद है | अन्य पिछड़ी जातियां चूँकि अब वोट बैंक का हिस्सा बन चुकी हैं और उन जाति समूहों के नेता वोटों के ठेकदार हैं इसलिये न सिर्फ कांग्रेस अपितु शेष विपक्षी दल भी पैगासस जासूसी मामले में बहस की जिद पूरी नहीं होने के कारण संसद की कार्यवाही बाधित करने के निर्णय से पीछे हटकर अन्य पिछड़ा वर्ग संशोधन विधेयक पर सरकार का साथ देने एक पैर पर खड़े नजर आ रहे हैं |  मौजूदा सत्र में केंद्र सरकार ने अनेक ऐसे विधेयक पारित करवाए जिनका आर्थिक और सामजिक क्षेत्र पर काफी असर पड़ेगा | विपक्ष ने इन विधेयकों का न तो समर्थन किया और न ही विरोध क्योंकि वह अपनी मांग पूरी हुए बिना सदन को न चलने देने की रणनीति पर चलता रहा | चूँकि उन  विधेयकों का चुनावी राजनीति से सीधा सम्बन्ध नहीं है इसलिए विपक्ष की नजर में वे महत्वहीन समझे गए परन्तु पिछड़ी जातियों के बारे में ज्योंही संशोधन विधेयक लाया गया त्योंही  अकड़ खत्म हो गई | इस प्रकार उसकी दोहरी भूमिका एक बार पुनः उजागर हो गई | होना तो ये चाहिए था कि जितने भी विधेयक इस सत्र में पारित हुए उन पर विपक्ष का अभिमत भी देश को ज्ञात होता  | उसे इस बात का जवाब  देना चाहिए कि क्या उसकी जिम्मेदारी केवल अन्य पिछड़ा वर्ग से जुड़े संशोधन विधेयक को पारित करवाना है और उसके पूर्व पारित हुए लगभग दर्जन भर विधेयक अनुपयोगी या अर्थहीन थे ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

 

Monday 9 August 2021

खेलों का उज्जवल भविष्य : बशर्ते पूरा ध्यान पदक रूपी चिड़िया की आंख पर रहे



टोक्यो ओलम्पिक गत दिवस संपन्न हो गए | कोरोना के कारण यह आयोजन एक वर्ष विलम्ब से  हुआ और वह भी  बिना दर्शकों के  खाली पड़े स्टेडियम में | हालाँकि टीवी के जरिये पूरी दुनिया में विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं का प्रसारण  खेल प्रेमियों ने देखा किन्तु खिलाड़ियों को  दर्शकों की  अनुपस्थिति में अपना श्रेष्ठतम प्रदर्शन करना अटपटा लगता है क्योंकि उनकी तालियाँ उनका उत्साह्वर्धन करती हैं  | गत वर्ष तो ये लगा था कि ये शायद नहीं हो सकेगा लेकिन जापान की संकल्पशक्ति आभिनंदन की  पात्र है  जिसकी वजह से बहुत ही विषम परिस्थितियों में विश्व का सबसे बड़ा गैर पेशेवर आयोजन सफलतापूर्वक हो सका | कोरोना की दूसरी लहर के कारण ये आशंका भी थी कि विभिन्न देश खिलाड़ियों को संक्रमण से बचाने के लिए  टोक्यो जाने की अनुमति नहीं देंगे किन्तु ऐसा करने से अनेक ऐसे खिलाड़ी ओलम्पिक में भाग लेने से वंचित हो सकते थे जो बढ़ती आयु की वजह से 2024 में फ्रांस  की राजधानी पेरिस में होने वाले ओलम्पिक खेल में नहीं जा पाते | इसके अलावा जो  खिलाड़ी बीते चार – पांच साल से कठोर  परिश्रम करते  आ रहे थे उनके लिए भी ओलम्पिक  रद्द होना किसी सपने के टूटने जैसा हो जाता | ये सब देखते हुए टोक्यो ओलम्पिक का सफल आयोजन दुनिया भर के खेल प्रेमियों और खिलाड़ियों  के लिए उत्साहवर्धक साबित हुआ | अपवाद स्वरूप कोई विवाद हुआ हुआ तो बात अलग वरना पूरे आयोजन में बेहतर प्रबन्धन और खेल भावना ने प्रभावित किया | अमेरिका ने जहां पदक तालिका में अपना वर्चस्व बनाये रखा वहीं चीन ने दूसरा स्थान हासिल कर ये दिखा दिया कि आर्थिक प्रगति के साथ ही उसने खेलों में भी विश्वस्तरीय हैसियत बना ली है | जहां भारत का सवाल है तो उसने इस बार सात पदक जीतकर उल्लेखनीय सफलता हासिल की | सबसे बड़ी बात रही पहली बार किसी एथलीट ने स्वर्ण पदक प्राप्त किया | भाला फेंक में नीरज चोपड़ा ने ये उपलब्धि हासिल कर पूरे  देश को हर्षित  होने  का अवसर दिया | दो रजत और चार कांस्य पदक के साथ भारत पदक तालिका में 48 वें स्थान पर रहा | हालाँकि पूर्वापेक्षा ये स्थिति उत्साहित करती है | विशेष रूप से इसलिए क्योंकि हमारे अनेक खिलाड़ी अंतिम चार तक पहुंचे | महिला हॉकी टीम भी  भले ही पदक से वंचित रही लेकिन पूरी प्रतियोगिता में उसका प्रदर्शन शानदार रहा जिसकी वजह से भविष्य में उससे उम्मीदें की जा सकती हैं | पुरुष हॉकी टीम ने 21 साल बाद देश को पदक दिलवाकर उस अतीत की  स्मृतियाँ ताजा कीं जब हॉकी का स्वर्ण पदक और भारत समानार्थी हुआ करते थे | हालाँकि मुक्केबाजी , तीरंदाजी , कुश्ती  और निशानेबाजी में कुछ और पदक आने से रह गए परन्तु इस ओलम्पिक की सबसे बड़ी उपलब्धि भारत के लिहाज से ये रही कि  निजी खेलों में भी  हमारे खिलाड़ियों ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ प्रदर्शन किया जिसमें उन्हें मिले प्रशिक्षण का खासा योगदान था | केंद्र सरकार ने पिछले ओलम्पिक के बाद से ही टोक्यो के आयोजन हेतु खिलाड़ियों को हर तरह से प्रोत्साहित करने का योजनाबद्ध प्रयास किया | उनको  देश – विदेश में महंगे प्रशिक्षकों से मिले मार्गदर्शन का लाभ भी देखने मिला | बीते कुछ  सालों में राज्य सरकारें भी खेलों को प्रोत्साहित करने पर ध्यान दे रही हैं | यही वजह है कि पंजाब और हरियाणा के अलावा उत्तर पूर्वी राज्यों सहित कुछ ऐसे राज्यों से भी खेल प्रतिभाएं निकलकर आने लगी हैं जिनकी आर्थिक स्थिति तुलनात्मक दृष्टि से कमतर  है | उदाहरण के लिए उड़ीसा का खेलों में कुछ स्थान नहीं माना जाता किन्तु वहां के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने हॉकी टीमों के प्रशिक्षण सहित बाकी खर्च उठाकर जो योगदान दिया उसकी पूरे देश में प्रशंसा हो रही है | इस उदाहरण से यदि बाकी मुख्यमंत्री भी प्रेरणा लेते हुए पेरिस ओलम्पिक के लिए अभी से  खिलाड़ियों  और टीमों को आर्थिक सहयोग के साथ ही सुरक्षित भविष्य का आश्वासन दें तो बड़ी बात नहीं अगले आयोजन में भारत पदक तालिका में और ऊंचा स्थान बना सके | म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान  द्वारा पदक नहीं मिल पाने  के बावजूद महिला हॉकी टीम के  प्रत्येक खिलाड़ी को 31 -31 लाख देने का जो ऐलान  किया गया वह भी अनुकरणीय है | बेहतर हो उद्योग जगत भी इस दिशा में आगे आये और खेलों में रूचि रखने वाले लड़के – लड़कियों को संरक्षण और सहायता प्रदान करे जिससे सरकारों का बोझ कम हो | ये अच्छी बात है कि पिछले कुछ वर्षों में देश के भीतर क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों के प्रति उदीयमान खिलाड़ियों की रूचि बढ़ी है | जीतने वालों के अलावा ओलम्पिक में भाग लेने वाले अन्य खिलाड़ियों को भी पुरस्कार तथा नौकरी दिए जाने की नीति से नई पीढ़ी के मन में ये धारणा तेजी से स्थापित होती जा रही है कि  खेलों में भी  भविष्य बनाया जा सकता है | ओलम्पिक में पदक जीतने वालों पर जिस तरह से धनवर्षा हुई उससे खिलाड़ियों को ये एहसास हुआ कि केवल क्रिकेट में ही पैसा नहीं है | टोक्यो ओलम्पिक में जीतने वाले खिलाड़ियों अथवा टीम के साथ ही पदक के बेहद करीब पहुंचने वालों को भी  जिस तरह से प्रशंसा और प्रोत्साहन मिला वह शुभ संकेत है | प्रसन्नता और आनंद  को विकास का आधार मानने की जो नई अवधारणा वैश्विक स्तर पर स्थापित हो रही है उसमें खेलों का भी बड़ा योगदान है | 1983 में  क्रिकेट का विश्वकप जीतने के बाद भारत का आत्मविश्वास इस हद तक बढ़ा कि आज उसके बिना विश्व क्रिकेट की कल्पना तक नहीं की जा सकती | ठीक वैसे ही टोक्यो ओलम्पिक में हमारे खिलाड़ियों ने जो उपलब्धियां अर्जित कीं वे भविष्य में और ज्यादा सफलताओं का आधार बन सकती हैं | लेकिन उसके लिए अर्जुन की तरह पदक रूपी  चिड़िया की आँख  पर  ही  समूचा ध्यान केन्द्रित करना होगा |

- रवीन्द्र वाजपेयी


 

Saturday 7 August 2021

किसान आन्दोलन : बड़ी मुश्किल में हैं अब किधर जाएं.....



देश की संसद से बहिर्गमन कर विपक्ष के नेतागण गत दिवस कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली के जंतर – मंतर पर चल  रही किसान संसद में जा पहुंचे | उनको उम्मीद रही होगी कि किसान आन्दोलन के  कर्ता  – धर्ता उनको हाथों – हाथ उठाएंगे , लेकिन हुआ उलटा | किसान संसद के आयोजकों ने राहुल गांधी सहित तमाम विपक्षी नेताओं को न मंच  पर बैठने दिया  और न ही उन्हें भाषण का अवसर मिला | उनके  पहुंचते ही मंच से सभी नेताओं को दर्शक दीर्घा में बैठने कह दिया गया | यद्यपि ये पहली मर्तबा नहीं हुआ | दरअसल शुरू से ही किसान नेता इस बात के प्रति सतर्क रहे कि उनके आन्दोलन  पर किसी राजनीतिक दल की  छाप न लग जाये | हालाँकि आन्दोलन की प्रथम पंक्ति के नेताओं और रणनीतिकारों में योगेन्द्र यादव जैसे लोग भी हैं जो आम आदमी पार्टी से निकाल बाहर किये जा चुके हैं | उन्होंने अपनी एक पार्टी भी बनाई थी किन्तु उसको जनसमर्थन नहीं मिलने से श्री यादव का हौसला पस्त हो गया और इसीलिये वे किसान आन्दोलन में पूरी ताकत से कूदकर उसके प्रमुख रणनीतिकार बन बैठे | राजनीतिक नेताओं को आन्दोलन के मंच से दूर रखने का निर्णय भी उन्हीं के दिमाग की उपज है | शायद यही कारण है कि गत दिवस आम आदमी पार्टी के नेता किसान संसद में नहीं पहुंचे | अगले साल फरवरी में पांच राज्यों की विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं | किसान संगठन उनमें भाजपा को हराने जैसा ऐलान कर चुके हैं | विशेष रूप से राकेश टिकैत ने तो उ.प्र में चुनाव लड़ने की तैयारियां किये जाने के संकेत भी दिए हैं , जिसे लेकर पंजाब और हरियाणा के किसान नेता उनसे खफा हैं | आम आदमी पार्टी चूँकि पंजाब में पूरी ताकत से उतरना चाह रही है इसलिए वह  किसान आन्दोलन से जुड़ने के प्रति बहुत ही सतर्क है | उ.प्र  पर भी उसकी नजर है | जहां तक पंजाब का प्रश्न है तो कांग्रेस को लगता है कि वहाँ के किसान उसके पाले में ही रहेंगे | इसलिए वह आन्दोलन से निकटता बनाये रखती है | सही बात तो ये है कि विपक्षी पार्टियों को किसान आन्दोलन केवल इसलिए रास आया रहा है क्योंकि वह भाजपा विरोधी शक्ल अख्तियार कर चुका है | बावजूद इसके किसान नेता यदि भाजपा विरोधी पार्टियों को मंच नहीं दे रहे तो उसकी मुख्य वजह ये है कि उनके भीतर भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा  उत्पन्न हो चुकी है | पंजाब , हरियाणा और उ.प्र  में किसान नेताओं को राजनीति में अपना भविष्य नजर आ रहा है | उल्लेखनीय है राकेश टिकैत प. उत्तर प्रदेश के अपने गढ़ में ही दो बार विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार चुके हैं | इस बार उनको लगता है कि किसान मतदाताओं के लामबंद होने से उनकी पूछ - परख बढ़ेगी और सभी विपक्षी पार्टियाँ  गठजोड़ करने के लिए उनके आगे – पीछे चक्कर लगाएंगी | सवाल ये है कि जब किसान संगठन विपक्षी नेताओं को भाव ही नहीं देते तब वे उनके आन्दोलन स्थल पर जाते ही क्यों हैं ? इस बारे में ये बात भी गौर तलब है कि किसान नेताओं को ये समझ में आ गया है कि वे किसी एक पार्टी या नेता के साथ जुड़े तो बाकी उनकी मिजाजपुर्सी करना छोड़ देंगे | और इसी उधेड़बुन में वे राजनीतिक तौर पर अनिश्चितता के भंवर में फंसते जा रहे हैं | किसान नेताओं को इस बात की चिंता भी है कि जैसे ही वे खुलकर किसी भाजपा विरोधी पार्टी के साथ जुड़ेंगे वैसे ही आन्दोलन का राजनीतिकरण जाहिर हो जाएगा और तब भाजपा की मानसिकता वाले किसान उससे  छिटक जायेंगे | इन सबके कारण  आन्दोलन अजीबोगरीब भूलभुलैयां में फंसकर रह गया है | किसान संगठनों को समझ में आ गया है कि राजनीतिक दल उनके आन्दोलन का अपने चुनावी  फायदे के लिए उपयोग करना चाहते हैं | इसलिए वे उन्हें दूर रखने की कोशिश तो करते हैं लेकिन दूसरी तरफ उनको ये एहसास भी हो चला है कि बिना राजनीतिक ताकत हासिल किये वे इसी तरह सड़क पर बैठे रहेंगे | ऐसे में  आज की स्थिति में उनके लिये न तो किसी पार्टी से जुड़ना संभव हो पा रहा है और न ही वे अपनी पार्टी बनाने में सक्षम हैं | पंजाब और उ.प्र के जो विरोधी दल किसान  आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं वे चुनाव में एक दूसरे  के खिलाफ कमर कस रहे हैं | इस कारण किसान संगठन भारी असमंजस में हैं | उनकी सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वे भाजपा के विरोध में जिस हद तक आगे बढ़ गये हैं  वहां से उनका लौटना बहुत कठिन है | और उनका समर्थन कर रही पार्टियों में एकजुटता नहीं होने से किसी एक का चयन आत्मघाती होगा | यही वजह है कि दिल्ली की देहलीज पर जमे किसान संगठन आन्दोलन को वहां से आगे नहीं बढ़ा सके |

- रवीन्द्र वाजपेयी