Tuesday 17 August 2021

बलूचिस्तान और तिब्बत की आजादी का मुद्दा उठाने का सही मौका



अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्ज़ा अब एक सत्य है | पूरी दुनिया काबुल हवाई अड्डे के वे दृश्य देखकर मर्माहत है जिनमें देश छोड़ने के लिए जमा भीड़ ने उड़ान भरते हुए हवाई जहाज से लटकने तक का दुस्साहस किया  |  विमान के पहियों वाली जगह घुसकर बैठ गए तीन लोग ऊँचाई पर उसके पहुंचते ही नीचे आ गिरे | दुनिया के विभिन्न हिस्सों में रह रहे अफगानी  नागरिक विशेष रूप से महिलाएं और युवा  मुल्क के अचानक कट्टरपंथियों के शिकंजे में आने से दुखी और चिंतित हैं | उनको लग रहा है कि बीते २० सालों  में अफगानी समाज   में जो सकारात्मक  बदलाव आये तथा महिलाओं को शिक्षा के साथ ही रोजगार के क्षेत्र में आगे बढ़ने के  अवसर मिले , वे शायद ही जारी रहें | दुनिया भर से वहां  के हालात पर  चिंता व्यक्त की जा रही है लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान सहित अनेक राष्ट्रप्रमुखों के मुताबिक अफगानिस्तान ने आजादी हासिल की है | उनका आशय अमेरिका की सेनाओं के  पलायन से है जिसे इस्लामी जगत  महाशक्ति की  पराजय निरुपित कर रहा है  | भारत में भी ऐसी  सोच रखने वाले कम नहीं हैं | सपा सहित कुछ और पार्टियों के मुस्लिम नेताओं ने तालिबान की  जीत पर खुशी व्यक्त की है | टीवी चैनलों की बहस में शामिल अनेक मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने तालिबान के राज में कट्टरपंथ का बोलबाला होने की बात को नजरंदाज करते हुए भारत को इन्तजार करो और देखो की नीति पर चलने की सलाह भी दे डाली | ऐसे लोगों को इस बात की तनिक भी परवाह नहीं है  कि तालिबान की  सत्ता पाकिस्तान और चीन द्वारा पोषित रहने से भारत के लिए नुकसानदेह रहेगी | इन तीनों की जुगलबंदी से  हमारी सीमाओं पर संकट के बादल और घने हो सकते हैं | चूँकि चीन ने तालिबान का समर्थन कर दिया है इसलिए भारत का वामपंथी तबका भी तालिबान की विजय को लेनिन और माओ की  क्रान्ति का प्रतिबिम्ब मान रहा है | सही बात ये है कि जो लोग अफगानिस्तान में तालिबान की वापिसी का जश्न मना रहे हैं उनमें से अधिकांश दरअसल अमेरिका विरोधी मानसिकता से ग्रसित हैं | लेकिन जब बात अफगानिस्तान के लोगों को अमेरिका के दखल  से आजादी मिलने पर खुश होने की है तो उसमें वह रूस भी शामिल है जो सोवियत संघ के तौर पर  कई  साल तक अफगानिस्तान में अपनी फौजें उतारकर तालिबान से लड़ता रहा और आखिर में उसी तरह मैदान छोड़कर भागा था जैसे हाल ही में अमेरिकी सेनाएं वहां से निकलने को मजबूर हुईं | लेकिन जो चीन और पाकिस्तान आज अफगानिस्तान में अमेरिका की हार को आजादी की जीत बता रहे हैं क्या वे खुद क्रमशः बलूचिस्तान और तिब्बत पर बलात कब्जा कर दमनचक्र चलाने के अपराधी नहीं हैं ? १९४७ में भारत के बंटवारे के समय तक बलूचिस्तान एक स्वतंत्र इकाई था , जिसका विभाजन के दस्तावेज में कोई उल्लेख नहीं था | लेकिन पाकिस्तान ने उस पर जबरन कब्जा  जमा लिया | दुनिया भर में फैले बलूच पाकिस्तान  के विरुद्ध आवाज उठाते हैं | संरासंघ तक में उसकी आजादी का मसला चर्चा में आया है | इसी तरह चीन में साम्यवादी शासन आते ही उसने तिब्बत नामक स्वतंत्र देश पर सैन्यबल से आधिपत्य जमा लिया | वहां की सत्ता बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा के हाथ थी जो अपने भरोसेमंद सहयोगियों के साथ हिमालय के दुर्गम रास्तों से पैदल चलते हुए भारत आये जिसने उन्हें राजनीतिक शरण तो दी लेकिन तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे को भी मान्यता देकर अपने पैर में कुल्हाड़ी मार ली | तत्कालीन नेहरु सरकार का वह नीतिगत निर्णय पूर्णरूपेण विरोधभासी रहा | तिब्बत को उसका क्षेत्र मानने का एहसान जताना तो दूर रहा लेकिन दलाई लामा को शरण देकर वहां  की निर्वासित सरकार का मुख्यालय भारत में कायम किये  जाने की  अनुमति से भन्नाकर चीन ने पं. नेहरु के हिन्दी – चीनी भाई – भाई के नारे और पंचशील नामक समझौते को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए १९६२ में भारत पर हमला कर दिया | हमारी सेनाएं चूँकि उस  समय तक इतनी साधन सम्पन्न नहीं थीं इसलिए मुकाबला करने में असफल रहीं और उसने हमारी हजारों वर्गमील जमीन कब्जा ली | आज जब चीन और पाकिस्तान ,  अफगानिस्तान में  अमेरिकी हस्तक्षेप के खत्म होने पर फूले नहीं समा रहे तब भारत को भी आक्रमण ही सर्वोत्तम सुरक्षा की नीति पर चलते हुए  तिब्बत और बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के हनन का मामला विश्व मंच पर उठाना चाहिए | कुछ लोगों का मानना है कि ऐसा करने पर चीन और पाकिस्तान कश्मीर में जनमत संग्रह का मामला उठा सकते हैं | लेकिन अब तो संरासंघ भी इससे अपना पल्ला झाड़ चुका है और फिर  भारत ने कश्मीर पर बलात कब्जा नहीं किया अपितु भारतीय संघ में उसके विलय के बावजूद पाकिस्तान ने उस पर हमला करते हुए एक तिहाई हिस्सा कब्ज़ा लिया | तालिबान की वापिसी के बाद वैश्विक राजनीति विशेष रूप से एशिया के शक्ति संतुलन में बड़ा बदलाव आ सकता है | इसके पहले कि भारत पूरी तरह असहाय और अप्रासंगिक हो जाए हमें भी कूटनीतिक चालें तेज करनी चाहिए | प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने कुछ साल पहले लालकिले से बलूचिस्तान के लोगों के संघर्ष के प्रति भारत की हमदर्दी दिखाई तो पूरी दुनिया में वह मुद्दा  गरमा उठा था | ये सही मौका है जब भारत को तिब्बत और बलूचिस्तान की आजादी के संघर्ष को खुला समर्थन देना चाहिए | चीन और पाकिस्तान से हमारे रिश्ते वैसे भी तनावपूर्ण हैं जिनके सुधरने के आसार  भी दूरदराज तक नहीं हैं | पाकिस्तान के अंदरूनी हालात और आर्थिक स्थिति बहुत ही  जर्जर है वहीं चीन भी ताईवान के अलावा दक्षिणी समुद्र पर आधिपत्य को लेकर अमेरिका , जापान , ऑस्ट्रेलिया , वियतनाम , दक्षिण कोरिया आदि के विरोध का सामना कर रहा है जिसमें भारत भी  शामिल है | कूटनीति में अवसर बेहद महत्वपूर्ण होता है | दलाई लामा वयोवृद्ध हो चुके हैं और उनके सहयोगियों की वैश्विक स्तर पर वैसी स्वीकार्यता और सम्मान नहीं है | ऐसे में भारत को बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के कूटनीतिक मोर्चा खोलना चाहिए | तालिबान की छवि दुनिया की निगाहों में अच्छी नहीं है जिसका लाभ भारत को उठाना चाहिए क्योंकि अपने पाँव जमाते ही वह हमारे लिए मुसीबत बने बिना नहीं रहेगा |

-रवीन्द्र वाजपेयी

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