Monday 2 August 2021

घुघवा राष्ट्रीय उद्यान में करोड़ों वर्ष पुराने जीवाश्म कुत्ते के भरोसे


 

जबलपुर के पड़ोसी जिले डिंडोरी  में निवास के समीप  स्थित घुघवा जीवाश्म ( फासिल्स )  पार्क की प्रसिद्धि यूँ तो  वैश्विक स्तर पर है क्योंकि यहाँ 6.5  करोड़ वर्ष  पुराने पेड़ , पौधों , पत्तियों , फल , फूल एवं बीजों के जीवाश्म पाए जाते हैं | ये जीवाश्म जिस दौर के हैं उसमें पृथ्वी पर डायनासोर होने की बात वैज्ञानिक शोधों में प्रमाणित होती रही है | आस पास के अनेक इलाकों से संग्रहित जीवाश्म भी घुघवा में रखे गए हैं जिसे 1983 में राष्ट्रीय उद्यान भी घोषित कर  दिया गया | तकरीबन 0. 27 किलोमीटर क्षेत्र में फ़ैले इस उद्यान में अनमोल जीवाश्म संपदा बिखरी पड़ी है | यहाँ एक छोटा सा संग्रहालय , ठहरने के काटेज , कैंटीन भी है | वन विभाग के कर्मचारी और चौकीदार भी रखे गये हैं | लेकिन इस उद्यान की व्यवस्था पूरी तरह से अव्यवस्था का पर्याय बन चुकी है | गत दिवस इसके  भ्रमण  का  अवसर मिला | 

चंडीगढ़ से आये मेरे 8 वर्षीय नाती दिव्यांश शुक्ला  के आग्रह पर गूगल सहित अन्य स्रोतों से मिली जानकारी ने मन में उत्सुकता और उत्साह काफी  बढ़ा दिया था | जबलपुर से मनेरी और निवास होते हुए अधिकतम दो घंटे में घुघवा पहुंचा जा  सकता  है | बरसात के बावजूद अभी तक सड़क बहुत ही अच्छी स्थिति में मिली और फिर समूचे मार्ग में हरियाली , पहाड़ियां , घाट और  जलधाराओं  ने आनंदित कर दिया | घुमावदार और उतार – चढ़ाव से भरपूर मार्ग रोमांच  प्रिय वाहन चालकों को भी रास आये बिना नहीं रहेगा | इस सबका आनंद लेते हुए मैं , दामाद सचिन और दिव्यांश दोपहर दो बजे घुघवा राष्ट्रीय उद्यान पहुंचे |

प्रवेश द्वार पर दोनों ओर डायनासोर की दो बड़ी मूर्तियाँ आकर्षित  करती हैं | लेकिन भीतर जाने के बाद वहां कोई कर्मचारी नहीं दिखा | कार्यालय और कैंटीन की इमारत में भी ताला लटका था | उद्यान के भीतर जाने के रास्ते पर एक चौकी  है जिस पर प्रति व्यक्ति 50 रु. प्रवेश शुल्क की सूचना भी अंकित है लेकिन चौकी में कोई नहीं था | एक जंजीर अवश्य सड़क के दोनों सिरों से बंधी हुई रही जिसका उद्देश्य वाहनों के प्रवेश को रोकना मात्र है | अन्यथा कोई उसे थोड़ा सा सरकाकर बेरोकटोक उद्यान के भीतर जा सकता है |

कुछ देर तक किसी सरकारी व्यक्ति की  तलाश करने के पश्चात देखा कि संग्रहालय खुला पड़ा था तो हम उसके अवलोकन हेतु भीतर गये | उम्मीद थी कि वहां कोई गाईड होगा जिससे जरूरी जानकारी मिलेगी किन्तु उसकी जगह बाहर से एक कुत्ता आ गया जो उसके बाद पूरे समय हमारे साथ बना रहा | संग्रहालय में घुसते ही एक बड़े से जीवाश्म के ऊपर छत पर रोशनी के लिए लगाये गये कांच से बरसाती पानी की धार लगातार गिरती जा रही थी | भीतर  जो दर्जनों   जीवाश्म रखे थे उनके सामने लगी विवरण पट्टिकाएं धुंधली हो जाने से उन पर लिखी जानकारी समझ में नहीं आती |  रोशनी भी बेहद कम थी और बिजली के स्विच भी काम नहीं कर रहे थे | कुत्ता हमारे साथ ही एक कक्ष से दूसरे में जिस तरह साथ चला उससे लगा मानों उसने ही उस  संग्रहालय की सुरक्षा का दायित्व ले रखा हो |

 संग्रहालय से बाहर आते ही एक  व्यक्ति छाता  लगाये हुए आता दिखा | उसे पास बुलाने पर पता लगा वह  चौकीदार है | जब उससे पूछा कि इतनी बेशकीमती चीजों की सुरक्षा करने वाला कोई नहीं है तो वह लापरवाही के साथ बोला कि मैं ही तो सुबह इसका ताला खोलकर गया था | पानी टपकने की बात पर बोला , हाँ वो तो टपकता ही है | किसी अधिकारी के बारे में पूछने पर उसने कुछ कहने से बचना  चाहा किन्तु ज्यादा कुरेदने पर बोला कि रेंजर आकर चले गये |  

तब तक ये साफ़ हो चला  था कि पृथ्वी के इतिहास से जुड़ी उस अनमोल धरोहर के रखरखाव के प्रति सरकारी महकमा कितना गैर जिम्मेदार है | पार्क का रास्ता पूछने पर उक्त चौकीदार ने इशारे से बता दिया | हल्की बरसात के कारण छाता लगाए हुए हम पार्क के भीतर प्रविष्ट हुए तो लोहे के दरवाजे को स्वयं खोलना पड़ा | अचानक पीछे देखा तो वह कुत्ता भी साथ चला आ रहा था | जीवाश्म पार्क में चारों  तरफ अनेक  चबूतरों पर एकत्र किये गए हजारों जीवाश्म रखे हैं | कुछ में ऊपर टीन  के शेड भी हैं | उनके अलावा भी जमीन पर बड़ी संख्या में जीवाश्म फैले हुए हैं | जिस जगह भी हम गए वह कुत्ता साथ चलता रहा | तकरीबन 45  मिनिट तक अद्भुत माहौल में उस समय की कल्पना करते रहे जब मानव  सभ्यता  का नामो – निशान  तक न था |  उन खोजकर्ताओं के प्रति भी मन में आभारयुक्त सम्मान का भाव लागातार बना रहा जिन्होंने करोड़ों वर्ष पहले के उन प्रतीक चिन्हों को तलाशकर सहेजने का अकल्पनीय कार्य किया | संग्रहालय में एक मॉडल के जरिये ये बताया गया है कि किस तरह पृथ्वी टुकड़े – टुकड़े होकर महाद्वीपों में बदली |

 
जबलपुर से घुघवा जाते समय मार्ग में अनेक जगह चट्टानों को देखकर करोड़ों वर्ष पूर्व हुई प्राकृतिक  उथलपुथल का एहसास भी अनोखा अनुभव देता है | लेकिन घुघवा पहुँचने के पहले तक जो उत्साह और उत्कंठा मन  में थी , वहां की सरकारी अव्यवस्था देखकर काफूर हो गई | जिन शोधकर्ताओं ने बरसों की मेहनत के बाद उन जीवाश्मों की खोज और पहिचान करते हुए पृथ्वी के विकास से गोंडवाना अंचल के करीबी रिश्ते से दुनिया भर को अवगत करवाया उनके योगदान के प्रति वन विभाग के कर्ताधर्ताओं की  उपेक्षा वृत्ति अक्षम्य अपराध की श्रेणी में रखे जाने योग्य ही है |

डिंडोरी जिला प्रशासन के साथ ही वन विभाग के उच्च  अधिकारियों को भी इस अनमोल धरोहर की सुरक्षा और समुचित व्यवस्था पर ध्यान देना चहिये जो एक कुत्ते के  भरोसे छोड़ रखी गई है | क्या पता वहां आने वाले सैलानी अज्ञानतावश कुछ जीवाश्म उठाकर घर में सजाने ले भी  जाते हों | यदि ये जीवाश्म संपदा किसी  दूसरे देश में हो तो इसकी साज - सज्जा और सुरक्षा खजाने की तरह की जाती किन्तु अपने अतुल्य भारत में ऐसी बातों को फिजूल समझा जाता है | वन विभाग के अमले को भी चूंकि घुघवा के जीवाश्मों में कमाई का कोई अवसर नहीं दिखता इसलिए उनको भी इसमें कोई रूचि नहीं है |
यद्यपि दिव्यांश के बालमन पर  डायनासोर युग से जुड़े उन अवशेषों की छवि अमिट तौर पर  अंकित हो चुकी है और वह उन्हें दोबारा देखने की इच्छा भी रखता है।

आलेख :  रवीन्द्र वाजपेयी 

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