Saturday 7 August 2021

किसान आन्दोलन : बड़ी मुश्किल में हैं अब किधर जाएं.....



देश की संसद से बहिर्गमन कर विपक्ष के नेतागण गत दिवस कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली के जंतर – मंतर पर चल  रही किसान संसद में जा पहुंचे | उनको उम्मीद रही होगी कि किसान आन्दोलन के  कर्ता  – धर्ता उनको हाथों – हाथ उठाएंगे , लेकिन हुआ उलटा | किसान संसद के आयोजकों ने राहुल गांधी सहित तमाम विपक्षी नेताओं को न मंच  पर बैठने दिया  और न ही उन्हें भाषण का अवसर मिला | उनके  पहुंचते ही मंच से सभी नेताओं को दर्शक दीर्घा में बैठने कह दिया गया | यद्यपि ये पहली मर्तबा नहीं हुआ | दरअसल शुरू से ही किसान नेता इस बात के प्रति सतर्क रहे कि उनके आन्दोलन  पर किसी राजनीतिक दल की  छाप न लग जाये | हालाँकि आन्दोलन की प्रथम पंक्ति के नेताओं और रणनीतिकारों में योगेन्द्र यादव जैसे लोग भी हैं जो आम आदमी पार्टी से निकाल बाहर किये जा चुके हैं | उन्होंने अपनी एक पार्टी भी बनाई थी किन्तु उसको जनसमर्थन नहीं मिलने से श्री यादव का हौसला पस्त हो गया और इसीलिये वे किसान आन्दोलन में पूरी ताकत से कूदकर उसके प्रमुख रणनीतिकार बन बैठे | राजनीतिक नेताओं को आन्दोलन के मंच से दूर रखने का निर्णय भी उन्हीं के दिमाग की उपज है | शायद यही कारण है कि गत दिवस आम आदमी पार्टी के नेता किसान संसद में नहीं पहुंचे | अगले साल फरवरी में पांच राज्यों की विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं | किसान संगठन उनमें भाजपा को हराने जैसा ऐलान कर चुके हैं | विशेष रूप से राकेश टिकैत ने तो उ.प्र में चुनाव लड़ने की तैयारियां किये जाने के संकेत भी दिए हैं , जिसे लेकर पंजाब और हरियाणा के किसान नेता उनसे खफा हैं | आम आदमी पार्टी चूँकि पंजाब में पूरी ताकत से उतरना चाह रही है इसलिए वह  किसान आन्दोलन से जुड़ने के प्रति बहुत ही सतर्क है | उ.प्र  पर भी उसकी नजर है | जहां तक पंजाब का प्रश्न है तो कांग्रेस को लगता है कि वहाँ के किसान उसके पाले में ही रहेंगे | इसलिए वह आन्दोलन से निकटता बनाये रखती है | सही बात तो ये है कि विपक्षी पार्टियों को किसान आन्दोलन केवल इसलिए रास आया रहा है क्योंकि वह भाजपा विरोधी शक्ल अख्तियार कर चुका है | बावजूद इसके किसान नेता यदि भाजपा विरोधी पार्टियों को मंच नहीं दे रहे तो उसकी मुख्य वजह ये है कि उनके भीतर भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा  उत्पन्न हो चुकी है | पंजाब , हरियाणा और उ.प्र  में किसान नेताओं को राजनीति में अपना भविष्य नजर आ रहा है | उल्लेखनीय है राकेश टिकैत प. उत्तर प्रदेश के अपने गढ़ में ही दो बार विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार चुके हैं | इस बार उनको लगता है कि किसान मतदाताओं के लामबंद होने से उनकी पूछ - परख बढ़ेगी और सभी विपक्षी पार्टियाँ  गठजोड़ करने के लिए उनके आगे – पीछे चक्कर लगाएंगी | सवाल ये है कि जब किसान संगठन विपक्षी नेताओं को भाव ही नहीं देते तब वे उनके आन्दोलन स्थल पर जाते ही क्यों हैं ? इस बारे में ये बात भी गौर तलब है कि किसान नेताओं को ये समझ में आ गया है कि वे किसी एक पार्टी या नेता के साथ जुड़े तो बाकी उनकी मिजाजपुर्सी करना छोड़ देंगे | और इसी उधेड़बुन में वे राजनीतिक तौर पर अनिश्चितता के भंवर में फंसते जा रहे हैं | किसान नेताओं को इस बात की चिंता भी है कि जैसे ही वे खुलकर किसी भाजपा विरोधी पार्टी के साथ जुड़ेंगे वैसे ही आन्दोलन का राजनीतिकरण जाहिर हो जाएगा और तब भाजपा की मानसिकता वाले किसान उससे  छिटक जायेंगे | इन सबके कारण  आन्दोलन अजीबोगरीब भूलभुलैयां में फंसकर रह गया है | किसान संगठनों को समझ में आ गया है कि राजनीतिक दल उनके आन्दोलन का अपने चुनावी  फायदे के लिए उपयोग करना चाहते हैं | इसलिए वे उन्हें दूर रखने की कोशिश तो करते हैं लेकिन दूसरी तरफ उनको ये एहसास भी हो चला है कि बिना राजनीतिक ताकत हासिल किये वे इसी तरह सड़क पर बैठे रहेंगे | ऐसे में  आज की स्थिति में उनके लिये न तो किसी पार्टी से जुड़ना संभव हो पा रहा है और न ही वे अपनी पार्टी बनाने में सक्षम हैं | पंजाब और उ.प्र के जो विरोधी दल किसान  आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं वे चुनाव में एक दूसरे  के खिलाफ कमर कस रहे हैं | इस कारण किसान संगठन भारी असमंजस में हैं | उनकी सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वे भाजपा के विरोध में जिस हद तक आगे बढ़ गये हैं  वहां से उनका लौटना बहुत कठिन है | और उनका समर्थन कर रही पार्टियों में एकजुटता नहीं होने से किसी एक का चयन आत्मघाती होगा | यही वजह है कि दिल्ली की देहलीज पर जमे किसान संगठन आन्दोलन को वहां से आगे नहीं बढ़ा सके |

- रवीन्द्र वाजपेयी


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