Thursday 26 August 2021

लोकतंत्र के नव सामंतों के सामने जाँच एजेंसियां असहाय होकर रह जाती हैं



सर्वोच्च न्यायालय ने सांसदों - विधायकों के विरुद्ध सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय ( ईडी ) द्वारा की जाने वाली जांच और प्रकरण के निपटारे में होने वाले विलम्ब पर  नाराजगी जताते हुए सरकार से पूछा है कि क्या जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध जांच और मामलों के निपटारे के लिए अतिरिक्त  संसाधनों की जरूरत है ? अदालत ने इस बात पर भी रोष जताया  कि सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय ने सांसदों  और विधायकों के मामलों में होने वाले विलम्ब का कोई ठोस कारण नहीं बताया | 10 - 15 साल तक प्रकरण को  टाँगे रखने पर भी  तीखी टिप्पणी की गई | इस सम्बन्ध में प्रस्तुत एक याचिका में ये तथ्य भी अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया गया कि अनेक मामलों में बरसों तक प्रकरण  को लम्बित रखने के बाद उनको वापिस ले लिया गया | पता नहीं न्यायालय की  फटकार युक्त पूछ्ताछ का कितना असर होगा लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा उठाये गये सवाल और उनके बारे में जांच एजेंसियीं का निरुत्तर रहना कानून बनाने वाले सांसदों और विधायकों के सामने उनकी  निरीहता को दर्शाने के लिए पर्याप्त है | हालाँकि आम जनता को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उसके मन में ये बात काफ़ी गहराई तक समा चुकी है कि लोकतंत्र का चोला ओढ़कर व्यवस्था पर काबिज हो चुके नव सामंत कानून को अपनी जेब में रखकर घूमते हैं | हत्या जैसे जघन्य अपराध के आरोपी भी जब सांसद और विधायक बनकर मंत्री पद तक हासिल कर लेते हों तब सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय में तैनात अधिकारियों के मन में ये भय सदैव समाया रहता है कि जिसे वे अपराधी साबित करना चाह रहे है वही न जाने कब उनकी ही जाँच करवाने की हैसियत में आ जाये | चकाजाम और धरना प्रदर्शन जैसे मामले वापिस लिए जाने की बात तो फिर भी  समझ में आती है किन्तु गम्भीर किस्म के अपराध की जांच बरसों – बरस खींचने के बाद प्रकरण वापिस ले लेना एक तरह से न्याय प्रणाली की सरासर अवहेलना है | लोकतांत्रिक व्यवस्था संवैधानिक प्रावधानों के अलावा स्वस्थ परंपराओं और नैतिक मूल्यों पर आधारित होती है , जिसमें राजा और प्रजा जैसे शब्द अर्थहीन होकर रह जाते हैं | राज करने वाले किसी राजघराने में जन्म लेने वाले न होकर आम जन के बीच से चुने जाते  हैं | उस दृष्टि से वे थोड़े से खास भले ही हो जाएं लेकिन आख़िरकार होते तो आम ही हैं | इसीलिए क़ानून के सामने समानता का सिद्धांत संविधान में उल्लिखित है | सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी की आपराधिक कर्म पत्री सार्वजनिक किये जाने को लेकर भी सख्त आदेश दिए गये थे | अब उसने सांसदों और विधायकों के विरुद्ध चलने वाली जाँच और प्रकरणों में विलम्ब पर नजर टेढ़ी की है | हालाँकि इसके बाद भी सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय निडर होकर कार्रवाई करने आगे आयेंगे ऐसा नहीं लगता | विपक्षी दल सदैव सरकार पर आरोप लगाया करते हैं कि वह उक्त जाँच एजेंसियों का उपयोग विरोधियों की आवाज दबाने के लिए करती  है | सर्वोच्च न्यायालय भी सीबीआई को पिजरे में बंद तोता कहते हुए उसका मज़ाक उड़ा चुका है | हाल के वर्षों में प्रवर्तन निदेशालय भी काफ़ी चर्चाओं में रहा है | लेकिन सांसदों और विधायकों के जितने मामले जांच और अदालत में लम्बित हैं उनका हश्र अधर में लटका रहता है | ऐसा लगता है कि जनसेवक कहलाने वाले सांसद और विधायकों को जाँच एजेंसियां भी राज परिवार के सदस्यों जैसा मानकर  दण्डित करवाने से बचती हैं | ये सिलसिला सरकारें बदलने के बावजूद अपरिवर्तित है | इन जाँच एजेंसियों की स्वायत्तता को लेकर भी चर्चाएँ होती रहती हैं लेकिन विपक्ष में रहते हुए ऐसी मांग करने वाले सत्ता में  आते ही इन पर नियन्त्रण बनाये रखने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करते | अतीत में मुलायम सिंह यादव और मायावती के विरूद्ध दायर भ्रष्टाचार के प्रकरण सीबीआई द्वारा वापिस लिए जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर दोबारा खोले गये थे | लेकिन उनका अंजाम क्या हुआ ये भी  जाँच का विषय है | दरअसल  देश में राजनीतिक नेताओं के रूप में स्थापित नव सामंतों का  एक अभिजात्य वर्ग  समूची शासन व्यवस्था पर कुण्डली मारकर बैठ गया है | इस वर्ग के लोगों में कहने को तो वैचारिक और सैद्धांतिक मतभेद हैं किन्तु अधिकतर मामलों में ये लगता है कि मतभेद जनता को मूर्ख बनाने के लिए हैं और भीतर – भीतर सभी एक दूसरे  की मदद को तैयार रहते हैं | भूले – भटके कोई सांसद – विधायक जेल चला भी जावे तो उसके लिए वहां ऐशो – आराम के सारे इंतजाम किये जाते हैं | वैसे तो ज्यादातर समय वे अस्पताल में सरकारी खर्च पर अपना इलाज करवाते हुए ही काटते हैं | सर्वोच्च न्यायालय की भी मजबूरी है कि वह सवाल पूछने और नाराजगी व्यक्त करने में भले पीछे न रहे लेकिन जांच और दंड प्रक्रिया को गतिशील बनाने का उपाय उसके पास भी नहीं है | और फिर न्यायाधीश की आसंदी पर विराजमान मी लॉर्ड में बहुत बड़ी संख्या उनकी होती है जो वकालत करने के दौरान मामले को टालने के विशेषज्ञ  माने जाते थे | इस प्रकार न्याय में विलम्ब , न्याय से इंकार का सिद्धांत व्यवहार में आते तक निरर्थक हो उठता है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


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