Tuesday 31 August 2021

जाते – जाते अमेरिका ने गृहयुद्ध के हालात बना दिए अफगानिस्तान में



आख़िरकार अमेरिका ने अफगानिस्तान पूरी तरह छोड़ दिया | गत रात्रि 12 बजे के पहले ही उसके बचे हुए सैनिक और राजनयिक विमानों के जरिये काबुल से निकल गये | वहां  से जुड़े कूटनीतिक मसले अब वह कतर की राजधानी दोहा  से संचालित करेगा | उसके काबुल छोड़ने के दौरान आईएस ( इस्लामिक स्टेट ) ने राकेटों से हवाई अड्डे पर हमला किया | हालांकि कोई जनहानि नहीं  हुई किन्तु अफगानिस्तान के भीतरी हालात अनियंत्रित होने का संकेत जरूर मिल गया | यद्यपि गोलियां तालिबान के लोगों ने भी चलाईं लेकिन वे अमेरिकी विमान काबुल की  हवाई पट्टी से उड़ जाने के बाद चलीं जिनकी  वजह से नगरवासी दहशत में आ गये | लेकिन तालिबान की तरफ से तत्काल ये ऐलान कर  दिया गया कि वैसा अमेरिका के पूरी तरह से देश छोड़ने के जश्न  स्वरूप किया गया था | लेकिन आईएस द्वारा  अमेरिकी दस्तों की मौजूदगी में ही राकेट दागे जाने का मकसद पूरी दुनिया को ये बताना था कि अफगानिस्तान में तालिबान का  एकाधिकार भ्रम है | ये बात बिलकुल सही है कि अमेरिका द्वारा अपनी सेनाएं वापिस बुलाने की प्रक्रिया शुरू होते ही तालिबान की तरफ से उसके किसी सैनिक , नागरिक अथवा राजनयिक पर हमला नहीं किया गया | बीते सप्ताह काबुल हवाई अड्डे के बाहर हुए बम धमाके भी  आईएस  की कारस्तानी थे जिसे उसकी तरफ से स्वीकार भी किया गया | गत रात्रि दागे गये रॉकेट की जिम्मेदारी लेने में भी उसने न संकोच किया  और न ही देर  लगाई | उधर अमेरिका ने भी  डेरा उठाने के पहले ही ड्रोन हमलों के जरिये अपनी मौजूदगी जारी रहने की बात  साबित कर दी है | राष्ट्रपति जो बाईडन ने भी ऐलान कर दिया है कि अमेरिका सहित बाकी नाटो देश अफगानिस्तान में सक्रिय आईएस के विरुद्ध जंग जारी रखेंगे | इस बारे में ये जिज्ञासा सहज रूप से उठ  खड़ी हुई है कि आखिर अमेरिकी ड्रोन कहाँ से संचालित हो रहे हैं ? और इसका जवाब है पाकिस्तान में मौजूद अमेरिकी सैन्य अड्डे | इस बारे में ज्ञात हुआ है कि अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ज्योंही  तालिबान से समझौता वार्ता प्रारम्भ की त्योंही उनके देश ने पाकिस्तान के भीतर अपने एक सैन्य अड्डे को और उन्नत बनाते हुए अफगानिस्तान पर नजर रखने का इंतजाम कर दिया था | वैसे भी ये अब तक रहस्य बना हुआ है कि अमेरिका ने इतनी जल्दी अपने सैनिक अफगानिस्तान से क्यों हटा लिए ? और फिर जब उसे ये अच्छी तरह मालूम था कि वह मुल्क छोड़ना है तब उसने बहुत बड़ी संख्या में बेशकीमती  अत्याधुनिक हथियार , बख्तरबंद गाड़ियाँ , हेलीकाप्टर और लड़ाकू विमान वहाँ क्यों छोड़ दिए ? जबकि वह जानता था कि ये जखीरा तालिबान के अलावा वहां सक्रिय अन्य आतंकवादी संगठनों के हाथ लग जायेगा  | इस बारे में ये आशंका व्यक्त की जा रही है कि भले ही अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपनी सैन्य उपस्थिति खत्म करते हुए उसे तालिबान के सुपुर्द कर दिया लेकिन उसकी रूचि और दखल परोक्ष तौर पर जारी रहेगा | ये बात पूरी दुनिया जानती है कि तालिबान मूलतः अमेरिका की अवैध संतान ही हैं | यही नहीं तो कुछ और इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को भी वही दाना – पानी देता है | ऐसे में ये सोचना गलत न होगा कि जिसे लोग अमेरिका की पराजय मान रहे हैं उसके पीछे भी कोई दूरगामी रणनीति हो | वरना उसके पास इतने संसाधन हैं कि वह अपना छोटे  से छोटा सामान उठा ले जाता | और फिर समझौते में तय की गई तारीख से पहले ही अफगानिस्तान से वापिसी शुरु कर देना , सरकारी सेना का अघोषित आत्मसमर्पण तथा राष्ट्रपति अशरफ गनी का रहस्यमय तरीके से देश छोड़कर चल देना भी किसी पूर्व नियोजित कार्ययोजना का हिस्सा  लगता है | इस्लामी जगत में जो अमेरिकी प्रभाव वाले देश हैं उनका अफगानिस्तान के प्रति ठंडा रवैया भी विश्लेषण का विषय है |  जहाँ तक बात पाकिस्तान की है तो वह भी  तालिबान को निरंकुश नहीं  होने देना चाह रहा  जिसका प्रमाण काबुल पर तालिबान का कब्जा होते ही आईएस का धमाकेदार अंदाज में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना है | कुल मिलाकर ये कहा  जा सकता है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं भले ही वापिस बुलवा लीं किन्तु वह तालिबान को भी चैन से नहीं बैठने देगा | इसके पीछे उसकी चिंता ये है कि चीन  और रूस जिस तरह तालिबान  के साथ रिश्ते जोड़ने को आतुर हैं वह वाशिंगटन को पसंद नहीं है | जहाँ तक बात अफगानिस्तान में बहुमूल्य खनिज संपदा के दोहन की है तो अमेरिका को पता है कि कबीलाई प्रभुत्व के चलते ऐसा करना आसान नहीं होगा | लेकिन अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए ही चीन और रूस वहां अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं | जिस तरह से ईरान के साथ अमेरिका की तनातनी चली आ रही है उसे देखते हुए अफगानिस्तान एक बार फिर वैश्विक राजनीति का मोहरा बन सकता है | अमेरिका पिछले 20 साल तक वहां रहने के बाद भी जो न कर सका वह अब बाहर  निकलकर करना चाहेगा | और इसके लिए जरूरी है कि इस  देश को अशांत बनाकर  गृहयुद्ध की आग में जलने छोड़ दिया जाए | यहाँ एक बात और भी है कि चीन और रूस के बीच भी अविश्वास बना रहता है | बीजिंग में बैठे हुक्मरानों की अतृप्त महत्वाकांक्षाओं के अलावा  मध्य एशियाई देशों में चीन की बढ़ती रूचि से रूस बेहद चौकन्ना है | ऐसे में उन दोनों का एक साथ अफगानिस्तान में सक्रिय होना भी नये तनाव को जन्म  दे सकता है | जो नये हालात बने हैं उनमें अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता ही भारत के हित में हैं क्योंकि तालिबान यदि पूरी तरह काबिज होकर पूरे देश का समर्थन हासिल कर सके तो ये हमारे लिए खतरनाक होगा | तालिबान की हुकूमत को जितनी ज्यादा चुनौतियां वहां मौजूद दूसरे आतंकवादी  गुट देंगे उतना ही पाकिस्तान का सिरदर्द बढ़ेगा | आखिरकार ये सांप भी तो उसी के पाले हुए हैं | इसीलिये फ़िलहाल  भारत ने देखो और प्रतीक्षा करो की जो नीति अपना रखी है वही उचित प्रतीत होती है | 


-रवीन्द्र वाजपेयी

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