अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की अंतिम रूप से विदाई होते ही वहां गृहयुद्ध और तेज होने की आशंका मजबूत होती जा रही है | तालिबानी कट्टरपंथी तेजी से बड़े भूभाग को अपने कब्जे में लेते जा रहे हैं | उनकी कार्यपद्धति में जरा सा भी बदलाव नहीं आया | अपने विरोधियों की वे नृशंस हत्या करने से बाज नहीं आ रहे | काबुल में बैठी अफगान सरकार की सेना हालाँकि तालिबानों से मुकाबला करने के साथ ही ये दावा कर रही है कि उन्हें देश पर काबिज नहीं होने जायेगा | उसने कबीलों के सरदारों को भी हथियार देकर अपने पक्ष में लड़ने के लिए राजी कर लिया है | वैसे बीते 20 सालों में अफगानी समाज में सुधारवादी लोगों की संख्या में अच्छी खासी वृद्धि हुई तथा महिलाओं में शिक्षा और नौकरी के प्रति रूचि बढ़ी है | अनेक युवतियों ने बिना डरे टीवी चैनलों को दिए साक्षात्कार में कहा कि वे तालिबान के दबाव में पढ़ना या काम करना बंद नहीं करेंगी | बुद्धिजीवी वर्ग भी तालिबानी कट्टरता के विरुद्ध बोलने का साहस दिखा रहा है | वैसे ये बात सही है कि अमेरिका ने इस देश को अधर में छोड़ दिया है | दो दशक तक यहाँ उसकी फौजों ने तालिबानों के सफाये के लिए पूरी ताकत झोंक दी किन्तु वह कामयाब नहीं हो सका | लेकिन जिस तरह उसने इस देश को छोड़ा वह समझ से परे है | कभी – कभी तो ये लगता है कि अमेरिका , तालिबान को समाप्त करने नहीं अपितु ईरान , पाकिस्तान और चीन पर नजर रखने आया था | प. एशिया से वैसे भी उसके आर्थिक और सामरिक हित जुड़े हुए हैं | सोवियत संघ के विघटन के बाद भले ही पहले जैसा डर उसे नहीं रहा लेकिन पाकिस्तान और ईरान के साथ ही चीन उसके लिए खतरा बना हुआ है | अमेरिका को सबसे ज्यादा किसी ने ठगा तो वह पाकिस्तान ही है जिसने उसके दुश्मनों से याराना बना रखा है | तालिबान इतना ताकतवर न हुआ होता अगर उसे पाकिस्तान से अघोषित सहायता और संरक्षण न मिलता | इसी तरह ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान ने छिपाए रखा जिसे ढूँढने के लिए अमेरिका ने न जाने कितनी जगह छापे मारे | सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि अमेरिका के प्रमुख प्रतिद्वंदी चीन के साथ पाकिस्तान के बहुत ही नजदीकी रिश्ते हैं | बावजूद इसके वह पाकिस्तान रूपी सांप को दूध पिलाता रहा | लेकिन पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कठोर रवैया अपनाते हुए उसकी आर्थिक सहायता में काफी कटौती करने के अलावा आधुनिक सैन्य सामग्री देने पर भी रोक लगा दी | चीन के प्रति भी ट्रंप काफी सख्त रहे | ईरान से तो अमेरिका का विवाद जगजाहिर है ही | अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों की मौजूदगी के दूरगामी उद्देश्य थे लेकिन पाकिस्तान ने तालिबानों को शरण देकर उसके मकसद को पूरा नहीं होने दिया | दरअसल वह नहीं चाहता कि अफगानिस्तान में स्थिरता आये क्योंकि वहां विकास होने पर पाकिस्तान की भूमिका सीमित रह जायेगी | अमेरिकी फौजों के वहां रहते हुए भारत ने विकास कार्यों के लिये अरबों – खरबों का निवेश कर डाला , जिससे पाकिस्तान भयभीत हो चला था | सरकारी स्तर पर भी काबुल और नई दिल्ली के मित्रतापूर्ण रिश्ते उसको रास नहीं आ रहे थे | कश्मीर घाटी में आतंकवाद फ़ैलाने में तालिबानी सहायता की वजह से वह पाकिस्तान को प्रिय है | कुछ ही समय में अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान से अपना डेरा पूरी तरह उठाने वाली हैं लेकिन उसके पहले ही तालिबानी दस्ते जिस तरह हमलावर होकर अपना आधिपत्य बढ़ाने में जुट गए हैं उससे गृहयुद्ध की स्थिति निर्मित हो गई है | चिंता का सबसे बड़ा कारण है चीन का तालिबान को खुला समर्थन क्योंकि ऐसा होने से वहां भारत के जो भी हित हैं , विशेष रूप से विकास कार्यों में लगा धन , वे खतरे में पड़ जायेंगे | तालिबान के साथ चूंकि भारत के कूटनीतिक सम्बन्ध भी नहीं हैं इसलिए भी आने वाले दिन बेहद परेशानी भरे होंगे | एक बात जो सबसे ज्यादा ध्यान देने योग्य है वह है अफगनिस्तान से होने वाला पलायन | जैसी खबरें आ रही हैं उनके अनुसार बड़ी संख्या में ऐसे लोग देश छोड़कर जाने की तैयारी कर रहे हैं जो तालिबानी बर्बरता देख चुके हैं | ये सब देखकर लगता है कि भले ही अमेरिका अपना फौजी लाव – लश्कर समेट रहा हो किन्तु वह अफगानिस्तान में चीन को भी खुलकर नहीं खेलने देगा | अफगानिस्तान की सीमा पूर्व सोवियत संघ के हिस्से रहे ताजिकिस्तान , कजाकस्तान और तुर्कमेनिस्तान नामक जिन तीन देशों से मिलती हैं उनमें ताजिकिस्तान तालिबानों का घोर विरोधी है और उसने उनसे लड़ने के लिए सैन्य तैयारी भी कर ली है | ताजिकिस्तान के राष्ट्रपति ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन से भी इस बारे में बात कर ली है जो कि तालिबान से पहले से ही नाराज हैं क्योंकि जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में डेरा जमा रखा था तब अमेरिका ने ही तालिबानों को उसके विरुद्ध सशस्त्र गुट के तौर पर खड़ा किया था | और जिस तरह से वे चीन के हाथों खेल रहे हैं उससे भी रूस सतर्क है | हालांकि वह सीधे हस्तक्षेप से बचना चाहेगा लेकिन ताजिकिस्तान की मदद करने से भी परहेज नहीं करेगा | दूसरी तरफ ये खबर भी है कि अमेरिका मध्य एशिया के किसी देश में सैन्य अड्डा बनाने की फिराक में है | कुल मिलाकर अफगानिस्तान कहने को अमेरिका के चंगुल से मुक्त हो गया लेकिन अब वह नए चक्रव्यूह में फंसता नजर आ रहा है | प. एशिया के देश सीरिया में जिस तरह के हालात बीते अनेक सालों से बने हुए हैं वैसे ही इस पहाड़ी देश में बनने की आशंका है | चूँकि चीन से रूस और अमेरिका दोनों नाखुश हैं इसलिए उसकी अफगानिस्तान में दखलंदाजी नए शीतयुद्ध का कारण बन जाये तो आश्चर्य नहीं होगा | उस दृष्टि से आने वाले कुछ महीने बेहद महत्वपूर्ण होंगे | लेकिन इस सबके बीच सवाल ये है कि आखिर तालिबान को धन और हथियार कौन देता है ?
-रवीन्द्र वाजपेयी
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