Saturday 30 April 2022

खालिस्तानी आतंक के बीजों का अंकुरित होना शुभ संकेत नहीं



 वैसे तो हमारे देश में इस तरह की घटनाएँ आम हैं | लेकिन पंजाब के पटियाला नगर में गत दिवस शिवसेना द्वारा निकाले खालिस्तान विरोधी जुलूस पर खालिस्तान समर्थक सिखों के गुट द्वारा किये गये हमले के कारण उत्पन्न तनाव खतरनाक संकेत है | किसान आन्दोलन में भी खालिस्तानी समर्थकों  की मौजूदगी का मुद्दा उठा था  | गणतंत्र दिवस के दिन लाल किले पर हुए उत्पात में भी खालिस्तानी तत्वों को खुला हाथ था  | उसके बाद  आन्दोलन खत्म होते – होते तक दिल्ली और पंजाब में अनेक घटनाएँ ऐसी हुईं जिनसे खालिस्तान आन्दोलन के पुनर्जीवित होने की पुष्टि हो गई | उस आन्दोलन के समर्थन में कैनेडा और ब्रिटेन में कार्यरत  खालिस्तान समर्थक संगठनों  ने जिस तरह से धरना – प्रदर्शन करने के साथ ही आर्थिक सहायता भेजी उसे लेकर भी काफी टीका – टिप्पणी हुई | पंजाब में भी निहंगों ने अनेक हिंसक वारदातों को अंजाम देकर आतंक फ़ैलाने का कार्य किया | चूंकि राज्य विधानसभा का चुनाव नजदीक था इसलिए ये माना जाता रहा कि वह सब  चुनावी राजनीति का हिस्सा था | चुनाव के दौरान भी ये बात सामने आई कि खालिस्तान समर्थक तत्व भले ही खुलकर सामने न आ रहे हों लेकिन वे  अपने लिए उपयुक्त राजनीतिक दल और उम्मीदवार को समर्थन दे रहे थे | आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल पर तो उन्हीं के पूर्व साथी  डा . कुमार विश्वास ने गंभीर आरोप लगाये | चुनाव में आम आदमी पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला और भगवंत सिंह मान मुख्यमंत्री बनाये गए | पंजाब जबसे नया राज्य बना तबसे वहां या तो कांग्रेस सत्ता में रही या अकाली दल और भाजपा की मिली जुली सरकार बनी | इस प्रकार कभी पूरी तरह तो कभी  आंशिक तौर पर राष्ट्रीय पार्टी सत्ता  में रही | लेकिन हालिया सत्ता परिवर्तन में एक ऐसी पार्टी के हाथ सत्ता चली गयी है जिसकी राजनीतिक विचारधारा बहुत स्पष्ट नहीं है और जिसका उदय जनांदोलन के परिणामस्वरूप होने से उसके जनाधार में क्षणिक लाभ की आकांक्षा रखने वाले ही ज्यादा हैं | दिल्ली में मुफ्त बिजली और पानी के नाम पर चुनाव जीतने वाले फॉर्मूले को ही पार्टी ने पंजाब में अपनाया और मतदाताओं ने उसी आधार पर उसे सत्ता सौंप दी | लेकिन इस सीमावर्ती राज्य की सरकार को केवल बिजली , पानी  और सड़क का ही नहीं अपितु सीमा पार से आने वाले खतरों का भी ध्यान रखना पड़ता है | और उस लिहाज से  आम आदमी पार्टी की क्षमता और योग्यता का परीक्षण अभी बाकी है |  इसीलिये  गत दिवस पटियाला में शिवसेना द्वारा खालिस्तान विरोधी जो जुलूस निकाला गया उस पर सिखों के एक संगठन द्वारा किया गया हमला राज्य सरकार के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है | खबर है शिवसेना के स्थानीय नेता हरीश सिंगला को पार्टी ने निकाल बाहर किया जो उस जुलूस का आयोजक था | उनको  गिरफ्तार भी कर लिया गया | देखते – देखते बात हिन्दू – सिख विवाद का रूप ले बैठी | हिन्दू संगठनों द्वारा पंजाब बंद का आह्वान किये जाने की जानकारी भी आई है |  यदि उक्त जुलूस निकालने के लिए प्रशासन से अनुमति ली गई तब आयोजक की गिरफ्तारी का कोई औचित्य नहीं था और अनुमति नहीं थी तब जुलूस को निकलने से पहले ही रोकना प्रशासन और पुलिस का दायित्व था | लेकिन खालिस्तान समर्थक जुलूस तो देश विरोधी कृत्य कहलायेगा और इसलिए उसके आयोजकों  के विरुद्ध तो कड़ी कार्रवाई होनी ही चाहिए | रही बात शिवसेना नेता को पार्टी से निकाले जाने की तो इससे सभी  को आश्चर्य हुआ | अपेक्षित तो यही था कि सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे खालिस्तान विरोधी जुलूस के आयोजक अपने नेता को बधाई देकर  पंजाब में भारत विरोधी ताकतों का हौसला कमजोर करते | लेकिन उन्होंने जो फैसला लिया वह उनके समर्थकों को ही रास नहीं आ रहा  | शायद महाराष्ट्र की सत्ता में कांग्रेस और रांकापा की संगत ने श्री ठाकरे के हाथ -पैर बाँध दिए हैं  | बहरहाल आम आदमी पार्टी की राज्य सरकार के लिए भी ये कठिन परीक्षा की घड़ी है | खालिस्तान मुर्दाबाद का नारा लगाने वालों का विरोध करने निकले लोग भारत की एकता और अखंडता के लिए कितने खतरनाक होंगे ये बताने की जरूरत नहीं है | स्मरणीय है  पंजाब में खालिस्तान के नाम पर नब्बे के दशक में उपजा आतंकवाद कालान्तर में बेअसर हो गया था | उसके बाद वहां बारी – बारी से  कांग्रेस और  अकाली – भाजपा गठबंधन की सरकार बनती रही | उस दौरान कुछ अपवाद छोड़कर खालिस्तान के पक्ष में खुलकर बोलने की हिम्मत किसी की नहीं हुई | प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व  वाला अकाली दल आनन्दपुर साहेब प्रस्ताव के पक्ष में रहने के बाद भी खालिस्तान की मांग  के समर्थन से बचता रहा | लेकिन किसान आन्दोलन के दौरान खालिस्तान समर्थक जिस तरह से सामने आये और किसान नेताओं ने तात्कालिक लाभ हेतु उनकी अनदेखी की उसी का दुष्परिणाम पंजाब में अब देखने मिल रहा है | हालाँकि विधानसभा चुनाव में खालिस्तान मुद्दा नहीं था किन्तु उसके समर्थक एक संगठन द्वारा आम आदमी पार्टी को समर्थन दिए जाने की खबरें जरूर आईं | हालाँकि  पार्टी ने  तत्काल उससे दूरी बना ली किन्त्तु ये कहना गलत नहीं होगा कि मान सरकार बनने के बाद से खालिस्तान समर्थकों का हौसला बुलंद हुआ है | अन्यथा देश के टुकड़े करने वाली मांग के विरोध में निकाले गए जुलूस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी ? इस घटना के बाद मुख्यमंत्री ने दोनों पक्षों से शांति अपील की किन्तु उक्त विवाद को हिन्दू विरुद्ध सिख की बजाय खालिस्तान विरोधी और समर्थकों के बीच का विवाद कहना ज्यादा उचित रहेगा | पंजाब के आम सिख को खालिस्तान से कुछ लेना देना नहीं है | देश की एकता और अखंडता की रक्षा  के लिए इस समुदाय ने जो योगदान दिया उसी का नतीजा रहा कि लम्बे समय तक आतंक के साये में रहने के बाद भी पंजाब को भारत से अलग करने का खालिस्तानी षडयंत्र विफल साबित हुआ | ऐसा लगता है किसान आन्दोलन की आड़ लेकर देश विरोधी ताकतें एक बार फिर सिर उठाने  पर आमादा हैं | पंजाब सरकार को उनकी जड़ों को उखाड फेंकने का साहस दिखाना होगा | सिख धर्म और देशभक्ति एक दूसरे के पर्याय रहे हैं और हिन्दू – सिख एकता पंजाब की मिट्टी की पैदायश है | ऐसे में देश के किसी हिस्से में पनपने वाली अलगाववादी भावना को पूरी तरह कुचला जाना जरूरी है | कश्मीर घाटी में पाँव उखड़ने के बाद पाकिस्तान प्रवर्तित आतंकवाद अब पंजाब में अपने लिए गुंजाईश तलाश रहा है | खालिस्तानी  उग्रवादी भी सीमा पार से प्रशिक्षित होकर आते रहे हैं | गत दिवस पटियाला में जो कुछ हुआ उसे बानगी मानकर खालिस्तान समर्थकों की कमर तोड़ना बहुत जरूरी है | शिवसेना ने जो किया उसके पीछे उसके स्थानीय नेता की राजनीतिक सोच हो सकती है लेकिन खालिस्तान मुर्दाबाद कहने वालों का विरोध करने वाले तो देश विरोधी ही कहे जा सकते हैं | इसलिए उनके विरुद्ध वही कार्रवाई होनी चाहिए जो देश के दुश्मनों पर की जाती है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 29 April 2022

भौतिक सुविधाओं को कम न किया तो तापमान का अर्धशतक दूर नहीं



 गर्मियों के मौसम में गर्मी पड़ना नई बात तो हैं नहीं | लेकिन साल दर साल बढ़ता जा रहा तापमान जरूर चिंता और उससे भी ज्यादा चिंतन का विषय है | बीते दो – तीन दिनों से देश भर में ग्रीष्म लहर चल रही है | दर्जनों शहरों में तापमान 45 डिग्री से. तक जा पहुंचा है और  कहीं – कहीं तो उससे भी ऊपर | मौसम विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि गर्मी का प्रकोप और तेज होगा  | ज्यादातर राज्यों में चिर - परिचित जलसंकट की स्थिति भी बनी हुई है | अंतर्राष्ट्रीय हालातों ने कोयले की किल्लत पैदा कर दी  जिससे बिजली उत्पादन घट जाने से हो रही कटौती से लोग हलाकान  हैं |  इस साल मार्च के महीने से ही तापमान बढ़ने लगा जिसकी वजह से गर्मियों में आने वाली सब्जियों और फलों की पैदावार पर भी विपरीत असर पड़ा | सही बात ये  है कि इस साल गर्मियाँ समय से पहले आ धमकने के साथ ही कुछ ज्यादा ही रौद्र रूप दिखा रही है | यद्यपि इसमें अनोखा कुछ नहीं है क्योंकि तापमान में वृद्धि का सिलसिला साल दर साल इसी तरह चला आ रहा है | दुनिया भर में इसे लेकर चिंता व्याप्त  है | पृथ्वी को गर्म होने से बचाने के लिए तरह – तरह के उपाय भी हो रहे हैं | कोयले के साथ ही पेट्रोल – डीजल के उपयोग को कम करने की दिशा में जोरदार प्रयास भी जारी  हैं | लेकिन मैदानी इलाकों में पड़ने वाली गर्मी तो फिर भी समझ में आती हैं परन्तु अब तो पहाड़ी स्थलों पर भी पंखे और कूलर नजर आने लगे हैं | शिमला में जल संकट की स्थिति किसी से छिपी नहीं है | हिमनद ( ग्लेशियर )   पिघलने की वजह से पहाड़ों से निकलने वाली सदा नीरा नदियों के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं | छोटी नदियों में तो ग्रीष्म ऋतु के दौरान कीचड़ तक नहीं रहता | भूजल स्तर गिरते जाने से मानव निर्मित तालाबों और कुओं आदि में भी जल की उपलब्धता घटते - घटते उनके सूखने तक की नौबत आने लगी | संक्षेप में कहें तो स्थिति भयावह है | भारत में ऋतुओं का जो संतुलित रूप था उसकी वजह से हर मौसम का अपना आनंद था | लेकिन प्रकृति पर किये गये अत्याचारों ने उस चक्र की गति को बिगाड़ दिया | जिसका दुष्परिणाम कहीं सूखा तो कहीं  अति वृष्टि के रूप में सामने आने लगा है | इस साल अप्रैल खत्म होते तक गर्मी ने विकराल रूप धारण कर लिया है | बिजली और पानी दोनों की किल्लत के साथ ही आसमान से बरसने वाली आग लोगों के तन और मन दोनों को झुलसाती रहेगी | हर साल इस तरह के हालात पैदा होने पर हम सब प्रकृति और पर्यावरण के साथ हुए खिलवाड़ की चर्चा करते हुए ये स्वीकार करने की ईमानदारी तो  दिखाते हैं कि इस सबके लिए हमारे अपने कर्म ही जिम्मेदार हैं | लेकिन गर्मियां बीतते ही ये चिंता और चिन्तन अदालत की पेशियों की तरह आगे बढ़ जायेंगे | कहने को पूरी दुनिया पृथ्वी को बचाने के लिए प्रयासरत है | कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए समझौते और संधियाँ हो रही हैं | ऊर्जा के ऐसे वैकल्पिक स्रोत तलाशे जा रहे हैं  जिनसे तापमान को बढ़ने से रोका जा सके | वृक्षारोपण के सरकारी और गैर सरकारी अभियान भी निरंतर चलते रहते हैं | जल संरक्षण और संवर्धन के लिए भी हरसंभव कोशिश हो रही हैं | नदियों के साथ ही तालाबों आदि के जीर्णोद्धार की पहल भी सुनाई और दिखाई देती है | इस सबसे लगता है कि प्रकृति और पर्यावरण को उसका मूल स्वरूप देने के लिए मानव जाति संकल्पित हो उठी  है परन्तु  निष्पक्ष आकलन करें तो एक कदम आगे दो कदम पीछे की स्थिति  बनी हुई है | ऐसे में सवाल ये है कि हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए स्वच्छ हवा और पानी का प्रबंध कैसे करें ? इसका उत्तर भी बीते दो सालों में हमें मिला जब कोरोना के कारण लगे लॉक डाउन के दौरान  अचानक ऐसा लगा कि प्रकृति अपने नैसर्गिक स्वरूप में लौट आई है | नदियों के स्वच्छ होने , जलचरों और नभचरों की आनंदित करने वाली गतिविधियाँ , वायु प्रदूषण में आश्चर्यजनक कमी , आसमान साफ़ होने से दूरस्थ पर्वतों की  चोटियों के दर्शन जैसे अकल्पनीय अनुभवों के साथ ही गर्मियों के दौरान तापमान में उल्लेखनीय कमी आने के सुखद आश्चर्य के साथ हुआ साक्षात्कार ,  स्थितियाँ सामान्य  होते ही सुंदर  सपने की तरह विलुप्त हो गया | हम सभी उस दौर को याद करते हुए बेहिचक स्वीकार करते हैं कि यदि वैसा किया जावे तो पर्यावरण को बचाया जा सकता है | लेकिन व्यवहारिक तौर पर  आगे – पीछे होने लगते हैं | इस बारे में सोचने वाली बात ये है कि क्या हम अपनी सुविधाओं को कुछ समय के लिए उसी तरह नहीं त्याग सकते जैसे कभी – कभार उपवास  करते हैं | दिल्ली में वाहनों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए ऑड – ईवन का तरीका लागू किया गया किन्तु वह भी जन सहयोग के अभाव  में फुस्स हो गया | प्रति वर्ष सरकार करोड़ों वृक्ष लगाने का दावा करती है | समाजसेवी संस्थाएं भी इस अभियान में सहयोग करती हैं लेकिन शहरों की तो छोडिये अब तो ग्रामीण इलाकों तक में हरियाली लुप्त होती जा रही है | बढ़ती आबादी और प्रदूषण में निरंतर वृद्धि के अनुपात में जरूरी  वृक्ष  नहीं लगाये जाने से ही तापमान बढ़ने की नौबत आ रही है | हालांकि जो नुकसान हो चुका उसकी भरपाई आसान नहीं है किन्तु ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ खत्म हो गया हो | यदि आज भी हम अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करते हुए भौतिक  सुविधाओं को कुछ समय के लिए ही  सही त्यागने की मानसिकता विकसित कर लें तो जो शेष है कम से कम वह तो नष्ट होने से बचेगा और तब हमें भावी  सुधार के अवसर आसानी से मिल सकेंगे | नदियों में प्रवाहित की जाने वाली पूजन सामग्री ही बंद कर दी जाये तो उसके चमत्कारिक परिणाम आ सकते हैं | चौबीसों घंटे वातानुकूलित वातावरण में रहने वाले यदि कुछ कुछ घंटे सामान्य माहौल में रहने का अभ्यास करें तो आसपास का तापमान कम किया जा सकेगा | सप्ताह में एक दिन पेट्रोल –  डीजल चलित वाहन  का उपयोग न करने की प्रतिबद्धता भी पर्यावरण के लिए राहत होगी | छोटी – छोटी बातों से भी बड़े सुधार हो सकते हैं ये महात्मा गांधी जैसे लोगों ने साबित कर दिखाया है |  लालबहादुर शास्त्री ने विजय व्रत का आह्वान करते समय यही मन्त्र दिया था कि यदि आप एक समय का भोजन त्यागते हैं तो वह किसी भूखे का पेट भरने के काम आ सकेगा | भारतीय जीवन पद्धति में आत्म नियंत्रण के साथ ही प्रकृति और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील रहने का जो संस्कार निहित है , उसका पालन यदि पूरी ईमानदारी से करें तो चिंता कम की जा सकती है | पूर्वजों ने हमारे  लिए साफ़ हवा और शुद्ध जल का प्रबंध किया था | उसके पहले कि कुछ न कर पाने की स्थिति बन जाये , हमें अगली पीढी के  लिए अपने दायित्व का निर्वहन करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाने होंगे क्योंकि  तापमान का आंकड़ा अर्धशतक बनाने की तरफ तेजी से बढ़ रहा है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 April 2022

चौथी लहर की अनदेखी घातक होगी : बच्चों को संक्रमण से बचाना बड़ी चुनौती



कोरोना की चौथी लहर के संकेत आने लगे हैं | अनेक राज्यों ने मास्क न पहिनने पर अर्थदंड लगाना शुरू कर दिया है | चीन में तो कोरोना ने बुरी हालत कर रखी है | शंघाई में लाखों लोग घरों में बंद हैं | जरूरी चीजों के लिए मारामारी की भी खबर है | समाचार माध्यमों पर सरकारी नियन्त्रण होने से चूंकि सच्चाई दुनिया से छिपाई जाती है इसलिए वहां की अंदरूनी खबरें दबी रहती हैं | लेकिन ये बात बाहर आ चुकी है कि चीन कोरोना को जन्म देने के बाद उस पर नियंत्रण स्थापित करने में पूरी तरह विफल रहा है | उसकी बनाई वैक्सीन भी कारगर साबित नहीं हो सकी | इसीलिये उसकी वैश्विक स्तर पर कोई मांग नहीं हुई | कोरोना के बाद उसकी विश्वसनीयता पर भी प्रभाव पड़ा जिससे  कारोबारी सम्बन्ध रखने वाले देश उससे छिटके हैं | मौजूदा वर्ष में विकास दर को लेकर जो अनुमान लगाये जा रहे हैं उनके अनुसार चीन , भारत से पीछे रहेगा  | कोरोना की चौथी लहर उसे और पीछे धकेल  सकती है | वहीं भारत ने दूसरी लहर में जो देखा और भोगा उसके बाद हालात से लड़ने की समुचित रणनीति बनी जिसका लाभ ये हुआ कि 135 करोड़ लोगों में से अधिकतर का टीकाकरण बहुत ही सफलतापूर्वक किया जा सका | यही नहीं तो भारत में बनी कोरोना वैक्सीन पूरी दुनिया में उपयोग की गई | ऑक्सीजन की कमी को दूर करने के  प्रयासों का भी सकारात्मक असर देखने मिला | इसीलिये ओमिक्रोन के रूप में आई तीसरी लहर का प्रभाव ज्यादा नहीं हुआ | देश में आपातकालीन चिकित्सा सुविधाओं में भी काफी वृद्धि हुई है | सबसे बड़ी बात ये हुई कि दवा उत्पादन में भारत ने आत्मनिर्भरता की ओर तेजी से कदम बढ़ाये जिसके परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा में दवाओं का निर्यात होने लगा | इसकी मुख्य वजह कच्चे माल को तैयार करने में हासिल सफलता रही | यूक्रेन संकट के बाद से तो भारत के दवा उद्योग को दुनिया भर से आपूर्ति आदेश प्राप्त हो रहे हैं | कुल मिलाकर देखें तो स्थिति में 2020 की अपेक्षा काफी सुधार हुआ है | यही  वजह रही कि ओमिक्रोन कब आया और कब चला गया ये पता ही नहीं चला | जिससे न सिर्फ आर्थिक अपितु सामाजिक गतिविधियाँ भी सामान्य होने लगीं | शादी एवं अन्य आयोजनों पर लगी बंदिशें हट जाने से भी आर्थिक जगत गतिशील हुआ | कुल मिलाकर ये लगने लगा था कि कोरोना के रूप में आया अभूतपूर्व संकट वापिस लौट चुका है | लेकिन यूक्रेन पर रूस के  हमले ने नई समस्या पैदा कर दी जिसके कारण दुनिया भर की आपूर्ति व्यवस्था प्रभावित हो रही है | भारत की भूमिका इस संकट में और महत्वपूर्ण होने के संकेत मिले हैं | हमारा निर्यात तो बढ़ा ही है किन्तु इसके साथ ही कूटनीतिक जगत में भी भारत का मान  – सम्मान बढ़ा है | यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद भारत द्वारा राजनयिक स्तर पर जिस तटस्थता का परिचय दिया उसके बाद अमेरिका और  उसके समर्थकों ने काफी दबाव बनाने की कोशिश की किन्तु वे हमको डिगा नहीं सके | आज के हालात में भारत ही उन चुनिन्दा देशों में है जिसका कमोबेश पूरी दुनिया के साथ संवाद कायम है | यूक्रेन संकट का समाधान तलाशने में भी हमारी  भूमिका पर दुनिया की  नजर है | लेकिन इस सबके बीच कोरोना की चौथी लहर की आमद ने चिंता की लकीरें खींच दी हैं | बीते एक – दो सप्ताह के भीतर ही संक्रमण की गति में जिस तरह से वृद्धि देखने मिल रही है उसके मद्देनजर सावधानी न बरती गयी तब ज्यादा से ज्यादा लोगों के इसकी गिरफ्त में आने की सम्भावना रहेगी | यद्यपि कोरोना के दोनों टीके लग जाने के बाद ये माना  जाने लगा था कि सामूहिक रोग प्रतिरोधक क्षमता ( हर्ड इम्युनिटी ) विकसित हो जाने की वजह से भारत अगले हमले से सुरक्षित रहेगा लेकिन ताजा अध्ययनों में ये बात साफ़ हुई है कि टीकों का असर काफी घटा है जिसके कारण संक्रमण का खतरा बढ़ा है | इसलिए ये आवश्यक हो गया है कि चौथी लहर को भयावह न होने दिया जावे जिसके लिये कोरोना से बचाव संबंधी सभी सावधानियों का ध्यान रखना जरूरी है  , मसलन मास्क का उपयोग , हाथ धोते रहना और भीड़भाड़ से जितना हो सके दूरी बनाये रखना |  बुजुर्गों को बूस्टर डोज लगाये जाने के साथ ही बच्चों का टीकाकरण भी किया जा रहा है | अस्पतालों में बिस्तरों और ऑक्सीजन की उपलब्धता भी पर्याप्त है | इसके बावजूद कोरोना के नये  हमले से बचाव हेतु पूरी सतर्कता आवश्यक है क्योंकि इसका सीधा – सीधा असर हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा जो बमुश्किल पटरी पर लौटी है | कोरोना के पहले हमले के समय हम अनजान थे वहीं जब दूसरी लहर आई तब असावधानी  मुसीबत बन गई | तीसरी लहर आने तक देश के  साधारण नागरिक तक के  बचाव के प्रति जानकार होने की वजह से ओमिक्रोन ज्याद कुछ न कर सका और अर्थव्यस्था सुचारू रूप से चलती रही |  जनहानि भी न के बराबर  रही |  चौथी लहर का  चिंताजनक पहलू  ये है कि वह  बच्चों को भी चपेट में ले रही  है | सबसे बड़ी बात ये है कि वर्तमान में शालाएं खुली हुई हैं | कानपुर आईआईटी के शोधकर्ताओं  के अनुसार चौथी लहर आगामी अक्टूबर तक जारी रह सकती है | इसलिए जिन्हें दो टीके लग चुके हैं उन्हें भी लापरवाही से बचना चाहिए | साथ ही अभिभावकों और शाला संचालकों का दायित्व है कि वे बच्चों का टीकाकरण अवश्य करवा दें | हर्ष का विषय है कि हमारे कोरोना प्रबंधन की पूरी दुनिया में तारीफ हुई है | 135 करोड़ की बड़ी आबादी वाले देश में  टीकाकरण अभियान निश्चित रूप से बेहद कठिन था | लेकिन उसका संचालन जिस कुशलता और सफलता के साथ हुआ उसकी पूरी दुनिया कायल है | बावजूद इसके चौथी लहर ने जो कोहराम चीन में मचा रखा है उसे देखते हुए भारत को अतिरिक्त सावधानी की जरूरत है | बुद्धिमान व्यक्ति और देश वही होता है जो अतीत में  हुई गलतियोँ से सीखकर भविष्य को सुरक्षित बनाये | लेकिन इसके लिए जनता को भी सहयोग देना पड़ेगा | इस बारे में ध्यान रखने वाली बात ये भी है कि भारत अब वैश्विक शक्ति बन चुका है | इस वजह से न सिर्फ पड़ोसी अपितु दूर - दराज के देश तक हमारी तरफ उम्मीद भरी निगाह से देखने लगे हैं | इसीलिये हमें चौथी लहर के प्रभाव को रोकने के लिए पूरी तैयारी रखनी होगी |  पिछली गलतियों  से सीखते हुए कोरोना से बचाव के सभी तौर – तरीकों का पालन करना समय की मांग है | बच्चों को संक्रमण से बचाना भी किसी चुनौती से कम नहीं है | उम्मीद की जा सकती  है कि छोटी – छोटी सावधानियां रखते हुए हम इस बड़े संकट पर विजय प्राप्त करने में एक बार फिर सफल होंगे |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 27 April 2022

प्रशांत समझ गए कि कांग्रेस में घर की मुर्गी दाल बराबर हो जाएंगे



चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस में आने से मना कर दिया हैं | एक ट्वीट के जरिये उन्होंने ये तंज भी कसा कि कांग्रेस को उनकी नहीं सक्षम नेतृत्व और संगठन में सुधारात्मक बदलाव की जरूरत है | उनके द्वारा सौंपे  गये 600 पृष्ठीय सुझावों पर गांधी परिवार और उसके बेहद करीबी कुछ नेताओं ने भले ही अपनी  सहमति दी हो लेकिन जैसा कि सुनाई दे रहा है अधिकतर वरिष्ट नेता ही नहीं अपितु राज्य और जिला स्तर पर भी उनके विरोध में आवाजें उठ रही थीं | श्री किशोर चाहते थे कि वे जो कुछ भी करें उसकी जानकारी सीधे सोनिया गांधी को दें | इसके अतिरिक्त संगठन में बदलाव के साथ ही प्रत्याशी चयन  में भी वे पूरी छूट  चाहते थे | जैसी चर्चा है उसके अनुसार प्रशांत की बातें सोनिया जी और उनके बेटे – बेटी को तो रास आईं लेकिन  अधिकतर नेता इससे असहमत थे | निचले स्तर तक पार्टी के संगठन में बदलाव के  सुझाव से आम कार्यकर्ता में ये भय समा गया कि उनका पद न छिन जाए | पार्टी का एक वर्ग इस बात से भी आशंकित था कि चुनावी टिकिट बांटने में भी प्रशांत की चली तब उनके हाथ खाली रह सकते हैं | कांग्रेस हाईकमान के ज्यादातर सदस्य इस बात से भी नाराज थे कि गठबंधन जैसे मामलों में श्री किशोर की सलाह मानी  जाए | कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि वे  कांग्रेस को बेसहारा मानते हुए उसके सर्वेसर्वा बनना चाह रहे थे | लेकिन  गांधी परिवार की रजामंदी के बाद भी वे सफल नहीं हुए क्योंकि अन्य छत्रपों द्वारा उनकी राह में रोड़े अटकाए जाने लगे | इस सबसे प्रशांत को ये समझ में आ गया कि बतौर पेशेवर उनकी पूछ – परख और सम्मान बना रहेगा किंतु कांग्रेस के सदस्य बन जाने के बाद उनकी दशा घर की मुर्गी दाल बराबर जैसी होकर रह जायेगी | वैसे भी उनमें समायोजन की क्षमता बहुत कम है | नरेंद्र मोदी , नीतीश कुमार , राहुल गांधी और ममता बैनर्जी में से किसी के साथ उनकी पटरी नहीं बैठी तो इसका कारण महत्वाकांक्षी स्वभाव के साथ ही उनका ये अहंकार है कि उनके बलबूते ही चुनाव जीते जाते हैं | और इसलिए पार्टी पर हावी होना उनका अधिकार है | उन्हें लगा था कि चूंकि श्रीमती गांधी अस्वस्थतावश पहले जैसी सक्रिय नहीं रहीं वहीं राहुल और प्रियंका की  अपरिपक्वता और अनुभवहीनता सामने आ चुकी है , इसलिए  वे आसानी से देश  की सबसे पुरानी पार्टी पर कुंडली जमाकर बैठे रहेंगे और उसके हताश – निराश नेता उनके  आभामंडल से प्रभावित होकर उनके इर्द गिर्द मंडराएंगे | लेकिन चुनावी रणनीति के मामले में बेहद कामयाब कहे जाने वाले श्री किशोर ये भूल गए कि चुनाव जीतना और पार्टी चलाना दो अलग विधाएँ हैं |  बीते  कुछ दिनों में उन्होंने कांग्रेस के भीतर ये अवधारणा बिठाने का प्रयास किया   कि उनके पास  कोई राम बाण औषधि है जिसकी वजह से पार्टी बिस्तर पर पड़े रहने की स्थिति से उठकर सीधे युद्ध के मैदान में जाकर  जीत हासिल कर लेगी | लेकिन जल्द ही  उनको ये समझ में आ गया कि सदस्य बनने के बाद उन्हें पार्टी के अनुशासन में रहना होगा जिससे स्वतंत्रता खोने के साथ ही  उनके दामन पर राजनीतिक दल का ठप्पा लग जायेगा | उन्हें इस बात का भय भी सताने लगा कि यदि वे कांग्रेस को अपेक्षित सफलता नहीं दिलवा सके तब कांग्रेसजन के साथ ही  अन्य पार्टियों द्वारा भी उनका मजाक उड़ाया जावेगा | दरअसल प्रशांत और कांग्रेस दोनों एक दूसरे का उपयोग करना चाह रहे थे | लेकिन उनको जब ये लगा कि वह  इतना आसान नहीं है जितना वे समझ रहे थे तब नजदीकियां अचानक दूरियों  में बदल गईं | कांग्रेस भले ही आज दुरावस्था में हो लेकिन उसका फैलाव पूरे देश में किसी न किसी रूप में है | भले ही वह किसी एक परिवार या नेता को अपना रहनुमा मान ले लेकिन किसी पेशेवर को सर्वेसर्वा मानने की मानसिकता उसके भीतर जन्म नहीं ले सकी | बतौर रणनीतिकार वे श्रीमती गांधी और बाकी के नेताओं को 2024 के आम चुनाव हेतु अपने सुझावों पर अमल करने की सलाह देते तब शायद वे स्वीकार्य हो जाते किन्तु जब पार्टीजनों को लगा कि वे मुखिया बनकर सब कुछ अपने मुताबिक़ चलना चाहते हैं तब विरोध में आवाजें उठने लगीं | असलियत जो भी हो लेकिन प्रशांत का कांग्रेस में आना तो टल गया | अब सवाल ये बच रहता है कि क्या पार्टी उनके सुझाव मानेगी या अपने चिर परिचित घरेलू नुस्खों को  आजमाने का रास्ता चुनेगी | हालांकि समूचे प्रसंग में पार्टी की  नेतृत्व  शून्यता एक बार फिर उजागर हो गई | गांधी  परिवार स्वयं चूंकि प्रशांत को भाव दे रहा था इसलिए प्रारंभ में तो पार्टी जन शांत रहे लेकिन  ज्योंही उनको लगा कि एक पेशेवर आकर उनको हांकेगा त्योंही उनके तेवर उग्र होने लगे | जिसका एहसास होते ही श्री किशोर  ये समझ गये कि इस  मरीज की हालत सुधरने की कोई उम्मीद नहीं है |  उनके द्वारा 600 पृष्ठों की जो रिपोर्ट वरिष्ट नेताओं को सौंपी गई उस बारे में भी सुनने में आया कि उसके पन्ने पलटने तक की तकलीफ किसी ने नहीं उठाई | इस प्रकार कांग्रेस के पुनरुत्थान का जो प्रयास चर्चा में आया था वह बेमौत मर गया | हालाँकि प्रशांत भी बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने का जो दुस्साहस करने जा रहे थे वह अंततः उनके गले का फंदा बनने जा रहा था | जैसे ही उन्हें इसका आभास हुआ  वे अपनी दूकान समेटकर चलते बने | सवाल ये है कि क्या कांग्रेस उनकी रिपोर्ट के आधार पर अपने घर को व्यवस्थित करेगी अथवा पूर्ववत  बनी रहेगी ? जहां तक बात प्रशांत की है तो वे एक सिद्धहस्त व्यवसायी हैं जिनके हर कदम में केवल और केवल उनका स्वार्थ होता है | आज एक पार्टी को छोड़ कल वे दूसरी को जिताने  में लग जाएंगे  | ऐसे में उन पर पूरी तरह भरोसा करना भी आसान नहीं होता | चुनावी रणनीति बनाने  से हटकर जबसे  खुद राजनीति करने लगे तभी से वे शंकास्पद हो गये  | कांग्रेस में एक वर्ग ऐसा भी है जिसे लग रहा था कि वे किसी राजनीतिक दल द्वारा कांग्रेस में सेंध लगाने भेजे गये थे | आज की राजनीति में इस तरह के तरीके  अस्वाभाविक  भी नहीं हैं | वैसे भी उनका अपना कोई सिद्धांत या विचारधारा तो है नहीं  जिसकी वजह से वे एक खूंटे से बंधकर रहें | परस्पर विरोधी विचारधारा के दलों और नेताओं के लिये काम करने में उन्हें न कोई शर्म है न ही संकोच | ऐसे में कांग्रेस के साथ उनकी पटरी न बैठना स्वाभाविक ही था | कुछ हद तक ये कांग्रेस के हित में भी है क्योंकि प्रशांत की हेड मास्टरी से अनेक नेताओं के पार्टी छोड़ने की आशंका थी | हालांकि इससे श्री किशोर की स्थिति भी कम हास्यास्पद नहीं हुई जो कि दूसरे की दूकान पर अपनी नाम पट्टिका लगाने की सोचने लगे थे | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 26 April 2022

नेता , नौकरशाह और भूमाफिया की मिलीभगत से बनती हैं अवैध कालोनी



सर्वोच्च न्यायालय का ये कहना बहुतों को नागवार गुजरा होगा कि  अवैध कालोनियां शहरी विकास  के लिए खतरा हैं | सरकारी के साथ ही निजी जमीनों पर नियम विरुद्ध बसाई गईं कालोनियां निश्चित रूप से किसी भी शहर की शक्ल बिगाड़ देती हैं | वैसे तो न्यायालय के सामने तेलंगाना , आंध्र  और तमिलनाडु संबंधी  याचिका विचारार्थ आई थी परन्तु उसने कहा कि ये समस्या राष्ट्रव्यापी है इसलिए इस पर समग्रता से विचार होना चाहिए | उसका ऐसा सोचना सही भी है क्योंकि विभिन्न राज्यों ने अवैध कालोनियों को वैध करने संबंधी अलग – अलग नीतियाँ और नियम बना रखे हैं | चुनाव पास आते ही सरकार में बैठे लोग अवैध कलोनियों को वैध करने का फैसला कर लेते हैं | कुछ राशि बतौर जुर्माने के वसूलकर अवैध को वैधता का प्रमाणपत्र दे दिया जाता है | ये सिलसिला लम्बे समय से चला आ रहा है | ज्यों – ज्यों शहर बड़े होते जा रहे हैं त्यों – त्यों अवैध कालोनियां और झुग्गी – झोपड़ी भी बढ़तीं जा रही हैं | शहर के बाहर बसाई जाने वाली कालोनियां धीरे – धीरे उसके भीतर आ जाने के कारण औरों के लिए मुश्किलें पैदा करने वाली बन जाती हैं | भले ही सरकार वोटों के लालच में इनको कानूनी जामा पहिना दे लेकिन बेतरतीब ढंग से विकसित होने के कारण ये समस्याग्रस्त बनी रहती हैं | यही हाल झुग्गियों का भी है | सही बात तो ये है कि चाहे अवैध कालोनी हो या फिर झुग्गी – झोपड़ी वाली बस्तियां , इन्हें बसाने में जिस – जिसकी भूमिका हो उन्हें दण्डित किये बिना इस समस्या का हल संभव नहीं  होगा | सर्वोच्च न्यायालय की संदर्भित चिंता  बौद्धिक स्तर पर भले ही दो – चार दिन विमर्श में रहे लेकिन जब तक राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव सहित  नेता और नौकरशाहों का भूमाफिया से अघोषित गठबंधन चलेगा तब तक इस समस्या का हल नामुमकिन है | किसी भी शहर में बनने वाली अवैध कालोनी रातों – रात तो खड़ी नहीं  हो जाती | इसी तरह झुग्गियां भी धीरे – धीरे विकसित होती हैं | उनके अस्तित्व में आते समय उन पर जिस सरकारी विभाग को नजर रखना चाहिए वह उस अवैध कृत्य को नजरंदाज कर देता है जिसके पीछे मुख्य वजह पैसे के लेनदेन के अलावा सत्ताधीशों का दबाव होता है | यही वजह है  कि जब अवैध निर्माण तोड़ने की बात आती है तब नेतागिरी आड़े आ जाती है | चुनाव नजदीक आते ही अवैध को वैध करने का गोरखधंधा भी शुरू हो जाता है | झुग्गियों में रहने वालों को एक जगह से हटाकर  दूसरी जगह बसाये जाने के कारण भी अतिक्रमण की प्रवृत्ति को बढावा मिलता है | ये समस्या पहले महानगरों में ज्यादा  दिखाई पड़ती थी  किन्तु अब तो छोटे शहरों से होते – होते कस्बों तक में इसकी मौजूदगी देखी जा सकती है | सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे व्यापक  परिप्रेक्ष्य में देखने के बाद हो सकता है इसे लेकर कोई राष्ट्रीय नीति बन जाये | दरअसल अवैध कालोनियां और झुग्गियों के पीछे भी सोची – समझी रणनीति होती है | इनको बनाते समय ही ये विश्वास होता है कि अवैध को अंततः वैध कर दिया जावेगा और कब्जे के बदले दूसरी जगह का कब्ज़ा मिलेगा | लेकिन जब किसी भी प्रकार का अवैध निर्माण या कब्जा होता है तभी उसे रोकने के लिए प्रशासन आगे  आये और नेतागण बाधा न बनें  तभी समस्या का हल संभव है | जब तक अतिक्रमण और अवैध निर्माण होते देखने वाले सरकारी अमले की जिम्मेदारी तय नहीं की जाती तब तक ये सिलसिला अनवरत जारी रहेगा | लेकिन नौकरशाही को कठघरे में खड़ा  करने से पहले राजनेताओं को अपना दामन साफ़ करना होगा जो भूमाफिया से मिलने वाली आर्थिक मदद के बोझ तले नियम विरुद्ध  निर्माण को संरक्षण देने में तनिक भी नहीं  झिझकते |  चुनाव के पहले अवैध कालोनियों को वैध बनाने के पीछे नोट और वोट दोनों की भूमिका होती है | ऐसा ही झुग्गियों को हटाकर दूसरी जगह  बसाने के मामले में भी  है | गरीबों को आवास देने की नीति गलत नहीं है लेकिन अतिक्रमण को प्रोत्साहित करने वाली राजनीति पर विराम लगना जरूरी है | इस आधार पर सर्वोच्च न्यायलय की चिंता पूरी तरह जायज है क्योंकि अवैध कालोनी और झुग्गियां शहरी विकास की राह में रोड़ा बनती हैं | नियम विरुद्ध कालोनी बनाने वाले सस्त्ते भूखंड बेच देते हैं लेकिन सड़क , नाली , उद्यान आदि का ध्यान नहीं  रखे जाने के कारण भविष्य में रहवासियों को खून के आंसू रोने पड़ते हैं | सवाल ये भी है कि अवैध कालोनी को बिजली और स्थानीय निकाय से जल की  आपूर्ति कैसे होती है ? अनेक झुग्गी बस्तियों में पक्की सड़कें , सरकारी नल और बिजली के खम्बे जन प्रतिनिधि वोटों की लालच में लगवाते हैं | कुल मिलाकर समूचा  खेल एक  गिरोहबंदी का परिणाम है | यदि नेता , नौकरशाह और भू माफिया के बीच संगामित्ती न हो तब अवैध कालोनी या झुग्गी बनना सम्भव ही नहीं है | जनहित में इनके प्रति सहानुभूति दर्शाने के कारण लोगों की मानसिकता ये हो चुकी है कि आज जो अवैध है उसे  कल वैध हो ही जाना है | झुग्गियों के तौर पर बस्ती बस जाने के बाद चूंकि वहां सैकड़ों मतदाता रहते हैं इसलिए कोई नेता उन्हें हटाने का साहस नहीं दिखाता | उल्टे जब अतिक्रमण विरोधी कार्रवाई होती है  तब नेतागण ही सामने आकर उसे रुकवाते हैं | इस बारे में ईमानदारी से पड़ताल करवाई जावे तो ये बात उजागर हुए बिना नहीं रहेगी कि उन सबके पीछे नेता , नौकरशाह और भू माफिया की मिली भगत थी | सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस समस्या का राष्ट्रीय  संदर्भ में संज्ञान लिए जाने के बाद ये प्रश्न स्वाभाविक तौर पर उठता है कि अवैध निर्माण या कब्जे को वैधता प्रदान कर गलत कार्य को प्रोत्साहित करना कहाँ तक  उचित है ? यदि अवैध कलोनियों को वैध करना ही है तो उसकी एक अंतिम तारीख तय कर दी जावे और उसके बाद बनने वाली अवैध कालोनी को किसी भी  तरह की रियायत न मिले |  इसी प्रकार झुग्गी बस्तियों में रहने वालों के पुनर्वास के लिए भी  ठोस नीति के अंतर्गत कड़े प्रावधान जब तक नहीं किये जाते तब तक ये समस्या  बनी रहेगी | मोदी सरकार स्मार्ट सिटी परियोजना के साथ ही स्वच्छता अभियान पर अरबों रूपये खर्च कर रही है , लेकिन अवैध कालोनियों और झुग्गी बस्तियों को अभय दान देने की नीति नहीं बदली जाती तब हालात और भी बदतर होना सुनिश्चित है | जो अवैध है उसे निहित स्वार्थवश  वैध बनाने की सोच ही मौजूदा समस्या के मूल में है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 25 April 2022

विश्व युद्ध न सही लेकिन उस जैसे ही हालात बन रहे हैं



2019  के उत्तरार्ध से शुरू हुआ वैश्विक संकट खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा | पहले कोरोना ने पूरी दुनिया को हलाकान किया जिससे  सब कुछ ठहर सा गया | बिना एक भी गोली चले ही करोड़ों लोगों की मौत हो गयी | ज्ञान – विज्ञान और तकनीक सब धरे रह गये | लेकिन मनुष्य की संघर्षशीलता ने एक बार फिर ये साबित कर दिया कि उसमें अपने अस्तित्व को बचाए रखने की सनातन प्रवृत्ति आज भी कायम है और उसी के बलबूते मानव जाति लगभग 100 साल बाद आई उस विपदा का सामना कर सकी | लेकिन उसके समाप्त होने के बाद राहत की सांस ठीक से ली जाती  इसके पहले ही रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण किए जाने से पूरी दुनिया एक बार फिर संकट से गिर गयी | जिस तरह कोरोना ने चीन से शुरू होकर पूरी  दुनिया को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया ठीक वैसी ही स्थिति रूस – यूक्रेन युद्ध से उत्पन्न हो गई | कहने को तो ये दो पड़ोसी देशों के बीच की जंग है | भारत और पाकिस्तान  बीते 75 साल में चार बार युद्ध लड़ चुके हैं | चीन के साथ भी 1962 में बड़ी जंग हुई थी | पश्चिम एशिया में इजरायल के गठन के बाद से न जाने कितने बड़े और छोटे युद्ध हो चुके हैं | ईरान और ईराक लगभग एक दशक तक युद्धरत रहे | सीरिया संकट ने भी दुनिया को काफी प्रभावित किया | अमेरिका  भी वियतनाम और अफगानिस्तान में कई दशक तक लड़ाई में उलझा रहा | रूस भी इस देश में लम्बे समय तक काबिज रहा | इस सबके कारण वैश्विक परिस्थितियां प्रभावित भी हुईं  | साठ के दशक में तो क्यूबा को लेकर अमेरिका और सोवियत संघ के बीच परमाणु युद्ध जैसे हालात बन गये थे | लेकिन इन सबका दुनिया की  अर्थव्यवस्था  पर उतना प्रभाव नहीं पड़ा  जितना कोरोना और उसके बाद  रूस – यूक्रेन जंग का हुआ है | कोरोना के कारण बिना युद्ध के ही पूरी दुनिया को खून के आंसू रोना पड़े | मृत्यु का ऐसा तांडव लगभग एक सदी के बाद देखने मिला | चिकित्सा विज्ञान की  समस्त उपलब्धियां एक अदृश्य वायरस के सामने घुटने टेक गईं | हालाँकि उस स्थिति पर भी आख़िरकार काबू पा लिया गया परंतु उसके कारण पूरी दुनिया बरसों पीछे चली गयी | न केवल अर्थव्यवस्था अपितु मानसिकता को भी कोरोना ने प्रभावित किया |  वह दौर  जो  भयावह अनुभव दे गया उनकी स्मृति मात्र विचलित कर देती है | धीरे – धीरे उस माहौल से विश्व उबरने के स्थिति में आया ही था कि रूस ने यूक्रेन पर सैन्य कार्यवाही करते हुए दूबरे में दो आसाढ़ वाले हालात बना दिए | कहने को तो ये दो पड़ोसी मुल्कों के बीच का विवाद है जिसमें जाहिर तौर पर बतौर  महाशक्ति रूस को जीत हासिल हो जाना चाहिए थी किन्तु दो महीने होने को आ रहे हैं लेकिन उसको अब तक मिली सफलता उसकी अपार सैन्य शक्ति के लिहाज से तो नगण्य ही है | हालांकि उसने यूक्रेन को मलबे के ढेर में बदल दिया है | फिर भी  इक्का – दुक्का इलाके हथियाने के सिवाय अब तक उसके हाथ ऐसा कुछ भी नहीं लगा जिसे उपलब्धि कहा जा सके  | इसका कारण ये रहा कि दो देशों का यह युद्ध अप्रत्यक्ष तौर पर लघु विश्व युद्ध का रूप ले बैठा | यूक्रेन द्वारा अमेरिका के प्रभुत्व वाले नाटो नामक सैन्य संगठन का  सदस्य बनने के फैसले के कारण यह स्थिति निर्मित हुई | इसलिए अमेरिका मैदान में भले न कूदा हो लेकिन उसने रूस की आर्थिक मोर्चेबंदी करने के साथ ही यूक्रेन को जिस तरह से आर्थिक और सैन्य सहायता देने की पहल की और उसकी देखा - सीखी उसके गुटीय साथी देशों ने भी उसको जात – पांत से बाहर करने जैसे नीतिगत निर्णय लेकर घेराबंदी कर डाली | इसका सीधा असर दुनिया के आर्थिक व्यवहार पर पड़ा और न सिर्फ पेट्रोल – डीजल तथा गैस अपितु खाद्यान्न तथा तिलहन की समस्या भी उठ खड़ी हुई | चूंकि युद्ध का अंत होता नजर नहीं आ रहा इसलिए पूरी दुनिया चिंता के साथ ही भयग्रस्त बनी हुई है | रूस के राष्ट्रपति पुतिन भी हिटलर की तरह शेर पर सवार तो गए लेकिन उससे उतरने में उनके भी पसीने छूट रहे हैं | पूरी तरह खंडहर होने के बाद भी यूक्रेन अपने अस्तित्व के लिए आखिरी साँस तक लड़ने का जो जज्बा प्रदर्शित कर रहा है उसे देखते हुए इस संकट के लम्बे खिंचने की आशंका दिन ब दिन प्रबल होती जा रही है | इसके पीछे यूक्रेन की सरकार और जनता की संकल्पशक्ति से ज्यादा अमेरिका और उसके मित्र देशों द्वारा उसे दी जा रही मदद काम कर रही है | इस जंग के लिए रूस पूरी तरह से कठघरे में है लेकिन यूक्रेन के मौजूदा शासक जेलेंस्की भी कम कसूरवार नहीं हैं जो अमेरिका के मौखिक आश्वासन पर रूस जैसी महाशक्ति से ऊंची आवाज में तू – तड़ाक करने की भूल कर बैठे | इस युद्ध का अंतिम नतीजा क्या होगा ये बताने में अच्छे – अच्छे कूटनीतिक विशेषज्ञ असमर्थ हैं | लेकिन इतना जरूर है कि इसकी वजह से चाहे - अनचाहे दुनिया विश्व युद्ध जैसी मुसीबतें झेलने मजबूर हो रही है | मसलन रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने के साथ ही विश्व व्यापार का पूरा ढांचा हिल गया है | रूस से कच्चा तेल और अनाज खरीदने वालों पर मुसीबत आ गयी है | इनमें यूरोप के वे देश भी हैं जिन्होंने अमेरिका के दबाव में आकर रूस से रिश्ते तोड़ लिए | इसी तरह रूस इनसे जो कुछ  खरीदता था उसकी आपूर्ति बंद होने से खरीददार और विक्रेता दोनों की व्यवस्था गड़बड़ा गई है | जिन देशों के पास निर्यात लायक वस्तुएं हैं उनके द्वारा आपातकालीन स्थिति के मद्देनजर उसे  रोके जाने से उनके आयातक दिक्कत में आ गये हैं | उदाहरण के तौर पर मलेशिया द्वारा पाम आइल का निर्यात रोके जाने से भारत जैसे देशों में खाद्य तेल का संकट पैदा होने लगा है | सैन्य सामग्री के व्यापार पर भी इस युध्द का असर पड़े बिना नहीं  रहेगा | सबसे बड़ी बात ये होगी कि इस युद्ध में यूक्रेन की हार रूस के राष्ट्रपति पुतिन में जो उन्माद  पैदा करेगी उसका शिकार स्वीडन और फिनलैंड जैसे छोटे पड़ोसी देश हो सकते हैं , जिन्हें पुतिन ने हाल ही में धमकाया भी है | इसके विपरीत यदि रूस लम्बे समय तक युद्ध में फंसा रहा तब  हताशा में उसके हुक्मरान हिटलर की तरह बदहवासी में आत्मघाती कदम उठाकर दुनिया को आग में झोंक सकते हैं | इसके साथ ही चीन में कोरोना की चौथी लहर जिस तरह से आई है उसने एक बार फिर इसके विश्वव्यापी फैलाव की स्थितियां पैदा कर दी हैं |  हालांकि इसकी विकरालता कितनी होगी ये अभी कहना कठिन है लेकिन पिछले अनुभव यदि दोहराए गये तब वह स्थिति बहुत ही दर्दनाक होगी | कुल मिलाकर दुनिया इस समय बहुत ही असमंजस में फंसी है | रूस और यूक्रेन  में युद्ध के समानांतर चीन में कोरोना की  चौथी लहर के पूरे जोर से आ जाने के बाद पूरी दुनिया में दहशत हैं क्योंकि इस बार भी संक्रमण का विस्तार वैश्विक स्तर पर हुआ तब सबसे बड़ा खतरा इस बात को लेकर होगा कि पिछली लहरों के दौरान तो पूरा विश्व कोरोना से लड़ने एकजुट था लेकिन यूक्रेन संकट ने जिस तरह से उसे खेमों में बाँट दिया है उसके कारण उस स्थिति से निपटना आसान नहीं रहेगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 23 April 2022

समान नागरिक संहिता : मौका भी है और जरूरत भी



नवरात्रि के दौरान दिल्ली स्थित जेएनयू  छात्रावास के भोजनालय में मांसाहारी भोजन पकाने पर हुए विवाद के संदर्भ में असदुद्दीन ओवैसी ने एक टीवी साक्षात्कार में कहा कि देश आस्था से नहीं  संविधान से चलना चाहिए | लेकिन जब उनके धर्म से जुड़ी आस्था का सवाल उठता है तब वे या उन जैसे अन्य मुस्लिम नेता इस्लामिक मान्यताओं के पालन पर जोर देने लगते हैं | दरअसल धर्म के नाम पर देश का बंटवारा होने के बाद पाकिस्तान तो  इस्लामिक देश बन गया किन्तु भारत ने धर्म निरपेक्षता को अपनाया | लेकिन  मुस्लिम पर्सनल लॉ के नाम पर एक विसंगति पैदा कर दी गई जिसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों के सामाजिक रीति – रिवाजों को संरक्षण देना था किन्तु  इसका दुष्परिणाम अलगाववाद की भावना को पुनर्जीवित करने के तौर पर सामने आने लगा | ये ठीक वैसे ही है जैसे  जम्मू – कश्मीर को धारा 370 के अंतर्गत दिए गये विशेष दर्जे के कारण कश्मीर घाटी में अलगाववादी भावनाएं मजबूत हुईं | मुस्लिम पर्सनल लॉ की देखा - सीखी वृहत्तर हिन्दू समाज के अन्य घटकों में भी अल्पसंख्यक बनने की ललक जागी परन्तु  उनका अपना पर्सनल लॉ नहीं है | इसी तरह ईसाई भी अल्पसंख्यक माने जाते हैं | कहने को तो पारसी समुदाय भी धार्मिक अल्पसंख्यक है लेकिन उसकी तरफ से शायद ही  ऐसी आवाज सुनाई देती हो जिससे वह मुख्य धारा से अलग प्रतीत हो |  सिख , जैन और बौद्ध अपने को कितना भी अलग मानें परंतु देश  की मुख्य सामाजिक धारा में वे पूरी तरह  घुले - मिले हैं | लेकिन अलग पर्सनल लॉ  होने के कारण मुस्लिम  समुदाय मुख्य धारा से दूर  होता गया और इसी  वजह से सांप्रदायिक विवाद पैदा होते  हैं | शरीयत के नाम पर खुद को विशेष  साबित करने के फेर में मुस्लिम समाज आजादी के 75 साल भी अलग - थलग नजर आता है | जब भी वह किसी परेशानी में होता है तब संविधान की दुहाई देने लगता है परन्तु सामान्य स्थितियों में उसे शरीयत और पर्सनल लॉ याद आने लगते हैं | इस विसंगति को दूर करने के लिए लम्बे समय से ये बात उठती रही है कि दंड विधान संहिता की तरह से ही नागरिक संहिता में भी एकरूपता होनी चाहिए | उल्लेखनीय है कि पर्सनल लॉ को बनाए रखने के पक्षधर मुस्लिम नेता भूलकर भी इस्लामिक दंड विधान को लागू करने की बात नहीं कहते | उनके अपने पर्सनल लॉ का ही परिणाम अल्पसंख्यकवाद के  रूप में सामने आया जिसे वोट बैंक की  राजनीति ने और हवा दी | सामाजिक ताने बाने के लिए ये प्रवृत्ति कितनी नुकसानदेह हुई ये किसी से छिपा नहीं है | और इसीलिये ये मांग लम्बे समय से उठ रही है कि सामान  दंड  विधान संहिता की  तरह समान नागरिक संहिता भी होनी चाहिए | सर्वोच्च न्यायालय भी इस बारे में सांकेतिक सलाह अनेक अवसरों पर दे चुका है | निजी बातचीत में तमाम राजनीतिक नेता इसका समर्थन करते हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से ऐसा कहने का साहस उनमें नजर नहीं आता | जिसका एकमात्र कारण वोट बैंक की राजनीति है | गत दिवस केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भोपाल में राम मंदिर और धारा 370 के बाद समान नागरिक संहिता की बारी कहकर राजनीतिक जमात को  नई बहस का अवसर दे दिया है | भोपाल में भाजपा की बैठक में उन्होंने इस बारे में कहा कि उत्तराखंड में इसे प्रायोगिक तौर पर लागू किये जाने के बाद मसौदा तैयार है | राजनीतिक विश्लेषक भी ये स्वीकार करते हैं कि कोरोना न आता तो अब तक ये कानून पारित हो चुका होता | उ.प्र और उत्तराखंड में मिली चुनावी सफलता ने भाजपा के मन से मुस्लिम मतों की  नाराजगी का खौफ भी खत्म कर दिया है | ऐसे में ये उपयुक्त  समय है जब केंद्र सरकार इस दिशा में आगे बढ़े | राज्यसभा में भी भाजपा की सदस्य संख्या में काफी इजाफा हुआ है और फिर इस विषय पर उसे शिवसेना का भी  समर्थन मिलना तकरीबन तय है | भाजपा राजनीतिक दृष्टि से भी इस दिशा में शीघ्रता करना चाहेगी क्योंकि उसे निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनावों में जहाँ हिमाचल ,  गुजरात और म.प्र में अपनी सरकारें बचानी हैं वहीं राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पिछली  पराजय से उबरकर सत्ता हासिल करना है | 2024 के लोकसभा चुनाव में वह मतदाताओं के सामने ये कहते हुए जाना चाह रही है कि उसने जो कहा वह करके भी दिखा दिया | मसलन राम मंदिर , धारा 370 और समान नागरिक संहिता जैसे अपने वायदे पूरे कर दिये | श्री शाह ने जो संकेत दिया उसे केंद्र  सरकार के बढ़े  हुए आत्मविश्वास का प्रमाण भी कह सकते हैं क्योंकि मौजूदा समय में कांग्रेस सहित शेष विपक्ष पूरी तरह बिखरा है | गत वर्ष प. बंगाल में ममता बैनर्जी को जो बड़ी सफलता मिली  उसके बाद विपक्ष का हौसला काफी बुलंद था क्योंकि इस राज्य में भाजपा बड़ी चुनौती बनकर उभरी थी | केरल में वह पैर ज़मा रही है जबकि  तमिलनाडु में आज भी पहिचान का संकट उसके सामने है | असम में जरूर उसने खुद को मजबूत कर लिया  हैं | लेकिन प. बंगाल में पूरा जोर लगाने के बावजूद भाजपा सत्ता से काफी पीछे रही | उसके बाद निश्चित तौर पर उसका मनोबल गिरा। लेकिन उ.प्र और उत्तराखंड के साथ ही मणिपुर और गोवा जीतने के बाद मोदी – शाह की जोड़ी राजनीतिक परिदृश्य पर एक ताकतवर समीकरण के तौर पर उभरी है | और इसीलिए हिमाचल और गुजरात के अलावा म.प्र .राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है | श्री शाह द्वारा भोपाल में समान नागरिक संहिता को लेकर दिया गया संकेत उस दृष्टि से काफी मायने रखता है | भाजपा को ये लगने लगा है इस विधेयक को लाने  का ये सबसे बेहतर समय है क्योंकि मुख्य धारा की सभी पार्टियों के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण के साथ ही हिन्दू मतों को रिझाना भी जरूरी हो गया है | तभी राहुल गांधी जनेऊधारी बनकर अयोध्या के महंतों की सेवा में जाते हैं , अखिलेश यादव चाहे  - अनचाहे परशुराम मंदिर का उदघाटन करते हैं , बसपा ब्राह्मण सम्मलेन आयोजित करने मजबूर है , अरविन्द केजरीवाल हनुमान चालीसा सुना रहे हैं और ममता बैनर्जी मंच से काली पाठ कर रही हैं | लेकिन मुस्लिम मतों के लिए इनका झुकाव  बहुसंख्यक ध्रुवीकरण का कारण बन गया | भाजपा भी इस सूत्र को समझकर बिना  झिझके अपनी आधारभूत नीतियों को अमली जमा पहिनाने में जुट गई है | आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में संयोगवश राजनीतिक परिस्थितियां उसके सर्वथा अनुकूल हैं और नरेंद्र मोदी का कद जिस ऊंचाई को छू रहा है उसके कारण वह बड़े फैसले करने में सक्षम है | शायद यही सोचकर श्री शाह ने गत दिवस भोपाल में  में समान नागरिक संहिता लागू करने का इरादा जताया | संसद के  दोनों सदनों में बहुमत के चलते इसे पारित करवाने में ज्यादा परेशानी भी  नहीं होगी | जहां तक बात विपक्ष की है तो उसके लिए समान नागरिक संहिता न उगलते बने  और न निगलते वाली स्थिति उत्पन्न करने वाली है |  उसका विरोध उसे बहुत महंगा पड़ेगा वहीं समर्थन करने पर भी उसके हाथ कुछ नहीं लगने वाला | अमित शाह चूंकि प्रधानमंत्री के सबसे करीबी हैं और अध्यक्ष न होते हुए भी पार्टी पर उनका वर्चस्व बना हुआ है इसलिए ये माना  जा सकता है कि केंद्र सरकार ने इस बारे में तैयारी शुरू कर दी है | करौली , खरगौन और दिल्ली में  जहांगीरपुरी के दंगों के बाद इसकी जरूरत तेजी से महसूस की जाने लगी है | उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता  का निर्णय प्रायोगिक तौर करने के बाद भाजपा उसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने जा रही है तो इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है | आख़िरकार ये उसके मूल उद्देश्यों में शुरू से शामिल रहा है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 22 April 2022

अतिक्रमण और अवैध निर्माण किसी का भी हो टूटना चाहिए



 दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में हुए सांप्रदायिक उपद्रव के बाद नगर निगम द्वारा अतिक्रमण तोड़े जाने की कार्रवाई के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय ने परसों लगाये स्थगन को जारी रखा किन्तु एक अन्य याचिका के जरिये अन्य राज्यों में चलाये जा रहे बुलडोजरों को रोकने से इंकार कर दिया | दिल्ली के मामले में पेश की गई याचिका में जहां बिना पूर्व सूचना दिए अतिक्रमण तोड़ने की शिकायत है वहीं अन्य याचिका में सम्प्रदाय विशेष के अतिक्रमण तोड़ने का मुद्दा उठाया गया है | उ.प्र में योगी सरकार ने अपराधियों के अवैध निर्माण तोड़ने के लिए बुलडोजरों का जिस तरह इस्तेमाल किया वह हालिया विधानसभा चुनाव में बड़ा मुद्दा बना जिसने योगी सरकार की वापिसी में बड़ा योगदान दिया | उसके बाद म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी बुलडोजर का सहारा लेकर प्रदेश भर में अतिक्रमण और अवैध निर्माण तोड़ने का सिलसिला शुरू किया | खरगौन में हुए  दंगों के बाद उपद्रवी तत्वों के ठिकानों पर बुलडोजर चलाने की कार्रवाई पूरे देश में चर्चा का विषय बन गई | लेकिन योगी की तरह शिवराज सरकार पर भी ये आरोप लगने लगे कि वह भी धार्मिक आधार पर भेदभाव कर रही है | इसे लेकर एक मुस्लिम  संगठन सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंचा | इसी बीच दिल्ली की  जहांगीरपुरी बस्ती में दंगा हो गया और जब नगर निगम ने वहां बुलडोजर चलाया तो सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी | हालाँकि इस पर भी विवाद है कि न्यायालयीन आदेश के बावजूद बुलडोजर चलते रहे और ये भी कि मस्जिद का अतिक्रमण तो तोड़ दिया गया लेकिन ज्योंही बुलडोजर बीच रास्ते में बने मंदिर तक पहुंचा अदालती आदेश के नाम पर कार्रवाई रोक दी गई | सर्वोच्च न्यायालय ने समूचे घटनाक्रम का संज्ञान लेते हुए फ़िलहाल कार्रवाई रोकने का आदेश जारी रखा लेकिन अन्य राज्यों में अवैध निर्माणों को हटाने के लिए चल रहे बुलडोजरों को रोकने से साफ इंकार कर दिया | यद्यपि एक से मामले में दो व्यवस्थाएं देकर सर्वोच्च न्यायालय ने नई बहस को जन्म दे दिया परन्तु इस बहाने अतिक्रमण का राष्ट्रीय मुद्दा बन जाना अच्छी बात है | विचाराधीन याचिकाओं में मुख्य मुद्दा ये है कि बिना पूर्व सूचना दिए तोड़फोड़ की जा रही है और दूसरा ये कि मुसलमानों को ही चुन – चुनकर निशाना बनाया जा रहा है | अदालत इस बारे में जो अंतिम फैसला देगी वह राष्ट्रीय स्तर पर बंधनकारी होगा परन्तु  जहाँ तक बात अतिक्रमण अथवा अवैध निर्माण तोड़े जाने की है तो ये कहना पूरी तरह सही है कि ये राष्ट्रीय बीमारी बन गई है | घनी बस्तियों में झुग्गी बनाकर रहने वाले गरीब ही नहीं अपितु कालोनियों में रहने वाला  संपन्न वर्ग तक अतिक्रमण और अवैध निर्माण करने में शान समझता है | ये बात भी स्वीकार करनी होगी कि इस प्रवृत्ति को विकसित  करने में सरकारी अमला भी सहायक होता है | सरकारी जमीनों पर होने वाले अतिक्रमण और  अवैध निर्माण बिना सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की जानकारी के  असंभव है | इसकी आड़ में जमकर भ्रष्टाचार भी होता है | ऐसे में प्रश्न ये है कि अतिक्रमण हटाये जाने पर राजनीति करना कहाँ तक जायज है ? दिल्ली में हुई कार्रवाई रोकने के लिए अदालत में खड़े वरिष्ट अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने भी ये तो स्वीकार किया ही कि अतिकमण राष्ट्रीय समस्या बन गया है | अब चूंकि मामला सर्वोच्च न्यायालय में है इसलिए उसके कानूनी पक्ष  पर टिप्पणी करना तो ठीक नहीं रहेगा , लेकिन चाहे  दुकान हो या मकान , यदि उसमें अतिक्रमण है तो उसे तोड़ा जाना निहायत जरूरी है | इस बारे में समाचार माध्यमों को भी संयम और समझदारी दिखानी चाहिए | मसलन सभी टीवी चैनल वाले अपने कैमरे लेकर जहांगीरपुरी जा पहुंचे और लोगों के साक्षात्कार दिखाकर उनके प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने में जुटे हुए हैं | एक रिपोर्टर को ये कहते भी सुना गया कि अतिक्रमण तो दिल्ली के अन्य इलाकों में भी हैं तब केवल जहांगीरपुरी में ही बुलडोजर क्यों चले ? सवाल जायज है और विचारणीय भी क्योंकि न सिर्फ घनी बस्तियों अपितु मुख्य बाजारों के साथ ही विकसित आवासीय कालोनियों तक में अवैध निर्माण की भरमार है | जब कोई वारदात हो जाती है तब प्रशासन कुम्भकर्णी नींद से जागकर तोड़फोड़ करता है | रही बात पक्षपात की तो यदि अतिक्रमण या अवैध निर्माण टूट रहा है तब उसे धार्मिक दृष्टिकोण से देखना एक तरह से उसे समर्थन देना है | म.प्र के खरगौन में दंगों के बाद चले बुलडोजर ने हिन्दुओं और मुसलमानों के मकान गिराने में शायद ही पक्षपात किया हो | यहाँ तक कि प्रधानमन्त्री आवास योजना के अंन्तर्गत बना मकान भी गिरफ्त में आ गया | बेहतर हो राजनीतिक दल और  कथित मानवाधिकारवादी अपनी सोच को व्यापक रूप देते  हुए अतिक्रमण और अवैध निर्माण को अपराधिक प्रवृत्ति मानकर उसके विरुद्ध होने वाली कार्रवाई का समर्थन करें | जिस तरह रेल में बेटिकिट यात्रा कर रहे यात्री को पकड़े जाने पर उसका ये कहकर बचने का प्रयास बेमानी है कि ट्रेन में और भी बेटिकिट हैं , तब उसे ही क्यों पकड़ा जा रहा है ? ये सच है कि सामान्य  परिस्थितियों में शासन और प्रशासन अतिक्रमण और अवैध निर्माण तोड़ने की तरफ ध्यान नहीं  देते | लेकिन  जब भी ये मुहिम चलाई जावे उसका समर्थन करना चाहिए , ताकि दूसरों में ऐसा करने का साहस पैदा न हो | खरगौन और जहांगीरपुरी में  जिन निर्माणों पर बुलडोजर चलाये गये यदि वे अतिक्रमण और अवैध की श्रेणी में आते हैं तब  उनके मालिक किस मुंह से विरोध कर रहे हैं ? रही बात पूर्व सूचना की तो दुकानों के सामने रखा सामान और टीन शेड हटाने के लिए उसकी आवश्यकता ही नहीं होती | आज जो लोग मुसलमानों के समर्थन में घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं उन्होंने कभी जहांगीरपुरी या उस जैसी किसी दूसरी बस्ती में जाकर देखा कि वे किस हालत में रहते हैं ? दिल्ली में हुए दंगे के बाद संचार माध्यमों के जरिये प्रभावित बस्ती के जो चित्र देखने मिल रहे हैं उनमें सड़कों पर कबाड़ के ढेर लगे हुए हैं क्योंकि पूरे इलाके में बहुत से कबाड़ी रहते हैं | जितनी भी दुकानें हैं सभी ने सडक पर कुछ न कुछ जगह घेर रखी थी | यहाँ तक कि जिस मस्जिद के सामने फसाद की शुरुवात हुई उसका भी बाहरी हिस्सा अवैध रूप से बनाया गया था वहीं  मन्दिर भी बीच सड़क पर है | खरगौन की जिस मुस्लिम बस्ती में बुलडोजर चले उसकी हालत भी ऐसी ही है | देश भर में जहां भी इस तरह की घनी बस्तियां हैं उन सभी में इसी तरह की दुर्दशा देखी जा सकती है | प्रधानमन्त्री आवास योजना के अंतर्गत यहाँ के लोगों का पुनर्वास कर उनका जीवन स्तर सुधारने का प्रयास भी चल रहा है | लेकिन राजनेताओं को अतिक्रमण और अवैध निर्माण करने वालों को समर्थन और संरक्षण देना बंद करना होगा | अन्यथा ये समस्या कभी हल नहीं होगी | अतिक्रमण और अवैध निर्माण को भी मजहब से जोड़ना इन बुराइयों को बढ़ावा देना ही है | गलत काम गलत ही होता है , चाहे हिन्दू करे या मुसलमान |

- रवीन्द्र वाजपेयी


 

Thursday 21 April 2022

यूक्रेन संकट भारतीय किसानों के लिए वरदान बना



आज की दुनिया एक दूसरे से कितनी निकटता से जुड़ गई है इसका ताजा उदाहरण है यूक्रेन संकट | दो देशों के बीच यद्ध का ये पहला मौका नहीं है | अमेरिका भी वियतनाम और  अफगानिस्तान में एक दशक से भी ज्यादा लड़ता रहा । ईरान और ईराक के बीच बरसों जंग चली  | हाल के वर्षों में  सीरिया भी युद्ध की विभीषिका में लम्बे समय तक फंसा रहा | लेकिन यूक्रेन पर रूस के आक्रमण ने जिस तेजी से विश्व के शक्ति और आर्थिक संतुलन को बदला वह चौंकाने वाला है | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भारत में देखने मिल रहा है जिसकी अर्थव्यवस्था को इस संकट ने नए अवसर दे दिए हैं | बीते साल भारत में किसान आन्दोलन सबसे बड़ी खबर हुआ करती थी | पूरे देश में किसानों की  मांगों के  पक्ष – विपक्ष में लम्बी बहस चलती रही  | टीवी चैनलों के लिए वह आंदोलन टीआरपी बटोरने का जरिया बन गया | राकेश टिकैत खबरों में छाये  रहने वाले प्रमुख व्यक्तित्वों में शुमार हो गये | दबाव इतना ज्यादा बना कि आखिरकार प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को उन कृषि कानूनों को वापिस लेना पड़ गया जो उनके लिये नाक का सवाल बन गये थे | उस निर्णय को किसान आन्दोलन की जीत माना गया | लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य ( एमएसपी ) का मसला अभी तक उलझा हुआ है और किसान संगठन धमकी दे चुके हैं कि वायदे के अनुसार केंद्र सरकार ने जल्द इस बारे में नीतिगत निर्णय नहीं लिया तो  दोबारा आन्दोलन किया जावेगा | वर्तमान में रबी फसल की सरकारी खरीद देश भर में चल रही है | अब तक होता ये था कि किसान शिकायत करते थे कि अनाज खरीदने की सरकारी प्रक्रिया में विलम्ब होता है | लेकिन इस साल उल्टा हो रहा है | गेंहू की पैदावार वाले बड़े राज्य पंजाब , हरियाणा और म.प्र में सरकारी खरीद अपने लक्ष्य से तकरीबन 40 फ़ीसदी पीछे चल रही है | जो किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज बेचने के लिए लालायित रहता था , उसकी पैदावार खरीदने के लिए निजी व्यापारी और कम्पनियां खेतों पर ही आकर सरकारी खरीद  से ज्यादा दाम दे रही हैं | किसान के लिए तो ये मानो मुंह मांगी मुराद है | उसने सपने में नहीं सोचा था कि उसे मंडी में जाए बिना घर बैठे इतना ज्यादा दाम  मिल जाएगा | किसान आन्दोलन के दौरान सरकार पर सबसे बड़ा आरोप ये लगाया जाता था कि वह किसानों को व्यापारियों के चंगुल में फंसना चाह रही थी | अडानी समूह द्वारा पंजाब और हरियाणा में बनाये जा रहे अत्याधुनिक गोदामों का भी किसान संगठन विरोध कर रहे थे | कृषि कानूनों के अंतर्गत कृषि उपज मंडी की अनिवार्यता खत्म करते हुए किसान को खुले बाजार में बेचने की जो छूट दी गई थी उसे लेकर ये प्रचारित किया गया कि मंडियां बंद करने के इरादे से वैसा किया जा रहा है | आन्दोलन खत्म होने के बाद देश में कुछ राज्यों के जो चुनाव हुए उनमें किसान आन्दोलन को मुद्दा बनाने की कोशिश भी हुई लेकिन भाजपा को मिली सफलता ने साबित कर दिया कि दिल्ली में एक साल तक चले धरने  को विपक्षी राजनीतिक नेताओं का समर्थन भले मिलता रहा लेकिन जनता ने उसके प्रति रूचि नहीं दिखाई | संयोगवश यूक्रेन संकट के कारण वैश्विक हालात जिस तेजी से बदले उसने भारत के किसानों की किस्मत का दरवाजा भी खोल दिया | उसकी उपज खेत में ही न्यूनतम समर्थन मूल्य से कहीं अधिक पर खरीदने वाले आ रहे हैं | इसका परिणाम सरकारी खरीद पर पड़ रहा है | सरकार द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के साथ – साथ किसी भी आपात स्थिति के लिए किये जाने वाले भण्डारण के लिए ही प्रतिवर्ष बड़े पैमाने पर किसानों से खरीदी की जाती है | किसान संगठन इस बात का दबाव बनाते आये हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी स्वरूप देकर उससे कम पर खरीदने वाले को दण्डित किये जाने का प्रावधान हो | लेकिन ऐसा हो पाता उसके पहले ही बाजार की जिन ताकतों के विरुद्ध किसान नेता आवाज उठाया करते थे वे ही किसानों की झोली भरने आ रही हैं और किसान भी उम्मीद से ज्यादा दाम मिलने पर खुशी – खुशी उन्हें अपनी उपज बेच रहे हैं | हालांकि यह स्थिति स्थायी रहेगी ये कहना जल्दबाजी होगी  क्योंकि यह यूक्रेन संकट का प्रतिफल  है | लेकिन इतना जरूर  कि कम से कम एक वर्ष तो इसका असर रहेगा और तब तक यदि भारत के गेंहू की गुणवत्ता वैश्विक स्तर पर मान्य हो गई तब ये उम्मीद की जा सकेगी कि हमारे कृषि उत्पादों के लिए दुनिया के बाजार स्थायी तौर पर खुल गए हैं | और  ऐसा हो सका तब किसानों के लिए खुशहाली के दरवाजे खुलने में देर नहीं लगेगी | बीते वित्तीय वर्ष में भारत से  चावल का रिकॉर्ड निर्यात होने के बाद हमारे गेंहू की वैश्विक मांग वाकई उत्साह बढ़ाने वाली है | सरकारी खरीद के लालच में ज्यादा उत्पादन करने की वजह से ही किसान परेशानी में पड़ता रहा है | सरकार भी एक सीमा तक ही खरीद पाती है क्योंकि उसकी भण्डारण क्षमता सीमित है | हर साल लाखों टन अनाज इसी कारण सड़ जाता है जिसे औने – पौने दाम पर शराब बनाने वाले खरीदते हैं | सरकारी खरीद में होने वाला भ्रष्टाचार भी नासूर बन गया है | ऐसे में किसान को खुले बाजार में अच्छा मूल्य मिलने लगे तो बहुत सारी समस्याएँ खत्म हो जायेंगी | वैसे भी जिस काम में सरकारी दखल होता है वहां भ्रष्टाचार भी खरपतवार की तरह उग आता है | अनाज की सरकारी खरीद और सार्वजानिक वितरण प्रणाली में होने वाला भ्रष्टाचार किसी से छिपा नहीं है | हालाँकि मौजूदा हालात में राकेश टिकैत और उन जैसे अन्य किसान नेता मन ही मन कुढ़ रहे होंगे क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य का उनका मुद्दा फिलहाल तो ठंडा पड़ता दिखाई दे रहा है | जिन व्यापारियों और निजी कंपनियों को साल भर जमकर गलियां दी गईं वे ही आज खेतों से सीधे अनाज खरीदकर उम्मीद से ज्यादा दाम दे रहे हैं | देखना ये है कि 'आन्दोलन होगा' की धमकी देने वाले किसान नेता इस स्थिति में क्या कदम उठाते हैं ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 20 April 2022

गुलामी रोकने की शुरुआत मंत्रियों के बंगलों से हो



म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इन दिनों नए अवतार में दिखाई दे रहे हैं | मंत्रियों को सलामी देने वाली अंग्रेजी राज की प्रथा को खत्म करने के बाद उन्होंने पुलिस अधिकारियों के घर पर बेगारी कर रहे पुलिस कर्मियों को हटाकर थानों में तैनात किये जाने का फैसला गत दिवस किया | प्राप्त जानकारी के अनुसार लगभग तीन हजार पुलिस वाले आला अधिकारियों के बंगलों पर चौकीदारी या घरेलू काम के लिए लगाये गये हैं | शासकीय नियमों के अनुसार अधिकारियों को अर्दली की सुविधा मिली हुई है | लेकिन अनधिकृत तौर पर उनके बंगलों में नौकर और चौकीदार के तौर पर चपरासियों और सिपाहियों की तैनाती खुले आम देखी जा सकती है | मुख्यमंत्री ने ये भी स्वीकार किया कि थानों में पुलिस बल की कमी है ऐसे में अधिकारियों के घरों पर काम कर रहे पुलिस वालों को हटाना जरूरी है | लेकिन पुलिस अधिकारी ही नहीं वरन अन्य शासकीय विभागों के अधिकारियों ने भी नियम विरुद्ध अपने घरों में कर्मचारी लगा रखे हैं | दैनिक वेतन भोगी चतुर्थ वर्ग के कर्मचारी के लिए तो ऐसी बेगारी करना मजबूरी हो जाती है | ये कहना भी गलत न होगा कि  सरकारी अफसरी के सबसे बड़े आकर्षण में घूस के बाद चपरासी जैसी सुविधा भी है | दरअसल हमारे देश में शासकीय सेवा के अधिकतर नियम आज भी ब्रिटिश सत्ता के ज़माने के हैं | ये कहना भी गलत न होगा कि सरकारी अधिकारी के दिमाग में अंग्रेजी दौर की अकड़ विद्यमान है | इसका असर प्रशासन में भी नजर आता है | लोकतान्त्रिक प्रणाली के बावजूद लोक सेवक कहलाने वाला अधिकारी वर्ग आज भी श्रेष्ठता के भाव से भरा हुआ है | ऐसे में शिवराज सिंह  का उक्त फैसला वाकई स्वागतयोग्य है | लेकिन बेहतर होता इसकी शुरुवात वे मंत्रियों के बंगलों से करते जिनको खुश करने के लिए उनके मातहत अधिकारी कर्मचारियों को उनके बंगलों में सेवा हेतु भेज देते हैं | शायद ही कोई मंत्री होगा जिसके शासकीय निवास पर सरकारी कर्मचारी न तैनात हों | हालांकि एक हद तक ये जरूरी भी है लेकिन सेवा शर्तों के बाहर जाकर सरकारी कर्मचारियों से बेगारी करवाना किसी भी  दृष्टि से अच्छा नहीं कहा जा सकता | हाल  ही में आम आदमी पार्टी की  सरकार ने पंजाब में भी पुलिस को वीआईपी सुरक्षा से हटाकर थानों में पदस्थ करने का निर्णय किया ताकि आम  जनता की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके | म.प्र के मुख्यमंत्री स्वयं तो सादगी पसंद और जमीन से जुड़े नेता हैं लेकिन उनकी सरकार के  अधिकतर मंत्रियों के रहन सहन में राजसी ठाट – बाट नजर आता है |  उनके बंगलों पर बेगारी करने वाले कर्मचारियों की फ़ौज किसी से छिपी नहीं है | जिस तरह अधिकारियों के घरों पर तैनात पुलिस वालों की वजह से थानों में पुलिस बल की कमी अनुभव की जाती है उसी तरह मंत्रियों और अन्य विभागीय  अधिकारियों के बंगलों की स्थिति भी है | इसके अलावा सरकारी वाहनों का दुरूपयोग भी सरकारी खजाने पर बड़ा बोझ है | हर बंगले पर एक से ज्यादा वाहन मय ड्रायवर के खड़े नजर आते हैं | यदि मंत्री के पास एक से ज्यादा विभाग हैं तब वह उन सबके वाहनों का उपयोग करता है | अधिकारी तो अंग्रेजी राज वाली मानसिकता से बाहर आने को तैयार ही नहीं हैं | ऐसे में श्री चौहान का फैसला कितना कारगर हो पायेगा ये बड़ा सवाल है | भोपाल में तो सत्ता की मौजूदगी हर जगह दिख जाती है लेकिन जिला स्तर पर भी नेताओं और अफसरों का गठजोड़ सामंतशाही का नजारा पेश करने में पीछे नहीं रहता | कलेक्टर तो खैर बड़ी बात है किन्तु पटवारी तक इस तरह पेश आता है मानों वह मालिक हो और आम जनता उसकी गुलाम | मुख्यमंत्री ने पहले सलामी और अब गुलामी बंद करने का जो साहस दिखाया वह निश्चित रूप से स्वागतयोग्य है लेकिन उनका ये निर्णय पूरी तरह लागू हो ये भी उन्हें देखना होगा क्योंकि सचिवालय में लिए गये अच्छे फैसले भी निचले स्तर तक आते – आते अपना असर खोने लगते हैं | सरकारी अधिकारी चाहे वह पुलिस का हो या अन्य किसी विभाग का , इतनी आसानी से मुफ्त में उपलब्ध  सुख और सुविधाओं को छोड़ देगा , ये विश्वास कर पाना कठिन है | बेहतर हो मंत्रियों के बंगलों से इसकी शुरुवात की जावे ताकि अधिकारियों पर भी दबाव बने , वरना कागजों में तो अधिकारियों के बंगलों पर चल रही बेगारी खत्म दिखाई देगी लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत रहेगी | रिजर्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अधिकतर राज्य भारी कर्ज में डूबे हैं | मुफ्त की सुविधाएँ बांटकर खजाने को जिस बेरहमी के साथ खाली किया गया उसकी वजह से उनकी अर्थव्यस्था खतरे के निशान को छूने लगी है | ऐसे में सरकारी खर्च कम करने की जरूरत है और उसके लिए मंत्रियों के बंगलों की साज - सज्जा पर होने वाले खर्च को रोकने के साथ ही उनमें तैनात कर्मचारियों में कमी भी जरूरी है | सही  बात ये है कि जनता के धन पर राजसी वैभव भोगने में नेता और नौकरशाह दोनों एकजुट हैं | नेताओं के लिए नियम विरुद्ध सुख – सुविधाओं का इंतजाम कर उसकी आड़ में नौकरशाह अपनी शानो – शौकत का भी जुगाड़ कर लेते हैं | ऐसे में श्री चौहान ने सलामी और गुलामी के विरुद्ध जो कदम उठाये हैं वे तभी कारगर हो सकेंगे जब सत्ता में बैठे नेताओं की ठसक में कमी लाई जाए | मंत्रियों और अधिकारियों को सुरक्षा और सुविधा उनके पद की जिम्मेदारियों के लिहाज से मिलनी ही चाहिए लेकिन ये ध्यान रखा जाना भी जरूरी है कि इनका दुरूपयोग न हो और इनकी वजह से अनावश्यक खर्च भी न बढ़े | शिवराज सिंह निश्चित रूप से आगामी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए मोर्चेबंदी में जुटे हुए हैं और उसके लिए वे आये दिन ऐसे निर्णय ले रहे हैं जिनसे उनकी सरकार की छवि जनमानस में उज्ज्वल हो | जनहित की योजनाओं के लिए तो उनकी सरकार काफी लोकप्रिय है लेकिन प्रशासनिक अराजकता वह धब्बा है जो मिटाए नहीं मिट रहा | ऐसे में मुख्यमंत्री ने पुलिस अधिकारियों के बंगलों में चल रही गुलामी या बेगारी को खत्म करने का जो फरमान निकाला वह सही कदम तो है लेकिन उससे किसी चमत्कार की उम्मीद करना जल्दबाजी होगी | जब तक शासन और प्रशासन दोनों में बैठे महानुभाव सादगी और सरलता को नहीं अपनाते तब तक वह सुधार संभव नहीं जो वे चाहते हैं | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 19 April 2022

दंगाइयों को भी आतंकवादी मानकर कार्रवाई की जाए



दिल्ली के जहांगीराबाद इलाके में हनुमान जयन्ती के  जुलूस पर  पथराव और दंगा करने वाले लोगों की पुलिस धरपकड़ कर रही है | दोनों पक्षों के जिम्मेदार लोगों पर  मामले कायम हो रहे हैं |  मस्जिद पर हिन्दू झन्डा लगाये जाने की शिकायत गलत पाए जाने के बाद ये भी स्पष्ट हो गया है कि जुलूस पर पथराव सुनियोजित था | गोली चलाने वाले युनुस नामक कबाड़ी को पकड़ने गये पुलिस बल पर गत दिवस जिस तरह से पथराव हुआ वह अपने आप में काफी कुछ कह जाता है | आरोप है कि सोनू शेख नाम से लोकप्रिय 28 वर्षीय युनुस प. बंगाल का रहने वाला है और बतौर कबाड़ी उसने काफी पैसा कमाया | उस घनी बस्ती में रहने वाले लोगों को पत्थर  और कांच की बोतलें उसी ने उपलब्ध कराई थीं | पुलिस सूत्रों के अनुसार हनुमान जयन्ती की शोभायात्रा बिना अनुमति निकाली गई थी जिसके लिए आयोजकों पर भी कानूनी कार्रवाई की जा रही है | लेकिन सतही तौर पर जो तथ्य सामने आये हैं उनके अनुसार मस्जिद के पास जुलूस पहुंचने पर दोनों पक्षों के बीच मामूली बहस होने लगी जिसे दंगा भड़कने का कारण नहीं माना जा सकता किन्तु उसी दौरान पत्थर और कांच की बोतलों के साथ ही हथियारों के साथ भीड़ ने आकर हमला किया | कुल मिलाकर करौली , खरगौन और जहांगीराबाद के दंगे किसी धारावाहिक की कड़ी प्रतीत होते हैं क्योंकि उनकी पटकथा एक समान है | केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह  ने दिल्ली पुलिस को दंगा करने वालों के विरुद्ध ऐसी कार्रवाई करने कहा है जो मिसाल बन जाए | उधर उ.प्र सरकार ने बिना पूर्व अनुमति के किसी भी प्रकार के जुलूस या शोभायात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया है | जहांगीराबाद के दंगे के बाद वहां रह रहे हिन्दुओं ने अपनी शिकायत में बंगाली मुसलमान शब्द का इस्तेमाल किया जिससे दिल्ली में आकर बस गये बांग्ला देशी मुसलमानों पर एक बार फिर ध्यान चला गया | देश के अन्य स्थानों से भी बांग्ला देशियों  के साथ म्यांमार से खदेड़े गये रोहिंग्या मुसलमानों द्वारा समय – समय पर किये जने वाले उत्पात की शिकायतें आया करती हैं | नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में पूरे देश में जिस तरह का योजनाबद्ध उत्पात हुआ उसके पीछे भी इनकी बड़ी भूमिका बताई जाती है क्योंकि उन कानूनों में इनको अपने लिए खतरे की घंटी सुनाई दे रही थी | इस बारे में देखने वाली बात ये है कि 1971 में बतौर शरणार्थी भारत आये करोड़ों बांग्ला देशी शरणार्थियों को वापिस भेजने की ठोस नीति और  कार्ययोजना न बनाये जाने के कारण वे पूरे देश में फ़ैल गये | बांगला देश बनने के महज चार साल के भीतर ही शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या होने के बाद वहां आई सत्ता ने भारत विरोधी रवैया अपना   लिया जिसकी वजह से पहले से आये शरणार्थी तो लौटे नहीं ऊपर से नए  आने का सिलसिला जारी रहा जिसकी वजह से प. बंगाल , असम और त्रिपुरा जैसे  सीमावर्ती राज्यों की जनसंख्या का संतुलन बिगड़ता गया | आज देश के सभी महानगरों में लाखों की संख्या बांग्ला देशी नागरिकों की है जो अपनी पहिचान को छिपाकर रखते हैं | इसी तरह रोहिंग्या मुस्लिम भी फैलते चले  जा रहे हैं | दुर्भाग्य से वोट बैंक की राजनीति इनको निकाल बाहर करने में बाधक बन जाती है | हाल के वर्षों में सांप्रदायिक झगड़े होने पर जिस तरह की आक्रामकता मुस्लिम समुदाय के बीच दिखाई देने लगी है उसके पीछे अवैध रूप से देश में रहने वाले ये विदेशी मुसलमान भी हैं जिनको स्थानीय संरक्षण प्राप्त हो जाता है | सरकारी विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण इन्हें  राशन कार्ड सहित अन्य पहिचान पत्र उपलब्ध हो जाने से  शासकीय योजनाओं का लाभ भी मिल जाता  है | ये देखते हुए नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को लागू किये जाने की सख्त जरूरत है | भारत को शरणार्थियों का स्थायी आश्रय स्थल बनाने के षडयंत्र को यदि विफल नहीं किया गया तो  सांप्रदायिक उपद्रव की आड़ में आतंकवादी गतिविधियाँ बढ़ती जायेंगी| इस बारे में याद रखना होगा कि भले ही बांग्ला देश की शेख हसीना सरकार भारत के प्रति दोस्ताना रुख रखती हो लेकिन उनके देश में अनेक भारत  विरोधी आतंकवादी संगठन काम कर रहे हैं | हिन्दू मंदिरों पर होने वाले हमले इसका प्रमाण हैं | दूसरी बात ये है कि कश्मीर में अलगाववादी गतिविधियों पर नियन्त्रण हो जाने से अब आतंकवाद का विकेंद्रीकरण पूरे देश में होने की  आशंका बढ़ रही है | हालिया दंगे इस बात की पुष्टि करते हैं कि कोई न कोई संगठन इनके पीछे है | इनके अलावा देश के दूसरे हिस्सों में हिजाब जैसे विवाद भी सोची – समझी रणनीति का हिस्सा हैं | कुल मिलाकर बात ये है कि अलगाववाद का अभियान  सीमावर्ती राज्यों से निकलकर देश के भीतरी हिस्सों में फ़ैल चुका है | पत्थरबाजी रूपी जो नया हाथियार इन दंगों के दौरान देखने मिला वह अचानक जन्मा हो ऐसा नहीं है | दिल्ली में दो वर्ष पहले हुए दंगे में भी इसका उपयोग जमकर किया गया था | शाहीन बाग़ के आन्दोलन को विपक्षी दलों ने समर्थन देकर मुस्लिम चरमपंथ को प्रोत्साहित करने की जो गलती की उसके कारण उसका हौसला बुलंद हुआ | जिसका प्रमाण इन सभी वारदातों में पुलिस वालों पर हुए जानलेवा हमले हैं | खरगौन में तो पुलिस अधीक्षक  को ही गोली मारी गयी | ऐसे में दंगा करने वालों पर  बिना किसी दबाव के कठोर कार्रवाई करना जरूरी है  | इसके लिए बेहतर यही  होगा कि उन्हें  आतंकवादी माना जावे जिससे वे मामूली दंड पाकर बच न सकें  | दंगाइयों के घरों को ढहाए जाने के विरुद्ध तो  मुस्लिम संगठन सर्वोच्च न्यायालय की चौखट तक जा पहुंचे हैं लेकिन उनमें से किसी ने भी ये मांग नहीं की कि पुलिस  पर हमला करने वालों को कड़ी सजा दी  जावे | जहांगीराबाद के दंगे में गोली चलाने वाले सोनू शेख ने अपना जुर्म कबूल भी कर लिया लिया है लेकिन मुस्लिम समाज की तरफ से उसके विरोध में एक भी  बयान नहीं आया |  उल्टे  उसे गिरफ्तार करने गये पुलिस कर्मियों पर अगल - बगल में रहने वाले मुस्लिमों ने पथराव किया जिससे साबित हो गया  कि वे सब दंगे में शरीक थे | दंगाइयों के घर तोड़े जाने के विरोध में मानवाधिकार का मसला उठाये जाने के साथ ही मुसलमानों के साथ पक्षपात किये जाने की  बातें की जा रही हैं | कश्मीर घाटी के पत्थरबाजों के विरुद्ध पैलेट गन का इस्तेमाल किये जाने पर भी इसी तरह की चिल्ल - पुकार मची थी | इसलिए जिस तरह आतंकवादियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जाती है वैसी ही दंगाइयों पर नहीं होती तो पत्थरबाजी होती रहेगी | जड़ों को खोदने के बाद भी मठा डालने की चाणक्य नीति को लागू किया जाना समय की मांग है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 18 April 2022

प्रशांत के आने से और भी अशान्त हो सकती है कांग्रेस



कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन की मांग को लेकर कुछ असंतुष्ट नेता सामने आये थे | जी 23 नामक एक समूह भी बना जिसकी अनेक बैठकें हो चुकी हैं | हाल ही में इसके नेता गुलाम नबी आजाद की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी से हुई मुलाकात के बाद ये कयास लगे थे कि उनको राज्यसभा भेजकर असंतुष्टों की मुहिम ठंडी कर दी जायेगी | इसके बाद श्री आजाद को लेकर जी 23 में मतभेद उभरने की बात भी सुनने मिली | दरअसल इस समूह के अधिकतर सदस्य राज्यसभा के जरिये ही राजनीति करते आये हैं | उनको लग रहा है कि राज्यसभा से बाहर रहने पर उनकी वजनदारी खत्म हो जायेगी | लेकिन  राज्यों में  तेजी से सिमटने के कारण कांग्रेस के पास राज्यसभा में भेजने लायक विधायकों का संख्याबल भी नहीं है | यद्यपि केन्द्रीय नेतृत्व  को लेकर चली  आ रही अनिश्चितता से पार्टी के साधारण कार्यकर्ता भी चिंतित हैं | 2019 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी द्वारा अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिए जाने के बाद से उनकी माताजी कार्यकारी  अध्यक्ष बनी हुई हैं | यद्यपि महत्वपूर्ण फैसलों में अभी भी राहुल का दखल रहता है | लेकिन  ये कहना गलत न होगा कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को लेकर कायम  असमंजस का असर  उसके आभामंडल में निरंतर कमी आने के तौर पर दिखाई दे रहा है | प. बंगाल के बाद उ.प्र के विधानसभा चुनाव में जो दुर्गति हुई उससे उसके अस्तित्व पर ही सवाल उठ खड़े हुए हैं | ममता बैनर्जी ने तो उसे तृणमूल में विलीन करने जैसी बात तक कह डाली | इस सबके बावजूद शीर्ष स्तर पर संगठनात्मक ढांचे के विधिवत गठन की बजाय अभी भी गांधी परिवार येन केन प्रकारेण पार्टी को अपने शिकंजे में रखना चाह रहा है | इसका ताजा प्रमाण है चुनाव प्रबन्धन विशेषज्ञ प्रशांत किशोर के कांग्रेस में आने की खबरें | गत सप्ताह उन्होंने गांधी परिवार के समक्ष 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीतिक कार्ययोजना प्रस्तुत करते हुए सुझाव दिया कि पार्टी   तकरीबन 370 सीटों पर चुनाव मैदान में उतरे जहाँ वह मुकाबला करने में सक्षम है और बाकी सीटें क्षेत्रीय दलों के लिए छोड़कर अपनी शक्ति के अपव्यय से बचे | उन्होंने और भी कुछ  सुझाव पार्टी नेतृत्व को दिए | हालाँकि उनके कांग्रेस में आने की अटकलें लम्बे समय से लगाई जा रहे हैं | 2017 के विधानसभा चुनाव में पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह और उ.प्र में राहुल गांधी ने उनकी पेशेवर सेवाएँ ली थीं | पंजाब में तो कांग्रेस जीती लेकिन उ.प्र में उसका सफाया हो गया | उसके बाद प्रशांत अलग – अलग राज्यों में विभिन्न पार्टियों के लिए चुनावी रणनीति बनाते रहे | गत वर्ष हुए प. बंगाल चुनाव के चुनाव में ममता बैनर्जी की धमाकेदार जीत में बतौर रणनीतिकार उनकी शोहरत बुलंदी पर जा पहुँची | उसके पहले वे बिहार में नीतीश कुमार के साथ जनता दल ( यू ) में रह चुके थे | ममता को राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी का विकल्प बनाने के लिए आगे लाने के पीछे उन्हीं का दिमाग था | उसी सिलसिले में वे शरद पवार सहित अन्य विपक्षी  नेतओं से भी मिले | तृणमूल को गोवा विधानसभा चुनाव में उतारने में भी वही सोच रही |   लेकिन इसी बीच उनके ममता से रिश्ते खराब होने के खबरें भीं आने लगीं | इन सबसे लगता है प्रशांत की ज्यादा देर तक किसी से जमती नहीं है | इसकी  वजह संभवतः उनका गैर राजनीतिक होना है , वरना 2014 में श्री मोदी के चुनाव अभियान की रणनीति बनाने के बाद उनके भाजपा से मतभेद न हुए होते | यद्यपि कांग्रेस में उनके प्रवेश की अब तक पुष्टि नहीं हुई लेकिन इसकी चर्चा मात्र से काफी हलचल मच गई है | कहा जाने लगा है कि श्री किशोर ने गांधी परिवार से अपनी ये  शर्त मनवा ली है कि वे राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में आमूल बदलाव करेंगे | कांग्रेस पर नजर रखने वाले विश्लेषकों  के अनुसार प्रशांत को लाने का उद्देश्य पार्टी पर गांधी परिवार के आधिपत्य को बनाये रखना है  | ये बात बिलकुल सही है कि कांग्रेस के प्रथम परिवार का दरबारी बनने वाली प्रवृत्ति खत्म होती जा रही है | नई पीढ़ी के नेता  समझ गये हैं कि परिवार का करिश्मा खत्म हो चुका है | श्रीमती गांधी अस्वस्थता की वजह से न ज्यादा समय दे पाती हैं और न ही  परिश्रम करना उनके लिए संभव रहा | उत्तराधिकारी के तौर पर उनहोंने बेटे राहुल को पार्टी की कमान सौंपी परंतु वे बुरी तरह विफल रहे | उनके बाद प्रियंका वाड्रा ने परिवार के प्रतिनिधि के रूप में उ.प्र की बागडोर संभाली लेकिन वे भी असफल साबित हुईं | ऐसा लगता है श्रीमती गांधी अपनी संतानों की क्षमता को भांप गई  हैं और दूसरी तरफ परिवार के वफादार नेता या तो बढ़ती आयु या फिर असंतुष्ट होकर किनारा करते जा रहे हैं | राहुल के आगे आने पर युवा नेताओं की जो टोली नजर आने लगी थी वह भी बिखर चुकी है | प्रियंका अपने भाई की तुलना में तेज – तर्रार तो हैं लेकिन  राजनीति की ज़मीनी सच्चाइयों से अनभिज्ञ होने की वजह से वे भी नाकामयाब साबित हुईं | इसका सबसे बड़ा खामियाजा ये हो रहा है कि कांग्रेस से जाने वालों की तो कतार लगी हुई है परन्तु उसमें आने वाले नजर नहीं आ रहे | राहुल के करीबी कुछ युवा नेता भाजपा में जा चुके हैं और बाकी के भी सुरक्षित भविष्य के लिए विकल्प तलाश रहे हैं | ऐसे में प्रशांत यदि पार्टी में आते हैं और गांधी परिवार उनको बड़े बदलाव की छूट देता है तब जी 23 की तरह असंतुष्टों के नए समूह सामने आ सकते हैं | सही बात ये है कि कांग्रेस इस समय वैचारिक दृष्टि से शून्य हो चुकी है | गांधी परिवार पर सब कुछ छोड़ देने की गलती से हुआ नुक्सान  इतना बड़ा हो चुका है कि उसकी भरपाई कृत्रिम तरीके से नहीं  की जा सकती | सबसे बड़ी बात ये है कि श्री किशोर की अपनी कोई विचारधारा तो है नहीं | भाजपा , जनता दल  ( यू ) , तृणमूल , द्रमुक आदि के लिए वे चुनावी प्रबंधन कर चुके हैं | नीतिश कुमार ने तो उनको अपनी पार्टी में पद भी दिया | लेकिन वहां भी वे टिके नहीं और ममता के साथ जुड़ गए | कहते हैं प. बंगाल के स्थानीय निकाय चुनावों हेतु प्रत्याशी चयन में उनके साथ टकराव के बाद प्रशांत नई नाव में सवार होना चाहते हैं और कांग्रेस ही अब ऐसी पार्टी है जिसमें  उनको जगह दिख रही है | हालाँकि बतौर चुनाव रणनीतिकार तो वे ठीक हैं लेकिन पार्टी संगठन में उठापटक करने पर उनका विरोध होना स्वाभाविक है | ऐसे में बड़ी बात नहीं प्रशांत के आने से कांग्रेस और अशान्त हो जाए क्योंकि जब गांधी परिवार के एकाधिकार को चुनौती मिल रही हो तब नए – नए पेशेवर को कितना बर्दाश्त किया जावेगा ये सोचने वाली बात है |  

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 16 April 2022

खाद्यान्न निर्यात खोल सकता है तरक्की के नए द्वार



आपदा में भी अवसर तलाशने वाले ही उस पर विजय हासिल कर पाते हैं | ये बात कोरोना काल के बाद के विश्व व्यापार में भारत की बढ़ती मौजूदगी से साबित हो रही है | हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाईडेन के साथ बातचीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे कहा था कि  भारत दुनिया को खाद्यान्न उपलब्ध करवाने में सक्षम है | विशेष रूप से गेंहू के निर्यात पर उन्होंने जोर भी दिया | इस प्रस्ताव के पीछे निश्चित रूप से यूक्रेन संकट ही है | उल्लेखनीय है यूक्रेन और रूस गेंहू के सबसे बड़े निर्यातक हैं किन्तु युद्ध के कारण वे मुश्किल में पड़ गये | रूस पर जहां  अमेरिका सहित तमाम  देशों ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये वहीं यूक्रेन में सब दूर तबाही का आलम है | ऐसे में गेंहू की आपूर्ति खतरे में पड़ने से भारत की तरफ सबकी निगाहें घूमने लगीं | अब तक उसके पड़ोसी देश ही मुख्य रूप से गेंहू के खरीददार थे लेकिन ताजा जानकारी के अनुसार मिस्र ने 10 लाख टन गेंहू भारत से खरीदने का सौदा किया है | चालू वित्त वर्ष में उसे 20 लाख टन की आपूर्ति और किये जाने के प्रयास जारी हैं |  यूक्रेन संकट के शुरू होते ही देश में गेंहू की कीमतों में जो उछाल आया उसकी वजह वैश्विक मांग ही है  | गत वर्ष हुए किसान आन्दोलन के दौरान इस बात का बड़ा प्रचार हुआ था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर होने वाली सरकारी खरीद का आंकड़ा उत्पादन की तुलना में बहुत ही कम होने से किसान को नुकसान उठाना पड़ता है | उस समय भी ये बात सामने आई थी कि खाद्यान्न उत्पादन तो साल दर साल बढ़ता जा रहा है लेकिन उस अनुपात में खपत न होने से किसान और सरकार दोनों के सामने समस्या पैदा होती है | अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में चूंकि हर  चीज के मानक तय रहते हैं इसलिए भी निर्यात करने में तरह – तरह की रुकावटें आती रही हैं | लेकिन कोरोना के बाद निर्यात को लेकर बनाई जा रही नीतियों में वैश्विक मानदंडों पर भी भारतीय खाद्यान्नों के खरे साबित होने पर ध्यान दिया जाने लगा | इसीलिये चीन की  अपेक्षा बीते कुछ समय से भारत से चावल निर्यात में काफी वृद्धि हुई | इसी तरह अफगानिस्तान से सामान्य रिश्ते न होने के बावजूद उसने हमारे गेंहू को पाकिस्तान पर तरजीह दी |  गौरतलब है कि दुनिया के दूसरे सबसे बड़े गेंहू उत्पादक होने के बाद भी बतौर निर्यातक हमारी हिस्सेदारी महज 1 प्रतिशत ही है जो कृषि प्रधान देश होने के नाते शोचनीय है | वाणिज्य मंत्रालय इसीलिये संभावित बाधाओं को दूर करने में जुट गया है और उस आधार पर  ये उम्मीद  बढ़ रही है कि  इस मौसम में भारत से एक करोड़ टन गेंहू विदेश जाएगा | यद्यपि इस कार्य में निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ ही मुख्य भूमिका में रहेंगी जिन्होंने गेंहू उत्पादन में अग्रणी राज्यों पंजाब , हरियाणा और म.प्र में खरीदी शुरू भी कर दी है | ये स्थिति निश्चित तौर पर उम्मीदें जगाने वाली है | विशेष रूप से इसलिए क्योंकि किसी अन्य   वस्तु की अपेक्षा भारत में कृषि के बारे  में उपलब्ध  ज्ञान और अनुभव अकल्पनीय प्रगति में सहायक है | खेती के क्षेत्र में आधुनिक तकनीक के आगमन के बावजूद हमारी  परम्परागत जैविक खेती गुणवत्ता के मापदंड पर वैश्विक अपेक्षाएं पूरी करने में सक्षम है | प्रधानमंत्री द्वारा गेंहू के निर्यात की बात  कहने पर किसान आन्दोलन के समर्थक के तौर पर केंद्र सरकार से रुष्ट चल रहे मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने तंज कसा कि क्या गेंहू प्रधानमंत्री का है ? अन्य कुछ किसान नेता भी गेंहू के निर्यात की संभावनाएं बढ़ती देख खीझ निकालते देखे गये | इसका कारण ये है कि निर्यात के लिए खाद्यान्न की खरीदी निजी कम्पनियाँ ही करेंगीं जिनके विरोध में किसान आन्दोलन के दौरान बहुत कुछ कहा गया | श्री मलिक ने भी अम्बानी और अडानी को श्री मोदी का मित्र बताकर अपनी भड़ास निकाली | लेकिन इस सबसे अलग हटकर देखें तो वैश्विक बाजारों में भारत के कृषि उत्पादों का जाना दूसरी हरित क्रांति का शुभारम्भ हो सकता है | किसानों की तमाम समस्याओं का हल भी निर्यात में वृद्धि से संभव होगा | सबसे बड़ी बात ये है कि कृषि उत्पादन में प्रति वर्ष रिकॉर्ड बढ़ोतरी होने से सरकारी खरीद और भंडारण बड़ी समस्या बनती जा रही है | किसान आन्दोलन के दौरान कुछ उद्योगपतियों द्वारा हरियाणा एवं पंजाब में बनाई गईं अत्याधुनिक गोदामों में तोड़फोड़ भी की गई | इसका कारण किसान नेताओं द्वारा किया गया ये प्रचार था कि सरकार कृषि उपज मंडियों को खत्म कर किसानों को व्यापारियों और उद्योगपतियों के शिकंजे में फंसाने जा रही है | लेकिन धीरे – धीरे उस प्रचार की हवा निकल गई | अब जबकि देश भर में सरकारी खरीद के साथ ही निजी कम्पनियाँ बड़े पैमाने पर गेंहूं की  खरीद करने में जुटी हुई हैं तब किसानों के लिए कोरोना काल के बाद का समय खुशखबरी लेकर आया है | यूक्रेन संकट जिस तरह से उलझता जा रहा है उसकी वजह से ये सोचना  गलत नहीं होगा कि ये स्थिति आगामी कुछ सालों तक जारी रहेगी | यूक्रेन में जिस पैमाने पर बर्बादी हुई उसे देखते हुए दोबारा खड़े होने में उसे लम्बा समय लगेगा , वहीं रूस और अमेरिकी गुट के देशों की शत्रुता जो रूप ले चुकी है उसे देखते हुए आर्थिक प्रतिबंध शीतयुद्ध की शक्ल अख्तियार करने की तरफ बढ़ रहे हैं | भारत के कृषकों के लिए ये स्वर्णिम अवसर है वैश्विक बाजारों में छा जाने का | यदि हम इन परिस्थितियों का लाभ ले सकें तो किसानों की मेहनत से उत्पन्न होने वाला अनाज वाकई सोना कहलाने लायक हो जाएगा | ये कहना गलत नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का जो दबदबा बढ़ा है उसके पीछे खाद्यान्न आत्मनिर्भरता का बड़ा योगदान है | सैन्य  सामग्री के लिए हम जरूर विदेशों पर निर्भर हैं लेकिन अपनी जरूरत से कहीं अधिक  अनाज भारत में पैदा  होने से अब हमें किसी भी संकट के समय उसकी किल्लत से नहीं  जूझना पड़ता | यूक्रेन संकट ने संभावनाओं के नए दरवाजे खोल दिये हैं | ऐसे में खाद्यान्न निर्यात को लेकर दिखाई दे रहे अवसर यदि  मूर्तरूप लेते हैं तो यह किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के साथ ही राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए किसी सौगात से कम नहीं होगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 15 April 2022

दिग्विजय इस आरोप के प्रमाण दें वरना कांग्रेस को नुकसान होगा



म.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की राजनीतिक प्रासंगिकता उनके विवादास्पद बयानों तक ही सीमित रह गई है | अपने राजनीतिक गुरु स्व. अर्जुन सिंह की कृपा से प्रदेश की सत्ता के शिखर तक पहुँचने के बाद यद्यपि उन्होंने अपने राजनीतिक कौशल से दस साल तक बतौर मुख्यमंत्री बने रहने का कारनामा तो कर दिखाया लेकिन जब गुरु ने कांग्रेस से बगावत  कर तिवारी कांग्रेस बनाई तब दिग्विजय ने उनसे सुरक्षित दूरी बनाए रखी जिसके कारण अर्जुन सिंह सतना से लोकसभा चुनाव तक हार  गये | उनके राजनीतिक शिकारों में सबसे प्रमुख रहे स्व. माधवराव सिंधिया जिन्हें उन्होंने प्रदेश की राजनीति में हावी नहीं होने दिया | बावजूद इसके कि स्व. सिंधिया के गांधी परिवार से करीबी रिश्ते थे | इसी तरह कमलनाथ , जिन्हें वे अपना बड़ा भाई कहते थे ,  उनको भी उन्होंने झटका दिया | हवाला कांड में नाम आने के बाद स्व. पीवी नरसिम्हाराव ने श्री नाथ को लोकसभा चुनाव में छिंदवाड़ा से टिकिट न देकर उनकी पत्नी को लड़ाया , जो जीत भी गईं | दो साल बाद श्री नाथ ने उनसे त्यागपत्र दिलवाकर उपचुनाव लड़ा जिसमें वे भाजपा प्रत्याशी पूर्व मुख्यमंत्री स्व. सुन्दरलाल पटवा से हार गए | राजनीति के जानकार बताते हैं कि कमलनाथ के जीवन की उस इकलौती पराजय के पीछे दिग्विजयी रणनीति थी ताकि छिंदवाड़ा नरेश खुद को  अपराजेय समझना बंद करें | इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त किये हुए श्री सिंह से ये अपेक्षा थी कि म.प्र के माथे पर लगा बीमारू राज्य नामक दाग हटायेंगे किन्तु उनकी रूचि केवल राजनीतिक घात – प्रतिघात तक ही सीमित रही जिसकी वजह से प्रदेश पिछड़ेपन और बदहाली का शिकार होकर रह गया | 2003 में भाजपा ने जब बिजली , पानी और सड़क को चुनावी मुद्दा बनाया तो मतदाताओं पर उसका जबरदस्त असर हुआ और कांग्रेस ऐसी हारी कि  अगले 15 साल तक सत्ता से उसे दूर रहना पड़ा | 2018 में स्व. माधवराव के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया को चेहरा बनाने के कारण म.प्र में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी लेकिन दिग्विजय ने एक बार फिर सिंधिया परिवार से खुन्नस निकालते हुए कमलनाथ की ताजपोशी करवा दी | उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य गुना की अपनी पुश्तैनी सीट से हार गये तो उसके पीछे भी राजनीतिक विश्लेषक दिग्विजय सिंह की भूमिका मानते हैं | हालांकि वे खुद भी कमलनाथ के बनाये जाल में फंसकर भोपाल में बुरी तरह हारे | लेकिन असली राजनीति तब शुरू हुई जब 2020 में होने वाले राज्यसभा  के चुनाव में श्री सिंधिया ने अपना दावा पेश किया तो एक बार फिर दिग्विजय बाधा बन गये | यद्यपि कांग्रेस दोनों सीटें जीतने की स्थिति में थी किन्तु श्री सिंधिया को डर था कि दिग्विजय भितरघात न करवा दें | और यहीं से उनके मन में कांग्रेस से अलग होने की बात आई जिसे भाजपा ने लपक लिया और नौबत  कमलनाथ की सरकार के पतन के साथ शिवराज सिंह चौहान की वापिसी तक आ पहुँची और ज्योतिरादित्य भाजपा से राज्यसभा में होते हुए मोदी मंत्रीमंडल में शामिल हो गये | इस प्रकार एक बार फिर दिग्विजय के कारण म.प्र में कांग्रेस के हाथ से सत्ता चली गयी | लेकिन उन्हें उसका कोई रंज नहीं है | इसीलिये वे आये दिन इस तरह के बयान दिया करते हैं जिनसे कांग्रेस शोचनीय स्थिति में आ जाती है | खरगौन के दंगे के बाद उनका एक ट्वीट विवादग्रस्त हो गया जिसमें उन्होंने बिहार की एक मस्जिद को खरगौन का बताने की गलती कर डाली | जिस पर उनके विरुद्ध अपराधिक प्रकरण भी दर्ज हो गया है | यद्यपि बाद में उन्होंने उस चित्र को अलग कर दिया | लेकिन उसके बाद भी वे रुके नहीं और नया बयान देते हुए भाजपा को दंगों के लिए जिम्मेदार बतलाकर एक तरफ तो ये स्वीकार किया कि देश में अनेक स्थानों में हुए हालिया दंगों में एक पैटर्न ( समानता ) नजर आता है किन्तु उसके साथ ये भी जोड़ दिया कि कुछ मुस्लिम संगठन हैं जो पूरी तरह भाजपा के साथ मिलकर सियासी खेल खेलते हैं | दरअसल इस बयान के जरिये वे एक तरह से दंगों के लिए जिम्मेदार माने जा रहे मुसलमानों को भाजपा के साथ जुड़ा बताकर भ्रम की स्थिति पैदा करना चाह रहे हैं | दरअसल राजस्थान के करौली में नवरात्रि के शुभारम्भ पर हिन्दू नववर्ष के उपलक्ष्य में निकली शोभा यात्रा पर हुए पथराव और उसके बाद भड़के दंगे के लिये वहां की कांग्रेस सरकार पर लग रहे आरोपों के बचाव में श्री सिंह ने दंगाई मुस्लिम संगठनों की भाजपा के साथ संगामित्ती का नया शिगूफा छोड़ दिया | वैसे असदुद्दीन ओवैसी को लेकर भी ये कहा जाता है कि वे मुस्लिम मतों में बंटवारा करवाकर भाजपा की मदद करते हैं | उ.प्र में बसपा पर भी ये आरोप लग रहे हैं कि वह भाजपा की बी टीम बनकर चुनाव लड़ी | लेकिन मुस्लिम संगठनों द्वारा भाजपा के साथ मिलकर सांप्रदायिक उपद्रव करवाने का यह  आरोप अपनी तरह का पहला है जो दिग्विजय जैसे नेता के दिमाग की उपज ही हो सकता है | सवाल ये है कि 10 साल तक प्रदेश की सत्ता के मुखिया रहे श्री सिंह के पास अपनी इस बात का कोई प्रमाण यदि है तब उसकी जानकारी वे सार्वजनिक क्यों नहीं कर रहे ? चूंकि  अपने संदर्भित बयान में उन्होंने किसी मुस्लिम संगठन का नाम नहीं लिया इसलिए ये संदेह होना गलत नहीं है कि वे एक बार फिर निराधार बात कहकर  असली दोषियों की तरफ से ध्यान हटाना चाह रहे हैं | जहां तक बात प्रदेश सरकार और स्थानीय प्रशासन पर आरोप लगाने की है तो राजनीतिक दृष्टि से ये  स्वाभाविक है परंतु किसी मुस्लिम संगठन के साथ मिलकर भाजपा द्वारा सांप्रदायिक उपद्रव करवाने जैसे  आरोप को हवा में उड़ा देना उचित नहीं होगा | ये देखते हुए श्री सिंह को अपनी बात के प्रमाण भी जाँच एजेंसियों को देना चाहिए | यदि वे ऐसा नहीं करते तब ये अवधारणा और मजबूत हो जायेगी कि उनमें दायित्वबोध और गंभीरता पूरी तरह लुप्त हो चुकी है | दंगों के जांचकर्ताओं को भी उनसे पूछताछ करनी चाहिए क्योंकि प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री होने के अलावा वे संसद के उच्च सदन के भी सदस्य हैं और उस नाते अनेक संसदीय समितियों के सदस्य भी | खरगौन के दंगे को लेकर उनके जितने भी बयान आये , वे विपक्ष से अपेक्षित ही होते हैं लेकिन दिग्विजय द्वारा  मुस्लिम संगठनों का भाजपा के साथ जुड़ाव होने जैसी जो बात कही गई वह बेहद गम्भीर है और उसका खुलासा उनको करना ही होगा | कांग्रेस को भी अपने इस वरिष्ट नेता से उनके बयान का आधार पता करना चाहिए क्योंकि दिग्विजय सिंह द्वारा अतीत में कही गई इसी तरह की बातें पार्टी के लिए मुसीबत बनती रही हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 14 April 2022

छत पर पत्थर रखना किस धर्म का हिस्सा और पलायन एक ही पक्ष का क्यों



दंगे किसी भी समझदार व्यक्ति को शायद ही अच्छे लगते होंगे क्योंकि इसके पीछे जो लोग होते हैं उनको  तो कोई नुकसान नहीं पहुँचता लेकिन निरपराध लोगों को जान - माल की क्षति उठानी पड़ती है | इन्हें अंजाम देने वाले बेशक उपद्रवी और संकुचित मानसिकता के होते हैं जो कहलाते तो धर्मान्ध हैं लेकिन उन्हें न अपने मज़हब की समझ होती है और न दूसरे किसी की | दंगों की आग में रोटी सेंकने वालों का भी एक विशेष वर्ग है जिसे नेता नाम से जाना जाता है | हर दंगे के पीछे कुछ न कुछ कारण तो होता ही है | कभी कोई पुराना विवाद तो कभी तात्कालिक घटना वजह बन जाती है | राजनीतिक और निजी विवाद भी उनकी पृष्ठभूमि में होते हैं | दो धर्मों के अनुयायियों के बीच होने  वाले सांप्रदायिक दंगे के अलावा भी फसाद होते रहते हैं | हरियाणा में जाट  राजस्थान में  मीणा , गुजरात  और महाराष्ट्र में क्रमशः पटेल तथा मराठा आरक्षण के नाम पर हुए उपद्रवों ने  भी दंगों  का रूप ले लिया था  | दक्षिण  के अनेक राज्यों में भी क्षेत्रीय मुद्दों पर  दंगे की स्थिति बनती रही है | लेकिन भारत में हिन्दू – मुस्लिम दंगे शायद सबसे पुराने हैं जिनकी शुरुवात अंग्रेजों ने अपने स्वार्थवश  करवाई और उन्हीं के कारण धर्म के नाम पर देश को विभाजित किया गया  | उस समय देश का नेतृत्व कर रहे नेताओं को ये गलतफहमी थी कि पाकिस्तान बनने के बाद विवाद खत्म हो जायेगा | लेकिन ज़मीन का बंटवारा  होने के बावजूद जनसंख्या का हस्तांतरण धर्म के आधार पर पूरी तरह नहीं होने की वजह से ज़हर के बीज धरती के भीतर दबे रह गये जो थोड़ी सी भी नमी पाते ही अंकुरित होने लगते हैं जिससे  कभी किसी कारणवश और कभी अकारण ही दंगों की आग सुलग उठती है | 1947  में आजादी की तारीख तय होते ही जिस बड़े पैमाने पर दंगे हुए वे इस बात का संकेत थे कि बंटवारा भले ही किसी समस्या के हल के तौर पर स्वीकार किया गया लेकिन वह अपने पीछे अनेक समस्याओं को छोड़ गया | कश्मीर को कबायली हमले के बाद भारत में  विलय के समय विशेष दर्जा देने जैसा फैसला  कालान्तर में कितनी  बड़ी मुसीबत बना , ये किसी से छिपा नहीं है | उस प्रावधान के कारण भले ही भारत के अन्य राज्यों के मुसलमान वहां जाकर बसने के अधिकार से वंचित रहे लेकिन कश्मीर में जिस अलगाववाद की भावना शेख अब्दुल्ला द्वारा रोपित की गई उसने शेष भारत के मुस्लिम समुदाय को भी कुछ हद तक तो आकर्षित किया ही | गलतियां और भी होती रहीं | विशेष रूप से वोटों    की खातिर किये जाते रहे तुष्टीकरण ने मुस्लिमों को समाज  की मुख्यधारा से दूर करने का जो अक्षम्य अपराध किया उसकी सजा आज देश भोग रहा है | दंगे होते हैं और कुछ दिन बाद सब भुला दिया जाता है लेकिन उनके कारणों और उनके लिए जिम्मेदार ताकतों की अनदेखी किये जाने से उनकी पुनरावृत्ति रोकना संभव नहीं होता | धर्म निरपेक्षता की आड़ में जिस अल्पसंख्यकवाद को  बढ़ावा दिया गया उसने समन्वय के स्थान पर संघर्ष की बुनियाद रखी | ये बात बिना किसी संकोच के कही जा सकती है कि राजनीतिक संरक्षण न हो तो दंगे करने का दुस्साहस कोई नहीं कर सकता | दुर्भाग्य से देश का मुस्लिम समुदाय राजनेताओं के बहकावे में आकर विकास की दौड़ में पीछे रह गया और उससे उत्पन्न कुंठा उसमें  अलगाववाद की  भावना को भडकाने का काम करती रहती है | उसके अलावा वे मुल्ला - मौलवी भी अपनी कौम की सत्यानाशी के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं जिन्होंने आधुनिक शिक्षा के बजाय युवा पीढ़ी को भी कालातीत हो चुकी रूढ़ियों में जकड़े रहने के लिए प्रेरित किया | मजहबी शिक्षा का अपना महत्व  है लेकिन उसके साथ ही प्रगतिशील सोच भी समय की मांग है जिसके अभाव में मुस्लिम समाज में धर्मान्धता का बोलबाला है | दंगों के समय दोनों पक्षों से आरोप – प्रत्यारोप का चिर परिचित दौर चला करता है किन्तु विचारणीय प्रश्न ये है कि छतों पर पत्थर जमा करना किस धर्म का हिस्सा है ? इससे  संकेत मिलता है कि कहीं न कहीं आक्रामकता को स्वभावगत बनाने का षडयंत्र भी रचा जा रहा है | दूसरी बात ये भी देखने में आ रही है कि  कश्मीर , कैराना  करौली अथवा खरगौन जहां कहीं भी दंगे हुए वहां एक समुदाय विशेष को ही पलायन करना पडा है | कभी – कभी तो ये लगता है कि जिस तरह कश्मीर घाटी से पंडितों को योजनाबद्ध तरीके से खदेड़कर भगाया गया वही शैली अन्य दंगाग्रस्त  स्थानों में भी देखने मिली | ये स्थिति वाकई शोचनीय है कि अतीत में हुए दंगों के बाद उन बस्तियों से मकान बेचने या पलायन करने  जैसी बात नहीं सुनाई दी जहां हिन्दू – मुसलमान अगल - बगल  रहते थे |  लेकिन बीते कुछ दिनों में जो दंगे हुए उन सभी में हिन्दुओं के जुलूसों पर छतों से पथराव किये जाने की एक जैसी शैली देखने मिली  | मकान बेचकर उस बस्ती से पलायन करने का तौर - तरीका भी कश्मीर घाटी से पंडितों के निकल भागने जैसा ही  है | ये चलन निश्चित तौर पर खतरनाक संकेत है | शांतिपूर्ण जीवन जीने वाले अपने घरों में पत्थर और घातक हथियार भला क्यों रखेंगे ये बड़ा सवाल है | दंगों के बाद उपद्रवी तत्वों के घर और दुकानें जमींदोज करने की  कार्रवाई  पर ये आरोप भी लग रहे हैं कि उसमें पक्षपात हो रहा है |  ऐसा लगता है समुदाय विशेष के लोगों को छतों पर पत्थर जमा करने की प्रेरणा आतंकवाद के दिनों में कश्मीर घाटी में  सुरक्षा बलों पर की जाने वाली पत्थरबाजी से मिली होगी | लेकिन इसे रोकने के लिए शायद ही कोई धर्मगुरु या राजनीतिक नेता सामने आया हो | करौली और खरगौन के दंगों में छतों से चले पत्थर और हिन्दुओं का साझा बस्तियों से पलायन अपने आप में काफी कुछ कह जाता है | जो मौलवी और दिग्विजय सिंह जैसे नेता शासन और प्रशासन पर दोषारोपण कर रहे हैं उन्हें इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए कि दंगों के सम्बन्ध में पत्थर और पलायन का संयोग स्थायी रूप कैसे लेता जा रहा है ? सवाल और भी हैं जिनका जवाब तलाशे बिना दंगों की पुनरावृत्ति रोकी नहीं जा सकेगी क्योंकि दंगों के बहाने देश को भीतर से कमजोर करने की कोशिश किसी बड़ी योजना का हिस्सा है | दिल्ली में हुए दंगों के समय भी छतों से पत्थर फेंके जाने की शिकायतें सामने आई थीं | लेकिन करौली और खरगौन के दंगों के बाद बहुत कुछ साफ हो गया है | शासन और प्रशासन को इस नई शैली की तरफ ध्यान देना चाहिए जिससे शरारती मानसिकता को और प्रसारित होने से रोका जा सके | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 13 April 2022

सबका विश्वास जीतने राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री का एक संबोधन महंगाई पर भी अपेक्षित है



बीते कुछ महीनों में जीएसटी वसूली के आंकड़े उत्साहित करने वाले रहे हैं | 31 मार्च को समांप्त हुए वित्तीय वर्ष में प्रत्यक्ष कर से हुई आय भी उम्मीद से बेहतर हुई | इन सबसे ये विश्वास प्रबल हुआ कि अर्थव्यवस्था कोरोना के चंगुल से बाहर आ चुकी है | बीते कारोबारी साल में विकास दर भी वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए बहुत ही उत्साहवर्धक रही | कोरोना के दौरान सरकार का पूरा ध्यान महामारी से जूझने में लगा रहा जिससे विकास कार्य अवरुद्ध होने लगे थे किन्तु जैसे ही स्थितियां सामान्य हुईं , लंबित प्रकल्पों में गति आने लगी | सरकारी खर्च बढ़ने का अनुकूल असर बाजार पर भी पड़ा | मांग बढ़ने से जहाँ उत्पादन इकाइयों को भी राहत मिली वहीं  उपभोक्ता वर्ग  लगभग दो साल की सुस्ती के बाद उत्साह से भरा हुआ नजर आने लगा | कार और दोपहिया वाहनों की बिक्री में आया उछाल इसका प्रमाण है | जैसी खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक जमीन  – जायजाद के व्यवसाय में बीते  कुछ समय से चली आ रही सुस्ती तकरीबन दूर हो चुकी है जिसके परिणामस्वरूप बिल्डरों ने भी जोर शोर से अपना रुका पड़ा कारोबार शुरू कर दिया है | सबसे सुखद बात ये है कि कोरोना काल में बेरोजगारी का जो संकट आया था वह तेजी से दूर होने लगा है | निर्माण क्षेत्र के साथ ही उत्पादन इकाइयों के गतिशील होने से श्रमिक वर्ग को जहां राहत मिली वहीं सरकारी और निजी क्षेत्र में भी नई नौकरियाँ लगातार निकलने से शिक्षित युवाओं के मन में व्याप्त निराशा कुछ तो कम हुई है | कोरोना के दौरान टीकाकरण जिस सफलता के साथ किया गया उससे आम जनता में सरकार के प्रति विश्वास बढ़ा है | 80 करोड़ लोगों को निःशुल्क अनाज देने की योजना जिस सफलता के साथ संचालित हो रही है उसकी चर्चा पूरी दुनिया में है | इसके जरिये  दुनिया में ये सन्देश गया कि भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर होने के साथ ही आत्मविश्वास से भी भरपूर है | इसका ताजा प्रमाण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा  अमेरिका के   राष्ट्रपति जो. बाईडेन को  आभासी माध्यम पर हुई बातचीत के दौरान दिया गया यह प्रस्ताव है कि विश्व व्यापार संगठन अनुमति दे तो भारत दुनिया को खाद्यान्न की आपूर्ति करने तैयार है | उल्लेखनीय है यूक्रेन संकट के कारण विश्व भर में खाद्यान्न की किल्लत हो गई है | भारत का निर्यात हाल के महीनों में तेजी से बढ़ने से  शेयर बाजार भी यूक्रेन संकट से लगे झटके से उबरता दिख रहा है | हमारे  आईटी सेक्टर का जादू तो पूरी दुनिया के सिर पर चढ़कर बोल ही रहा है लेकिन अब दवाइयों के निर्यात में भी भारत काफी तेजी से आगे आया है | कोरोना का टीका जिस रिकॉर्ड समय में हमारे यहाँ तैयार हुआ उसने भारत की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि की | ये भी गौरतलब है कि दवाइयां बनाने के लिए जरूरी कच्चे माल का उत्पादन देश में ही करने की दिशा में जो प्रयास हो रहे हैं उनका अच्छा परिणाम देखने आया है | जेनेरिक दवाइयों की दुकानें तेजी से खुलने से भी आम उपभोक्ता को बहुत राहत है | कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था पर लगा कोरोना रूपी ग्रहण छंट चुका है और उसी  वजह से आगामी सालों में आर्थिक प्रगति के अनुमान  सुखद भविष्य का संकेत दे रहे हैं | लेकिन तमाम  खुशनुमा एहसासों के बावजूद महंगाई जिस तरह से बढ़ रही है उसने आम जनता को हलाकान कर रखा है | पांच राज्यों के हालिया चुनावों में भी ये  मुद्दा काफी गरमाया किन्तु प्रधानमंत्री के प्रति जनता के मन में जो विश्वास बना हुआ है उसकी वजह से भाजपा ने मैदान मार लिया | लेकिन  दीपावली से पेट्रोल – डीजल की जो कीमतें स्थिर रखी गईं थीं , होली आते ही उनमें जिस तरह का उछाल लगातार आ रहा है उसकी वजह से परिवहन खर्च बढ़ने का असर सभी चीजों के दामों पर हो रहा है | रही – सही कसर पूरी कर दी रूस और यूक्रेन   के बीच चल रही लड़ाई ने | महंगाई के जो ताजा आंकड़े आये हैं उनकी मार सबसे ज्यादा निम्न और गैर सरकारी नौकरी वाले मध्यम वर्ग पर पड़ रही है | इस तबके का घरेलू बजट जिस तरह गड़बड़ाया वह चिंता का विषय है क्योंकि बीते दो साल में जो बचत थी वह भी खत्म हो चुकी है | कोरोना काल में शिक्षण संस्थाएं बंद रहने से अभिभावकों पर फ़ीस का भार तो था लेकिन बच्चों को विद्यालय या महाविद्यालय भेजने में होने वाले खर्च की जो बचत थी वह भी अब नहीं रही | संक्षेप में कहें तो कोरोना के बाद महंगाई दोहरी मुसीबत के तौर पर आ खड़ी हुई | यूक्रेन संकट की वजह से खाद्य तेलों के अलावा आयात होने वाली अन्य चीजों के दाम तो बढ़े ही किन्तु देश के भीतर  भरपूर मात्रा में  उत्पन्न होने वाली रोजमर्रे की चीजें जिस तेजी से महंगी होती जा रही हैं उससे अर्थव्यवस्था संबंधी उत्साहजनक दावों को लेकर विरोधभास की स्थिति पैदा हो रही है | हालांकि  महंगाई का कोई एक विशेष कारण तय कर पाना संभव नहीं है क्योंकि अर्थव्यवस्था किसी एक चीज से ही प्रभावित नहीं होती | ये संतोष का विषय है कि कोरोना जैसी विषम परिस्थिति के बावजूद देश की जनता का प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता पर विश्वास कायम है | लेकिन भारत के पड़ोस में श्रीलंका , नेपाल और पाकिस्तान का आर्थिक ढांचा जिस तरह से चरमरा गया है उसे लेकर हमारे यहाँ भी आशंकाओं के बादल मंडराने लगे हैं | सरकार के सचिव तक श्री मोदी को समझाइश दे चुके हैं कि बिना ठोस आर्थिक प्रबंधन के किये जाने वाले चुनावी वायदों से हमारे देश में भी उक्त पड़ोसियों जैसी स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं | प्रधानमंत्री की कार्यशैली दूरगामी सोच पर आधारित होने से ये विश्वास करना गलत नहीं है वे आर्थिक क्षेत्र को लेकर गम्भीर होंगे | लेकिन जिस तरह उन्होंने कोरोना के हमले से बचाव हेतु लॉक डाउन लगाते समय और बाद में अनेक बार राष्ट्र के नाम सन्देश के जरिये देशवासियों को  ये भरोसा दिलाया कि संकट की उस घड़ी में सरकार उनके साथ खडी है , वैसी ही जरूरत आज महंगाई के विषय को लेकर है | मूल्य वृद्धि  के वाजिब कारण और मजबूरियों पर यदि वे  जनता के सामने अपनी बात रखेंगे तो उससे आशंका और कुशंका के साथ ही भ्रम की स्थिति का निराकरण तो होगा ही लेकिन उससे भी बढ़कर जनता की ये शिकायत भी दूर हो सकेगी कि सरकार वोट लेने के बाद उसे उसके हाल पर छोड़ देती है | यदि श्री मोदी अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति और भावी संभावनाओं से देश को अवगत करायें तो वातावरण में व्याप्त भय दूर किया जा सकेगा | उनसे ये अपेक्षा भी है कि  मूल्य वृद्धि से त्रस्त समाज के उस वर्ग को राहत देने की दिशा में भी कुछ करें जो सरकार द्वारा चलाई जा रही जनकल्याण योजनाओं से वंचित रहने से लाभार्थी की श्रेणी में शामिल नहीं है | यदि वे ऐसा करें तब सबका साथ , सबका विकास और सबका विश्वास का नारा अपनी सार्थकता साबित कर सकेगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 12 April 2022

दंगाइयों के घरोदों पर बुलडोजर चलाने से जरूरी है उनके इरादों को कुचलना



राम नवमी के अवसर पर निकाली जाने वाली शोभायात्रा कोई नई बात नहीं है | लेकिन इस वर्ष देश के विभिन्न हिस्सों से उन पर पथराव और उसके बाद सांप्रदायिक दंगे होने की जो खबरें आईं वे चिंता में डालने वाली हैं | आतंकवाद के चरमोत्कर्ष के दिनों में कश्मीर घाटी में हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता मरहूम सैयद अली शाह गिलानी ने वहां के बेरोजगार नौजवानों को पैसों का लालच देकर सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने के लिए उकसाया | बाद में ये काफी आम हो गया और एक समय तो ऐसा आ गया जब लड़कियां तक पत्थरबाज बन गईं | राजधानी दिल्ली में दो वर्ष पूर्व हुए सांप्रदायिक  दंगों में भी दंगाइयों के घरों की छतों से पथराव की घटनाएँ हुईं | तलाशी लिए जाने पर पत्थरों के साथ ही हथियार भी बरामद हुए | नवरात्रि के पहले दिन हिन्दू नववर्ष के उपलक्ष्य में  राजस्थान के करौली में निकाली गई परम्परागत शोभा यात्रा पर एक क्षेत्र विशेष में छतों से पथराव होने के बाद बाकायदा लाठियों  और तलवारों से हमला किया गया और उसके बाद वही सब हुआ जो सांप्रदायिक दंगों  के दौरान देखने मिलता है | उस उपद्रव की आग अभी भी ठंडी नहीं हुई  है | दूसरी ओर देश के कुछ  शहरों से जो चित्र देखने आये उनमें हिन्दुओं के  धार्मिक जुलूसों पर मुस्लिम समुदाय के लोग पुष्पवर्षा करते भी दिखे | इस पर कहा गया कि बदलती हुई राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए यह समाज भी कट्टरता छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने आगे आने लगा है  | हालाँकि उ.प्र के हालिया चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं के थोक के भाव भाजपा के विरोध में लामबंद होने की बात भी  किसी से छिपी नहीं है | मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर में जिस मठ के महंत हैं उसके परिसर में एक मुस्लिम युवक द्वारा हथियार लेकर उत्पात मचाने के बाद ये माना जाने लगा कि ये चुनावी हार से उपजी हताशा का प्रगटीकरण था | बाद में पता चला कि वह युवक जाकिर नाइक का अनुयायी है जो मुस्लिम समाज के बीच भड़काऊ भाषण देने के लिए कुख्यात थे और गिरफ्तारी से बचने के लिए मलेशिया में शरण लिए बैठे हैं | करौली के दंगे में एक बात  साफ़ हो गई कि हिन्दुओं के जुलूस पर किया गया हमला पूर्व नियोजित था | फिर भी उसे स्थानीय घटना मान लिया गया | लेकिन म.प्र में खरगौन के साथ गुजरात , बिहार और अन्य कुछ राज्यों में अनेक स्थानों पर राम नवमी की  शोभा यात्रा पर जिस तरह पथराव किये जाने के साथ ही धारदार  हथियारों से हमले किये गये वे इस संदेह की पुष्टि करते हैं कि इन वारदातों के पीछे कोई न कोई संगठित सोच काम कर रही है | वरना इन सबका स्वरूप एक समान न होता | जुलूस मार्ग पर स्थित घरों की छतों पर पत्थर जमा करने वालों का मकसद अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है | उ.प्र में सीएए विरोधी दंगाइयों द्वारा सार्वजनिक संपत्ति को  पहुंचाई गयी क्षति की वसूली उनसे की गयी थी |  उसके बाद  मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपराधी तत्वों के निर्माणों पर बुलडोजर चलाने का निर्णय किया जो विधानसभा चुनाव में बड़ा मुद्दा बन गया | देखासीखी अन्य  राज्यों ने भी उस तरीके को अपनाया जिनमें म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अग्रणी हैं | म.प्र में इन दिनों अपराधी सरगानाओं  के अवैध निर्माणों पर बुलडोजर चलाये जाने का अभियान चल रहा है | खरगौन में राम नवमी जुलूस पर पथराव के बाद जो  सांप्रदायिक दंगा हुआ उसके आरोपियों की पहिचान करते हुए उनके घरों और दुकानों को ज़मींदोज किया जा रहा है  | ऐसी  कार्रवाई का उद्देश्य दंगा करने वालों को सबक सिखाना होता है | इसका असर भी हुआ  जिसके प्रमाण देश के अनेक हिस्सों में हिन्दुओं के जुलूसों का मुस्लिम समुदाय द्वारा स्वागत किये जाने से मिले हैं  | ये भी सुनने में आने लगा है कि उ.प्र के चुनाव के बाद वहां  के मुस्लिम समाज में इस बात को लेकर मंथन चल पडा है कि कुछ  राजनीतिक दलों के बहकावे पर भाजपा का अँधा विरोध करने से उन्हें हासिल तो कुछ हुआ नहीं , उल्टे हिन्दू समाज  का ध्रुवीकरण हो गया | राष्ट्रीय स्तर पर भी इस तरह की सोच  एक तबका रखने लगा है लेकिन धार्मिक दबाव के आगे उसकी आवाज दबी रह जाती है | ऐसे में जरूरत इस बात की है कि बुलडोजर दंगाइयों के घरोंदों पर ही नहीं अपितु उन इरादों पर चलाये जाएँ जो आज भी मुस्लिम लीग की उस विचारधारा से प्रेरित और प्रभावित हैं जिसने धर्म के नाम पर देश का बंटवारा करवाया था | दुर्भाग्य से आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिनका शरीर भले भारत में हो लेकिन मन पाकिस्तान में ही रहता है जिसके  कारण विभाजन के बाद की उनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी तक  मुख्यधारा से दूर है | धर्म निरपेक्षता के नाम पर चली वोट बैंक की राजनीति ने जिस तुष्टीकरण का सहारा लिया वह  कालान्तर में नासूर बनता गया | आधुनिक शिक्षा की जगह  धार्मिक कट्टरता का पाठ पढ़ाए जाने की वजह से बजाय आगे बढ़ने के मुस्लिम समाज आज भी सदियों पुरानी बेड़ियों में जकड़ा हुआ है | बीते कुछ सालों में देश का  परिदृश्य काफी बदला है जिससे खीझकर कुछ  लोगों द्वारा आक्रामक अंदाज में अपनी ताकत दिखाने का सुनियोजित प्रयास किया  रहा है |  कुछ चुनिन्दा शिक्षण संस्थानों में समय – समय पर होने वाले उपद्रव इसकी बानगी हैं  | धार्मिक रीति – रिवाजों के नाम पर दंगा  करने की कोशिशें भी किसी से छिपी नहीं हैं | संविधान के नाम पर देश चलाने की बात करने वाले मौका मिलते ही धार्मिक ग्रन्थ लेकर बैठ जाते हैं | दुःख तो इस बात  का है कि  विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इस खतरनाक खेल को प्रोत्साहन देती हैं | इससे  लगता है जैसे आतंकवाद किसी रणनीति के अंतर्गत नये रूप में सीमावर्ती राज्यों से निकलकर देश के अंदरूनी हिस्सों में फ़ैल रहा है | दिल्ली के शाहीन बाग में चले धरने को जिस तरह से राजनीतिक समर्थन मिला उससे अलगाववादी  शक्तियों का हौसला बुलंद हो गया | कोरोना न आया होता तो बड़ी बात नहीं देश भर में आतंकवादी हिंसा का दौर दिखाई देता | राम नवमी की शोभायात्राओं पर हुए ताजा  हमले स्थानीय विवाद मानकर  उपेक्षित  नहीं किये जाने चाहिए | कश्मीर घाटी में अपनी जड़ें कमजोर होने के बाद  देश विरोधी ताकतें अपने कार्यक्षेत्र का जो विस्तार कर रही हैं ये उपद्रव उसी के प्रमाण हैं | इसीलिये केवल इनके मकान और दूकानें तोड़ने से बात नहीं बनने वाला, सांप का फन कुचलना भी जरूरी है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 11 April 2022

क्षेत्रीय आर्थिक जोन का सुअवसर : चीन की साख घटने का लाभ उठाये भारत



ये संयोग ही है कि भारत के तीन पड़ोसी देश इन दिनों आर्थिक संकट के शिकार हैं | पाकिस्तान में तो सत्ता संघर्ष के कारण फ़िलहाल आर्थिक बदहाली की चर्चा पर विराम लगा हुआ है लेकिन श्रीलंका के दिवालिया होने के बाद नेपाल भी उसी राह पर बढ़ रहा है | श्रीलंका  में राजनीतिक संकट भी उठ खड़ा हुआ है | जनता सत्ताधारियों  को हटाने सड़कों पर उतर रही है | कर्ज के बोझ से  अर्थव्यवस्था के कंधे झुक गए हैं | केन्द्रीय बैंक के मुखिया ने सरकार से कह दिया है कि  उसके काम में दखल देना बंद कर दें | विदेशी मुद्रा का संकट दूर  करने के लिए श्रीलंका सरकार अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज लेने की कोशिश कर रही है | लेकिन इस खस्ता हालत में नया कर्ज किस आधार पर मिलेगा ये देखने वाली बात होगी | दूसरी तरफ नेपाल सरकार ने अपने केन्द्रीय बैंक के गवर्नर को बर्खास्त कर दिया क्योंकि उन्होंने निर्यात और पर्यटन में कमी के कारण विदेशी मुद्रा के भण्डार में कमी के चलते विलासिता और गैर जरूरी चीजों के आयात पर रोक लगा दी | यद्यपि  नेपाल के हालात भले ही श्री लंका जैसे बदतर नहीं हुए हों किन्तु प्रभावी कदम न उठाये गये तो स्थिति और बिगड़ते देर  नहीं लगेगी | हमारे  लिये दोनों देश चिंता का विषय हैं क्योंकि इनके संकट से शरणार्थी समस्या का खतरा है  | श्रीलंका से तो लोगों का तमिलनाडु के तटीय क्षेत्रों में आना चल ही रहा है जिनके लिए शरणार्थी शिविर भी बनाये गये हैं | नेपाल से भी भारत आना और आसान है | वैसे भी वीजा जरूरी न होने से बहुत बड़ी  संख्या में नेपाली भारत में स्थायी तौर पर बसे हुए हैं | यदि उसके हालात भी श्रीलंका जैसे हुए तब बतौर शरणार्थी ये संख्या और बढ़ जायेगी जिसका बोझ हमारे कन्धों पर आयेगा | नेपाल के तराई इलाकों में रहने वाले मधेसी तो पूर्वी उ.प्र और बिहार से पुश्तैनी तौर पर जुड़े हुए हैं | इसलिए उनका भारत आकर डेरा जमाना संभावित है | ऐसे में जब कोरोना काल से उबर रही भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी यूक्रेन संकट का असर पड़ रहा है तब श्रीलंका और नेपाल में गंभीर आर्थिक संकट हमारे लिए दोहरी मुसीबत बन सकता है | शरणार्थी समस्या के अलावा भारत की ये कूटनीतिक मजबूरी है कि वह चीन को इन देशों में अपना प्रभाव पूरी तरह से कायम करने से रोके | उल्लेखनीय है चीनी कर्ज से बुरी तरह दबे श्रीलंका को  भारत ने हाल ही में जो  सहायता दी उससे वहां की सरकार और जनता दोनों में हमारे प्रति जैसा सद्भाव देखने मिल रहा है उसे आगे भी जारी रखने के लिए आवश्यक होगा कि हम  श्रीलंका में अपनी उपस्थिति को और वजनदार  बनायें | इसके लिये ये जरूरी है कि नेकी कर दरिया में डाल वाली  नीति से ऊपर उठकर विशुद्ध व्यवहारिकता को अपनाते हुए श्रीलंका को एहसास कराया जाए कि उसे हमारे प्रति रवैया बदलना होगा | ऐसा करना कठिन भी नहीं हैं क्योंकि भौगोलिक दृष्टि से  बेहद करीब  होने से दोनों देश आपसी रिश्तों में मिठासयुक्त स्थायित्व पैदा कर सकते हैं | मौजूदा सरकार के पूर्व वहां  के शासक भारत समर्थक थे जिन्हें जिताने  मोदी सरकार ने  जबर्दस्त कूटनीतिक  बिसात बिछाई थी | लेकिन वह सरकार ज्यादा नहीं चली  और राजपक्षे परिवार पूरी तरह सत्ता पर कुंडली जमाकर बैठ गया | यद्यपि लिट्टे का खात्मा  कर देश को गृहयुद्ध से बाहर निकालने में महिन्द्रा राजपक्षे ने बहुत ही साहस का परिचय दिया था परन्तु इस कार्यकाल में उनकी सरकार पूरी तरह चीन के शिकंजे में फंस गई | जो विदेशी कर्ज लिया गया उसे ईमानदारी से विकास हेतु व्यय किया जाता तो ये नौबत न आती | यही वजह है कि जनता राजपक्षे परिवार के विरुद्ध उठ खडी हुई है | भारत को इस स्थिति का लाभ उठाकर वहां अपनी समर्थक सत्ता वापिस लाने के लिए कूटनीतिक गोटियां  बिछानी चाहिए ताकि  चीन इस संकट की आड़ में श्रीलंका को अपना उपनिवेश बनाने की योजना में सफल न हो सके | ऐसी ही रचना नेपाल को लेकर भी जरूरी है क्योंकि चीन के दबाव में वहां की मौजूदा सरकार ने सीमा विवाद पर भारत के साथ सैन्य टकराव जैसा दुस्साहस किया था | वह भी तब जब लद्दाख के गलवान सेक्टर में भारत और चीन के बीच युद्ध की स्थिति बनी हुई  थी | इन सब बातों को ध्यान में रखकर  भारत के लिए जरूरी  है कि नेपाल , श्रीलंका , बांग्ला देश , म्यांमार , मालदीव , मॉरीशस के साथ एक व्यापारिक जोन बनाये | इसके चलते ये सभी देश बड़ी ताकतों के शिकंजे से आज़ाद हो सकेंगे | भारत को इन्हें ये एहसास दिलाना होगा कि वह इनके लिए उसी तरह आर्थिक संरक्षक बन सकता है जिसका एहसास चीन कराता है | ये देश यदि भारत के साथ एक क्षेत्रीय  अर्थव्यवस्था कायम करते हैं तब उसके लाभ देखकर पाकिस्तान भी देर - सवेर उसमें शामिल होना चाहेगा | इस काम में चीन जरूर अड़ंगे लगाएगा लेकिन जैसा  संकट श्रीलंका , नेपाल और पाकिस्तान झेल रहे हैं उसे देखते हुए उनको ये लगने लगा है कि भारत के साथ जुड़ना उनके लिये हर दृष्टि से लाभदायक रहेगा | बीते कुछ सालों  से ये दावा अक्सर सुनाई देता है कि भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था होने के साथ ही सैन्य शक्ति भी बन गया है | चीन के साथ  टकराव का जवाब उसने जिस कड़ाई के साथ दिया उसके कारण  भारत का मान बढ़ा है | यूक्रेन संकट के दौरान अमेरिका और यहाँ तक कि चीन की नीति  जिस तरह गैर भरोसेमंद रही उससे उनकी विश्वसनीयता में कमी आई जबकि भारत ने अपना रुख पहले दिन से बहुत ही  संतुलित रखते हुए किसी  दबाव में आने से परहेज किया | इससे कूटनीतिक क्षेत्र में हमारी साख और धाक दोनों बढ़ीं जिसकी पाकिस्तान के निवर्तमान प्रधानमन्त्री इमरान खान तक ने खुलकर तारीफ़ की | भारतीय विदेश नीति में हाल के वर्षों में जो परिपक्वता और आत्मविश्वास देखने मिला उसके बाद ये सोचना गलत न होगा कि हम क्षेत्रीय शक्ति के तौर पर खुद को स्थापित करते हुए अपने पड़ोसी देशों में चीन का विकल्प बनें | कोरोना संकट के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में जो बड़े बदलाव हो रहे हैं उनके कारण भारत की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो सकती है | लेकिन हमें अपने इर्द - गिर्द अपना आभामंडल और चमकदार बनाना होगा | कोरोना के कारण विश्वसनीयता खोने से चीन को आर्थिक दृष्टि से काफी नुकसान हुआ है | कोरोना की नई लहर आने से वहाँ अंदरूनी हालात और खराब हो रहे हैं | शंघाई जैसे व्यावसायिक महानगर में लॉक डाउन है और खाने के पैकेट लूटे जाने की स्थिति है | भारत के लिए यह स्वर्णिम अवसर है जिसका लाभ उसे लेना चाहिए |

- रवीन्द्र वाजपेयी