Saturday 23 April 2022

समान नागरिक संहिता : मौका भी है और जरूरत भी



नवरात्रि के दौरान दिल्ली स्थित जेएनयू  छात्रावास के भोजनालय में मांसाहारी भोजन पकाने पर हुए विवाद के संदर्भ में असदुद्दीन ओवैसी ने एक टीवी साक्षात्कार में कहा कि देश आस्था से नहीं  संविधान से चलना चाहिए | लेकिन जब उनके धर्म से जुड़ी आस्था का सवाल उठता है तब वे या उन जैसे अन्य मुस्लिम नेता इस्लामिक मान्यताओं के पालन पर जोर देने लगते हैं | दरअसल धर्म के नाम पर देश का बंटवारा होने के बाद पाकिस्तान तो  इस्लामिक देश बन गया किन्तु भारत ने धर्म निरपेक्षता को अपनाया | लेकिन  मुस्लिम पर्सनल लॉ के नाम पर एक विसंगति पैदा कर दी गई जिसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों के सामाजिक रीति – रिवाजों को संरक्षण देना था किन्तु  इसका दुष्परिणाम अलगाववाद की भावना को पुनर्जीवित करने के तौर पर सामने आने लगा | ये ठीक वैसे ही है जैसे  जम्मू – कश्मीर को धारा 370 के अंतर्गत दिए गये विशेष दर्जे के कारण कश्मीर घाटी में अलगाववादी भावनाएं मजबूत हुईं | मुस्लिम पर्सनल लॉ की देखा - सीखी वृहत्तर हिन्दू समाज के अन्य घटकों में भी अल्पसंख्यक बनने की ललक जागी परन्तु  उनका अपना पर्सनल लॉ नहीं है | इसी तरह ईसाई भी अल्पसंख्यक माने जाते हैं | कहने को तो पारसी समुदाय भी धार्मिक अल्पसंख्यक है लेकिन उसकी तरफ से शायद ही  ऐसी आवाज सुनाई देती हो जिससे वह मुख्य धारा से अलग प्रतीत हो |  सिख , जैन और बौद्ध अपने को कितना भी अलग मानें परंतु देश  की मुख्य सामाजिक धारा में वे पूरी तरह  घुले - मिले हैं | लेकिन अलग पर्सनल लॉ  होने के कारण मुस्लिम  समुदाय मुख्य धारा से दूर  होता गया और इसी  वजह से सांप्रदायिक विवाद पैदा होते  हैं | शरीयत के नाम पर खुद को विशेष  साबित करने के फेर में मुस्लिम समाज आजादी के 75 साल भी अलग - थलग नजर आता है | जब भी वह किसी परेशानी में होता है तब संविधान की दुहाई देने लगता है परन्तु सामान्य स्थितियों में उसे शरीयत और पर्सनल लॉ याद आने लगते हैं | इस विसंगति को दूर करने के लिए लम्बे समय से ये बात उठती रही है कि दंड विधान संहिता की तरह से ही नागरिक संहिता में भी एकरूपता होनी चाहिए | उल्लेखनीय है कि पर्सनल लॉ को बनाए रखने के पक्षधर मुस्लिम नेता भूलकर भी इस्लामिक दंड विधान को लागू करने की बात नहीं कहते | उनके अपने पर्सनल लॉ का ही परिणाम अल्पसंख्यकवाद के  रूप में सामने आया जिसे वोट बैंक की  राजनीति ने और हवा दी | सामाजिक ताने बाने के लिए ये प्रवृत्ति कितनी नुकसानदेह हुई ये किसी से छिपा नहीं है | और इसीलिये ये मांग लम्बे समय से उठ रही है कि सामान  दंड  विधान संहिता की  तरह समान नागरिक संहिता भी होनी चाहिए | सर्वोच्च न्यायालय भी इस बारे में सांकेतिक सलाह अनेक अवसरों पर दे चुका है | निजी बातचीत में तमाम राजनीतिक नेता इसका समर्थन करते हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से ऐसा कहने का साहस उनमें नजर नहीं आता | जिसका एकमात्र कारण वोट बैंक की राजनीति है | गत दिवस केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भोपाल में राम मंदिर और धारा 370 के बाद समान नागरिक संहिता की बारी कहकर राजनीतिक जमात को  नई बहस का अवसर दे दिया है | भोपाल में भाजपा की बैठक में उन्होंने इस बारे में कहा कि उत्तराखंड में इसे प्रायोगिक तौर पर लागू किये जाने के बाद मसौदा तैयार है | राजनीतिक विश्लेषक भी ये स्वीकार करते हैं कि कोरोना न आता तो अब तक ये कानून पारित हो चुका होता | उ.प्र और उत्तराखंड में मिली चुनावी सफलता ने भाजपा के मन से मुस्लिम मतों की  नाराजगी का खौफ भी खत्म कर दिया है | ऐसे में ये उपयुक्त  समय है जब केंद्र सरकार इस दिशा में आगे बढ़े | राज्यसभा में भी भाजपा की सदस्य संख्या में काफी इजाफा हुआ है और फिर इस विषय पर उसे शिवसेना का भी  समर्थन मिलना तकरीबन तय है | भाजपा राजनीतिक दृष्टि से भी इस दिशा में शीघ्रता करना चाहेगी क्योंकि उसे निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनावों में जहाँ हिमाचल ,  गुजरात और म.प्र में अपनी सरकारें बचानी हैं वहीं राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पिछली  पराजय से उबरकर सत्ता हासिल करना है | 2024 के लोकसभा चुनाव में वह मतदाताओं के सामने ये कहते हुए जाना चाह रही है कि उसने जो कहा वह करके भी दिखा दिया | मसलन राम मंदिर , धारा 370 और समान नागरिक संहिता जैसे अपने वायदे पूरे कर दिये | श्री शाह ने जो संकेत दिया उसे केंद्र  सरकार के बढ़े  हुए आत्मविश्वास का प्रमाण भी कह सकते हैं क्योंकि मौजूदा समय में कांग्रेस सहित शेष विपक्ष पूरी तरह बिखरा है | गत वर्ष प. बंगाल में ममता बैनर्जी को जो बड़ी सफलता मिली  उसके बाद विपक्ष का हौसला काफी बुलंद था क्योंकि इस राज्य में भाजपा बड़ी चुनौती बनकर उभरी थी | केरल में वह पैर ज़मा रही है जबकि  तमिलनाडु में आज भी पहिचान का संकट उसके सामने है | असम में जरूर उसने खुद को मजबूत कर लिया  हैं | लेकिन प. बंगाल में पूरा जोर लगाने के बावजूद भाजपा सत्ता से काफी पीछे रही | उसके बाद निश्चित तौर पर उसका मनोबल गिरा। लेकिन उ.प्र और उत्तराखंड के साथ ही मणिपुर और गोवा जीतने के बाद मोदी – शाह की जोड़ी राजनीतिक परिदृश्य पर एक ताकतवर समीकरण के तौर पर उभरी है | और इसीलिए हिमाचल और गुजरात के अलावा म.प्र .राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है | श्री शाह द्वारा भोपाल में समान नागरिक संहिता को लेकर दिया गया संकेत उस दृष्टि से काफी मायने रखता है | भाजपा को ये लगने लगा है इस विधेयक को लाने  का ये सबसे बेहतर समय है क्योंकि मुख्य धारा की सभी पार्टियों के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण के साथ ही हिन्दू मतों को रिझाना भी जरूरी हो गया है | तभी राहुल गांधी जनेऊधारी बनकर अयोध्या के महंतों की सेवा में जाते हैं , अखिलेश यादव चाहे  - अनचाहे परशुराम मंदिर का उदघाटन करते हैं , बसपा ब्राह्मण सम्मलेन आयोजित करने मजबूर है , अरविन्द केजरीवाल हनुमान चालीसा सुना रहे हैं और ममता बैनर्जी मंच से काली पाठ कर रही हैं | लेकिन मुस्लिम मतों के लिए इनका झुकाव  बहुसंख्यक ध्रुवीकरण का कारण बन गया | भाजपा भी इस सूत्र को समझकर बिना  झिझके अपनी आधारभूत नीतियों को अमली जमा पहिनाने में जुट गई है | आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में संयोगवश राजनीतिक परिस्थितियां उसके सर्वथा अनुकूल हैं और नरेंद्र मोदी का कद जिस ऊंचाई को छू रहा है उसके कारण वह बड़े फैसले करने में सक्षम है | शायद यही सोचकर श्री शाह ने गत दिवस भोपाल में  में समान नागरिक संहिता लागू करने का इरादा जताया | संसद के  दोनों सदनों में बहुमत के चलते इसे पारित करवाने में ज्यादा परेशानी भी  नहीं होगी | जहां तक बात विपक्ष की है तो उसके लिए समान नागरिक संहिता न उगलते बने  और न निगलते वाली स्थिति उत्पन्न करने वाली है |  उसका विरोध उसे बहुत महंगा पड़ेगा वहीं समर्थन करने पर भी उसके हाथ कुछ नहीं लगने वाला | अमित शाह चूंकि प्रधानमंत्री के सबसे करीबी हैं और अध्यक्ष न होते हुए भी पार्टी पर उनका वर्चस्व बना हुआ है इसलिए ये माना  जा सकता है कि केंद्र सरकार ने इस बारे में तैयारी शुरू कर दी है | करौली , खरगौन और दिल्ली में  जहांगीरपुरी के दंगों के बाद इसकी जरूरत तेजी से महसूस की जाने लगी है | उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता  का निर्णय प्रायोगिक तौर करने के बाद भाजपा उसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने जा रही है तो इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है | आख़िरकार ये उसके मूल उद्देश्यों में शुरू से शामिल रहा है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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