गर्मियों के मौसम में गर्मी पड़ना नई बात तो हैं नहीं | लेकिन साल दर साल बढ़ता जा रहा तापमान जरूर चिंता और उससे भी ज्यादा चिंतन का विषय है | बीते दो – तीन दिनों से देश भर में ग्रीष्म लहर चल रही है | दर्जनों शहरों में तापमान 45 डिग्री से. तक जा पहुंचा है और कहीं – कहीं तो उससे भी ऊपर | मौसम विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि गर्मी का प्रकोप और तेज होगा | ज्यादातर राज्यों में चिर - परिचित जलसंकट की स्थिति भी बनी हुई है | अंतर्राष्ट्रीय हालातों ने कोयले की किल्लत पैदा कर दी जिससे बिजली उत्पादन घट जाने से हो रही कटौती से लोग हलाकान हैं | इस साल मार्च के महीने से ही तापमान बढ़ने लगा जिसकी वजह से गर्मियों में आने वाली सब्जियों और फलों की पैदावार पर भी विपरीत असर पड़ा | सही बात ये है कि इस साल गर्मियाँ समय से पहले आ धमकने के साथ ही कुछ ज्यादा ही रौद्र रूप दिखा रही है | यद्यपि इसमें अनोखा कुछ नहीं है क्योंकि तापमान में वृद्धि का सिलसिला साल दर साल इसी तरह चला आ रहा है | दुनिया भर में इसे लेकर चिंता व्याप्त है | पृथ्वी को गर्म होने से बचाने के लिए तरह – तरह के उपाय भी हो रहे हैं | कोयले के साथ ही पेट्रोल – डीजल के उपयोग को कम करने की दिशा में जोरदार प्रयास भी जारी हैं | लेकिन मैदानी इलाकों में पड़ने वाली गर्मी तो फिर भी समझ में आती हैं परन्तु अब तो पहाड़ी स्थलों पर भी पंखे और कूलर नजर आने लगे हैं | शिमला में जल संकट की स्थिति किसी से छिपी नहीं है | हिमनद ( ग्लेशियर ) पिघलने की वजह से पहाड़ों से निकलने वाली सदा नीरा नदियों के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं | छोटी नदियों में तो ग्रीष्म ऋतु के दौरान कीचड़ तक नहीं रहता | भूजल स्तर गिरते जाने से मानव निर्मित तालाबों और कुओं आदि में भी जल की उपलब्धता घटते - घटते उनके सूखने तक की नौबत आने लगी | संक्षेप में कहें तो स्थिति भयावह है | भारत में ऋतुओं का जो संतुलित रूप था उसकी वजह से हर मौसम का अपना आनंद था | लेकिन प्रकृति पर किये गये अत्याचारों ने उस चक्र की गति को बिगाड़ दिया | जिसका दुष्परिणाम कहीं सूखा तो कहीं अति वृष्टि के रूप में सामने आने लगा है | इस साल अप्रैल खत्म होते तक गर्मी ने विकराल रूप धारण कर लिया है | बिजली और पानी दोनों की किल्लत के साथ ही आसमान से बरसने वाली आग लोगों के तन और मन दोनों को झुलसाती रहेगी | हर साल इस तरह के हालात पैदा होने पर हम सब प्रकृति और पर्यावरण के साथ हुए खिलवाड़ की चर्चा करते हुए ये स्वीकार करने की ईमानदारी तो दिखाते हैं कि इस सबके लिए हमारे अपने कर्म ही जिम्मेदार हैं | लेकिन गर्मियां बीतते ही ये चिंता और चिन्तन अदालत की पेशियों की तरह आगे बढ़ जायेंगे | कहने को पूरी दुनिया पृथ्वी को बचाने के लिए प्रयासरत है | कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए समझौते और संधियाँ हो रही हैं | ऊर्जा के ऐसे वैकल्पिक स्रोत तलाशे जा रहे हैं जिनसे तापमान को बढ़ने से रोका जा सके | वृक्षारोपण के सरकारी और गैर सरकारी अभियान भी निरंतर चलते रहते हैं | जल संरक्षण और संवर्धन के लिए भी हरसंभव कोशिश हो रही हैं | नदियों के साथ ही तालाबों आदि के जीर्णोद्धार की पहल भी सुनाई और दिखाई देती है | इस सबसे लगता है कि प्रकृति और पर्यावरण को उसका मूल स्वरूप देने के लिए मानव जाति संकल्पित हो उठी है परन्तु निष्पक्ष आकलन करें तो एक कदम आगे दो कदम पीछे की स्थिति बनी हुई है | ऐसे में सवाल ये है कि हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए स्वच्छ हवा और पानी का प्रबंध कैसे करें ? इसका उत्तर भी बीते दो सालों में हमें मिला जब कोरोना के कारण लगे लॉक डाउन के दौरान अचानक ऐसा लगा कि प्रकृति अपने नैसर्गिक स्वरूप में लौट आई है | नदियों के स्वच्छ होने , जलचरों और नभचरों की आनंदित करने वाली गतिविधियाँ , वायु प्रदूषण में आश्चर्यजनक कमी , आसमान साफ़ होने से दूरस्थ पर्वतों की चोटियों के दर्शन जैसे अकल्पनीय अनुभवों के साथ ही गर्मियों के दौरान तापमान में उल्लेखनीय कमी आने के सुखद आश्चर्य के साथ हुआ साक्षात्कार , स्थितियाँ सामान्य होते ही सुंदर सपने की तरह विलुप्त हो गया | हम सभी उस दौर को याद करते हुए बेहिचक स्वीकार करते हैं कि यदि वैसा किया जावे तो पर्यावरण को बचाया जा सकता है | लेकिन व्यवहारिक तौर पर आगे – पीछे होने लगते हैं | इस बारे में सोचने वाली बात ये है कि क्या हम अपनी सुविधाओं को कुछ समय के लिए उसी तरह नहीं त्याग सकते जैसे कभी – कभार उपवास करते हैं | दिल्ली में वाहनों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए ऑड – ईवन का तरीका लागू किया गया किन्तु वह भी जन सहयोग के अभाव में फुस्स हो गया | प्रति वर्ष सरकार करोड़ों वृक्ष लगाने का दावा करती है | समाजसेवी संस्थाएं भी इस अभियान में सहयोग करती हैं लेकिन शहरों की तो छोडिये अब तो ग्रामीण इलाकों तक में हरियाली लुप्त होती जा रही है | बढ़ती आबादी और प्रदूषण में निरंतर वृद्धि के अनुपात में जरूरी वृक्ष नहीं लगाये जाने से ही तापमान बढ़ने की नौबत आ रही है | हालांकि जो नुकसान हो चुका उसकी भरपाई आसान नहीं है किन्तु ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ खत्म हो गया हो | यदि आज भी हम अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करते हुए भौतिक सुविधाओं को कुछ समय के लिए ही सही त्यागने की मानसिकता विकसित कर लें तो जो शेष है कम से कम वह तो नष्ट होने से बचेगा और तब हमें भावी सुधार के अवसर आसानी से मिल सकेंगे | नदियों में प्रवाहित की जाने वाली पूजन सामग्री ही बंद कर दी जाये तो उसके चमत्कारिक परिणाम आ सकते हैं | चौबीसों घंटे वातानुकूलित वातावरण में रहने वाले यदि कुछ कुछ घंटे सामान्य माहौल में रहने का अभ्यास करें तो आसपास का तापमान कम किया जा सकेगा | सप्ताह में एक दिन पेट्रोल – डीजल चलित वाहन का उपयोग न करने की प्रतिबद्धता भी पर्यावरण के लिए राहत होगी | छोटी – छोटी बातों से भी बड़े सुधार हो सकते हैं ये महात्मा गांधी जैसे लोगों ने साबित कर दिखाया है | लालबहादुर शास्त्री ने विजय व्रत का आह्वान करते समय यही मन्त्र दिया था कि यदि आप एक समय का भोजन त्यागते हैं तो वह किसी भूखे का पेट भरने के काम आ सकेगा | भारतीय जीवन पद्धति में आत्म नियंत्रण के साथ ही प्रकृति और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील रहने का जो संस्कार निहित है , उसका पालन यदि पूरी ईमानदारी से करें तो चिंता कम की जा सकती है | पूर्वजों ने हमारे लिए साफ़ हवा और शुद्ध जल का प्रबंध किया था | उसके पहले कि कुछ न कर पाने की स्थिति बन जाये , हमें अगली पीढी के लिए अपने दायित्व का निर्वहन करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाने होंगे क्योंकि तापमान का आंकड़ा अर्धशतक बनाने की तरफ तेजी से बढ़ रहा है |
-रवीन्द्र वाजपेयी
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