Saturday 9 April 2022

हिन्दी का विरोध केवल राजनीतिक स्वार्थवश किया जाता है




 आजादी के 75 वर्ष पूरे करने जा रहे देश में यदि बतौर राजभाषा हिन्दी में ज्यादा से ज्यादा सरकारी कामकाज करने की बात किये जाने को हिन्दी साम्राज्यवाद निरूपित करते हुए देश की अखंडता के लिए खतरा बताया जाने लगे तो ऐसा लगता है कि सैकड़ों सालों तक गुलाम रहने के बावजूद हमने कोई सबक नहीं सीखा | संसद की राजभाषा समिति की बैठक की अध्यक्षता करते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फैसला किया है कि सरकार चलाने का माध्यम  राजभाषा है | समय आ गया है जब  राजभाषा को देश की एकता का अहम हिस्सा बनाया जाए | ये भी कहा गया कि हिन्दी को अंग्रेजी के विकल्प के रूप  में स्वीकार किया जाना चाहिए , न कि स्थानीय भाषाओँ के विकल्प के रूप में | बैठक के बाद विपक्ष के अनेक नेताओं के बयान  हिन्दी के विरोध में आने शुरू हो गए | तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने   हिन्दी पर जोर को अखंडता और बहुलतावाद के विरुद्ध बताकर चेतावनी दे डाली कि यह देश की अखंडता को बर्बाद कर देगा | कांग्रेस नेता सिद्धारमैया , जयराम रमेश और अभिषेक मनु सिंघवी के अलावा तृणमूल नेता सौगत राय ने भी गृहमंत्री के कथन के विरुद्ध तीखी टिप्पणियाँ कर डालीं | चौंकाने वाली बात ये है कि जिस बात पर धजी का सांप बनाया  जा रहा है उसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया था कि   हिन्दी , अंग्रेजी के विकल्प के तौर पर होगी न कि किसी स्थानीय भाषा के | ऐसे में हिन्दी साम्राज्यवाद जैसे शब्दों के साथ उसको  राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा बताना बहुत ही घटिया  मानसिकता का प्रमाण है | स्टालिन की प्रतिक्रिया समझ में आती है क्योंकि उनकी पार्टी शुरू से ही हिन्दी विरोध की आग पर  रोटियां सेंकती आई  है | तृणमूल भी चूंकि क्षेत्रीयतावाद की सियासत करती है इसलिए उसके सांसद द्वारा  हिन्दी के  विरोध  पर अचरज नहीं हुआ | लेकिन कांग्रेस तो राष्ट्रीय पार्टी है जिसके शासनकाल में ही   हिन्दी को राजभाषा का दर्जा देकर संपर्क माध्यम के रूप में मान्यता दी गई थी | आजादी की लड़ाई लड़ते समय ही महात्मा गांधी को भाषायी विवाद का अंदेशा हो गया था और इसीलिये उन्होंने तमिलनाडु के वरिष्ट नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को   नागरी प्रचारिणी सभा का अध्यक्ष बनाकर दक्षिण में हिंदी के प्रचार – प्रसार का काम सौंपा |  बाद में जब तमिलनाडु में द्रविण पार्टियों का प्रभुत्व  कायम हुआ तब  हिन्दी  विरोध  दबाव बनाने का जरिया बन गया | रोचक तथ्य ये है कि तमिलनाडु में  हिन्दी फ़िल्में बनाने वाले अनेक निर्माता निर्देशक हुए  | जेमिनी , प्रसाद प्रोडक्शन , राजश्री पिक्चर्स , एवीएम जैसे बड़े बैनरों द्वारा बनाई गई   हिन्दी   फिल्मों ने जबरदस्त लोकप्रियता हासिल की और वे  जितनी    हिन्दी  भाषी क्षेत्रों में चलीं उतनी ही दक्षिणी राज्यों में भी | तमिलनाडु के अनेक अभिनेता और अभिनेत्रियां हिंदी फिल्मों में आकर सुपर स्टार बन बैठे | कमल हासन , रजनीकांत , हेमा मालिनी , रेखा , श्रीदेवी जैसे अनेक नाम हैं जिनके बिना हिंदी फिल्मों का जिक्र अधूरा रहेगा | तमिलनाडु के लाखों लोग उत्तर भारत में नौकरी के सिलसिले में आये जिन्होंने हिंदी सीखकर  काम करने पर कभी ऐतराज नहीं किया | दरअसल स्टालिन द्वारा  हिंदी के उपयोग को साम्राज्यवाद कहकर  देश की अखंडता के लिए खतरा बताना बहुत ही संकुचित सोच है | और सही मायनों में ऐसा  कहने वाले ही राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा पैदा करते हैं | संसद में कांग्रेस पक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडगे , जयराम रमेश , शशि थरूर और  मणिशंकर अय्यर सरलता के साथ हिंदी में बोलते सुने जाते रहे हैं | और जो सांसद हिन्दी नहीं जानते उनमें से अधिकतर अपनी क्षेत्रीय भाषा का उपयोग करते हैं | जहाँ तक बात अंग्रेजी की है तो अनेक       हिन्दी भाषी नेता भी संसद में उसका उपयोग करते हैं | लेकिन कोई उनका विरोध नहीं करता | संसद के दोनों सदनों में गैर  हिन्दी   भाषी अध्यक्ष , उपाध्यक्ष भी हुए हैं |  उन्हें सदन चलाने में कोई दिक्कत नहीं हुई और न ही हिन्दी   नहीं जानने पर उनका विरोध हुआ | इस सबसे लगता है कि कतिपय राजनीतिक दलों द्वारा सरकारी कामकाज में हिन्दी के उपयोग का  विरोध  इस बात का संकेत है कि वे निहित स्वार्थों के लिए राष्ट्र हित की अनदेखी कर रहे हैं | भारत बहुभाषी देश होने के बावजूद अनंत काल से सांस्कृतिक और भावनात्मक दृष्टि से एकता के सूत्र में बंधा रहा है | सैकड़ों  वर्षों की पराधीनता भी इसे नहीं तोड़ सकी किन्तु स्वाधीनता के बाद राजनीतिक स्वार्थों के कारण भाषायी विवाद खड़े किये जाने लगे | भाषावार प्रान्तों की रचना ने भी आग में घी का काम किया | शिवसेना जैसी पार्टियों ने महाराष्ट्र में मराठी का विवाद खड़ा कर अपना उल्लू सीधा करने का दांव चला जबकि महाराष्ट्र  में  भाषा की कोई समस्या कभी नहीं रही |   हिन्दी     फिल्म उद्योग का मुख्यालय मुम्बई में होना ही अपने आप बहुत कुछ कह जाता है | कुल मिलाकर संसदीय समिति में गृहमंत्री श्री शाह द्वारा राजभाषा     हिन्दी को लेकर जो कहा गया उसे लेकर देश के टूटने की बात करने वाले नेतागण ये भूल गये कि उन्होंने साफ़ – साफ़ कहा था कि सरकारी कामकाज में हिन्दी अंग्रेजी का विकल्प होगी न कि स्थानीय भाषाओं की | ऐसे में महज राजनीतिक स्वार्थवश   हिन्दी  का विरोध बेहद गैर जिम्मेदाराना है | स्टालिन जैसे नेताओं को ये बात समझना चाहिये कि हिन्दी से चिढ़ के कारण ही उनके राज्य के नेता राष्ट्रीय राजनीति में कामयाब नहीं हो सके | यहाँ उल्लेखनीय है कि तमिलनाडु के दिग्गज कांग्रेस नेता कामराज प्रधानमंत्री महज इसलिए नहीं बन सके क्योंकि वे हिन्दी नहीं जानते थे | दक्षिण से दो प्रधानमंत्री क्रमशः पीवी नरसिम्हाराव और एचडी देवेगौड़ा हुए | उनमें श्री राव अनेक भाषाओँ के साथ ही हिन्दी में भी पारंगत होने से राष्ट्रीय राजनीति में जगह बनाने में सफल हुए लेकिन देवेगौडा अपनी कमजोर हिन्दी के चलते क्षेत्रीय छवि से बाहर नहीं निकल सके | हिन्दी विरोधी नेताओं को ये बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि वे अपने राज्य की जनता को हिन्दी न सिखाकर कूप मंडूक बना रहे हैं | उसको  राष्ट्रभाषा कहे जाने पर छाती पीटने वालों को इस बात का जवाब भी देना चाहिए कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के बावजूद हम उनकी भाषा को क्यों ढो रहे हैं जो सामाजिक स्तर पर ऊंच - नीच की भावना फ़ैलाने का सबसे बड़ा आधार है | देश में  एक  राष्ट्रगान , राष्ट्रध्वज, राष्ट्रीय मुद्रा , संविधान  , संसद , सर्वोच्च न्यायालय  , प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति  हैं , जिनको लेकर किसी भी प्रकार का विवाद नहीं है | देश के अधिकतर प्रधानमंत्री उत्तर भारत से ही बने | मौजूदा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी एक ही राज्य से हैं | किसी ने आज तक इस पर सवाल नहीं उठाये | लेकिन 75 साल बाद भी हमारी एक राष्ट्रभाषा नहीं होना इस बात का प्रमाण है कि सत्ता में बैठने वाले संवेदनशील विषयों पर फैसला करने में कितने नाकामयाब रहे हैं | अंग्रेजी एक भाषा के रूप में बेहद उपयोगी है लेकिन तकनीकी और उच्च शिक्षा के लिए भारतीय भाषाओं की उपेक्षा का कितना नुकसान देश को हुआ ये बताने की जरूरत नहीं है | हिन्दी को राष्ट्रभाषा की बजाय राजभाषा बनाने की जो भूल अतीत में हुई उसी का खामियाजा आज देश भोग रहा  है | काश , पंडित नेहरू ने 14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में संसद के केन्द्रीय कक्ष में अपना  ऐतिहासिक भाषण  बजाय अंग्रेजी के हिन्दी में दिया होता तब शायद ऐसे विवाद जन्म ही न लेते  | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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