Thursday 14 April 2022

छत पर पत्थर रखना किस धर्म का हिस्सा और पलायन एक ही पक्ष का क्यों



दंगे किसी भी समझदार व्यक्ति को शायद ही अच्छे लगते होंगे क्योंकि इसके पीछे जो लोग होते हैं उनको  तो कोई नुकसान नहीं पहुँचता लेकिन निरपराध लोगों को जान - माल की क्षति उठानी पड़ती है | इन्हें अंजाम देने वाले बेशक उपद्रवी और संकुचित मानसिकता के होते हैं जो कहलाते तो धर्मान्ध हैं लेकिन उन्हें न अपने मज़हब की समझ होती है और न दूसरे किसी की | दंगों की आग में रोटी सेंकने वालों का भी एक विशेष वर्ग है जिसे नेता नाम से जाना जाता है | हर दंगे के पीछे कुछ न कुछ कारण तो होता ही है | कभी कोई पुराना विवाद तो कभी तात्कालिक घटना वजह बन जाती है | राजनीतिक और निजी विवाद भी उनकी पृष्ठभूमि में होते हैं | दो धर्मों के अनुयायियों के बीच होने  वाले सांप्रदायिक दंगे के अलावा भी फसाद होते रहते हैं | हरियाणा में जाट  राजस्थान में  मीणा , गुजरात  और महाराष्ट्र में क्रमशः पटेल तथा मराठा आरक्षण के नाम पर हुए उपद्रवों ने  भी दंगों  का रूप ले लिया था  | दक्षिण  के अनेक राज्यों में भी क्षेत्रीय मुद्दों पर  दंगे की स्थिति बनती रही है | लेकिन भारत में हिन्दू – मुस्लिम दंगे शायद सबसे पुराने हैं जिनकी शुरुवात अंग्रेजों ने अपने स्वार्थवश  करवाई और उन्हीं के कारण धर्म के नाम पर देश को विभाजित किया गया  | उस समय देश का नेतृत्व कर रहे नेताओं को ये गलतफहमी थी कि पाकिस्तान बनने के बाद विवाद खत्म हो जायेगा | लेकिन ज़मीन का बंटवारा  होने के बावजूद जनसंख्या का हस्तांतरण धर्म के आधार पर पूरी तरह नहीं होने की वजह से ज़हर के बीज धरती के भीतर दबे रह गये जो थोड़ी सी भी नमी पाते ही अंकुरित होने लगते हैं जिससे  कभी किसी कारणवश और कभी अकारण ही दंगों की आग सुलग उठती है | 1947  में आजादी की तारीख तय होते ही जिस बड़े पैमाने पर दंगे हुए वे इस बात का संकेत थे कि बंटवारा भले ही किसी समस्या के हल के तौर पर स्वीकार किया गया लेकिन वह अपने पीछे अनेक समस्याओं को छोड़ गया | कश्मीर को कबायली हमले के बाद भारत में  विलय के समय विशेष दर्जा देने जैसा फैसला  कालान्तर में कितनी  बड़ी मुसीबत बना , ये किसी से छिपा नहीं है | उस प्रावधान के कारण भले ही भारत के अन्य राज्यों के मुसलमान वहां जाकर बसने के अधिकार से वंचित रहे लेकिन कश्मीर में जिस अलगाववाद की भावना शेख अब्दुल्ला द्वारा रोपित की गई उसने शेष भारत के मुस्लिम समुदाय को भी कुछ हद तक तो आकर्षित किया ही | गलतियां और भी होती रहीं | विशेष रूप से वोटों    की खातिर किये जाते रहे तुष्टीकरण ने मुस्लिमों को समाज  की मुख्यधारा से दूर करने का जो अक्षम्य अपराध किया उसकी सजा आज देश भोग रहा है | दंगे होते हैं और कुछ दिन बाद सब भुला दिया जाता है लेकिन उनके कारणों और उनके लिए जिम्मेदार ताकतों की अनदेखी किये जाने से उनकी पुनरावृत्ति रोकना संभव नहीं होता | धर्म निरपेक्षता की आड़ में जिस अल्पसंख्यकवाद को  बढ़ावा दिया गया उसने समन्वय के स्थान पर संघर्ष की बुनियाद रखी | ये बात बिना किसी संकोच के कही जा सकती है कि राजनीतिक संरक्षण न हो तो दंगे करने का दुस्साहस कोई नहीं कर सकता | दुर्भाग्य से देश का मुस्लिम समुदाय राजनेताओं के बहकावे में आकर विकास की दौड़ में पीछे रह गया और उससे उत्पन्न कुंठा उसमें  अलगाववाद की  भावना को भडकाने का काम करती रहती है | उसके अलावा वे मुल्ला - मौलवी भी अपनी कौम की सत्यानाशी के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं जिन्होंने आधुनिक शिक्षा के बजाय युवा पीढ़ी को भी कालातीत हो चुकी रूढ़ियों में जकड़े रहने के लिए प्रेरित किया | मजहबी शिक्षा का अपना महत्व  है लेकिन उसके साथ ही प्रगतिशील सोच भी समय की मांग है जिसके अभाव में मुस्लिम समाज में धर्मान्धता का बोलबाला है | दंगों के समय दोनों पक्षों से आरोप – प्रत्यारोप का चिर परिचित दौर चला करता है किन्तु विचारणीय प्रश्न ये है कि छतों पर पत्थर जमा करना किस धर्म का हिस्सा है ? इससे  संकेत मिलता है कि कहीं न कहीं आक्रामकता को स्वभावगत बनाने का षडयंत्र भी रचा जा रहा है | दूसरी बात ये भी देखने में आ रही है कि  कश्मीर , कैराना  करौली अथवा खरगौन जहां कहीं भी दंगे हुए वहां एक समुदाय विशेष को ही पलायन करना पडा है | कभी – कभी तो ये लगता है कि जिस तरह कश्मीर घाटी से पंडितों को योजनाबद्ध तरीके से खदेड़कर भगाया गया वही शैली अन्य दंगाग्रस्त  स्थानों में भी देखने मिली | ये स्थिति वाकई शोचनीय है कि अतीत में हुए दंगों के बाद उन बस्तियों से मकान बेचने या पलायन करने  जैसी बात नहीं सुनाई दी जहां हिन्दू – मुसलमान अगल - बगल  रहते थे |  लेकिन बीते कुछ दिनों में जो दंगे हुए उन सभी में हिन्दुओं के जुलूसों पर छतों से पथराव किये जाने की एक जैसी शैली देखने मिली  | मकान बेचकर उस बस्ती से पलायन करने का तौर - तरीका भी कश्मीर घाटी से पंडितों के निकल भागने जैसा ही  है | ये चलन निश्चित तौर पर खतरनाक संकेत है | शांतिपूर्ण जीवन जीने वाले अपने घरों में पत्थर और घातक हथियार भला क्यों रखेंगे ये बड़ा सवाल है | दंगों के बाद उपद्रवी तत्वों के घर और दुकानें जमींदोज करने की  कार्रवाई  पर ये आरोप भी लग रहे हैं कि उसमें पक्षपात हो रहा है |  ऐसा लगता है समुदाय विशेष के लोगों को छतों पर पत्थर जमा करने की प्रेरणा आतंकवाद के दिनों में कश्मीर घाटी में  सुरक्षा बलों पर की जाने वाली पत्थरबाजी से मिली होगी | लेकिन इसे रोकने के लिए शायद ही कोई धर्मगुरु या राजनीतिक नेता सामने आया हो | करौली और खरगौन के दंगों में छतों से चले पत्थर और हिन्दुओं का साझा बस्तियों से पलायन अपने आप में काफी कुछ कह जाता है | जो मौलवी और दिग्विजय सिंह जैसे नेता शासन और प्रशासन पर दोषारोपण कर रहे हैं उन्हें इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए कि दंगों के सम्बन्ध में पत्थर और पलायन का संयोग स्थायी रूप कैसे लेता जा रहा है ? सवाल और भी हैं जिनका जवाब तलाशे बिना दंगों की पुनरावृत्ति रोकी नहीं जा सकेगी क्योंकि दंगों के बहाने देश को भीतर से कमजोर करने की कोशिश किसी बड़ी योजना का हिस्सा है | दिल्ली में हुए दंगों के समय भी छतों से पत्थर फेंके जाने की शिकायतें सामने आई थीं | लेकिन करौली और खरगौन के दंगों के बाद बहुत कुछ साफ हो गया है | शासन और प्रशासन को इस नई शैली की तरफ ध्यान देना चाहिए जिससे शरारती मानसिकता को और प्रसारित होने से रोका जा सके | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment