Thursday 7 April 2022

बिन मांगे मिली इस सलाह पर ध्यान न दिया तो कर्ज कमर तोड़ देगा


सर्वोच्च न्यायालय का काम वैसे तो कानून की परिधि में रहते हुए उसके समक्ष आने वाले मामलों का निपटारा करना है लेकिन कभी - कभार वह घर के बुजुर्गों की तरह सांकेतिक भाषा में ऐसी सलाह  देता है जो भले ही अप्रासंगिक प्रतीत हो लेकिन उसके भीतर गूढ़ अर्थ छिपा रहता  है | गत दिवस घरेलू हिंसा से सम्बन्धित प्रोटेक्शन अधिकारी पूरे देश में नियुक्त किये जाने की मांग पर सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति यू.यू. ललित ने कहा कि वह बिना मांगे सलाह दे रहे हैं कि सरकार को योजनाएं और कानून लाते समय  उनके वित्तीय प्रभाव को भी ध्यान में रखना चाहिए | अपनी बात स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि शिक्षा के  अधिकार का कानून तो बना दिया गया लेकिन न शिक्षक हैं और न शालाएं | ढांचागत संसाधन भी उपलब्ध नहीं हैं | सस्ते पारिश्रमिक पर शिक्षा मित्र नियुक्त कर दिए  जाते हैं जो बाद में जब समान वेतन की मांग लेकर अदालत आते हैं तब सरकार बजट का रोना रोती है |  उक्त  टिप्पणी ऐसे समय की गई जब श्री लंका में आये वित्तीय संकट के परिप्रेक्ष्य में ये चर्चा पूरे देश में चल पड़ी है कि वोट बैंक की खातिर  राजनीतिक दल जो वायदे कर सत्ता में आते हैं उनको पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधनों का कोई प्रबंध नहीं होने से या तो सरकार कर्ज लेती है या फिर वे वायदे हवा – हवाई होकर रह जाते हैं | सरकार में रहते हुए जनता की नाराजगी से बचने के लिए भी सत्ताधीश नई – नई योजनाओं का ऐलान करने में जुटे रहते हैं जबकि उनके लिए आर्थिक प्रबंध नहीं होने से खजाने पर बोझ बढ़ता जाता है | हाल ही में कुछ  विधानसभा चुनावों के दौरान मुफ्त सुविधाओं के जो आश्वासन बांटे गए उनको लेकर केंद्र सरकार के सचिवों ने प्रधानमंत्री को आगाह किया कि बिना समुचित आर्थिक संसाधनों के जिस तरह से मुफ्त सुविधाएँ और उपहार बाँटे जा रहे हैं उनके चलते भारत में भी श्रीलंका जैसी बदहाली पैदा हो सकती है | उस बैठक के बाद से  आर्थिक विशेषज्ञों के बीच इस विषय पर विमर्श  शुरू होने से विभिन्न राज्यों द्वारा संचालित मुफ्त योजनाओं से  खजाने पर पड़ रहे भार का ब्यौरा आने लगा है | अधिकृत जानकारी के अनुसार उ.प्र ,  बिहार और प. बंगाल सहित देश के मात्र छह राज्यों पर ही 26 लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज होने के बाद भी वहां की सरकारें मुफ्त रेवड़ियाँ बांटने मे संकोच नहीं कर रहीं | केंद्र  द्वारा संचालित लोक – लुभावन योजनाओं का आकलन भी करें तो ये सोचकर सिहरन होने लगती है कि भारत भी आर्थिक संकट में फंसने जा रहा है  | जहां तक प्रश्न सस्ते अनाज का है तो उससे किसी को ऐतराज नहीं है |  लेकिन जब कोई चीज मुफ्त दी जाती है तब वह अधिकार का रूप ले लेती है जिसे छीने जाने पर सरकार को अलोकप्रिय होने का भय सताने लगता है और उस कारण वह उसे जारी रखने बाध्य हो जाती है | कोरोना काल में लॉक डाउन के दौरान केंद्र सरकार द्वारा गरीबों को  मुफ्त राशन वितरण की योजना प्रारम्भ की गई थी किन्तु राज्यों के  विधानसभा चुनावों के कारण मुफ्त अनाज बाँटने की समय सीमा बढ़ाने का क्रम जारी है | हाल ही पांच राज्यों के चुनावों में भाजपा को मिली सफलता में इस योजना का काफी योगदान रहा | चूंकि इस वर्ष के अंत में गुजरात विधानसभा के चुनाव हैं इसलिए  उसे और आगे बढ़ा दिया गया  | जिन पांच राज्यों के चुनाव गत माह संपन्न हुए वहां ये प्रचार भी किया जाता था कि चुनाव बाद मुफ्त राशन बंद हो जायेगा | इस तरह की बातों से भी सत्ता में बैठे लोगों पर दबाव बन जाता है | लेकिन न्यायमूर्ति श्री ललित ने जो सलाह दी है उस पर केंद्र और राज्यों को विचार करते हुए इस बात का अध्ययन करना चाहिये कि पहले सत्ता में आने और फिर उसमें बने रहने के लिए बिना समुचित आर्थिक प्रबंध के नई – नई योजनाओं की घोषणाओं पर अमल कैसे होगा ? पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन  सिंह ने किसी बात पर कह दिया था कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते | उसे लेकर उनकी बहुत आलोचना भी हुई किन्तु बतौर अर्थशास्त्री उनका कहना पूरी तरह सही था | हाल ही में परिवहन मंत्री नितिन गड़करी ने पत्रकारों द्वारा टोल टेक्स में छूट की मांग पर दो टूक कहा कि अच्छी सड़कों  पर चलना है तो टेक्स तो देना ही पड़ेगा | टोल की ज्यादा दरों को लेकर भले ही ऐतराज किया जाए  लेकिन  उनके  द्वारा कही गयी बात के औचित्य से इंकार सच्चाई से मुंह फेरने जैसा होगा | समय आ गया है जब  राजनीतिक दलों को  जिम्मेदार सोच पैदा करनी चाहिए | मुफ्त रेवड़ियों  के बजाय ठोस काम किये जाएं तो उनका भी असर होता है | मसलन उ.प्र में कानून व्यवस्था के मोर्चे पर योगी सरकार के कामकाज को मतदाताओं ने सराहा | मोदी सरकार के सबसे लोकप्रिय मंत्रियों में श्री गड़करी यदि हैं तो इसके पीछे देश में बन रहे राष्ट्रीय राजमार्ग हैं जिनके कारण सड़क परिवहन में सुविधा और सुरक्षा दोनों की वृद्धि हुई है | जबसे टोल टेक्स की फास्ट टैग प्रणाली लागू हुई तबसे वाहन चालकों का समय बचने के साथ ही व्यर्थ के विवाद भी सुनाई देना बंद हो गए | ये देखते हुए बुद्धिमत्ता इसी में है कि  राजनीतिक दल व्यवस्थाजनित सुधारों पर ज्यादा ध्यान दें | दिल्ली में आम आदमी पार्टी सत्ता में आई तो मुफ्त बिजली और पानी के नाम पर थी परन्तु उसकी सरकार ने मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी शालाओं के स्तर को सुधारने जैसे जो काम किये उनकी वजह से उसे दोबारा जीत हासिल करने में ज़रा भी परेशानी नहीं हुई | कोरोना काल में लॉक डाउन के दौरान बेरोजगारी अपने चरम पर  थी  जिससे  करोड़ों श्रमिकों के सामने दो वक्त की रोटी की समस्या पैदा हो गई | उन हालातों में मुफ्त राशन समय की मांग थी | लेकिन जब हालात सामान्य हो चले हैं और आर्थिक गतिविधियां रफ्तार पकड चुकी हैं तब मानव संसाधन का अधिकतम उपयोग करने के लिए निठल्ले बैठे लोगों को कुछ न कुछ काम करने हेतु बाध्य किया जाना चाहिए | देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का बड़ा योगदान है | इस क्षेत्र में रोजगार की अपार संभावनाएं होने के बाद भी खेती करने वाले रोना रोते हैं कि मुफ्त राशन योजना के कारण उनको मजदूर नहीं मिलते | न्यायमूर्ति श्री ललित ने भले ही शिक्षा के अधिकार को मुद्दा बनाकर सरकार को आगाह किया किन्तु उनकी बात सभी लोक - लुभावन योजनाओं और कार्यक्रमों पर लागू होती है | बिना पैसे के राजशाही अंदाज में खैरात बांटने वाले राजनेता जनता का भला करने के नाम पर जिस तरह देश को खोखला कर रहे हैं उस पर रोक न लगी तो फिर श्रीलंका जैसे हालात बनने से कोई नहीं रोक सकता | 

-रवीन्द्र वाजपेयी




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