Saturday 31 July 2021

लाल किले के उपद्रवियों को सहायता : एक पूर्व सैनिक से ये अपेक्षा नहीं थी



जब नवजोत सिंग सिद्धू प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का कार्यभार ग्रहण कर रहे थे उसी आयोजन  में पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने अपने भाषण में कहा था कि जब नवजोत पैदा हुए थे तब वे सेना में रहते हुए देश की रक्षा कर रहे थे | कैप्टेन की वह टिप्पणी सिद्धू को अपने सामने बच्चा साबित करना था या कुछ और ये तो वही बेहतर जानते होंगे किन्तु पटियाला जैसी बड़ी रियासत के उत्तराधिकारी होने के बावजूद उनका सेना में शामिल होना निश्चित तौर पर सम्मान का भाव उत्पन्न करता है | लेकिन पंजाब सरकार द्वारा बीती 26 जनवरी को  किसान आन्दोलन के दौरान दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले पर चढ़े उपद्रवियों को  दिल्ली पुलिस द्वारा दायर मुकदमे में  कानूनी सहायता प्रदान करने के ऐलान से मुख्यमंत्री का दोहरा चरित्र सामने आ गया है | लाल किले की प्राचीर पर  चढ़कर तिरंगे का अपमान करने और  तलवारें घुमाने के दृश्य पूरे देश ने देखे | हर देशभक्त को उस हरकत ने क्रोधित कर दिया | यहाँ तक कि सिख समुदाय के भी अनेक लोगों ने उस घटना को सिख धर्म के  आदर्शों के विरुद्ध बताते हुए कड़ी निंदा करने में संकोच नहीं किया | किसान आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों ने भी ये स्वीकार किया कि लालकिले  पर चढ़ना  उनके आन्दोलन का हिस्सा  नहीं था और ऐसा करने वाले उनके लोग नहीं थे | राकेश टिकैत जैसे कुछ नेताओं ने तो भाजपा पर ही ये आरोप लगा दिया कि उक्त घटना का तानाबाना उसी ने बुना था किसान आन्दोलन को बदनाम करने के लिए |  ये तर्क भी दिया गया कि इसीलिये सुरक्षा कर्मियों ने  उपद्रवियों को रोका ही नहीं | प्राचीर पर हंगामा करने के अलावा  भूतल पर भी तोड़फोड़ की गई | वह तो सुरक्षा बल के जवानों ने समझदारी से काम लिया नहीं तो बात खूनखराबे तक पहुँच  सकती थी | निश्चित तौर पर वह  साधारण अपराध न होकर राष्ट्रीय  सम्मान के साथ खिलबाड़ था और ऐसा करने वालों को कड़ा दंड देना किसी भी स्थिति में गलत नहीं होगा | लेकिन किसान आन्दोलन में घुस आये खलिस्तान समर्थकों ने उपद्रवियों को महिमामंडित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी | पंजाब सरकार द्वारा ऐसे लोगों को कानूनी सहायता उपलब्ध कराना राष्ट्रीय सम्मान के प्रतीकों का अपमान करने वालों की पीठ ठोंकने जैसा है | कैप्टेन अमरिंदर पूर्व फ़ौजी हैं  और उस आधार पर उनसे ये अपेक्षा थी  कि वे  देश की आन – बान – शान कहलाने वाले  लाल किले का अपमान करने वालों के विरुद्ध खुलकर खड़े होते | पंजाब देश का सीमावर्ती राज्य है जहां के लोग भारत की एकता और अखंडता के लिए सदैव एकजुट होकर खड़े रहे हैं | भारतीय सेना की तो कल्पना तक बिना पंजाबियों के नहीं की जा सकती | यही वजह रही कि जब खलिस्तान के नाम पर वहां आतंक का दौर आया तब  पंजाब के लोगों  ने देश की अखंडता को ही महत्व दिया जिसके कारण देश विरोधी ताकतें पराभूत हुईं | लम्बे समय बाद किसान आन्दोलन की आड़ लेकर खालिस्तानी फिर सक्रिय हो उठे और पूर्व की तरह उनको विदेशों से भी समर्थन मिलने लगा | उसी से उत्साहित होकर लाल किले वाली जुर्रत की गई | ये बात भी बिना  लाग - लपेट के स्वीकार करनी होगी कि गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्व पर लाल किले में की गई देश विरोधी करतूत से किसान आन्दोलन की गम्भीरता तार – तार हो गई और उसके बाद वह पहले जैसी तेजी  नहीं पकड़ सका | ये देखते हुए कैप्टेन अमरिंदर सिंह की सरकार द्वारा उन उपद्रवियों को कानूनी सहायता देने का फैसला बहुत ही ओछी हरकत है | इस फैसले के दूरगामी परिणाम बहुत ही खतरनाक हो सकते हैं | अमरिंदर केवल राजनेता होते तब भी उनसे ऐसे निर्णय की अपेक्षा नहीं थी लेकिन वे तो एक पूर्व सैन्य अधिकारी भी हैं और इसलिये उनसे ऐसे लोगों को कानूनी सहायता प्रदान करने की उम्मीद नहीं की जा सकती जिन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक चिन्ह का अपमान करने जैसा अक्षम्य अपराध किया हो |  

- रवीन्द्र वाजपेयी



Friday 30 July 2021

जब 100 फीसदी शिक्षित राज्य का ये हाल है तब ......



देश में कोरोना का पहला मरीज केरल में ही मिला था | उसके बाद वहाँ की चिकित्सा व्यवस्था की खूब तारीफ हुई और अन्य राज्यों को भी केरल मॉडल अपनाने की सलाह दी जाने लगी | लेकिन  धीरे – धीरे वहाँ भी कोरोना का संक्रमण अन्य प्रदेशों जैसा फैलने लगा | हालाँकि महाराष्ट्र लगातार सबसे आगे बना रहा परन्तु  दूसरी लहर की विदाई के संकेतों के बीच ही केरल में जिस तरह से कोरोना पैर पसार रहा है वह चिंता का कारण है | बीते कुछ दिनों से देश में 40 हजार से ज्यादा नए कोरोना मरीज मिल रहे हैं जिनमें आधे अकेले केरल के ही हैं | हाल ही में वहां ईद के अवसर पर तीन दिनों तक जो छूट  दी गई थी उस पर सर्वोच्च न्यायालय तक ने रोष व्यक्त किया था किन्तु प्रदेश की वामपंथी  सरकार ने उस पर ध्यान नहीं दिया | हालाँकि ये कहना जल्दबाजी होगी कि केरल में कोरोना  का विस्फोट ईद के कारण ही हुआ लेकिन ये तो सही है कि बीते कुछ दिनों में केरल के हालात पूरे देश के लिए खतरे का संकेत बन गये हैं |  देश के अनेक हिस्सों से जैसी  खबरें आ रही हैं उनसे ये साफ़ होता जा रहा है कि कोरोना का संक्रमण दबे पाँव लौटने लगा है | कहीं इक्का – दुक्का तो कहीं ज्यादा मामले सामने आने से तीसरी लहर को लेकर व्यक्त की जा रही आशंकाएं सही साबित होती लग रही हैं | उ.प्र के कानपुर में गत दिवस आधा सैकड़ा से अधिक नए मरीज मिलने से घबराहट है क्योंकि राज्य में विधानसभा  चुनाव की सरगर्मियां शुरू हो गईं हैं | आज ही अनेक चिकित्सा विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की है कि अगस्त – सितम्बर में कोरोना की तीसरी लहर का आना सुनिश्चित है | दूसरी तरफ  शॉपिंग माल और मल्टीप्लेक्स खोलने की छूट देने के अलावा अनेक राज्यों ने हाई स्कूल स्तर की कक्षाएं खोलने का निर्णय भी ले लिया | सावन के महीने में शिव  मंदिरों में दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ती है | अगस्त में रक्षाबंधन का त्यौहार भी है | इस दौरान बड़ी संख्या में लोगों का आना – जाना और मिलना – जुलना होता है | कोरोना की दूसरी लहर के कमजोर पड़ने की खबर से  देश भर में ये भरोसा व्याप्त हो गया कि कोरोना पूरी तरह से खत्म हो चला है और टीकाकरण अभेद्य सुरक्षा चक्र का काम करेगा | परिणामस्वरूप गाँव से लेकर शहर तक में लोग  लापरवाह नजर आने लगे | हालांकि ऐसा केवल अपने देश में नहीं हो रहा | अमेरिका और ब्रिटेन आदि में भी नए मरीज मिल रहे हैं | तीसरी लहर से दुनिया के विकसित देश भी जूझ रहे हैं | लेकिन उनकी आबादी कम होने के साथ ही  चिकित्सा प्रबंध भी बेहतर हैं | जबकि भारत में तमाम दावों के बावजूद आधी आबादी तक को दूसरा टीका नहीं  लग सका | ऐसे में सामूहिक रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास अभी बहुत दूर है | सरकार और सामाजिक संस्थाओं सहित समाचार  माध्यम भी लगातार लोगों को कोरोना से बचाव हेतु मास्क और शारीरिक दूरी जैसे तरीके अपनाने का आग्रह  करते आ रहे हैं | लेकिन जनसाधारण में इसके प्रति गम्भीरता का अभाव साफ़ देखा जा सकता है | केरल जैसे शत – प्रतिशत  सुशिक्षित राज्य में कोरोना का बढ़ता प्रकोप वाकई चौंकाने वाला है | इस प्रदेश में जनसँख्या ज्यादा और होने से घनी बसाहट भी संक्रमण के फैलाव में सहायक बनती है | ये देखते हुए इस बात का डर है कि उ.प्र और बिहार जैसे राज्यों में यदि कोरोना की वापिसी हुई तब क्या हालात बनेंगे , जिनकी आबादी कई यूरोपीय देशों से ज्यादा है और शिक्षा का प्रसार भी अपेक्षाकृत कम है | इस दृष्टि से आने वाले कुछ दिन कोरोना की तीसरी लहर को लेकर बेहद महत्वपूर्ण होंगे | दूसरी लहर में देश ने मौत का जो मंजर देखा उसके बाद भी यदि उसकी पुनरावृत्ति को रोकने के प्रति लापरवाह रहे तो फिर किसी और को दोष देने का अधिकार हमें नहीं होगा | कहावत भी है कि भगवान भी उसी की मदद करते हैं जो अपनी मदद खुद करते हैं |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 29 July 2021

ममता कुछ भी कहें लेकिन क्या कांग्रेस किसी और का नेतृत्व स्वीकार करेगी



प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की पांच दिवसीय दिल्ली यात्रा चर्चाओं में है | संसद का सत्र चलने से वहां  वैसे भी राजनीतिक सक्रियता है  | सुश्री बैनर्जी निश्चित रूप से इस समय आकर्षण का केंद्र हैं  क्योंकि विपक्ष में आज  वे ही ऐसी नेता हैं जिन्होंने अकेले दम पर  न सिर्फ मोदी – शाह की जोड़ी को परास्त किया वरन कांग्रेस और वामपंथियों को भी चारों खाने चित्त कर दिया | इस कारण  उनका आत्मविश्वास ठीक वैसे ही सातवें  आसमान पर है जैसा 2015 में दिल्ली में ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बाद अरविन्द केजरीवाल में दिखता था | फर्क केवल इतना है कि अरविन्द एक महानगरीय राज्य के मुख्यमंत्री बने थे जबकि ममता एक बड़े राज्य की  मुखिया बनीं   और वह भी तीसरी बार | इसीलिये यदि राजनीतिक दल और समाचार माध्यम उन्हें अतिरिक्त महत्व दे रहे हैं तो वह स्वाभाविक ही है  | दिल्ली में उन्होंने प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के अलावा कांग्रेस की शीर्ष नेत्री सोनिया गांधी से मुलाकात की | ये भी रोचक संयोग है कि दोनों की पार्टियों को ममता ने करारी शिकस्त दी है | श्री मोदी से तो उनकी भेंट महज शिष्टाचार थी लेकिन श्रीमती गांधी से वे विपक्षी गठबंधन के सिलसिले में मिलीं | राजनीति में रूचि रखने वालों को स्मरण होगा कि उन्होंने 2019 में भी मोदी विरोधी मोर्चा बनाने के लिए कोलकाता में विपक्षी दलों का जमावड़ा किया तथा किन्तु सफलता नहीं मिली | हालाँकि  2024 के लोकसभा चुनाव को भले ही भी लगभग तीन साल का समय शेष हो किन्तु बीते एक वर्ष में जैसे हालात बने उनकी वजह से प्रधानमन्त्री पहले जैसी  आक्रामकता नहीं दिखा पा रहे | कोरोना के कारण हुई  लाखों  मौतों के अलावा अर्थव्यवस्था की   चिंताजनक  स्थिति से केंद्र सरकार दबाव में हैं | पेट्रोल – डीजल की कीमतें नियन्त्रण से बाहर होने से सभी  चीजें महंगी होती जा रही है ,  बेरोजगारी भी  चरम पर है | इस सबके बावजूद देश की  सबसे पुरानी  राजनीतिक पार्टी कांग्रेस विपक्ष की भूमिका का समुचित निर्वहन नहीं कर पा रही | यही कारण है कि ममता बैनर्जी श्रीमती गांधी को ये नसीहत दे आईं कि वे क्षेत्रीय दलों पर भरोसा करें | उस समय राहुल गांधी भी उपस्थित थे | उनका ये तंज सम्भवतः   कांग्रेस द्वारा बंगाल में वामपंथियों के साथ किये गठबंधन को लेकर था |  बाद में उन्होंने ये भी कहा कि 375 सीटों पर भाजपा को सीधी चुनौती देना सम्भव है लेकिन इसके लिए विपक्षी दलों को  200 सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ना होंगी |  सुश्री बैनर्जी को शरद पवार और अरविन्द केजरीवाल के अलावा शिवसेना से भी फिलहाल तो समर्थन मिलता दिख रहा है किन्तु  सपा , बसपा , राजद आदि का रुख स्पष्ट नहीं है | दरअसल विपक्ष के जिस गठबंधन को वे  आकार देना चाह रही हैं वह यदि उप्र , उत्तराखंड और पंजाब में नहीं हो सका तब उसका भविष्य अच्छा नहीं कहा जा सकता | आज के हालात में क्या सपा , बसपा और कांग्रेस उ.प्र में   भाजपा को टक्कर देने एकजुट हो सकती हैं ? पंजाब में भी  कांग्रेस , अकाली और आम आदमी पार्टी में एकता संभव नहीं है  | हालाँकि वहाँ भाजपा मुकाबले में है ही नहीं |  राजस्थान , छत्तीसगढ़ और पंजाब में पूर्ण बहुमत वाली सरकार के अलावा कांग्रेस महाराष्ट्र में शिवसेना और राकांपा के साथ गठबंधन सरकार का हिस्सा है लेकिन उसके प्रदेश अध्यक्ष जिस तरह एकला चलो का राग अलाप रहे हैं वह विपक्षी एकता की संभावनाओं को धूमिल करती है | शायद इसीलिये ममता ने श्रीमती गांधी और राहुल को क्षेत्रीय पार्टियों पर भरोसा करने की समझाइश दी | दो दिन पहले श्री गांधी ने संसद में विपक्षी नेताओं की जो बैठक बुलाई थी उसमें भी आम आदमी पार्टी के अलावा अनेक क्षेत्रीय दल शामिल नहीं हुए | दरअसल ममता भी विपक्षी एकता के लिये इतने हाथ पांव न मारतीं अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में भाजपा डेढ़ दर्जन सीटें नहीं जीतती | सबसे बड़ी बात ये है विपक्ष की ओर से प्रधानमन्त्री का चेहरा कौन होगा ? कांग्रेस भी क्षेत्रीय दलों के दबाव को किस हद तक स्वीकार कर सकेगी ये बड़ा सवाल है | एक अड़चन ये भी है कि क्षेत्रीय दल अपने  प्रभाव  क्षेत्र वाले राज्यों में कांग्रेस को ज्यादा बर्दाश्त कर पाने को राजी नहीं होंगे | उ.प्र , बिहार , बंगाल , महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस जिस  दयनीय हालत में है वह  देखते हुए उसको पनपने का अवसर  औरों की तो  छोड़ दें खुद ममता भी नहीं  देंगी | वैसे भी विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधक तो कांग्रेस ही है  क्योंकि गांधी परिवार ये कभी नहीं चाहेगा कि  अगुआई उनके अलावा और कोई करे | बीते हुए सालों में श्रीमती गांधी के बुलावे पर एक दो को छोड़कर बाकी विपक्षी पार्टियाँ एकत्र हो जाया करती थीं | लेकिन राहुल गांधी को विपक्ष के नेता वैसा भाव नहीं देते | दरअसल  ढुलमुल रवैया उनके व्यक्तित्व को हल्का बना देता  है | उस लिहाज से ममता निःसंदेह इस समय विपक्षी एकता की धुरी हैं लेकिन आखिरकार  वे भी महज एक क्षेत्रीय नेता हैं और उनकी पार्टी का बंगाल के बाहर कोई असर नहीं है | अतीत में वे दिल्ली में भी तृणमूल को लड़ाकर देख चुकी हैं और हाल ही में उ.प्र में भी हाथ आजमाने के संकेत उनकी तरफ से आये थे | शरद पवार , उद्धव ठाकरे , अखिलेश यादव, मायावती , तेजस्वी यादव और अरविन्द केज्र्रीवाल भाजपा के विरोध में एक जुट होने का कितना भी प्रयास करें पर बिना कांग्रेस के ऐसा होना संभव नहीं किन्तु अपनी  अंदरूनी दशा के  कारण वह विपक्षी एकता की सूत्रधार बनने की हैसियत खो चुकी है | यदि ऐसा न होता तब जो पहल ममता द्वारा की जा रही है वह सोनिया जी अथवा राहुल करते |   

- रवीन्द्र वाजपेयी


 

 

 

 

Wednesday 28 July 2021

तीसरी लहर के आकलन तक विधानसभा और लोकसभा उपचुनाव भी रोके जाएं



म.प्र में नगरीय निकाय के चुनावों के बारे में  राज्य चुनाव आयोग ने उच्च न्यायालय को आश्वस्त किया है कि कोरोना की तीसरी लहर का आकलन करने के उपरांत ही इस बारे में  फैसला लिया जावेगा | आयोग ने ये भी स्पष्ट किया कि चुनाव की तैयारियां चलने के बावजूद अभी तक  कोई अधिसूचना भी जारी नहीं हुई है | उक्त स्पष्टीकरण एक याचिका के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया | वैसे भी नगरीय चुनाव में आरक्षण और परिसीमन को लेकर पेश की गई याचिकाओं पर उच्च न्यायालयों की तीनों पीठों ने अलग – अलग स्थगन आदेश जारी किये हैं | इस प्रकार नगरीय निकाय चुनावों को लेकर चला आ रहा असमंजस तो खत्म हो गया लेकिन  प्रदेश में तीन विधानसभा और एक लोकसभा सीट के  उपचुनाव जल्द ही होने वाले हैं | उनको लेकर दोनों प्रमुख पार्टियाँ भाजपा और कांग्रेस तैयारी में जुट गई हैं | चुनाव संचालक भी  नियुक्त कर  दिए गये हैं |  सक्षम उम्मीदवारों की तलाश हेतु सर्वेक्षण की खबर भी है | हालांकि अब तक उस बारे में आयोग द्वारा कोई अधिसूचना जारी नहीं की गई किन्तु  राजनीतिक सरगर्मियों से लगता है कि सितम्बर के अंत या अक्टूबर के प्रारंभ में मतदान करवाया जा सकता है क्योंकि  तब तक मानसून की वापिसी भी हो जाएगी | लेकिन जिस कारण से चुनाव आयोग ने नगरीय चुनाव जल्द न करवाने की बात उच्च न्यायालय में कही , क्या वही विधानसभा और लोकसभा के उपचुनावों पर लागू नहीं होता ?  कोरोना को लेकर लगातार ये आगाह किया जा रहा है कि जरा सी लापरवाही तीसरी लहर के आने का कारण बन सकती है | आम जनता से ये अनुरोध किया जा रहा है कि वह मास्क और शारीरिक दूरी के अलावा अन्य सावधानियों का पालन करे किन्तु राजनीतिक दलों के  आयोजनों में नेता और कार्यकताओं द्वारा कोरोना संबंधी नियमों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं | जनसभाओं को सुनने आने वाले श्रोताओं में भी  अधिकतर बिना मास्क वाले होते हैं | ये देखते हुए चुनाव आयोग ने जिस आधार पर नगरीय निकायों के चुनाव करवाने का फैसला कोरोना की तीसरी लहर संबंधी आकलन के बाद  लिए जाने की बात कही ठीक वैसी ही विधानसभा और लोकसभा के प्रस्तावित उपचुनावों के बारे में भी उसे कहना चाहिए क्योंकि कोरोना ये नहीं देखता कि चुनाव कौन सा  है ? वैसे इस बारे में राजनीतिक दलों को भी दायित्वबोध का परिचय देना चाहिये क्योंकि उनका जनता से सीधा जुड़ाव होने से उसकी खैरियत के बारे में भी उनका फिक्रमंद होना अपेक्षित है | जहाँ तक बात चुनाव आयोग की है तो वह संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत अपने कार्य को सम्पादित करने को तैयार रहता है किन्तु परिस्थितियों के मद्देनजर   जनता की जान की रक्षा  सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए  | ये बताने की जरूरत नहीं है कि चुनाव चाहे छोटा हो बड़ा , उसमें कोरोना से बचाव हेतु बनाये गये नियमों का पालन लेशमात्र ही होता है | जो नेतागण आये दिन जनता को कोरोना से सावधान रहने की सलाह देते हैं वे खुद उसका पालन करने के प्रति कितने लापरवाह हैं ये टीवी पर प्रसारित होने वाले चित्रों में देखा जा सकता है | ये देखते हुए मप्र में होने वाले  चुनाव या उपचुनाव तब तक के लिए रोककर रखे जाने चाहिए जब तक कोरोना की तीसरी लहर की आशंका पूर्णतः खत्म न हो जाए | बेहतर हो उच्च न्यायालय विधानसभा और लोकसभा उपचुनाव के बारे में  स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य चुनाव आयोग से वैसा ही स्पष्टीकरण हासिल करे जैसा उसने नगरीय निकाय चुनाव को लेकर दिया है | जनता के स्वास्थ्य को खतरे में डालकर करवाया जाने वाला चुनाव जनविरोधी ही कहा जाएगा | कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जनता की  आँखों से बहे आंसू अभी तक सूखे नहीं हैं |  

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 27 July 2021

निर्णय क्षमता और इच्छाशक्ति की कमी के कारण उलझे हैं राज्यों के विवाद



गत दिवस असम और मिजोरम की सीमा पर नागरिकों और पुलिस के बीच हुए टकराव में असम पुलिस के पांच जवानों के मारे जाने और उसके बाद मिज़ोरम पुलिस द्वारा खुशियाँ मनाये जाने की घटना न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण वरन खतरनाक संकेत है | प्राथमिक तौर पर ये बताया गया है कि विवाद की जड़ दोनों राज्यों के बीच सीमा के निर्धारण का है | पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के बाद से मिज़ोरम द्वारा  असम के कुछ इलाकों पर दावा किया जाता रहा है | ताजा झगड़े के पीछे अतिक्रमण हटाया जाना कारण बताया जाता  है | जिसके बाद दोनों तरफ से  पथराव  शुरू हुआ जिसकी परिणिति हिंसक   मुठभेड़ में होने के बाद  पुलिस आमने - सामने  आ गई | असम पुलिस के पांच जवानों की मौत के अलावा पचास के घायल होने की जानकारी भी मिली है | पता चला है पूर्वोत्तर  राज्यों के सीमा विवाद को सुलझाने के लिए दो दिन पहले ही केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सभी राज्यों के  मुख्यमंत्रियों की बैठक भी ली थी |  ये पहला अवसर नहीं है जब दो राज्यों के बीच सीमा विवाद ने उग्र रूप लिया हो | अनेक राज्यों के बीच कहीं जमीन तो कहीं नदियों के जल बंटवारे को लेकर विवाद चला आ रहा है | केंद्र सरकार दोनों पक्षों को समझा -  बुझाकर अस्थायी तौर पर तो विवाद ठंडा करवा देती है लेकिन स्थायी समाधान  नहीं होने से दबी हुई चिंगारी रह – रहकर भड़कती रहती है | देश के भीतरी हिस्सों वाले राज्यों के बीच के विवाद से हटकर सीमावर्ती राज्यों में इस तरह का तनाव पैदा होना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी  खतरा है | जहां तक पूर्वोत्तर राज्यों का प्रश्न है तो उनमें से अनेक वैसे भी विदेशी घुसपैठ और अलगाववाद की समस्या से जूझ रहे हैं | पूर्वोत्तर के अनेक राज्यों  में ईसाई मिशनरियों के अलावा नक्सलियों द्वारा अलगाववादी संगठनों को सहायता और संरक्षण मिलता रहा है | बांग्लादेश , म्यांमार और चीन के रास्ते भारत में अलगाववादी ताकतों को मदद मिलने की बात सर्वविदित है | इसी वजह से नागालैंड और  मिजोरम में आज भी भारत विरोधी भावनाएं भड़काने का षडयंत्र रचा जाता है | गत दिवस मिज़ोरम पुलिस ने   जिस तरह से गोलियां चलाईं वह तात्कालिक तौर पर निर्मित परिस्थितियों का नतीजा था या पूर्व नियोजित योजना का हिस्सा ,  ये तो जांच से पता चलेगा किन्तु असम पुलिस के जवानों को गोलियों से भूनने के बाद जश्न मनाने का जो दृष्य मिजोरम सीमा में दिखाई दिया वह किसी बड़े संकट की तरफ इशारा कर रहा है | इस सम्बन्ध में ये बात उल्लेखनीय है कि मिज़ोरम की धरती में आज भी अलगावावाद के बीज अंकुरित होते रहते हैं | वहां का सामाजिक ढांचा भी भारत विरोधी भावनाओं को खाद – पानी देने में सहायक है | भले ही उसके भारत से अलग होने की सम्भावना न के बराबर है लेकिन इस सीमावर्ती राज्य में मुख्यधारा की राजनीति पर क्षेत्रीय दल हावी हैं | पिछले चुनाव में दस साल बाद कांग्रेस को हराकर मिजो नेशनल फ्रंट ने सत्ता हथिया ली थी | हालाँकि अब पहले जैसी स्थिति नहीं है और सुरक्षा बलों की तैनाती की वजह से अलगाववादी तबके भी कमजोर हुए हैं , किन्तु किसी भी तरह की खुशफहमी से बचना जरूरी है | कल हुई घटना को मामूली मानकर नजरंदाज करना बड़े संकट का आधार बन सकता है | दो राज्यों के नागरिकों के बीच होने वाले झगड़े में  दोनों तरफ की पुलिस को मिलकर स्थिति संभालना थी किन्तु मिजोरम की पुलिस ने जिस तरह का आक्रामक रवैया अपनाया वह सतर्क करने  वाला है | इस बारे में राजनीतिक आरोप – प्रत्यारोप से अलग हटकर देखें तो ये हमारे देश के शीर्ष नेतृत्व में निर्णय क्षमता की कमी का परिणाम है | असम और मिज़ोरम के बीच जमीन का झगड़ा दो देशों के बीच का होता तब तो बात समझ में भी आती किन्तु एक ही देश के दो राज्यों की पुलिस के बीच गोलियां चलना देश की एकता और संघीय ढांचे के लिए खतरे का संकेत है | केन्द्र सरकार को चाहिए वह सर्वप्रथम तो इस बात के पुख्ता इंतजाम करे कि इस तरह की घटना की पुनरावृत्ति न हो और उसके बाद उस विवाद के स्थायी हल की दिशा में ठोस प्रयास करे जिसकी वजह से कल की दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी | ऐसे विवादों में दोनों पक्षों को संतुष्ट  करना  आसान नहीं होता   लेकिन कभी  न कभी तो फैसला करना ही होगा | जिस तरह केंद्र की मौजूदा सरकार ने जम्मू - कश्मीर संबंधी साहसिक फैसला लिया और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राम जन्मभूमि विवाद पर फैसला सुनाया उससे ये विश्वास प्रबल हुआ कि केन्द्रीय सत्ता चाह ले तो बड़ी से बड़ी समस्या भी हल की जा सकती है | पूर्वोत्तर के अलावा देश के जिन राज्यों के बीच किसी मुद्दे पर विवाद है तो उसका निदान निकालने के लिए समयबद्ध निर्णय प्रक्रिया को अपनाना राष्ट्रीय जरूरत है | ऐसे मामलों को वोटों के नफे  - नुकसान से ऊपर उठकर देखा जाना चाहिये क्योंकि जहां राष्ट्रीय हित कसौटी पर हो वहां दलीय हित महत्वहीन हो जाते हैं |

- रवीन्द्र वाजपेयी
 

Monday 26 July 2021

वोटों की खरीदी : इतने बड़े अपराध की इतनी मामूली सजा



हमारे देश में चुनाव आचार संहिता मजाक बनकर रह गई है | हालांकि स्व. टी. एन . शेषन ने चुनाव आयोग को उसकी ताकत का एहसास करवाते हुए चुनाव सुधारों को लागू करने में ऐतिहासिक योगदान दिया और  सतही तौर पर उसका असर दिखाई भी  देता है किन्तु वास्तविकता के धरातल पर देखें तो चुनावों में धन के बेतहाशा उपयोग पर रोक लगाने में रत्ती  भर भी  सफलता नहीं मिली , उलटे चुनाव दर चुनाव खर्च बढ़ता  ही जा रहा है | महंगाई को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग खर्च की जो सीमा तय करता है  वह पर्याप्त दिखने के बाद  भी कम पड़ती है क्योंकि चुनाव प्रबंधन अब पूरी तरह व्यावसायिक होकर रह गया है | कैडर आधारित पार्टियों के कार्यकर्ता भी निःस्वार्थ भाव से काम नहीं करते | इसी तरह मतदाताओं को पैसा और शराब के अलावा सामान बाँटने जैसा काम भी खुले आम नहीं होता हो लेकिन उसे  रोकने में चुनाव आयोग और प्रशासन लाख कोशिशों के बाद भी पूरी तरह सफल नहीं हो सका है | कहने को हर चुनाव में बड़ी मात्रा में नगदी और शराब की पेटियां जप्त होती हैं और छोटे – बड़े तमाम नेताओं – कार्यकर्ताओं पर उसके लिए मुकदमे भी दर्ज किये किये जाते हैं किन्तु चुनाव बाद उनका क्या हश्र होता है ये पता ही नहीं चलता | आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध होने वाली कार्रवाई भी चुनाव निपटते ही ठंडे बस्ते में चली जाती है | इसी का परिणाम है कि चुनाव आयोग कागजी शेर बनकर रह गया है | इसीलिए गत दिवस जब  तेलंगाना राष्ट्र समिति की लोकसभा सदस्य मलोत कविता को चुनाव में मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करने के  लिए 500 रु. बांटे जाने के आरोप में छह माह की सजा और 10 हजार रु. के जुर्माने की सजा अदालत द्वारा सुनाये जाने की खबर मिली  तो आश्चर्य से ज्यादा हंसी आई  | उनके जिस  साथी शौकत को चुनाव के दौरान उड़न दस्ते ने  मतदाताओं को 500 - 500 रु.  नगद बांटते हुए पकड़ा था , उसने अदालत में  अपना जुर्म स्वीकार भी कर लिया | चूंकि सजा की अवधि दो साल से कम है इसलिए सुश्री कविता की लोकसभा सदस्यता रद्द नहीं हुई और  तत्काल जमानत के साथ ही  उच्च न्यायालय में अपील की अनुमति भी दे दी गई | लेकिन  एक बात तो सामने आ ही गई कि चुनाव में मतदाताओं को आकर्षित  करने के लिए नगदी बांटने का  तरीका अभी भी उपयोग किया जाता है |  इससे  साबित होता है कि उम्मीदवार और उनको  पेश करने वाले राजनीतिक दलों में जनता का विश्वास जीतने का आत्मविश्वास नहीं रहता | इसीलिये उनको इस तरह के घटिया हथकंडे अपनाना पड़ते हैं | लेकिन संदर्भित मामले में सबसे अधिक विचारणीय बात ये है कि जिस महिला सांसद को 500 – 500 रु. बांटने के आरोप में छह माह  की सजा हुई है यदि वह अपील  न करे और जेल चली जाए तब भी  उसके सदस्यता बरक़रार रहेगी क्योंकि वर्तमान कानूनी व्यवस्था में दो वर्ष या अधिक की सजा पर ही सदस्यता समाप्त होने का प्रावधान है | वैसे भी लोकसभा चुनाव हुए दो साल बीत चुके हैं और यदि सुश्री कविता को  उच्च न्यायालय से राहत न मिली तब वे सर्वोच्च न्यायालय में अपील किये बिना नहीं रहेंगी और तब तक क्या पता उनका कार्यकाल ही पूरा हो जावे | और फिर ये सवाल भी ध्यान देने योग्य है कि इतने बड़े अपराध के लिए इतनी मामूली सजा क्या कम नहीं है ? जिन लोगों को जनता कानून बनाने वाली संस्था का सदस्य चुनती है उनके द्वारा इस तरह की ओछी हरकत किया जाना लोकतान्त्रिक व्यवस्था के नाम पर धब्बा है | भले ही सांसद महोदया कितनी भी सफाई दें  लेकिन जब नगदी बांटने वाले उनके साथी ने ही  अपराध मान लिया तब फिर कहने को और कुछ रह भी कहाँ जाता है ? बहरहाल ये तो महज बानगी है | अगर चुनाव आयोग और प्रशासन चुनाव के दौरान पूरी मुस्तैदी से काम करे तो इस तरह के सैकड़ों प्रकरण उजागर किये जा सकते हैं | आजादी के 75 वें वर्ष की ओर कदम बढ़ा रहे देश का संसदीय लोकतंत्र आज तक पूरी तरह प्रामाणिक और पारदर्शी नहीं बन सका ये दुःख के साथ ही चिंता का भी विषय है | ज़रा – जरा सी बात पर संसद की कार्रवाई बाधित करने वाले सम्मानीय सांसद  अपने बीच बैठने वाले भ्रष्ट सदस्यों के आचरण के  बारे में आवाज नहीं उठाते ये देखकर आश्चर्य होता है | सुश्री कविता को भले ही उच्च न्यायालय में अपील करने के अधिकार के तहत जमानत मिल गई हो परन्तु  वे किस मुंह से संसद में बैठेंगी ये सोचने वाली बात है | लेकिन जिस संसद भवन  के भीतर घूसखोरी हुई और रुपया थामने वाले महज इस कारण बच गये कि उस परिसर में  हुए अपराध अदालत की पहुंच से बाहर होते हैं तब शर्म और नैतिकता की  गुंजाईश ही कहाँ रह जाती है ? 

-रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 24 July 2021

मायावी दांव : कांशीराम को छोड़ राम और परशुराम की शरण में



तिलक , तराजू और तलवार , इनको मारो जूते चार के बाद कुछ बरस पहले हाथी नहीं गणेश हैं , ब्रह्मा , विष्णु , महेश हैं का नारा लगाने वाली  बहुजन समाज पार्टी  अब ब्राह्मण मतदाताओं पर ध्यान केन्द्रित कर रही  है | उ.प्र विधानसभा  चुनाव की तैयारियों के अंतर्गत पार्टी  महासचिव सतीश चन्द्र मिश्रा ने अयोध्या में रामलला के दर्शन उपरांत ब्राह्मणों को रिझाने वाले  बयान दिए और  ब्राह्मणों का एनकाउंटर करने वालों का राजनीतिक एनकाउंटर करने जैसी बात भी कही | अयोध्या में प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन के पोस्टर पर  मायावती के अलावा भगवान राम और परशुराम के चित्र बसपा की ताजा रणनीति का प्रमाण है | हालाँकि ये  प्रयोग उसने 2007 में भी किया था और उसी के बलबूते मायावती को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता हासिल हुई थी |  लेकिन सरकार बनाते ही उनका सवर्ण विरोधी रुख जाहिर होने लगा और उसी वजह से 2012 में समाजवादी पार्टी धमाकेदार अंदाज में लौट आई | तबसे बसपा लगातार पिछड़ती गई | 2014 के  लोकसभा चुनाव में उसके प्रतिबद्ध दलित मतदाता भी मोदी लहर में भाजपा के साथ चले गये और  उसका सफाया  हो गया | 2017 के विधानसभा चुनाव में भी बसपा को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा | उस हार से मायावती इतना घबरा गईं कि 2019 के  लोकसभा चुनाव में उन्होंने सपा से गठबंधन कर लिया जिसके साथ उनकी  सांप - नेवले जैसी दुश्मनी थी | यहाँ तक कि वे मुलायम सिंह यादव के लिए भी प्रचार करने जा पहुंची किन्तु बुआ और बबुआ ( अखिलेश ) नामक वह गठजोड़ भी कारगर न हो सका और बसपा एक बार फिर अलग - थलग पड़ गई | हाल के पंचायत चुनाव में भी उसकी स्थिति अच्छी नहीं रही | वैसे भी  पंजाब में उसने अकाली दल के साथ गठबंधन कर कांग्रेस को अपने से दूर कर लिया वहीं सपा से दोस्ती का अनुभव भी कड़वा ही रहा | हालांकि एक जमाने में भाजपा के सहारे मायावती  सत्ता में आ चुकी थीं लेकिन अब उसके साथ भी उनका छत्तीस का आँकड़ा है | उनको  ये समझ में आ चुका है कि केवल दलित और उसमें भी जाटव  समुदाय के भरोसे चुनावी वैतरणी पार नहीं की जा सकती | ऐसे में उन्होंने सवर्ण जातियों में सेंध लगाने की रणनीति बनाई जिसके शिल्पकार बसपा महासचिव सतीश चन्द्र मिश्र हैं | बसपा ये बात अच्छी तरह जानती है कि यादव तथा मुसलमान सपा के प्रति झुकाव रखते हैं जबकि वैश्य और ब्राह्मण सहित बाकी पिछड़ी जातियों में भाजपा की  अच्छी पकड़ बनी हुई है | योगी आदित्य नाथ और राजनाथ सिंह की वजह से क्षत्रिय समाज भी भाजपा की तरफ झुका नजर आ रहा है | ऐसे  में उसको लगा कि वह ब्राह्मण मतदाताओं के मन में योगी सरकार की  ब्राह्मण विरोधी छवि स्थापित कर उनको  अपने पाले में खींचकर 2007 वाली सफलता को दोहरा लेगी | दरअसल कानपुर के कुख्यात गैंग्स्टर विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद कुछ और ब्राह्मण अपराधी योगी राज में मार गिराए गये जिससे मुख्यमंत्री को ब्राह्मण विरोधी प्रचारित करने की मुहिम शुरू हुई | इसका कितना असर हुआ ये तो अभी तक एहसास नहीं किया जा सका किन्तु बसपा को लगता है कि ब्राह्मण मतदाता ही  डूबते को तिनके का सहारा साबित हो सकते हैं | सतीश चन्द्र मिश्रा के रूप में उनके पास एक जाना - पहिचाना ब्राह्मण चेहरा पहले से है ही | वैसे कांग्रेस भी इस दिशा में  प्रयासरत है लेकिन उसकी जमीनी हालत बसपा से भी कमजोर है | कांशीराम को छोड़ राम और परशुराम को  पूजने का यह मायावी दांव कितना सफल होगा ये तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे  किन्तु वास्तविकता के धरातल पर देखें तो मायावती विश्वसनीयता खो चुकी हैं | गेस्ट हाउस काण्ड में उनके साथ  बदसलूकी  के लिए जिन मुलायम सिंह यादव को उन्होंने दलित अस्मिता का सबसे बड़ा दुश्मन बताया था उन्हीं का प्रचार करने जाने के बाद मायावती के प्रति प्रतिबद्ध मतदाताओं का भरोसा भी घटा है | पश्चिमी उ.प्र  में भीम आर्मी नामक  दलित संगठन तेजी से पैर पसार रहा है जिसके नेता चन्द्रशेखर आजाद रावण ऐलानिया तौर पर मायावती के घोर  विरोधी हैं  और सपा तथा रालोद से गठबंधन करने की बात भी कह चुके हैं  | दलित मतों में भाजपा भी सेंध लगा रही है | दरअसल ये धारणा तेजी से फ़ैल रही  है कि बसपा जाटवों को ही  महत्व देती है | और फिर  मायावती में भी अब वह दमखम नहीं रहा जो दस साल पहले तक था | इसीलिये वे ब्राह्मणों को लुभाने का तानाबाना बुन रही हैं | लेकिन उनको ये भी सोचना चाहिए कि 2007 में साथ आने के बाद  अगड़ी जातियां उनसे नाराज क्यों हो उठीं और तो और  दलित समुदाय भी अब पूरी तरह उनके साथ क्यों नहीं है ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 23 July 2021

आधे वेतन पर छुट्टी की बजाय नेताओं और नौकरशाहों की फिजूलखर्ची रोकें



म.प्र सरकार अपना खर्च घटाने के लिए कर्मचारियों को पांच साल तक आधे वेतन पर अवकाश देने की योजना पर विचार कर रही है | इस अवधि में  वे अपना कोई निजी कारोबार या दूसरी नौकरी  कर सकेंगे | इस दौरान  वार्षिक वेतन वृद्धि को छोड़ कर  वरिष्ठता , पेंशन तथा मृत्यु हो जाने पर आश्रित को अनुकम्पा नियुक्ति की सुविधा यथावत रहेगी | हालाँकि शिक्षक , पुलिस और चिकित्सा सुविधाओं से जुड़े कर्मचारी इस योजना में शामिल नहीं होंगे | सरकार का सोचना है कि इस योजना के जरिये वह  स्थापना व्यय का  बोझ कम कर सकेगी | आपातकालीन व्यवस्था के अंतर्गत ये विचार सैद्धांतिक तौर पर   गलत नहीं है किन्त्तु  इसकी व्यवहारिकता का भी परीक्षण किया जाना जरूरी है | हालाँकि कम्प्यूटर के आने से दफ्तरों में कागजी  काम घटा है लेकिन ये भी सही है  कि अधिकांश कार्यालयों में स्थायी कर्मचारियों की जगह दैनिक वेतन भोगी अथवा संविदा नियुक्ति वाले  कार्यरत हैं | तृतीय - चतुर्थ श्रेणी के अनेक कामों के लिए निजी क्षेत्र ( आउट सोर्सिंग ) की  सेवाएं भी ली जाने  लगी हैं | ऐसे में इस तरह  की सुविधा मिलने से  ऐसा न हो कि सरकारी दफ्तरों में काम करने वालों का टोटा पड़ने से  कामकाज की सुस्त चाल और धीमी हो जाये | वैसे भी कार्यक्षमता के लिहाज से मप्र के सरकारी दफ्तरों की स्थिति अच्छी नहीं कही जा  सकती  | ये देखते हुए पांच साल की छुट्टी लेने वालों  के आवेदन  इतने न बढ़ जाएँ कि सरकार के लिए फैसला करना कठिन हो जाए | स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति के मामलों में यही स्थिति है | भुगतान  के लिए धनराशि न होने से सेवा निवृत्ति की आयु सीमा शिवराज सरकार ने पिछले कार्यकाल में बढ़ा दी थी | इससे भी बड़ी बात नये रोजगार की है | ये बात बिलकुल सही है कि न्यायाधीशों से लेकर तो भृत्य तक के पद स्वीकृत होने के बावजूद खाली पड़े हैं | लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के नतीजे सालों लम्बित पड़े रहते हैं | ऐसे में खर्च कम करने के  लिए उठाये जाने वाले उक्त  कदम के बजाय सरकार द्वारा मंत्रियों  , वरिष्ठ अधिकारियों  , विधायकों के अलावा  निगम , मंडल और प्राधिकरणों में पदस्थ राजनीतिक हस्तियों को मितव्ययता  अपनाने के लिए प्रेरित और जरूरत पड़ने पर बाध्य किया जाना चाहिए | जबसे देश में उदारीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था  का पदार्पण हुआ  तभी से सरकार  के उच्च स्तर पर भी कारर्पोरेट सोच हावी होने लगी जिसके कारण नेता और नौकरशाहों के खर्चे अनाप - शनाप बढ़ गये |  शासकीय  विश्राम गृहों की बजाय ठहरने के लिए महंगे होटलों का चलन भी हो गया | सरकार ने अपने वाहन भले कम कर दिए लेकिन टैक्सियों पर भारी - भरकम खर्च किया जाने लगा | बंगलों के रखरखाव और सुविधाओं पर भी पानी की तरह पैसा लुटाया जाता है | सरकारी विमान और हेलीकाप्टरों पर भी सरकार का पैसा पानी की तरह  बहता  है | राजनीतिक कायों के लिए भी सरकारी उड़नखटोले बेरहमी से उड़ाये जाते हैं | निजी कार्यवश की जाने वाली यात्रा को भी किसी न किसी बहाने से सरकारी रूप देकर अपना खर्च बचाने की प्रवृत्ति भी आम है | इस आधार पर शासकीय कर्मचारियों को पांच साल तक आधे वेतन पर अवकाश की सुविधा देने के बजाय  सरकार अपनी फिजूलखर्ची को रोक सके तो  खजाना खाली होने से तो बचेगा ही , कर्मचारियों की कमी के कारण लम्बित काम के अम्बार भी नहीं लगेंगे | वैसे म.प्र सरकार की आर्थिक स्थिति वाकई खराब है | वह लगातार कर्ज पर कर्ज लेती  जा रही है | कोरोना काल में राजस्व वसूली भी घटी है जबकि म.प्र वह राज्य है जहां पेट्रोल - डीज़ल पर सबसे ज्यादा  करारोपण  है | कर्मचारियों को आधे  वेतन पर पांच वर्षीय अवकाश की योजना से भले ही तात्कालिक रूप से सरकार का खर्च कम हो जाए लेकिन ऐसा करने से सरकारी दफ्तरों की  कार्यक्षमता में भी कमी आयेगी | इसलिए ज्यादा अच्छा यही होगा कि म.प्र सरकार मंत्री स्तर से निचली पायदान के कर्मचारी तक में कार्यसंस्कृति का विकास करते हुए अनुत्पादक खर्चों पर नियन्त्रण करे तो आर्थिक संकट दूर होने के साथ ही सरकार की छवि भी सुधरेगी |
आधे वेतन पर छुट्टी  की बजाय नेताओं और नौकरशाहों की फिजूलखर्ची रोकें   

म.प्र सरकार अपना खर्च घटाने के लिए कर्मचारियों को पांच साल तक आधे वेतन पर अवकाश देने की योजना पर विचार कर रही है | इस अवधि में  वे अपना कोई निजी कारोबार या दूसरी नौकरी  कर सकेंगे | इस दौरान  वार्षिक वेतन वृद्धि को छोड़ कर  वरिष्ठता , पेंशन तथा मृत्यु हो जाने पर आश्रित को अनुकम्पा नियुक्ति की सुविधा यथावत रहेगी | हालाँकि शिक्षक , पुलिस और चिकित्सा सुविधाओं से जुड़े कर्मचारी इस योजना में शामिल नहीं होंगे | सरकार का सोचना है कि इस योजना के जरिये वह  स्थापना व्यय का  बोझ कम कर सकेगी | आपातकालीन व्यवस्था के अंतर्गत ये विचार सैद्धांतिक तौर पर   गलत नहीं है किन्त्तु  इसकी व्यवहारिकता का भी परीक्षण किया जाना जरूरी है | हालाँकि कम्प्यूटर के आने से दफ्तरों में कागजी  काम घटा है लेकिन ये भी सही है  कि अधिकांश कार्यालयों में स्थायी कर्मचारियों की जगह दैनिक वेतन भोगी अथवा संविदा नियुक्ति वाले  कार्यरत हैं | तृतीय - चतुर्थ श्रेणी के अनेक कामों के लिए निजी क्षेत्र ( आउट सोर्सिंग ) की  सेवाएं भी ली जाने  लगी हैं | ऐसे में इस तरह  की सुविधा मिलने से  ऐसा न हो कि सरकारी दफ्तरों में काम करने वालों का टोटा पड़ने से  कामकाज की सुस्त चाल और धीमी हो जाये | वैसे भी कार्यक्षमता के लिहाज से मप्र के सरकारी दफ्तरों की स्थिति अच्छी नहीं कही जा  सकती  | ये देखते हुए पांच साल की छुट्टी लेने वालों  के आवेदन  इतने न बढ़ जाएँ कि सरकार के लिए फैसला करना कठिन हो जाए | स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति के मामलों में यही स्थिति है | भुगतान  के लिए धनराशि न होने से सेवा निवृत्ति की आयु सीमा शिवराज सरकार ने पिछले कार्यकाल में बढ़ा दी थी | इससे भी बड़ी बात नये रोजगार की है | ये बात बिलकुल सही है कि न्यायाधीशों से लेकर तो भृत्य तक के पद स्वीकृत होने के बावजूद खाली पड़े हैं | लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के नतीजे सालों लम्बित पड़े रहते हैं | ऐसे में खर्च कम करने के  लिए उठाये जाने वाले उक्त  कदम के बजाय सरकार द्वारा मंत्रियों  , वरिष्ठ अधिकारियों  , विधायकों के अलावा  निगम , मंडल और प्राधिकरणों में पदस्थ राजनीतिक हस्तियों को मितव्ययता  अपनाने के लिए प्रेरित और जरूरत पड़ने पर बाध्य किया जाना चाहिए | जबसे देश में उदारीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था  का पदार्पण हुआ  तभी से सरकार  के उच्च स्तर पर भी कारर्पोरेट सोच हावी होने लगी जिसके कारण नेता और नौकरशाहों के खर्चे अनाप - शनाप बढ़ गये |  शासकीय  विश्राम गृहों की बजाय ठहरने के लिए महंगे होटलों का चलन भी हो गया | सरकार ने अपने वाहन भले कम कर दिए लेकिन टैक्सियों पर भारी - भरकम खर्च किया जाने लगा | बंगलों के रखरखाव और सुविधाओं पर भी पानी की तरह पैसा लुटाया जाता है | सरकारी विमान और हेलीकाप्टरों पर भी सरकार का पैसा पानी की तरह  बहता  है | राजनीतिक कायों के लिए भी सरकारी उड़नखटोले बेरहमी से उड़ाये जाते हैं | निजी कार्यवश की जाने वाली यात्रा को भी किसी न किसी बहाने से सरकारी रूप देकर अपना खर्च बचाने की प्रवृत्ति भी आम है | इस आधार पर शासकीय कर्मचारियों को पांच साल तक आधे वेतन पर अवकाश की सुविधा देने के बजाय  सरकार अपनी फिजूलखर्ची को रोक सके तो  खजाना खाली होने से तो बचेगा ही , कर्मचारियों की कमी के कारण लम्बित काम के अम्बार भी नहीं लगेंगे | वैसे म.प्र सरकार की आर्थिक स्थिति वाकई खराब है | वह लगातार कर्ज पर कर्ज लेती  जा रही है | कोरोना काल में राजस्व वसूली भी घटी है जबकि म.प्र वह राज्य है जहां पेट्रोल - डीज़ल पर सबसे ज्यादा  करारोपण  है | कर्मचारियों को आधे  वेतन पर पांच वर्षीय अवकाश की योजना से भले ही तात्कालिक रूप से सरकार का खर्च कम हो जाए लेकिन ऐसा करने से सरकारी दफ्तरों की  कार्यक्षमता में भी कमी आयेगी | इसलिए ज्यादा अच्छा यही होगा कि म.प्र सरकार मंत्री स्तर से निचली पायदान के कर्मचारी तक में कार्यसंस्कृति का विकास करते हुए अनुत्पादक खर्चों पर नियन्त्रण करे तो आर्थिक संकट दूर होने के साथ ही सरकार की छवि भी सुधरेगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 22 July 2021

ऑक्सीजन : झूठ , सफेद झूठ और सरकारी झूठ



संसद को दी गई  इस जानकारी पर तो सरकार में बैठे लोगों को भी विश्वास नहीं हुआ होगा कि कोरोना की दूसरी लहर में पूरे देश में ऑक्सीजन की कमी से एक भी  मौत नहीं हुई | जब इसे लेकर विपक्ष और समाचार माध्यमों में बवाल हुआ तो सफाई दी गई कि केंद्र सरकार ने जो कुछ  कहा वह राज्य सरकारों द्वारा भेजी गई रिपोर्ट  पर आधारित था | चूँकि स्वास्थ्य राज्यों के अधिकार क्षेत्र का विषय है इसलिए केंद्र के लिए उनसे प्रदत्त जानकारी को स्वीकार करना बाध्यता है | लेकिन इस मामले में केंद्र को संवैधानिक प्रावधानों का पालन करने के अलावा अपने विवेक का भी उपयोग करना चाहिए था | कोरोना से हुई अनेक  मौतों का कारण ऑक्सीजन की कमी भी थी वरना देश भर  में उसके लिए इतना हाहाकार न मचा होता | गैर भाजपा राज्यों ने केंद्र पर ऑक्सीजन आपूर्ति में पक्षपात  का आरोप भी लगाया | सवाल ये उठता है कि जब कोई कोरोना मरीज ऑक्सीजन की कमी से नहीं मरा तब देश में ऑक्सीजन उत्पादन बढ़ाने के लिए इतनी आपाधापी क्यों की गई ? बीते कुछ समय से सभी राज्य  सरकारें सीना फुलाकर दावा करती फिर रही हैं कि कोरोना की संभावित तीसरी लहर से निपटने के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन सुविधा युक्त  बिस्तरों का इंतजाम कर लिया गया है | इसके अलावा अस्पतालों में ऑक्सीजन संयंत्र भी लगा दिए गए हैं | इन दावों के परिप्रेक्ष्य में संसद में दी गई जानकारी की असत्यता अपने आप सामने आ जाती है | केंद्र  सरकार द्वारा झूठी जानकारी देने का ठीकरा राज्य सरकारों पर फोड़ना भले ही गलत न हो किन्तु  क्या उसके अधिकारी बिलकुल ही  नासमझ हैं जिन्होंने राज्यों से मिली जानकारी के बारे में उनसे पूछताछ की कोई कोशिश तक नहीं की | बीते अप्रैल और मई महीने में देश भर से जो खबरें आ रही थीं उनसे केंद्र  सरकार अनजान रही हो ये मान लेना सच्चाई से मुंह छुपाना  होगा | इस बारे में सबसे प्रमुख बात ये है कि कोरोना का पूरा प्रबन्धन केंद्र की देखरेख में होता रहा | संसद में पूछे जाने वाले  प्रश्नों में  जो राज्य सरकारों से सम्बन्धित होते हैं उनका जवाब उनसे प्राप्त करने के बाद पेश किया जाता है | लेकिन कोरोना से हुई मौतों को लेकर यदि  भ्रामक जानकारी राज्यों द्वारा केंद्र को अग्रेषित की गई उसका परीक्षण कर  संतुष्ट नहीं होने पर सम्बन्धित राज्य से सवाल किया जाना चाहिए था | लेकिन लगता है मंत्रीमंडल में हुए फेरबदल के कारण नए मंत्री महोदय को वह जानकारी ठीक से देखने  का समय नहीं मिला जो उन्होंने संसद के माध्यम से देश को दी | विपक्ष द्वारा  तो  सरकार से असहमत होकर विरोध करना पूरी तरह अपेक्षित और स्वाभाविक ही है लेकिन तनिक  सी भी जानकारी रखने वाला आम नागरिक ऑक्सीजन की कमी से एक भी  मृत्य नहीं होने के दावे को झूठ का पुलिंदा ही निरूपित करेगा | केंद्र सरकार ने संघीय ढांचे के अंतर्गत चली  आ रही व्यवस्था के अंतर्गत राज्य सरकार की ओर से मिले  जवाब पर आँख मूंदकर भले ही  भरोसा कर लिया हो किन्तु सूचना क्रान्ति के इस दौर में इस तरह की जानकारी अनेक स्रोतों से सामने आती है | सरकार चाहे केंद्र की हो अथवा राज्य की , वह जनता की नाराजगी से बचने काफी कुछ छुपा जाती है |   कोरोना से मरने वालों की  सही जानकारी भी  इसीलिये छिपाई जाती रही और बाद में अनेक राज्यों द्वारा मौत के आंकड़े को संशोधित करते हुए बढ़ा दिया गया | कोरोना संबंधी जानकारियों में और भी विसंगतियां हैं | हो सकता है संक्रमण के दौर में सरकारों ने जनता को भयभीत होने से बचाने के  आंकड़े छिपाए हों लेकिन ऑक्सीजन की कमी से एक भी कोरोना पीड़ित की मौत न होने का दावा झूठ की पराकाष्ठा है | जो राजनीतिक दल इस पर संसद नहीं चलने दे रहे उनको अपनी पार्टी द्वारा शासित राज्य सरकार से केंद्र को भेजी गई जानकारी के बारे  में भी पूछ्ताछ करनी चाहिए और यदि वह गलत लगती है तो सच्चाई सामने लाने का दबाव बनाना चाहिए | अर्थशास्त्र में एक उक्ति बड़ी ही प्रचलित है झूठ , सफ़ेद झूठ और आंकड़ा| लेकिन संदर्भित मामले में इसे इस तरह  कहना सही होगा कि झूठ , सफ़ेद झूठ और सरकारी झूठ | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 21 July 2021

मुनव्वर : माँ से चले मज़हब पर रुके



हमेशा काले कपड़े पहिनने वाले शायर मुनव्वर राणा ने माँ पर लिखे अपने सैकड़ों शेर सुनाकर मुशायरों में खूब तालियाँ बटोरी |  देश के बाहर भी वे काफी लोकप्रिय रहे हैं | लेकिन बीते कुछ सालों से खास तौर पर नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद से वे कुछ खिन्न से हैं | 2015 में एक टीवी चैनल पर चल रही चर्चा के दौरान उन्होंने बड़े ही नाटकीय ढंग से  साहित्य अकादमी अवार्ड लौटाने की घोषणा कर डाली | तबसे लगातार  वे ऐसे बयान  देते रहते  हैं जिनसे विवाद पैदा हों | कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में वे बोल गये कि 2022 तक भारत हिन्दू राष्ट्र घोषित हो जाएगा | संसद भवन को गिराकर खेत बना देने की  मांग भी वे कर चुके हैं | उनके बेटे पर हाल ही में कायम हुए आपराधिक प्रकरण के बाद राणा परिवार के निवास पर छापे मारे जाने से भी मुनव्वर भन्नाए हुए हैं | इसी के चलते उन्होंने ये बयान तक दे डाला कि यदि योगी आदित्यनाथ दोबारा मुख्यमंत्री बने तो वे उप्र छोड़ देंगे क्योंकि तब ये सूबा मुसलमानों के रहने योग्य नहीं रह जाएगा | दो दिन पूर्व ही उन्होंने जनसँख्या नियंत्रण क़ानून को लेकर ये कटाक्ष किया कि दो से ज्यादा  बच्चे इसलिए पैदा किये जाते   हैं क्योंकि दो एनकाउन्टर में मार दिए जाते हैं , एकाध को कोरोना हो जाता है , एकाध एक्सीडेंट में मर जाता है | ये वैसे ही है जैसे लोग मुर्गी के 8 - 10 बच्चे खरीदते हैं | एक - दो बच जाएं तो बच जाएँ | हिन्दू हो या मुसलमान , एक से ज्यादा बच्चे इसलिए पैदा करता है ताकि कम से कम कोई एक बच्चा कहीं से पंचर जोड़कर , रोटी कमाकर लाए और खिला सके , बाकी को तो आप मार देंगे | इसके अलावा भी उनके तमाम ऐसे बयान हैं जिनमें  माँ की ममता को दर्शाने वाली  उनकी शायरी के सर्वथा विरुद्ध नफरत झलकती है | योगी की सरकार आने के बाद उप्र छोड़ने का ऐलान तो मुनव्वर ने कर दिया किन्तु वे ये बताने से बचे कि यदि केंद्र में एक बार फिर मोदी सरकार बनी तो क्या वे हिंदुस्तान भी  छोड़ देंगे ? ये प्रश्न इसलिए उचित है क्योंकि वे 2022 तक  भारत के हिन्दू राष्ट्र घोषित होने के साथ ये भी कह चुके हैं कि ये देश अब धर्म निरपेक्ष नहीं रहा , बल्कि ये साम्प्रदायिक हो  गया है , यहाँ अब दिन- रात सिर्फ राम की बात होती है , खबरों में  सिर्फ राम मन्दिर होता है , जबकि हिन्दुओं को खुश करने मुसलमानों को मारा जा रहा है | मुनव्वर निश्चित रूप से एक लोकप्रिय शायर रहे हैं | लेकिन अब वे विशुद्ध रूप से कट्टरपंथी मुस्लिम के रूप में खुद को पेश करने से विवादों में घिरते जा रहे हैं | बतौर भारतीय नागरिक उनको व्यवस्था से अपनी नाराजगी अभिव्यक्त करने का पूरा - पूरा अधिकार है |  अल्पसंख्यक के तौर पर  उनकी धार्मिक आजादी की  सुरक्षा भी होनी चाहिए | लेकिन  वे राजनीति करना चाहते हैं तो काव्य  के साथ - साथ सियासत  के मंच पर भी तशरीफ लेकर आयें और अपनी बात जनता के बीच रखें | लेकिन योगी के दोबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद  इस आधार पर उप्र छोड़ने की धमकी देना क्योंकि वह  मुसलमानों के रहने लायक नहीं रह जायेगा ,  उनके मानसिक दिवालियेपन को प्रमाणित करता है | उप्र में लगभग 20 फीसदी मुसलमान रहते हैं | इसके पहले भी वहां भाजपा की सरकार रही है | लेकिन किसी ने उप्र छोड़कर जाने के बात नहीं की | राम मन्दिर का विवाद  सर्वोच्च न्यायालय से निपट चुका है | अयोध्या  में मन्दिर और मस्जिद दोनों को जमीन दे दी गई है | अदालत के फैसले के बाद अयोध्या सहित राज्य  के बाकी हिस्सों  में किसी भी तरह का तनाव देखने में नहीं आया | अयोध्या में रहने वाले मुसलमानों ने भी फैसले पर संतोष जताते हुए कहा कि अब दोनों सम्प्रदाय चैन से रह सकेंगे | मंदिर निर्माण के अलावा समूचे अवध क्षेत्र में जिस तेजी से विकास हो रहा है उसकी वजह से  लोग बेहद खुश हैं | लेकिन मुनव्वर जैसे लोगों को शांति और तरक्की रास नहीं आ रही और इसीलिए वे जहर बुझे शब्द  बाण छोड़कर अपनी कुंठा ज़ाहिर करने के साथ ही  माहौल खराब करने का प्रयास कर रहे हैं | बदले हुए रूप के कारण मुनव्वर को जबर्दस्त आलोचना का सामान करना पड़  रहा है तो इसके लिए वे खुद कसूरवार हैं | मुसलमान तो वे पहले भी थे लेकिन बतौर शायर किसी ने उनके मजहब पर ध्यान नहीं दिया | लेकिन बीते कुछ सालों में उनका जो चेहरा सामने आया है उसने उनकी छवि पूरी तरह बदलकर रख दी है |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 20 July 2021

जासूसी : ऐसे मामलों में सच्चाई कभी सामने नहीं आती



इजरायली स्पायवेयर पेगासस के जरिये सरकार द्वारा राजनेताओं , पत्रकारों , सामाजिक कार्यकर्ताओं और न्यायाधीशों सहित उनसे जुड़े करीबी लोगों की जासूसी करवाए जाने का खुलासा नया नहीं है | दो साल पहले भी  इसे लेकर हंगामा हुआ था किन्तु  बात आई - गई होकर रह गई | दो दिन पहले अचानक विदेशी माध्यमों से ये खुलासा हुआ कि उक्त स्पायवेयर का उपयोग भारत में भी हुआ | चूंकि स्पायवेयर की निर्माता कंपनी अतीत में ये स्वीकार कर चुकी  है कि वह केवल सरकार को ही ये सुविधा प्रदान करती है इसलिए जैसे ही उक्त खबर आई वैसे ही विपक्ष के साथ समाचार माध्यमों एवं न्यायापालिका में भी हड़कम्प मचा | ताजा खुलासा क्योंकि संसद के मानसून अधिवेशन के ठीक  पहले हुआ इसलिए पहले दिन ही विपक्ष ने सदन नहीं चलने दिया | हालाँकि सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने संसद में बोलते हुए किसी भी प्रकार की जासूसी से साफ़  इंकार कर दिया लेकिन बाद में उनका नाम भी उस सूची में आ गया जिनकी जासूसी किये जाने की बात उछली है | केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ ही पूर्व सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी सरकार प्रायोजित जासूसी को कपोल कल्पित बताते हुए संसद सत्र के ठीक पहले उसे उजागर किये जाने पर सवालिया निशान लगा दिए | इस बारे में ये भी गौरतलब है कि सोशल मीडिया के अनेक प्लेटफार्म मसलन फेसबुक , ट्विटर और व्हाट्स एप भी इस मामले में संदेह के घेरे में हैं | काफी समय से उनका भारत सरकार के साथ कानूनी विवाद भी चला आ रहा है | जैसा कि कहा जाता है कि  इस दौर में किसी की भी निजता बरकरार नहीं रह गई है | व्यक्तिगत जानकारी के अलावा आर्थिक लेनदेन ,  व्यापारिक वार्तालाप , राजनीतिक चर्चाएँ आदि गोपनीय नहीं रह गई हैं | सोशल मीडिया पर लिखी  या दिखाई गई  किसी  भी सामग्री का विश्लेषण करते हुए व्यक्ति के बारे में तैयार किया गया ब्यौरा ( डेटा )  आज की दुनिया में सबसे ज्यादा बिकने  वाली चीज है | इंटरनेट पर किसी उपभोक्ता वस्तु के बारे में जानकारी हासिल  करते ही उससे जुड़े विज्ञापन आपके सोशल मीडिया माध्यम पर आने शुरू हो जाते हैं जिससे ये बात साबित हो जाती है कि इंटेरनेट पर आपका हर व्यवहार सघन निगरानी में है और उसका व्यापारिक  उपयोग भी धड़ल्ले से हो रहा है | लेकिन संदर्भित विवाद में जिस तरह की निगरानी की गई उसका उद्देश्य चूँकि व्यापारिक न होकर सरकारी जासूसी बताया गया है इसलिए विपक्ष को सरकार की घेराबंदी करने का अच्छा अवसर हाथ लग गया  |  यद्यपि केंद्र सरकार और भाजपा तमाम आरोपों को झुठला रही है लेकिन  जानकारी का स्रोत विदेशों में है इसलिए उसकी सफाई से विपक्ष का संतुष्ट नहीं होना स्वाभाविक है | हालाँकि वह  भी जानता है कि ऐसे  मामलों में  सच्चाई कभी सामने नहीं आती किन्तु सरकार पर हमला करने का मौका वह भी नहीं छोड़ना चाहेगा | संसद में मुख्य विपक्ष विपक्षी दल कांग्रेस भी दशकों तक केन्द्रीय सत्ता में रही है इसलिये उसे पता है कि सरकार का ख़ुफ़िया विभाग ( इंटेलीजेंस ब्यूरो ) न सिर्फ राजनीतिक व्यक्तियों वरन उनके स्टाफ और संपर्कों के बारे में जानकारी एकत्र करता रहता है | न्यायाधीशों की नियुक्ति के पूर्व उनकी भी निगरानी खुफिया तौर पर करवाई जाती है | लेकिन मौजूदा विवाद में चूँकि विदेशी स्पायवेयर से  जासूसी करवाने का आरोप है इसलिए वह  सतही तौर पर तो  गम्भीर लगता है |  लेकिन उसका खुलासा भी  विदेशी माध्यमों से हुआ है इसलिए पटाक्षेप भी विकीलीक्स प्रकरण जैसा ही होगा | इस सबके बावजूद भारत सरकार को इस बारे में  स्पष्ट करना चाहिए कि उसके द्वारा पेगासस के जरिये जासूसी  करवाई गई या नहीं ? हालाँकि ऐसे मामलों में हर  सरकार गोपनीयता बनाए रखती है | सारे ख़ुफ़िया विभाग गृह मंत्रालय के अधीन होने के बाद भी पुरानी सरकार के समय एकत्र की गई जानकारी इसीलिये सार्वजनिक नहीं होती | जासूसी यूँ भी शासन तंत्र का अभिन्न हिस्सा होता है | मनमोहन सिंह की सरकार के समय वित्तमंत्री  प्रणब मुखर्जी की  टेबिल पर जासूसी उपकरण लगाये जाने का मामला उठा था | स्व. मुखर्जी की शिकायत पर श्री सिंह ने ख़ुफ़िया विभाग से जांच करवाकर ये सफाई भी दी थी कि वैसा कुछ भी नहीं हुआ | उस कारण गृहमंत्री पी. चिदम्बरम और स्व. मुखर्जी के बीच तनातनी भी हुई थी | चूँकि अभी संसद चल रही है इसलिए विपक्ष भी सरकार पर हावी होने  का अवसर नहीं  गंवाना चाहेगा परन्तु  जैसा होता आया है इस मामले पर भी कुछ दिन के हल्ले के बाद परदा पड़ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि जासूसी करने और करवाने वाले अक्सर सबूत नहीं छोड़ते | रही बात आरोप - प्रत्यारोप की तो राजस्थान में पायलट समर्थक विधायक भी  मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर  उनके फोन टेप करवाने का आरोप लगा चुके हैं |  

- रवीन्द्र वाजपेयी 



Monday 19 July 2021

हंगामा और बहिर्गमन से बचे विपक्ष तभी सरकार पर डाल सकेगा दबाव



संसद का बहुप्रतीक्षित मानसून सत्र आज  प्रारम्भ हो गया | सत्र से पहले लोकसभा अध्यक्ष और  संसदीय कार्य मंत्री ने सर्वदलीय बैठक आयोजित कर सदन के सुचारू रूप से चलने और लंबित विधायी कार्य संपन्न कराने में सहयोग की अपील की | सरकार  और विपक्ष दोनों ने अपनी प्राथमिकतायें बताईं | अमूमन इस बैठक का वातावरण बहुत ही सौहार्द्र्पूर्ण रहता है | लेकिन सदन के भीतर वही सब  किया जाता है जिसे ससंदीय कहना भी संसद का अपमान है | मौजूदा माहौल में  विपक्ष के पास ऐसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर वह सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकता है | कोरोना की दूसरी लहर के दौरान चिकित्सा प्रबंधों के लड़खड़ाने  से लोगों की  बड़ी संख्या में हुई मौतों पर क्षतिपूर्ति   , पेट्रोल - डीजल  के अलावा उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में  ताबड़तोड़ वृद्धि , कोरोना की तीसरी लहर की आशंका के बावजूद टीकाकरण का लक्ष्य से पीछे रहना , राजद्रोह क़ानून  पर सर्वोच्च न्यायालय का कड़ा   रुख और  जम्मू - कश्मीर में विधानसभा चुनाव आदि ऐसे विषय हैं जिन पर सरकार को रक्षात्मक किया जा सकता है | इसके साथ ही जनसँख्या नियन्त्रण कानून को लेकर भी विपक्ष के हमलों का सरकार को सामना करना पड़ेगा | सत्र के शुभारम्भ के दिन ही पत्रकारों , सामाजिक कार्यकर्ताओं , वकीलों , विपक्षी नेताओं , उद्योगपतियों एवं न्यायाधीश की जासूसी करवाए जाने का खुलासा भी विपक्ष के हाथ आया एक धारदार हथियार हो सकता है | हालाँकि सरकार ने भी सम्भावित आक्रमणों का सामना करने का इरादा जता दिया है | प्रधानमंत्री ने आश्वस्त किया है कि सरकार हर सवाल का उत्तर देने तैयार है लेकिन विपक्ष को भी उसे समय देना होगा | उनका आशय हंगामे को रोकने से  है | पता नहीं विपक्ष किसी नई रणनीति के साथ मानसून सत्र में व्यवहार करेगा या हंगामा और बहिर्गमन जैसे तरीके अपनाते हुए सत्ता पक्ष की परोक्ष रूप से मदद करेगा | 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद से ये देखने में आया है कि विपक्ष या तो सदन को चलने नहीं देता या फिर विरोध स्वरूप उठकर बाहर चला जाता है | उसके ऐसा  करने से सरकार को आसानी हो जाती है | इसलिए जितना भी समय मिले उसका वह चर्चा के लिए उपयोग करे तो अपनी  बात देश के सामने रखते हुए सरकार को घेर सकता है | हंगामे के कारण  सदन स्थगित हो जाने से  विपक्ष के तीर तरकश में ही रखे रह जाते हैं | यही  बहिर्गमन के साथ होता है जो  संसदीय प्रणाली में विरोध प्रदर्शन का बहुत ही प्रचलित तरीका रहा है किन्तु जरूरत से ज्यादा उपयोग होने से वह असरहीन होकर रह जाता है | लोकसभा में मोदी सरकार के पास भारी बहुमत होने से सदन को चलते रहने देने में ही विपक्ष का फायदा है | राज्यसभा में भी भले ही सत्ता पक्ष के पास पूर्ण बहुमत नहीं है किन्तु विपक्ष में तालमेल न होने से सरकार अपना काम  आसानी से निकाल ले  जाती है | सदन के संचालन में फ्लोर मैनेजमेंट नामक शब्द का काफी प्रयोग होता है |  सामान्यतः ये काम सत्ता पक्ष करता है लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में  जब विपक्ष  के कमजोर होते जाने से आम जनमानस भी चिंतित है तब सदन के सुचारू रूप से चलते रहने के लिए उसको गंभीरता से प्रयास करना चाहिए क्योंकि संसद ही वह मंच है जहाँ कही गई कोई भी बात देश ही  नहीं दुनिया में भी सुनी जाती है | विपक्ष में बैठे नेताओं को संख्याबल में कमी से हताश हुए बिना उन दिनों से प्रेरणा लेनी  चाहिए जब विपक्ष के मुट्ठी भर नेता पं. नेहरु और इंदिरा जी जैसे ताकतवर प्रधानमंत्री पर भी भारी पड़ जाया करते थे | आज के दौर  की संसद में विपक्षी खेमे से ऐसा कोई भाषण बीते सालों में नहीं सुनाई दिया जिसे लोग याद रख सकें | मौजूदा सत्र उस दृष्टि से विपक्ष के लिए एक अच्छा अवसर है , अपनी साख और धाक ज़माने का | यदि वह इसमें चूक गया तब जनता के मन में उसे लेकर व्याप्त निराशा और बढ़ती जायेगी | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Saturday 17 July 2021

पंजाब का मामला न सुलझा तो अन्य राज्यों में भी कांग्रेस की अंतर्कलह बढ़ेगी



देश में पंजाब ही  ऐसा राज्य है जहाँ कांग्रेस काफ़ी सुखद स्थिति में मानी जाती थी |  अकाली - भाजपा  गठबंधन टूटने के बाद उसे आगामी चुनाव की चुनौती आसान नजर आने लगी थी | प्रकाश सिंह बादल बढ़ती उम्र  के कारण राजनीतिक परिदृश्य से गायब से हैं | और  उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल में पिता सरीखी सियासी समझ  न होने से अकाली दल की पकड़ ढीली पड़ने लगी | उनकी पत्नी हरसिमरत कौर ने  मोदी सरकार में मंत्री रहते हुए पहले तो कृषि कानूनों का समर्थन किया परन्तु  जब वे संसद में पेश हुए तो विरोध करते हुए स्तीफा दे दिया | लेकिन तब तक मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह ने किसान आन्दोलन को  बड़ी ही चतुराई से दिल्ली की देहलीज तक पहुंचाकर बढ़त ले ली | हालाँकि अकाली दल ने भी किसान आन्दोलन को समर्थन दिया और प्रकाश सिंह बादल ने पद्म विभूषण लौटाकर किसानों को खुश करना चाहा किन्तु उसका खास असर नहीं हुआ | अकाली दल का साथ छूटने के बाद भाजपा पंजाब में बेसहारा होकर रह गई है | जहां तक बात आम आदमी पार्टी की है तो वह  जोर तो काफी लगा रही है लेकिन मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं होने से उसका अपने बलबूते सत्ता के दरवाजे तक पहुंचना आसान नहीं लगता | ऐसे  में कांग्रेस की डगर आसान नजर आ रही थी किन्तु  भाजपा से कांग्रेस में आकर मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पाल बैठे पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू पार्टी के गले की  हड्डी बन गये हैं | कांग्रेस में आने के पहले उन्होंने आम आदमी पार्टी का दरवाजा खटखटाया था लेकिन वहां भी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी ने उनकी दाल नहीं गलने दी | कांग्रेस में आने के बाद से ही वे ऊंची उड़ान के इरादे जताने लगे लेकिन 2017 में चुनाव अभियान के बीच कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने राहुल गांधी से ये घोषणा करवा ली कि मुख्यमंत्री उन्हें ही बनाया जाएगा | सिद्धू उस समय तो मन मसोसकर रह गए और अमरिंदर सरकार में मंत्री भी बने लेकिन कम्बलों में गाँठ नहीं लगने वाली कहावत दोहराते हुए  सरकार छोड़कर बाहर आ गये |  उसके बाद से वे लगातार राज्य सरकार पर हमले करते आ रहे हैं | पहले तो पार्टी आलाकमान नजरंदाज करता रहा लेकिन चुनाव करीब आने के कारण उसकी उदासीनता दूर हुई जिसके बाद दोनों में  युद्धविराम करवाने के लिए तीन वरिष्ठ नेताओं की समिति बना दी गई | अमरिंदर और सिद्धू की सोनिया गांधी और प्रियंका  से भी मुलाकात होती रही किन्तु बात नहीं बनी | उसका कारण ये रहा कि सिद्धू चुनाव  के पहले उप मुख्यमंत्री या प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनना चाह रहे हैं | लेकिन अमरिंदर उनको किसी भी हैसियत में देखने राजी नहीं हैं | तीन नेताओं की समिति द्वारा बार - बार दिल्ली बुलाये जाने पर भी वे अपनी नाराजगी जता चुके हैं | यद्यपि वे हर बार कहते हैं कि जो आलाकमान कहेगा उसे  मान लेंगे लेकिन गत दिवस उन्होंने श्रीमती गांधी को भेजे पत्र में ये लिखकर सनसनी मचा दी कि आलाकमान पंजाब के मामले में टांग न अड़ाए अन्यथा बड़ा नुकसान हो जाएगा | जानकार सूत्र तो ये भी बताते हैं कि सिद्धू को महत्व दिए जाने पर उन्होंने कांग्रेस छोड़ने तक की धमकी गांधी परिवार को दे डाली | उधर नवजोत भी आम आदमी पार्टी की प्रशंसा करते हुए कांग्रेस को चिंता में डाल रहे  हैं | इस रस्साखींच में  शिखर नेतृत्व की स्थिति दयनीय हो गई है | न तो गांधी परिवार अमरिंदर और नवजोत के बीच की  खाई पाट पाने में सफल हो सका और न ही बगावती स्वरों को शांत करवाने की ताकत उसमें दिखाई देती है | ताजा खबर तो ये भी है कि सोनिया जी , राहुल और प्रियंका के बीच भी   मतैक्य नहीं है | श्रीमती गांधी दोनों नेताओं के बीच सुलह की पक्षधर  हैं तो राहुल कैप्टेन को कमजोर करने से बचने की सलाह दे रहे हैं | वहीं  प्रियंका आलाकमान की सर्वोच्चता कायम करने की हिमायती बताई जा रही हैं | तीन नेताओं की जो समिति बनाई गई थी वह भी किसी काम की  साबित नहीं हुई | सही बात तो ये है कि पंजाब में चल रही वर्चस्व की लड़ाई में  गांधी परिवार की साख और धाक दोनों को धक्का पहुंचा है | पार्टी  न अमरिंदर को हाथ से जाने देना चाहती है और न ही नवजोत को किन्तु ये दोनों एक म्यान में दो तलवारें नहीं रखी जा सकतीं वाली कहावत को सही साबित कर रहे हैं | पार्टी  आलाकमान अपने प्रादेशिक नेताओं के सामने इतना कमजोर इसके पहले कब पड़ा ये याद नहीं आता  | सबसे  बड़ी बात ये है कि बजाय विरोधियों से लड़ने के पंजाब में कांग्रेस के भीतर ही महाभारत छिड़ा हुआ है |  दरअसल सारी मुसीबत की जड़ गांधी परिवार का अनिर्णय की स्थिति में फंसा होना है | राहुल गांधी न तो कमान थाम रहे हैं और न ही छोड़ने की इच्छा जताते हैं | प्रियंका एक समानांतर सत्ता के  रूप में  सक्रिय  जरूर हैं लेकिन राजस्थान का झगड़ा सुलझाने में उनके नाकामयाबी भी  सामने आ चुकी है | यदि पंजाब की  अंतर्कलह जल्द न सुलझी तो इसका असर अन्य राज्यों पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 16 July 2021

राजद्रोह ही क्यों , किसी भी कानून का दुरूपयोग गलत



चूँकि सर्वोच्च न्यायालय ने केवल सवाल पूछा है इसलिए इसे अंतिम फैसला नहीं माना  जा सकता किन्तु भारतीय दंड विधान संहिता की धारा 124 अ ( राजद्रोह ) पर उसका ये कहना मायने रखता है कि अंग्रेजी राज में गांधी जी और लोकमान्य तिलक की आवाज दबाने के लिए प्रयुक्त होने वाले कानून को जारी रखे जाने की जरूरत और औचित्य क्या है ? अदालत की ये बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आरोप साबित नहीं होने पर कार्यपालिका ( पुलिस और प्रशासन ) की  जिम्मेदारी तय नहीं होने से क़ानून के दुरूपयोग का खतरा बना रहता है | अदालत के सामने आई विभिन्न याचिकाओं में इस कानून को रद्द करने की मांग की गयी है | अदालत ने ये सवाल भी केंद्र सरकार से पूछा है कि जब उसने बीते सालों में अनेक क़ानून रद्द किये  तब गुलामी के दौर के  इस कानून को बनाये रखने की क्या आवश्यकता है ? दरअसल हाल के कुछ वर्षों में राजद्रोह के अनेक मामले दर्ज किये गये | आरोपित लोगों में मुख्य रूप से संदिग्ध  शहरी नक्सली , वामपंथी बुद्धिजीवी  और पत्रकार बताये जाते हैं | अनेक प्रकरणों में आरोप साबित करने की प्रक्रिया चल रही है वहीं कुछ  आरोपी बरी भी किये  जा चुके हैं | दरअसल अदालत की  चिंता का विषय ये है कि किसी व्यक्ति को अकारण प्रताड़ित करने के लिए इस क़ानून में बिना पर्याप्त सबूत  गिरफ्तार किया जा सकता है किन्तु  निर्दोष साबित होने पर द्वेषपूर्ण कार्रवाई करने वाले अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकती | वैसे लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में  इस तरह के कानून  के लिए बेशक  कोई स्थान नहीं होना चाहिए  किन्तु सर्वोच्च न्यायालय  इस बात पर भी विचार करे  कि आजादी के बाद जब देश ने अपना संविधान लागू किया तब पं. जवाहरलाल नेहरु , सरदार पटेल और डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसे लोकतंत्रवादियों और कानून के ज्ञाताओं ने इसे  खत्म करने के बारे में कोई कदम क्यों नहीं  उठाया ? सर्वोच्च न्यायालय की ताजा टिप्पणी को केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार पर कटाक्ष माना जा रहा है किन्तु उसके पहले भी इस कानून का प्रयोग किया जा चुका है | तमिलनाडु में तो परमाणु संयंत्र का विरोध कर  रहे 7 हजार लोगों पर थोक के भाव राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था | हाल के सालों में अनेक ऐसे लोग इसकी चपेट में आये जिन्होंने राजसत्ता ही नहीं  अपितु देशहित के विरुद्ध भी आवाज उठाई | हालांकि उबाऊ न्यायायिक प्रक्रिया के कारण आरोप साबित करने में लम्बा समय लग रहा है | वैसे ये बात बिलकुल सही है कि महज सरकार विरोधी भाषण अथवा लेख को राजद्रोह कहना उचित नहीं होता किन्तु  बेख़ौफ़  होकर  देश विरोधी भावनाएं व्यक्त्त करने वालों पर राजद्रोह का मुकदमा गलत भी नहीं कहा जा सकता | कश्मीर को भारत का हिस्सा न मानने और भारत के टुकड़े होने जैसे नारे लगाने वालों को राजद्रोही मानने में कुछ  भी गलत नहीं है |  आंदोलनों के दौरान सार्वजानिक संपत्ति को क्षति पहुँचाना सरकार के विरुद्ध हिंसक गतिविधि नहीं तो और क्या  है ? दिल्ली की जेएनयू में जैसी  देश विरोधी गतिविधियां देखने में आईं और कतिपय छात्र नेता जिस तरह की भावनाएं भड़काते रहे  उनको छुट्टा छोड़े रखना बुद्धिमत्ता नहीं है | रही बात क़ानून के दुरूपयोग और उसके जरिये अपने राजनीतिक विरोधियों के दमन के आरोप की तो ऐसा ही आतंकवाद विरोधी कानूनों के बारे में भी कहा जाता रहा है और दहेज तथा दलित उत्पीड़न संबंधी कानूनों में भी अनगिनत निर्दोष सताये जाते हैं | दरअसल अपराध और कानून के साथ मंशा नामक तत्व अभिन्न रूप से जुड़ा होता है | बिना मंशा के किया अपराध भी माफी योग्य बन जाता है | इसी तरह अपराध कायम करने वाले की मंशा भी मायने रखती है | यही कारण है कि राजद्रोह क़ानून विरोधी याचिकाओं पर सरकार को नोटिस का जवाब देने हेतु अदालत ने  कोई समय सीमा तय नहीं की | इस बारे में अटॉर्नी जनरल का ये कहना भी काबिले गौर है कि बजाय कानून  रद्द करने के न्यायालय उस बारे में कोई दिशा निर्देश जारी करे | अंतिम फैसला क्या होता है ये देखने के लिए अभी प्रतीक्षा करनी होगी | लेकिन जो राजनीतिक  लोग इस कानून का विरोध कर रहे हैं उनको इस बात का जवाब भी देना चाहिये कि दशकों तक सत्ता में बने रहने  के दौरान उन्होंने इस क़ानून को रद्द करने का फैसला क्यों नहीं किया ? 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 15 July 2021

कावड़ यात्रा : तीसरी लहर का स्वागत द्वार बन सकती



सर्वोच्च न्यायालय ने उ.प्र सरकार द्वारा कांवड़ यात्रा को दी गई अनुमति पर नोटिस जारी किये हैं | केन्द्रीय गृह सचिव के साथ ही उ.प्र सरकार  को सोमवार तक हलफनामे के साथ जवाब देना है कि उक्त अनुमति क्यों दी गई ? स्मरणीय है कि उत्तराखंड सरकार ने इस  यात्रा को अनुमति नहीं दी थी किन्तु उ.प्र सरकार द्वारा आगामी 25 जुलाई से कांवड़ियों को यात्रा की स्वीकृति दिए जाने से काफी बवाल मचा जबकि  दो दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पर्यटन और धार्मिक केन्द्रों पर उमड़ रही भीड़ द्वारा कोरोना संबंधी अनुशासन की धज्जियां उडाये  जाने पर खेद जताते हुए तीसरी लहर के प्रति चेताया था | सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतराज  में  श्री मोदी  के उसी वक्तव्य का उल्लेख किया है | गत वर्ष भी लॉक डाउन की वजह से इस यात्रा को अनुमति नहीं दी गई थी  जिसमें श्रावण मास के दौरान  शिव भक्त कांवड़िये हरिद्वार से  गंगा जल भरकर अपने स्थान ले जाकर मन्दिर के शिव लिंग पर चढ़ाते हैं | पहले इस  यात्रा में  सीमित संख्या में कांवड़िये सम्मिलित हुआ करते थे किन्तु  बीते कुछ सालों से इनकी  संख्या लाखों तक जा पहुँची है | इस कारण यात्रा के दौरान  हरिद्वार से निकलने वाले  हर मार्ग  पर यातायात की बुरी स्थिति होने के साथ ही व्यापार - उद्योग तक  ठप्प हो जाते हैं | कांवड़िये अपने  लिये विशेष व्यवस्थाओं की मांग करते हुए उत्पात मचाने से भी बाज नहीं आते | हालाँकि धार्मिक संस्थाएं उनके भोजन  और विश्राम की व्यवस्था करती हैं लेकिन शासन और प्रशासन की पूरी मशीनरी भी  उनकी व्यवस्था में लग जाती है क्योंकि यात्रा के दौरान अनेक मर्तबा कानून व्यवस्था गड़बड़ा चुकी है | कांवड़ियों की शक्ल में असामाजिक तत्व और आतंकवादी होने की आशंका भी सुरक्षा बलों की  चिंता का कारण बनी रहती है | गत वर्ष कोरोना के कारण कांवड़ यात्रा तो रोक दी गई किन्तु इस वर्ष हरिद्वार में कुम्भ के लिए उत्तराखंड सरकार ने अनुमति दे दी | इस फैसले पर भी सवाल उठे | चूँकि कोरोना की पहली लहर खत्म होने की खुशफहमी थी इसलिए साधू - महात्माओं के साथ ही श्रद्धालुओं का सैलाब हरिद्वार में जमा हुआ | उसी के साथ दूसरी लहर की आमद भी होने लगी | हरिद्वार में ही  अनेक साधू - महात्मा कोरोना की चपेट में आकर चल बसे | अंततः प्रधानमंत्री के निवेदन पर कुम्भ समय से पहले समाप्त भले ही कर दिया गया किन्तु ये धारणा भी स्थापित हो गई कि  उसके कारण संक्रमण का प्रसार पूरे देश में हुआ | भले ही उत्तराखंड सरकार ये  सफाई देती रही कि कोरोना के पीछे कुम्भ नहीं था लेकिन उस पर किसी को भरोसा नहीं हुआ | उस समय के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को इसीलिये भाजपा हाईकमान द्वारा हटा दिया गया | इसीलिये जब प्रधानमंत्री की दो टूक टिप्पणी के बाद भी कांवड़  यात्रा को उ.प्र सरकार द्वारा अनुमति दी गई तो सर्वोच्च न्यायालय का नाराज होकर जवाब मांगना सर्वथा उचित कहा जाएगा |  इसमें कोई दो मत नहीं है कि ऐसे आयोजनों में जन साधारण भी बढ़ - चढ़कर रूचि लेता है | यूँ भी श्रावण माह में शिव भक्ति चरम पर रहती है | लेकिन जैसा श्री मोदी ने कहा उसके अनुसार इस तरह की यात्रा कोरोना की तीसरी लहर के लिए स्वागत द्वार बनाने जैसा कदम होगी | अब तक के अनुभव बताते हैं कि  इस यात्रा के दौरान क़ानून और व्यवस्था का पालन करने के प्रति घोर लापरवाही होती रही है | ऐसे में कोरोना अनुशासन की धज्जियां उड़ना तयशुदा है | इसलिए  उ.प्र सरकार को यात्रा रद्द करने की  समझदारी दिखाना चाहिये वरना तीसरी लहर का पूरा ठीकरा कांवड़ यात्रा पर ही फूटेगा और योगी सरकार के लिए आगामी चुनाव में जनता का सामना करना बेहद कठिन हो जायेगा | आश्चर्य इस बात का भी है कि उ.प्र सरकार ने प्रधानमंत्री की खुली चेतावनी को भी अनसुना कर दिया | सर्वोच्च न्यायालय का ये कहना पूरी तरह सही है कि आस्था मानव जीवन से बड़ी नहीं हो सकती |

- रवीन्द्र वाजपेयी



 

Wednesday 14 July 2021

ज़िन्दगी रही तो सैर -सपाटा और धरम - करम भी हो जायेंगे वरना .......



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा इन्डियन मेडिकल एसोसियेशन ने भी इस बात के प्रति चेताया है कि पर्यटन और धार्मिक स्थलों पर उमड़ रही बेतहाशा भीड़ कोरोना की तीसरी लहर के लिए रास्ता साफ़ करने वाली हो सकती है |  हालाँकि खुद सरकार ने इसकी  अनुमति दी थी लेकिन ये कहना गलत न होगा कि मौज - मस्ती के साथ ही धर्म का पालन करने वाले लोग इस बात के प्रति पूरी तरह लापरवाह नजर आते हैं कि उनका गैर जिम्मेदाराना आचरण उनके साथ ही दूसरों के जीवन के लिए भी घातक साबित हो सकता है | गत दिवस खबर आई कि  सबसे पहले  केरल की जो युवती चीन के वुहान से कोरोना लेकर भारत में आई थी वह दोबारा संक्रमित हो गई | लेकिन उससे भी  बड़ी खबर ये है कि उसे अभी तक कोरोना का एक ही टीका लग पाया था | ये वाकई चौंकाने वाली बात है | भारत के पहले कोरोना मरीज को अब तक दोनों टीके नहीं लग पाना एक तरफ तो शासन - प्रशासन की अनदेखी को उजागर करता है वहीं दूसरी तरफ ये उस युवती की  उदासीनता का भी प्रमाण है | ऐसे में पर्यटन स्थलों और मन्दिरों सहित अन्य धार्मिक केन्द्रों पर पर्यटकों और श्रद्धालुओं की जो  भीड़ कोरोना अनुशासन की धज्जियां उड़ाती नजर आ रही है वह तीसरी लहर की आशंका को और मजबूत करने वाली है | शहरों और ग्रामीण इलाकों में भी बाजार - हाट में बिना मास्क लगाये और शारीरिक दूरी का उल्लंघन  करते हुए लोग आसानी से देखे जा सकते हैं | अब जबकि विभिन्न राज्य सरकारें 10 वीं और 12 वीं की कक्षाएं शुरू करने  का फैसला लेने जा रही हैं और सिनेमा , रेस्टारेंट , सभागार आदि खोलने पर भी  विचार चल रहा है तब इस बात की  चिंता करनी होगी कि कहीं ये छूट जानलेवा तो नहीं बन जायेगी | मप्र में शादियों में भी  100 लोगों तक के जमावड़े की अनुमति दे दी गई है |  विभिन्न राज्य सरकारें इसके आगे और छूट देने की दिशा में सोचने लगी हैं | कोरोना की दूसरी लहर के कमजोर पड़ने का ही  सबूत है कि प्रधानमन्त्री ने मंत्रीमंडल की बैठक में लम्बे समय बाद मंत्रियों को शारीरिक रूप से उपस्थित रहने की अनुमति दी वरना अब तक आभासी माध्यम से ही काम चलाया जा रहा था | ये देखते हुए इस बात को समझना होगा कि तीसरी लहर को रोकना किसी एक या कुछ  लोगों के हाथ में नहीं है वरन समूचे समाज को अपने दायित्व को समझना होगा |  देश में टीकाकरण निश्चित ही तेज गति से चल रहा है लेकिन पूरी आबादी को दोनों टीके लगने में महीनों लग सकते हैं | ऐसे में ये समय बहुत ही सावधानी बरतने का है | भले ही सरकारी और निजी क्षेत्र के  चिकित्सा तंत्र द्वारा पर्याप्त आक्सीजन और वेंटीलेटरों का इंतजाम करने  का आश्वासन दिया जा रहा हो तथा अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या में भी काफी वृद्धि कर दी गई हो किन्तु  कोरोना की तीसरी लहर की वापिसी देश की  आर्थिक स्थिति को चिंताजनक स्थिति में पहुंचा देगी  जिसका असर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हर नागरिक पर पड़ना तय है | पिछली दो लहरों ने जो नुकसान किया उसकी भरपाई करने में ही लम्बा समय लगने वाला है | ऐसे में तीसरी लहर ने दस्तक दी तो भले ही वह उतनी  भयावह न हो लेकिन उसका मनोवैज्ञानिक असर राष्ट्रीय जीवन पर पड़े बिना नहीं रहेगा | इसलिए हर नागरिक का फर्ज है कि  चाहे वह अपने शहर में हो या सैर - सपाटा और तीर्थाटन करने निकला हो , उसे हर हालत में कोरोना से बचाव के प्रति ईमानदारी से गंभीरता बरतनी चाहिए | वरना  सरकार और चिकित्सकों को कठघरे में खड़ा करने के बाद भी ज़िन्दगी  की कोई गारंटी नहीं रहेगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 13 July 2021

लाख दुखों की एक दवा है जनसंख्या नियंत्रण



उप्र सरकार द्वारा जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाये जाने का संकेत देने के बाद इस बारे में  राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होना सुखद संकेत है | हालांकि इसे कुछ लोग हिंदुत्ववादी सोच  और उप्र के आगामी विधानसभा चुनाव  से जोड़कर देख रहे हैं लेकिन कोरोना की दो लहरों के बीच जनसंख्या एक समस्या बनकर सामने आई | अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या के अलावा टीकाकरण अभियान में भी उसके कारण अनेक दिक्कतें आ रही हैं | बीते एक - डेढ़ दशक में परिवार नियोजन का अभियान पूरी तरह से उपेक्षित हो गया था | भले ही सरकारी आंकड़ों में उसे जीवित रखा गया हो लेकिन जमीनी सच्चाई ये है कि सरकारी प्राथमिकताओं में परिवार नियोजन अब काफी पीछे है | बढ़ती बेरोजगारी , शहरों में बेतहाशा  भीड़ , झुग्गी - झोपड़ी का फैलता जाल अर्थव्यवस्था के लिए चुनौती हैं | गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की विशाल संख्या बीते सात दशक में हुए विकास के दावों को संदिग्ध बना देती है | हालांकि कम जनसंख्या वाले विकसित देशों में भी कोरोना ने व्यवस्थाओं का कचूमर निकालकर रख दिया किन्तु भारत में सरकार के सामने तकरीबन 80 करोड़ लोगों के पेट भरने की चुनौती थी  |  हमारे पड़ोसी चीन ने आबादी नियन्त्रण की दिशा में कड़े और दूरगामी कदम उठाते हुए उसे काफी हद तक नियंत्रित कर लिया जिसका उसे जबर्दस्त लाभ भी हुआ | चूँकि वहां साम्यवादी शासन की वजह से एक तरह की तानाशाही है इसलिए सरकारी फैसले का विरोध करने की हिम्मत किसी की नहीं होती जबकि भारत में संसदीय प्रजातंत्र की वजह से वोट बैंक की राजनीति के चलते राष्ट्रीय हितों को उपेक्षित करने में कोई संकोच नहीं किया जाता  | इसका लाभ उठाकर मुस्लिम समाज में परिवार नियोजन के विचार को धर्म विरोधी मानकर छोटे परिवार की आवश्यकता के प्रति आँखें मूँद ली गईं | उनके धर्मगुरु भी परिवार को सीमित रखने के विरुद्ध  ही अभिमत देते रहे | जबकि सही  मायनों में मुस्लिमों को अपने आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लिए परिवार नियोजन की सबसे अधिक जरूरत थी | अधिक आबादी का नतीजा ये निकला कि ये समुदाय विकास की दौड़ में पीछे रह गया | ये अच्छी बात है कि जन्संख्या नियन्त्रण कानून के बारे में अब तक खास राजनीतिक विरोध सामने नहीं  आया है | शरद पवार द्वारा उसका समर्थन किया जाना भी शुभ संकेत है |   सोशल मीडिया पर भी ज्यादातर लोगों ने जनसंख्या नियन्त्रण के लिए कानून बनाए जाने को जरूरी बताया है | केंद्र सरकार पहले भी इस आशय का संकेत दे चुकी थी | अब जबकि दूसरी लहर समाप्ति की ओर है और तीसरी की आशंका है तब जनसँख्या नियन्त्रण के लिए कानूनी प्रावधान राष्ट्रीय हित की दिशा में बड़ा कदम होगा | वैसे मुस्लिम समुदाय के साथ ही समाज के अशिक्षित और आर्थिक तौर पर बेहद कमजोर तबके को भी ज्यादा संतान पैदा करने से आने वाली मुसीबतों का एहसास होने लगा है | लेकिन अभी भी धर्मभीरुता और  अंधविश्वास   हावी होने से जनसंख्या विस्तार की गति निरंतर जारी है | 21 वीं सदी में भारत यदि विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने की सोच रहा है तो उसे आर्थिक नियोजन के साथ ही जनसँख्या का नियोजन करना पड़ेगा | चीन ने अपनी विशाल जनसंख्या को मानव संसाधन के तौर पर पेश करते हुए सारी दुनिया के उद्योगपतियों को अपने देश में पूंजी निवेश हेतु आकर्षित करने के पहले जनसँख्या नियन्त्रण करने में सफलता हासिल कर ली थी | जबकि भारत में वैसी ही परिस्थितियाँ होने के बाद भी चीन जैसा लाभ नहीं मिला तो उसकी वजह हमारे आर्थिक नियोजन और जनसंख्या नियोजन में समन्वय की कमी होना था | समय आ गया है जब चुनावी राजनीति से ऊपर उठकर देश की बेहतरी के बारे में सोचा जावे | मुस्लिम धर्मावलंबी भी छोटे परिवार के साथ जुड़े दूरगामी फायदों को समझते हुए जनसंख्या नियन्त्रण के लिए आने वाले किसी भी कानून का समर्थन कर अपनी जागरूकता का परिचय दें तो उनकी नई पीढ़ी का भविष्य  सुधर जाएगा | उप्र सहित कुछ और राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों से इसे जोड़कर देखना गलत होगा क्योंकि हमारे देश में तो पूरे पांच साल कहीं न कहीं चुनाव चला ही करते हैं | केंद्र सरकार को चाहिए कि वह संसद के मानसून सत्र में ही जनसंख्या नियन्त्रण कानून लेकर आये | राजनीतिक फायदे या नुकसान से ऊपर उठकर देश हित में ये कदम उठाया जाना जरूरी हो गया है | 


- रवीन्द्र वाजपेयी



Monday 12 July 2021

अफगानिस्तान : अमेरिका की हार से भारत पर बढ़ा भार



अफगानिस्तान में बीते 20 सालों से जमी अमेरिकी सेनाओं की वापिसी शुरू होते ही कट्टरपंथी तालिबान अपना आधिपत्य कायम करने की दिशा में सफल होते लग रहे हैं | वहां  की वर्तमान सरकार की सेना और उसके समर्थक सशस्त्र गुट  तालिबान लड़ाकुओं का विरोध करने एकजुट हैं लेकिन वास्तविकता ये हैं कि आगामी 31 अगस्त को अमेरिकी सेनाओं द्वारा पूरी तरह से वापिसी किये जाते ही तालिबान इस देश पर कब्ज़ा करने में कामयाब हो जायेंगे | अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति उसे सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बना देती है | मध्य और पश्चिम एशिया को दक्षिण पूर्व एशिया से जोड़ने वाले इस देश की सीमाएं ईरान , पाकिस्तान , तजाकिस्तान , तुर्कमेनिस्तान  भारत और चीन से मिलती हैं | अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में डेरा ज़माने के बाद से  वहां अनुकूल परिस्थितियाँ बनीं जिस वजह से इस पहाड़ी देश के विकास के लिए भारत ने भारी मात्रा में निवेश किया | तालिबान के काबिज होते ही वहां भारत के हितों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाएगा ये बात पूरी तरह सही है | और इसीलिये गत दिवस वहां के भारतीय दूतावास से 50 राजनयिक और सुरक्षा कर्मी वापिस बुला लिए गए | हालाँकि राजनयिक रिश्ते पूरी तरह समाप्त करने के बारे में कोई संकेत नहीं हैं लेकिन वाजपेयी सरकार के काल में  जब भारतीय विमान को अपहृत कर कंधार ले जाया गया था तब तालिबान के साथ बातचीत हेतु खुद विदेश मंत्री स्व.जसवंत  सिंह को  जाना पड़ा क्योंकि हमारे पास उनसे संवाद का  माध्यम ही नहीं बचा था | उस समय तक तालिबान का पाकिस्तान के साथ तो सीधा तालमेल था किन्तु चीन के नहीं | लेकिन बदलते माहौल में तालिबान ने चीन को अपना मित्र बताकर ये संकेत दे दिया है कि वह भारत के प्रति  शत्रुता भाव को और गहरा करने जा रहा है | अफगानिस्तान में अमेरिकी  सेना के रहते तक भारत के हित  सुरक्षित थे  लेकिन अचानक नई परिस्थितियों में अब ये देश पूरी तरह इस्लामिक कट्टरपंथियों के कब्जे में जाने को है | इस बारे में  गौरतलब है कि अमेरिका के दबाव में कच्चा तेल खरीदने के करार से पीछे हटने की वजह से ईरान भारत से नाराज हो उठा  और उसने अपने बन्दरगाहों सहित कुछ बड़े  विकास कार्य चीन के जिम्मे कर दिए हैं | प्राप्त जानकारी के अनुसार चीन की महत्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड परियोजना को तालिबान की  मदद से अफगानिस्तान होते हुए  ईरान ले जाने और वहां से पश्चिम एशिया तक पहुँचने की  योजना को अफगानिस्तान के बदलते हालातों से बल मिल सकता है | पाक अधिकृत कश्मीर में भारत विरोधी ताकतों  को समर्थन के साथ ही आतंकवादी अड्डे बनाने के काम में भी तालिबान पाकिस्तान की मदद कर सकते हैं | इसलिए  भविष्य में  जम्मू कश्मीर में तालिबानी घुसपैठ होने  लगे तो अचम्भा नहीं होगा |  चीन अब तक पाकिस्तान को मदद देकर भारत के लिए समस्या खड़ी किया करता था किन्तु अब वह तालिबान को भी वैसी ही सहायता देकर हमारे लिए दोहरी मुश्किल उत्पन्न कर सकता  है | कुल मिलाकर अफगानिस्तान से अमेरिका भले ही बेआबरू होकर निकला हो लेकिन उसकी हार हमारे लिए भार बनने जा रही है | दुर्भाग्य से बांगला देश को छोड़कर  भारत के पड़ोसी देशों से रिश्ते अच्छे नहीं हैं | चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति के अंतर्गत हमारे चारों तरफ घेराबंदी कर रखी है | अफगानिस्तान में तालिबान के पुनरोदय और चीन के साथ उसकी जुगलबंदी चिंता का नया कारण है | हालाँकि  पाकिस्तान  बीते कुछ समय से भारत के साथ  युद्धविराम का पालन  कर रहा है लेकिन कश्मीर घाटी में हो रही आतंकवादी घटनाएँ इस बात का प्रमाण है कि अभी भी वह अपनी हरकतों पर उतारू है | तालिबान के पुराने रवैये को देखते हुए ये आशंका गलत नहीं है कि वह भारत के विरुद्ध षड्यंत्र रचने से बाज नहीं आयेगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Saturday 10 July 2021

समान नागरिक संहिता : विरोध करने वालों की दशा कांग्रेस जैसी हो जाएगी


हालांकि ऐसा होना आसान नहीं है लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय की  न्यायाधीश  प्रतिभा एम सिंह की प्रशंसा करनी होगी जिन्होंने बदलते सामाजिक वातावरण और सोच के मद्देनजर समान नागरिक संहिता लागू करने संबंधी निर्देश केंद्र सरकार को देते हुए कहा कि  इसके लिए ये सही समय है क्योंकि भारतीय समाज में धर्म , जाति , विवाह आदि की पारम्परिक बेड़ियाँ टूट रही हैं | राजस्थान के मीणा समाज की एक महिला ने अपने पति द्वारा परिवार अदालत में  हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत तलाक़ के आवेदन का विरोध करते हुए  ये तर्क दिया था  कि मीणा समाज पर हिन्दू विवाह  कानून लागू नहीं होता |  उसकी आपत्ति को अदालत ने मंजूर कर लिया | उसके विरुद्ध पति ने दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जिसने मामले की सुनवाई करते हुए केद्र सरकार को संविधान के अनुच्छेद 44 के हवाले से निर्देश दिया कि वह तलाक सहित अन्य पारिवारिक विवादों में अलग - अलग कानूनों के कारण  उत्पन्न पेचीदगियों को समाप्त करने के लिए समान नागरिक संहिता को लागू करने जरूरी कदम उठाये | न्यायाधीश के निर्देश का केंद्र सरकार किस तरह पालन करती है ये देखने वाली बात होगी क्योंकि शाह बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के बाद भी अनेक प्रकरणों में समान  नागरिक संहिता लागू किये जाने की बात कही जा चुकी है | लेकिन ये मामला सामाजिक  और कानूनी से ज्यादा चूँकि राजनीति के शिकंजे में फंसा हुआ है इसलिए सरकारें  इस बारे में फैसला लेना तो अलग रहा बात करने तक से डरती हैं  | वैसे नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद भाजपा के जो प्रमुख मुद्दे थे उनमें जम्मू कश्मीर से धारा  370 हटाना और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण जैसे वायदे तो पूरे हो गये | मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक़ से मुक्त करवाने की व्यवस्था भी हो गई | लेकिन समान नागरिक संहिता को लागू करने की इच्छा  के बाद भी वह ऐसा नहीं कर सकी तो उसका प्रमुख कारण कोरोना संक्रमण रहा वरना अभी तक समान नागरिक संहिता लागू हो चुकी होती | हालाँकि अभी तक भाजपा को इस मुद्दे पर केवल शिवसेना का समर्थन मिलता रहा है जो अब उसके विरोध  में है | लेकिन अपने वोट बैंक की खातिर वह  इस मुद्दे पर केंद्र सरकार का साथ दे दे तो आश्चर्य नहीं होगा | बाकी दल मुस्लिम वोटों की खातिर समान नागरिक संहिता का विरोध करते हैं | लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने जिस आधार पर केंद्र को निर्देश दिया उसके पीछे बड़े ही व्यवहारिक कारण बताये गये हैं | मौजूदा समय में दूसरी जाति ही नहीं वरन दूसरे धर्म में भी ऐसे  विवाह होने लगे हैं जिसमें कुछ मामलों में पति और पत्नी अपना मूल धर्म नहीं छोड़ते लेकिन जब तलाक़ की नौबत आती है तब उस प्रकरण का निपटारा किस क़ानून के अंतर्गत हो ये समस्या सामने आ जाती है | संदर्भित मामले में पत्नी द्वारा मीणा समुदाय का अलग विवाह कानून होने की बात को अदालत ने स्वीकार नहीं किया लेकिन आदिवासी  सहित अनेक जातिगत समुदायों में उनके अपने सामाजिक कानून हैं | यही  देखते हुए न्यायाधीश महोदया ने समान नागरिक संहिता लागू करने की आवश्यकता व्यक्त करते हुए मौजूदा समय को उसके सर्वथा अनुकूल बताया | आज जब सभी राजनीतिक दल सामाजिक समरसता की जरूरत पर बल देते हैं तब समान नागरिक कानून उसमें सहायक ही बनेगा | संविधान में भी इस आशय की जरूरत व्यक्त की गई थी  | बेहतर होगा उक्त निर्देश को किसी पूर्वाग्रह अथवा दुराग्रह के बगैर लागू करने पर विचार हो | वैसे जो दल इसका विरोध करेंगे उनको याद रखना चाहिए कि लोकसभा में विशाल बहुमत वाली  स्व.राजीव गांधी की सरकार ने संसद के जरिये शाह बानो प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला उलटवाकर जो गलती की थी उसकी सजा कांग्रेस आज तक भुगत रही है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 9 July 2021

जाति के मकड़जाल में उलझकर रह गयी भारतीय राजनीति



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बीते बुधवार को किये गये मंत्रीमंडल विस्तार का सीधा प्रसारण विभिन्न टीवी चैनलों द्वारा किया जा रहा था | शपथ ले रहे मंत्रियों की शैक्षणिक योग्यता के साथ ही उनकी राजनीतिक यात्रा और पेशेवर अनुभव का जिक्र भी उद्घोषक द्वारा किया जाता रहा | लेकिन अनेक मंत्रियों के संक्षिप्त परिचय के साथ ये भी बताया  गया कि वे किस जाति के हैं | इसके पीछे उद्देश्य ये दर्शाना  था कि उस मंत्री की योग्यता का मापदंड शिक्षा  और अनुभव से ज्यादा उसकी जाति है और  वे उस जाति के ज्यादा - ज्यादा मत बटोरकर अपनी पार्टी के झोली में डालने में सक्षम हैं | वैसे ये बात किसी से छिपी नहीं है कि मंत्री पद के लिए ही नहीं वरन  सांसद और विधायक की उम्मीदवारी तय करते समय भी राजनीतिक पार्टियाँ जातिगत समीकरण को ध्यान में रखती हैं | ये सिलसिला कब से शुरू हुआ कहना कठिन है किन्तु आज के परिदृश्य में जाति सभी मुद्दों पर भारी पड़ने लगी है | नए मंत्रियों में अनेक उच्च शिक्षित होने के साथ ही काफी अनुभवी हैं लेकिन अनेक ऐसे भी हैं जिनकी काबिलियत उनकी जाति तक सीमित है | देश के लगभग सभी दल  जातिगत राजनीति के मकड़जाल में फंसे हैं | एक वामपंथी ही बचे थे किन्तु वे भी बंगाल के चुनाव में फुरफुरा शरीफ नामक मुस्लिम धार्मिक केंद्र के धर्मगुरु के साथ  गठबंधन में शामिल होने में नहीं सकुचाये | 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों को गोलबंद होने का अवसर दे दिया | उसका भारतीय राजनीति में जबरदस्त असर हुआ | मुख्यतः उप्र  और बिहार से शुरू हुई मंडल भावना पूरे देश में फ़ैल गयी | नतीजा ये हुआ कि उसके पहले तक केवल अनु. जाति और जनजाति की फ़िक्र करने वाली राजनीतिक पार्टियां पिछड़ी जातियों पर भी निगाह ज़माने लगीं | उनके बीच से नेतृत्व भी उभरने लगा | उसके बाद महादलित और महा पिछड़ी जातियों की खोज हुई और उनके मत दिलवाने वाले नेताओं को महिमामंडित किया जाने लगा | पहले - पहल तो राजनीति में  जाति की बात अपेक्षाकृत कम शिक्षित जन किया करते थे किन्तु आज का आलम ये है विदेशों से शिक्षा प्राप्त कर लौटे नेता पुत्रों तक को अपनी जाति से चिपका देखा जाता है | ऐसे समय में जब भारत आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए प्रयासरत हो तब इस तरह जाति आधारित राजनीतिक संस्कृति अटपटी लगती है | जिन दलित अथवा पिछड़ी जाति के  नेताओं ने स्वयं अपना  अथवा  बेटे - बेटियों का विवाह ऊंची कही जाने वाली जातियों में किया जब वे खुद जातिवादी नेता के तौर पर आचरण करते हैं तब दुःख होता है | भारत में जातिवाद सदियों पुराना है | इसके कारण उत्पन्न सामाजिक विषमता ने देश को गुलामी के जाल में फंसा दिया | समाज के  एक बड़े  वर्ग को  मुख्यधारा से वंचित रखा  गया |  महात्मा गांधी के अलावा  अनेक समाज सुधारकों ने जातिगत भेदभाव को खत्म करने का बड़ा आन्दोलन चलाया जिसमें उन्हें सफलता भी  हासिल हुई और आजादी की लड़ाई में सभी   जातियों ने बढ़ - चढ़कर हिस्सा लिया  | छुआछूत और जातिगत ऊंच -  नीच की भावना को खत्म करने में भी स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करने वाले नेताओं का अच्छा खासा योगदान रहा | लेकिन आजादी के बाद से वोटों की भूख ने समाज को खण्ड - खण्ड करने की प्रवृत्ति को जन्म दिया जिसकी वजह से सामाजिक विषमता समाप्त होने की बजाय और बढ़ती गई | परिणाम ये हुआ कि चुनावी गणित पूरी तरह से जाति पर आकर टिक गया | आश्चर्य इस बात का है कि  राजनीति में धार्मिक आधार पर मतदाताओं के  ध्रुवीकरण पर जो नेता  आसमान सिर पर उठाये घूमा करते हैं वे ही  जाति की राजनीति के सबसे बड़े ध्वजावाहक बने बैठे हैं | बेहतर हो समाचार माध्यम इस बारे में अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करते हुए चुनावी सर्वेक्षणों में जातिगत समीकरणों संबंधी जानकारी प्रसारित करने से परहेज करें | मसलन अगर शपथ ग्रहण करने वाले मंत्री की जाति टीवी चैनल वाले न बतलाते तो लोगों को उस बारे में कुछ पता नहीं चलता |  

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 8 July 2021

आर्थिक मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन से ही होगी नैया पार


 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल के दो साल  बीत जाने के बाद मंत्रीमंडल का जो  विस्तार किया वह राजनीतिक से ज्यादा   पेशेवर कार्यशैली का आभास कराता है | दो साल की  समीक्षा के बाद एक दर्जन मंत्रियों को एक झटके में हटा देना साहसिक निर्णय है | खास तौर पर रविशंकर प्रसाद , प्रकाश  जावडेकर ,रमेश पोखरियाल , संतोष गंगवार और डा हर्षवर्धन को हटाना आसान नहीं था | लेकिन जैसी  खबरें आ रही थीं उनके अनुसार प्रधानमंत्री बीते एक महीने से सभी मंत्रियों के कार्यों की समीक्षा कर रहे थे | कोरोना काल में सरकार का काम अनेक क्षेत्रों में न सिर्फ पिछड़ा अपितु उसके माथे विफलता का दाग भी लगने लगा था | बंगाल चुनाव के बाद मंत्रीमंडल का पुनर्गठन और मंत्रियों के विभागों में फेरबदल अपेक्षित भी था और आवश्यक  भी | उस दृष्टि से श्री मोदी ने जो किया वह स्वाभाविक प्रक्रिया ही है | उन्होंने अमित शाह , राजनाथ सिंह  नितिन गडकरी , एस जयशंकर , निर्मला सीतारमण और नरेन्द्र सिंह तोमर  को छोड़ शेष कैबिनेट मंत्रियों के विभागों में भी रद्दोबदल किया किन्तु सबसे आश्चर्यजनक बात रही श्रीमती सीतारमण को वित्त मंत्रालय  से नहीं हटाने की क्योंकि मोदी सरकार जिस मोर्चे पर सबसे ज्यादा आलोचना झेल रही है वह वित्त ही है |  आर्थिक मंदी के बाद कोरोना काल में लगाये गये लॉक डाउन ने उद्योग व्यापार के साथ ही रोजगार  की हालत बिगाड़कर रख दी है |  ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि नोट बंदी और जीएसटी  के अन्तर्निहित लाभ लोगों तक पहुँचने के पहले ही कोरोना आ धमका जिसने दूबरे में दो आसाढ़ की स्थिति उत्पन्न कर दी | हालाँकि पहली लहर में केंद्र सरकार के आपदा प्रबंधन को लोगों ने सराहा लेकिन उसके बाद दूसरी लहर के कहर ने न सिर्फ सरकार की छवि खराब की वरन जनता में नाराजगी भी उसके कारण बढी | स्वास्थ्य मंत्री डा हर्षवर्धन की छुट्टी इसी वजह से की गई |  बहरहाल नए मंत्रियों  के  चयन और पुरानों के विभागों में बदलाव से ये बात समझ में आती है कि प्रधानमन्त्री ने केवल उप्र ही नहीं बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव की व्यूहरचना भी दिमाग में रखी है | उप्र को  16 मंत्री देने के साथ ही उन्होंने बंगाल और महाराष्ट्र पर भी विशेष ध्यान दिया जो दूरगामी रणनीति का संकेत है | सबसे उल्लेखनीय बात ये है कि श्री मोदी ने   राजनीतिक और जातीय समीकरण साधे रखने के साथ ही चतुराई से मंत्रीमंडल में शैक्षणिक और पेशेवर और गुणवत्ता तथा अनुभव को महत्व देते हुए ऐसे चेहरों को सत्ता संचालन में अपना सहयोगी बनाया जो राजनीतिक दृष्टि से  भले ही प्रभावशाली नजर न आते हों लेकिन जो मंत्रालय उनको दिया गया उसका दायित्व निर्वहन करने में सफल होगे | इसका कारण ये है कि दूसरी पारी का 40 फीसदी कार्यकाल व्यतीत होने के बाद भी केंद्र सरकार जनमानस पर वैसा असर नहीं छोड़ पा रही जिसके लिए श्री मोदी जाने जाते हैं | ये बात सच है कि कोरोना ने सरकार के कामकाज पर बुरा असर डाला | महंगाई  विशेष रूप से पेट्रोल और डीजल की कीमतों ने कट्टर मोदी समर्थको तक को नारज कर दिया है | ब्रांड मोदी के चलते  भाजपा जिस तरह से निश्चित होकर बैठी थी वह स्थिति काफी बदल चुकी है | बंगाल चुनाव में हालाँकि कांग्रेस और वामदलों के सफाए ने पार्टी के लिए नई सम्भवनाओं के दरवाजे खोल दिए हैं लकिन राष्ट्रीय विकल्प की गैर मौजूदगी को विजय की स्थायी गारंटी नहीं माना जा सकता और ये बात श्री मोदी अच्छी तरह समझते हैं | विपरीत परिस्थितियों में चुनौतियों पर विजय हासिल करने में वे काफी पारंगत हैं | लेकिन ये भी सही है कि आत्मविश्वास का अतिरेक अप्रत्याशित पराजय का कारण बन जाता है | 2004 में स्व.  अटलबिहारी वाजपेयी अच्छी छ्वि के बाद भी स्व. प्रमोद महाजन के अति आत्मविश्वास की वजह से सत्ता गँवा बैठे थे | श्री मोदी उस अनुभव से बचने के प्रति सदैव सतर्क रहते हैं और यही गत दिवस हुए मंत्रीमंडल विस्तार में झलकता है | जहां तक बात आगामी लोकसभा चुनाव की है तो उनको पता है कि 2022 में होने वाले राज्यों  के चुनावों में भले ही भाजपा बाकी राज्यों में ज्यादा कुछ न कर पाए लेकिन उप्र और गुजरात में उसे सत्ता हासिल करने के साथ ही बड़ा बहुमत लाना होगा क्योंकि उप्र जहां राष्ट्रीय राजनीति में दबदबे के लिए जरूरी है वहीं गुज्ररात से प्रधानमन्त्री की साख जुडी हुई है | इस प्रकार प्रधानमन्त्री ने बड़ी ही चतुराई से मंत्रीमंडल की संरचना की है | उनको ये बात अच्छी तरह पता है कि मंत्रियों के चेहरे और प्रभाव से ज्यादा लोग सरकार के कामकाज से अपनी राय बनायेंगे और उस दृष्टि से श्री मोदी के पास समय कम और काम ज्यादा  है | शपथ ग्रहण के फौरन बाद विभागों का ऐलान दर्शाता है कि प्रधानमन्त्री ने भविष्य का पूरा तानाबाना बुन लिया है | और इसीलिये उम्मीद की जा सकती है कि अब सरकार तेजी से काम करेगी | लेकिन देखने वाली बात ये होगी कि आर्थिक मोर्चे पर उसका प्रदर्शन कैसा रहेगा क्योंकि आगामी राजनीतिक मुकाबलों में महंगाई और कारोबारी जगत के सामने आ रही परेशानियां ही फैसले का आधार बनेंगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 7 July 2021

वरना भीड़ के कंधों पर बैठकर जल्द आयेगी तीसरी लहर



लॉक डाउन खुलने के साथ ही बाजारों में भीड़ नजर आने लगी | इसके साथ ही पर्यटन स्थलों पर भी सैलानी टूट पड़े | शिमला के रास्ते में तो लंबा जाम लग गया | गत दिवस समाचार माध्यमों में देश की राजधानी दिल्ली की सडकों और बाजारों के  अलावा शिमला और मसूरी में उमड़े हुजूम के दृश्य प्रसारित होने के बाद सरकार की तरफ से ये चेतावनी आई कि यही हाल रहा तो लॉक डाउन में दी गई ढील वापिस ली जा सकती है | कोरोना की दूसरी लहर ने जो भयावह हालात  पैदा  किये  उनके मद्देनजर  अपेक्षा थी कि लोगों ने उनसे सबक लिया होगा | लॉक डाउन को शिथिल करने का निर्णय निश्चित रूप से मजबूरी का परिणाम है क्योंकि लोगों को हमेशा के लिए न तो घरों में रहने बाध्य किया जा सकता है  और न ही उद्योग - व्यापार को ठप्प रखा जा सकता है | सबसे ज्यादा नुकसान छोटा कारोबार करने वालों को हो रहा था |  दिहाड़ी मजदूरों की स्थिति भी ख़राब थी | दूसरी लहर का चरमोत्कर्ष गुजरने के साथ ही ज्योंही  कोरोना संक्रमण की रफ्तार धीमी होने लगी और टीकाकरण अभियान ने भी गति पकड़ी त्योंही  सरकार को लगा कि सामान्य गतिविधियाँ शुरू करना उचित रहेगा | और उसी के बाद लॉक डाउन में सीमित मात्रा में ही सही लेकिन छूट देते हुए विवाह सहित अन्य आयोजनों में आगंतुकों की अधिकतम संख्या तय कर दी गई | सरकारी आयोजन भी शारीरिक दूरी बनाये रखकर होने लगे | लेकिन इसका परिणाम पहली लहर के लॉक डाउन खोलने के बाद जैसा हुआ  | मसलन बाजारों में बेतहाशा  भीड़ और कोरोना से बचाव के प्रति लापरवाही | गत वर्ष कोरोना की पहली लहर के समय जनता , सरकार और चिकित्सक सभी इस आपदा से अनभिज्ञ थे किन्तु दो महीने के लॉक डाउन ने ये सिखा दिया  कि बीमारी क्या है और उससे कैसे बचा जा सकता है | हालांकि  लॉक डाउन में ढील दिये जाते ही  लोग सब भूल गये और वही कारण रहा कि कोरोना पहले से ज्यादा खतरनाक अंदाज में लौटा जिसमें  लाखों की बलि चढ़ गई | जैसे - तैसे देश उससे बाहर आया तो लॉक डाउन इस अपेक्षा  के साथ ढीला किया गया कि आम जन उस छूट का सदुपयोग करते हुए हालात  सामान्य बनाने में सहायक होंगे | हालाँकि सभी गैर जिम्मेदार और अनुशासनहीन हों ऐसा तो नहीं है किन्तु सार्वजनिक जगहों पर जो दृश्य नजर आ रहे हैं  उससे कोरोना की तीसरी लहर का आना सुनिश्चित लगने लगा है | देश भर से जिस प्रकार की जानकारी आ रही है उससे इस बात की पुष्टि हो रही है कि लॉक डाउन हटते ही लोगों में बेफिक्री आ गई है | जिन लोगों को कोरोना के दोनों टीके लग चुके हैं उनमें से अधिकतर को ये गुमान हो चला है कि वे  सुरक्षित हो गये हैं | उनका आत्मविश्वास पूरी तरह गलत नहीं है लेकिन  ये बात याद रखनी होगी कि टीका बेशक बचाव का कारगर तरीका है लेकिन उसके बाद संक्रमण नहीं  , होगा ये मान लेना गलत है | टीका तैयार करने वाले वैज्ञानिक  भी लगातार कहते रहे हैं कि टीका लगने के बाद संक्रमण होने पर वह अपेक्षाकृत कम घातक होगा और मरीज थोड़े से इलाज में स्वस्थ हो सकेगा | लेकिन यदि वह संक्रमण से बचा  रहना चाहता है तो उसे वे सभी सावधानियां बरतनी चाहिए जो शुरुवात  से सुझाई जा रही हैं | इस प्रकार तीसरी लहर का आगमन और उससे पैदा होने वाले खतरे की मात्रा जनता के बड़े वर्ग के आचरण पर निर्भर है | मौजूदा स्थिति तो पूरी तरह डराने वाली है | जिस तरह निडर होकर लोग बाजारों और पर्यटन स्थलों में बिना मास्क के  शारीरिक दूरी का पालन किये बगैर घूम फिर रहे हैं उसे देखते हुए तीसरी लहर के लिए ज्यादा इन्तजार नहीं करना पडेगा क्योंकि अभी तो आधी आबादी को पहला टीका तक नहीं लग पाया है | सरकार द्वारा लॉक डाउन में दी गई ढील वापिस लेने की चेतावनी पूरी तरह जरूरी और सही है | कोरोना से देशवासियों को बचाने की जिम्मेदारी बेशक सरकार की है लेकिन उसके निर्देशों तथा व्यवस्था का पालन करना जनता का फर्ज है | कोरोना या इस जैसी किसी भी आपदा से बचाव तभी संभव है जब सरकार और जनता दोनों के बीच समन्वय बना रहे | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 6 July 2021

साधनहीन निजी शिक्षण संस्थानों को भी मदद की जरूरत



कोरोना काल में सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में शिक्षा जगत भी है | सरकारी संस्थानों में तो फीस और वेतन का संकट नहीं आया लेकिन निजी विद्यालयों के सामने दोनों आकर खड़े हो गये | इस दौरान  जबरन फीस वसूली से अभिभावक और प्रशासन दोनों नाराज हुए | अभिभावकों की शिकायत गलत नहीं है क्योंकि कुछ चुनिन्दा संस्थानों को छोड़कर बाकी की ऑन लाइन पढ़ाई काम चलाऊ थी | जबकि फीस  वसूली में कोई कोताही नहीं की गई | इस बारे में अभिभावकों का कहना था कि विद्यालय बंद रहने से उसके खर्चे कम हुए इसलिए फीस घटानी चाहिए थी | दूसरी तरफ प्रबंधन का तर्क है  कि ऑन लाइन शिक्षा हेतु उनको अतिरिक्त इंतजाम करने पड़े और शिक्षकों को  भी विद्यालय बुलाना पड़ा | यद्यपि ये भी पता चला है कि निजी क्षेत्र के अधिकतर विद्यालयों ने शिक्षकों सहित शेष कर्मचारियों के वेतन घटा दिये और बहुतों को अलग भी कर दिया | मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विगत दिवस ये ऐलान किया कि कोरोना की तीसरी लहर की आशंका समाप्त होने तक विद्यालय नहीं खुलेंगे | साथ ही उन्होंने ये  आदेश भी  दे दिया कि न तो शिक्षण शुल्क बढ़ेगा और न ही किसी अन्य प्रकार की वसूली विद्यालय कर पाएंगे | हालाँकि मुख्यमंत्री ने ये स्वीकार किया कि निजी विद्यालयों के सामने  शिक्षकों का वेतन देने की समस्या है | निश्चित रूप से ये व्यवहारिक प्रश्न है | फीस का भुगतान करने में अभिभावकों को जहां परेशानी आ रही है वहीं प्रबंधन के सामने वेतन देने की समस्या है | ऐसे में सरकार को चाहिये वह निजी संस्थानों की आर्थिक स्थिति का सही आकलन करते हुए शिक्षकों के वेतन में अपनी तरफ से कुछ अंशदान दे अन्यथा  उनको फीस बढ़ाने अथवा अन्य शुल्क वसूलने से रोकने के फरमान हवा में उड़ा दिए जायेंगे | हालाँकि अधिकतर निजी शिक्षण संस्थान  दूध के धुले नहीं हैं | फ़ीस के साथ तरह - तरह के शुल्क वसूलने के मामले में वे कुख्यात हो चले हैं | सरकार समय - समय पर अपना डंडा चलाती रहती है लेकिन उसका असर इसलिए नहीं होता क्योंकि अधिकतर बड़े निजी विद्यालय या तो राजनेताओं के परिजनों द्वारा संचालित हैं या फिर उनके संचालकों का राजनेताओं से करीबी रिश्ता होता है | सही  मायनों में इन्हीं के कारण शिक्षा का व्यापारीकरण होता गया | कोरोना काल में भी इन विद्यालयों ने दबाव डालकर पूरी फीस वसूली किन्तु शिक्षकों का वेतन देने में भाँजी मार गये | हालांकि अधिकतर की आर्थिक हालत खराब हो गयी | मुख्यमंत्री  वाकई चाहते हैं कि निजी संस्थान शिक्षण  शुल्क बढ़ाने और  बाकी वसूली से परहेज करें तो  उनके आर्थिक हितों के बारे में भी सोचा  जाना चाहिए | मुख्यमंत्री की इस बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने समस्या के दोनों पक्षों पर ध्यान दिया | लेकिन केवल अपेक्षा कर देने से निजी शिक्षण संस्थान उनकी बात मान लेंगे ये सोचना गलत होगा क्योंकि उनके लिए  भी कोरोना काल मुसीबत बनकर आया है । दरअसल  मोटी कमाई करने वाले तो गिने चुने होते हैं जबकि बाकी किसी  तरह अपना काम चलाते हैं  | नामी - गिरामी निजी संस्थानों को तो फिर भी शिक्षण शुल्क  वगैरह मिलते रहे जबकि बड़ी संख्या उनकी है जो अभिभावकों पर दबाव डालने की हैसियत नहीं रखते | उल्लेखनीय है आजकल निम्न मध्यम वर्ग भी अपने बच्चों को निजी विद्यालय में पढ़ाने लगा है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 5 July 2021

प्रकृति के संकेतों को अब भी समझ लें तो गनीमत है वरना ....



देश की राजधानी दिल्ली में एक जुलाई को पारा 43.5 डिग्री जा पहुंचा | आम तौर पर जुलाई महीने में इतनी गर्मी नहीं पड़ती | इसी तरह की खबरें देश के अन्य हिस्सों से भी आ रही हैं | यद्यपि केरल में मानसून का आगमन निर्धारित तिथि से दो  दिन बाद होने के उपरांत अनेक राज्यों में मानसूनी बौछारें होने से मौसम खुशनुमा हो गया था | मौसम विभाग के मुताबिक तो जून में  औसत से ज्यादा वर्षा  हो गयी परन्तु उसके बाद उसमें विराम आ गया | जिन किसानों ने अच्छी बरसात होते ही धान की फसल बोनी  शुरू कर दी वे अब चिंतित हैं क्योंकि तेज गर्मी से पौधे खराब हो जायेंगे | इसके अलावा गर्मी की वापिसी से जनजीवन भी प्रभावित हो रहा  है |  अन्तरिक्ष  विज्ञान मौसम का पूर्वानुमान लगाने के बारे में काफी सहायक साबित हुआ है किन्तु प्रकृति उसे समय - समय पर चकमा देने मे कामयाब हो जाती है जिसका प्रमाण इस वर्ष मानसून का अच्छी शुरुवात के बाद  शिथिल पड़ना है |  लेकिन ये स्थिति केवल भारत की हो ऐसा नहीं है | सही बात तो ये है कि प्रकृति भी अपनी  चाल - ढाल बदल रही है | इसका ताजा  उदाहरण कैनेडा है जहाँ की गर्मियां भी हमारे देश की सर्दियों से ज्यादा ठन्डी होती हैं लेकिन इन दिनों वहां कुछ हिस्सों में तापमान के 50 डिग्री पहुंच जाने  से हाहाकार मचा  है | जंगलों में आग तक लग गई | सैकड़ों की जान जा चुकी है | गर्मी नहीं पड़ने से वहां  घरों में एयर कंडीशनर लगाने का चलन नहीं है | ऐसे में जब गर्मी ने बेहाल किया तो प्रशासन ने  स्टेडियमों में एयर कंडीशनर लगवाकर लोगों को  काम करने तथा सोने की सुविधा प्रदान की | सड़कों पर टैंकरों से पानी का छिड़काव भी किया जा रहा है | दूसरी तरफ न्यूजीलैंड में तापमान शून्य से भी 4 डिग्री नीचे चला गया है जिसकी वजह से वहां की जनता शीतलहर से कांप रही है | इन वृतांतों से आशय यही है कि पृथ्वी के विभिन्न भागों के मौसम में साल दर साल बदलाव आता जा रहा है | यदि यह मानव जीवन के साथ ही पृथ्वी के भविष्य के लिए लाभदायक होता तब उसका सभी स्वागत करते लेकिन जो और जैसा हो रहा है वह आने वाली पीढ़ी के लिए खतरों का ऐलान है | हिमालय सहित उत्तरी ध्रुव की बर्फ का भण्डार निरंतर घटता जा रहा है | ग्लेशियरों के सिकुड़ने  से गंगा जैसी अनेक बड़ी नदियों का भविष्य अंधकारमय है जिसका परिणाम सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं | समुद्र का जलस्तर बढ़ने से दुनिया के अनेक नगर ही नहीं  वरन मालदीव जैसे देश और बाली ( इंडोनेशिया ) नामक ऐतिहासिक जगह डूबने की कगार पर है | अमेरिका में जंगलों की आग और समुद्री तूफ़ान आम बात होती जा रह है | समय - समय पर पृथ्वी के नष्ट हो जाने की भविष्यवाणी भी होने लगी है | भले ही उनमें अतिशयोक्ति का पुट रहता हो लेकिन उनको पूरी तरह नजरअंदाज करना भी मूर्खता होगी क्योंकि प्रकृति के आचरण में कोई भी परिवर्तन अकारण नहीं होता | वह किसी न किसी क्रिया की  प्रतिक्रिया ही होती है | बढ़ते तापमान से मौसम संबंधी बदलाव एक दिन में नहीं हुए | यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो अब खतरनाक रूप में सामने आ रही है | मानसून के नखरे भी अकारण नहीं हैं | अनावृष्टि के साथ अतिवृष्टि का प्रकोप भी प्रकृति के कोप का परिणाम है | दुःख इस बात का है कि प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा का काम नारों तक सिमटकर रह गया है | विकसित देशों में  ज्यादा से ज्यादा  उत्पादन कर दुनिया भर से धन कमाने की जो ललक है उसने पर्यावरण  का सत्यानाश कर दिया | उनकी नकल करते हुए बाकी देश भी विकास की आड़ में पर्यावरण पर अत्याचार करने से बाज नहीं आ रहे | दिल्ली और कैनेडा में एक जैसी गर्मी काफी कुछ कह रही है | यदि इन संकेतों को समझ लिया जावे तो अब भी आने वाले खतरों से बचा जा सकता है अन्यथा ये कहना गलत नहीं होगा कि हम अपने विनाश के लिए खुद जिम्मेदार हैं |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 3 July 2021

अभिभाषण : न पढ़ा गया न सुना गया तो धन्यवाद का औचित्य क्या



प.बंगाल की विधानसभा के बजट सत्र का शुभारम्भ हंगामे से हुआ |  सदन में  भाजपा विधायकों ने जोरदार होहल्ला  किया |   राज्यपाल जगदीप धनखड़  बिना अभिभाषण पढ़े ही लौट गए | दरअसल वे चाहते थे कि उसमें  चुनाव बाद की  हिंसा का  भी उल्लेख हो लेकिन ममता  सरकार ने वैसा नहीं किया |  इस वजह से महामहिम सदन में आने की  औपचारिकता पूरी करते हुए चलते बने | वैसे ये कोई पहला अवसर नहीं है जब राज्यपाल के अभिभाषण में इस तरह का व्यवधान और  उसकी विषयवस्तु पर मतभेद उजागर हुए हों |  राज्य और केंद्र में  अलग विचारधारा की सरकार होने से राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच मतभेद आम हो चले  हैं | बंगाल में तो ममता बनर्जी और श्री धनखड़ के बीच जिस तरह के आरोप - प्रत्यारोप होते हैं वे न सिर्फ संवैधानिक  मर्यादाओं की सीमा को भी लांघ जाते हैं वरन उनमें शालीनता का भी  अभाव होता है | बीते दिनों तो मुख्यमंत्री ने हवाला कांड में राज्यपाल का नाम होने के आधार पर  उन्हें भ्रष्ट तक कह दिया था | दूसरी तरफ श्री धनखड़ भी राज्य  सरकार के बारे में सार्वजनिक रूप से जो टिप्पणियाँ करते  हैं उनमें से कुछ  राजनीतिक होने से उनको शोभा नहीं देतीं | ये स्थिति केवल बंगाल में ही नहीं है | जिन - जिन राज्यों की गैर भाजपा सरकारों की केंद्र के साथ पटरी नहीं बैठती वहां राज्यपाल और  मुख्यमंत्री में टकराहट चलती रहती है | हालाँकि विपरीत विचारधारा के राज्यपाल के साथ मुख्यमंत्री के अच्छे सम्बन्ध  भी कुछ राज्यों में रहे लेकिन अधिकतर में विवाद ही देखने मिलते हैं | वैसे संविधान की दुहाई तो सभी राजनीतिक दल देते  हैं  लेकिन शासन का संचालन करते समय निहित  स्वार्थ भारी पड़ जाते हैं | राज्य सरकारें भी जनादेश के घमंड में राजभवन की अवहेलना करने का दुस्साहस करने से बाज नहीं आतीं | जहाँ तक अभिभाषण पढ़ने  की बात है तो उसे लेकर मतभेद होना स्वाभाविक हैं | इसलिए इस परम्परा को समाप्त कर देना ही बेहतर होगा |  दरअसल  जिस तरह राज्यपाल से राजनीति अपेक्षित नहीं है उसी तरह राज्य सरकार द्वारा तैयार भाषण अपनी इच्छा के विरुद्ध पढ़ने के लिए  उनको बाध्य किया  जाना भी अनुपयुक्त और अव्यवहारिक लगता है | यदि इस पद पर नियुक्त होने वाले गैर  राजनीतिक पृष्ठभूमि से हों तब तो उनके पूर्वाग्रह या दुराग्रह से मुक्त रहने की अपेक्षा की जा सकते है | लेकिन राजनीति से जुड़े रहे व्यक्ति से ये उम्मीद  करना बेमानी है | उस दृष्टि से बंगाल में जो हुआ उसे अशोभनीय कहने के बाद भी रोक पाना असम्भव है | केंद्र में भी  ये स्थिति बनती रही है लेकिन राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के बीच सम्बन्धों में मतभेदों के बाद भी कटुता का वह रूप देखने नहीं मिला जो बंगाल में रोजाना ही  दिख जाता  है | इसका एक कारण राष्ट्रपति   का बयानबाजी से परहेज करना  है लेकिन अपनी मर्जी के विरुद्ध अभिभाषण पढ़ना उनके लिए भी पीड़ादायक होता होगा | इसका वैकल्पिक तरीका ये भी हो सकता है कि राष्ट्रपति  या राज्यपाल बजट सत्र के शुभारंभ पर सदन में आयें और प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री सदन की ओर से उनका स्वागत करते  हुए अपनी सरकार की उपलब्धियों का ब्यौरा पेश करें | ये संवैधानिक प्रमुख के समक्ष एक तरह की सार्वजानिक रिपोर्टिंग होगी | बाद में सदन महामहिम के आगमन के लिए धन्यवाद प्रस्ताव पेश करे | ऐसा होने पर संवैधानिक पद के साथ ही सरकार के मुखिया का  सम्मान  और संसदीय प्रजातन्त्र की गरिमा भी बनी रहेगी | हालाँकि इसे लेकर काफी समय से बहस चलती आ रही है लेकिन यथास्थिति के प्रति अनुराग के चलते परम्पराओं को ढोया जा रहा है | आजादी के बाद संविधान में दर्जनों बदलाव किये जा चुके हैं | मोदी  सरकार ने ढेर सारे अनुपयोगी कानूनों की विदाई करवा दी | ऐसे में लगे हाथ अभिभाषण नामक इस बोझिल रस्म को भी अंतिम विदाई देने का ये सही समय है | वैसे भी ये परम्परा ब्रिटेन से ली गई है  जहाँ संसदीय प्रजातंत्र और  राजतंत्र का मिला जुला रूप देखने मिलता है | लेकिन भारत में राष्ट्रपति जहाँ अप्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा ही चुना जाता है वहीं राज्यपाल की नियुक्ति  चुनी हुई केंद्र सरकार की सलाह से राष्ट्रपति करते हैं | इसलिए उनको ब्रिटिश शाही परिवार जैसा मानना गलत है | बंगाल विधानसभा में कल जो हुआ वह इस बहस को अंजाम तक ले जाने का नया आधार है | जिस  अभिभाषण को न तो राज्यपाल ने पढ़ा और न ही सदन ने सुना उस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित करना संविधान का मखौल नहीं तो और क्या कहा जाएगा ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 2 July 2021

हिन्दू कार्ड चलकर अमरिंदर ने कई निशाने साधे



पंजाब कांग्रेस में चल रही खींचतान के बीच गत दिवस ये खबर तेजी से फैली कि मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिन्दर सिंह के  विरोध में बगावत का झंडा उठाये घूम रहे नवजोत सिंह सिद्धू को बड़ी जिम्मेदारी दी जायेगी |  हालाँकि ये स्पष्ट नहीं हुआ कि उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाया जावेगा या फिर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष | लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ी अमरिंदर ने गत दिवस हिन्दू नेताओं को दोपहर भोज पर बुलाकर पार्टी अध्यक्ष का पद किसी हिन्दू नेता को दिए जाने की मांग उछलवा दी | भोज  में कुछ मंत्री और विधायकों के अलावा अन्य नेता भी शामिल हुए | दरअसल इस तरह  मुख्यमंत्री ने एक साथ कई निशाने साधे | कांग्रेस आलाकमान भी जानता है कि  सिद्धू को उपमुख्यमंत्री बनाना आसान  नहीं होगा क्योंकि  वरिष्ठ मंत्री इससे नाराज हो सकते हैं  | इसीलिये उसने प्रदेश अध्यक्ष बनाकर नवजोत को ठंडा करने का विकल्प  सोचा  | लेकिन अमरिंदर ने ऐसा होने के पहले ही हिन्दू कार्ड चल दिया  जो राजनीतिक तौर पर बेहद दूरदर्शिता पूर्ण है | इसकी दो वजहें हैं | सबसे पहली तो ये कि भाजपा और अकाली दल का दशकों से चला रहा गठबंधन टूटने  के बाद हिन्दू मतदाता पशोपेश में है | उसकी पहली पसंद यद्यपि आज भी भाजपा हे  लेकिन  बिना अकालियों के सहयोग के भाजपा का अकेले दम पर जीतना बहुत मुश्किल होगा और ऐसे में हिन्दू मतदाता नहीं  चाहेंगे कि उनका मत बेकार जावे | दूसरा कारण ये है कि हिन्दुओं के मत में सेंध लगाने का प्रयास आम आदमी पार्टी भी कर रही है लेकिन उसके पास  स्थानीय तौर पर ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिसके नाम पर जनादेश मांगा जावे | जहां तक बात अरविन्द केजरीवाल की है तो जिस तरह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का जादू प्रदेश स्तर पर उतना कारगर नहीं हो पाता वही स्थिति अरविन्द के साथ है | इसी कारण आम आदमी पार्टी दिल्ली जैसा प्रदर्शन दूसरे राज्यों में नहीं दोहरा पाती | अमरिन्दर सिंह ने इस बात को भांप लिया है कि भाजपा और अकाली दल के झगड़े से हिन्दू मतदाता फिलहाल भ्रमित है | ऐसे में उन्होंने बहुत ही  सोची - समझी रणनीति के अंतर्गत हिन्दू प्रदेश अध्यक्ष की चर्चा छिड़वा  दी | राज्य  के मौजूदा हालात में भाजपा की सत्ता बनने की सम्भावना शून्य है | पार्टी पांच विधायक भी जिता ले तो बड़ी बात होगी | उसका परम्परागत मतदाता अकालियों के साथ जायेगा नहीं और श्री केजरीवाल की लाख कोशिशों के बावजूद पंजाब में आम आदमी पार्टी की सत्ता बनने की सम्भावना  कम ही है | ऐसे में अगर हिन्दू मतदाताओं को अपनी तरफ खींच सके तो कांग्रेस की डगमगाती नैया आसानी से पार हो जायेगी | अमरिंदर सिंह का ये  हिन्दू कार्ड पार्टी के आला कमान के गले की हड्डी बन सकता है क्योंकि  पंजाब में लगभग 15 सीटें ऐसी हैं जहाँ हिन्दू मतदाता  पलड़े को इधर से उधर झुकाने में सक्षम हैं | बाकी सीटों पर उनकी सीमित संख्या भी कांग्रेस को आम आदमी  पार्टी से होने वाले सम्भावित नुकसान से उबार सकती है | इस प्रकार कैप्टेन ने नवजोत की ताबड़तोड़ बल्लेबाजी को रोकने के लिए जबरदस्त क्षेत्ररक्षण जमाया है | सिद्धू क्रिकेट के मैदान के बड़े  खिलाड़ी रहे हैं लेकिन अमरिंदर  भी राजनीति के खेल में लंबे समय से टिके हुए हैं | कांग्रेस आलाकमान ये जानता है कि कैप्टेन को ज्यादा घेरने पर वे झपट्टा मारकर बाहर निकल सकते हैं | किसान आन्दोलन को प्रायोजित  करने से  उनका अपना निजी  समर्थक वर्ग तैयार हो चुका है | ऐसे में हिन्दू मतदाताओं को लुभाकर वे  नए क्षेत्रीय छत्रप बनने की सोच रहे हों  तो गलत नहीं होगा | वैसे भी अकाली नेता  प्रकाश सिंह बादल के अस्वस्थ हो जाने के बाद पंजाब में अमरिंदर ही सबसे अनुभवी और सुपरिचित चेहरे हैं | रही बात नवजोत की तो उनकी छवि अभी भी गम्भीर राजनेता की बजाय कामेडी नाइट जैसे टीवी शो में बैठकर ठहाके लगाने वाले की ही है | हिन्दू प्रदेश अध्यक्ष बनाने में यदि मुख्यमंत्री सफल हो गये तो उसे  हिन्दुओं और सिखों के बीच चौड़ी हो रही खाई को पाटने का बड़ा प्रयास कहा जाएगा | जिसका विरोध करना भाजपा के लिए भी मुश्किल  होगा |

-रवीन्द्र वाजपेयी