Monday 26 July 2021

वोटों की खरीदी : इतने बड़े अपराध की इतनी मामूली सजा



हमारे देश में चुनाव आचार संहिता मजाक बनकर रह गई है | हालांकि स्व. टी. एन . शेषन ने चुनाव आयोग को उसकी ताकत का एहसास करवाते हुए चुनाव सुधारों को लागू करने में ऐतिहासिक योगदान दिया और  सतही तौर पर उसका असर दिखाई भी  देता है किन्तु वास्तविकता के धरातल पर देखें तो चुनावों में धन के बेतहाशा उपयोग पर रोक लगाने में रत्ती  भर भी  सफलता नहीं मिली , उलटे चुनाव दर चुनाव खर्च बढ़ता  ही जा रहा है | महंगाई को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग खर्च की जो सीमा तय करता है  वह पर्याप्त दिखने के बाद  भी कम पड़ती है क्योंकि चुनाव प्रबंधन अब पूरी तरह व्यावसायिक होकर रह गया है | कैडर आधारित पार्टियों के कार्यकर्ता भी निःस्वार्थ भाव से काम नहीं करते | इसी तरह मतदाताओं को पैसा और शराब के अलावा सामान बाँटने जैसा काम भी खुले आम नहीं होता हो लेकिन उसे  रोकने में चुनाव आयोग और प्रशासन लाख कोशिशों के बाद भी पूरी तरह सफल नहीं हो सका है | कहने को हर चुनाव में बड़ी मात्रा में नगदी और शराब की पेटियां जप्त होती हैं और छोटे – बड़े तमाम नेताओं – कार्यकर्ताओं पर उसके लिए मुकदमे भी दर्ज किये किये जाते हैं किन्तु चुनाव बाद उनका क्या हश्र होता है ये पता ही नहीं चलता | आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध होने वाली कार्रवाई भी चुनाव निपटते ही ठंडे बस्ते में चली जाती है | इसी का परिणाम है कि चुनाव आयोग कागजी शेर बनकर रह गया है | इसीलिए गत दिवस जब  तेलंगाना राष्ट्र समिति की लोकसभा सदस्य मलोत कविता को चुनाव में मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करने के  लिए 500 रु. बांटे जाने के आरोप में छह माह की सजा और 10 हजार रु. के जुर्माने की सजा अदालत द्वारा सुनाये जाने की खबर मिली  तो आश्चर्य से ज्यादा हंसी आई  | उनके जिस  साथी शौकत को चुनाव के दौरान उड़न दस्ते ने  मतदाताओं को 500 - 500 रु.  नगद बांटते हुए पकड़ा था , उसने अदालत में  अपना जुर्म स्वीकार भी कर लिया | चूंकि सजा की अवधि दो साल से कम है इसलिए सुश्री कविता की लोकसभा सदस्यता रद्द नहीं हुई और  तत्काल जमानत के साथ ही  उच्च न्यायालय में अपील की अनुमति भी दे दी गई | लेकिन  एक बात तो सामने आ ही गई कि चुनाव में मतदाताओं को आकर्षित  करने के लिए नगदी बांटने का  तरीका अभी भी उपयोग किया जाता है |  इससे  साबित होता है कि उम्मीदवार और उनको  पेश करने वाले राजनीतिक दलों में जनता का विश्वास जीतने का आत्मविश्वास नहीं रहता | इसीलिये उनको इस तरह के घटिया हथकंडे अपनाना पड़ते हैं | लेकिन संदर्भित मामले में सबसे अधिक विचारणीय बात ये है कि जिस महिला सांसद को 500 – 500 रु. बांटने के आरोप में छह माह  की सजा हुई है यदि वह अपील  न करे और जेल चली जाए तब भी  उसके सदस्यता बरक़रार रहेगी क्योंकि वर्तमान कानूनी व्यवस्था में दो वर्ष या अधिक की सजा पर ही सदस्यता समाप्त होने का प्रावधान है | वैसे भी लोकसभा चुनाव हुए दो साल बीत चुके हैं और यदि सुश्री कविता को  उच्च न्यायालय से राहत न मिली तब वे सर्वोच्च न्यायालय में अपील किये बिना नहीं रहेंगी और तब तक क्या पता उनका कार्यकाल ही पूरा हो जावे | और फिर ये सवाल भी ध्यान देने योग्य है कि इतने बड़े अपराध के लिए इतनी मामूली सजा क्या कम नहीं है ? जिन लोगों को जनता कानून बनाने वाली संस्था का सदस्य चुनती है उनके द्वारा इस तरह की ओछी हरकत किया जाना लोकतान्त्रिक व्यवस्था के नाम पर धब्बा है | भले ही सांसद महोदया कितनी भी सफाई दें  लेकिन जब नगदी बांटने वाले उनके साथी ने ही  अपराध मान लिया तब फिर कहने को और कुछ रह भी कहाँ जाता है ? बहरहाल ये तो महज बानगी है | अगर चुनाव आयोग और प्रशासन चुनाव के दौरान पूरी मुस्तैदी से काम करे तो इस तरह के सैकड़ों प्रकरण उजागर किये जा सकते हैं | आजादी के 75 वें वर्ष की ओर कदम बढ़ा रहे देश का संसदीय लोकतंत्र आज तक पूरी तरह प्रामाणिक और पारदर्शी नहीं बन सका ये दुःख के साथ ही चिंता का भी विषय है | ज़रा – जरा सी बात पर संसद की कार्रवाई बाधित करने वाले सम्मानीय सांसद  अपने बीच बैठने वाले भ्रष्ट सदस्यों के आचरण के  बारे में आवाज नहीं उठाते ये देखकर आश्चर्य होता है | सुश्री कविता को भले ही उच्च न्यायालय में अपील करने के अधिकार के तहत जमानत मिल गई हो परन्तु  वे किस मुंह से संसद में बैठेंगी ये सोचने वाली बात है | लेकिन जिस संसद भवन  के भीतर घूसखोरी हुई और रुपया थामने वाले महज इस कारण बच गये कि उस परिसर में  हुए अपराध अदालत की पहुंच से बाहर होते हैं तब शर्म और नैतिकता की  गुंजाईश ही कहाँ रह जाती है ? 

-रवीन्द्र वाजपेयी 


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