Friday 9 July 2021

जाति के मकड़जाल में उलझकर रह गयी भारतीय राजनीति



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बीते बुधवार को किये गये मंत्रीमंडल विस्तार का सीधा प्रसारण विभिन्न टीवी चैनलों द्वारा किया जा रहा था | शपथ ले रहे मंत्रियों की शैक्षणिक योग्यता के साथ ही उनकी राजनीतिक यात्रा और पेशेवर अनुभव का जिक्र भी उद्घोषक द्वारा किया जाता रहा | लेकिन अनेक मंत्रियों के संक्षिप्त परिचय के साथ ये भी बताया  गया कि वे किस जाति के हैं | इसके पीछे उद्देश्य ये दर्शाना  था कि उस मंत्री की योग्यता का मापदंड शिक्षा  और अनुभव से ज्यादा उसकी जाति है और  वे उस जाति के ज्यादा - ज्यादा मत बटोरकर अपनी पार्टी के झोली में डालने में सक्षम हैं | वैसे ये बात किसी से छिपी नहीं है कि मंत्री पद के लिए ही नहीं वरन  सांसद और विधायक की उम्मीदवारी तय करते समय भी राजनीतिक पार्टियाँ जातिगत समीकरण को ध्यान में रखती हैं | ये सिलसिला कब से शुरू हुआ कहना कठिन है किन्तु आज के परिदृश्य में जाति सभी मुद्दों पर भारी पड़ने लगी है | नए मंत्रियों में अनेक उच्च शिक्षित होने के साथ ही काफी अनुभवी हैं लेकिन अनेक ऐसे भी हैं जिनकी काबिलियत उनकी जाति तक सीमित है | देश के लगभग सभी दल  जातिगत राजनीति के मकड़जाल में फंसे हैं | एक वामपंथी ही बचे थे किन्तु वे भी बंगाल के चुनाव में फुरफुरा शरीफ नामक मुस्लिम धार्मिक केंद्र के धर्मगुरु के साथ  गठबंधन में शामिल होने में नहीं सकुचाये | 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों को गोलबंद होने का अवसर दे दिया | उसका भारतीय राजनीति में जबरदस्त असर हुआ | मुख्यतः उप्र  और बिहार से शुरू हुई मंडल भावना पूरे देश में फ़ैल गयी | नतीजा ये हुआ कि उसके पहले तक केवल अनु. जाति और जनजाति की फ़िक्र करने वाली राजनीतिक पार्टियां पिछड़ी जातियों पर भी निगाह ज़माने लगीं | उनके बीच से नेतृत्व भी उभरने लगा | उसके बाद महादलित और महा पिछड़ी जातियों की खोज हुई और उनके मत दिलवाने वाले नेताओं को महिमामंडित किया जाने लगा | पहले - पहल तो राजनीति में  जाति की बात अपेक्षाकृत कम शिक्षित जन किया करते थे किन्तु आज का आलम ये है विदेशों से शिक्षा प्राप्त कर लौटे नेता पुत्रों तक को अपनी जाति से चिपका देखा जाता है | ऐसे समय में जब भारत आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए प्रयासरत हो तब इस तरह जाति आधारित राजनीतिक संस्कृति अटपटी लगती है | जिन दलित अथवा पिछड़ी जाति के  नेताओं ने स्वयं अपना  अथवा  बेटे - बेटियों का विवाह ऊंची कही जाने वाली जातियों में किया जब वे खुद जातिवादी नेता के तौर पर आचरण करते हैं तब दुःख होता है | भारत में जातिवाद सदियों पुराना है | इसके कारण उत्पन्न सामाजिक विषमता ने देश को गुलामी के जाल में फंसा दिया | समाज के  एक बड़े  वर्ग को  मुख्यधारा से वंचित रखा  गया |  महात्मा गांधी के अलावा  अनेक समाज सुधारकों ने जातिगत भेदभाव को खत्म करने का बड़ा आन्दोलन चलाया जिसमें उन्हें सफलता भी  हासिल हुई और आजादी की लड़ाई में सभी   जातियों ने बढ़ - चढ़कर हिस्सा लिया  | छुआछूत और जातिगत ऊंच -  नीच की भावना को खत्म करने में भी स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करने वाले नेताओं का अच्छा खासा योगदान रहा | लेकिन आजादी के बाद से वोटों की भूख ने समाज को खण्ड - खण्ड करने की प्रवृत्ति को जन्म दिया जिसकी वजह से सामाजिक विषमता समाप्त होने की बजाय और बढ़ती गई | परिणाम ये हुआ कि चुनावी गणित पूरी तरह से जाति पर आकर टिक गया | आश्चर्य इस बात का है कि  राजनीति में धार्मिक आधार पर मतदाताओं के  ध्रुवीकरण पर जो नेता  आसमान सिर पर उठाये घूमा करते हैं वे ही  जाति की राजनीति के सबसे बड़े ध्वजावाहक बने बैठे हैं | बेहतर हो समाचार माध्यम इस बारे में अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करते हुए चुनावी सर्वेक्षणों में जातिगत समीकरणों संबंधी जानकारी प्रसारित करने से परहेज करें | मसलन अगर शपथ ग्रहण करने वाले मंत्री की जाति टीवी चैनल वाले न बतलाते तो लोगों को उस बारे में कुछ पता नहीं चलता |  

- रवीन्द्र वाजपेयी


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