Saturday 3 July 2021

अभिभाषण : न पढ़ा गया न सुना गया तो धन्यवाद का औचित्य क्या



प.बंगाल की विधानसभा के बजट सत्र का शुभारम्भ हंगामे से हुआ |  सदन में  भाजपा विधायकों ने जोरदार होहल्ला  किया |   राज्यपाल जगदीप धनखड़  बिना अभिभाषण पढ़े ही लौट गए | दरअसल वे चाहते थे कि उसमें  चुनाव बाद की  हिंसा का  भी उल्लेख हो लेकिन ममता  सरकार ने वैसा नहीं किया |  इस वजह से महामहिम सदन में आने की  औपचारिकता पूरी करते हुए चलते बने | वैसे ये कोई पहला अवसर नहीं है जब राज्यपाल के अभिभाषण में इस तरह का व्यवधान और  उसकी विषयवस्तु पर मतभेद उजागर हुए हों |  राज्य और केंद्र में  अलग विचारधारा की सरकार होने से राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच मतभेद आम हो चले  हैं | बंगाल में तो ममता बनर्जी और श्री धनखड़ के बीच जिस तरह के आरोप - प्रत्यारोप होते हैं वे न सिर्फ संवैधानिक  मर्यादाओं की सीमा को भी लांघ जाते हैं वरन उनमें शालीनता का भी  अभाव होता है | बीते दिनों तो मुख्यमंत्री ने हवाला कांड में राज्यपाल का नाम होने के आधार पर  उन्हें भ्रष्ट तक कह दिया था | दूसरी तरफ श्री धनखड़ भी राज्य  सरकार के बारे में सार्वजनिक रूप से जो टिप्पणियाँ करते  हैं उनमें से कुछ  राजनीतिक होने से उनको शोभा नहीं देतीं | ये स्थिति केवल बंगाल में ही नहीं है | जिन - जिन राज्यों की गैर भाजपा सरकारों की केंद्र के साथ पटरी नहीं बैठती वहां राज्यपाल और  मुख्यमंत्री में टकराहट चलती रहती है | हालाँकि विपरीत विचारधारा के राज्यपाल के साथ मुख्यमंत्री के अच्छे सम्बन्ध  भी कुछ राज्यों में रहे लेकिन अधिकतर में विवाद ही देखने मिलते हैं | वैसे संविधान की दुहाई तो सभी राजनीतिक दल देते  हैं  लेकिन शासन का संचालन करते समय निहित  स्वार्थ भारी पड़ जाते हैं | राज्य सरकारें भी जनादेश के घमंड में राजभवन की अवहेलना करने का दुस्साहस करने से बाज नहीं आतीं | जहाँ तक अभिभाषण पढ़ने  की बात है तो उसे लेकर मतभेद होना स्वाभाविक हैं | इसलिए इस परम्परा को समाप्त कर देना ही बेहतर होगा |  दरअसल  जिस तरह राज्यपाल से राजनीति अपेक्षित नहीं है उसी तरह राज्य सरकार द्वारा तैयार भाषण अपनी इच्छा के विरुद्ध पढ़ने के लिए  उनको बाध्य किया  जाना भी अनुपयुक्त और अव्यवहारिक लगता है | यदि इस पद पर नियुक्त होने वाले गैर  राजनीतिक पृष्ठभूमि से हों तब तो उनके पूर्वाग्रह या दुराग्रह से मुक्त रहने की अपेक्षा की जा सकते है | लेकिन राजनीति से जुड़े रहे व्यक्ति से ये उम्मीद  करना बेमानी है | उस दृष्टि से बंगाल में जो हुआ उसे अशोभनीय कहने के बाद भी रोक पाना असम्भव है | केंद्र में भी  ये स्थिति बनती रही है लेकिन राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के बीच सम्बन्धों में मतभेदों के बाद भी कटुता का वह रूप देखने नहीं मिला जो बंगाल में रोजाना ही  दिख जाता  है | इसका एक कारण राष्ट्रपति   का बयानबाजी से परहेज करना  है लेकिन अपनी मर्जी के विरुद्ध अभिभाषण पढ़ना उनके लिए भी पीड़ादायक होता होगा | इसका वैकल्पिक तरीका ये भी हो सकता है कि राष्ट्रपति  या राज्यपाल बजट सत्र के शुभारंभ पर सदन में आयें और प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री सदन की ओर से उनका स्वागत करते  हुए अपनी सरकार की उपलब्धियों का ब्यौरा पेश करें | ये संवैधानिक प्रमुख के समक्ष एक तरह की सार्वजानिक रिपोर्टिंग होगी | बाद में सदन महामहिम के आगमन के लिए धन्यवाद प्रस्ताव पेश करे | ऐसा होने पर संवैधानिक पद के साथ ही सरकार के मुखिया का  सम्मान  और संसदीय प्रजातन्त्र की गरिमा भी बनी रहेगी | हालाँकि इसे लेकर काफी समय से बहस चलती आ रही है लेकिन यथास्थिति के प्रति अनुराग के चलते परम्पराओं को ढोया जा रहा है | आजादी के बाद संविधान में दर्जनों बदलाव किये जा चुके हैं | मोदी  सरकार ने ढेर सारे अनुपयोगी कानूनों की विदाई करवा दी | ऐसे में लगे हाथ अभिभाषण नामक इस बोझिल रस्म को भी अंतिम विदाई देने का ये सही समय है | वैसे भी ये परम्परा ब्रिटेन से ली गई है  जहाँ संसदीय प्रजातंत्र और  राजतंत्र का मिला जुला रूप देखने मिलता है | लेकिन भारत में राष्ट्रपति जहाँ अप्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा ही चुना जाता है वहीं राज्यपाल की नियुक्ति  चुनी हुई केंद्र सरकार की सलाह से राष्ट्रपति करते हैं | इसलिए उनको ब्रिटिश शाही परिवार जैसा मानना गलत है | बंगाल विधानसभा में कल जो हुआ वह इस बहस को अंजाम तक ले जाने का नया आधार है | जिस  अभिभाषण को न तो राज्यपाल ने पढ़ा और न ही सदन ने सुना उस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित करना संविधान का मखौल नहीं तो और क्या कहा जाएगा ?

- रवीन्द्र वाजपेयी

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