चूँकि सर्वोच्च न्यायालय ने केवल सवाल पूछा है इसलिए इसे अंतिम फैसला नहीं माना जा सकता किन्तु भारतीय दंड विधान संहिता की धारा 124 अ ( राजद्रोह ) पर उसका ये कहना मायने रखता है कि अंग्रेजी राज में गांधी जी और लोकमान्य तिलक की आवाज दबाने के लिए प्रयुक्त होने वाले कानून को जारी रखे जाने की जरूरत और औचित्य क्या है ? अदालत की ये बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आरोप साबित नहीं होने पर कार्यपालिका ( पुलिस और प्रशासन ) की जिम्मेदारी तय नहीं होने से क़ानून के दुरूपयोग का खतरा बना रहता है | अदालत के सामने आई विभिन्न याचिकाओं में इस कानून को रद्द करने की मांग की गयी है | अदालत ने ये सवाल भी केंद्र सरकार से पूछा है कि जब उसने बीते सालों में अनेक क़ानून रद्द किये तब गुलामी के दौर के इस कानून को बनाये रखने की क्या आवश्यकता है ? दरअसल हाल के कुछ वर्षों में राजद्रोह के अनेक मामले दर्ज किये गये | आरोपित लोगों में मुख्य रूप से संदिग्ध शहरी नक्सली , वामपंथी बुद्धिजीवी और पत्रकार बताये जाते हैं | अनेक प्रकरणों में आरोप साबित करने की प्रक्रिया चल रही है वहीं कुछ आरोपी बरी भी किये जा चुके हैं | दरअसल अदालत की चिंता का विषय ये है कि किसी व्यक्ति को अकारण प्रताड़ित करने के लिए इस क़ानून में बिना पर्याप्त सबूत गिरफ्तार किया जा सकता है किन्तु निर्दोष साबित होने पर द्वेषपूर्ण कार्रवाई करने वाले अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकती | वैसे लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में इस तरह के कानून के लिए बेशक कोई स्थान नहीं होना चाहिए किन्तु सर्वोच्च न्यायालय इस बात पर भी विचार करे कि आजादी के बाद जब देश ने अपना संविधान लागू किया तब पं. जवाहरलाल नेहरु , सरदार पटेल और डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसे लोकतंत्रवादियों और कानून के ज्ञाताओं ने इसे खत्म करने के बारे में कोई कदम क्यों नहीं उठाया ? सर्वोच्च न्यायालय की ताजा टिप्पणी को केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार पर कटाक्ष माना जा रहा है किन्तु उसके पहले भी इस कानून का प्रयोग किया जा चुका है | तमिलनाडु में तो परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे 7 हजार लोगों पर थोक के भाव राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था | हाल के सालों में अनेक ऐसे लोग इसकी चपेट में आये जिन्होंने राजसत्ता ही नहीं अपितु देशहित के विरुद्ध भी आवाज उठाई | हालांकि उबाऊ न्यायायिक प्रक्रिया के कारण आरोप साबित करने में लम्बा समय लग रहा है | वैसे ये बात बिलकुल सही है कि महज सरकार विरोधी भाषण अथवा लेख को राजद्रोह कहना उचित नहीं होता किन्तु बेख़ौफ़ होकर देश विरोधी भावनाएं व्यक्त्त करने वालों पर राजद्रोह का मुकदमा गलत भी नहीं कहा जा सकता | कश्मीर को भारत का हिस्सा न मानने और भारत के टुकड़े होने जैसे नारे लगाने वालों को राजद्रोही मानने में कुछ भी गलत नहीं है | आंदोलनों के दौरान सार्वजानिक संपत्ति को क्षति पहुँचाना सरकार के विरुद्ध हिंसक गतिविधि नहीं तो और क्या है ? दिल्ली की जेएनयू में जैसी देश विरोधी गतिविधियां देखने में आईं और कतिपय छात्र नेता जिस तरह की भावनाएं भड़काते रहे उनको छुट्टा छोड़े रखना बुद्धिमत्ता नहीं है | रही बात क़ानून के दुरूपयोग और उसके जरिये अपने राजनीतिक विरोधियों के दमन के आरोप की तो ऐसा ही आतंकवाद विरोधी कानूनों के बारे में भी कहा जाता रहा है और दहेज तथा दलित उत्पीड़न संबंधी कानूनों में भी अनगिनत निर्दोष सताये जाते हैं | दरअसल अपराध और कानून के साथ मंशा नामक तत्व अभिन्न रूप से जुड़ा होता है | बिना मंशा के किया अपराध भी माफी योग्य बन जाता है | इसी तरह अपराध कायम करने वाले की मंशा भी मायने रखती है | यही कारण है कि राजद्रोह क़ानून विरोधी याचिकाओं पर सरकार को नोटिस का जवाब देने हेतु अदालत ने कोई समय सीमा तय नहीं की | इस बारे में अटॉर्नी जनरल का ये कहना भी काबिले गौर है कि बजाय कानून रद्द करने के न्यायालय उस बारे में कोई दिशा निर्देश जारी करे | अंतिम फैसला क्या होता है ये देखने के लिए अभी प्रतीक्षा करनी होगी | लेकिन जो राजनीतिक लोग इस कानून का विरोध कर रहे हैं उनको इस बात का जवाब भी देना चाहिये कि दशकों तक सत्ता में बने रहने के दौरान उन्होंने इस क़ानून को रद्द करने का फैसला क्यों नहीं किया ?
- रवीन्द्र वाजपेयी
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