Tuesday 28 February 2023

मार्च में लू के खतरे के बाद भी न सुधरे तो ......



बसंत को भारतीय काल गणना में ऋतुराज कहा जाता है | इस ऋतु में मौसम बड़ा ही सुहावना रहता है | न ज्यादा सर्दी और न ही सूरज की तपन | बसन्ती बयार शीत ऋतु के प्रस्थान का सन्देश देती है | लेकिन बीते कुछ सालों से देखा जा रहा है कि सर्दियाँ खत्म होने के तत्काल बाद मौसम एकदम गर्म हो जाता है | गत वर्ष भी ऐसा ही देखने मिला था जिसके कारण खेतों में कटाई के लिए खड़े  गेंहू पर बुरा असर पड़ा | विशेष रूप से उन इलाकों में जहां शीतकालीन वर्षा  नहीं हुई या कम हुई | इस साल भी जब रेकॉर्ड उत्पादन के समाचार से किसानों  के साथ पूरा देश खुश था तभी अचानक फरवरी के तीसरे सप्ताह से ही मौसम ने ऐसी करवट ली कि बसंत के दौरान ही ग्रीष्म का एहसास होने लगा | फरवरी में उत्तर भारत के बड़े इलाके में पारे का 35 डिग्री तक जा पहुंचना भविष्य में आने वाले बड़े खतरों का संकेत है | मौसम वैज्ञानिकों ने पहले इस बात के लिए डराया था कि इस बार ठण्ड ज्यादा पड़ेगी और देर तक चलेगी | इसका आशय ये था कि मार्च के अंत तक सर्दी बनी रहेगी | लेकिन उस अनुमान के सर्वथा विपरीत अब ये कहा जा रहा है कि मार्च के मध्य से ही पारा उछलकर 40 डिग्री तक जाने लगेगा और तो और लू के रूप में गर्म हवा के थपेड़े सहने पड़ेंगे | यदि ऐसा हुआ तब ये निश्चित रूप से ऋतु चक्र में आ रहे बदलाव का जीवंत प्रमाण होगा जिसके खतरे को भांपकर बचाव के बारे में सोचना भावी पीढ़ी के हितों को देखते हुए अनिवार्य हो गया है  | उत्तर और पूर्वी भारत की जीवन रेखा कही जाने वाली नदियों का स्रोत जिन हिमशैलों में है वे भी साल दर साल सिकुड़ते जा रहे हैं | इस सबका कारण पृथ्वी के तापमान में  हो रही वृद्धि है | हालाँकि सारी दुनिया इसे लेकर चिंतित है और ग्लोबल वार्मिंग के विरुद्ध सामूहिक प्रयास हेतु 2030 तक कोयले का उपयोग  बंद करने तथा कुछ अन्य उपायों से तापमान नियंत्रित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संधि  भी हुई किन्तु कोरोना के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था पर आये संकट की वजह से  अनेक विकसित देशों ने उससे किनारा करने के संकेत दे दिए | एक साल पहले शुरू हुए यूक्रेन और रूस के युद्ध ने समूचे यूरोप को सर्दियों के दौरान  गैस के अभाव में जो तकलीफ़ें उठानी पड़ीं उससे तो लगता है आग तापने के लिए लकड़ी जलाने के परम्परागत तरीके फिर से लौट आयेंगे | सवाल और भी हैं जिनमें प्रकृति और पर्यावरण के लिए उपस्थित खतरों के प्रति चिंता तो प्रकट होती है लेकिन विकास की अंधी दौड़ और सुविधा भोगी जीवन की चाहत में उनको दूर करने के बारे में कोई नहीं सोचता | हाल ही में देवभूमि कहे जाने वाले गढ़वाल के जोशीमठ कस्बे में जमीन धसने से जो नुकसान हुआ उसके असली कारणों को दूर करने के बजाय अस्थायी सोच से ही काम चलाया जा रहा है | जिस भ्रष्ट प्रशासन ने जोशीमठ में बड़े – बड़े होटलों के  निर्माण की  अनुमति दी वही उनको गिरवाकर अपनी कर्तव्यपरायणता का परिचय दे रहा है | लेकिन जब पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले लोगों ने भूस्खलन के बारे में आगाह करना शुरू किया तब उस पर ध्यान नहीं दिया गया | जोशीमठ के बाद उत्तराखंड के  कुमाऊँ अंचल में भी जमीन धसने की घटनाएँ हुईं | यहाँ तक कि जम्मू के निकट कुछ पहाड़ी इलाकों में भी वैसी ही भूगर्भीय हलचल महसूस होने से ये बात सामने आई कि खतरा  क्षेत्र विशेष तक सीमित न होकर  समूचे हिमालय में व्याप्त है | इसी तरह की अन्य प्राकृतिक आपदाएं समय – समय पर हमें चेतावनी देती रही हैं | लेकिन उनकी  अनदेखी किये जाने का नतीजा ही ऋतु परिवर्तन के रूप में सामने आ रहा है | इस बारे में ये समझना होगा कि प्रकृति एक समन्वित व्यवस्था है जिससे  जल , जंगल और  जमीन सभी  जुड़े हैं | एक भी अपनी भूमिका से अलग व्यवहार करने लगे तो उसका दुष्प्रभाव बाकी पर पड़े बिना नहीं रहेगा | लेकिन हमने  प्रकृति को टुकड़ों में बांटकर अपने उत्थान की जो जुर्रत की  उसी के कारण फरवरी में गर्मी और मार्च में लू चलने जैसी स्थिति का सामना करने की बाध्यता हमारे सामने है | इस संकट  के लिए समूचा समाज जिम्मेदार है क्योंकि जो जिस भूमिका में है उसने प्रकृति और पर्यवरण पर अत्याचार करने में संकोच किया होता तो आज ये नौबत न आई होती | हालाँकि बहुत कुछ तो बिगड़ चुका है लेकिन अब भी यदि हम नहीं चेते  और अपने पूर्वजों से मिले संस्कारों के अनुरूप अपनी सुविधाओं पर नियंत्रण रखकर  पर्यावरण के संरक्षण और प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं करते तब ये मान लेना चाहिए कि कुछ साल बाद जनवरी में भी गर्मी सताये बिना नहीं  रहेगी , जिसके जिम्मेदार हम ही होंगे |

रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 27 February 2023

खुद को भाजपा का विकल्प साबित करने पर रहेगा कांग्रेस का फोकस



रायपुर में कांग्रेस के 85 वें अधिवेशन  में राजनीतिक , आर्थिक और अन्य प्रस्ताव पारित हुए। अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे सहित अनेक नेताओं ने वर्तमान परिदृश्य पर विचार व्यक्त किए। लेकिन  पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी और  राहुल गांधी के भाषण पर सबकी निगाहें लगी थीं। इसके पीछे भी कारण ये था कि पार्टी लंबे समय से अनिश्चितता में फंसी थी। 2019 में नरेंद्र मोदी के दोबारा सत्ता में आने के बाद राहुल ने अध्यक्ष पद त्याग तो दिया किंतु गांधी परिवार ने  कमान अपने पास ही रखी और श्रीमती गांधी कार्यकारी अध्यक्ष बन गईं। हालांकि राहुल लगातार दोहराते रहे कि  परिवार का कोई सदस्य उक्त पद पर नहीं बैठेगा। लेकिन  संगठन पर पूरा नियंत्रण उसी का बना रहा। उस दौरान कांग्रेस को अनेक राज्यों  के चुनावों में  मुंह की खानी पड़ी । पंजाब उसके हाथ से निकल गया। प.बंगाल में तो उसका सफ़ाया हो गया। उत्तराखंड और गोवा में भी निराशा हाथ लगी। पंजाब में तो पार्टी  विभाजित हो गई और वही कहानी राजस्थान में दोहराए जाने के हालात हैं। जहां गांधी परिवार के विश्वस्त अशोक गहलोत ने हाईकमान को अंगूठा दिखाकर राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से इंकार करते हुए राज्य की सत्ता न छोड़ने का ऐलान कर दिया। गहलोत समर्थक विधायकों ने  सामूहिक  त्यागपत्र देकर सरकार गिराने तक की स्थिति बना दी और हाइकमान असहाय बना रहा। लेकिन इसके पहले से ही पार्टी में असंतोष के स्वर उठने लगे थे। जी 23 नामक समूह ने  अध्यक्ष सहित कांग्रेस वर्किंग कमेटी के चुनाव हेतु पत्र लिखकर उसे सार्वजनिक भी कर दिया । बिना किसी का नाम लिए परिवारवाद के विरुद्ध टिप्पणियां होने लगीं। जाहिर था  राहुल की विफलताओं के मद्देनजर जी 23 ने ऊर्जावान नेतृत्व को आगे बढ़ाने का अभियान छेड़ा। लेकिन असफलता हाथ लगने पर उनमें से अनेक पार्टी छोड़कर चलते बने। कैप्टन अमरिंदर सिंह , सुनील  जाखड़ , गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल , आरपीएन सिंह वे नाम हैं जो बीते दो साल में पार्टी छोड़ बैठे। गुजरात में हार्दिक पटेल भी उसी कतार में शामिल हो गए । इससे निपटने के लिए गांधी परिवार ने पार्टी अध्यक्ष के  चुनाव का ऐलान और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जैसे दो कदम उठाए। पहले का मकसद असंतुष्टों को ये बताना था कि उसकी संगठन पर काबिज रहने की मंशा नहीं है। लेकिन जब श्री गहलोत पीछे हटे तो श्री खरगे पर दांव लगा दिया गया। उधर राहुल यात्रा पर निकल पड़े ये दर्शाने के लिए मानो वे पूरी तरह निर्लिप्त हों। हालांकि श्रीमती गांधी के श्री खरगे के साथ खड़े हो जाने से पूरी पार्टी को ये संदेश दे दिया गया कि प्रथम परिवार उनके साथ है। इसीलिए  शशि थरूर  बड़े  अंतर से हारे क्योंकि वे जी 23 समूह का हिस्सा थे। उसके बाद योजनाबद्ध तरीके से पूरा फोकस राहुल की यात्रा पर केंद्रित किया गया और इसीलिए यात्रा की चर्चा और प्रभाव कम होने के पहले ही अधिवेशन का आयोजन भी किया गया। जिसमें श्रीमती गांधी ने यात्रा को टर्निंग प्वाइंट बताकर ये जता दिया कि कांग्रेस को विजय पथ पर ले जाने की क्षमता उनके बेटे में ही है और उसे ये दायित्व देकर वे कार्यमुक्त हो रही हैं। भाषण प्रियंका का भी हुआ किंतु  केंद्र बिंदु राहुल रहे। उन्होंने वैसे तो लोकसभा में दिए अपने भाषण को ही लगभग दोहराया किंतु 52 साल में भी अपना घर न होने जैसी बातें करते हुए उपस्थित कांग्रेसजनों  के भावनात्मक दोहन का दांव भी चला। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के चुनाव को टालते हुए श्री खरगे को मनोनयन का अधिकार देना इस बात का प्रमाण है कि  भले ही अध्यक्ष का चुनाव कर लिया गया किंतु पार्टी की  सर्वोच्च संस्था के लोकतंत्रीकरण की बात गांधी परिवार को मंजूर नहीं है। चुनाव न कराने का कारण भी ये सुनने में आया कि विभिन्न  राज्यों में विधानसभा  चुनाव होने से चुनाव कराना पार्टी में फूट का कारण बन सकता है। हालांकि जी 23 में बचे खुचे नेताओं ने फिलहाल भले ही मौन साध रखा हो लेकिन ज्यादा समय तक ये स्थिति नहीं रहेगी। राजस्थान में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं किंतु गहलोत और पायलट का झगड़ा यथावत है। दूसरे राज्यों में भी संगठन की स्थिति अच्छी नहीं है। छत्तीसगढ़ में टी. एस.सिंहदेव मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के विरुद्ध मौके की तलाश कर रहे हैं वहीं म.प्र में मुख्यमंत्री के चेहरे पर बवाल है। लेकिन इस सब पर ध्यान दिए बिना भारत जोड़ो यात्रा के दूसरे चरण की घोषणा कर दी गई। त्रिपुरा ,मेघालय और नागालैंड विधानसभा चुनाव की भी गुजरात जैसी उपेक्षा की गई । ऐसा लगता है कांग्रेस का पूरा ध्यान राहुल के नेतृत्व को चमकाते हुए आगामी लोकसभा चुनाव पर लगा है। इसीलिए विपक्ष के साथ गठबंधन की कोई चर्चा नहीं हुई। उल्टे जयराम रमेश ये बोल गए कि इस साल 9 राज्यों के चुनाव को देखते हुए इस बारे में बात करने का ये समय नहीं है। इस प्रकार कांग्रेस के इस  बहुप्रतीक्षित अधिवेशन का सार यही है कि  जिस सर्वोच्च आसंदी पर अभी तक श्रीमती गांधी विराजमान थीं उस पर अब राहुल बैठेंगे।और विपक्ष से गठबंधन इसी शर्त पर होगा कि सब उनके नेतृत्व में लड़ने को तैयार हों। जहां तक बात कार्यसंस्कृति  की है तो उसमें किसी परिवर्तन का कोई संकेत नहीं मिला। आने वाले दिनों में कांग्रेस अरुणाचल से गुजरात तक की श्री गांधी की यात्रा पर पूरा ध्यान लगायेगी। ये सोचकर कि इससे उसके आंतरिक झगड़े तो दबे रहेंगे ही साथ ही अन्य विपक्षी दलों को भी ये संदेश जाएगा कि वही राष्ट्रीय दल है इसलिए भाजपा को रोकने की शक्ति उसी में है। पहली यात्रा से उसका उत्साह निश्चित तौर पर बढ़ा है लेकिन दूसरी यात्रा जिन राज्यों से गुजरेगी वहां क्षेत्रीय दल काफी ताकतवर हैं । इसलिए आने वाले कुछ महीने राष्ट्रीय राजनीति में बेहद महत्वपूर्ण रहेंगे । विशेष रूप से कांग्रेस की भूमिका पर सबकी नजर रहेगी।

रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 25 February 2023

पंजाब में खालिस्तानी आतंक के उभार को नजरंदाज करना घातक होगा



पंजाब में विधानसभा चुनाव हुए एक वर्ष होने जा रहा है। इस दौरान भगवंत सिंह मान के नेतृत्व में बनी आम आदमी पार्टी की सरकार ने दिल्ली मॉडल के अनुरूप बिजली , पानी , चिकित्सा और शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दों पर जो काम किया उसके प्रति जनता की प्रतिक्रिया मिली जुली है क्योंकि राज्य की वित्तीय स्थिति दयनीय होने से बहुत सारे चुनावी वायदे अब तक पूरे होने की राह देख रहे हैं। लेकिन इस सबसे अलग हटकर  पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन जिस तरह जोर पकड़ रहा है उसे देखते हुए ये कहना गलत न होगा कि पंजाब में एक बार फिर अलगाववाद की चिंगारी फूटने को है। वारिस पंजाब दे नामक संगठन के मुखिया अभिनेता दीप सिद्धू की गत वर्ष गैंगवार में मौत हो जाने के बाद अमृतपाल सिंह नामक नौजवान इस संगठन का अध्यक्ष बन गया। ये वही दीप था जो 26 जनवरी 2021 को किसान आंदोलन के दौरान लालकिले पर चढ़कर खालिस्तानी नारे लगाने के मामले में आरोपी था। उसने पंजाब के युवकों में आजादी का जहर फैलाने का बीड़ा उठा रखा था। उसकी मौत के बाद दुबई में ट्रांसपोर्ट का काम करने वाले अमृत पाल सिंह ने आकर  उसका स्थान ले लिया । हालांकि वारिस दे पंजाब से जुड़े अनेक नेता उसके मुखिया बन जाने से नाराज हैं किंतु अपने भड़काऊ भाषणों से अमृत पाल खालिस्तान  समर्थकों को रास आ रहा है। यहां तक कि उसे दूसरा  भिंडरावाले कहा जाने लगा है। बीते दिनों केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बयान दिया था कि पंजाब में खालिस्तान का आंदोलन चलाने वालों पर केंद्र सरकार की नजर है। उस पर अमृत पाल ने धमकी दी कि इंदिरा ने भी दबाने की कोशिश की थी क्या हुआ , अब अमित शाह भी अपनी इच्छा पूरी कर लें । इसके साथ ही उसने ये भी जोड़ा कि पंजाब का बच्चा बच्चा खालिस्तान चाहता है। अमृतपाल की कार्यप्रणाली भी भिंडरावाले जैसी ही है। तीन दिन पूर्व अमृतसर जिले के अजनाला थाने में बंद उसके खासमखास लवप्रीत सिंह तूफान  को रिहा करवाने हजारों लोग बंदूक , तलवार और भाले लेकर जा पहुंचे। उनके दबाव के बाद पुलिस  लवप्रीत  को रिहा करने मजबूर हो गई। ऐसी ही अनेक घटनाएं पंजाब में आए दिन हो रही हैं किंतु सभी प्रकाश में नहीं आ पातीं। खालिस्तानी आंदोलन बीते कई दशकों तक दबा रहने के  बाद 2020 में  शुरू हुए किसान आंदोलन की आड़ में जोर पकड़ने लगा। उस आंदोलन को कैनेडा और ब्रिटेन में बसे खालिस्तान समर्थक संगठनों ने जिस प्रकार समर्थन दिया उसके बाद उसे विदेशी आर्थिक सहायता मिलने की  चर्चा  भी खूब हुई। किसानों के आंदोलन में जिस तरह से उग्रवादी सिख घुस आए उसने सुरक्षा एजेंसियों के कान खड़े कर दिए। प्रधानमंत्री द्वारा कृषि कानूनों को वापिस लेने की घोषणा के बाद आंदोलन तो समाप्त हो गया किंतु दीप सिद्धू ने  पंजाब में घूम घूमकर ये कहना शुरू दिया कि कानून वापस होने के बाद भी सिख युवकों को शांत नहीं बैठना चाहिए। और उसी के बाद पंजाब में सिखों और हिंदुओं के बीच झगड़ा फैलाने का कुचक्र रचा जाने लगा। आम आदमी पार्टी की सरकार आने के बाद अनेक हिंदू मंदिरों पर सिखों द्वारा किए गए हमले नए खतरे का संकेत है क्योंकि ऐसा तो अस्सी नब्बे के दशक में भी नहीं हुआ जब खालिस्तान के नाम पर पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था। इस आधार पर यह आशंका मजबूत होने लगी है कि पंजाब में कश्मीर जैसी स्थिति बनाकर हिंदुओं को विशेष रूप से जो गांवों में हैं , आतंकित करने का षडयंत्र रचा जा रहा है। इससे लगता है विदेशों में बैठे खालिस्तानी संगठन अब बदली हुई रणनीति पर काम कर रहे हैं। उस दृष्टि से पंजाब सरकार की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन ऐसा लगता है आम आदमी पार्टी की सरकार इस बारे में बेहद लापरवाह रवैया अपना रही है। पंजाब की राजनीति में अकाली दल के कमजोर हो जाने से  सिख समुदाय नेतृत्व विहीन हो गया है। जिसका लाभ लेते हुए खालिस्तानी पंजाब में अलगाववाद को पनपाने में लगे हैं। किसान आंदोलन से जुड़े सिखों में इस बात को लेकर निराशा है कि एक साल तक चले संघर्ष के बावजूद उनके हाथ कुछ नहीं लगा। आंदोलन की समाप्ति के बाद राजनीतिक दलों ने किसान संगठनों की मांगों से किनारा करना शुरू कर दिया। यही वजह है कि वे भगवंत मान सरकार के विरुद्ध भी आवाज उठा रहे हैं । जिसका लाभ उठाकर खालिस्तानी संगठन अपना दायरा बढ़ा रहे हैं। ऐसी ही गलती इंदिरा गांधी के दौर में हुई जब भिंडरावाले को अपने लिए फायदेमंद मानकर उसकी गतिविधियों को नजरंदाज किया जाता रहा जिसका दुष्परिणाम ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार और अंततः इंदिरा जी की हत्या के रूप में सामने आया। उस अनुभव से सबक लेते हुए केंद्र सरकार को पंजाब पर विशेष ध्यान देना चाहिए जिससे अमृत पाल सिंह को भिंडरावाले पार्ट 2 बनने से रोका जाए। जिस तरह उसने गृह मंत्री अमित शाह को धमकी दी है वह साधारण बात नहीं है क्योंकि उसकी भाषा से उसके खतरनाक इरादे झलकते हैं।

रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 24 February 2023

पहले कांग्रेस खुद को सक्षम विपक्ष तो साबित करे



कांग्रेस का 85 वां राष्ट्रीय अधिवेशन आज से छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में प्रारंभ हो रहा है। मल्लिकार्जुन खरगे के अध्यक्ष बन जाने के बाद पार्टी को गतिशील बनाने का यह प्रयास न सिर्फ कांग्रेस अपितु प्रजातंत्र के लिए भी शुभ संकेत है । देश के समक्ष इस समय चिंता के जो विषय हैं उनमें से एक  मजबूत विपक्ष का अभाव भी है। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है जिसने आजादी के आंदोलन का नेतृत्व किया। स्वाधीन भारत में लंबे समय देश और प्रदेशों पर  उसने राज किया । ये कहना भी गलत नहीं है कि वामपंथियों को छोड़कर शेष सभी राजनीतिक दल कांग्रेस से ही निकले। समाजवादी आंदोलन के अलावा आज की भाजपा के  पूर्ववर्ती जनसंघ के संस्थापक डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी पंडित नेहरू के मंत्रीमंडल से स्तीफा देकर बाहर आए थे।कहने का आशय ये कि आजादी के बाद विपक्ष का जो स्वरूप बना वह कांग्रेस से वैचारिक मतभेदों से ही उभरा । और इसीलिए लंबे समय तक भारतीय  राजनीति में कांग्रेस संस्कृति शब्द एक विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता रहा। ये कहना  भी गलत नहीं है कि कांग्रेस ने ही बाकी दलों को सत्ता के लिए जाति और धार्मिक तुष्टीकरण के फार्मूले सिखाए जिसका उसे जबर्दस्त नुकसान हुआ। कालांतर में उभरे क्षेत्रीय दलों में भी अधिकतर उसी से टूटकर या फिर उसकी नीतियों से नाराज होकर बने। धार्मिक तुष्टीकरण के लिए अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा एवं भाषावार प्रांतों का गठन कांग्रेस की उन गलतियों में से है जिनका नुकसान देश भुगत रहा है। इनकी वजह से क्षेत्रीयतावाद के अलावा धार्मिक कट्टरता को भी धीरे धीरे बढ़ावा मिला।इन सबकी वजह से कांग्रेस का प्रभाव क्षीण होते होते ये स्थिति बन गई कि वह राज्यों की  सत्ता से अलग होते  होते केंद्र की सत्ता भी गंवा बैठी। यहां तक कि लोकसभा में मान्यता प्राप्त विपक्ष बनने की पात्रता भी उससे छिन गई । लेकिन इसका दुष्परिणाम ये हो रहा है कि राष्ट्रीय सोच रखने वाले विपक्ष का अभाव हो गया तथा छोटे छोटे दल राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं पाल बैठे । यही वजह है कि ममता बैनर्जी और के. सी.राव जैसे नेता तक कांग्रेस के झंडे तले भाजपा विरोधी विपक्षी मोर्चा बनाने में आगे पीछे हो रहे हैं। ममता तो पहले ही खुद को नरेंद्र मोदी का  विकल्प घोषित कर चुकी हैं । कांग्रेस अधिवेशन के शुरु होने के पहले ही तृणमूल कांग्रेस की मुखर सांसद महुआ मोइत्रा का ये बयान ध्यान देने योग्य है कि उनकी पार्टी ही भाजपा का विकल्प है। ये सब देखते हुए कांग्रेस को इस अधिवेशन के जरिए ये स्पष्ट करना होगा कि वह चुनाव पूर्व विपक्षी गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में रहते हुए राहुल गांधी को श्री मोदी के मुकाबले पेश करने का दबाव बनाएगी या फिर गठबंधन को बहुमत मिलने के बाद ही प्रधानमंत्री का मसला हल होगा। इसके साथ ही कांग्रेस को ये भी स्पष्ट करना होगा कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण पर उसका क्या रवैया रहेगा।बीते कुछ वर्षों में  पार्टी नर्म हिंदुत्व को अपनाने का प्रयास तो कर रही है किंतु वह आधा अधूरा प्रतीत होता है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने विभिन्न धार्मिक केंद्रों पर पूजा अर्चना की । लेकिन पार्टी चाहकर भी भाजपा की तरह खुलकर धार्मिक और अन्य संवेदनशील मुद्दों पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त नहीं कर पाती। उ.प्र ,  बिहार , प.बंगाल जैसे बड़े राज्यों में वह घुटनों के बल पर है। वर्तमान  में  वह राजस्थान , म. प्र, गुजरात, छत्तीसगढ़ और हिमाचल में ही भाजपा से सीधे मुकाबले में है। बाकी के राज्यों में उसे क्षेत्रीय दलों का पिछलग्गू बनना पड़ता है । इसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस का राष्ट्रीय पार्टी की तरह व्यवहार  न करना ही है। ज्वलंत मुद्दों पर नीतिगत अस्पष्टता और वैचारिक भटकाव की वजह से आज देश की सबसे पुरानी पार्टी   अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। यदि वह चाहती है कि 2024 के  चुनाव में नरेंद्र मोदी को टक्कर दे सके तो उसे राहुल गांधी का मोह छोड़कर नीतिगत साहस दिखाना होगा। उसे उन कारणों का ईमानदारी से विश्लेषण करना चाहिए जिनकी वजह से उसका पराभव शुरू हुआ। दुर्भाग्य से आज भी  गांधी परिवार के अभिनंदन पत्र का वाचन करने वाले चंद नेता ही उस पर हावी हैं । भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल पूरे समय  जिस तरह रास्वसंघ और सावरकर को गालियां देते रहे उससे उनको और कांग्रेस दोनों को कुछ हासिल नहीं हुआ। धारा 370 और समान नागरिक संहिता जैसे विषयों पर पार्टी का रुख जनभावनाओं के विपरीत होने से वह एक कदम आगे और दो कदम पीछे वाली स्थिति में पहुंच जाती है । कांग्रेस को ये मुगालता छोड़ना होगा कि भारत छोड़ो यात्रा से राहुल गांधी इतने लोकप्रिय और ताकतवर हो गए हैं कि सभी विपक्षी दल उनको अपना नेता मान लेंगे। सत्ता की लालसा छोड़ उसको इस अधिवेशन के जरिए खुद को सक्षम विपक्ष के तौर पर पेश करना होगा क्योंकि फिलहाल तो देश को उससे यही अपेक्षा है।

रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 23 February 2023

दिल्ली नगर निगम में हंगामा प्रजातंत्र के लिए अशुभ संकेत




दिल्ली नगर निगम  चुनाव के परिणाम  दिसंबर 2022 में हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधान सभा के नतीजों के पहले ही आ चुके थे । उन दोनों राज्यों में मुख्यमंत्री चुने जाने के बाद मंत्रीमंडल भी बन गया लेकिन दिल्ली को महीनों के इंतजार के बाद कल किसी तरह से  नया महापौर मिल सका। इसके पहले दो तीन बार नव निर्वाचित पार्षदों की बैठक हुई किंतु हंगामे की वजह से सदन स्थगित करना पड़ा। ये कहना गलत न होगा कि इस मामले में भाजपा की तरफ़ से की गई अड़ंगेबाजी अनावश्यक और अनुचित थी। 12 मनोनीत पार्षदों को मताधिकार दिलाकर तोड़फोड़ के जरिए महापौर बनवाने की उसकी कोशिश के नैतिक और व्यवहारिक दोनों पक्ष कमजोर थे। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया जिसके कड़े निर्देश के बाद अंततः उपराज्यपाल को चुनाव करवाने बाध्य होना पड़ा और तनावपूर्ण वातावरण में आखिरकार सदन में स्पष्ट बहुमत प्राप्त  आम आदमी पार्टी अपना महापौर और उपमहापौर चुनवाने में सफल हो गई। भाजपा द्वारा अपना उम्मीदवार खड़ा किया जाना सांकेतिक विरोध के लिहाज से गलत नहीं था लेकिन उसके बाद स्थायी समिति के चुनाव के लिए सदन  में हुए होहल्ले ,मारपीट और तोड़फोड़ को देखकर प्रजातंत्र के प्रति श्रद्धा रखने वाले हर किसी का मन दुखी होगा । विपक्ष संसदीय तरीकों से सत्ता पक्ष पर दबाव बनाए उसमें कुछ भी गलत नहीं है । लेकिन  ये जानते हुए भी कि वह अल्पमत में है और सत्ता पक्ष का एक भी निर्वाचित सदस्य  उसके साथ आने तैयार नहीं है , तब बिना ठोस आधार के महापौर के चुनाव में रुकावट पैदा करने से दिल्ली के मतदाताओं को  दो माह तक महापौर से वंचित रहना पड़ा। उसके बाद स्थायी समिति के चुनाव में भी हंगामा और मारपीट की परिस्थिति उत्पन्न करना अच्छा नहीं है। आम आदमी पार्टी दूध की धुली है और उसके सारे व्यवहार लोकतंत्र की कसौटी पर खरे साबित हुए ये कहना तो सही नहीं है किंतु दिल्ली की जनता ने उसे लगातार दो बार विधानसभा में भारी बहुमत दिया तो लोकसभा में बुरी तरह से परास्त भी किया। इससे ये एहसास होता है कि राष्ट्रीय राजधानी के मतदाता एक तरफ जहां आम आदमी पार्टी की प्रदेश सरकार से संतुष्ट हैं वहीं उन्होंने देश की सत्ता चलाने के लिए भारतीय जनता पार्टी को उपयुक्त समझा। इसी तरह 2015 में आम आदमी पार्टी को प्रदेश की सत्ता सौंपने के बावजूद 2017 में तीनों नगर निगमों में भाजपा को बहुमत प्रदान कर दिया। इस बार तीनों को मिलाकर एक नगर निगम बनाकर चुनाव हुए जिसमें भाजपा से छीनकर जनता ने आम आदमी पार्टी को बहुमत दे दिया। हालांकि वह विधानसभा चुनाव जैसा भारी भरकम न होकर काम चलाऊ ही है जिससे आम  आदमी पार्टी का सिर भी न चढ़े। दरअसल अरविंद केजरीवाल ये दावा कर रहे थे कि भाजपा को 20 सीटें भी मिल जाएं तो बहुत होगा किंतु  उनकी पार्टी जहां 134 सीटें जीत सकी वहीं भाजपा को 106 सीटें मिलने से मजबूत विपक्ष की स्थिति बन गई । कांग्रेस के 9 और 3 निर्दलीय पार्षद जीते। इस प्रकार मतदाताओं ने विधानसभा के बाद आम आदमी पार्टी को नगर निगम भी सौंपने का फैसला किया किंतु भाजपा को  100 से अधिक सीटें देते हुए  विपक्ष को भी मज़बूत बना दिया। अब इसके बाद तोड़फोड़ के जरिए बहुमत हासिल करने और महापौर के चुनाव को रोकने के लिए उठाए गए कदम रचनात्मक विपक्ष की भूमिका के मद्देनजर किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है । जब ऐसी ही हरकत विपक्ष संसद में करता है तो भाजपा उसकी निन्दा करती है किंतु जहां उसे विपक्ष में बैठना होता है वहां उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करने में वह नहीं  झिझकती । आम आदमी पार्टी को भाजपा अपने लिए चुनौती मान रही है किंतु बेहतर होगा वह राजनीतिक और वैचारिक  तौर तरीके आजमाकर उसके विस्तार को रोकने का प्रयास करे। साथ ही उसे उन कमियों को  दूर करना होगा जिनकी वजह से दिल्ली के मतदाताओं  ने उसे दो बार विधानसभा और एक बार नगर निगम चुनाव में शिकस्त दी। राष्ट्रीय परिदृश्य पर निगाह डालें तो निश्चित रूप से भाजपा बहुत शक्तिशाली है लेकिन अनेक राज्यों में अभी भी वह उस तुलना में कमजोर है। जिन राज्यों में उसे लोकसभा चुनाव में भारी सफलता मिलती रही उनके  मतदाताओं ने प्रदेश की सत्ता किसी और पार्टी को दे दी तो इससे खीजने की बजाय आत्मावलोकन करना चाहिए। उस दृष्टि से दिल्ली नगर निगम में महापौर चुनाव हेतु अब तक का घटनाक्रम अच्छा संकेत नहीं है। जब नगर निगम में ये सब हो रहा है तब विधान सभा और संसद में होने वाले हंगामों को देखकर ये स्वीकार करने में कुछ भी गलत नहीं है कि सत्ता का नशा राजनीतिक दलों पर इस कदर तक चढ़ चुका है कि वे लोकतंत्र के मंदिर तक को अपवित्र करने में भी नहीं लजाते ।


रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 22 February 2023

बाइडन और पुतिन की जवाबी मिसाइलें यूक्रेन संकट के जारी रहने का संकेत



यूक्रेन पर रूस के हमले को एक साल बीतने आ गया। इस जंग के मुख्य प्रतिद्वंदी कहने को तो रूस और यूक्रेन हैं लेकिन शीघ्र ही समझ में आ गया था कि यूक्रेन ने रूस जैसी महाशक्ति से टकराने की हिम्मत अमेरिका और उसके नेतृत्व वाले नाटो नामक संगठन के समर्थन से की थी। हालांकि यूक्रेन विधिवत नाटो से जुड़  पाता उसके पहले ही रूस ने अपनी धमकी को वास्तविकता में तब्दील कर दिया और पूरी तरह हमला बोलते हुए यूक्रेन में अपनी सेना और टैंक घुसा दिए। उस समय ऐसा लगा था कि युद्ध कुछ दिन में खत्म हो जाएगा लेकिन जल्द ही रूस  ये समझ गया कि  यूक्रेन की सेना ही नहीं बल्कि जनता भी मुकाबले के लिए तैयार है और यहीं से उसने अपनी रणनीति बदलते हुए हवाई हमलों का सहारा लिया। अब तक रूस ने  अनगिनत मिसाइलें दागकर यूक्रेन में बिजलीघरों, अस्पतालों , रिहायशी मकानों सहित इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ीं जन सुविधाओं को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।  वह दो सीमावर्ती प्रदेशों पर भी कब्जा करने में  सफल हो गया जिनमें उसके पाले हुए अलगाववादी पहले से ही आंदोलन चला रहे थे। वहां सेना भेजकर फर्जी जनमत संग्रह करवाते हुए उसने उन्हें अपने में मिला लिया लेकिन अब तक राजधानी कीव पहुंचने में वह नाकाम रहा है और यही उसके राष्ट्रपति पुतिन की खीझ का कारण है। इस युद्ध में अमेरिका या नाटो प्रत्यक्ष भले न कूदा हो किंतु उसने और उसके साथी पश्चिमी यूरोपीय देशों ने यूक्रेन को युद्ध सामग्री के अलावा आर्थिक तौर पर भी भरपूर सहायता दी जिससे वह अब तक टिका हुआ है। हालांकि रूसी हमलों से पूरा देश खंडहर नजर आने लगा है लेकिन वहां के राष्ट्रपति जेलेंस्की के साहस को मूर्खता बताने वाले अब उनके हौसले की दाद दे रहे हैं। सबसे बड़ी बात यूक्रेन की जनता का उन्हें मिलने वाला समर्थन है। लेकिन जंग की वर्षगांठ के तीन दिन पहले अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन का पोलैंड होते हुए अचानक यूक्रेन की राजधानी कीव पहुंचकर जेलेंस्की से गले मिलना युद्ध के लम्बा खिंचने का संकेत दे गया। बाइडन ने  साफ शब्दों में  यूक्रेन को नाटो देशों की सहायता मिलने का ऐलान करते हुए उसकी जनता की तारीफ कर डाली। युद्ध शुरू होने के कुछ समय बाद ये अटकलें लगने लगीं थी कि शायद यूक्रेन रूस के साथ समझौता कर लेगा जिसके अंतर्गत राष्ट्रपति पुतिन अपनी पसंद के व्यक्ति को वहां की सत्ता सौंप देंगे। ये अफवाह  भी उड़ी कि जेलेंस्की गुपचुप रूप से पोलैंड होते हुए अमेरिका की शरण में चले जाएंगे। लेकिन वे बातें हवा हवाई होकर रह गईं। बाइडन के कीव आने के दूसरे दिन ही पुतिन ने रूस की संसद को संबोधित करते हुए अमेरिका पर आरोप लगाया कि उसने एक स्थानीय समस्या को वैश्विक स्वरूप दे दिया । उन्होंने बातचीत करने में रुचि तो दिखाई किंतु लगे हाथ ये धमकी भी दे डाली कि वे किसी शर्त या दबाव में वार्ता के लिए तैयार नहीं हैं । पुतिन ने ये भी कहा कि अमेरिका उनके देश की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करना चाहता है जो उन्हें मंजूर नहीं होगा । उनके इस भाषण को बाइडन की कीव यात्रा का जवाब माना जा रहा है। दूसरी तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी पोलैंड लौटकर पुतिन की आलोचना का कड़े शब्दों में जिस तरह जवाब दिया उसके बाद ये संभावना और मजबूत हो गई कि एक साल होने के बाद भी  युद्ध  समाप्त होने की बजाय और भीषण हो सकता है। ये भी सोचा जा सकता है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की का हौसला कमजोर पड़ने का एहसास होते ही बाइडन उनका साहस बढ़ाने कीव जा पहुंचे। असलियत जो भी हो लेकिन युद्ध जारी रहने से दुनिया की परेशानियां बढ़ती जा रही हैं। पश्चिमी यूरोप के देश कच्चे तेल के अलावा गैस की किल्लत से हलाकान हैं ।  यूक्रेन सूरजमुखी का सबसे बड़ा उत्पादक होने से उससे बनने वाले खाद्य तेल का संकट भी बढ़ रहा है। रूस और यूक्रेन दोनो गेंहू के बड़े निर्यातक हैं। रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों और यूक्रेन के युद्ध में उलझने से विश्व भर में गेंहू की कमी हो गई है। इन कारणों से जबर्दस्त उथल पुथल मची है जिसने अर्थव्यवस्था को भी अनिश्चितता में फंसा दिया है जो कोरोना से किसी तरह उबरने की स्थिति में आई ही थी। बीते कुछ दिनों में अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडन और उनके रूसी समकक्ष पुतिन के बीच जिस तरह से बयानबाजी हुई उसके बाद शांति स्थापना की कोशिशों को और धक्का पहुंचा है। सबसे अधिक निराश किया  संरासंघ ने जो मध्यस्थता करने की बजाय दूर से बैठा तमाशा देख रहा है । अब  बाइडन और पुतिन जिस अंदाज में जुबानी मिसाइलें छोड़ रहे हैं और यूक्रेन की मदद करने वाले देशों को रूस जिस तरह चेतावनी दे रहा है उससे लगता है एक साल पूरा होने के बावजूद जंग जारी रहेगी और ऐसा होने से वैश्विक शक्ति संतुलन और शांति के लिए बड़ा खतरा बना रहेगा।

रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 21 February 2023

नीतीश विपक्षी एकता के फेर में अपनी पार्टी ही तुड़वा बैठे



कुछ ही दिन पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का ये बयान काफी  चर्चित हुआ था कि कांग्रेस साथ दे दे तो 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 100 सीटों पर सिमट जाएगी। इसके पहले नीतीश स्पष्ट कर चुके थे कि वे प्रधानमंत्री की दौड़ में नहीं हैं और राहुल गांधी के बन जाने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन उसके बाद वे ये कहते भी सुने गए कि विपक्ष गठबंधन कर चुनाव में उतरे और बहुमत आने के बाद प्रधानमंत्री का फैसला किया जाए। उनके इस पैंतरे से कांग्रेस को खटका हो गया और इसीलिए उसने अभी तक नीतीश के बयान पर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त  नहीं की। असल में बाकी विपक्षी दलों में से राहुल की प्रधानमंत्री बनाने की आवाज नहीं उठने से कांग्रेस भी चौकन्नी है जिसे ये लगता था कि श्री गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद समूचा विपक्ष उनको अपना एकक्षत्र नेता स्वीकार कर लेगा। लेकिन द्रमुक को छोड़कर अन्य किसी गैर भाजपा दल ने इस बारे में कुछ भी कहने से परहेज कर रखा है। यहां तक कि नीतीश की सहयोगी लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद तक खुलकर कुछ नहीं बोल रही। विपक्षी गठबंधन और उसके नेतृत्व के मसले पर कांग्रेस अपने रायपुर अधिवेशन में संभवतः निर्णय लेगी या हो सकता है कुछ नेताओं को अन्य दलों से बात करने का दायित्व सौंपे। लेकिन इस बीच विपक्ष को एकजुट कर भाजपा को परास्त करने की मुहिम छेड़ने वाले नीतीश के घर में ही फूट पड़ गई और उनके निकट सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा ने कुछ दिनों तक नाराज बने रहने के बाद गत दिवस जनता दल (यू) छोड़कर राष्ट्रीय लोक जनता दल बनाने की घोषणा कर डाली। हालांकि श्री कुशवाहा इतने ताकतवर तो नहीं कहे जा सकते कि नीतीश की सरकार को खतरा पैदा कर सकें किंतु उनके सजातीय मतदाताओं पर उनका प्रभाव अवश्य है।इस झगड़े के पीछे जनता दल ( यू ) में उत्तराधिकार का मसला था। दरअसल उपेंद्र चाहते थे नीतीश उन्हें अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने का ऐलान करें किंतु  जब उन्होंने तेजस्वी यादव को अगला मुख्यमंत्री बनाने का बयान दिया तो वे रूष्ट हो गए और कई दिन चली तनातनी के बाद आखिरकार किनारा कर गए। उनके इस फैसले के बाद बिहार में एनडीए के फिर मजबूत होने की राह प्रशस्त हो गई है। जो जानकारी मिल रही है उसके अनुसार चिराग पासवान और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी दोबारा भाजपा की गोद में जाने तैयार हैं। इस तरह बिहार से विपक्ष की एकता की बजाय बिखराव की शुरुवात हो गई। उ.प्र  में भी सपा ने अब तक राहुल को लेकर कोई आश्वासन नहीं दिया और बसपा भी एकला चलो की नीति पर है। सबसे बड़ी बात ममता बैनर्जी का इस महत्वपूर्ण मुद्दे से कन्नी काट जाना है। इस वर्ष जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं उनमें छत्तीसगढ़ और राजस्थान ही कांग्रेस शासित हैं। यदि उत्तर पूर्व के राज्य वह जीत जाए तो भी उसका राष्ट्रीय राजनीति पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। ऐसा लगता है विपक्षी दल उक्त दो राज्यों के परिणाम देखने के बाद ही ये तय करेंगे कि वे राहुल का नेतृत्व स्वीकार करें अथवा नहीं । यदि कांग्रेस छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार बनाते हुए भाजपा से म.प्र भी छीनने में सफल हो जाती है तब ये अवधारणा मजबूत होगी कि भारत जोड़ो यात्रा के बाद से कांग्रेस और विशेष रूप से राहुल का ग्राफ उठा है। अन्यथा क्षेत्रीय दल उससे दूरी बनाकर अपना जनाधार पुख्ता करने में लग जायेंगे। ऐसे में सबसे ज्यादा फजीहत होगी नीतीश कुमार की जो भाजपा से इतनी दूर निकल आए हैं कि एनडीए में वापसी लगभग नामुमकिन है वहीं उपेंद्र कुशवाहा के अलग हो जाने से वे और कमजोर हो चले हैं जिससे लालू प्रसाद और उनके बेटे उन पर हावी होने की कोशिश करते हुए इस बात का प्रयास करेंगे कि लोकसभा चुनाव के पहले ही उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में भेजकर राज्य की सत्ता पर काबिज हो जाएं। ये भी हो सकता है कि भाजपा महाराष्ट्र जैसा खेला करते हुए नीतीश को उद्धव ठाकरे वाली स्थिति में पहुंचा दे। बहरहाल आज की स्थिति में नीतीश की स्थिति बहुत ही नाजुक हो गई है। चौबे जी छब्बे बनने चले और दुबे बन गए वाली कहावत उन पर चरितार्थ हो रही है।

रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 20 February 2023

भारत से रिश्ते सुधारने में ही पाकिस्तान का कल्याण है



पाकिस्तान से आ रही खबरों पर आम भारतीय का खुश होना स्वाभाविक है। इसकी वजह उसका जन्म से आज तक का आचरण है। बीते 75 साल में इस पड़ोसी देश ने भारत के साथ  नफरत , धोखा और दुश्मनी का भाव ही प्रदर्शित किया। यदि इसके हुक्मरान सहअस्तित्व की भावना को लेकर चलते तो दोनों देश मिलकर एशिया में चीन की टक्कर की महाशक्ति बन सकते थे। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है बांग्ला देश जिसने महज 51 साल के भीतर ही अपनी आर्थिक स्थिति में आश्चर्यजनक सुधार करते हुए निर्यात के जरिए अपने विदेशी मुद्रा भंडार को लबालब कर लिया । 1971 में अस्तित्व में आते समय वह गरीब देशों में शुमार होता था किंतु इस्लामिक देश होते हुए भी उसने आधुनिकता को प्रश्रय दिया। हालांकि वहां भी भारत विरोधी सत्ता बनी और मुस्लिम कट्टरता भी कम नहीं है जिसका प्रमाण हिंदू मंदिरों पर आए दिन होने वाले हमले हैं लेकिन भारत के साथ सीमा एवं अन्य विवादों को बातचीत के जरिए सुलझाने की उसकी नीति ने युद्ध की स्थित नहीं आने दी। वहां के शासक और सेना दोनों इस बात को समझ चुके हैं कि अव्वल तो वे भारत की सैन्य शक्ति के सामने पिद्दी साबित होंगे और दूसरा ये कि हथियारों की होड़ में शामिल होने की बजाय आर्थिक विकास पर ध्यान दिया जावे। बांग्ला देश में भी शुरुआती दौर में पाकिस्तान की तरह से ही सेना द्वारा तख्ता पलटने की कार्रवाई हुई। और सैनिक तानाशाह सत्ता पर काबिज हुए। लेकिन अंततः देश ने लोकतांत्रिक पद्धति को ही प्राथमिकता दी जिसका सुपरिणाम राजनीतिक स्थिरता और भारत के साथ मधुर संबंधों के रूप में देखने मिला। इसके ठीक विपरीत पाकिस्तान ने शुरू से ही भारत को शत्रु मानकर हमलावर रुख अपनाया। 1948 में जम्मू कश्मीर के तत्कालीन महाराजा की अदूरदर्शिता के कारण  भले ही कश्मीर के कुछ हिस्से को हड़पने में वह सफल हो गया किंतु उसके बाद उसने जब भी युद्ध की स्थिति पैदा की उसे जबर्दस्त पराजय के साथ आर्थिक और कूटनीतिक क्षति हुई। और तब उसने आतंकवाद का सहारा लेते हुए भारत को अस्थिर करने का प्रयास किया किंतु इसमें भी वह असफल रहा । उल्टे उसकी आंतरिक हालत बिगड़ने लगी। पहले वहां के सत्ता प्रतिष्ठान पर सेना का दबाव रहता था किंतु बीते तीन दशकों से आतंकवादी संगठन भी सेना की तरह से ही वहां की सरकार पर दबाव बनाने लगे हैं। सैन्य तैयारियों और आतंकवाद को पालने पोसने के फेर में पाकिस्तान का खजाना खाली होता गया। कभी अमेरिका और ब्रिटेन तो कभी सऊदी अरब उसे खैरात रूपी सहारा देते रहे। बाद में चीन सामने आया जिसने उसे कर्ज से लाद दिया। आज की स्थिति में पाकिस्तान कंगाली की हद तक आ पहुंचा है। अमेरिका और सऊदी अरब ने हाथ खींच लिया है। चीन कह रहा है पिछला कर्ज अदा किए बिना नया नहीं देंगे । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जिस तरह की शर्तें रख रहा है वे शर्मनाक हैं। पाकिस्तानी मुद्रा बुरी तरह लड़खड़ा चुकी है। पेट्रोल 250 रु.प्रति लीटर है। आटा , सब्जियां , फल , दवाइयां सभी की महंगाई आसमान छू रही है। घरेलू उत्पादन न के बराबर है। विदेशी मुद्रा का भंडार केवल तीन सप्ताह का आयात बिल चुकाने लायक बचा है। कर्ज का आंकड़ा सकल घरेलू उत्पादन के 80 फीसदी तक पहुंचने से  चिंता का माहौल है। आम जनता की जो भावनाएं सोशल मीडिया के जरिए पता चलती हैं उनके अनुसार नई पीढ़ी के जो लोग शिक्षित हैं उनमें ज्यादातर भारत के प्रति प्रशंसा का भाव रखते हुए उसकी प्रगति से प्रभावित हैं। यहां तक कि वे बांग्ला देश से  तुलना करने पर अपने देश को लेकर शर्म महसूस करते हैं। पाकिस्तान के बुद्धिजीवी खुलकर  ये कहने लगे हैं कि भारत विरोध के नाम जनता का भावनात्मक शोषण होता रहा। कश्मीर विवाद से पिंड छुड़ाने की बात भी अनेक लोग करते सुने जा सकते हैं। लेकिन इन जनभावनाओं से वहां के राजनेता और फौजी अधिकतर असहमत हैं । हाल ही में प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने भारत से बातचीत की इच्छा जताई किंतु उसके कुछ देर बाद ही कश्मीर का मसला उठाकर पीछे हट गए। भारत और पाकिस्तान के बीच व्यापार रुका हुआ है। लेकिन भारतीय वस्तुएं विशेष रूप से सौंदर्य प्रसाधन और दवाएं दुबई और अफगानिस्तान के रास्ते वहां आकर बिकती हैं जिससे दाम बढ़ जाते हैं। पाकिस्तानी व्यापारी भी भारत से सीधे व्यापार के पक्षधर हैं। मौजूदा स्थिति में यदि पाकिस्तान भारत से रिश्ते सुधारकर सीमा पर तनाव पैदा करना और आतंकवाद को बढ़ावा देना बंद कर दे तो उसकी आंतरिक स्थिति बिगड़ने से बच सकती है। आटा और सब्जियां उसे कम कीमत पर हासिल होने से अर्थव्यवस्था को टेका लग सकता है। दोनों देशों के बीच पर्यटन की भी असीम संभावनाएं हैं। लेकिन ये सब तभी हो सकता है जब  पाकिस्तान के हुक्मरान भारत के प्रति शत्रुता का भाव त्यागकर द्विपक्षीय हितों की चिंता करें। पाकिस्तान जिस हालत में है यदि ज्यादा दिन ऐसा चला तब उसके और टुकड़े होना मुमकिन है क्योंकि अब पाक अधिकृत कश्मीर के साथ ही बलूचिस्तान और पश्चिमी सीमा पर अफगानिस्तान से सटे इलाके उससे अलग होने छटपटा रहे हैं। देर सवेर तो सिंध भी उसी रास्ते पर चल सकता है। ऐसे में शाहबाज  शरीफ को अभी भी अक्ल  आ जाए तो इस मुल्क की डूबती नाव किनारे लग सकती है । वरना तो उसका खुदा ही मालिक है।

रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 17 February 2023

अति और अंध दोनों विश्वास घातक : नेता और अफसर बाबाओं को बना रहे भगवान



म.प्र के सीहोर जिले में स्थित पंडित प्रदीप  मिश्रा के  कुबेरेश्वर धाम में सप्ताह भर के  शिव पुराण महाकथा  और रुद्राक्ष महोत्सव के आयोजन में गत दिवस अनुमान से ज्यादा श्रद्धालुओं के आ जाने से अफरा तफरी मच गयी | आयोजकों ने 2 लाख लोगों के जमा होने की जानकारी प्रशासन को दी थी लेकिन पिछले अनुभवों के आधार पर पुलिस और  प्रशासन ने उससे कहीं  ज्यादा लोगों की व्यवस्था की किन्तु तकरीबन 20 लाख  लोग वहां जमा हो गए जिससे अव्यवस्था फ़ैल गयी | दरअसल कुबेरेश्वर धाम में एक मुखी रुद्राक्ष का वितरण होता है जिसके बारे में दावा है कि उसे पानी में डालने के बाद उस पानी को पी जाने से तमाम परेशानियाँ दूर हो जाती हैं | 40 काउंटर बनाकर लाखों लोगों को रुद्राक्ष का वितरण भी किया गया  लेकिन  तीन लाख की आबादी वाले सीहोर शहर में 20 लाख लोगों का जमा होना हादसे की वजह बना   | इस वजह से भीड़ नियंत्रित करने के सारे उपाय धरे रह गए | भोपाल से इंदौर  जाने वाली सड़क पर मीलों का जाम लग गया | महाराष्ट्र की एक महिला की हृदयाघात से मौत हो गयी | हजारों लोगों को अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा वहीं सैकड़ों लापता हैं | कल प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी इस आयोजन में जाने वाले थे | उनका हैलीपैड जहाँ बनाया गया वहां से आयोजन स्थल तक जाने की सड़क पर इतनी भीड़ थी कि उनका आना स्थगित हो गया | पंडित मिश्रा का कुबेरेश्वर धाम इन दिनों काफी चर्चा में है | राजनेताओं की आवाजाही से  पंडित जी की पूछ परख काफी बढ़ गयी है | प्रशासनिक अधिकारी भी बाबाओं के प्रति श्रद्धा रखते हैं क्योंकि इनके जरिये उनका स्थानान्तरण और पोस्टिंग मनचाही जगह हो जाती  है | अनेक मंत्री तो खुलकर इनकी चरणवंदना करते देखे जाते हैं | मिश्रा जी अपने बयानों से भी चर्चाओं में  हैं | ऐसे में उनके प्रवचन सुनने और फिर चमत्कारिक रुद्राक्ष की चाहत में जमा हुई भीड़ ने पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए जो वैसे तो उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है | लेकिन गत दिवस जो हुआ वह प्रशासनिक लापरवाही के साथ ही राजनेताओं के लिए भी शर्म  की बात है जो अपने स्वार्थवश इस तरह के कथावाचको को सिर पर बिठा लेते हैं | कल दिन भर सीहोर और आसपास के इलाकों में जनसैलाब जिस तरह से नजर आया उसने अव्यस्था को  पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया | लाखों लोगों के लिए न  पानी का इंतजाम हो सका और न ही भोजन का | बीती रात लोगों को खुले आसमान के नीचे गुजारनी पड़ी | जब इस बद इन्तजामी और प्रशासनिक विफलता की देशव्यापी आलोचना हुई तब आज प्रशासन के दबाव में रुद्राक्ष महोत्सव तो पंडित जी ने रद्द कर दिया लेकिन शिवरात्रि संबंधी शेष आयोजन जारी  रहेंगे | कल बहुत से लोग जो  अपने वाहनों से कुबेरेश्वर पहुंचे थे वे वाहन वहीं छोडकर 15 – 20 किलोमीटर चलकर निकल सके | अभी भी भोपाल – इंदौर मार्ग अवरुद्ध है | कांग्रेस ने सरकार से स्तीफा मांगा है | लेकिन उसके नेता भी तो बाबाओं के आयोजनों में बढ़ – चढ़कर हिस्सा लेते हैं | हाल ही में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ बागेश्वर धाम में धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री से आशीर्वाद लेकर आये हैं | कंप्यूटर बाबा तो कांग्रेस में हैं ही जिन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह को जिताने के लिए  भोपाल में  यज्ञ किया किन्तु उसके बाद भी श्री  सिंह बुरी तरह हारे | ऐसे बाबाओं को राज्य की भाजपा और कांग्रेस सरकारें राज्यमंत्री का दर्जा देती हैं | बाहर से आने वाले बाबाओं को राजकीय अतिथि बनाकर उनके लिए लाल कालीन बिछाया जाता है | आजकल विधान सभा चुनाव के मद्देनजर कहीं जया किशोरी के प्रवचन हो  रहे हैं तो कहीं बागेश्वर धाम वाले शास्त्री जी  का दरबार सज रहा है | भागवत के प्रवचनों की भी बाढ़ आ गई है | इनमें होने वाले भंडारों के जरिये वोटों की फसल उगाने की तैयारी जोरों पर है | निजी चर्चाओं में बाबाओं को पाखंडी बताने वाले नेतागण सार्वजनिक रूप से इनका अभिनंदन करते देखे जाते हैं | जाहिर है  इसका आम जनता पर भी प्रभाव पड़ता है | धर्म और आध्यात्म बहुत श्रेष्ठ चीज है | इसके सहारे समाज में सात्विकता को बढ़ावा देना संभव है | आज भी  देश में ऐसे अनेक साधु , संत , महात्मा और  मुनि हैं जिनके प्रवचनों में सद्विचारों की अमृत वर्षा होती है | लेकिन वे तामझाम से दूर रहकर सन्यास की पवित्र  परम्परा का निष्ठापूर्वक निर्वहन करते हैं | दूसरी तरफ  इलेक्ट्रानिक मीडिया को भागीदार बनाकर धर्म का जो धंधा कुछ बड़े नाम वाले बाबाओं ने चला रखा है उसकी वजह से धार्मिक कार्यक्रम   भी इवेंट  मैनेजमेंट में बदल गये हैं  | इसीलिये इनका आयोजन या तो नेता कर पाते हैं या फिर काले धन की कमाई वाले लोग | आम जनता चूंकि इस खेल को समझ नहीं पाती  इसलिए वह भेड़ – बकरी की तरह चल पड़ती है | लेकिन आश्चर्य तो तब होता है जब सुशिक्षित और समझदार समझे जाने वाले लोग भी  ऐसे अयोजनों  में फंसते हैं | इसमें दो मत नहीं हैं कि राजनेता और सरकारी अधिकारी इन बाबाओं से दूरी  बनाकर चलने लगें तो इनका कारोबार सिमटते देर नहीं लगेगी | अर्थशास्त्र में कहावत है कि खराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है |  धर्म और आध्यात्म के क्षेत्र में अवतरित हुए स्वयंभू भगवानों के कारण ही जो सही मायनों में विद्वान् हैं ,  वे नेपथ्य में चले जाते हैं | चाहे पंडित मिश्रा हों या धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री उनके आध्यात्मिक ज्ञान पर बिना किसी भी प्रकार का संदेह किये ये कहा जा सकता है कि वे लोगों को अनुशासन भी  सिखायें जिसके बिना धर्म का पालन असम्भव है | अति विश्वास और अंधविश्वास दोनों बुरे हैं | कल ही बागेश्वर धाम में एक महिला परिक्रमा के दौरान चल बसी | ऐसे आयोजनों पर रोक लगाना तो संभव  नहीं किन्तु इनकी व्यवस्था केवल पुलिस और प्रशासन की नहीं अपितु प्राथमिक तौर पर आयोजकों की भी जिम्मेदारी है | इस घटना से सबक लेकर सरकार को भी चाहिये कि जिस जगह लाखों लोगों के आने की सम्भावना हो वहां वैकल्पिक मार्ग और आपातकालीन व्यवस्थाएं रखी जावें  | कुबेरेश्वर में जो हालात बने उसके दोषियों का पता तो जाँच से ही  चलेगा  किन्तु आम तौर पर ऐसी जांचें भी रस्म अदायगी होती हैं | इसलिए कम से कम इतना ही किया जावे कि राजनेता ऐसे जमावडों से दूर  रहें क्योंकि पुलिस और प्रशासन उनकी सुविधा और सुरक्षा में लग जाता है और बेचारी जनता भीड़ का शिकार होती है |

रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 16 February 2023

टाटा द्वारा विमान खरीदी भारतीय उड्डयन व्यवसाय की ऊंची उड़ान



जब एयर इंडिया को टाटा ने खरीदा तब इस बात  को लेकर बड़ा हल्ला मचा था कि सरकार अपनी संपत्तियों को बेच रही है | लेकिन एयर इण्डिया को जिस तरह से रोजाना घाटा हो रहा था उसे देखते हुए उसका विनिवेश बुद्धिमत्ता भरा निर्णय था | ये प्रस्ताव वैसे तो डा.मनमोहन सिंह की सरकार के समय से ही विचाराधीन था लेकिन निर्णय क्षमता की कमी से बात आगे नहीं बढ़ सकी | मोदी सरकार के आने के बाद घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रमों के विनिवेश का काम तेज हुआ  | हालाँकि अभी भी वह तय लक्ष्य से पीछे है लेकिन फिर भी अनेक उपक्रमों को बेचकर सरकार ने अपने घाटे को कम करने का प्रबन्ध कर लिया | एयर इण्डिया उस दृष्टि से काफी अहम सौदा था | आलोचकों की मानें तो टाटा काफी फायदे में रहा क्योंकि विदेशी उड़ानों की जितनी अनुमति एयर इंडिया के  पास हैं  उतनी  किसी और भारतीय उड्डयन कम्पनी के पास नहीं होने से एक तरह से एकाधिकार का लाभ उसे मिलता है | बावजूद उसके सरकारी  तंत्र की लचर कार्यप्रणाली और प्रतिस्पर्धा में टिके रहने की अक्षमता ने उसको सफ़ेद हाथी बनाकर रख दिया | अतीत में किये गए सौदों में बिना जरूरत विमान खरीद लिए जाने से कम्पनी का भट्टा बैठ गया | लेकिन टाटा समूह के हाथ में जाते ही एयर इण्डिया के कायाकल्प की शुरुवात हो गयी | घरेलू उड्डयन व्यवसाय में इंडिगो के पास आधे से ज्यादा कारोबार है जिसकी तुलना में एयर इंडिया बहुत पीछे है | लेकिन गत दिवस टाटा ने विश्व का सबसे बड़ा उड्डयन सौदा करते हुए भारतीय उड्डयन व्यवसाय को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के साथ ही घरेलू मोर्चे पर भी मजबूती प्रदान करने का रास्ता साफ़ कर दिया | कुल 470 विमानों के इस सौदे में अमेरिका की बोईंग से 220 और फ़्रांस की एयर बस से 250 विमान खरीदने का करार हुआ | सबसे बड़ी बात ये रही कि इस सौदे पर हस्ताक्षर होते समय अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन , फ़्रांस के राष्ट्रपति मेक्रान , ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आभासी माध्यम से जुड़े रहे और उनकी आपस में चर्चा भी हुई | इस बारे में ये पूछा जा सकता है कि ब्रिटेन को इससे क्या लेना देना तो उसका जवाब ये है कि एयर बस में जिस रोल्स रायस का एंजिन लगता है वह ब्रिटेन की कम्पनी है जो अपनी आलीशान कारों के लिए प्रसिद्ध है | लेकिन उसका मुख्य कार्य एंजिन बनाना ही है | चूंकि अरबों - खरबों का  सौदा उनके देश की निजी कम्पनी को हुआ इसलिए ही वहाँ के राष्ट्राध्यक्ष इस अवसर पर अपनी मौजूदगी  दर्ज कराने में नहीं झिझके और उसे  कूटनीतिक अवसर में बदलते हुए श्री मोदी को बधाई देकर भारत के साथ बढ़ते व्यापारिक संबंधों के प्रति संतोष व्यक्त किया | इस बारे में विचारणीय बात ये है कि संसद के बजट सत्र में विपक्ष ने प्रधानमंत्री और गौतम अडानी की निकटता पर हल्ला मचाते हुए आरोप लगाया कि उन्होंने अडानी समूह को विदेशों में ठेके दिलवाने में अपने प्रभाव का उपयोग किया | लेकिन टाटा समूह द्वारा किये गये संदर्भित सौदे के समय अमेरिका , फ़्रांस और ब्रिटेन के राष्ट्राध्यक्ष  की आभासी उपस्थिति और उनका श्री मोदी से  बात करना भारत के विपक्षी  दलों को ये सन्देश है कि अपने देश के उद्योगपति और व्यवसायी को विदेशी सौदे दिलवाने में वहां की सरकारें खुलकर मदद करती हैं क्योंकि उससे अंततः फायदा तो देश का ही होता है | उल्लेखनीय है टाटा समूह ने दुनिया  की प्रसिद्ध ऑटोमोबाइल कम्पनी फोर्ड से जगुआर और लैंड रोवर ब्रांड भी खरीद लिया था | लंदन के जिस होटल में विमानों का सौदा हुआ वह भी संयोगवश टाटा समूह का ही है | हालाँकि विमानों की आपूर्ति होने में दो साल लगेंगे लेकिन कुछ विमान इस साल के आखिर में  एयर इण्डिया के बेड़े में आ जायेंगे | भारत में घरेलू उड्डयन व्यवसाय जिस तेजी से बढ़ रहा है और मोदी सरकार लगातार नये विमान तल बनाने का निर्णय ले रही है उससे आने वाले कुछ ही सालों में विमानन कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी जिसका लाभ यात्रियों को मिलेगा | 470 विमान आने के बाद एयर इण्डिया वैश्विक स्तर पर भी विदेशी एयर लाइंस को टक्कर दे सकेगी | यहाँ यह उल्लेखनीय कि बड़ी संख्या में  भारतीय  दुनिया के विभिन्न  देशों में बसे हुए हैं | उनकी पहली प्राथमिकता एयर इंडिया ही होती है किन्तु विमानों की कमी और सेवा में गुणवत्ता के अभाव के चलते उन्हें दूसरी एयर लाइंस के विमानों से आना - जाना  पड़ता है | जैसे - जैसे बोईंग और एयर बस की आपूर्ति उक्त सौदे के अंतर्गत होती जायेगी वैसे - वैसे  एयर इण्डिया तो आगे बढ़ेगी ही भारत को भी उसका लाभ मिलेगा | इसके चलते विदेशी पर्यटकों की आवक भी बढ़ सकती है | घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रमों के विनिवेश के बाद निजी क्षेत्र का बेहतर प्रबंधन उनको किस तरह विकसित कर सकता है उसका सबसे ताजा उदाहरण है एयर  इंडिया द्वारा किया गया 470 विमानों का सौदा | इस अवसर  चार देशों के राष्ट्राध्यक्षों की आभासी उपस्थिति इसकी महत्ता का प्रमाण तो है ही साथ ही इस बात को दर्शाता है कि वैश्विक स्तर पर होने  वाले निजी व्यावसायिक सौदों में भी संबंधित देशों की सरकारों की कितनी भूमिका रहती है | अब देखना ये है कि अडानी समूह को सरकारी संरक्षण दिए जाने का आरोप लगाने वाले विपक्षी नेता और अन्य आलोचक टाटा द्वारा की गई  दुनिया की सबसे बड़ी विमान खरीदी के करार के समय श्री मोदी की विदेशी राष्ट्राध्यक्षों के साथ आभासी मौजूदगी पर क्या कहते हैं ?

रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 15 February 2023

भारत विरोधी रिपोर्टिंग के लिये बीबीसी पर पहले प्रतिबन्ध तक लगे हैं




बीबीसी ( ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन ) भारतीयों के लिए एक जाना  पहिचाना नाम है | यद्यपि संचार माध्यमों के असीमित विकास की वजह से अब इसकी अहमियत पहले जैसी तो नहीं रही किन्तु अभी भी ये धारणा कुछ हद तक कायम  है कि यह  निष्पक्ष तो है ही साथ ही समाचार प्रेषण में तेज भी है | हाल ही में बीबीसी  अपनी दो  डाक्युमेंटरी को लेकर चर्चा में आया था जिनमें 2002 के गुजरात दंगों के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कठघरे में किया गया था | भारत सरकार ने इसे देश की  छवि खराब करने वाला प्रयास बताते हुए कुछ सोशल  मीडिया प्लेटफार्मों को  उनकी लिंक  हटाने का निर्देश दिया | जिस पर  विपक्षी  दलों ने अभिव्यक्ति की  स्वतंत्रता का मुद्दा उछालकर प्रधानमंत्री और सरकार पर ताबड़तोड़ आरोप लगाये  |  डाक्युमेंटरी के प्रसारण को रोकने के बावजूद वामपंथी छत्र संगठनों ने जेएनयू , जामिया मिलिया और उस्मानिया विवि में  उसे दिखाने का प्रयास भी किया जिसे लेकर विवाद भी हुए | बहरहाल ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक द्वारा डाक्युमेंटरी की  विषयवस्तु से असहमति व्यक्त करते हुए उसे श्री मोदी की छवि खराब करने का प्रयास बताया | वह मामला जैसे तैसे ठंडा पड़ा ही था  लेकिन गत दिवस आयकर विभाग की सर्वेक्षण टीमों के   बीबीसी के दिल्ली और मुम्बई  स्थित कार्यालयों पर में पहुँचने पर  बवाल मच गया | विपक्ष ने  इसे अघोषित आपातकाल बता डाला | वहीं भाजपा ने बीबीसी की भूमिका पर सवाल उठाते हुए उसकी तीखी आलोचना की | यद्यपि  आयकर विभाग ने स्पष्ट किया कि ये छापा नहीं सामान्य सर्वेक्षण है और बीबीसी ने भी कहा कि वह  पूरा सहयोग कर रही  है | आयकर टीम का कहना है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय करों संबंधी गड़बड़ियों की जाँच कर रही है | इस बारे में ये भी पता चला है कि बीबीसी वर्ल्ड सर्विस हेतु विदेशों से सहयोग राशि आती है | आयकर विभाग को संदेह है कि उसका उपयोग नियम विरुद्ध किया जा रहा है | हालाँकि सर्वेक्षण पूरा होने के बाद ही दोनों पक्ष अपना अधिकृत बयान देंगे | और कोई समय होता तब शायद इतना बवाल न मचता  किन्तु गुजरात दंगों संबंधी डाक्युमेंटरी पर हुए विवाद के बाद आयकर विभाग  की कार्रवाई पर विपक्ष द्वारा राजनीतिक लाभ को देखते हुए उंगली उठाना  स्वाभाविक है | लेकिन बीबीसी को दूध का धुला साबित करना कांग्रेस के लिए भी दोहरा रवैया अपनाने जैसा है क्योंकि वर्ष 1970 में इंदिरा गांधी के शासन काल में  बीबीसी पर एक शो के जरिये भारत की नकारात्मक छवि पेश करने के आरोप में दिल्ली कार्यालय को 2 वर्ष  के  लिए बंद कर दिया गया था | 2008 में बीबीसी ने बाल श्रमिकों के कारखाने में काम करने वाला जो फुटेज दिखाया उसे लेकर भी सरकार के साथ टकराव हुआ और पड़ताल करने पर वह फुटेज फर्जी निकला | 2015 में भी निर्भया काण्ड संबंधी डाक्युमेंटरी के वैश्विक प्रसारण पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने रोक लगाई थी | जबकि  2017 में राष्ट्रीय उद्यानों और वन्य जीव अभ्यारणों में शूटिंग करने के आरोप में इन स्थानों में पांच साल तक शूटिंग हेतु बीबीसी पर रोक लगी  | 100 वर्ष पहले स्थापित इस संस्थान का इतिहास बहुत ही समृद्ध  है | लेकिन भारत के प्रति इसका रवैया औपनिवेशिक मानसिकता से प्रेरित रहा है | मसलन भारत की सरकार और समाज दोनों की नकारात्मक छवि पेश करने की वजह से बीबीसी हमेशा विवादित होती रही है | उक्त उदाहरणों से ये साबित हो जता है कि बीबीसी के विरुद्ध पहली बार कोई कदम नहीं उठाया गया अपितु ये सिलसिला इंदिरा जी के दौर से चला आ रहा है और पी.वी नरसिम्हा राव और डा. मनमोहन सिंह के समय भी बीबीसी और सरकार में टकराव के अनेक मौके आये | भले ही आयकर विभाग द्वारा की जा रही जाँच का समय प्रधानमंत्री के बारे में आई डाक्युमेंटरी से जोड़ा जा रहा हो लेकिन सामान्य सर्वेक्षण को अघोषित आपातकाल कह देना जल्दबाजी है | विपक्ष को आयकर विभाग की कार्रवाई पूरी होने का इंतजार करना था | इस बारे में बीबीसी प्रबंधन ज्यादा परिपक्व निकला जिसने इस बारे में केवल इतना कहा कि आयकर विभाग का अमला   उनके कार्यालयों में सर्वेक्षण हेतु आया है और वे उसे पूरा सहयोग दे रहे हैं |  यदि सर्वेक्षण में कुछ भी गलत निकलता है तब बीबीसी के साथ भी वही होगा जो आयकर संबंधी नियमों के  अंतर्गत मान्य है | लेकिन भाजपा प्रवक्ताओं को अपनी जुबान पर लगाम लगाना चाहिए जिन्होंने बीबीसी के बारे में तरह – तरह की बातें कहकर आयकर विभाग की कार्रवाई को राजनीतिक प्रेरित बताने वालों को मौका दे दिया | दूसरी तरफ बीबीसी को भी ये  देखना  होगा   कि भारत में अभिव्यक्ति की जो स्वतंत्रता है उसका दुरूपयोग करते हुए देश की छवि धूमिल  करने से वह बचे | आलोचना और कमियां निकालना बुरा नहीं है क्योंकि इन्टरनेट के ज़माने में कुछ भी छिपाकर रखना मुश्किल है | लेकिन सच दिखाने की आपाधापी में बीबीसी यदि कुछ भी दिखाए तो उसका विरोध तो होगा ही | इंदिरा जी द्वारा लगाये गए आपातकाल के दौरान बीबीसी तत्कालीन विपक्ष को अत्यंत प्रिय था क्योंकि तब वह श्रीमती गांधी के विरुद्ध समाचार प्रसारित करता था |  उस समय कांग्रेस उसकी भूमिका से नाराज रहा करती थी किन्तु अब वही उसकी तरफदारी कर रही है | बेहतर हो इस बारे में सभी राजनीतिक दल तात्कालिक लाभ अर्जित करने की बजाय देश की छवि को प्राथमिकता दें | केवल बीबीसी ही नहीं बल्कि अमेरिका और ब्रिटेन के प्रमुख समाचार पत्र भी भारत के बारे में भ्रामक खबरें छापने से बाज नहीं आते | सबसे बड़ी बात तो ये है कि उनको इस तरह की जानकारी हमारे पत्रकार ही देते हैं | कोरोना के समय अमेरिका के अनेक अख़बारों ने भारत में बड़े पैमाने पर मौतों का प्रचार किया जबकि खुद उनके  देश में कहीं ज्यादा लोग मारे गए थे | लगातार नकारात्मक समाचारों की वजह से ही बीबीसी पहले जैसा लोकप्रिय नहीं है | उसकी वित्तीय स्थिति भी बिगड़ रही है क्योंकि ब्रिटिश सरकार उसका अनुदान घटाती जा रही है  | इसके पीछे भी यही सोच है  कि अब बीबीसी जैसे संस्थान धीरे - धीरे प्रतिस्पर्धा से बाहर होते जायेंगे | लेकिन आयकर विभाग को ये साबित करना होगा कि उसकी कार्रवाई सामान्य प्रक्रिया है अन्यथा सरकार पर लग रहे आरोपों को बल मिलेगा | दूसरी तरफ बीबीसी को अपना रवैया बदलते हुए भारत के बारे में पूर्वाग्रह त्यागने होंगे क्योंकि अब ये  देश गुलामी के दंश से उबर चुका है और उसकी अर्थव्यवस्था ब्रिटेन को पीछे छोड़ चुकी है | गुजरात दंगों की बजाय यदि बीबीसी ब्रिटिश सत्ता द्वारा किये गए जलियांवाला बाग़ नरसंहार पर डाक्युमेंटरी बनाता तब उसे निष्पक्ष माना जाता किन्तु आज भी उसे लगता है कि उसके नाम के साथ जुड़ा ब्रिटिश शब्द भारतीयों को गुलाम समझने का  अधिकार देता है |


रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 14 February 2023

छोटे निवेशकों के हितों की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम जरूरी



हिंडनबर्ग नामक अमेरिकी संस्थान की रिपोर्ट में  भारतीय उद्योगपति गौतम अडानी की कंपनियों द्वारा अपने शेयरों के मूल्य उनकी वास्तविक  कीमत से ज्यादा रखने एवं लेखा पुस्तकों में की गयी कथित हेराफेरी के खुलासे के बाद शेयर बाजार की  उठापटक से निवेशकों को हुए नुकसान का मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया है | न्यायालय ने केंद्र सरकार को निवेशकों के हितों के संरक्षण  हेतु पुख्ता व्यवस्था करने का निर्देश दिया जिसके बाद सरकार उक्त मामले की जाँच हेतु समिति बनाने राजी हो गयी | सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में काम करने वाली इस समिति में प्रस्तावित  विशेषज्ञों के नाम न्यायालय को बंद लिफाफे में देने के लिए सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने आश्वस्त किया | हालांकि अडानी मामले की जांच सेबी भी कर रही है वहीं उसकी कंपनियों में निवेश करने वाले भारतीय  स्टेट  बैंक और जीवन बीमा निगम भी अपने स्तर पर पड़ताल में जुटे हैं | लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की चिंता इस बारे में है कि भविष्य में शेयर बाजार में निवेश करने वालों का धन सुरक्षित रहे | यद्यपि शेयर बाजार है तो सट्टेबाजी ही जिसमें पैसा लगाने वाला जब कमाता है तब उसे घाटे के लिए भी तैयार रहना चाहिए | इस बारे में ये कहना गलत नहीं है कि शेयर बाजार के छोटे निवेशक बिना पूरी जानकारी के ज्यादा मुनाफे के आकर्षण में अपना पैसा लगा  देते हैं |  संबंधित कम्पनी और शेयर बाजार की चाल के बारे में पूरी जानकारी न होने से वे  गिरावट के संकेतों को समझ नहीं पाते और घाटा उठाते हैं | यद्यपि अडानी मामले में तो बड़े निवेशकों को भी अंदाज नहीं था कि उनके शेयर धड़ाम से नीचे आयेंगे लेकिन ये देखने में आया है कि जब भी शेयर बाजार में बड़ा धमाका होता है छोटे निवेशक ही घाटा उठाते हैं | अतीत में जब भी ऐसी स्थिति निर्मित हुई तब - तब सरकार और न्यायालय दोनों ने इस बात की जरूरत जताई कि निवेशकों का धन सुरक्षित रहे | सेबी की स्थापना भी इसीलिये की गई थी | दरअसल शेयर बाजार किसी ज़माने में सीमित लोगों का ही विषय था लेकिन उदारीकरण के बाद ज्योंही  बाजारवाद ने भारत में दस्तक दी त्योंही बैंकों द्वारा जमा राशि पर दिया जाने वाला ब्याज कम होने लगा | राष्ट्रीय बचत पत्रों के अलावा सरकार द्वारा संचालित अन्य बचत योजनाओं में धन लगाने पर भी ब्याज की दरों में कमी होती चली गई | इसके पीछे बिश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का दबाव भी बताया गया | डा. मनमोहन सिंह ,  पी. चिदम्बरम और मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे लोगों ने भारतीय अर्थव्यवस्था के चरित्र को पूरी  उपभोक्तावाद में बदल दिया | इधर जमा पर ब्याज दरें  कम हुईं उधर कर्ज भी सस्ता किया गया जिससे उदारवाद ने उधारवाद की शक्ल अख्तियार कर ली | इसके साथ ही शेयर बाजार में ज्यादा मुनाफे की खबरें आने लगीं जिससे छोटा निवेशक आकर्षित हुआ | उसे इस हतु प्रेरित और प्रोत्साहित करने वाले कथित सलाहकार भी तेजी से उभरे | इसका असर ये हुआ कि मध्यम वर्ग के वे लोग जो बैंकों और पोस्ट ऑफिस में अपनी बचत रखते थे वे भी शेयर बाजार के फेर में फंस गए | ऐसा नहीं है कि सभी को घाटा हुआ हो | म्यूचल फंड और शेयरों के जरिये छोटे निवेशकों ने भी अच्छी खासी कमाई की किन्तु इसमें उन लोगों की संख्या ज्यादा रही जिन्होंने शेयर बाजार के उतार चढ़ाव पर पैनी निगाह रखी और उसमें गहरी रूचि ली | दूसरी तरफ  बहुत बड़ा निवेशक ऐसा भी  रहा जो किसी और को देखकर बिना सोचे समझे इस व्यवसाय में कूदा और जब भी बड़ा घोटाला हुआ उसे इसका नुकसान झेलना पड़ा | अडानी मामला  अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो होने की वजह से विदेशी निवेशकों के बिदक जाने का खतरा पैदा हो गया जिससे  सरकार भी चिंता में पड़ गई | हालाँकि उसने संयुक्त संसदीय समिति ( जेपीसी ) बनाने की विपक्ष की मांग को सिरे से नकार दिया किन्तु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्यक्त चिंता से सहमत होते हुए  विशेषज्ञों की समिति बनाने पर रजामंदी देकर अच्छा किया क्योंकि न्यायालय की निगरानी होने से  समिति के कामकाज में राजनीति नहीं आयेगी | जबकि जेपीसी की रिपोर्ट हमेशा विवादों में फंसी रहती है | उसमें सत्ता पक्ष का  बहुमत होने से उसकी निष्पक्षता पर हमेशा सवाल उठा करते हैं | दूसरी तरफ विपक्ष की रुचि सरकार को घेरने में रहने से जाँच में गम्भीरता नहीं रहती | अतीत में जितनी भी जेपीसी बनीं उनकी रिपोर्ट केवल एक दस्तावेज बनकर रह गयी | उस दृष्टि से सरकार और सर्वोच्च न्यायालय सही दिशा में जा रहे हैं क्योंकि राजनीतिक सवाल - जवाब में निवेशकों के हित उपेक्षित हो जाते हैं | सरकार ने इस दिशा में कानूनी प्रावधान  बनाने पर भी सहमति दिखाई है जो स्वागतयोग्य है | लेकिन शेयर बाजार के खतरों से छोटे निवेशकों को समय रहते आगाह करने वाली प्रणाली विकसित किये बिना इस तरह के हालात भविष्य में भी बनते रहेंगे | अडानी समूह पर  हिंडनबर्ग ने जो आरोप लगाये उनकी जांच भी बारीकी से होना चाहिए जिससे निवेशकों को सच्चाई का पता चल सके | अन्यथा हमेशा की तरह सियासी तमाशे में बहुत सी ऐसी बातें दबकर रह जायेंगीं जो छोटे निवेशकों के हितों से जुडी हुई हैं | संस्थागत निवेशकों के बारे में भी नियमन और पारदर्शी होना चाहिए जिससे उंगली उठाने की गुंजाईश न रहे | स्टेट बैंक और भारतीय जीवन निगम ने अडानी समूह में जो निवेश किया गया उसे लेकर तरह  – तरह की बातें हो रही हैं | जीवन बीमा निगम के तो डूबने की  आशंका तक व्यक्त की गयी | हालाँकि दोनों संस्थानों ने निवेश प्रक्रिया के नियमानुसार होने के साथ ही अपनी पूंजी सुरक्षित होने और  उस पर लाभ अर्जित किये जाने की बात कही है | लेकिन उनको और खुलकर अपना स्पष्टीकरण देना चाहिए जिससे उनमें धन लगाने वाला बचतकर्ता भयमुक्त हो सके | उम्मीद की जा सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद इस मामले की सच्चाई सामने आ जायेगी और निवेशकों के धन की सुरक्षा हेतु कोई न कोई त्रुटि रहित व्यवस्था भविष्य के लिए की जा सकेगी |

रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 13 February 2023

ॐ और अल्लाह यदि एक हैं तो ॐ कहने से परहेज क्यों




दिल्ली के रामलीला मैदान में जमीयत उलेमा ऐ हिंद के अधिवेशन में बीते शनिवार को उसके प्रमुख मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि ये मुल्क जितना प्रधानमंत्री मोदी और रास्वसंघ प्रमुख मोहन भागवत का है उतना ही उनका भी। उसके बाद वे बोले कि संघ से उनकी दुश्मनी नहीं है अपितु मतभेद हैं जिसे दोनों करीब आकर दूर कर सकते हैं । मौलाना ने मुस्लिमों के साथ भेदभाव का सवाल खड़ा करते हुए मुस्लिम और ईसाई समाज में जो दलित हैं उनको भी आरक्षण देने की मांग की। लेकिन वे ये कहना नहीं भूले कि वैसे तो इस्लाम में जातिगत भेदभाव नहीं होता किंतु हिंदुओं की देखा सीखी ये बुराई उसमें भी घुस आई। और भी ज्वलंत मुद्दों पर वे बोले। गत दिवस अन्य धर्मों के धर्माचार्य भी आमंत्रित किए गए जिसे अच्छा कदम मानकर हिंदू और जैन संत जमीयत के मंच पर उपस्थित हुए किंतु बजाय समन्वय और सम्मान के मौलाना मदनी अपनी असलियत पर उतर आए और संतों से मुखातिब होकर बोले कि डा. भागवत कहते हैं भारत में रहने वाले हर किसी के पूर्वज हिन्दू थे किंतु तुम्हारे पूर्वज हिन्दू नहीं मनु थे जिन्हें मुस्लिम आदम और ईसाई एडम कहते हैं। इसके आगे उन्होंने कहा कि ये पता करने पर कि मनु किसकी पूजा करते  होंगे तो ज्ञात हुआ वे ॐ को पूजते थे जिसका कोई आकार नहीं है तथा वह सर्वव्यापी है और उसे ही मुसलमान अल्लाह कहते हैं। मदनी ने ये भी कहा कि तुम लोग हिंदू की नहीं मनु की संतान हो जो अल्लाह द्वारा धरती पर उतारे गये पहले इंसान थे। इस प्रकार उन्होंने ये साबित करना चाहा कि मुस्लिमों के पूर्वजों को हिंदू बताना गलत  है क्योंकि खुद हिंदू भी मनु या आदम के वंशज है। उनके ये उद्गार सुनकर  जैन मुनि नाराज होकर जाने लगे जिसके बाद हिंदू संत भी उठकर चले गए । लेकिन जाने के पहले मदनी की बात का विरोध करते हुए उन्होंने कहा कि मेलजोल के लिए बुलाने के बाद इस तरह की भड़काऊ बातें करना अपमाजनक है। बहरहाल इस वाकये से एक बार ये साबित हो गया कि जिस देवबंदी इस्लामिक केंद्र से जमीयत जुड़ी हुई है वह कितनी भी उदारवादी बातें करे लेकिन उसके मन में भरी नफरत और अलगाववादी सोच मिटने की बजाय नए नए रूप में सामने आती रहती है। डा. भागवत से तो मान लिया मौलाना मदनी और अन्य मुस्लिम नेताओं का सहमत होना नामुमकिन है लेकिन इस्लाम के साथ हिंदू आध्यात्म और दर्शन के अध्येता केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने भी हाल ही में कहा है कि उन्हें हिंदू कहा जाए क्योंकि इस देश का हर वासी हिंदू ही है। मौलाना को जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री द्वय क्रमशः डा.फारुख अब्दुल्ला और गुलाम नबी आजाद के उस बयान पर भी ध्यान देना चाहिए कि सैकड़ों साल पहले उनके पुरखे हिंदू ही थे । और तो और खुद मुसलमान ये कहते हैं कि भारत को हिन्दू शब्द तो विदेशी हमलावरों ने दिया जो स का उच्चारण ह करने के कारण सिंधु के इस पार के इलाके को हिंदुस्तान कह बैठे। हिंदुकुश की पहाड़ियों का नाम आज भी यथावत है। मुगलिया इतिहास भी इस देश को हिंदुस्तान ही कहता रहा जिसका शाब्दिक अर्थ हिंदुओं का स्थान अर्थात देश ही हुआ। इस प्रकार भारत पर हमला करने आए मुसलमान या मंगोलों में से जिसने भी ये नामकरण किया किंतु इसे हिंदुस्तान ही कहा जिसका उच्चारण दोष अलग करने पर वह हिन्दुस्थान ही होता है। ऐसे में यदि संघ कहता है कि यह हिंदू राष्ट्र है तो मौलाना और उनके अनुयायियों का रक्तचाप क्यों बढ़ने लगता है ? जब तक आजादी नहीं मिली और पाकिस्तान नहीं बना तब तक सारे मुस्लिम नेता यहां तक कि मो.अली जिन्ना तक इस देश को हिंदुस्तान ही कहा करते थे। यदि संविधान में भारत न लिखकर हिन्दुस्तान लिखा जाता तब हमारी नागरिकता हिंदुस्तानी कहलाती और तब क्या मदनी साहब उसे अस्वीकार करते? उन जैसी अलगाववादी मानसिकता के कारण ही भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की मांग जोर पकड़ रही है। यहां तक कि भारत नाम भी हिंदू परंपरा से ही आया है तब क्या उसका भी विरोध होगा। अंग्रेजी का इंडिया भी सिंधु के अंग्रेजी नाम   इंडस पर आधारित है। संविधान में इस देश का नाम इंडिया जो कि भारत है के स्थान पर हिंदुस्थान जो कि भारत है लिखा जाता तो मौलाना एवं उन जैसी सोच रखने वाले इस तरह की जुर्रत न करते होते। बेहतर है भारत को इंडिया की बजाय हिंदुस्तान कहना ही शुरू किया जाए जिससे यहां रहने वाले के नाम के साथ हिंदू शब्द अनिवार्य रूप से जुड़े। मनु को आदम बताते हुए हमारे संतों से ये कहना कि तुम लोग हिंदुओं की नहीं बल्कि मनु अर्थात आदम की औलाद हो ,  विभाजनकारी सोच को बढ़ावा देने का षडयंत्र है जिसकी गहराई को समझा जाना चाहिए। जरा सोचिए जब मौलाना मदनी जैसे लोग हिंदू और जैन संतों के सामने यदि इस तरह का जहर उगलने बाज नहीं आए तब देवबंद की दीवारों के पीछे इस्लामिक शिक्षा के नाम पर क्या पढ़ाया जाता होगा इसका अंदाज लगाया जा सकता है। समय आ गया है जब इस तरह की  बातों का प्रतिकार होना चाहिये ताकि नई पीढ़ी धर्मनिरपेक्षता की मृग मरीचिका में फंसकर अपनी पवित्र विरासत को न खो बैठे।भारत एक प्राचीन देश है जिसका आध्यात्म ,संस्कृति,  साहित्य और इतिहास विश्व विदित है। जबकि मौलाना साहब जिस धारा से जुड़े हैं उसका प्रादुर्भाव ही लगभग डेढ़ हजार वर्ष  पहले हुआ । वे अपने विश्वास का पालन करें इससे किसी को आपत्ति नहीं है किंतु यदि उनकी नजर में ॐ और अल्लाह एक है तो फिर उन्हें ॐ बोलने में संकोच नहीं करना चाहिए क्योंकि बकौल मौलाना मदनी इसका कोई आकार न होने से ये बुत परस्ती से परे है। लेकिन हिंदुओं को आदम की औलाद मानने वाले मौलाना को योग और सूर्य नमस्कार में स
सांप्रदायिकता दिखती है, शिक्षा के भगवाकरण से मदनी साहब को चिंता है, तीन तलाक पर प्रतिबंध से वे विचलित हैं और समान नागरिक संहिता से उन्हें डर लग रहा है क्योंकि तब ढेर सारी अलगाववादी बातें प्रतिबंधित हो जायेंगी। दरअसल देश के मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन ये मौलाना रूपी लोग ही हैं जो अपनी कौम को सदियों पुरानी सोच से बाहर निकलने नहीं देना चाहते। दुर्भाग्य तो यह है कि ओवैसी जैसे विदेश में शिक्षित नेता भी मौलानाओं जैसी दकियानूसी सोच से बाहर आने राजी नहीं है। जब तक मुस्लिम समाज के भीतर से सुधार के स्वर नहीं उठते तब तक मदनी और ओवैसी उन्हें बरगलाते रहेंगे और मुसलमान मुख्य धारा से अलग थलग बना रहेगा जो उसके पिछड़ने की भी वजह है।

रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 11 February 2023

21 वीं सदी में घिसी पिटी राजनीति को तिलांजलि देना जरुरी



देश जब आजाद हुआ तब संविधान में अनु. जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी | उस समय किसी ने भी इसका विरोध नहीं किया जबकि संविधान बनाने वालों में सवर्ण जातियों के नेताओं का बोलबाला था | संविधान की ड्राफ्ट कमेटी के प्रमुख डा.भीमराव आम्बेडकर ने इसे एक अस्थायी व्यवस्था बताया था | लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते वह एक स्थायी प्रावधान बन गया | 1989 में वी.पी सिंह की सरकार आने के बाद मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने से ओबीसी ( अन्य पिछड़ा वर्ग ) को भी आरक्षण की सुविधा प्रदान कर दी गई | उसके बाद राजनीति में इस वर्ग के नेताओं का दबदबा बढ़ता गया | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि दलित और आदिवासी समुदाय से एक भी ऐसा नेता नहीं हुआ जो राष्ट्रीय राजनीति को निर्देशित कर पाता | हालाँकि कांशीराम और उनके बाद मायावती  दलित राजनीति के बड़े चेहरे बनकर उभरे लेकिन वे जल्द ही उ.प्र के भीतर सिमटकर रह गए | और फिर मायावती के एकाधिकारवादी रवैये के कारण पार्टी में दूसरी पंक्ति का नेतृत्व तैयार न हो सका जिसके चलते वह जितनी तेजी से उठी उतनी ही तेजी से उसका पराभव भी सामने आ गया | कांशीराम निश्चित तौर पर दूरदर्शी नेता थे लेकिन मायावती बजाय  दलित उत्थान के अपने आभामंडल को चमकाने के फेर में अविश्वसनीय बनती गईं और उसी वजह से दलित मतदाता तक उनसे दूर जाने लगे | एक शख्सियत रामविलास पासवान की भी उभरी लेकिन वे भी राजनीतिक अवसर वाद के अलावा परिवार के शिकंजे में फंसकर रह गए | जहाँ तक आदिवासी समुदाय का सवाल है तो उसमें  भी नेताओं की फ़ौज निकली लेकिन वे अपनी सीमाओं से बाहर निकलने में असफल रहे | झारखंड में आदिवासी मुख्यमंत्री बनने के बावजूद उसे देश भर के आदिवासी समुदाय की मान्यता नहीं मिल सकी | शिबू सोरेन एक बड़ा नाम होने के बाद भी लालची प्रवृत्ति के कारण साख गँवा बैठे | लेकिन पिछड़े वर्ग से जिस तरह नेताओं का सैलाब निकला उसने राष्ट्रीय राजनीति पर भी अपना प्रभाव छोड़ा | गैर कांग्रेसवाद का नारा देकर विपक्षी एकता की कल्पना करने वाले डा.राममनोहर लोहिया के चेलों ने कांग्रेस के साथ  गठबंधन करते हुए देश के दो सबसे बड़े राज्यों उ.प्र और बिहार में उसको घुटनों के बल चलने मजबूर कर दिया | इसमें दो राय नहीं है कि  मंडल आयोग की सिफारिश लागू होने से कांग्रेस को जबर्दस्त नुकसान हुआ क्योंकि ओबीसी वर्ग के नेताओं ने कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता का सुख तो लूटा लेकिन उसकी जड़ें भी कमजोर कर दीं | यहां तक कि  मुस्लिम वोट भी उसके हाथ से खिसक रहा है | हालाँकि इसके लिए कांग्रेस भी कम दोषी नहीं है  क्योंकि उसने समय के  साथ अपने को बदलने की  बजाय गांधी परिवार के करिश्मे पर जरूरत से ज्यादा विश्वास किया । जबकि उसकी चमक लगातार घटती जा रही है | दूसरी  तरफ भाजपा ने मंडल रूपी चक्रवात को समय रहते  भांपते हुए उससे बचाव का पुख्ता इंतजाम कर लिया | उच्च जातियों की पार्टी कही  जाने वाली भाजपा ने जिस तरह से ओबीसी , दलित और आदिवासी समुदाय के बीच अपनी पैठ बनाई उसके कारण कांग्रेस का तो सफाया हुआ ही मंडलवादी नेताओं और दलित राजनीति के ठेकेदार भी कमजोर होते चले गए | जिससे ये साबित हो गया कि केवल आरक्षण नामक झुनझुना पकड़ा देने से पिछड़े , दलित और आदिवासी वर्ग को हमेशा अपने मोहपाश में बांधकर नहीं रखा जा सकता | भाजपा के मार्गदर्शक माने जाने वाले रास्वसंघ ने भी हिन्दू समाज के भीतर जाति के नाम पर चली आ रही विसंगतियों को दूर करने का जो अभियान चलाया उसका ही परिणाम है कि आज भाजपा को बिना मुस्लिम तुष्टीकरण किये ही देश  के साथ अनेक प्रदेशों की सत्ता प्राप्त हो सकी | ऐसा नहीं है कि भाजपा जातिगत समीकरणों को साधने से दूर रहती है | लेकिन उसने सोशल इंजीनियरिंग नामक राजनीतिक हथियार का इस्तेमाल बहुत ही सोच समझकर किया जिससे बजाय घृणा  और संघर्ष के सामाजिक समन्वय देखने मिला | इससे ये सिद्ध हो गया कि  तात्कालिक लाभ बांटने  की  राजनीति के दिन लद रहे हैं | हालाँकि अभी भी विभाजनकारी ताकतें अपने निहित स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं | जिसका प्रमाण  हाल ही में रामचरित मानस को लेकर पैदा किये गए विवाद से मिला लेकिन हिन्दू समाज ने जिस समझ्दारी से उसका प्रतिवाद किया उसकी वजह से विवाद शुरू करने वाले अपने कुनबे में भी निंदा के पात्र बन गए। तुष्टीकरण की सियासत भी धीरे धीरे दम तोड़ती दिख रही है।  लेकिन जिस तरह की कोशिशें हो रही हैं उनसे सतर्क रहने की जरूरत है। विपक्ष का धर्म है सत्ता पक्ष को घेरना लेकिन जब राष्ट्रीय हित विशेष रूप से सुरक्षा जैसे मसले पर राजनीति होती है तब दुख होता है। समाज को टुकड़ों में बांटने जैसी राजनीति के विरुद्ध जब तक जनता जागृत नहीं होती तब तक इन शक्तियों को रोकना कठिन होगा। समय आ गया है जब चुनावी राजनीति को ही सब कुछ समझने के बजाय देश के दूरगामी भविष्य को ध्यान में रखते हुए  फैसला करने की मानसिकता पैदा हो। 21 वीं सदी में जब सब कुछ नया हो रहा है तब हमारे देश की राजनीति को भी अपनी चाल और चरित्र बदलना होगा। वरना वोट बैंक की तृष्णा समाज को टुकड़ों में बांटकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है की अवधारणा को नष्ट करने से भी बाज नहीं आएगी।

रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 10 February 2023

चुनाव + चंदा = लोकतंत्र



जब भारत में वामपंथ और समाजवाद अपने शबाब पर हुआ करता था तब पूंजीपतियों को गाली देना राजनीतिक शिष्टाचार का हिस्सा था। 1969 में अपनी पार्टी के भीतर के विरोध को दबाने के लिए स्व. इंदिरा गांधी ने बैंक राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजा महाराजाओं के प्रिवीपर्स बंद कर खुद को आम जनता का चहेता बना लिया। लेकिन उस सबके बाद भी राजनीति में न तो उद्योगपतियों की भूमिका कम हुई और न ही राजा महाराजाओं की। उद्योगपति भले ही चुनाव लड़कर न आते हों किंतु पिछले दरवाजे से राज्यसभा में बैठने का इंतजाम कर ही लेते हैं । के.के.बिरला और उनकी बेटी शोभना भरतिया , राहुल बजाज , ललित सूरी, अनिल अंबानी और विजय माल्या संसद के उच्च सदन के सदस्य रहे हैं। इनके अलावा भी अन्य उद्योगपति अलग अलग पार्टियों की मदद से राज्यसभा का जुगाड़ बिठाते रहे हैं । ररामनाथ  गोयनका जरूर 1971 में जनसंघ की टिकिट पर विदिशा से लोकसभा के लिए चुने गए लेकिन थे वे भी निर्दलीय ही । कुछ नामचीन वकील भी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की मेहरबानी से उच्च सदन में आते रहे हैं । राजा महाराजा तो आज भी अपनी पुरानी रियासतों में असर रखते हैं और चुनाव जीतकर लोकसभा और विधानसभा में नजर आते हैं । कुछ तो मंत्री और मुख्यमंत्री (वसुंधरा राजे) भी बने। जो चुनाव नहीं भी लड़ते वे अपने कृपापत्र को जितवाने का दम रखते हैं। विचारधारा ऐसे मामलों में गौण हो जाया करती है। मसलन समाजवादी पार्टी से पूंजीवाद के प्रतीक अनिल अंबानी और शिवसेना से राहुल बजाज राज्यसभा में पहुंचे। लेकिन ललित सूरी और विजय माल्या  निर्दलीय प्रत्याशी बनकर राज्यसभा जा पहुंचे। जाहिर है वोटों की खरीद इसके पीछे थी। कुल मिलाकर ये देखने में आता रहा है कि राजनीतिक दल बात भले ही जनता की करते हों किंतु पूंजीपतियों के बिना चुनाव नहीं लड़े जा सकते और इसीलिए लोकतंत्र में उनका दखल रहता है। इन दिनों गौतम अडानी नामक उद्योगपति काफी चर्चा में हैं । विशेष रूप से इसलिए क्योंकि उनको प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नजदीकी माना जाता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में श्री मोदी ने उनके निजी विमान से ही प्रचार किया और प्रधानमंत्री बनने से पूर्व अहमदाबाद से दिल्ली भी उसी विमान से आए। इसलिए ये कहना कि उनके श्री अडानी से निकट संबंध हैं , कतई गलत नहीं हैं । लेकिन जिस बात को लेकर राजनीतिक गलियारों में तूफान उठा हुआ है वह है बीते 9 साल में अडानी समूह के आकार और समृद्धि में बेतहाशा वृद्धि। लोकसभा में कांग्रेस सांसद राहुल  गांधी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए जब श्री मोदी और श्री अडानी की नजदीकी  का मुद्दा छेड़ा तो जवाब में भाजपा सांसदों ने गांधी जी की बिरला और बजाज से नजदीकी और इंदिरा जी के जमाने में अंबानी की व्यवसायिक सफलता का जिक्र छेड़कर कांग्रेस को घेरा। स्मरणीय है गोलमेज कांफ्रेंस में गांधी जी के साथ गए प्रतिनिधिमंडल में घनश्याम दास बिरला भी शामिल थे। खैर,  आरोप प्रत्यारोप तो राजनीति के अभिन्न हिस्से हैं परंतु जहां तक सवाल राजनेताओं का है तो सच्चाई यही है कि बिना उद्योगपतियों की मदद के राजनीतिक पार्टी चल ही नहीं सकती। जब प.बंगाल में वामपंथी एकाधिकार था तब बिरला परिवार के संस्थानों में हड़ताल नहीं होती थी क्योंकि ज्योति बसु के उनसे अच्छे रिश्ते थे। दुनिया भर में जहां भी लोकतंत्र है और चुनाव के माध्यम से सरकार चुनी जाती है  वहां चंदा उगाही की जाती है। यद्यपि उसके तौर तरीके अलग अलग होते हैं । इसी तरह जो सत्ता में होता है वह अपने देश के उद्योगपतियों की सिफारिश दूसरे देशों में करता है। आजादी के बाद चार पहिया वाहनों में एंबेसेडर और स्कूटरों में बजाज का बोलबाला हुआ करता था जो क्रमशः बिरला और बजाज परिवार द्वारा बनाए जाते थे। एंबेसेडर तो  एक तरह से सरकार का अधिकृत वाहन होती थी जिस पर सारे विशिष्ट जन चलते थे। इसी तरह बजाज स्कूटर के लिए लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ती थी जिससे उसकी कालाबाजारी भी होती थी। लायसेंस कोटा प्रणाली उदारवाद के आने से खत्म हुई तो  नए नए धनकुबेर पनपे। बिरला टाटा को पीछे छोड़ अंबानी समूह ने बहुत तरक्की की। ये गौरव की बात है कि भारतीय उद्योगपतियों ने विदेशों में भी कारोबार फैलाया है। लेकिन बेशक अडानी समूह की उड़ान सबसे ऊंची  होने से वे नजरों में चढ़ गए। श्री गांधी ने भाजपा को अडानी से प्राप्त चंदे की जानकारी भी पूछी। बीते कुछ सालों से भाजपा को मिलने वाले चंदे में बेतहाशा वृद्धि हुई है। लेकिन जब कांग्रेस सत्ता में थी तब उद्योगपति उस पर धनवर्षा किया करते थे और तब भाजपा ऐसी ही तोहमत लगाती थी । चंदे के बदले सत्ता उन्हें उपकृत करती है ये भी सही है किंतु इसके लिए सभी राजनीतिक दल एक जैसे हैं । आम आदमी पार्टी तक ने राज्य सभा की टिकिटें कुछ ऐसे लोगों को दीं जो धन कुबेर हैं। समाजवादी पार्टी ने स्व.अमर सिंह के जरिए फिल्म और उद्योग जगत से खूब फायदा उठाया। जया बच्चन और अनिल अंबानी को राज्यसभा में भेजना इसका प्रमाण है। दरअसल मौजूदा चुनाव प्रणाली इतनी खर्चीली है कि बिना पैसा बहाए चुनाव जीतना असंभव है। खर्च की जो सीमा चुनाव आयोग स्वीकृत करता है वह मजाक है। ऐसे में उद्योगपति ही दुधारू गाय बनकर सामने आते हैं। ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है जो इनका आर्थिक सहयोग न लेती हो। कम , ज्यादा उसकी ताकत और हैसियत पर निर्भर करता है। गुजरात में कांग्रेस पार्टी या उसके नेताओं ने अडानी समूह से कभी कोई सहयोग न लिया हो ये असंभव है । काले धन को खपाने में चुनाव बड़ा जरिया हैं। इसलिए आज भले भाजपा और अडानी को लेकर हल्ला मचा हो परंतु सभी राजनीतिक दल उद्योगपतियों के काले धन और सुख सुविधाओं के साधनों पर पलते हैं। और जब तक चुनाव प्रणाली में बड़ा सुधार नहीं किया जाता राजनेताओं और उद्योगपतियों के गठजोड़ को तोड़ पाना नामुमकिन है और चुनाव तथा चंदा मिलकर लोकतंत्र के पर्यायवाची बने रहेंगे।


रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 9 February 2023

खतरनाक मोड़ की तरफ बढ़ रही रूस और यूक्रेन की जंग



रूस और यूक्रेन की जंग को एक साल होने जा रहे हैं | सैन्य क्षमता की तुलना करें तो यूक्रेन को कुछ दिनों में ही घुटने टेक देना चाहिए थे क्योंकि रूस जैसी महाशक्ति का मुकाबले करने की क्षमता और साधन  उसके पास नहीं थे | यद्यपि युद्ध का माहौल एकाएक नहीं बना | रूस अनेक सालों से अपने इरादे जाहिर करता आ रहा था | 2014 में क्रीमिया बंदरगाह पर कब्जा करने के साथ ही उसने पूरी दुनिया को बता दिया कि वह किस सीमा तक जा सकता है | बात शायद इतनी न उलझती  यदि यूक्रेन रूस की सारी शर्तें मानते हुए  उसका पिट्ठू बन जाता | लेकिन उसने अपनी सुरक्षा की खातिर अमेरिका प्रायोजित नाटो सैन्य संधि से जुड़ने का जो प्रयास किया उससे रूस के कान खड़े हो गए | भले ही सोवियत संघ के हिस्से रहे तमाम देश अब प्रभुसत्ता संपन्न देश बन गये लेकिन रूस ये नहीं चाहता कि वे अमेरिका के प्रभाव में जाएं क्योंकि  इससे न सिर्फ उसकी सुरक्षा बल्कि आर्थिक हित भी प्रभावित होते हैं | यूक्रेन की देखा सीखी पूर्वी यूरोप के कुछ और देशों ने  नाटो से जुड़ने में रूचि दिखाई जिससे रूस के राष्ट्रपति पुतिन को खतरा महसूस होने लगा । लेकिन यूक्रेन चूंकि बड़ा देश है अतः उसके अमेरिकी खेमे में जाने से उन्हें ज्यादा डर लगा | इसीलिये उसके उन सीमावर्ती  प्रान्तों में जहां रूसी भाषा बोली जाती है रूस ने अलगाववादी आन्दोलन खड़े करवाए और फिर बहाना  बनाकर गत वर्ष फरवरी में विधिवत आक्रमण कर दिया | चूंकि उस समय तक यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं बना था लिहाजा अमेरिका युद्ध में सीधे शामिल नहीं  हो सकता था और फिर वह एक साल पहले ही  अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाकर निकला था । इसलिए राष्ट्रपति वाईडन  अपनी  सेना  दूसरे देश की धरती पर भेजने से पीछे हट गये | लेकिन यूक्रेन को यदि अकेला छोड़ दिया जाता तब रूस सीधे सीधे यूरोप के मुहाने पर आकर बैठ जाता जो अमेरिका को मंजूर नहीं था | इसलिए उसने और उसके साथी देशों ने यूकेन को सैन्य सामग्री देने की नीति अपनाई | आर्थिक तथा अन्य सहायता भी दिल खोलकर दी गयी | इसके बलबूते ही यूक्रेन बर्बादी झेलते हुए भी रूस के सामने डटा हुआ है | लेकिन अब जबकि युद्ध की वर्षगांठ आने को है तब दो तरह की संभावनाएं सुनने में आ रही हैं | पहली तो ये कि रूस और यूक्रेन के बीच समझौता  हो जाये जिसके अंतर्गत यूक्रेन रूस के व्यापारिक हितों के अनुकूल अपनी भूमि और बंदरगाहों का उपयोग करने की सुविधा उसे दे और नाटो की सदस्यता का इरादा त्यागते हुए उसका अघोषित उपनिवेश बन जाए | लेकिन ऐसा करते समय पुतिन ये भी चाहेंगे कि वहां के मौजूदा राष्ट्रपति जेलेंस्की हट जाएँ और मास्को समर्थक पिट्ठू सत्ता संभाले | हालाँकि इसके लिए अमेरिका कितना तैयार होता है ये कह पाना कठिन है | दूसरी संभावना ये है कि रूस यूक्रेन को पूरी तरह पराजित कर उस पर कब्जा करने के बाद कठपुतली सरकार वहाँ बनवा दे जैसा सोवियत संघ के ज़माने में हुआ करता था | यद्यपि ऐसा करने के लिये रूस को और आक्रामक होकर निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी जिसमें सैनिकों की बलि के अलावा सैन्य सामग्री  भी काफी खर्च होगी | इसमें दो मत नहीं है कि इस जंग में यूक्रेन  आर्थिक तौर पर तबाह हो गया है | पूरा देश खंडहर में तब्दील होने से तमाम सुविधाएं और व्यवस्थाएं चौपट हो गईं हैं | लाखों लोग देश छोड़कर जा चुके हैं | जनता पूरी तरह हलाकान है | हजारों लोग मारे जा चुके हैं | उधर रूस भी कम परेशान नहीं है |  उसका विदेशी व्यापार  ठप्प पड़ा है  |आर्थिक प्रतिबंधों के कारण उसे अपना कच्चा तेल और  गैस , भारत तथा चीन को सस्ते दाम पर बेचना पड़ रहा है | जनता भी पुतिन से नाराज हो रही है | स्टालिन के ज़माने जैसी हत्याएं भी सुनने में आ रही हैं | कुल मिलाकर वह भी बुरी तरह उलझ गया है | लेकिन इस युद्ध का  अंजाम क्या होगा इसे लेकर  पूरी दुनिया परेशान है । हालांकि अमेरिका , ब्रिटेन और जर्मनी यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति जारी रखने के संकेत दे रहे हैं लेकिन कहीं न कहीं उन्हें भी ये युद्ध निरर्थक लगने लगा है।और इसी कारण स्थितियां खतरनाक मोड़ लेने की ओर बढ़ रही हैं।द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान पर किया गया परमाणु हमला इसका उदाहरण है। रूस इस हद तक जायेगा या नहीं और अमेरिका किस सीमा तक यूक्रेन को मदद देता रहेगा ये बड़े सवाल हैं। कोरोना के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ा गई है ऊपर से इस युद्ध ने सब उलट पलट कर दिया । संरासंघ की लाचारी भी उभरकर सामने आ चुकी है । भारत ने हालांकि युद्ध में किसी  का साथ  न देकर कूटनीतिक कौशल तो दिखा दिया किंतु इससे हमारे आर्थिक हित भी प्रभावित हो रहे हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया को पुतिन के रूप में हिटलर नजर आ रहा है। और डर इसी बात का है कि जीत न मिलने की हालत में वे वह कदम न उठा लें जिसका डर है। वैसे भी बीते एक साल में वे अनेक बार परमाणु हमले की चेतावनी दे चुके हैं। दरअसल विश्व समुदाय के साथ पुतिन का संवाद न के बराबर है। भारत और चीन ही वे देश हैं जिनसे उनका संपर्क है लेकिन दोनों तटस्थ बने हुए हैं। संरासंघ भी मिट्टी का माधो साबित हो चुका है। उसके अलावा भी जो संगठन हैं वे भी बीच बचाव की बजाय दूर से तमाशा देख रहे हैं जबकि इस समय दुनिया में शांति की जरूरत है।ऐसे में  ये युद्ध जल्द न रुका तो इसका अंत हिरोशिमा और  नागासाकी जैसी  विभीषिका उत्पन्न कर सकता है जिसके बाद आग और फैल जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।

रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 8 February 2023

सदन को बाधित कर विपक्ष अप्रत्यक्ष रूप से सरकार की मदद कर रहा



बजट सत्र संसद का सबसे महत्वपूर्ण और लंबा सत्र होता है । इस सत्र में देश की भावी आर्थिक दशा और दिशा का निर्धारण होता है। हालांकि देखा गया है की बजट के बारे में बहस का स्तर निरंतर गिरता चला जा रहा है और इसीलिए इस महत्वपूर्ण विषय पर जितना गंभीर विमर्श होना चाहिए उतना नहीं हो पाता। इसके लिए केवल विपक्ष ही नहीं अपितु सत्ता पक्ष भी बराबर का दोषी है । ये कहना गलत नहीं है कि अब सांसद पहले की तरह तैयारी कर नहीं आते। यद्यपि नई संसद के गठन के पूर्व नवनिर्वाचित सदस्यों को वरिष्ठ सांसदों द्वारा संसदीय प्रक्रिया से प्रशिक्षित करने का कार्यक्रम भी रखा जाता है । संसद में हुई पुरानी बहसों का रिकॉर्ड संसद के पुस्तकालय में सुरक्षित है । जिनसे सांसदों को मार्गदर्शन लेना चाहिए परंतु   आज के सांसद पुस्तकालय में बहुत कम दिखाई देते हैं। वैसे न केवल बजट बल्कि अन्य सत्रों में भी जरा जरा सी बातों पर विपक्ष हंगामा करते हुए सदन को चलने नहीं देता जिसके कारण से बहुत से महत्वपूर्ण प्रस्ताव बिना समुचित बहस के पारित हो जाते हैं। ऐसा होने से सत्ता पक्ष विधायी कार्य करने की औपचारिकता तो पूरी कर देता है किंतु यह परिपाटी संसदीय प्रजातंत्र की सार्थकता और उपयोगिता दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। संसद के मौजूदा बजट सत्र में विपक्ष द्वारा गौतम अडानी की कंपनियों के बारे में अमेरिका की हिंडनबर्ग नामक संस्था की रिपोर्ट को लेकर हंगामा मचा रखा है। उसकी मांग है कि इस मामले की जांच के लिए  संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन किया जाए। दूसरी तरफ सत्ता पक्ष का कहना है कि इस , विवाद से सरकार और संसद दोनों का कोई संबंध नहीं है और शेयर मार्केट को नियंत्रित निर्देशित करने वाली संस्था सेबी इस मामले की जांच कर ही रही है।इसलिए इस पर चर्चा गैर जरूरी होगी ।  वहीं विपक्ष का आरोप है कि सरकार के इशारे पर भारतीय स्टेट बैंक और जीवन बीमा निगम जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों ने गौतम अडानी की कंपनियों को अनाप शनाप कर्ज देकर  आम जनता द्वारा जमा किया हुआ धन खतरे में डाल दिया है । जवाब में सरकार कह रही है कि जो कुछ हुआ  वह नियमानुसार है और इस वजह से जेपीसी के गठन का कोई औचित्य और आवश्यकता नहीं है । लेकिन अपनी मांग को लेकर  विपक्ष सदन नहीं चलने दे रहा जिससे जनता के धन की बर्बादी हो रही है। यद्यपि अतीत में जब मौजूदा सत्ताधीश विपक्ष में रहे तब वे भी सदन को बाधित करने के लिए इसी तरह का आचरण किया करते थे। गत दिवस राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस होने के  सरकारी अनुरोध पर विपक्ष ने सहमति दी जिसके बाद कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधे आरोप लगाया कि उनके संरक्षण के कारण ही गौतम अडानी देखते देखते देखते समृद्धि और सफलता के चरम शिखर पर जा पहुंचे। श्री गांधी के भाषण का अधिकांश समय अडानी और मोदी के संबंधों  पर केंद्रित था। लेकिन   भाषण के अंत में राष्ट्रपति के अभिभाषण के समर्थन या विरोध का कोई उल्लेख उन्होंने नहीं किया । इससे साबित होता है कि विपक्ष के वरिष्ठ नेता तक को इस बात का ज्ञान नहीं था कि वह किस विषय पर बोलने खड़े हुए थे। आज प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के अभिभाषण पर अपना वक्तव्य देने जा रहे हैं। निश्चित रूप से वे श्री गांधी के आरोपों का सिलसिलेवार जवाब देंगे और जैसा कि बीते 8 वर्षों में देखने  जब-जब भी श्री मोदी ने सदन में किसी भी विषय पर  भाषण दिया तब तब उन्होंने विपक्ष को पूरी तरह धराशायी कर दिया । निश्चित रूप से गौतम अडानी की कंपनियों को लेकर हिंडनबर्ग द्वारा किया गया खुलासा कई गंभीर बातों की ओर इशारा करता है क्योंकि इससे भारत में पूंजी बाजार के नियमन में पारदर्शिता का सवाल उठ खड़ा हुआ है। लेकिन इस विषय पर  यदि आगे भी सदन को चलने नहीं दिया गया और गतिरोध बना रहा तो इससे नुकसान विपक्ष का ही होगा।  उदाहरण के लिए कल  राहुल गांधी ने सरकार के विरुद्ध आरोपों की जो झड़ी लगाई उससे विपक्ष की जागरूकता और सक्रियता दोनों का परिचय मिला। भारत जोड़ो यात्रा के बाद यह श्री गांधी का संसद में पहला भाषण था जिसमें उनका जोश पूरी तरह नजर आया।  लेकिन विपक्ष ने आगे भी  संसद में गतिरोध जारी रखा तो फिर  सरकार  अपने प्रस्तावों को तो हंगामे के बीच भी पारित करवा लेगी परंतु विपक्ष सरकार को घेरने के अपने अवसर को गंवा देगा। वैसे राज्यसभा में भी कांग्रेस ने अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस की शुरुवात कर दी है। और लोकसभा में प्रधानमंत्री के भाषण के बाद यह पारित भी हो जायेगा । इसके बाद अगर विपक्ष जेपीसी की मांग पर अड़ा रहकर सदन को चलने नहीं देता तो फिर ये मानकर चलना होगा कि उसके पास मुद्दों का अभाव है और इसीलिए देश में ये अवधारणा मजबूत होती जा रही है कि कांग्रेस विपक्ष की भूमिका का निर्वहन सही तरीके से नहीं कर पा रही। बेहतर होगा सभी विपक्षी दल बजट सत्र का सदुपयोग करें। सरकार को घेरने का उन्हें पूरा अधिकार है और यह उनका लोकतांत्रिक कर्तव्य भी है। लेकिन संसदीय प्रक्रिया को बाधित करने से  सिवाय तात्कालिक प्रचार के और कुछ हासिल नहीं होता। देश के सामने अडानी से भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिन पर संसद में विस्तृत चर्चा होनी चाहिए किंतु इसके लिए सदन का चलना और उसमें विपक्ष का रहना जरूरी है। बेहतर होगा विपक्ष अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए चतुराई के साथ पेश आए। अल्पमत में होने के बाबजूद भी वह चाहे तो सरकार की गलतियों का पर्दाफाश कर सकता है लेकिन ये तभी संभव है जब सदन सुचारू रूप से चले।अन्यथा सदन के संचालन को बाधित कर वह अप्रत्यक्ष रूप से सरकार को मदद ही पहुंचा रहा है।

रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 7 February 2023

नीतीश और उपेंद्र का झगड़ा समाजवादी परंपरा का निर्वहन



बिहार  में जद(यू) का विवाद जिस तरह सड़क पर आ गया है उससे लगता है अगले लोकसभा चुनाव के पहले वहां की सियासत में बड़ा तूफान आ सकता है। पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा द्वारा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विरुद्ध खुलकर जंग छेड़ने से जद(यू) के साथ ही तेजस्वी यादव की राजद भी भन्नाई हुई है। उपेंद्र जद(यू) की ओर से विधान परिषद के सदस्य हैं। पूर्व में वे  केन्द्र की एनडीए  सरकार में मंत्री भी रहे किंतु बाद में नाराज होकर नीतीश के साथ लौट आए। दरअसल नीतीश और उपेन्द्र ने ही स्व. जॉर्ज फर्नांडीज के नेतृत्व में समता पार्टी बनाई थी।  उसके बाद से गंगा में बहुत पानी बह चुका है। नीतीश ने भी न जाने कितने पाले बदले । जिन लालू के साथ उन्होंने सियासत शुरू की उनके साथ मिलने बिछड़ने और फिर मिलने की कहानियां सर्वविदित हैं। और फिर ये भी देखने में आया कि कभी नरेंद्र मोदी के घोर विरोधी रहे नीतीश उन्हीं की शरण में जा बैठे। इसी तरह की पलटी उनके पहले स्व.रामविलास पासवान मार चुके थे जिन्होंने गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी सरकार और एनडीए छोड़ दिया किंतु 2014 आते तक वे भी श्री मोदी  के साथ खड़े हो गए । इसी तरह नीतीश भी लालू से चली अदावत के बाद आखिरकार राजद से गलबहियां कर बैठे और जिन  तेजस्वी और तेजप्रताप के कारण भाजपा के साथ आकर जुड़े थे , लौटकर फिर उन्हीं के साथ याराना बना लिया। इसका असली कारण बिहार में भाजपा का मजबूत होता जाना था । नीतीश को भय सताने लगा कि धीरे धीरे वे हाशिए पर चले जायेंगे। 2020 के विधानसभा चुनाव में सीटों की संख्या में भाजपा से पीछे रह जाने के बावजूद यद्यपि वे मुख्यमंत्री बने रहे किंतु उन्हें भावी खतरों का अनुमान होने लगा था। उस चुनाव में लोजपा नेता चिराग पासवान द्वारा जद (यू) के प्रत्याशियों के विरुद्ध उम्मीदवार उतारे जाने से नीतीश की पार्टी पिछड़ गई।चिराग की पीठ पर भाजपा का हाथ बताया जाता रहा। और आज भी वे खुद को मोदी का हनुमान कहते हैं। 2019 में केन्द्र सरकार में जद (यू) को एक मंत्री पद के ऑफर से नीतीश रुष्ट हो गए थे। और वहीं से खाई पैदा हो गई।भाजपा ने उनकी मर्जी के विरुद्ध आरसीपी सिंह नामक पूर्व नौकरशाह को मंत्री बनाकर जो दांव खेला उसके बाद उनका गुस्सा बढ़ता गया । आरसीपी कभी नीतीश के खासमखास हुआ करते थे इसीलिए उन्होंने उनको पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष तक बनाया।  लेकिन उपेंद्र कुशवाहा की नाराजगी का कारण कुछ समय पहले नीतीश कुमार द्वारा किया गया यह ऐलान है कि महागठबंधन अगला विधानसभा चुनाव तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ेगा । दरअसल उनको अपेक्षा थी कि समता पार्टी बनाते समय  कुशवाहा समाज के साथ कोइरी और उन जैसी अन्य पिछड़ी जातियों का समर्थन दिलवाने के उपकार स्वरुप नीतीश उन्हें अगले मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करेंगे किंतु जैसे ही उन्होंने तेजस्वी के नाम को आगे बढ़ाया तब पहले तो उन्होंने हल्का विरोध किया किंतु जब  लगा कि उन्हें  तवज्जो नहीं मिल रही तो उन्होंने खुलकर बागी रवैया अपनाया । जवाब में जब नीतीश के समर्थक पार्टी  अध्यक्ष और कुछ  नेताओं ने यह कहना शुरू किया उपेंद्र पार्टी छोड़कर चले जाएं तो उन्होंने पलटवार करते हुए कहा कि वे अपना हिस्सा लिए बिना नहीं जाएंगे और इस बात को लगातार दोहराते रहे ।  धीरे-धीरे बात बढ़ती गई और उपेंद्र ने ये कहना शुरू किया कि वे पार्टी को नष्ट होते हुए नहीं देख सकते और  किसी के कहने से उसे छोड़कर नहीं जाएंगे । उधर नीतीश ने भी कह दिया कि उन्हें जहां जाना है जाएं उनको कोई फर्क नहीं पड़ता । तेजस्वी आरोप लगा रहे हैं कि श्री कुशवाहा भाजपा के इशारे पर यह सब कर रहे हैं । हालांकि  अभी तक उपेन्द्र ने अपने पत्ते  पूरी तरह नहीं खोले  लेकिन उनके तेवर रोजाना तीखे होते जा रहे हैं । ऐसे में यह जंग किस मोड़ पर जाकर रुकेगी  कहना फिलहाल मुश्किल है। राजनीति के जानकार  कह रहे हैं कि बिहार में उपेंद्र , भाजपा के लिए मंच तैयार करने में जुटे हैं और लोकसभा चुनाव आने के पहले  बड़ा  धमाका हो सकता है । यद्यपि ये भी संभावना है कि नीतीश उनकी ताकत का आकलन करते हुए उन्हें पार्टी से बाहर करते हुए आरसीपी सिंह वाले अंजाम तक पहुंचा दें। दूसरी तरफ ये खतरा भी है कि जद (यू) की आंतरिक फूट से  नीतीश सरकार के बहुमत खोने पर विधानसभा भंग करने की नौबत आ जाए। भाजपा को भी लग रहा है यदि नीतीश और तेजस्वी की सरकार चलती रही तब 2024 में पिछली सफलता दोहराना कठिन हो जायेगा। दरअसल जिस सोशल इंजीनियरिंग को  भाजपा ने अपनाकर उ.प्र कब्जा लिया उससे नीतीश भी भयग्रस्त तो हैं लेकिन जिस तरह की रहस्यमयी राजनीति वे करते हैं उसमें कब कौन सा  पैंतरा चल देंगे कहना कठिन है। हालांकि उनके और उपेन्द्र के बीच की जंग से एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया कि स्व. लोहिया जी के मानसपुत्र ज्यादा समय तक एक साथ नहीं रह पाते । इसीलिए  बिहार में जो काम भाजपा न कर सकी वह उपेंद्र और आरसीपी सिंह जैसे नेता अच्छी तरह से कर रहे हैं । जिसमें चिराग पासवान  भी जुड़ते देखे जा सकते हैं । वहीं इस पूरे परिदृश्य में कांग्रेस दर्शक दीर्घा तक सिमटकर रह गई है जिसे कोई भाव नहीं दे रहा।राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से जद (यू) और  राजद के दूर बने रहने से ये बात प्रमाणित भी हो गई।

रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 6 February 2023

मुशर्रफ : दोगलेपन के कारण खुद भी मिटे और मुल्क भी तबाह कर दिया



पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ नहीं रहे। दुबई के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली।नवाज शरीफ का तख्ता पलटकर सत्ता पर काबिज हुए मुशर्रफ का जन्म दिल्ली में हुआ था। विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। सेना में भर्ती होकर वे सेनाध्यक्ष के ओहदे  तक जा पहुंचे । जब स्व. अटलबिहारी वाजपेयी बस लेकर शांति प्रक्रिया बहाल करने लाहौर गए तो उस वक्त वे लाहौर में मौजूद रहने के बजाय इस्लामाबाद में अलग खिचड़ी पका रहे थे। नवाज शरीफ और अटल जी के बीच लाहौर घोषणापत्र के जरिए रिश्ते सुधारने की दिशा में अनेक कदम उठाए गए। रेल और सड़क यातायात के साथ ही व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध कायम करने का पुरजोर प्रयास हुआ । लेकिन बतौर फौजी जनरल मुशर्रफ को ये बर्दाश्त नहीं हुआ क्योंकि पाकिस्तान में फौजी जनरलों की अहमियत भारत विरोध के कारण ही कायम रहती है। आतंकवादियों को भी फौज ही प्रशिक्षित , प्रेरित और प्रश्रय देती है। जब मुशर्रफ को लगा कि वाजपेयी जी की सदाशयता से प्रभावित नवाज भारत के साथ शांति स्थापित करने के लिए कुछ बड़े कदम उठा सकते हैं तब उन्होंने कारगिल में घुसपैठ का कुचक्र रचा जिसमें पाकिस्तान को बुरी तरह पराजित तो होना ही पड़ा  लेकिन कूटनीतिक मोर्चे पर भी उसकी किरकिरी हुई । पराकाष्ठा तब हो गई जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने नवाज को वाशिंगटन बुलाकर तत्काल कारगिल से फौजें हटाने की हिदायत दे डाली। जानकार बताते हैं शरीफ उस युद्ध की योजना से पूरी तरह अनभिज्ञ थे। मुशर्रफ को भय था कि वे अटल जी की लाहौर यात्रा से प्रभावित होकर जंग की अनुमति नहीं देंगे । इसीलिए उस युद्ध से उनको राजनीतिक और कूटनीतिक दोनों ही दृष्टि से नीचा देखना पड़ा । स्मरण रहे 2018 में दोनों देश परमाणु परीक्षण कर चुके थे ।  जिसकी वजह से रिश्तों में जबर्दस्त तल्खी थी। बावजूद उसके  20 फरवरी 1999 को श्री वाजपेयी बस में बैठकर सीमा पार लाहौर पहुंचे थे । उनके साथ देव आनंद , जावेद अख्तर और कपिल देव जैसी हस्तियां भी थीं। पाकिस्तान में उनके प्रति जबर्दस्त आकर्षण देखा गया। लेकिन शत्रुता मिटाकर दोस्ती और विकास के रास्ते पर चलने की उस कोशिश को मुशर्रफ ने चंद महीनों बाद ही पलीता लगाकर मई में कारगिल में घुसपैठ की गोपनीय चाल चल दी। यहां नवाज के अलावा वायु और नौसेना को भी  बेखबर रखा गया । और जब जंग हार गए तब अक्टूबर में शरीफ का तख्ता पलटकर सत्ता पर काबिज हो गए। नवाज को बाद में सऊदी अरब के दबाव में विदेश जाने मिल गया। दो साल बाद मुशर्रफ फर्जी चुनाव करवाकर राष्ट्रपति बन बैठे ताकि उनकी छवि लोकतांत्रिक तरीके से चुने नेता की बने। उनके पिछले रवैए के वावजूद बतौर राष्ट्रपति अटल जी ने उन्हें बातचीत हेतु भारत आमंत्रित किया और वे आए भी किंतु आगरा में हुई वह बातचीत साझा घोषणापत्र में कश्मीर के उल्लेख की उनकी जिद की वजह से बेनतीजा खत्म हो गई । 2008 में उनको पाकिस्तान छोड़कर भागना पड़ा क्योंकि अदालत ने उन्हें मृत्युदंड की सजा सुना दी थी। यद्यपि बरसों बाद वे वतन लौटे तो जरूर लेकिन न पद मिला , न ही प्रतिष्ठा। पाकिस्तान उनके हटने के बाद भले ही लोकतांत्रिक सरकार द्वारा संचालित हो रहा है लेकिन उन्होंने वहां आतंकवादी संगठनों की जड़ें इतनी मजबूत कर दीं कि वे सेना के साथ मिलकर मनमानी किया करते हैं।  बीते अनेक वर्षों से वे  इलाज के नाम पर दुबई में निर्वासित जीवन बिता रहे थे। सही बात ये है कि उन्होंने जीवन में एक भी ऐसा कार्य नहीं किया जिसके लिए वे सम्मान के साथ याद किया जाएं । इसके ठीक उलट वे दगाबाज और दोगले चरित्र के तौर पर इतिहास के किसी कोने में पड़े मिलेंगे। अमेरिका ने 9/11 के हमले के बाद जब अल कायदा के विरुद्ध जंग छेड़ते हुए अफगानिस्तान में डेरा जमाया तब मुशर्रफ उसके साथ खड़े दिखाई दिए। जबकि उस हमले के योजनाकार ओसामा बिन लादेन को भी पाकिस्तान ने ही गुपचुप तरीके से शरण दी। एक तरफ आतंकवाद को बढ़ावा और दूसरी तरफ अमेरिका की मदद जैसे दोहरे रवैए के कारण मुशर्रफ साख और धाक गंवाते चले गए। उनके जीवनकाल में ही उनके विरोधी सत्तासीन होते रहे वे स्वयं  पूरी तरह उपेक्षित और दयनीय बनकर रह गए। इसका कारण उनकी षडयंत्रकारी सोच ही थी। उदाहरण के तौर पर जिस नवाज शरीफ ने उनको सेना प्रमुख बनाया उनको मुशर्रफ ने  पहले तो कारगिल में घुसपैठ के बारे में  अंधेरे में रखा और फिर युद्ध में पराजित होने के बाद जब लगा कि वे इसके लिए जिम्मेदार ठहराए जायेंगे तब उन्हीं का  तख्ता पलट दिया। अटल जी के निमंत्रण पर हुई आगरा वार्ता के जरिए वे चाहते तो दोनों देशों के बीच रिश्तों का एक नया युग शुरू कर सकते थे परंतु जब वार्ता सुखद मोड़ पर आने को थी तब उन्होंने घोषणापत्र में कश्मीर के उल्लेख के साथ ही आतंकवादियों को आजादी का सिपाही माने जाने की जिद पकड़कर सब गुड़ गोबर कर दिया। आज पाकिस्तान जिस बदहाली और कंगाली से गुजर रहा है हालांकि उसके लिए कमोबेश तो वहां के सभी शासक जिम्मेदार हैं लेकिन आजादी के 50 साल बाद जब दोनों देशों में नई पीढ़ी की भूमिका निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने की स्थिति में आ गई थी तब मुशर्रफ यदि लाहौर बस यात्रा से उत्पन्न संभावनाओं को कारगिल की जंग में बेमौत मरने न छोड़ते तो आज पाकिस्तान में लोकतंत्र भी मजबूत होता और मुल्क मौजूदा शर्मनाक स्थिति में न पहुंचता। दुर्भाग्य से मुशर्रफ के बाद भी इस देश की बदनसीबी बनी रही। नरेन्द्र मोदी द्वारा भी काबुल से लौटते समय लाहौर में रुककर नवाज से मिलने का निर्णय एक साहसिक कूटनीतिक  पहल थी किंतु उसे भी आतंकवादी हमलों ने नष्ट कर दिया। इस प्रकार  पाकिस्तान का ये दुर्भाग्य ही रहा कि भारत के साथ रिश्ते सुधारने की हर कोशिश को नाकामयाब किया जाता रहा। और मुशर्रफ उसके सबसे बड़े खलनायकों में से ही एक थे  जिन्हें जिंदगी भर किए गए छल कपट के कारण मौत के लिए अपने वतन की धरती तक नसीब नहीं हुई। बलूचिस्तान की जनता का उस निर्दयी फौजी तानाशाह ने जिस निर्दयता से दमन करवाया उसी की वजह से वह हिस्सा पाकिस्तान से अलग होने पर आमादा है ।

रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 4 February 2023

रामचरित मानस जलाने की सजा : सपा पांचों सीटें हार गई



उ. प्र में शिक्षक वर्ग की 2 और स्नातक वर्ग की 3 विधान परिषद सीटों के लिए हुए चुनाव परिणाम तकरीबन इकतरफा रहे।  भाजपा ने जहां 4 सीटें जीतीं वहीं 1 पर निर्दलीय ने बाजी मारी। इन परिणामों से बहुत दूरगामी निष्कर्ष निकालना तो जल्दबाजी होगी किंतु  मुख्य विपक्षी सपा (समाजवादी पार्टी) के लिए जरूर ये किसी धक्के से कम नहीं हैं । मैनपुरी लोकसभा उपचुनाव में शानदार विजय हासिल करने के बाद हुए इन चुनावों में वह भाजपा को पटकनी देने के जो सपने देख रही थी वे धूल धूसरित हो गए। भाजपा एक सीट हारी अवश्य किंतु वह भी बजाय सपा या बसपा के निर्दलीय के पास जाना इस बात का सूचक है कि राज्य में गत वर्ष हुए विधानसभा चुनाव का राजनीतिक माहौल यथावत है । साथ ही इससे ये भी स्पष्ट हुआ कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश के जनमानस पर छाए हुए हैं। वैसे भी हाल ही में आए एक सर्वे में उनको देश का सबसे अच्छा मुख्यमंत्री माना गया है। उक्त चुनाव में शिक्षक और स्नातक वर्ग के मतदाता थे इसलिए इन परिणामों का काफी महत्व है। लेकिन  एक मुद्दा जिसने इन चुनावों पर असर डाला , वह था रामचरित मानस के विरोध में बनाया गया घृणित महौल जिसके चलते लखनऊ में उस पवित्र ग्रंथ की प्रतियां तक जलाई गईं। सपा नेता स्वामीप्रसाद मौर्य ने मानस  की एक चौपाई को आधार बनाकर पहले तो उसके रचयिता तुलसीदास जी पर अनर्गल आरोप लगाए परन्तु जब विरोध हुआ तो पिछड़े और दलित जैसे घिसे पिटे मुद्दे उठाकर जातिवादी जहर फैलाने की शरारत की। स्वामीप्रसाद की वह घिनौनी हरकत सपा में शामिल अनेक नेताओं को  रास नहीं आई। सुनने में आया कि पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उन्हें बुलाकर जवाब मांगा। उनके चाचा शिवपाल यादव ने भी स्वामीप्रसाद की बकवास को उनका निजी विचार बताकर किनारा कर लिया। वहां तक तो बात समझ में आने वाली थी किंतु उसके बाद अखिलेश ने उस स्तरहीन हरकत के लिए स्वामीप्रसाद को पुरस्कृत करते हुए सपा का राष्ट्रीय महामंत्री बना दिया और वह भी शिवपाल के बराबरी का । और तो और खुद को शूद्र बताते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से संदर्भित चौपाई का अर्थ पूछने जैसा बयान देकर अप्रत्यक्ष रूप से स्वामीप्रसाद द्वारा बोए गए जहर के बीज को खाद पानी देने की हिमाकत कर डाली। इससे प्रोत्साहित होकर उनकी जुबान और तीखी होती चली गई। राजनीतिक विश्लेषक इस मुहिम को बसपा समर्थक  दलित मतदाताओं में सेंध लगाने की रणनीति मानते हुए 2024 का गुणा भाग लगाने में जुट गए।  लेकिन विधानपरिषद की पांच सीटों के चुनाव परिणाम ने स्वामीप्रसाद और सपा दोनों के गाल पर जो झन्नाटेदार  चांटा  जमाया वह इस बात का प्रमाण है कि जातिवाद के नाम पर सामाजिक ढांचे को नष्ट करने की राजनीति अब अंतिम सांसें गिन रही है और सनातनी समाज सदियों से चली आ रही कुरीतियों को बजाय विद्वेष और संघर्ष के सद्भाव और समरसता  बढ़ाकर दूर करने की दिशा में बढ़ रहा है।आदि काल से जिन  विभूतियों ने हमारी चेतना को निर्देशित किया उनके प्रति असम्मान व्यक्त करने वालों को किस तरह कूड़ेदान में फेंका जा रहा है उसका सबसे अच्छा उदाहरण उ . प्र ही है। मंडल और दलित राजनीति के साथ ही मुस्लिम गठजोड़ के जरिए राष्ट्रवादी ताकतों और मुख्यधारा की सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध किए गठबंधन कुछ समय तक तो प्रभावशाली रहे किंतु जल्द ही बुलबुले की तरह फूट गए। यद्यपि उस दौर को पुनर्जीवित करने की अपवित्र कोशिशें अलग अलग रूप में  फिर सामने  आती रहती हैं लेकिन जनता उनके मोहपाश में फंसने की बजाय  दूर जाने लगी है। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण विधान परिषद के लिए हुए ताजा चुनावों के परिणाम हैं। पता नहीं अखिलेश और विकृत मानसिकता से ग्रसित उनके स्वामीप्रसाद जैसे बगलगीर इन परिणामों से कितना सबक लेंगे किंतु यदि वे दीवार पर लिखी इबारत भी नहीं पढ़ पा रहे तब तो उनकी राजनीतिक समझ और विवेक दोनों पर प्रश्नचिन्ह लगना लाजमी है। हालांकि इन लोगों से किसी सार्थक सोच की आशा करना मरुस्थल में जल ढूंढने जैसा है किंतु लोकतांत्रिक समाज में  सत्ता की दौड़ में शामिल लोग इतना भी गिर सकते हैं ये देखकर पीड़ा होती है। स्वामीप्रसाद को तो छोड़ भी दें किंतु अखिलेश जो विदेश से पढ़कर आए और अंतर्जातीय विवाह करते हुए अपनी प्रगतिशील सोच का परिचय भी दिया ,  जब वे इस तरह की घटिया हरकतों का हिस्सा बनते हैं तब लगता है उनकी शिक्षा और निजी जीवन में दिखने वाला व्यवहार फर्जी है। इससे भी बढ़कर बात ये है कि चाहे अखिलेश हों या मायावती , जब ये नेतागण जाति की संकुचित सोच से बाहर आने तैयार नहीं  तब उस वर्ग के लोग इनके चरण चुम्बन क्यों करते हैं जिसे ये पानी पी पीकर गालियां देते और नफरत की नजर से देखते हैं। अखिलेश और स्वामीप्रसाद सरीखे नेताओं को तुलसीदास और रामचरित मानस पर उंगलियां उठाने का ये त्वरित परिणाम तो मिल गया। अब भी उनकी बदजुबानी और हेकड़ी जारी रही तो उनकी दशा भी मायावती जैसी होनी तय है।


रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 3 February 2023

अडानी पर लगे आरोपों की निष्पक्ष जांच जरूरी



अंजाम क्या होगा ये तो फिलहाल कहना कठिन है किंतु हफ्ते भर पहले दुनिया के तीसरे और भारत के सबसे धनाढ्य व्यक्ति कहलाने वाले अडानी समूह के कर्ताधर्ता गौतम अडानी के बारे में अर्श से फर्श पर आने की कहावत पूरी तरह चरितार्थ हो रही है। अमेरिका के एक छोटी से संस्थान हिंडनबर्ग द्वारा ज्योंही अडानी समूह में व्याप्त वित्तीय गड़बड़ियों पर एक विस्तृत अध्ययन रिपोर्ट सार्वजनिक की गई त्योंही पूरी दुनिया में इस समूह की साख एक झटके में धराशायी हो गई। इसका कारण उसका वैश्विक व्यवसायिक विस्तार है। चूंकि अडानी समूह ने विदेशी बैंकों और वित्तीय संस्थानों से भी भारी मात्रा में कर्ज ले रखे थे इसलिए उन सबकी सांसें ऊपर नीचे होने लगीं। समूह की कंपनियों के शेयरों के दाम पेड़ से सूखे पत्तों की तरह गिरने लगे। भारत में इस घटनाक्रम से ज्यादा बवाल इसलिए मचा क्योंकि स्टेट बैंक सहित अनेक बैंकों के अलावा भारतीय जीवन बीमा निगम ने अडानी समूह  को जो कर्ज दिया उसे लेकर लंबे समय से ये आरोप लगता रहा कि वह उसकी संपत्ति से कहीं अधिक है । जिस रिपोर्ट पर ये तूफान उठा उसके अनुसार अडानी समूह ने अपने शेयरों का मूल्य वास्तविकता से कहीं ज्यादा दिखाकर कर्ज देने वालों को धोखे में रखा जिससे उनके लिए उसकी वसूली मुश्किल होगी। उक्त संस्थान इसके पूर्व भी अनेक अन्तर्राष्ट्रीय कंपनियों की इसी तरह पोल खोल चुका था। वह कुछ व्यक्तियों का छोटा सा समूह है जो कंपनियों के कारोबार का सूक्ष्म अध्ययन कर उनकी गड़बड़ियां उजागर करता है। यद्यपि उस पर आरोप है कि इससे उसे व्यवसायिक लाभ पहुंचता है । अडानी समूह ने भी उसी आरोप को दोहराया है। इस बारे में सबसे बड़ी बात ये हुई  कि उक्त रिपोर्ट अडानी समूह द्वारा निवेशकों से 20 हजार करोड़ उगाहने के लिए जारी इश्यू (एफ पी ओ) के एक दिन पहले सार्वजनिक की गई। सच्चाई जो भी हो लेकिन उक्त रिपोर्ट ने गौतम अडानी की ऊंची उड़ान को न सिर्फ रोका अपितु उसे आपातकालीन लैंडिंग हेतु बाध्य कर दिया। उसके शेयर लगातार नीचे आते जा रहे हैं । अपनी साख बचाने समूह ने एफपीओ में निवेश करने वालों के पैसे लौटाने का ऐलान भी कर दिया जबकि उसे आशातीत समर्थन मिला था। समूह ने रिपोर्ट जारी करने वाले संस्थान को 400 पृष्ठ का स्पष्टीकरण भेजने के साथ ये आरोप भी मढ़ा कि यह रिपोर्ट भारत के विरुद्ध षडयंत्र है ताकि उसकी विकास यात्रा में रुकावट आए। कानूनी कारवाई की धमकी भी दी गई । लेकिन इसका असर निवेशकों पर नहीं हुआ तथा अडानी नाम वाली लगभग सभी कपनियों के शेयर पूंजी बाजार में गोते लगाने लगे जिससे उसका बाजार में मूल्यांकन भी लगातार कम होता जा रहा है। इस बारे में उल्लेखनीय है कि अडानी और अंबानी ( मुकेश) समूह काफी समय से विपक्ष के निशाने पर हैं। राहुल गांधी तो हर भाषण में उनका उल्लेख करते हैं। ये आरोप लगाया जाता है कि मोदी सरकार आने के बाद इन दोनों  समूहों को सरकार का संरक्षण मिलने से ये अनुचित तरीकों से आगे बढ़ते जा रहे हैं। विशेष रूप से गौतम अडानी पर ज्यादा हमले हुए। आलोचकों का ये दावा है कि अडानी समूह को विदेशों में भी बड़े काम दिलवाने में सरकारी प्रभाव का इस्तेमाल हुआ । इसके अलावा भारतीय बैंकों तथा भारतीय जीवन बीमा निगम ने भी उनकी हैसियत से ज्यादा का कर्ज बांटकर जनता का पैसा फंसवा दिया। इसीलिए जैसे ही संदर्भित रिपोर्ट आई उसके बाद बैंकों ने अडानी से पूछताछ शुरू की वहीं रिजर्व बैंक भी सक्रिय हो उठा।उधर विपक्ष संसद में आक्रामक है। प्रधान न्यायाधीश अथवा जेपीसी (संयुक्त संसदीय समिति) से जांच करवाने की मांग भी उठ रही है। यद्यपि गौतम अडानी साख बचाने की भरसक कोशिश कर रहे हैं किंतु उनकी विश्वसनीयता पर मंडरा रहे  बादल और घने होते जा रहे हैं। अमेरिका के शेयर बाजार से वे बाहर किए जा चुके हैं और भारत में भी उनके शेयरों की कीमत हर दिन गिर रही है। कुछ कंपनियों के शेयर तो आधे तक घट गए। हालांकि भारतीय बैंक अभी भी अपने कर्ज की अदायगी को लेकर निश्चिंत हैं। हो सकता है जैसा गौतम अडानी दावा कर रहे हैं कि अपनी भारी सुरक्षित नगदी से वे इस संकट से बाहर भी आज जायेंगे  किंतु विजय माल्या प्रकरण के बाद भी जिस तरह से उद्योगपतियों को कर्ज देने में हुए बैंक घोटाले सामने आते गए उससे ये तो साफ है  कि बैंकिंग  प्रणाली में भी  भ्रष्टाचार की फसल लहलहा रही है। अडानी समूह का गुजरात कनेक्शन स्वाभाविक तौर पर प्रधानमंत्री से भी जोड़ा जाता है जिस कारण से वे विपक्ष की आंख में किरकिरी बन गए।हालांकि उदारीकरण के बाद शुरू हुए उधारीकरण  से इस तरह के घोटाले होते ही जा रहे हैं। हर्षद मेहता से इसकी शुरुवात हुई । इनमें बैंकों और जनता दोनों का पैसा डूबता है। सेबी नामक संस्था शेयर बाजार के क्रियाकलापों पर नजर रखती है । लेकिन उसके बाद भी गड़बड़ियां हो रही हैं । यद्यपि विकसित देशों में भी ये सब होता है किंतु भारत की अर्थव्यवस्था और आम निवेशक इतना सुदृढ़ नहीं है जो ऐसे झटके लगातार सहन कर सके। इस मामले में गौतम अडानी से ज्यादा  केंद्र सरकार की साख दांव पर लगी है। इसलिए उसे चाहिए कि वास्तविकता को सामने लाया जावे। अमेरिका से रिपोर्ट जारी होने के बाद से ही सरकार पर अडानी समूह का बचाव किए जाने के आरोप लग रहे हैं। 9 राज्यों के चुनाव निकट होने से विपक्ष को अच्छा मुद्दा हाथ लग गया। सरकार को उक्त रिपोर्ट की निष्पक्ष जांच करवाकर दोषियों को उचित दंड दिलवाने की व्यवस्था करनी चाहिए क्योंकि इस तरह के घोटालों से विदेशी निवेशक भी छिड़कते हैं । और यदि हिंडनबर्ग की रिपोर्ट किसी व्यवसायिक कूट रचना का परिणाम है तो उसे भी साफ किया जावे।

रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 2 February 2023

बजट: लोक लुभावन की बजाय ठोस उपायों पर जोर



वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने लगातार पांचवां बजट पेश करते हुए उम्मीद के मुताबिक मध्यमवर्ग को खुश करने का जो प्रयास किया उसका निशाना सीधे सीधे चुनावों पर है। उल्लेखनीय है इसी वर्ष 9 राज्यों में विधानसभा और अगले वर्ष  लोकसभा का चुनाव होना है। मोदी सरकार आने के बाद से आयकर के ढांचे में मामूली फेरबदल तो किए गए किंतु छूट की सीमा यथावत रखने से नौकरीपेशा करदाता को कोई लाभ नहीं हुआ। इस वर्ष नई आयकर योजना में छूट की सीमा 5 से बढ़ाकर 7 लाख कर दी गई और पूरे बजट में वित्तमंत्री को सबसे ज्यादा तालियां इसी पर मिलीं। हालांकि अनेक आयकर दाताओं के साथ विपक्ष का आरोप है कि यह महज आंकड़ों की बाजीगरी है क्योंकि इस योजना में केवल 50 हजार की एकमुश्त बचत छूट ही मिलेगी जबकि पुराने तरीके को चुनने वाले करदाता को विभिन्न बचतों का लाभ मिलने से  10 लाख तक की आय पर भी कर मुक्त हुआ जा सकता है। हालांकि नई योजना में करदाता को बचत योजनाओं में निवेश के बिना ही 7 लाख तक कर के दायरे से मुक्ति मिल जाती है। इसके पीछे का उद्देश्य आयकरदाताओं की संख्या में वृद्धि करने के साथ ही ज्यादा लोगों को आयकर विवरणी भरने प्रेरित करना है जिससे आर्थिक स्थिति के मूल्यांकन में सुविधा हो। जीएसटी लागू होने से यद्यपि सरकार के पास मूल्य नियंत्रण का सीमित अधिकार रह गया है इसलिए वह मामूली फेरबदल कर सकी जिससे टीवी , मोबाइल , साइकिल और खिलौने जहां सस्ते हुए वहीं सोने , चांदी के दाम बढ़ेंगे।इलेक्ट्रॉनिक वाहनों की कीमतें कम करने हेतु लीथियम बैटरी का आयात तो सस्ता किया गया किंतु पेट्रोल , डीजल और रसोई गैस के दाम घटाने की चर्चा तक नहीं हुई । दूसरी ओर इस बजट में कौशल विकास पर जोर देने हेतु युवाओं को छात्रवृत्ति के साथ तकनीकी प्रशिक्षण देने का जो प्रावधान है वह ईमानदारी से अमल में आ जाए तो बड़ी उपलब्धि होगी। मुफ्त खाद्यान्न योजना की अवधि में वृद्धि अब मजबूरी बन गई है परंतु इंफ्रास्ट्रक्चर पर 10 लाख करोड़ रु. का प्रावधान बजट के विकासोन्मुखी चेहरे को उजागर करता है। इसके अंतर्गत हवाई अड्डे , हेलीपैड,  रेलवे स्टेशनों का उन्नयन , नर्सिंग कालेज जैसे निर्माण होने से देश आगे बढ़ेगा। वहीं प्रधानमंत्री आवास योजना का आवंटन 66 फीसदी बढ़ाए जाने से आवास समस्या हल की जा सकेगी। उक्त दोनों प्रावधान सरकारी खर्च को बढ़ाएंगे जिससे उद्योग व्यापार जगत को गति मिलेगी। बजट में जैविक कृषि और मोटे अनाज उत्पादन के साथ ही गोबर आधारित उर्वरक की दिशा में किए जाने वाले प्रयास शुभ संकेत हैं। हालांकि वित्तमंत्री ने आयकर के अलावा ऐसा कोई बिंदु शामिल नहीं किया जिससे आम जनता को तत्काल राहत मिलती दिखाई दे। इसीलिए विपक्ष को आलोचना के लिए काफी सामग्री मिल गई। उन्होंने महंगाई और बेरोजगारी  जैसी समस्याओं का प्रत्यक्ष समाधान भी प्रस्तुत नहीं किया किंतु इंफ्रास्ट्रक्चर और आवास योजना में यदि ज्यादा पैसा खर्च होता है तो उससे रोजगार सृजन होना तय है परंतु महंगाई पर बजट खामोश है। बावजूद इसके सूक्ष्म ,लघु तथा मध्यम उद्योगों के लिए बिना गारंटी कर्ज के लिए 2 लाख करोड़ का आवंटन स्वागत योग्य है क्योंकि सकल घरेलू उत्पादन में विशेष रूप से कोरोना के बाद से इस क्षेत्र का महत्व बढ़ा है।  यद्यपि बुजुर्गो और महिलाओं के लिए आकर्षक जमा योजना घोषित की गई किंतु उसके अलावा छोटी बचत को प्रोत्साहित करने में वित्तमंत्री ने खास रुचि नहीं दिखाई। शायद इसका कारण बाजार में मांग बढ़ाकर विकास दर को मजबूती देना है । यदि वह वाकई 7 फीसदी रही तो इसे सरकार की सफलता माना जाएगा और देश की वैश्विक रेटिंग सुधरेगी। किसान आंदोलन हालांकि फिलहाल ठंडा है और कृषि उत्पादकों को दाम भी अच्छे मिल रहे हैं किंतु चुनाव आते तक आंदोलन फिर शुरू हो सकता है। उस दृष्टि से बजट में कुछ खास नजर नहीं आता । इसीलिए भाजपा समर्थक भारतीय किसान संघ तक वित्तमंत्री से नाराज है। ऐसा लगता है अर्थव्यवस्था के बारे में जो मजबूत संकेत विशेष रूप से जीएसटी की रिकॉर्ड वसूली से मिले उनसे सरकार सोच रही है कि वह विकास के मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन करते हुए जनता को प्रसन्न करने में कामयाब हो जायेगी। 2024 के लोकसभा चुनाव हेतु किए गए हालिया सर्वेक्षण के निष्कर्ष भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वापसी बता रहे हैं। लेकिन सरकार को पता है अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में कभी भी बड़ा बदलाव होने पर महंगाई और बढ़ने का खतरा हो सकता है। इसीलिए पेट्रोलियम पदार्थों के वैश्विक मूल्य कम होने के बावजूद उनकी कीमतों को घटाने का मामला आपातकालीन उपाय के तौर पर सुरक्षित रखा गया है। इलेक्ट्रॉनिक वाहनों को सस्ता कर कच्चे तेल का आयात घटाना भी सरकार की दूरगामी योजना का हिस्सा है।परिवहन मंत्री नितिन गडकरी इस दिशा में काफी प्रयासरत हैं। 2030 तक 50 लाख टन ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन का लक्ष्य इसीलिए रखा गया है। पर्यावरण के साथ के साथ ही जल संरक्षण के बारे में भी अनेक प्रावधान वित्त मंत्री ने किए जो बौद्धिक विमर्श तक सीमित रहने के बाद भी बजट में गहराई को दर्शाते हैं। विदेश यात्रा करने वाले लाखों लोगों द्वारा आयकर विवरणी न भरने का जिक्र हाल ही में प्रधानमंत्री द्वारा किया गया था। बजट में इसे अनिवार्य कर दिया गया जिससे काले धन से दुनिया घूमने वालों पर शिकंजा कसेगा। वहीं वित्तमंत्री ने घरेलू पर्यटन को बढ़ावा देने का प्रयास किया है। कुल मिलाकर बजट मौजूदा हालातों में संतुलित ही कहा जायेगा। वित्तमंत्री ने सीधे जनता की जेब गर्म न की हो लेकिन उसे हल्का करने से भी वे बचीं। सबसे बडी बात ये रही कि लोकलुभावन न होते हुए भी इस बजट को जनविरोधी कहना अतिशयोक्ति होगी। शेयर बाजार का बजट भाषण के दौरान उछलना और फिर सामान्य हो जाना इस बात का सूचक है कि सरकार ने कृत्रिम वृद्धि की बजाय ठोस उपाय तलाशे हैं । वित्तमंत्री द्वारा खैरातों की बरसात से बचने का अंदाज ये साबित करता है कि सरकार में पर्याप्त आत्मविश्वास है । और इसी के दम पर देश कोरोना से लड़कर बाहर आ सका। ऐसे में जब अमेरिका , जापान , ब्रिटेन और चीन की विकास दर ठहराव का संकेत दे रही है तब भारत का 7 फीसदी या उसके करीब रहना उत्साहवर्धक है। और फिर श्रीमती सीतारमण पर प्रधानमंत्री का विश्वास भी ये जताने को काफी है कि हालात काबू में हैं । वरना वे पूरे पांच साल वित्तमंत्री न रह पातीं ।

रवीन्द्र वाजपेयी