Friday 10 February 2023

चुनाव + चंदा = लोकतंत्र



जब भारत में वामपंथ और समाजवाद अपने शबाब पर हुआ करता था तब पूंजीपतियों को गाली देना राजनीतिक शिष्टाचार का हिस्सा था। 1969 में अपनी पार्टी के भीतर के विरोध को दबाने के लिए स्व. इंदिरा गांधी ने बैंक राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजा महाराजाओं के प्रिवीपर्स बंद कर खुद को आम जनता का चहेता बना लिया। लेकिन उस सबके बाद भी राजनीति में न तो उद्योगपतियों की भूमिका कम हुई और न ही राजा महाराजाओं की। उद्योगपति भले ही चुनाव लड़कर न आते हों किंतु पिछले दरवाजे से राज्यसभा में बैठने का इंतजाम कर ही लेते हैं । के.के.बिरला और उनकी बेटी शोभना भरतिया , राहुल बजाज , ललित सूरी, अनिल अंबानी और विजय माल्या संसद के उच्च सदन के सदस्य रहे हैं। इनके अलावा भी अन्य उद्योगपति अलग अलग पार्टियों की मदद से राज्यसभा का जुगाड़ बिठाते रहे हैं । ररामनाथ  गोयनका जरूर 1971 में जनसंघ की टिकिट पर विदिशा से लोकसभा के लिए चुने गए लेकिन थे वे भी निर्दलीय ही । कुछ नामचीन वकील भी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की मेहरबानी से उच्च सदन में आते रहे हैं । राजा महाराजा तो आज भी अपनी पुरानी रियासतों में असर रखते हैं और चुनाव जीतकर लोकसभा और विधानसभा में नजर आते हैं । कुछ तो मंत्री और मुख्यमंत्री (वसुंधरा राजे) भी बने। जो चुनाव नहीं भी लड़ते वे अपने कृपापत्र को जितवाने का दम रखते हैं। विचारधारा ऐसे मामलों में गौण हो जाया करती है। मसलन समाजवादी पार्टी से पूंजीवाद के प्रतीक अनिल अंबानी और शिवसेना से राहुल बजाज राज्यसभा में पहुंचे। लेकिन ललित सूरी और विजय माल्या  निर्दलीय प्रत्याशी बनकर राज्यसभा जा पहुंचे। जाहिर है वोटों की खरीद इसके पीछे थी। कुल मिलाकर ये देखने में आता रहा है कि राजनीतिक दल बात भले ही जनता की करते हों किंतु पूंजीपतियों के बिना चुनाव नहीं लड़े जा सकते और इसीलिए लोकतंत्र में उनका दखल रहता है। इन दिनों गौतम अडानी नामक उद्योगपति काफी चर्चा में हैं । विशेष रूप से इसलिए क्योंकि उनको प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नजदीकी माना जाता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में श्री मोदी ने उनके निजी विमान से ही प्रचार किया और प्रधानमंत्री बनने से पूर्व अहमदाबाद से दिल्ली भी उसी विमान से आए। इसलिए ये कहना कि उनके श्री अडानी से निकट संबंध हैं , कतई गलत नहीं हैं । लेकिन जिस बात को लेकर राजनीतिक गलियारों में तूफान उठा हुआ है वह है बीते 9 साल में अडानी समूह के आकार और समृद्धि में बेतहाशा वृद्धि। लोकसभा में कांग्रेस सांसद राहुल  गांधी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए जब श्री मोदी और श्री अडानी की नजदीकी  का मुद्दा छेड़ा तो जवाब में भाजपा सांसदों ने गांधी जी की बिरला और बजाज से नजदीकी और इंदिरा जी के जमाने में अंबानी की व्यवसायिक सफलता का जिक्र छेड़कर कांग्रेस को घेरा। स्मरणीय है गोलमेज कांफ्रेंस में गांधी जी के साथ गए प्रतिनिधिमंडल में घनश्याम दास बिरला भी शामिल थे। खैर,  आरोप प्रत्यारोप तो राजनीति के अभिन्न हिस्से हैं परंतु जहां तक सवाल राजनेताओं का है तो सच्चाई यही है कि बिना उद्योगपतियों की मदद के राजनीतिक पार्टी चल ही नहीं सकती। जब प.बंगाल में वामपंथी एकाधिकार था तब बिरला परिवार के संस्थानों में हड़ताल नहीं होती थी क्योंकि ज्योति बसु के उनसे अच्छे रिश्ते थे। दुनिया भर में जहां भी लोकतंत्र है और चुनाव के माध्यम से सरकार चुनी जाती है  वहां चंदा उगाही की जाती है। यद्यपि उसके तौर तरीके अलग अलग होते हैं । इसी तरह जो सत्ता में होता है वह अपने देश के उद्योगपतियों की सिफारिश दूसरे देशों में करता है। आजादी के बाद चार पहिया वाहनों में एंबेसेडर और स्कूटरों में बजाज का बोलबाला हुआ करता था जो क्रमशः बिरला और बजाज परिवार द्वारा बनाए जाते थे। एंबेसेडर तो  एक तरह से सरकार का अधिकृत वाहन होती थी जिस पर सारे विशिष्ट जन चलते थे। इसी तरह बजाज स्कूटर के लिए लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ती थी जिससे उसकी कालाबाजारी भी होती थी। लायसेंस कोटा प्रणाली उदारवाद के आने से खत्म हुई तो  नए नए धनकुबेर पनपे। बिरला टाटा को पीछे छोड़ अंबानी समूह ने बहुत तरक्की की। ये गौरव की बात है कि भारतीय उद्योगपतियों ने विदेशों में भी कारोबार फैलाया है। लेकिन बेशक अडानी समूह की उड़ान सबसे ऊंची  होने से वे नजरों में चढ़ गए। श्री गांधी ने भाजपा को अडानी से प्राप्त चंदे की जानकारी भी पूछी। बीते कुछ सालों से भाजपा को मिलने वाले चंदे में बेतहाशा वृद्धि हुई है। लेकिन जब कांग्रेस सत्ता में थी तब उद्योगपति उस पर धनवर्षा किया करते थे और तब भाजपा ऐसी ही तोहमत लगाती थी । चंदे के बदले सत्ता उन्हें उपकृत करती है ये भी सही है किंतु इसके लिए सभी राजनीतिक दल एक जैसे हैं । आम आदमी पार्टी तक ने राज्य सभा की टिकिटें कुछ ऐसे लोगों को दीं जो धन कुबेर हैं। समाजवादी पार्टी ने स्व.अमर सिंह के जरिए फिल्म और उद्योग जगत से खूब फायदा उठाया। जया बच्चन और अनिल अंबानी को राज्यसभा में भेजना इसका प्रमाण है। दरअसल मौजूदा चुनाव प्रणाली इतनी खर्चीली है कि बिना पैसा बहाए चुनाव जीतना असंभव है। खर्च की जो सीमा चुनाव आयोग स्वीकृत करता है वह मजाक है। ऐसे में उद्योगपति ही दुधारू गाय बनकर सामने आते हैं। ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है जो इनका आर्थिक सहयोग न लेती हो। कम , ज्यादा उसकी ताकत और हैसियत पर निर्भर करता है। गुजरात में कांग्रेस पार्टी या उसके नेताओं ने अडानी समूह से कभी कोई सहयोग न लिया हो ये असंभव है । काले धन को खपाने में चुनाव बड़ा जरिया हैं। इसलिए आज भले भाजपा और अडानी को लेकर हल्ला मचा हो परंतु सभी राजनीतिक दल उद्योगपतियों के काले धन और सुख सुविधाओं के साधनों पर पलते हैं। और जब तक चुनाव प्रणाली में बड़ा सुधार नहीं किया जाता राजनेताओं और उद्योगपतियों के गठजोड़ को तोड़ पाना नामुमकिन है और चुनाव तथा चंदा मिलकर लोकतंत्र के पर्यायवाची बने रहेंगे।


रवीन्द्र वाजपेयी 

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