Saturday 11 February 2023

21 वीं सदी में घिसी पिटी राजनीति को तिलांजलि देना जरुरी



देश जब आजाद हुआ तब संविधान में अनु. जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी | उस समय किसी ने भी इसका विरोध नहीं किया जबकि संविधान बनाने वालों में सवर्ण जातियों के नेताओं का बोलबाला था | संविधान की ड्राफ्ट कमेटी के प्रमुख डा.भीमराव आम्बेडकर ने इसे एक अस्थायी व्यवस्था बताया था | लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते वह एक स्थायी प्रावधान बन गया | 1989 में वी.पी सिंह की सरकार आने के बाद मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने से ओबीसी ( अन्य पिछड़ा वर्ग ) को भी आरक्षण की सुविधा प्रदान कर दी गई | उसके बाद राजनीति में इस वर्ग के नेताओं का दबदबा बढ़ता गया | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि दलित और आदिवासी समुदाय से एक भी ऐसा नेता नहीं हुआ जो राष्ट्रीय राजनीति को निर्देशित कर पाता | हालाँकि कांशीराम और उनके बाद मायावती  दलित राजनीति के बड़े चेहरे बनकर उभरे लेकिन वे जल्द ही उ.प्र के भीतर सिमटकर रह गए | और फिर मायावती के एकाधिकारवादी रवैये के कारण पार्टी में दूसरी पंक्ति का नेतृत्व तैयार न हो सका जिसके चलते वह जितनी तेजी से उठी उतनी ही तेजी से उसका पराभव भी सामने आ गया | कांशीराम निश्चित तौर पर दूरदर्शी नेता थे लेकिन मायावती बजाय  दलित उत्थान के अपने आभामंडल को चमकाने के फेर में अविश्वसनीय बनती गईं और उसी वजह से दलित मतदाता तक उनसे दूर जाने लगे | एक शख्सियत रामविलास पासवान की भी उभरी लेकिन वे भी राजनीतिक अवसर वाद के अलावा परिवार के शिकंजे में फंसकर रह गए | जहाँ तक आदिवासी समुदाय का सवाल है तो उसमें  भी नेताओं की फ़ौज निकली लेकिन वे अपनी सीमाओं से बाहर निकलने में असफल रहे | झारखंड में आदिवासी मुख्यमंत्री बनने के बावजूद उसे देश भर के आदिवासी समुदाय की मान्यता नहीं मिल सकी | शिबू सोरेन एक बड़ा नाम होने के बाद भी लालची प्रवृत्ति के कारण साख गँवा बैठे | लेकिन पिछड़े वर्ग से जिस तरह नेताओं का सैलाब निकला उसने राष्ट्रीय राजनीति पर भी अपना प्रभाव छोड़ा | गैर कांग्रेसवाद का नारा देकर विपक्षी एकता की कल्पना करने वाले डा.राममनोहर लोहिया के चेलों ने कांग्रेस के साथ  गठबंधन करते हुए देश के दो सबसे बड़े राज्यों उ.प्र और बिहार में उसको घुटनों के बल चलने मजबूर कर दिया | इसमें दो राय नहीं है कि  मंडल आयोग की सिफारिश लागू होने से कांग्रेस को जबर्दस्त नुकसान हुआ क्योंकि ओबीसी वर्ग के नेताओं ने कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता का सुख तो लूटा लेकिन उसकी जड़ें भी कमजोर कर दीं | यहां तक कि  मुस्लिम वोट भी उसके हाथ से खिसक रहा है | हालाँकि इसके लिए कांग्रेस भी कम दोषी नहीं है  क्योंकि उसने समय के  साथ अपने को बदलने की  बजाय गांधी परिवार के करिश्मे पर जरूरत से ज्यादा विश्वास किया । जबकि उसकी चमक लगातार घटती जा रही है | दूसरी  तरफ भाजपा ने मंडल रूपी चक्रवात को समय रहते  भांपते हुए उससे बचाव का पुख्ता इंतजाम कर लिया | उच्च जातियों की पार्टी कही  जाने वाली भाजपा ने जिस तरह से ओबीसी , दलित और आदिवासी समुदाय के बीच अपनी पैठ बनाई उसके कारण कांग्रेस का तो सफाया हुआ ही मंडलवादी नेताओं और दलित राजनीति के ठेकेदार भी कमजोर होते चले गए | जिससे ये साबित हो गया कि केवल आरक्षण नामक झुनझुना पकड़ा देने से पिछड़े , दलित और आदिवासी वर्ग को हमेशा अपने मोहपाश में बांधकर नहीं रखा जा सकता | भाजपा के मार्गदर्शक माने जाने वाले रास्वसंघ ने भी हिन्दू समाज के भीतर जाति के नाम पर चली आ रही विसंगतियों को दूर करने का जो अभियान चलाया उसका ही परिणाम है कि आज भाजपा को बिना मुस्लिम तुष्टीकरण किये ही देश  के साथ अनेक प्रदेशों की सत्ता प्राप्त हो सकी | ऐसा नहीं है कि भाजपा जातिगत समीकरणों को साधने से दूर रहती है | लेकिन उसने सोशल इंजीनियरिंग नामक राजनीतिक हथियार का इस्तेमाल बहुत ही सोच समझकर किया जिससे बजाय घृणा  और संघर्ष के सामाजिक समन्वय देखने मिला | इससे ये सिद्ध हो गया कि  तात्कालिक लाभ बांटने  की  राजनीति के दिन लद रहे हैं | हालाँकि अभी भी विभाजनकारी ताकतें अपने निहित स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं | जिसका प्रमाण  हाल ही में रामचरित मानस को लेकर पैदा किये गए विवाद से मिला लेकिन हिन्दू समाज ने जिस समझ्दारी से उसका प्रतिवाद किया उसकी वजह से विवाद शुरू करने वाले अपने कुनबे में भी निंदा के पात्र बन गए। तुष्टीकरण की सियासत भी धीरे धीरे दम तोड़ती दिख रही है।  लेकिन जिस तरह की कोशिशें हो रही हैं उनसे सतर्क रहने की जरूरत है। विपक्ष का धर्म है सत्ता पक्ष को घेरना लेकिन जब राष्ट्रीय हित विशेष रूप से सुरक्षा जैसे मसले पर राजनीति होती है तब दुख होता है। समाज को टुकड़ों में बांटने जैसी राजनीति के विरुद्ध जब तक जनता जागृत नहीं होती तब तक इन शक्तियों को रोकना कठिन होगा। समय आ गया है जब चुनावी राजनीति को ही सब कुछ समझने के बजाय देश के दूरगामी भविष्य को ध्यान में रखते हुए  फैसला करने की मानसिकता पैदा हो। 21 वीं सदी में जब सब कुछ नया हो रहा है तब हमारे देश की राजनीति को भी अपनी चाल और चरित्र बदलना होगा। वरना वोट बैंक की तृष्णा समाज को टुकड़ों में बांटकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है की अवधारणा को नष्ट करने से भी बाज नहीं आएगी।

रवीन्द्र वाजपेयी 

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