Monday 6 February 2023

मुशर्रफ : दोगलेपन के कारण खुद भी मिटे और मुल्क भी तबाह कर दिया



पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ नहीं रहे। दुबई के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली।नवाज शरीफ का तख्ता पलटकर सत्ता पर काबिज हुए मुशर्रफ का जन्म दिल्ली में हुआ था। विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। सेना में भर्ती होकर वे सेनाध्यक्ष के ओहदे  तक जा पहुंचे । जब स्व. अटलबिहारी वाजपेयी बस लेकर शांति प्रक्रिया बहाल करने लाहौर गए तो उस वक्त वे लाहौर में मौजूद रहने के बजाय इस्लामाबाद में अलग खिचड़ी पका रहे थे। नवाज शरीफ और अटल जी के बीच लाहौर घोषणापत्र के जरिए रिश्ते सुधारने की दिशा में अनेक कदम उठाए गए। रेल और सड़क यातायात के साथ ही व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध कायम करने का पुरजोर प्रयास हुआ । लेकिन बतौर फौजी जनरल मुशर्रफ को ये बर्दाश्त नहीं हुआ क्योंकि पाकिस्तान में फौजी जनरलों की अहमियत भारत विरोध के कारण ही कायम रहती है। आतंकवादियों को भी फौज ही प्रशिक्षित , प्रेरित और प्रश्रय देती है। जब मुशर्रफ को लगा कि वाजपेयी जी की सदाशयता से प्रभावित नवाज भारत के साथ शांति स्थापित करने के लिए कुछ बड़े कदम उठा सकते हैं तब उन्होंने कारगिल में घुसपैठ का कुचक्र रचा जिसमें पाकिस्तान को बुरी तरह पराजित तो होना ही पड़ा  लेकिन कूटनीतिक मोर्चे पर भी उसकी किरकिरी हुई । पराकाष्ठा तब हो गई जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने नवाज को वाशिंगटन बुलाकर तत्काल कारगिल से फौजें हटाने की हिदायत दे डाली। जानकार बताते हैं शरीफ उस युद्ध की योजना से पूरी तरह अनभिज्ञ थे। मुशर्रफ को भय था कि वे अटल जी की लाहौर यात्रा से प्रभावित होकर जंग की अनुमति नहीं देंगे । इसीलिए उस युद्ध से उनको राजनीतिक और कूटनीतिक दोनों ही दृष्टि से नीचा देखना पड़ा । स्मरण रहे 2018 में दोनों देश परमाणु परीक्षण कर चुके थे ।  जिसकी वजह से रिश्तों में जबर्दस्त तल्खी थी। बावजूद उसके  20 फरवरी 1999 को श्री वाजपेयी बस में बैठकर सीमा पार लाहौर पहुंचे थे । उनके साथ देव आनंद , जावेद अख्तर और कपिल देव जैसी हस्तियां भी थीं। पाकिस्तान में उनके प्रति जबर्दस्त आकर्षण देखा गया। लेकिन शत्रुता मिटाकर दोस्ती और विकास के रास्ते पर चलने की उस कोशिश को मुशर्रफ ने चंद महीनों बाद ही पलीता लगाकर मई में कारगिल में घुसपैठ की गोपनीय चाल चल दी। यहां नवाज के अलावा वायु और नौसेना को भी  बेखबर रखा गया । और जब जंग हार गए तब अक्टूबर में शरीफ का तख्ता पलटकर सत्ता पर काबिज हो गए। नवाज को बाद में सऊदी अरब के दबाव में विदेश जाने मिल गया। दो साल बाद मुशर्रफ फर्जी चुनाव करवाकर राष्ट्रपति बन बैठे ताकि उनकी छवि लोकतांत्रिक तरीके से चुने नेता की बने। उनके पिछले रवैए के वावजूद बतौर राष्ट्रपति अटल जी ने उन्हें बातचीत हेतु भारत आमंत्रित किया और वे आए भी किंतु आगरा में हुई वह बातचीत साझा घोषणापत्र में कश्मीर के उल्लेख की उनकी जिद की वजह से बेनतीजा खत्म हो गई । 2008 में उनको पाकिस्तान छोड़कर भागना पड़ा क्योंकि अदालत ने उन्हें मृत्युदंड की सजा सुना दी थी। यद्यपि बरसों बाद वे वतन लौटे तो जरूर लेकिन न पद मिला , न ही प्रतिष्ठा। पाकिस्तान उनके हटने के बाद भले ही लोकतांत्रिक सरकार द्वारा संचालित हो रहा है लेकिन उन्होंने वहां आतंकवादी संगठनों की जड़ें इतनी मजबूत कर दीं कि वे सेना के साथ मिलकर मनमानी किया करते हैं।  बीते अनेक वर्षों से वे  इलाज के नाम पर दुबई में निर्वासित जीवन बिता रहे थे। सही बात ये है कि उन्होंने जीवन में एक भी ऐसा कार्य नहीं किया जिसके लिए वे सम्मान के साथ याद किया जाएं । इसके ठीक उलट वे दगाबाज और दोगले चरित्र के तौर पर इतिहास के किसी कोने में पड़े मिलेंगे। अमेरिका ने 9/11 के हमले के बाद जब अल कायदा के विरुद्ध जंग छेड़ते हुए अफगानिस्तान में डेरा जमाया तब मुशर्रफ उसके साथ खड़े दिखाई दिए। जबकि उस हमले के योजनाकार ओसामा बिन लादेन को भी पाकिस्तान ने ही गुपचुप तरीके से शरण दी। एक तरफ आतंकवाद को बढ़ावा और दूसरी तरफ अमेरिका की मदद जैसे दोहरे रवैए के कारण मुशर्रफ साख और धाक गंवाते चले गए। उनके जीवनकाल में ही उनके विरोधी सत्तासीन होते रहे वे स्वयं  पूरी तरह उपेक्षित और दयनीय बनकर रह गए। इसका कारण उनकी षडयंत्रकारी सोच ही थी। उदाहरण के तौर पर जिस नवाज शरीफ ने उनको सेना प्रमुख बनाया उनको मुशर्रफ ने  पहले तो कारगिल में घुसपैठ के बारे में  अंधेरे में रखा और फिर युद्ध में पराजित होने के बाद जब लगा कि वे इसके लिए जिम्मेदार ठहराए जायेंगे तब उन्हीं का  तख्ता पलट दिया। अटल जी के निमंत्रण पर हुई आगरा वार्ता के जरिए वे चाहते तो दोनों देशों के बीच रिश्तों का एक नया युग शुरू कर सकते थे परंतु जब वार्ता सुखद मोड़ पर आने को थी तब उन्होंने घोषणापत्र में कश्मीर के उल्लेख के साथ ही आतंकवादियों को आजादी का सिपाही माने जाने की जिद पकड़कर सब गुड़ गोबर कर दिया। आज पाकिस्तान जिस बदहाली और कंगाली से गुजर रहा है हालांकि उसके लिए कमोबेश तो वहां के सभी शासक जिम्मेदार हैं लेकिन आजादी के 50 साल बाद जब दोनों देशों में नई पीढ़ी की भूमिका निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने की स्थिति में आ गई थी तब मुशर्रफ यदि लाहौर बस यात्रा से उत्पन्न संभावनाओं को कारगिल की जंग में बेमौत मरने न छोड़ते तो आज पाकिस्तान में लोकतंत्र भी मजबूत होता और मुल्क मौजूदा शर्मनाक स्थिति में न पहुंचता। दुर्भाग्य से मुशर्रफ के बाद भी इस देश की बदनसीबी बनी रही। नरेन्द्र मोदी द्वारा भी काबुल से लौटते समय लाहौर में रुककर नवाज से मिलने का निर्णय एक साहसिक कूटनीतिक  पहल थी किंतु उसे भी आतंकवादी हमलों ने नष्ट कर दिया। इस प्रकार  पाकिस्तान का ये दुर्भाग्य ही रहा कि भारत के साथ रिश्ते सुधारने की हर कोशिश को नाकामयाब किया जाता रहा। और मुशर्रफ उसके सबसे बड़े खलनायकों में से ही एक थे  जिन्हें जिंदगी भर किए गए छल कपट के कारण मौत के लिए अपने वतन की धरती तक नसीब नहीं हुई। बलूचिस्तान की जनता का उस निर्दयी फौजी तानाशाह ने जिस निर्दयता से दमन करवाया उसी की वजह से वह हिस्सा पाकिस्तान से अलग होने पर आमादा है ।

रवीन्द्र वाजपेयी 

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