Saturday 4 February 2023

रामचरित मानस जलाने की सजा : सपा पांचों सीटें हार गई



उ. प्र में शिक्षक वर्ग की 2 और स्नातक वर्ग की 3 विधान परिषद सीटों के लिए हुए चुनाव परिणाम तकरीबन इकतरफा रहे।  भाजपा ने जहां 4 सीटें जीतीं वहीं 1 पर निर्दलीय ने बाजी मारी। इन परिणामों से बहुत दूरगामी निष्कर्ष निकालना तो जल्दबाजी होगी किंतु  मुख्य विपक्षी सपा (समाजवादी पार्टी) के लिए जरूर ये किसी धक्के से कम नहीं हैं । मैनपुरी लोकसभा उपचुनाव में शानदार विजय हासिल करने के बाद हुए इन चुनावों में वह भाजपा को पटकनी देने के जो सपने देख रही थी वे धूल धूसरित हो गए। भाजपा एक सीट हारी अवश्य किंतु वह भी बजाय सपा या बसपा के निर्दलीय के पास जाना इस बात का सूचक है कि राज्य में गत वर्ष हुए विधानसभा चुनाव का राजनीतिक माहौल यथावत है । साथ ही इससे ये भी स्पष्ट हुआ कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश के जनमानस पर छाए हुए हैं। वैसे भी हाल ही में आए एक सर्वे में उनको देश का सबसे अच्छा मुख्यमंत्री माना गया है। उक्त चुनाव में शिक्षक और स्नातक वर्ग के मतदाता थे इसलिए इन परिणामों का काफी महत्व है। लेकिन  एक मुद्दा जिसने इन चुनावों पर असर डाला , वह था रामचरित मानस के विरोध में बनाया गया घृणित महौल जिसके चलते लखनऊ में उस पवित्र ग्रंथ की प्रतियां तक जलाई गईं। सपा नेता स्वामीप्रसाद मौर्य ने मानस  की एक चौपाई को आधार बनाकर पहले तो उसके रचयिता तुलसीदास जी पर अनर्गल आरोप लगाए परन्तु जब विरोध हुआ तो पिछड़े और दलित जैसे घिसे पिटे मुद्दे उठाकर जातिवादी जहर फैलाने की शरारत की। स्वामीप्रसाद की वह घिनौनी हरकत सपा में शामिल अनेक नेताओं को  रास नहीं आई। सुनने में आया कि पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उन्हें बुलाकर जवाब मांगा। उनके चाचा शिवपाल यादव ने भी स्वामीप्रसाद की बकवास को उनका निजी विचार बताकर किनारा कर लिया। वहां तक तो बात समझ में आने वाली थी किंतु उसके बाद अखिलेश ने उस स्तरहीन हरकत के लिए स्वामीप्रसाद को पुरस्कृत करते हुए सपा का राष्ट्रीय महामंत्री बना दिया और वह भी शिवपाल के बराबरी का । और तो और खुद को शूद्र बताते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से संदर्भित चौपाई का अर्थ पूछने जैसा बयान देकर अप्रत्यक्ष रूप से स्वामीप्रसाद द्वारा बोए गए जहर के बीज को खाद पानी देने की हिमाकत कर डाली। इससे प्रोत्साहित होकर उनकी जुबान और तीखी होती चली गई। राजनीतिक विश्लेषक इस मुहिम को बसपा समर्थक  दलित मतदाताओं में सेंध लगाने की रणनीति मानते हुए 2024 का गुणा भाग लगाने में जुट गए।  लेकिन विधानपरिषद की पांच सीटों के चुनाव परिणाम ने स्वामीप्रसाद और सपा दोनों के गाल पर जो झन्नाटेदार  चांटा  जमाया वह इस बात का प्रमाण है कि जातिवाद के नाम पर सामाजिक ढांचे को नष्ट करने की राजनीति अब अंतिम सांसें गिन रही है और सनातनी समाज सदियों से चली आ रही कुरीतियों को बजाय विद्वेष और संघर्ष के सद्भाव और समरसता  बढ़ाकर दूर करने की दिशा में बढ़ रहा है।आदि काल से जिन  विभूतियों ने हमारी चेतना को निर्देशित किया उनके प्रति असम्मान व्यक्त करने वालों को किस तरह कूड़ेदान में फेंका जा रहा है उसका सबसे अच्छा उदाहरण उ . प्र ही है। मंडल और दलित राजनीति के साथ ही मुस्लिम गठजोड़ के जरिए राष्ट्रवादी ताकतों और मुख्यधारा की सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध किए गठबंधन कुछ समय तक तो प्रभावशाली रहे किंतु जल्द ही बुलबुले की तरह फूट गए। यद्यपि उस दौर को पुनर्जीवित करने की अपवित्र कोशिशें अलग अलग रूप में  फिर सामने  आती रहती हैं लेकिन जनता उनके मोहपाश में फंसने की बजाय  दूर जाने लगी है। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण विधान परिषद के लिए हुए ताजा चुनावों के परिणाम हैं। पता नहीं अखिलेश और विकृत मानसिकता से ग्रसित उनके स्वामीप्रसाद जैसे बगलगीर इन परिणामों से कितना सबक लेंगे किंतु यदि वे दीवार पर लिखी इबारत भी नहीं पढ़ पा रहे तब तो उनकी राजनीतिक समझ और विवेक दोनों पर प्रश्नचिन्ह लगना लाजमी है। हालांकि इन लोगों से किसी सार्थक सोच की आशा करना मरुस्थल में जल ढूंढने जैसा है किंतु लोकतांत्रिक समाज में  सत्ता की दौड़ में शामिल लोग इतना भी गिर सकते हैं ये देखकर पीड़ा होती है। स्वामीप्रसाद को तो छोड़ भी दें किंतु अखिलेश जो विदेश से पढ़कर आए और अंतर्जातीय विवाह करते हुए अपनी प्रगतिशील सोच का परिचय भी दिया ,  जब वे इस तरह की घटिया हरकतों का हिस्सा बनते हैं तब लगता है उनकी शिक्षा और निजी जीवन में दिखने वाला व्यवहार फर्जी है। इससे भी बढ़कर बात ये है कि चाहे अखिलेश हों या मायावती , जब ये नेतागण जाति की संकुचित सोच से बाहर आने तैयार नहीं  तब उस वर्ग के लोग इनके चरण चुम्बन क्यों करते हैं जिसे ये पानी पी पीकर गालियां देते और नफरत की नजर से देखते हैं। अखिलेश और स्वामीप्रसाद सरीखे नेताओं को तुलसीदास और रामचरित मानस पर उंगलियां उठाने का ये त्वरित परिणाम तो मिल गया। अब भी उनकी बदजुबानी और हेकड़ी जारी रही तो उनकी दशा भी मायावती जैसी होनी तय है।


रवीन्द्र वाजपेयी 

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