Tuesday 28 February 2023

मार्च में लू के खतरे के बाद भी न सुधरे तो ......



बसंत को भारतीय काल गणना में ऋतुराज कहा जाता है | इस ऋतु में मौसम बड़ा ही सुहावना रहता है | न ज्यादा सर्दी और न ही सूरज की तपन | बसन्ती बयार शीत ऋतु के प्रस्थान का सन्देश देती है | लेकिन बीते कुछ सालों से देखा जा रहा है कि सर्दियाँ खत्म होने के तत्काल बाद मौसम एकदम गर्म हो जाता है | गत वर्ष भी ऐसा ही देखने मिला था जिसके कारण खेतों में कटाई के लिए खड़े  गेंहू पर बुरा असर पड़ा | विशेष रूप से उन इलाकों में जहां शीतकालीन वर्षा  नहीं हुई या कम हुई | इस साल भी जब रेकॉर्ड उत्पादन के समाचार से किसानों  के साथ पूरा देश खुश था तभी अचानक फरवरी के तीसरे सप्ताह से ही मौसम ने ऐसी करवट ली कि बसंत के दौरान ही ग्रीष्म का एहसास होने लगा | फरवरी में उत्तर भारत के बड़े इलाके में पारे का 35 डिग्री तक जा पहुंचना भविष्य में आने वाले बड़े खतरों का संकेत है | मौसम वैज्ञानिकों ने पहले इस बात के लिए डराया था कि इस बार ठण्ड ज्यादा पड़ेगी और देर तक चलेगी | इसका आशय ये था कि मार्च के अंत तक सर्दी बनी रहेगी | लेकिन उस अनुमान के सर्वथा विपरीत अब ये कहा जा रहा है कि मार्च के मध्य से ही पारा उछलकर 40 डिग्री तक जाने लगेगा और तो और लू के रूप में गर्म हवा के थपेड़े सहने पड़ेंगे | यदि ऐसा हुआ तब ये निश्चित रूप से ऋतु चक्र में आ रहे बदलाव का जीवंत प्रमाण होगा जिसके खतरे को भांपकर बचाव के बारे में सोचना भावी पीढ़ी के हितों को देखते हुए अनिवार्य हो गया है  | उत्तर और पूर्वी भारत की जीवन रेखा कही जाने वाली नदियों का स्रोत जिन हिमशैलों में है वे भी साल दर साल सिकुड़ते जा रहे हैं | इस सबका कारण पृथ्वी के तापमान में  हो रही वृद्धि है | हालाँकि सारी दुनिया इसे लेकर चिंतित है और ग्लोबल वार्मिंग के विरुद्ध सामूहिक प्रयास हेतु 2030 तक कोयले का उपयोग  बंद करने तथा कुछ अन्य उपायों से तापमान नियंत्रित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संधि  भी हुई किन्तु कोरोना के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था पर आये संकट की वजह से  अनेक विकसित देशों ने उससे किनारा करने के संकेत दे दिए | एक साल पहले शुरू हुए यूक्रेन और रूस के युद्ध ने समूचे यूरोप को सर्दियों के दौरान  गैस के अभाव में जो तकलीफ़ें उठानी पड़ीं उससे तो लगता है आग तापने के लिए लकड़ी जलाने के परम्परागत तरीके फिर से लौट आयेंगे | सवाल और भी हैं जिनमें प्रकृति और पर्यावरण के लिए उपस्थित खतरों के प्रति चिंता तो प्रकट होती है लेकिन विकास की अंधी दौड़ और सुविधा भोगी जीवन की चाहत में उनको दूर करने के बारे में कोई नहीं सोचता | हाल ही में देवभूमि कहे जाने वाले गढ़वाल के जोशीमठ कस्बे में जमीन धसने से जो नुकसान हुआ उसके असली कारणों को दूर करने के बजाय अस्थायी सोच से ही काम चलाया जा रहा है | जिस भ्रष्ट प्रशासन ने जोशीमठ में बड़े – बड़े होटलों के  निर्माण की  अनुमति दी वही उनको गिरवाकर अपनी कर्तव्यपरायणता का परिचय दे रहा है | लेकिन जब पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले लोगों ने भूस्खलन के बारे में आगाह करना शुरू किया तब उस पर ध्यान नहीं दिया गया | जोशीमठ के बाद उत्तराखंड के  कुमाऊँ अंचल में भी जमीन धसने की घटनाएँ हुईं | यहाँ तक कि जम्मू के निकट कुछ पहाड़ी इलाकों में भी वैसी ही भूगर्भीय हलचल महसूस होने से ये बात सामने आई कि खतरा  क्षेत्र विशेष तक सीमित न होकर  समूचे हिमालय में व्याप्त है | इसी तरह की अन्य प्राकृतिक आपदाएं समय – समय पर हमें चेतावनी देती रही हैं | लेकिन उनकी  अनदेखी किये जाने का नतीजा ही ऋतु परिवर्तन के रूप में सामने आ रहा है | इस बारे में ये समझना होगा कि प्रकृति एक समन्वित व्यवस्था है जिससे  जल , जंगल और  जमीन सभी  जुड़े हैं | एक भी अपनी भूमिका से अलग व्यवहार करने लगे तो उसका दुष्प्रभाव बाकी पर पड़े बिना नहीं रहेगा | लेकिन हमने  प्रकृति को टुकड़ों में बांटकर अपने उत्थान की जो जुर्रत की  उसी के कारण फरवरी में गर्मी और मार्च में लू चलने जैसी स्थिति का सामना करने की बाध्यता हमारे सामने है | इस संकट  के लिए समूचा समाज जिम्मेदार है क्योंकि जो जिस भूमिका में है उसने प्रकृति और पर्यवरण पर अत्याचार करने में संकोच किया होता तो आज ये नौबत न आई होती | हालाँकि बहुत कुछ तो बिगड़ चुका है लेकिन अब भी यदि हम नहीं चेते  और अपने पूर्वजों से मिले संस्कारों के अनुरूप अपनी सुविधाओं पर नियंत्रण रखकर  पर्यावरण के संरक्षण और प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं करते तब ये मान लेना चाहिए कि कुछ साल बाद जनवरी में भी गर्मी सताये बिना नहीं  रहेगी , जिसके जिम्मेदार हम ही होंगे |

रवीन्द्र वाजपेयी 

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