Saturday 30 October 2021

सड़क कोई भी रोके गलत है : आन्दोलन के तौर – तरीकों में सुधार जरूरी



किसान आन्दोलन के कारण दिल्ली आने वाले तमाम रास्तों पर अवरोधक लगाकर आवागमन रोक दिया गया था | बीते 11 महीनों से इन रास्तों पर गुजरने वाले लोगों को लंबा चक्कर लगाकर जाना पड़ रहा था | सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में इस पर अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए किसान संगठनों को फटकारने के साथ ही दिल्ली पुलिस से भी सवाल किये | गत दिवस पुलिस द्वारा अपनी ओर से लगाये गए कटीले तार तथा अन्य अवरोध हटाने का काम प्रारंभ कर दिया गया | इस पर किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा कि इससे साफ़ हो गया कि रास्ते उनके द्वारा नहीं रोके गए थे और अब जब दिल्ली में घुसने की राह खोल दी गई तो किसान अपना अनाज बेचने संसद तक जायेंगे | दरअसल किसान आन्दोलन के तहत दिल्ली में हजारों ट्रैक्टरों के प्रवेश को रोकने के लिए प्रशासन ने सड़कों पर अवरोधक लगाये थे | दूसरी तरफ किसानों का धरना जारी था | इसके कारण वाहन चालकों को वैकल्पिक मार्गों का उपयोग करने की मजबूरी झेलनी पड़ी | दिल्ली पुलिस ने अपने अवरोधक तो हटा लिए लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या किसान भी अपना धरना  समाप्त करेंगे या दिल्ली में घुसने की अपनी  घोषणा को अमल में लायेंगे ? यदि वे ऐसा करने का प्रयास करते है जिसका संकेत श्री टिकैत ने दे भी दिया तब राष्ट्रीय राजधानी में कानून व्यवस्था के साथ यातायात प्रबंधन भी गड़बड़ा सकता है | किसान आन्दोलन के नेतागण दिल्ली  स्थित जंतर मंतर पर धरना देना चाहते थे जो धरना – प्रदर्शनों आदि के लिए नियत है | लेकिन 1988 में स्व. महेंद्र सिंह टिकैत द्वारा संसद के निकट बोट क्लब पर बुलाई किसान पंचायत के बाद उत्पन्न हालात के मद्देनजर राजधानी में इस तरह के आयोजनों की  अनुमति बंद किये जाने से मौजूदा किसान आन्दोलन को भी दिल्ली की सीमा पर  ही रोकने का प्रशासनिक प्रबंध किया गया | लगभग एक साल  बाद पुलिस द्वारा अवरोधक हटाकर रास्ता खोल दिए जाने से आम जनता के लिए तो आवागमन सुलभ हो गया लेकिन किसान संगठन अपना आन्दोलन दिल्ली के भीतर लाने की जिद पाल बैठे तब अप्रिय स्थितियां बन सकती हैं | यद्यपि इस बीच ये अटकलें भी लग रही हैं कि केद्र सरकार ने किसान आन्दोलन को ठंडा करने की रणनीति बना ली है जिसके अंतर्गत उनकी मांगों को इस तरह पूरा किया जावेगा जिससे सरकार का सम्मान भी बना रहे और किसान भी संतुष्ट हो जाएँ | लेकिन  वह संयुक्त किसान मोर्चे को किसी भी तरह का श्रेय लेने से बचना चाहती है और इसीलिये ये सम्भावना बन रही है कि पंजाब के निवर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह को मध्यस्थ बनाकर कृषि कानूनों संबंधी कोई समझौता कर लिया जावे | हालाँकि ये राजनीतिक कयास ही  हैं | कैप्टेन का कांग्रेस के विरोध में मैदान में कूदना और भाजपा के निकट आने के संकेत से इन कयासों को बल मिल रहा है | केंद्र सरकार को  भी ये लग रहा है कि भले ही दिल्ली के प्रवेश द्वारों पर किसानों के धरने में भीड़ लगातार घटती जा रही है और अन्य  स्थानों पर हो रहे आंदोलनों में भी पहले जैसा जोश नहीं बचा लेकिन पांच राज्यों विशेष रूप से उ.प्र, पंजाब और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव में किसान आन्दोलन भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है | लखीमपुर खीरी में किसानों की नृशंस हत्या में केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री के बेटे के आरोपी  होने से भी पार्टी की छवि पर आंच आई है | सरकार को लगता है वह किसान संगठनों की पूरी न सही किन्तु कुछ मांगों को भी मान लेती है तो आन्दोलन और कमजोर  पड़ सकता है | भाजपा जानती है कि पंजाब में तो  उसके पास कुछ खोने के लिए नहीं है लेकिन आन्दोलन का असर हरियाणा पर भी पड़ रहा है | ये भी खबर है  कि राकेश टिकैत से नाराज  संयुक्त किसान मोर्चा के कुछ नेता अंदर – अंदर केंद्र सरकार के सम्पर्क में हैं | वैसे लखीमपुर खीरी काण्ड के बाद जिस तरह श्री टिकैत ने उ.प्र सरकार की मदद करते हुए मृतक किसानों के  परिवारों को मुआवजा दिलवाने की व्यवस्था करवाई उसके बाद से ये भी कहा जाने लगा कि वे भी केंद्र सरकार के निकट आ गये हैं  | हालाँकि अभी तक स्थिति   साफ़ न होने से पक्के तौर पर कुछ भी नहीं  कहा जा सकता लेकिन इतना तो तय है कि केंद्र सरकार और किसान संगठन विवाद का हल निकालने की मानसिकता बना चुके हैं और इसी वजह से दिल्ली पुलिस ने हरियाणा और उ.प्र सीमा से लगे रास्ते खोलने की प्रक्रिया शुरू कर दी है | लेकिन इस  सबसे हटकर मुद्दा ये है कि क्या लगातार कई महीनों तक ऐसे रास्तों पर यातायात अवरुद्ध करना वाजिब है , जिन पर प्रतिदिन लाखों लोग आवाजाही करते हैं | ये मुद्दा सरकार और आन्दोलन करने वालों के लिए समान रूप से विचारणीय है | देश की राजधानी में पूरे देश भर से लोगों का आना होता है | पड़ोसी राज्यों से तो लाखों लोग प्रतिदिन नौकरी और अन्य कार्यों से दिल्ली आते हैं | अन्य शहरों में भी इस तरह की समस्या उत्पन्न होती रहती है | दुर्भाग्य से हमारे देश में लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल दिया गया है जिसके लिए राजनीतिक दल पूर्णरूपण दोषी हैं,  जिन्होंने आंदोलनों के नाम पर कानून – व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाने का चलन प्रारम्भ किया | किसान आज भले ही  रेल रोक रहे हों लेकिन उन्होंने भी ये तरीका राजनीतिक लोगों से सीखा | प. बंगाल में वाममोर्चे के शासन के दौरान सरकार प्रायोजित बंद का तरीका शुरू हुआ | स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के दौरान अन्य बातों के अलावा आन्दोलन के तौर – तरीकों पर भी विचार और समीक्षा होनी चाहिए | आन्दोलन के अव्यवस्थित होने का नतीजा ही लखीमपुर खीरी में हुई हत्याओं के रूप में सामने आ चुका है  | उसके पहले दिल्ली में चल रहे धरना स्थलों पर भी  अनेक किसानों की मौत हो चुकी है | निहंगों द्वारा एक व्यक्ति को बेरहमी से  मार डालने की वारदात  भी आंदोलन के अनियंत्रित होने का प्रमाण है | किसान आन्दोलन की देखा सीखी आने वाले समय में दूसरा कोई संगठन भी यदि इसी तरह से रास्तों पर कब्जा करने लगे तो फिर अनावश्यक विवाद पैदा होंगे | दिल्ली में ही धरना स्थल के निकटवर्ती ग्रामीण इलाकों की जनता और छोटे व्यापारी  आक्रोशित होकर संघर्ष पर उतारू हो गए थे | इस तरह की परिस्थितियां दोबारा न बनें ये देखना सभी पक्षों का दायित्व है | अपने हितों के लिए संघर्ष करना भले ही मौलिक अधिकार हो लेकिन ऐसा करते समय दूसरे वर्गों को तकलीफ न उठाना पड़े ये ध्यान रखना भी जरूरी है |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 29 October 2021

ममता को आगे बढ़ाने के लिए राहुल को आईना दिखाने की रणनीति



प्रशांत किशोर चुनाव विश्लेषण और प्रबंधन में माहिर हैं | 2014 में नरेंद्र मोदी की चुनावी रणनीति बनाने के साथ ही वे सुर्ख़ियों में आये | लेकिन जल्द ही उनकी भाजपा से कुट्टी हो गई | उसके बाद उन्होंने बिहार में बहार है , नीतिशै कुमार है जैसा नारा देकर बिहार में भाजपा को धूल चटाई | 2017 में वे पंजाब में कैप्टेन अमरिंदर सिंह के रणनीतिकार बनकर सफल साबित हुए , हालाँकि उ.प्र में कांग्रेस की लुटिया डूबने से नहीं बचा सके  | प. बंगाल विधानसभा के हालिया चुनाव में उन्होंने ममता बनर्जी को तीसरी बार सत्ता की कुर्सी तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया | खेला होबे का उनका नारा भाजपा पर भारी पड़ गया | प्रधानमन्त्री और गृह मंत्री अमित शाह सहित भाजपा की भारी - भरकम फ़ौज तमाम दावों के बाद भी परिबर्तन के नारे को मतदाताओं के गले नहीं उतार सकी |  इस चुनाव में दावे और प्रतिदावे तो बहुत हुए लेकिन प्रशांत ने मतदान के पहले ही जबरदस्त आत्मविश्वास के साथ ये कहा था कि भाजपा किसी भी सूरत में 100  का आंकड़ा  पार नहीं कर सकेगी  और वे सौ फीसदी सही साबित हुए | उसके बाद वे ममता को राष्ट्रीय स्तर पर श्री मोदी का विकल्प बनाने में जुट गए | राकांपा प्रमुख शरद पवार के साथ उनकी लम्बी मुलाकातों से भी  विपक्ष का संयुक्त मोर्चा बनाने की सम्भावना को बल मिला | तदुपरांत  वे कांग्रेस नेता राहुल गांधी से भी मिले और उनको 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के विरुद्ध विपक्षी एकता की जरूरत बताई | लेकिन ऐसा लगता है कि श्री गांधी उनसे सहमत नहीं हुए | इसकी  मुख्य वजह प्रधानमन्त्री के चेहरे के तौर पर सुश्री बैनर्जी को पेश करने की बात थी | उल्लेखनीय है बंगाल की सत्ता तीसरी बार हासिल करने के बाद ममता का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर है | उन्होंने भाजपा में सेंध लगाते हुए उसके अनेक विधायक और सांसद तो तोड़े ही कांग्रेस के भीतर भी तोड़फोड़ मचा दी और उसकी प्रदेश महिला अध्यक्ष के साथ ही पूर्व राष्ट्रपति स्व. प्रणव मुखर्जी के बेटे अभिजीत को भी अपनी पार्टी में ले आईं | साथ ही  लगातार ये बयान भी दिया कि 2024  में श्री मोदी का मुकाबला करना कांग्रेस या राहुल के बस की बात नहीं है | उनके आक्रामक तेवर इस बात का संकेत दे रहे हैं कि वे राष्ट्रीय राजनीति में विपक्षी खेमे में पैदा हुए नेतृत्व  के शून्य को भरने के लिए तत्पर हैं | उनका सोचना गलत भी नहीं है क्योंकि वर्तमान परिदृश्य में वे ही ऐसी अकेली गैर भाजपाई नेता हैं जिनकी बंगाल से बाहर भी  पहिचान है | विपक्षी दलों में भी उनकी पार्टी ही अपनी दम पर सरकार बनाने की क्षमता साबित कर चुकी है | कहने को तमिलनाडु , केरल , तेलंगाना , छत्तीसगढ़ . पंजाब , महाराष्ट्र , आन्ध्र , राजस्थान और उड़ीसा में भी गैर भाजपाई सरकारें हैं |  नवीन पटनायक तो पांचवी बार मुख्यमंत्री बने हैं | लेकिन उक्त राज्यों में से किसी के भी मुख्यमंत्री की राष्ट्रीय अपील नहीं है | शरद पवार और मुलायम सिंह यादव उम्रदराज होने से पहले जैसी ऊर्जा नहीं रखते | लालू यादव का सुनहरा दौर खत्म हो चुका है | देवगौड़ा भी हाशिये पर सिमटकर रह गये हैं | कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया  गांधी तो प्रधानमंत्री की दौड़ से काफी पहले बाहर हो चुकी थीं | ऐसे में सुश्री बैनर्जी का दावा ठोंकना स्वाभाविक है | लेकिन इसमें कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की  महत्वाकांक्षा बाधक बन रही है | ऐसा लगता है प्रशांत ने गांधी परिवार को ये बताने की कोशिश की थी कि राहुल को आगे रखकर श्री मोदी को परास्त करना कठिन होगा परन्तु  उ. प्र विधानसभा के आगामी चुनाव में कांग्रेस  प्रियंका वाड्रा के नेतृत्व में जिस तरह आक्रामक नजर आ रही  है उससे विपक्षी एकता की संभावनाएं धूमिल हो रही हैं | ममता द्वारा कांग्रेस को कमजोर बताये जाने वाले बयानों के बाद गत दिवस प्रशांत ने ये कहकर धमाका कर दिया कि कांग्रेस भले ही खुशफहमी पाले रहे लेकिन मौजूदा हालातों को देखते हुए भाजपा आगामी अनेक दशकों तक राष्ट्रीय राजनीति में छाई रहेगी | अपनी बात को साबित करने के लिए उन्होंने आंकड़ों का सहारा लेते हुए  साफ़ किया कि 30 फ़ीसदी मत  हासिल करने के बाद भाजपा को लम्बे समय तक राष्ट्रीय राजनीति में दबदबा बनाये रखने से रोकना ठीक वैसे ही असम्भव होगा जैसे 40 साल तक कांग्रेस को नहीं हटाया जा सका था | कांग्रेस पर तंज करते हुए श्री किशोर ने कहा कि उसके तमाम नेता ये सोचकर बैठे हैं कि कुछ समय बाद सत्ता विरोधी लहर आयेगी  और उनके अच्छे दिन लौट आयेंगे | अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि भाजपा को भले ही एक तिहाई मतदाता समर्थन देते हैं लेकिन बचे हुए दो तिहाई में दर्जन भर से ज्यादा पार्टियां बंटवारा करती हैं | उनका ये भी कहना था कि भविष्य में भले ही नाराज होकर जनता श्री मोदी को हटा दे लेकिन भाजपा  अगले कई दशक तक ताकतवर और प्रासंगिक  बनी रहेगी | हालाँकि श्री किशोर ने उक्त्त आकलन गोवा में एक गैर राजनीतिक आयोजन में प्रस्तुत किया लेकिन ये अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस और विशेष रूप से श्री गांधी पर दागा गया निशाना है , जो अभी भी ये मानने को राजी नहीं हैं कि उनके  अलावा  श्री मोदी का कोई विकल्प हो सकता है | वैसे प्रशांत के ताजा  बयान को उस रणनीति का हिस्सा भी माना  जा सकता  है जिसके अंतर्गत वे 2024 के चुनाव को मोदी विरुद्ध ममता बनाने का तानाबाना बुन रहे हैं लेकिन राहुल  किसी भी कीमत पर उसके लिए राजी नहीं हैं और ये उम्मीद लगाये हैं कि भाजपा से असंतुष्ट होते ही जनता उनका राज्याभिषेक कर देगी | प्रशांत का भाजपा के साथ जुड़ना तो   असंभव नजर आ रहा है | इसलिए वे अपनी साख बनाये रखने के लिए विपक्ष की बिखरी हुई ताकत को एकजुट करना चाहते हैं | ये कहना भी गलत न होगा कि चुनाव प्रबंधन करते – करते उनके मन में भी लड्डू फूटने लगे हैं | नीतीश कुमार से अच्छे रिश्तों के दौरान उनकी पार्टी के पदाधिकारी बनकर  वे इसे जाहिर भी  कर चुके थे | हाल ही में उनके कांग्रेस में शामिल होने की खबरें भी खूब उडीं | इसलिए ये भी माना  जा सकता है कि गोवा में कही गईं  बातें कांग्रेस को चिढ़ाने के साथ ही प्रधानमंत्री पद की ज़िद  छोडकर विपक्षी गठबंधन में शामिल होने की सलाह हो | लेकिन उन्होंने जो कहा उसका सबसे प्रमुख निचोड़ ये है कि कांग्रेस भविष्य में भी राष्ट्रीय राजनीति की  सिरमौर नहीं रह सकेगी | वैसे भी विपक्षी गठबन्धन की आस अब ममता के इर्द – गिर्द घूमने लगी है | राहुल गांधी के बारे में भी प्रशांत ने जो टिप्पणियाँ कीं वे कांग्रेस के लिए विचारणीय हैं | हालाँकि पार्टी में गांधी परिवार के विरुद्ध कही गई किसी भी बात का संज्ञान न लेने की परम्परा है जो उसकी वर्तमान दुरावस्था का सबसे बड़ा कारण है |  

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 October 2021

पेगासस जासूसी : ऐसी गुत्थियां ज्यादातर अनसुलझी रह जाती हैं



पेगासस जासूसी मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गई जांच समिति पर किसी को आपत्ति नहीं होना अच्छी बात बात है | यद्यपि केंद्र सरकार ने सुरक्षा संबंधी गोपनीयता की वजह  से अदालत के कहने के बावजूद विस्तृत हलफनामा देने से इंकार कर दिया था किन्तु भाजपा ने भी  समिति का स्वागत किया है |  पैगासस इजरायली स्पाइवेयर है जिसकी सहायता से किसी भी व्यक्ति के फ़ोन की टेपिंग के साथ उसका निजी विवरण ( डेटा ) जुटाया जा सकता है |  कुछ महीने पहले अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ये खुलासा हुआ कि पैगासस के जरिये दुनिया भर की विशिष्ट हस्तियों की जासूसी की गई | इजरायल के  इस स्पाइवेयर की सेवाएँ  जिन  सरकारों द्वारा ली गईं उनमें भारत  का नाम भी आने से संसद का मानसून सत्र  हंगामे की भेंट चढ़ गया | विपक्ष के साथ ही सत्ताधारी पार्टी के अनेक नेताओं और मंत्रियों की जासूसी की बात भी सामने आई | उनके अलावा कुछ पत्रकारों के नाम भी उछले | हालाँकि कोई दस्तावेजी प्रमाण सामने नहीं आया लेकिन विपक्ष द्वारा संयुक्त संसदीय समिति से जाँच की मांग को सरकार ने सिरे से ठुकराते हुए साफ किया कि उसके द्वारा  किसी की निजता का उल्लंघन नहीं किया गया  | लेकिन विपक्ष ये जानना चाहता था कि क्या पेगासस की सेवाएँ भारत  सरकार द्वारा ली गईं और हाँ तो किस कानून के तहत ? सरकार ने इस बारे में जो उत्तर दिया उनमें स्पष्टता नहीं होने से मामला न्यायालय चला गया |  वहां भी सरकार ने सुरक्षा के मद्देनजर कुछ भी साफ़ बताने से मना  कर दिया लेकिन ये जरूर कहा जाता रहा कि उसने कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे कानून का उल्लंघन हुआ हो | लोगों की जासूसी तो हर सरकार करती है किन्तु पेगासस का नियन्त्रण दूसरे देश में होने से जिन लोगों की जासूसी  की बात सामने आई उनकी जानकारी का अंतर्राष्ट्रीयकरण होने से बवाल मचा | हालाँकि केंद्र  सरकार ने भी  अपनी जाँच समिति बना दी लेकिन न्यायालय के अनुसार वह खुद ही  आरोपों के घेरे में है  इसलिए उस जांच की  निष्पक्षता और पारदर्शिता पर उँगलियाँ उठ सकती हैं | लम्बी बहस के बाद गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक समिति बना दी गई जिसमें  तीन विशेषज्ञ बतौर सहयोगी रहेंगे  | समिति का कार्यकाल तय नहीं किया गया किन्तु  आठ सप्ताह बाद सुनवाई किये जाने के आदेश से लगता है उस समय तक जांच समिति अपना काम कर लेगी | सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार द्वारा सुरक्षा की आड़ लेने पर  कहा कि ये स्थायी बचाव नहीं हो सकता  | बहरहाल अब मामला समिति के सामने है जहां सरकार और शिकायतकर्ता अपना पक्ष रखेंगे | लेकिन क्या समिति या न्यायपालिका राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सवालों पर केंद्र के क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप कर सकती है ?  जासूसी के साथ जुड़ा निजता का मुद्दा और पत्रकारों के स्रोत की जानकारी गोपनीय रखने  के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय की चिंता स्वाभाविक है लेकिन वीरप्पन जैसे कुख्यात अपराधी के अलावा नक्सलियों  से उनके ठिकानों पर जाकर  साक्षात्कार करने वाले पत्रकारों को क्या पुलिस को उनके  अड्डों की जानकारी  नहीं देनी चाहिए ? पेगासस मामले में तो कुछ केन्द्रीय मंत्रियों के साथ ही भाजपा नेताओं की जासूसी  की बात भी उजागर हुई थी | वैसे भी आईबी ( गुप्तचर ब्यूरो ) राजनेताओं और पत्रकारों पर निगाह रखता है | जासूसी शासन व्यवस्था का बहुत ही  महत्वपूर्ण भाग  रहा  है | लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी इसका उपयोग होता है | रही बात निजता की तो आज की दुनिया में उसकी रक्षा असंभव  है | वैसे सरकार की जासूसी का उद्देश्य तो कुछ और होता है  लेकिन इंटरनेट  ईमेल , एसएमएस और व्हाट्स एप के जरिये भेजे जाने वाले सन्देश को गोपनीय रखना नामुमकिन सा  है | सोशल मीडिया पर किया जाने वाला संवाद भी वैश्विक जानकारी में आ जाता है | व्यक्ति के निजी विवरण , रुचियाँ , निजी सम्बन्ध  , व्यवसायिक , सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों के अलावा और भी  बहुत  कुछ ऐसा है जो हमारी जानकारी और अनुमति के बिना रिकॉर्ड हो  रहा है | किसी अपराध के पर्दाफाश में व्हाट्स एप और ईमेल से हुआ संवाद बतौर साक्ष्य काम आता है | मोबाइल फोन से हुई बात से पता चल जाता है कि सम्बन्धित व्यक्ति उस समय कहाँ था ? इस प्रकार  किसी भी इंसान की निजी जानकारी अब गोपनीय नहीं रही और उसका व्यवसायिक उपयोग धड़ल्ले से होता  है | लेकिन पेगासस जासूसी का उद्देश्य अलग किस्म का होने से उसका विरोध न केवल भारत अपितु दुनिया के अनेक देशों में हो रहा है | हालाँकि ये पहला मामला नहीं है जिसमें निजता के उल्लंघन की शिकायत हुई हो | सर्वोच्च नयायालय का ये कहना एक हद तक सही है कि सरकार सुरक्षा की आड़ में निजता की उपेक्षा नहीं कर सकती | ऐसे में जांच समिति के सामने मुख्य मुद्दा ये होगा कि यदि भारत में पेगासस की सेवाएँ ली गईं तो वह किस क़ानून और किसके आदेश से ,  क्योंकि उसको नियंत्रित करने वाली कम्पनी साफ कर चुकी है कि वह केवल सरकारों को ही यह  स्पाइवेयर प्रदान करती है | ऐसे में यदि भारत सरकार द्वारा पेगासस हासिल किये जाने की बात प्रमाणित होती है तब उसे इसके औचित्य को भी साबित करना पड़ेगा | लेकिन जाँच समिति के समक्ष भी ये दुविधा रहेगी कि वह सरकार को सुरक्षा संबंधी संवेदनशील जानकारी उपलब्ध करवाने के लिए किस हद तक बाध्य कर सकेगी ?  ऐसे में आठ सप्ताह के भीतर समिति अपना काम पूरा कर लेगी ये मुश्किल है | पेगासस का मुद्दा राजनीतिक हो जाने से सरकार और विपक्ष के बीच की खींचातानी में तब तक उलझा रहेगा जब तक कोई नया विवाद नहीं उठता | विपक्ष भी  समझता है कि ऐसे विवादों का कोई हल नहीं निकलता | अतीत में भी जैन हवाला डायरी , विकीलीक्स जैसे  अनेक मामले उठे जिनसे  कुछ समय के लिए हंगामा मचा किन्तु कुछ समय बाद सब भुला दिया गया | पेगासस प्रकरण भी चूँकि विदेश से उठा है इसलिए उसकी सच्चाई आसानी से सामने आना कठिन है | सर्वोच्च न्यायालय के हालिया व्यवहार को देखते हुए भी ये कहा जा सकता है कि वह जनभावनाओं का सम्मान करते हुए प्रारंभिक सख्ती दिखाने के बावजूद  कार्यपालिका के अधिकारों सहित सुरक्षा जैसे मुद्दों पर अंततः  अपनी सीमा में रहकर ही फैसला सुनाता है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 27 October 2021

चीन का दोगलापन : इस्लामिक आतंकवाद का समर्थन और इस्लाम का दमन



चीन साम्यवादी विचारधारा से शासित देश है | वहां एकदलीय  लोकतंत्र है जिसमें चुनाव किस तरह होते होंगे ये समझने वाली बात है | राष्ट्रपति शी जिन पिंग खुद को आजीवन राष्ट्रपति घोषित  करवाकर तानाशाह बन बैठे हैं  | वर्तमान विश्व में जो ताकतवर नेता माने जाते हैं उनमें वे  भी  है | चीन निश्चित रूप से आर्थिक और सैनिक महाशक्ति होने के साथ ही अमेरिका को खुलकर चुनौती देने वाला प्रमुख देश है | कोरोना काल में पूरी दुनिया उस पर संदेह करती रह गई लेकिन उसका कुछ नहीं बिगड़ा  | ये देश अब माओ के लौह आवरण को तोड़कर विशुद्ध पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अपना चुका है जहां  बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जन्म ले चुकी हैं और  दुनिया भर के बड़े ब्रांड चीन में उत्पादन कर रहे हैं | लेकिन इस सबके बावजूद चीन अपनी रहस्यमय नीतियों और गोपनीय कार्यप्रणाली के लिए कुख्यात है |  पड़ोसियों को धमकाते हुए उनकी जमीन पर कब्जा करना उसके स्वभाव  में है | दक्षिणी चीन के समुद्री क्षेत्र पर दादागिरी से आधिपत्य जमा लेने की उसकी कोशिशों के विरुद्ध ही अमेरिका , जापान , आस्ट्रेलिया , भारत और ताईवान मिलकर मोर्चेबंदी कर  रहे हैं जिसमें उत्तर कोरिया को छोड़कर अन्य  दक्षिण एशियाई देश भी साथ हैं |  पश्चिम एशिया में होने वाली प्रत्येक जंग में वह अमेरिका के विरोध स्वरूप इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को सहायता और समर्थन देता है | ये जानते हुए भी कि तालिबान इस्लामिक कट्टरता के जीवंत प्रतीक हैं  , उनकी सरकार को मान्यता देने वाला दुनिया का वह पहला देश था | इसी तरह पकिस्तान में पल रहे इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को प्रश्रय देकर कश्मीर में गड़बड़ी करवाने में भी उसकी भूमिका रहती है | लेकिन अपने देश में रहने वाले मुसलमानों के प्रति चीन सरकार की बेरहमी पूरी दुनिया में चर्चा का विषय है परन्तु  मानवाधिकार के ठेकेदार और मुस्लिम देशों के राष्ट्रप्रमुख इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं कर पा रहे | उल्लेखनीय है कि भारत द्वारा जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने के अलावा नागरिकता संशोधन कानून बनाने पर तमाम मुस्लिम देश विरोध करने आगे आये थे | मलेशिया और टर्की ने तो संरासंघ तक में भारत के विरूद्ध खूब ज़हर उगला | लेकिन चीन में पहले तो उइगर मुस्लिमों के उत्पीड़न की ही खबरें आया करती थीं किन्तु अब देश के अन्य अंचलों में बसे बाकी मुस्लिम समुदायों के दमन की जानकारी भी पूरे दुनिया में उजागर हो चुकी है | मस्जिदों के गुम्बज तोड़कर उनको चीनी वास्तु शैली  के अनुरूप किया जा रहा है | दाढ़ी रखने के अलावा ईद और मुहर्रम के सार्वजनिक आयोजन पर भी रोक है | अरबी और फारसी नाम भी नहीं रखने दिए जा रहे | मुसलमानों पर चीनी भाषा थोपी जा रही है | कुल मिलाकर चीन सरकार का उद्देश्य ये है कि चीन में रहने वाले मुसलमानों का अरब से कोई सम्बन्ध न रहे | उनकी धार्मिक - सांस्कृतिक परम्पराओं  और रीति - रिवाजों को योजनाबद्ध तरीके से नष्ट करने की पूरी तैयारी जिन पिंग सरकार द्वारा कर ली गयी है | इसके लिए वही तरीके उपयोग किये जा रहे हैं जिनके ज़रिये तिब्बत में बौद्ध धर्म और संस्कृति को नष्ट करते हुए  चीनी मूल की आबादी को बसा दिया गया | चीन आने वाले  पर्यटकों को तिब्बत जाने की इजाजत नहीं दी जाती | यहाँ तक कि विदेशी राजनयिक और राष्ट्रप्रमुखों के अलावा मानव अधिकारों के हनन की जांच करने वाली अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों तक को तिब्बत के अलावा मुस्लिम बहुल इलाकों में जाने पर मनाही है | साम्यवादी विचारधारा ईश्वर में विश्वास नहीं रखती | माओ ने तो धर्म को अफीम तक कहा था | लेकिन वही चीन इस्लामिक आतंकवाद को हर तरह का सहयोग और संसाधन उपलब्ध करवाते हुए विश्व शांति के लिए खतरा पैदा करता है | आश्चर्यजनक बात ये है कि दुनिया भर के इस्लामिक संगठन चीन में मुस्लिम आबादी के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार और दमनात्मक कार्रवाही पर मुंह खोलने की हिम्मत नहीं कर पाते | टर्की और मलेशिया को भारत के मुसलमान तो खतरे में  नजर आते हैं लेकिन चीन में रह रहे मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचारों पर उनकी आवाज नहीं निकलती |  सऊदी अरब पूरी दुनिया में इस्लाम का सरपरस्त बनता है लेकिन उसने भी चीन में इस्लाम के अनुयायियों पर होने वाले अत्याचारों को अनदेखा कर रखा है |  चीन के टुकड़ों पर पलने के कारण  तालिबान और पाकिस्तान तो मुस्लिम बिरादरी पर जिन पिंग सरकार द्वारा ढाए जा रहे जुल्मों पर चुप्पी साधी रहने बाध्य हैं परन्तु  कच्चे तेल की अकूत संपदा संपन्न इस्लामिक देश भी  जिन पिंग सरकार के विरुद्ध एक शब्द नहीं कहते | इससे चीन का हौसला तो बुलंद होता  है लेकिन मुस्लिम देशों  का दब्बूपन भी सामने आ रहा है | भारत में भी मुस्लिमों के हित में बोलने वाले अनेक धर्मगुरु और संगठन हैं | लेकिन वे  भी चीन में मुस्लिम आबादी पर हो रहे जुल्मों पर मुंह खोलने की हिम्मत नहीं बटोर पा रहे | सबसे संदिग्ध  स्थिति उन वामपंथियों की है जो भारत  में असहिष्णुता का हल्ला मचाकर अवार्ड वापिसी का नाटक करते हैं लेकिन चीन में जिन पिंग सरकार द्वारा मुसलमानों के प्रति प्रदर्शित असहिष्णुता और अमानवीयता पर उनके मुंह में दही जमा हुआ है | सबसे बड़ी बात इस बारे में विश्व मानव अधिकार संगठन और संरासंघ की उदासीनता की  है जो  कुछ करना तो दूर रहा बोलने तक की हिम्मत नहीं दिखा पाते | पूरी दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद को दाना पानी देकर पनपने में मदद करने वाला चीन अपने देश में इस्लामिक आतंकवाद को न पनपने देने के प्रति बेहद सतर्क है और इसीलिये वह मुस्लिम आबादी के दमन में ज़रा भी संकोच नहीं करता | और तब  पर भी  खुद को इस्लामिक देश मानने वाले  तालिबान और पाकिस्तान चीन के तलवे चाटने में जुटे रहते हैं  |   

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 26 October 2021

विधानसभा अध्यक्ष से प्रेरित होकर बाकी विधायक भी मतदाताओं के पास पहुंचें



ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि खबरें भी आजकल बाजार का हिस्सा बन चुकी हैं | सनसनी मचाने  वाली खबर के पाठक और दर्शक ज्यादा होने से समाचार माध्यम भी उन्हे परोसने में ज्यादा रूचि लेते हैं | इसे फिल्मी दुनिया के बॉक्स ऑफिस फार्मूले से जोड़कर भी देखा जा रहा है जिसके अनुसार किसी फिल्म की सफलता का आधार टिकिट बिक्री से आने वाली राशि होती है  | दूसरी तरफ ऐसी फ़िल्में भी होती हैं जो अच्छी पटकथा , उत्कृष्ट अभिनय और सामाजिक सरोकारों से जुड़े होने के बावजूद दर्शकों की भीड़ नहीं बटोर पातीं | लेकिन उन्हें समीक्षकों  की प्रशंसा प्राप्त जरूर होती है | जो अभिनेता पैसे और ग्लैमर के अलावा कला और सामाजिक दायित्व के प्रति गम्भीर होते हैं वे समीक्षकों की राय को बॉक्स ऑफिस की सफलता से ज्यादा  महत्व देते हैं |  इसी तरह पाठकों और दर्शकों का भी एक  वर्ग है जो सकारात्मक समाचारों को पसंद करता है | लेकिन आज के दौर में सब कुछ व्यवसायिक होने से खबरों की  गुणवत्ता को अपेक्षित महत्व नहीं मिल पाता |  ताजा उदाहरण है म.प्र विधानसभा के अध्यक्ष गिरीश गौतम द्वारा अपने निर्वाचन क्षेत्र देवतालाब का सायकिल से किया जा रहा जनसंपर्क दौरा | श्री गौतम ने इस दौरान विधानसभा अध्यक्ष के तौर पर उनको मिली वाहन सहित अन्य सरकारी  सुविधाओं का परित्याग कर दिया है | सायकिल चलाकर गाँव – गाँव घूमकर आम जनता से प्रत्यक्ष संवाद करते हुए  वे उनकी समस्याओं की जानकारी एकत्र कर रहे हैं | जहां रात हो जाती है उसी ग्राम में रूककर लोगों से बतियाते हुए अगले दिन आगे बढ़ जाते हैं | क्षेत्रीय जनता अपने प्रतिनिधि को इस तरह अपने बीच पाकर उत्साहित भी हैं  | श्री गौतम देवतालाब विधानसभा क्षेत्र को आदर्श बनाने का आश्वासन भी दे रहे हैं | बीते दो दिनों में उनकी यात्रा दर्जनों गाँवों से गुजर चुकी है | बतौर राजनेता उनका ये कदम बेशक राजनीतिक लाभ के लिए उठाया गया होगा | आज की स्वार्थपरक और सत्ताभिमुखी राजनीति में सरकारी वाहन , सुरक्षा और बाकी  तामझाम छोड़कर इस तरह सायकिल चलाते हुए जनता से रूबरू होना चुनाव के दौरान तो देखा जाता है लेकिन प्रदेश विधानसभा के चुनाव अभी दो साल दूर हैं | और फिर  विधानसभा अध्यक्ष के ओहदे से जुड़ा रुतबा और शक्तियां इतनी हैं कि वे बिना घूमे भी मंत्रियों  से कहकर अपने निर्वाचन क्षेत्र में विकास के काम करवा सकते हैं  | लेकिन श्री गौतम ने एक अभिनव प्रयोग करते हुए बाकी विधायकों को भी रास्ता दिखा दिया आम जनता से सीधे सम्पर्क करने का | कुछ लोग इसे दिखावा या प्रचार के लिए किया जा रहा प्रायोजित प्रयास भी कह सकते हैं लेकिन ऐसी कोशिशों का प्रचार तो जितना ज्यादा हो सके उतना अच्छा होगा | बेहतर  तो यही होता कि विधानसभा अध्यक्ष का यह  जनसंपर्क दौरा मुख्य समाचार बनता | देश में अनेक ऐसे जनप्रतिनिधि हैं जो सत्ता के ऊंचे आसन पर बैठ जाने के बाद भी अपने मतदाताओं से जीवंत सम्बन्ध बनाये रखते हैं | उस लिहाज से श्री गौतम ने अनोखा कुछ नहीं किया किन्तु म.प्र विधानसभा के  शेष सदस्यों के लिए तो ये एक संदेश है ही | ये बात बिलकुल सही है कि संचार और आवागमन के साधन विकसित होने के बावजूद जनप्रतिनिधियों  और मतदाताओं के बीच का सम्पर्क संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता | चुनाव जीतने के बाद तो उनके इर्दगिर्द दलाल किस्म के लोग मंडराने लगते हैं जिनकी वजह से आम जन उन तक पहुँच नहीं पाते | पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं से तो उनका मिलना - जुलना होता  रहता है किन्तु सही मायनों में जो आम जनता है उसे उनके पास जाकर अपना दुखड़ा रोने का अवसर आसानी से नहीं मिलने से उसे ये लगता है जैसे अभी भी राजतंत्र का दौर ही जारी हो | ऐसी स्थिति में श्री गौतम ने एक सराहनीय पहल करते हुए जनता से सीधे जुड़ने की जो कोशिश की है वह अनुकरणीय है | प्रदेश के  बाकी विधायक भी इससे प्रेरित होकर  मतदाताओं के बीच जाकर उनके हालचाल जानें तो वह  लोकतंत्र को सार्थकता प्रदान करेगा | प्रख्यात समाजवादी चिन्तक स्व. राममनोहर लोहिया जनसभाओं में आम जनता के लिए मेरे मुल्क के मालिको जैसा संबोधन  करते थे | लेकिन आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष तक आते - आते स्थिति पूरी तरह उलट चुकी है और मालिक कहलाने वाली जनता सेवक से भी बदतर होकर रह गई है | श्री गौतम द्वारा सायकिल से किये जा रहे इस जनसंपर्क दौरे से देवतालाब विधानसभा क्षेत्र में रामराज आने और विकास की गंगा बहने का भरोसा करना तो जल्दबाजी होगी लेकिन इसे ताजी हवा के झोंके जैसा मानकर ये अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि अन्य जनप्रतिनिधि भी इससे प्रेरणा लेते हुए अपने मतदाताओं के पास पहुंचकर उन्हें लोकतंत्र के आदर्श रूप का एहसास करवाएंगे |  

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 25 October 2021

लोकतंत्र को टी - ट्वेंटी क्रिकेट बनने से रोकना जरूरी



म.प्र में चार विधानसभा और एक लोकसभा सीट के लिए हो रहे उपचुनाव के लिए प्रचार कार्य जोरों पर है |  भाजपा से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित प्रदेश और केंद्र सरकार के अनेक मंत्रियों ने मोर्चा संभाल रखा है जबकि कांग्रेस की कमान पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के अलावा अन्य प्रादेशिक नेताओं के हाथ  है | जातीय समीकरण बिठाने की कोशिश दोनों पार्टियों की तरफ से हो रही है जिसकी शुरुवात प्रत्याशी चयन से ही हो चुकी थी | चुनावी हलचल प्रारंभ होते ही नेताओं के पाला बदलने का सिलसिला  शुरू हो गया | भाजपा ने तो कांग्रेस से आईं महिला नेत्री को ही विधानसभा सीट से प्रत्याशी बना दिया जो पहले भी उसी सीट से विधायक रह चुकी थीं | एक जमाने में अपने संगठन कौशल और समर्पित कार्यकर्ताओं के बलबूते मुकाबला करने के लिए प्रसिद्ध  भाजपा को भी चाहे – अनचाहे चुनाव में जाति के महत्व को स्वीकार करना पड़ रहा है | जिसका ताजा प्रमाण गत दिवस खंडवा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली बड़वाह विधानसभा सीट के कांग्रेस विधायक सचिन बिरला के भाजपा प्रवेश से मिला |  2018 में पहली बार विधानसभा के लिए चुने गये श्री बिरला के अनुसार कमलनाथ सरकार में भी उनकी सुनवाई नहीं होती थी जिससे क्षेत्र के विकास कार्य नहीं हो सके | दोबारा भाजपा की सत्ता बनने के बाद विपक्ष में होने से वे अलग – थलग पड़  गये और क्षेत्रीय विकास के लिए आखिर उन्होंने भाजपा में आने का निर्णय लिया | किसी जनप्रतिनिधि का पार्टी बदलना कानूनन अपराध नहीं है | वैचारिक टकराव और मतभेद के नाम पर भी नेता और जनप्रतिनिधि दलबदल करते रहते हैं | गत वर्ष म.प्र में कांग्रेस के लगभग दो दर्जन विधायकों ने थोक के भाव पाला बदलकर कमलनाथ सरकार गिरवा दी थी  | उस मुहिम का नेतृत्व करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया 2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद खुद को पुनर्स्थापित करने के लिए हाथ – पाँव मार रहे थे | विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस के चुनाव संयोजक होने से मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी रहे किन्तु कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जुगलबंदी  ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया | उसके बाद श्री  सिंधिया की नजर राज्यसभा सीट पर थी  लेकिन यहाँ भी दिग्विजय सिंह की चालबाजी से  उनका खेल खराब होने लगा तब उन्होंने बगावत की और प्रदेश में भाजपा सरकार बनवाकर अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित कर लिया | उस कारण 28 उपचुनाव करवाने पड़े | अधिकतर दलबदलू विधायक जीतकर शिवराज सरकार में भी मंत्री बन बैठे वहीं ज्योतिरादित्य को केंद्र सरकार में नागरिक उड्डयन विभाग का मंत्री पद नसीब हो गया | उन उपचुनावों के दौरान ही दमोह के कांग्रेस विधायक ने भाजपा का दामन थामकर एक और उपचुनाव का रास्ता खोल दिया लेकिन उसमें भाजपा को करारी हार झेलनी  पड़ी | दमोह का सन्देश ये था कि आम जनता अकारण किये दलबदल को पसंद नहीं करती और ये भी कि पार्टी के कार्यकर्ता और नेता बाहर से आये व्यक्ति को आसानी से स्वीकार नहीं करते | फिलहाल जो उपचुनाव हो रहे हैं उनका कारण पिछले चुनाव में निर्वाचित जनप्रतिनिधि की मृत्यु हो जाना है | लेकिन उसी दौरान कांग्रेस विधायक श्री बिरला का भाजपा में आ जाना चौंकाने वाला है | विशेष रूप से इसलिए भी क्योंकि उन्होंने  भाजपा में आने के पीछे कोई सैद्धांतिक कारण न बताकर क्षेत्रीय विकास करवाना बताया है | लेकिन जैसी कि जानकारी आई है उसके अनुसार बड़वाह विधायक के हृदय परिवर्तन के पीछे भी जातीय समीकरण हैं | खंडवा संसदीय सीट में गुर्जर जाति के मतदाताओं की काफी संख्या है | कांग्रेस उनको लुभाने के लिए राजस्थान के पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट को चुनाव प्रचार में उतारने का संकेत दे चुकी थी | भाजपा ने इसके पहले ही श्री बिरला को अपनी तरफ खींच लिया जो गुर्जर जाति के ही हैं |  इससे भाजपा को कितना चुनावी लाभ होगा ये अभी कह पाना कठिन है लेकिन एक बात तय है कि अगले छह महीने में प्रदेश को एक और उपचुनाव झेलना होगा | भाजपा ने श्री बिरला से जो सौदेबाजी की होगी उसमें उनको मंत्री पद देने  का लालीपॉप भी हो सकता है | मुख्यमंत्री चाहें तो उनको उपचुनाव के पहले भी मंत्री बना सकते हैं ताकि क्षेत्र में उनकी वजनदारी बढ़ जाये और वे आसानी से दोबारा जीत सकें  | लेकिन जनप्रतिनिधि के इस तरह पाला बदलने से होने वाले उपचुनाव सरकार और जनता दोनों के लिए  सिरदर्द का रूप ले चुके हैं | 30 अक्टूबर को ये उपचुनाव संपन्न होते ही मुख्यमंत्री बड़वाह विधानसभा सीट के उपचुनाव पर ध्यान केन्द्रित करेंगे | हो सकता है कुछ और उपचुनावों की परिस्थिति भी उत्पन्न हो जाए | संवैधानिक प्रावधान के अनुसार रिक्त हुई सीट  साधारण हालातों में छह माह के भीतर भरी जानी चाहिए | लेकिन उपचुनावों के कारण सरकार के दैनंदिन कार्य प्रभावित होते हैं | मसलन इन दिनों पूरी प्रदेश सरकार चुनाव प्रचार में लगी है | मंत्रालय में बैठने के बजाय मंत्रीगण चुनाव मैदान में मोर्चे पर हैं | नौकरशाही हुक्मरानों के न रहने से आराम की मुद्रा में है | जैसे ही ये मुकाबला संपन्न होगा अगली  बिसात बिछने लगेगी | मुख्यमंत्री श्री चौहान को पहली बार प्रदेश की सत्ता संभालने के बाद से लगातार  उपचुनाव रूपी चुनातैयों का सामना  करना पड़ा | हालाँकि वे बहुत मेहनती नेता हैं किन्तु चुनाव में उलझे रहने का असर शासन – प्रशासन पर भी पड़ता है | हमारे देश में दलबदल को रोकने के लिए बने कानून के कारण यदि निश्चित संख्या से कम सांसद – विधायक  पार्टी बदलते हैं तब उनको त्यागपत्र देकर उपचुनाव लड़ना पड़ता है | लेकिन इसकी वजह से होने वाले नुकसान के मद्देनजर ये आवाज उठने लगी है कि जनप्रतिनिधि की मृत्यु ,  दलबदल या अन्य किसी वजह से त्यागपत्र देने के बाद बजाय उपचुनाव करवाने के सीट को अगले चुनाव तक रिक्त रखा जावे | रही बात उस क्षेत्र के प्रतिनिधित्व की तो जनप्रतिनिधि की गैर मौजूदगी में जिला प्रशासन उस भूमिका का निर्वहन करे | किसी राज्य की विधानसभा भंग होने पर राष्ट्रपति शासन के दौरान भी प्रशासन ही जनप्रतिनिधि से जुड़े कार्य करता है | हालाँकि राजनीतिक दल इस सुझाव को सिरे से नकार देंगे किन्तु लोकतंत्र की गम्भीरता और गरिमा को बनाये रखने के लिए जरूरी है कि चुनावों को बच्चों का खेल बनने से रोका जावे | लोकतंत्र कोई टी – ट्वेंटी क्रिकेट मैच नहीं है जिसे कहीं भी और कभी भी महज इसलिए आयोजित किया जावे क्योंकि उससे कुछ लोगों के निजी हित जुड़े हुए हैं |  

- रवीन्द्र वाजपेयी



Saturday 23 October 2021

सिद्धू और कैप्टेन की लड़ाई में पाकिस्तान बना पंजाब चुनाव का मुद्दा



पंजाब की सियासत नित नए रंग बदल रही है | नवजोत सिंह सिद्धू के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने और कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद ये लग रहा था कि शायद तूफ़ान शांत हो जाएगा | लेकिन सिद्धू अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे वहीं कैप्टन अपने अपमान का बदला लेने के लिए मोर्चेबंदी कर रहे हैं |  मुख्यमंत्री की कुर्सी हाथ से  खिसक जाने के बाद सिद्धू ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर दबाव बनाने की कोशिश की किन्तु कांग्रेस आलाकमान ने उनके होश ठिकाने लगा दिए और जिस नए मुख्यमंत्री के बारे में वे कहते सुने गए कि 2022  के चुनाव में वह कांग्रेस की नैया डुबो देगा उसी के साथ सात घंटे बैठकर सत्ता और संगठन संबंधी चर्चा करने जा पहुंचे | प्रदेश में कांग्रेस के पहले दो खेमे थे लेकिन कैप्टन की सत्ता चली जाने के बाद अब तीन खेमे हो गये हैं |  जैसे संकेत हैं अमरिंदर अपनी अलग पार्टी बनाने जा रहे हैं | पहले वे भाजपा से नजदीकियां बढ़ने से इंकार करते रहे लेकिन बीते कुछ समय से  राष्ट्रवाद के नाम पर उससे हाथ मिलाने तैयार दिख रहे हैं | उनकी केन्द्रीय मंत्री अमित शाह के साथ हुई अन्तरंग चर्चा कहने को तो पंजाब की सुरक्षा को लेकर थी किन्तु जैसा बताया जा रहा है उसके अनुसार अमरिंदर ने गृह मंत्री  को अपनी सरकार के कुछ मंत्रियों के  बारे में कुछ गोपनीय जानकारी दी है जिसका राजनीतिक उपयोग भविष्य में भाजपा कर सकती है | सीमा सुरक्षा बल ( बीएसएफ ) का अधिकार क्षेत्र 50 किमीं तक बढ़ाये जाने का समर्थन कर अमरिंदर ने केंद्र सरकार के साथ अपने रिश्ते और मजबूत बनाये हैं | कैप्टेन का अलग पार्टी बनाकर भाजपा से गठबंधन करने की सम्भावना ने कांग्रेस की चिंताएं बढ़ा दी हैं | हालाँकि ये सपष्ट है कि भाजपा के साथ चुनावी गठजोड़ करने के बाद भी पूर्व मुख्यमंत्री सत्ता हासिल नहीं कर सकेंगे किन्तु कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में उन्हें कामयाबी मिल जाये तो आश्चर्य नहीं होगा | यही वजह है कि कैप्टेन के राष्ट्रवाद और पंजाब की सुरक्षा के मद्देनजर सिद्धू के  पाकिस्तान के  इमरान खान और सेनाध्यक्ष जनरल वाजवा से दोस्ताने को लेकर किये जाने वाले  हमलों को बेअसर करने के लिए राज्य सरकार के गृह मंत्री सुखजिंदर सिंह रंधावा ने अमरिंदर की पाकिस्तानी महिला मित्र अरूसा आलम के उनके  सरकारी निवास पर लम्बे समय तक रहने का मुद्दा उछालकर कैप्टेन पर  पाकिस्तान से सम्बन्धों का आरोप लगा दिया | उल्लेखनीय है एक समय ऐसा आया था जब अरूसा और कैप्टेन के निजी संबंधों को लेकर खूब हल्ला मचा था | उस मामले की जाँच भी हुई थी जिसमें  कैप्टेन को पाक - साफ़ बताया गया | उसके बाद वे मुख्यमंत्री भी बने | अब जबकि वे कांग्रेस के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं तब उनके साथ मंत्री रहे श्री रंधावा ने जो हमला किया वह इस बात का प्रमाण है कि कांग्रेस भी अमरिंदर से  दो – दो हाथ करने तैयार हो गयी है | लेकिन कैप्टेन ने श्री रंधावा से पूछा कि उनके साथ मंत्री रहते हुए उन्होंने ये सवाल क्यों नहीं उठाया गया और फिर अरूसा के साथ सोनिया गांधी की फोटो जारी करते हुए कांग्रेस के तीर को उसी की तरफ मोड़ दिया | इस मामले में सोचने वाली बात ये है कि कैप्टेन ने सिद्धू के पाकिस्तान के साथ रिश्तों को राजनीतिक हमले का जरिया बनाने का दांव चला  तो कांग्रेस ने भी उन पर पाकिस्तानी महिला के वीजा को प्रायोजित करने तथा उसे अपने सरकारी आवास में लम्बे समय तक ठहराने का आरोप लगाकर उनकी देशभक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगाने का पलटवार किया |   इस तरह के आरोपों से पंजाब में कांग्रेस की बची – खुचे साख भी मिट्टी में मिल रही है | सिद्धू और कैप्टेन दोनों की लड़ाई में पंजाब कांग्रेस के हाथ से निकलता दिख रहा है | इसका लाभ भाजपा को तो मिलने से रहा किन्तु आम आदमी पार्टी को बैठे - बिठाये लाभ मिलना तय है | हालांकि चुनाव नतीजों की अंतिम भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी किन्तु कांग्रेस आलाकमान ने पंजाब के मामले में जिस अपरिपक्वता और अदूरदर्शिता का परिचय दिया उसके कारण इस सीमावर्ती राज्य में उसके वरिष्ठ नेता एक दूसरे की देशभक्ति पर संदेह व्यक्त करने की हद तक आ गये है | एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए ये स्थिति वाकई शर्मनाक है | सत्ता और चुनाव तो आते जाते रहते हैं किन्तु  किसी पार्टी के बड़े नेता एक दूसरे पर पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध रखने का आरोप लगाएं तो हाईकमान को आगे आकर स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए | वैसे भी कैप्टेन ने श्रीमती गांधी के  साथ अरूसा का चित्र प्रसारित कर मामले को और उलझा दिया है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 22 October 2021

100 करोड़ टीके लगने के बावजूद सतर्कता जरूरी



भारत सरीखे देश में 100 करोड़ लोगों को कोरोना के टीके लग जाना निश्चित तौर पर बड़ी उपलब्धि है | गत दिवस इस महत्वपूर्ण आंकड़े को पार कर देश ने महामारी के विरुद्ध लड़ाई में बड़ा मोर्चा फतह कर लिया | प्रधानमंत्री ने इसके लिए चिकित्सकों , नर्सों और उनका  सहयोग करने वाले सभी लोगों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है , जो वाकई इसके योग्य हैं |  टीकाकरण के पात्र 75 फीसदी वयस्कों को पहला और 31 फीसदी को  दोनों डोज लगना स्वप्न प्रतीत होता था लेकिन अब ये वास्तविकता है | भारत में चिकित्सा सुविधाओं की हालत  देखते हुए ये आशंका थी कि विशाल जनसँख्या को कोरोना का  रक्षा कवच माना  जा रहा टीका  लगाना शायद ही संभव होगा | लेकिन देश में न सिर्फ रिकॉर्ड समय में टीके बने अपितु तमाम अव्यवस्थाओं के बावजूद टीकाकरण अभियान का संचालन सफलतापूर्वक किया जा सका | आम जनता में टीके को लेकर भ्रम फ़ैलाने की कोशिशों को बेअसर करना भी बड़ी चुनौती थी | आम तौर पर ऐसे मौकों पर मुनाफखोरी और कालाबाजारी करने वाले अपना खेल दिखाने से बाज नहीं आते किन्तु टीकाकरण अभियान को इससे बचाकर रखने के लिए सरकार सहित सभी सम्बन्धित लोग साधुवाद के पात्र हैं | इस अभियान की कामयाबी से देश का आत्मविश्वास दो स्तरों पर बढ़ा | अव्वल तो आपदा प्रबंधन करने में  सरकारी मशीनरी की  कार्यकुशलता सामने आई और उससे  भी बड़ी बात ये हुई कि टीका लगवाने वाले लोगों के मन में समाया कोरोना का भय  कम हुआ , जो बड़ी जरूरत थी | महामारी की दूसरी लहर में मौत का जो मंजर देश ने देखा वह दिल दहलाने वाला था | लाखों लोग अस्पतालों में बिस्तर उपलब्ध न होने से जान गँवा बैठे | ऑक्सीजन की कमी ने भी कोरोना की भयावहता को और बढ़ा दिया था | लेकिन टीकाकरण अभियान की निरंतरता और विस्तार ने महामारी के प्रकोप को थामने में जो योगदान दिया वह निःसंदेह बड़ी उपलब्धि कही जायेगी | इस बारे में गौरव करने वाली बात ये है कि इस विराट अनुष्ठान की शुरुवात देश में बने टीके से हुई | हालाँकि उनका आयात भी हुआ किन्तु  दूसरी तरफ भारत ने अनेक जरूरतमंद देशों को टीका निर्यात कर मानवता के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन किया | वयस्कों की अधिकांश आबादी को पहला टीका लग जाने के बाद अब बच्चों के टीकाकरण की शुरुवात किये जाने की तैयारी चल रही है | इससे पता चलता है कि टीके की उपलब्धता और उसे लगाने के लिए आवश्यक प्रबंधन कर लिया गया है | संतोष का विषय है कि आम जनता ने विघ्नसंतोषियों के बहकावे में न आते हुए टीकाकरण को अपनाया | इसी के साथ ही विभिन्न संस्थाओं और समाजसेवियों ने भी इस काम में सक्रिय सहयोग देकर दायित्वबोध का निर्वहन किया | किसी भी देश की असली ताकत ऐसी ही आपदाओं का सामना करने  की क्षमता और तरीके से होती है | कोरोना का हमला बहुत ही प्रचंड था  जिसके इलाज और रोकथाम के बारे में पूरी दुनिया के अनजान होने से ये आशंका थी कि भारत जैसे विकासशील देश में चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में करोड़ों लोग जान गँवा बैठेंगे किन्तु सौभाग्य से ऐसा नहीं हुआ | वरना अमेरिका , इटली , ब्रिटेन , जर्मनी और फ्रांस सदृश विकसित देशों में जिस बड़े पैमाने पर कोरोना से लोग मारे गये उसे देखते हुए भारत में होने वाली जनहानि अकल्पनीय हो सकती थी किन्तु वह अपनी विशाल जनसँख्या के मद्देनजर न्यूनतम जनहानि के साथ इस महामारी से निकल आया | तीसरी लहर की आशंका का लगातार कम होता जाना भी परम संतोष का विषय है | लेकिन जब तक बच्चों सहित पूरी आबादी को टीका नहीं लग जाता तब तक निश्चिन्त होकर बैठ जाना गलत होगा | कोरोना का प्रकोप दिन ब दिन घटने के बावजूद उसकी मौजूदगी बनी हुई है | ऐसे में 100 करोड़ टीकों का जश्न मनाने के साथ ही कोरोना के प्रति सावधानी बरतने हेतु जनजागरण भी जारी रहना चाहिए क्योंकि पहली लहर कमजोर पड़ने के बाद जनता में आई बेफिक्री ने ही दूसरी लहर को आने का मौका दिया था | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


किसान और इंसान अलग नहीं होते



किसान आन्दोलन के अन्तर्विरोध नित्य सामने आने लगे हैं | दिल्ली की  सीमा पर चल रहे धरने में एक व्यक्ति की निहंगों ने जिस बेरहमी से हत्या की उसके बाद संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्य योगेन्द्र यादव ने निहंगों से धरना स्थल छोड़ने की  अपील करते हुए स्पष्ट किया कि इस आन्दोलन का किसी धर्म से कोई लेना देना नहीं है |  लेकिन इस बीच एक नया विवाद पैदा हो गया | हुआ यूं कि श्री यादव के  लखीमपुर खीरी में मारे गये एक भाजपा कार्यकर्ता के घर सम्वेदना व्यक्त करने जाने से नाराज संयुक्त किसान मोर्चा ने उन्हें 9 सदस्यों वाली समिति से एक माह के लिए निलम्बित कर दिया | इस पर उन्होंने  कहा कि वे अपने सिद्धांत नहीं  छोड़ सकते और मौत का दर्द सभी के लिए समान  है | श्री यादव इस आन्दोलन के बौद्धिक चेहरे माने  जाते हैं | उनके  वामपंथी झुकाव से अनेक गैर किसान संगठन और बुद्धिजीवी भी किसानों के हमदर्द बनकर सामने आये | किसानों को दिल्ली की सीमा पर डेरा जमाकर बैठे रहने की  समझाइश श्री यादव द्वारा दिए जाने की बात भी  सुनने में आई | ऐसे में उन्हें आन्दोलन की सर्वोच्च सञ्चालन समिति से निलम्बित किया जाना चौंकाता है | लेकिन उससे भी अधिक आश्चर्य की बात उनके निलबंन का कारण है | लखीमपुर खीरी में मारे  गये किसानों के प्रति तो सहानुभूति का सैलाब आ गया लेकिन प्रतिक्रियास्वरूप मारे गये भाजपा कार्यकर्ताओं की मौत पर उपेक्षा का पर्दा डालने का प्रयास भी हुआ | उस दृष्टि से भाजपा के ऐलानिया विरोधी होने के बावजूद श्री यादव का मृतक कार्यकर्ता के परिवारजनों से मिलना सहज मानवीयता थी जिसकी सराहना होनी चाहिए थी | लेकिन उनको निलम्बित कर संयुक्त किसान मोर्चा ने अपने दिमागी दिवालियेपन के साथ ही अमानवीय सोच का परिचय दिया है | इससे ये भी  साफ़ होता है कि आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे कथित नेता बहुत ही संकुचित मानसिकता वाले हैं जिनकी नजर में मरने वाला गैर किसान ,इंसान नहीं होता | योगेन्द्र यादव  आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्य थे  जिन्हें अरविन्द केजरीवाल एंड कम्पनी ने धकियाकर बाहर कर दिया था | बाद में उन्होंने अपनी पार्टी भी बनाई किन्तु उसे विशेष सफलता नहीं मिली | किसान आन्दोलन में भी उनकी मौजूदगी बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना जैसी ही थी |  संयुक्त किसान मोर्चा के ताजा फैसले के बाद ये स्पष्ट हो गया कि किसान नेता भी श्री यादव से मुक्ति पाना चाह रहे थे लेकिन उनको निलम्बित करने की जो वजह बताई गई वह किसी भी स्तर पर उचित नहीं हो सकती और इससे विरोधियों के मन में भी उनके प्रति सहानुभूति उत्पन्न होगी | 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 21 October 2021

भ्रष्टाचार मुक्त भारत की शुरुवात भाजपा शासित राज्यों से करें प्रधानमंत्री



प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से जब कुछ भी बोलते हैं तो उसे सरकार की आवाज माना जाता है | उस दृष्टि से गत दिवस नरेंद्र मोदी ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग ( सीवीसी ) और केन्द्रीय जांच ब्यूरो ( सीबीआई ) के अधिकारियों के  सम्मलेन को संबोधित करते हुए भ्रष्टाचार के विरुद्ध सम्पूर्ण असहनशीलता की नीति अपनाने के साथ ही ये भी  कहा कि इन एजेंसियों  का काम किसी को डराने का नहीं अपितु लोगों के मन से डर निकालना है | लेकिन उनके उद्बोधन की सबसे महत्वपूर्ण बात  ये थी कि बीते कुछ वर्षों में उनकी सरकार लोगों में ये विश्वास जगाने में सफल रही है कि भ्रष्टाचार पर रोक लगना संभव है और नया  भारत भ्रष्टाचार को व्यवस्था का हिस्सा मानने की मानसिकता को जारी रखने के लिए तैयार नहीं है | श्री मोदी की छवि एक साफ – सुथरे नेता की रही है | उनकी नीतियों की आलोचना भले होती हो लेकिन व्यक्तिगत तौर पर उन्हें ईमानदार माना जाता है | उनके पूर्ववर्ती डा.मनमोहन सिंह भी निजी तौर पर भ्रष्टाचार से दूर थे लेकिन उनके शासनकाल में  अनेक घपले और घोटाले होने से  सरकार की छवि बहुत खराब हुई | जहां तक बात  श्री मोदी की है तो उन्होंने केन्द्रीय स्तर पर व्यवस्थाजनित भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए काफी कदम उठाये लेकिन केन्द्रीय सचिवालय को ही देश नहीं माना जा सकता | प्रधानमन्त्री का ये कहना पूरी तरह सही है कि नया भारत  भ्रष्टाचार को व्यवस्था का हिस्सा मानने तैयार नहीं है किन्तु  इस आशावाद को वास्तविकता में बदलने के हालात निचले स्तर पर कहीं भी नजर नहीं आते | उनका ये दावा कि लोगों में भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के बारे में विश्वास जागा है , उनके पास पहुंचाई जा  रही सूचनाओं और आंकड़ों पर आधारित हो सकता है परन्तु  ये जमीनी सच्चाई नहीं है | मोदी जी ने सत्ता सँभालते ही केन्द्रीय सचिवालय की  व्यवस्था में तो काफी  सुधार और बदलाव कर दिए | जैसा सुनाई देता है उसके अनुसार मंत्रीमंडल के सदस्यों पर भी पैनी निगाह रखी जाती है जिससे भ्रष्टाचार की गुंजाईश नहीं रहती लेकिन भाजपा के भीतर भी ये चर्चा आम है कि  मंत्रियों को स्वतंत्र होकर काम  करने के अवसर ही नहीं दिए जाते और सारे महत्वपूर्ण फैसले प्रधानमंत्री कार्यालय से ही होते हैं | केन्द्रीय सचिवालय के अधिकारियों के बारे में भी ये कहा जाता है कि वे  विभागीय मंत्री की बजाय प्रधानमंत्री  कार्यालय से निर्देशित होते हैं | ऐसे में श्री मोदी के मन में ये विश्वास होना स्वाभाविक है कि उनकी सरकार ने भ्रष्टाचार नामक अमरबेल की जड़ों में मठा डालने का काम कर डाला | लेकिन वास्तविकता के धरातल पर उतरकर देखें तो डिजिटल तकनीक के प्रचलन और अनेक क्षेत्रों में पारदर्शी व्यवस्था लागू होने के बावजूद आम जनता  के मन से ये विश्वास दूर नहीं  किया जा सका कि बिना भ्रष्टाचार के सरकारी विभाग से जुड़े हुए काम संपन्न हो सकेंगे | जहाँ तक बात सीवीसी और सीबीआई की है तो इनके बारे में भी  ये अवधारणा  नहीं बदली  जा सकी कि वे  पूरी तरह स्वायत्त हैं | इनका उपयोग डराने के लिए नहीं होना चाहिए , ये बात सैद्धांतिक तौर पर तो पूरी तरह सही है लेकिन सरकार चाहे किसी की रहे उक्त जाँच एजेंसियां हुक्मरानों के इशारे पर नाचने मजबूर होती हैं | और फिर जब सीबीआई में राज्यों की  पुलिस के अधिकारी ही प्रतिनियुक्ति पर जाते हों तब उसे पूरी तरह पाक - साफ होने का प्रमाणपत्र देना अतिशयोक्ति होगी | जहां तक  तक सीवीसी का प्रश्न है तो उसकी कार्यप्रणाली पर भी  उँगलियां उठती रही हैं | ऐसे में प्रधानमंत्री के उदगार रस्मी भाषण से अधिक कुछ नहीं है | सच्चाई ये है कि भ्रष्टाचार दिल्ली से लेकर ग्राम पंचायत तक बदस्तूर फैला हुआ है | महंगाई के साथ ही उसके दाम भी बढ़ते जा रहे हैं और राजनीति इस बुराई को सहयोग और संरक्षण देने में सबसे आगे है | मोदी जी की अपनी पार्टी की जिन राज्यों में सरकारें हैं उनको भी भ्रष्टाचार मुक्त नहीं कहा जा सकता | ऐसे में उसको व्यवस्था का अंग नहीं मानने जैसी धारणा  खयाली पुलाव पकाने जैसा ही है | सरकारी दफ्तरों के बारे में सर्वविदित है कि उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार को मिटाए बिना व्यवस्था को शुद्ध नहीं किया जा सकता | अब तो सरकारी मुलाजिम भी घूस लेते समय साफ़ कहता है कि ऊपर भी देना पड़ता है | ऐसे में प्रधानमंत्री को चाहिये कि वे उन मूलभूत कारणों का पता करवाएं जिनके कारण भ्रष्टाचार निचले स्तर तक फ़ैल गया | भ्रष्टाचार व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बनते – बनते शिष्टाचार कैसे बन गया ये गहन  विश्लेषण का विषय है | प्रधानमंत्री पार्टी संगठन का कार्य करते – करते अचानक  मुख्यमंत्री बने थे | उस समय तक उनको प्रशासन का अनुभव भी नहीं था | लेकिन इस बात की तारीफ करनी होगी कि उन पर  भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा जिसके कारण गुजरात विकास का प्रतीक बन गया | ये कहना गलत न होगा कि प्रधानमंत्री बनने में बतौर मुख्यमंत्री उनके कार्यकाल का बड़ा योगदान था | लेकिन  भारत का प्रधानमंत्री बनने के बावजूद वे राज्यों की शासन व्यवस्था को एक सीमा के बाद प्रभावित नहीं कर सकते | राजनीतिक मतभेदों का स्तर इस हद तक गिर गया  है कि अनेक राज्यों ने  केंद्र सरकार से वैचारिक मतभेद  के कारण सीबीआई को अपने यहाँ कार्य करने से रोक दिया है | ये सब देखते हुए प्रधानमंत्री ने  भ्रष्टाचार के बारे में जो कुछ कहा वह केवल भाषण सीमित न रहे यह चिन्तन का विषय है क्योंकि वह  कार्य संस्कृति का पर्याय बन चुका है | प्रधानमंत्री यदि वाकई देश को इस बुराई से मुक्त करवाना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले भाजपा शासित राज्यों को भ्रष्टाचार मुक्त करवाने का काम करना होगा जिससे पार्टी विथ डिफ़रेंस का दावा कसौटी पर खरा साबित हो सके | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 20 October 2021

कश्मीर से आतंकवाद के खात्मे के लिए इजरायल की कार्यप्रणाली अपनाई जावे



कश्मीर घाटी में आतंकवादियों द्वारा की गईं हालिया हत्याओं के कारण वहां अन्य राज्यों के प्रवासी श्रमिकों के पलायन के साथ ही तीन दशक पहले  घर छोड़ने मजबूर हुए कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की योजना खटाई में पड़ रही  है | पर्यटकों की आवाजाही पर भी विपरीत असर पड़ा है जिससे व्यवसायिक गतिविधयों को भी नुकसान हो रहा है | सबसे बड़ी बात ये हुई कि  आम जनता के मन में सुरक्षा की जो भावना जागी थी उसमें  कमी आने लगी | घाटी से जो खबरें आ रही हैं उनसे  बाहरी लोगों के साथ ही गैर मुस्लिम समुदायों के लोगों को भी अपना  जीवन `खतरे में नजर आने लगा है | श्रीनगर की डल झील के किनारे गोलगप्पे बेचने वाले बिहार के एक युवक ने जम्मू जाने वाली बस में बैठते समय कहा कि उसके खोमचे पर आने वाला व्यक्ति ग्राहक है या आतंकवादी , ये पहिचानना कठिन होने के बाद यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है | बाहरी श्रमिकों के साथ ही अनेक स्थानीय गैर मुस्लिमों की अकारण हत्या और उसके बाद घाटी छोड़कर जाने की धमकियों से घड़ी की सुइयां 1990 के उस खौफनाक दौर पर लौटने लगीं जब रातों -  रात हजारों कश्मीरी पंडितों सहित अन्य हिन्दू परिवारों को महिलाओं की आबरू के साथ ही परिवार की जान बचाने की खातिर भागकर आना पड़ा | दो साल पहले केंद्र सरकार द्वारा जब धारा 370 हटाई गई तभी से ये उम्मीद की जाने लगी थी कि घाटी छोड़कर गए हिन्दू समुदाय के विस्थापित अपने घरों को लौट सकेंगे | पत्थरबाजी की घटनाओं में कमी  आने के साथ ही आतंकवादी वारदातें भी घटीं |  नमाज के बाद मस्जिदों से निकलती  भीड़ द्वारा पाकिस्तानी झंडे लहराते हुए भारत विरोधी नारे लगाने जैसे दृश्य समाप्तप्राय हो गए | श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने के साथ जन्माष्टमी की  शोभायात्रा निर्बाध निकलने से भी ये एहसास जागा कि घाटी में भारत विरोधी ताकतों के हौसले पस्त हो चुके हैं | राजनीतिक नेतागण भी  धमकी  की  बजाय चिकनी चुपड़ी बातें करने लग गये | लेकिन बीते कुछ दिनों में ही ऐसा लगने लगा कि सारे किये – कराये पर पानी फिर गया | पर्यटकों की आवाजाही  रुकने से पूरे देश में ये संदेश फ़ैल गया कि कश्मीर घाटी बाहरी लोगों के लिए अब भी असुरक्षित ही है | अन्य राज्यों से आकर मजदूरी या खोमचे लगाकर पेट पालने वाले कुछ लोगों की बेवजह हत्या ने दहशत का दौर  लौटने की पुष्टि कर दी | भले ही सुरक्षा बल आये दिन दो चार आतंकवादियों को घेरकर मारने में सफल हो रहे हों किन्तु  ये कहा जा  सकता है कि आतंकवादियों ने छोटी – छोटी घटनाओं को अंजाम देकर कश्मीर घाटी में लौटने की सोच रहे हिन्दुओं को भयग्रस्त करने के साथ ही स्थानीय जनता के मन में भी ये बात बिठाने का प्रयास किया कि वे धारा 370 हटाये जाने के बाद हुए बदलाव को स्थायी मानकर भारत विरोध की मानसिकता को त्यागने से दूर रहें | वे अपने मकसद में कितने कामयाब हुए इसका आकलन फिलहाल  करना जल्दबाजी होगी लेकिन ताजा वारदातों से दहशत का जो वातावरण बना उसकी वजह से आतंकवादियों का मनोबल जरूर ऊंचा  हुआ है | सबसे अहम बात ये है कि केंद्र सरकार ने धारा 370 हटाने के साथ ही घाटी में सामान्य स्थिति बनाने के लिए जितना कुछ किया वह गुड़ - गोबर होने जैसी स्थिति में आ गया | निश्चित रूप से ये स्थिति चिंताजनक है | केंद्र सरकार ने यही देखते हुए  सुरक्षा और गुप्तचर एजेंसियों की बैठक कर घाटी में उभरे आतंकवाद के नए संस्करण के विरुद्ध निर्णायक जंग छेड़ने के संकेत दिए हैं | सीमावर्ती पुंछ इलाके से लोगों को हटाये जाने के फैसले से ये लग रहा  है कि सुरक्षा बल किसी  बड़े अभियान की तैयारी में जुट गए हैं | गृह मंत्री अमित शाह ने दो – तीन दिन जम्मू – कश्मीर में रहकर हालात का जायजा लेने का जो निर्णय लिया वह इस ओर इंगित कर रहा है कि  हालात बेकाबू होने से पहले ही  इस तरह के पुख्ता इंतजाम किये जाएंगे जिनसे आतंकवादियों की कमर तोड़ीं जा सके | ये जरूरी भी है क्योंकि जम्मू कश्मीर की भौगोलिक स्थिति  संवेदनशील होने के साथ ही बहुत ही विकट है | आतंकवाद से आंतरिक सुरक्षा को उत्पन्न खतरे को स्थायी रूप से खत्म करना समय की मांग है क्योंकि ऐसा किये बिना कश्मीर घाटी में भारत विरोधी भावना को समय – समय पर पनपने से रोक पाना असम्भव होगा | केंद्र सरकार इस दिशा में क्या करने वाली है ये तो उसे ही पता होगा लेकिन जन  आकांक्षा यही है कि  स्थायी इलाज करने में देर नहीं करनी चाहिए | घाटी में चाहे कश्मीरी पंडित दोबारा बसाए जाएं या पूर्व सैनिक,  लेकिन वहां जब तक जनसँख्या का असंतुलन रहेगा तब तक पाकिस्तान और चीन को गड़बड़ी फ़ैलाने का अवसर मिलेगा | एक बात तो प्रमाणित सत्य है कि कश्मीर में आतंकवाद को खाद – पानी सीमा पार से ही मिला करता है | इसलिए सुरक्षा बलों को दो मोर्चों पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसा कदम उठाना पड़ेगा | सीमा पार जाकर आतंकवाद के अड्डे नष्ट करना साधारण काम नहीं है | लेकिन उनके  आने के रास्ते अवरुद्ध करने का पुख्ता इंतजाम किया जा सकता है | इसी के साथ ही घाटी में आतंकवाद की जड़ों को खोद डालने की हरसंभव कोशिश करनी होगी जिससे वहां  की जनता के मन में ये विश्वास पुख्ता हो सके कि आतंकवादी अपराजेय नहीं हैं | मौजूदा माहौल में एक बात  उम्मीदें  जगाने वाली है कि 1990 में जहां मस्जिदों से कश्मीरी पंडितों को घाटी से भाग जाने की धमकी दी जा रही थी वहीं इस बार ये अपील की जा रही है कि कोई डर के कारण घाटी न छोड़े | भले ही ये दिखावे के लिए हो किन्तु इससे एक बात साबित होती है कि धारा 370 हटने के बाद आम कश्मीरी के मन में  ये बात गहराई तक समा चुकी है कि राज्य की विशेष स्थिति लौटना अब दिवास्वप्न है | घाटी के युवाओं में भी आतंकवाद के साए से निकलकर अपना भविष्य बनाने की उत्कंठा पैदा हुई है | भारत सरकार को चाहिए वह कश्मीर से आतंकवाद को उखाड़ फेंकने के लिए इजरायल की कार्यप्रणाली अपनाये क्योंकि  सांप का फन कुचले बिना उसे मरा हुआ समझना भूल होती है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 19 October 2021

काबुल , कश्मीर और ढाका में हिन्दुओं पर हमले किसी बड़ी साजिश का हिस्सा हैं


मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस : सम्पादकीय
- रवीन्द्र वाजपेयी

काबुल , कश्मीर और ढाका में हिन्दुओं पर हमले किसी बड़ी साजिश का हिस्सा हैं  

कश्मीर में अन्य राज्यों के गैर मुस्लिम श्रमिकों की हत्या के साथ ही बांग्ला  देश से भी हिन्दू समुदाय के लिए चिंताजनक खबरें आने लगीं | नवरात्रि  के दौरान दुर्गा पंडालों पर हमले किये जाने के बाद  मंदिरों को निशाना बनाया जाने लगा और अब ग्रामीण इलाकों में हिन्दुओं के घर जलाये जाने जैसी वारदातों की खबर है | वहां की सरकार इन घटनाओं को पूर्व नियोजित बताते हुए हिन्दुओं और मुसलिमों के बीच सौहार्द्र बिगाड़ने की साजिश बता रही है |  गृहमंत्री ने तो यहाँ तक कहा कि 2023 में होने वाले आम चुनाव के पहले कट्टरपंथी ताकतें  माहौल बिगाड़ने की साजिश के तहत ऐसा कर रही  हैं | उनके अलावा सूचना राज्य मंत्री ने भी साफ़ – साफ़ कहा है कि उनका देश इस्लामिक राष्ट्र न होकर धर्म निरपेक्ष है | सरकारी एजेंसियों ने अनेक गिरफ्तारियों की जानकारी भी दी है | ये बात भी सामने आई है कि फेस बुक पर किसी आपत्तिजनक टिप्पणी से आक्रोशित होकर हिन्दुओं पर ये हमले किये गये  | इस बारे में उल्लेखनीय है  कि शेख हसीना के नेतृत्व वाली बांग्ला देश सरकार ने भारत  के साथ अच्छे कूटनीतिक और करोबारी रिश्ते बनाये रखे जिसके  कारण सीमा विवाद जैसे तमाम मसले सहजता से सुलझाए जा सके | बांग्ला देश में हिन्दुओं की खासी  आबादी होने से अनेक बड़े मंदिर और तीर्थस्थल हैं | पूरा देश बांग्लाभाषी है और खान – पान तथा रहन सहन में भी साम्यता है | देश के पहले शासक शेख मुजीबुर्रहमान ने पाकिस्तान से अलग होने के बाद अपने देश को इस्लामिक देश नहीं  बनाया जिसका एक कारण उसके निर्माण में भारत का ऐतिहसिक सहयोग भी था किन्तु वे  महज चार साल के बाद ही मार डाले गाये और उसके बाद लम्बे समय तक  मुल्क में राजनीतिक अस्थिरता के साथ ही कट्टरता का बोलबाला रहा | हालाँकि शेख हसीना के सत्ता में आने के बाद हालातों में सुधार आया किन्तु हिन्दुओं के विरुद्ध नफरत फ़ैलाने वाली शक्तियाँ भी सक्रिय बनी रहीं जिसकी वजह से उनके  धर्मस्थलों पर हमले जैसी घटनाएँ होती रहीं | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि जिस पाकिस्तान के विरुद्ध लड़कर बांग्ला देश अस्तित्व में आया उसके आतंकवादी संगठनों को इस  देश में  भी पनाह मिलती रही | भारत में हुई अनेक आतंकवादी घटनाओं के तार भी उससे जुड़े पाए गए | यद्यपि पाकिस्तान की तरह से बांग्ला देश की वर्तमान सरकार आतंकवादी संगठनों को संरक्षण और सहायता नहीं देती किन्तु वहां इस्लामिक कट्टरपंथ के समर्थक भी काफी हैं जो पाकिस्तान प्रायोजित  आतंकवादी संगठनों को गोद में बिठाने के पक्षधर हैं | इस आधार पर  हिन्दुओं पर हुए हालिया हमले केवल इस देश का आन्तरिक मामला न होकर अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र से जुड़ा हुआ लगता  है | अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता आने के बाद से इस्लामिक कट्टरपंथ का हौसला  मजबूत हुआ है | काबुल में गुरुद्वारों और मंदिरों को आतंकित किये जाने के बाद कश्मीर घाटी में  गैर मुस्लिमों की हत्या कर  उन्हें वहां से चले जाने के लिए बाध्य किये जाने के साथ ही बांग्ला देश में दुर्गा पंडालों , मंदिरों और अब हिन्दुओं के घरों में आगजनी की घटनाओं को अलग – अलग देखना सही नहीं होगा | इस बारे में उल्लेखनीय बात ये है कि हमारे देश के एक बड़े तबके ने अमेरिका  विरोध की मानसिकता के वशीभूत काबुल में कट्टरपंथी इस्लामिक सत्ता के काबिज होने पर जोरदार  जश्न मनाते हुए उसे आजादी का नाम दिया | उनके साथ  तमाम इस्लामिक संगठनों के प्रमुखों ने भी बाकायदा तालिबान के समर्थन में बयान देकर खुशी ज़ाहिर की | अनेक राजनीतिक नेताओं ने भारत सरकार पर तालिबानी हुकूमत से  कूटनीतिक रिश्ते कायम करने की मांग भी कर डाली |  ये कहना गलत नहीं है कि कश्मीर घाटी में अचानक प्रारम्भ हुई आतंकवादी घटनाओं के पीछे अफगानिस्तान में हुए सत्ता परिवर्तन का भी हाथ है | इसी तरह बांग्ला  देश में एकाएक आई हिन्दू विरोधी लहर के सम्बन्ध भी पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी संगठनों से हो सकते हैं | गौरतलब है प. बंगाल के विधानसभा चुनाव में ममता बैनर्जी की  धमाकेदार जीत का कारण  राज्य के लगभग तीस फीसदी मुस्लिम मतदाताओं का तृणमूल कांग्रेस को एकमुश्त  समर्थन माना जाता है जिनमें बहुत बड़ी संख्या बांग्ला देश से आये घुसपैठियों की है जिन्हें पहले वामपंथी और फिर ममता सरकार ने वोट बैंक की खातिर भारत का नागरिक बना दिया |  उसकी वजह से  भी  बांग्ला देश के कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों का हौसला मजबूत हुआ है | गत दिवस कोलकाता की फुरफुरा शरीफ के एक पीर द्वारा कुरान के अपमान पर सिर काट लेने की धमकी दिया जाना साधारण बात नहीं है क्योंकि बांग्ला देश में हिन्दुओं पर टूटे कहर की वजह भी सोशल मीडिया पर की गयी विवादित टिप्पणी को माना जा रहा है | ये देखते हुए काबुल से बरास्ते कश्मीर ,  ढाका तक हिन्दुओं के विरुद्ध जो हिंसक घटनाएँ हो रही हैं वे किसी सुनियोजित साजिश का हिस्सा हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए | इसका कारण भारतीय उपमहाद्वीप में  शामिल देशों मसलन  पाकिस्तान , नेपाल , भूटान , बांग्ला देश , श्रीलंका के अलावा म्यांमार , अफगानिस्तान और मालदीव में सक्रिय भारत विरोधी शक्तियों की  संगामित्ती है | आज के संदर्भ में इनमें से अधिकतर के साथ हमारे रिश्ते प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तनावपूर्ण हैं | इसके पीछे अब तक चीन और पाकिस्तान की भूमिका को जिम्मेदार माना जाता था किन्तु अफगानिस्तान में तालिबान की वापिसी से इस्लाम के नाम पर भारत विरोधी ताकतों को नया संरक्षक मिल गया  है | इसलिए  भारत सरकार को अब नए सिरे से अपनी कूटनीतिक  रचना करनी होगी | भारत में जो लोग तालिबानी हुकूमत की तरफदारी करने में आगे – आगे थे उनका  कश्मीर और बांग्ला देश में हिन्दुओं पर हो रहे हमलों पर  मौन रहना चौंकाने वाला  है | भारत भले ही धर्म निरपेक्ष हो लेकिन इस्लामिक जगत की नजर  में उसे हिन्दुओं का देश ही माना जाता है | ताजा घटनाक्रम को इसीलिये इस्लामिक कट्टरपंथी ताकतों द्वारा भारत के विरुद्ध रची जा रही व्यूह रचना के तौर पर देखा जाना चाहिए | आश्चर्य की बात है भारत में अल्पसंख्यकों के हमदर्द बने रहने वाले नेतागण कश्मीर घाटी और बांग्ला देश की घटनाओं का अपेक्षित संज्ञान नहीं ले रहे | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 18 October 2021

बाहरी मजदूरों की हत्या कश्मीरी पंडितों को डराने का षडयंत्र



 जब पूरे देश का ध्यान लखीमपुर खीरी और दिल्ली की सिन्धु सीमा पर निहंगों द्वारा एक दलित की हत्या पर केन्द्रित है तब कश्मीर घाटी में आतंकवाद के नए संस्करण की शुरुवात हो गयी है | बीते कुछ दिनों से सुरक्षा बलों की बजाय आम नागरिकों की हत्या की जा रही है | इनमें विशेष रूप से दूसरे राज्यों से घाटी में आकर रोजी – रोटी कमा रहे श्रमिक हैं जिनका  राजनीति से कोई लेना - देना नहीं है | गत दिवस दो बिहारी मजदूरों को घर में घुसकर गोली मार दी गई | हालांकि सुरक्षा बल भी आतंकवादियों को निशाना बना रहे हैं तथा कोई बड़ा हमला भी नहीं हुआ है लेकिन ज्योंही  कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास का सिलसिला शुरू हुआ , आतंकवादियों ने बाहरी मजदूरों को अपना लक्ष्य बनाकर भय का माहौल निर्मित कर दिया | परिणामस्वरूप जो कश्मीरी पंडित हाल ही में अपने घर लौटे थे वे बोरिया - बिस्तर समेटकर जाने लगे और जो आने की तैयारी कर रहे थे , उन्होंने इरादा बदल दिया | आतंकवादी भारत सरकार की पुनर्वास योजना  को भांप गये थे , इसीलिये उन्होंने घाटी में कार्यरत मजदूरों सहित अन्य लोगों की जान लेना शुरू कर दिया | चूँकि बाहरी मजदूर अक्सर किसी साधारण जगह पर रहते हैं और उनके लिए अपनी सुरक्षा का प्रबंध करना भी आसान नहीं होता इसलिए आसानी से आतंकवादियों के  शिकार हो जाते हैं | कुछ दिन पहले राज्य के पुलिस प्रमुख ने कहा था कि आतंकवादी  स्थानीय युवकों को पैसों का लालच देकर  साधारण लोगों की हत्या करवा रहे हैं | उनकी आवाजाही पर सुरक्षा बलों को संदेह भी नहीं होता | और वारदात करने के बाद वे सरलता से लोगों में घुल मिल जाते हैं | दरअसल घाटी में आतंकवादियों के जाल को तहस - नहस करने के लिए सुरक्षा बलों द्वारा चलाये जा रहे अभियान की वजह से अब वे बड़ी वारदात करने की बजाय छोटी घटनाओं के जरिये दहशत पैदा करने की रणनीति पर चल रहे हैं | हालाँकि पूर्व मुख्यमंत्री डा. फारुख अब्दुल्ला का दावा  है कि  ताजा घटनाओं  के पीछे स्थानीय कश्मीरियों का हाथ नहीं है |  उनके ऐसा कहने के पीछे भी निहित उद्देश्य है क्योंकि  सरकारी विद्यालय में घुसकर एक सिख महिला प्राचार्या और हिन्दू शिक्षक के पहिचान पत्र से  गैर मुस्लिम होने की पुष्टि करने के बाद उनकी हत्या की  घटना के बाद सुरक्षा बलों ने एक हजार से ज्यादा संदिग्धों की धरपकड़ कर डाली | डा. अब्दुल्ला ने अप्रत्यक्ष रूप से इन गिरफ्तार लोगों की तरफदारी की है  | घाटी के राजनीतिक दल इस बात को समझ चुके हैं कि अनुच्छेद 370 की वापिसी असम्भव है | लेकिन उन्हें ये भी गंवारा नहीं है कि घाटी का मुस्लिम बहुल स्वरूप बदल जाए | इसीलिये बाहरी लोगों की हत्या की आलोचना करने के बावजूद न तो अब्दुल्ला और न ही मुफ्ती परिवार खुलकर आतंकवाद के विरुद्ध मैदान में उतरने के संकेत दे रहा है | प्राप्त जानकारी के अनुसार घाटी में पांच लाख मजदूर अन्य राज्यों से आकर कार्यरत हैं | घाटी के 90 फीसदी निर्माण कार्यों में यही मजदूर कार्य करते हैं | इनको घाटी से भगाना आतंकवादियों का उद्देश्य नहीं है अपितु  इनके बीच में से कुछ को निशाना बनाकर कश्मीरी पंडितों के घाटी में पुनर्वास को रोकना उनकी कार्ययोजना का हिस्सा है |  ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि बहार का मौसम होने से घाटी इस समय सैलानियों से गुलज़ार रहा करती है | इस साल पर्यटकों की रिकॉर्ड संख्या आने से पुराने दिन लौटने का एहसास होने लगा था | होटल , परिवहन , हस्तकला व्यवसाय आदि में वृद्धि से  स्थानीय रोजगार भी बढ़ा वहीं  अलगाववादी संगठनों पर बंदिश से भी भारत विरोधी गतिविधियाँ शिथिल पड़ीं | सबसे बड़ी बात ये हुई कि घाटी के लोगों को भयमुक्त वातावरण  का एहसास होने लगा था | लेकिन इसी बीच अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत कायम हो जाने से घाटी में आतंकवाद की उखड़ती सांसें लौटने लगीं | हालाँकि सीमा पर चौकसी से पहले जैसी घुसपैठ तो नहीं हो पा रही लेकिन पाक अधिकृत  कश्मीर से आतंकवादी मौका पाते ही सीमा के इस पार आ जाते हैं जिसमें स्थानीय लोगों का सहयोग रहता है | ये कहना गलत न होगा कि घाटी के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले  कश्मीरियों के लिए आतंकवादियों और हथियारों को उस पार से इस पार लाने में सहायता करना एक तरह से रोजी - रोटी का हिस्सा है | ये इलाके इतने दुर्गम हैं कि कदम – कदम पर चौकसी भी नामुमकिन है | इस नई शैली के आतंकवाद के प्रति सुरक्षाबलों को भी नई रणनीति बनानी होगी | घाटी में पर्यटन के पुराने दिन लौटने के बाद   कश्मीरी पंडितों के मन में ये विश्वास जागने लगा था कि वे अपनी जन्मभूमि में दोबारा बस सकेंगे | लेकिन अलगाववादी ताकतें इसके दूरगामी नतीजों का आकलन कर परेशान हो उठीं  और अन्य राज्यों से आये गरीब मजदूरों को निशाना बनाकर उनको भयभीत करने में जुट गए | वे अपने उद्देश्य में कितने सफल होंगे ये पक्के तौर पर तो कह पाना मुश्किल है किन्तु इससे  पता चलता है कि आतंकवादी अब हताश हो उठे हैं | घाटी में आतंकवाद के चरमोत्कर्ष के दौरान भी बिहार , छत्तीसगढ़ , पंजाब आदि के श्रमिक काम करते रहे किन्तु उनको आतंकवादियों ने निशाना नहीं बनाया | मौजूदा संदर्भ में घाटी के राजनीतिक नेताओं को भी ये समझना चाहिए कि जब तक स्थितियां सामान्य नहीं होंगीं तब तक राज्य में चुनाव भी  संभव नहीं होगा | इसके साथ ही स्थानीय नागरिकों विशेष तौर पर व्यवसायी समुदाय को इन हत्याओं के विरुद्ध मुखर होना चाहिए वरना घाटी में  पटरी पर लौटता व्यवसाय और रोजगार फिर  चौपट होकर रह जाएगा | रही बात कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास  की तो आतंकवादी और उनकी पीठ पर हाथ रखने वाले राजनीतिक नेता कितनी भी कोशिश कर लें लेकिन घाटी को अपनी मिल्कियत बनाये रखने की उनकी चाल  टिकने वाली नहीं | कश्मीरी जनता को अपने नेताओं की असलियत भी  समझनी चाहिए  जो  अपने स्वार्थ के लिए घाटी के विकास को तिलांजलि देते रहे |            

  -रवीन्द्र वाजपेयी                          

Saturday 16 October 2021

किसान आन्दोलन के दामन पर खून के छींटे : ट्रैक्टर की बजाय तलवार चल रही




दिल्ली की सीमा पर चल रहे  किसान  आन्दोलन के रक्तरंजित होने से उसकी दिशाहीनता सामने आ गई है | सिन्धु सीमा पर किसानों  की सुरक्षा के नाम पर बैठे निहंगों ने पंजाब के ही एक दलित युवक की बेरहमी से हत्या कर  उसका शव लोहे  के एक बैरिकेड पर टांग दिया | निहंगों का आरोप है कि मारे गये युवक ने गुरु ग्रन्थ साहेब का अपमान किया था | निहंगों के एक नेता ज्ञानी शमशेर सिंह ने इस ह्त्या को उचित ठहराते हुए कहा  कि पहले भी गुरु ग्रन्थ साहेब के अपमान के दोषियों को हमने पुलिस के हवाले किया था किन्तु कुछ दिन बाद उनको छोड़ दिया गया | इसलिए इस बार हमने  गुनाह के बराबर सजा दी है , ताकि दूसरा कोई ऐसी हिम्मत  न कर सके , और दोबारा ऐसा  हुआ तो हम फिर उसे ऐसा ही प्रसाद देंगे | हत्या करने वाले निहंग ने पुलिस के सामने समर्पण कर दिया है | शमशेर सिंह ने हत्या को जायज ठहराते हुए ये भी कहा कि  गुरु ग्रन्थ साहेब के अपमान पर  आगे भी  निहंगों की तलवार निकलेगी | उनके अनुसार निहंग भी बतौर किसान इस  आन्दोलन में शामिल हैं और  धरना स्थल पर उनकी मौजूदगी बतौर रक्षक है | किसान आन्दोलन में निहंगों की भूमिका गणतंत्र दिवस पर उस समय विवादित हुई जब लालकिले पर  एक निहंग ने तलवार लहराते हुए शक्ति प्रदर्शन किया वहीं दूसरे ने निशान साहेब फहरा दिया | हालाँकि उस घटना की  सिखों के एक बड़े वर्ग ने भी आलोचना की थी | लेकिन किसान नेता राकेश टिकैत उसे भाजपा की करतूत  बताने जैसी हरकत करते रहे | शुरू में तो किसान नेताओं को लगा कि निहंगों के आने से उनके आन्दोलन को सिखों का एकमुश्त समर्थन मिलेगा लेकिन उनकी गतिविधियों से जब तकलीफ होने लगी तब दो माह पहले बलवीर सिंह राजेवाल ने सार्वजनिक रूप से कहा कि निहंगों का वहां कोई काम नहीं है और उनको वापिस चला जाना चाहिए | उनकी बात पर निहंगों ने नाराजगी व्यक्त करते हुए साफ़ – साफ कह दिया कि  वे किसानों की हिफाजत के लिए आये हैं और वहीं रहेंगे | जैसी जानकारी मिल रही है उसके अनुसार निहंग धीरे – धीरे किसानों के धरने का नेतृत्व कर रहे लोगों से भी बेअदबी  करने लग गये थे | लेकिन उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं हुआ | लेकिन अब जबकि धरना स्थल पर ही एक युवक की तालिबानी शैली में हत्या कर उसकी लाश को टांग दिया गया तब जाकर किसान आन्दोलन की ओर  से योगेंद्र यादव ने जुबान खोली और कहा कि ये कोई धार्मिक मोर्चा नहीं है और निहंगों को यहाँ से चला जाना चाहिए | लेकिन निहंगों की तरफ से इस बारे में कुछ नहीं कहा गया | हालांकि जो निहंग पहले हत्या  के औचित्य को साबित करने में बड़बोलापन दिखा रहे थे वे शाम तक ठन्डे पड़े और हत्यारे को पुलिस के हवाले करने राजी हो गये | लेकिन इस घटना के बाद  आन्दोलन के उग्रवादियों के हाथ चले जाने के आरोप को बल मिला है  | लखीमपुर खीरी में किसानों को कुचलकर मार डालने की प्रतिक्रिया स्वरूप पांच लोगों को पीटकर  मौत के घाट उतारने वालों की तरफदारी से निहंगों का हौसला बढ़ा और उन्होंने धर्मान्धता का घिनौना रूप पेश करते हुए पूरी कौम के लिए शर्मिन्दगी पैदा कर दी | सिख धर्म अपने सेवा भाव और शौर्य के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है | गुरु ग्रन्थ साहेब के प्रति केवल सिख ही नहीं अपितु हिन्दू भी श्रद्धा रखते हैं | लेकिन निहंग अक्सर ऐसा कर जाते हैं जिससे उनके साथ ही सिख धर्म पर भी सवाल उठते हैं | कुछ साल पूर्व पंजाब में एक पुलिस वाले के हाथ निहंगों ने सरे आम काटकर आतंक फैलाया था | किसान आन्दोलन में उनका क्या काम है ये प्रश्न पहले दिन से उठता रहा है | लेकिन किसान नेताओं को निहंगों की उपस्थिति में फायदा दिखा तो उन्हें पूरी छूट दे  दी गयी | जो बात  बलवीर सिंह ने दो माह पहले कही और योगेन्द्र यादव अब कह रहे हैं , यदि ये गणतंत्र दिवस की घटना के दिन ही कही जाती तो शायद इस  आन्दोलन के दामन पर खून के छींटे न पड़े होते | बहरहाल अब जबकि किसान आन्दोलन  अपना पैनापन खोता जा रहा है तब निहंगों द्वारा एक व्यक्ति की खुले आम हत्या किये  जाने के बाद  ये साफ़ हो गया है कि वे किसानों की हिफाजत की आड़ में किसी गुप्त लक्ष्य को हासिल करने धरना स्थल पर घोड़े और हथियार सहित जमा हुए हैं | जहां तक बात किसान नेताओं द्वारा निहंगों से पिंड छुडाने संबंधी बयानों की है तो ये भी कलंकित होने से बचने का प्रयास है | वरना गणतंत्र दिवस पर निकाली गई ट्रैक्टर रैली के आगे चल रहे घुड़सवार निहंग इन्ही नेताओं को रास आ रहे थे | किसान नेता समझते थे कि निहंगों से डरने के  कारण पुलिस और प्रशासन धरना स्थल में नहीं घुस सकेंगे , लेकिन  जब बात हत्या जैसे  अपराध तक आ पहुँची तब ध्यान आ रहा है कि किसान आन्दोलन धार्मिक नहीं है | प्रारंभिक दौर में जब खालिस्तान समर्थकों की मौजूदगी पर सवाल उठे तब आन्दोलन के नेताओं ने बड़ी ही चालाकी से ये प्रचारित कर दिया कि पूरी सिख कौम को खालिस्तानी कहा जा रहा है | लेकिन वे ये भूल गये कि अपनी राजनीति के लिए जरनैल सिंह भिंडरावाले को आगे बढ़ाने का कितना बड़ा नुकसान कांग्रेस , इंदिरा जी और देश ने भुगता | किसान आन्दोलन के कर्णधारों को ये समझना होगा  कि बात अब उनके नियन्त्रण से बाहर हो चुकी है | गांधीवादी तरीके से अहिंसक आन्दोलन की बात करने वाले राकेश टिकैत  और योगेन्द्र यादव को ये नहीं भूलना चाहिए कि गांधी जी आंदोलन में हिंसा  होने पर  उसे तत्काल रद्द कर दिया करते थे | किसान आन्दोलन जिस तरह बेलगाम होता जा रहा है उसके बाद उसे मौजूदा तरीके से जारी रखना समय और शक्ति दोनों की बर्बादी है | अपनी मांगों के लिए आन्दोलन करना किसानों का मौलिक अधिकार है लेकिन हवा में तलवार घुमाते रहने से लड़ाई नहीं जीती जाती | किसान आन्दोलन को बचाए रखना है तो उसे उग्रवादियों और उपद्रवियों के चंगुल से आजाद करना होगा | वरना ट्रैक्टर चलाने वालों को बाहर धकेलकर तलवार चलाने वाले उस पर काबिज हो जायेंगे |  

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 14 October 2021

विकास दर के आकलन में छिपे हैं उज्जवल भविष्य के संकेत



अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत  की विकास दर 9.5  फीसदी रहने का अनुमान लगाते हुए कहा कि ये दुनिया भर में सबसे ज्यादा होगी | कोरोना का कहर न आया होता तो पिछले वित्तीय वर्ष में ही भारत की विकास दर दहाई के आंकड़े के करीब पहुँच जाती | जैसे संकेत मिल रहे हैं उनके अनुसार कोरोना के दूसरे दौर की भयावहता के बाद  देश में आर्थिक गतिविधियाँ तेज हो गईं | कुछ क्षेत्रों में तो उम्मीद से ज्यादा अच्छे परिणाम आ रहे हैं | अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों  ने भी भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर सकारात्मक आकलन किये हैं | सबसे बड़ी बात ये है कि भारत में मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर आश्चर्यजनक रूप से अच्छा प्रदर्शन कर रहा है तथा कोरोना काल के बाद निर्यात में भी वृद्धि के संकेत हैं | केंद्र सरकार ने कोरोना काल में औद्योगिक इकाइयों को जिस तरह के प्रोत्साहन दिए उसकी वजह से अनेक सेक्टरों में  कच्चे माल के लिये चीन पर निर्भरता कम हुई जिससे लागत घटी और अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारत के उत्पाद प्रतिस्पर्धा में टिके रहने में सक्षम साबित हो रहे हैं | घरेलू परिदृश्य पर नजर डालें तो दवा और ऑटोमोबाइल सेक्टर में मांग काफी तेजी से बढ़ी है | दवाईयाँ बनाने वाली इकाइयों को कच्चा माल तैयार करने के लिए जो सहायता और प्रोत्साहन सरकार ने बीते एक साल में दिया उसके नतीजे दिखाई देने लगे हैं | कोरोना के टीके का घरेलू उत्पादन होने से भी  अर्थव्यवस्था को जबरदस्त सहारा मिला | तीसरी लहर को रोकने में भारत का टीकाकरण अभियान निश्चित रूप से कारगर रहा | कल तक की जानकारी के मुताबिक 52.23 फीसदी आबादी को कोरोना का पहला और 22.80 फीसदी को दोनों टीके लग चुके हैं | इस कारण कोरोना के संक्रमण को नियंत्रित करना संभव हुआ  और देश लॉक डाउन की स्थिति से बाहर आ सका | वैसे भी तीसरी लहर को लेकर चिकित्सा जगत आश्वस्त कर चुका था कि  उसका प्रकोप बहुत कम  रहेगा | यद्यपि कुछ समय पहले तक केरल और महाराष्ट्र में कोरोना का संक्रमण खतरनाक संकेत दे रहा था लेकिन बीते कुछ दिनों से नये मरीजों की संख्या में लगातार कमी आने से शुरुवाती आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं | इसका सीधा असर बाजार पर पड़ा जहां एक साल से सुस्त पड़ी मांग ने जोर पकड़ा जिससे प्रभावित होकर कारखानों के साथ ही इन्फ्रा स्ट्रक्चर के  काम ने तेजी पकड़ी | इसका लाभ ये हुआ कि लॉक डाउन की वजह से बेरोजगार हुए लोगों को काम मिलने की शुरुवात हुई | गत दिवस इस बारे में कुछ विशेषज्ञों की जो राय आई है उसके अनुसार भारत में बेरोजगारी के  जो काले  बादल गत वर्ष आये थे , वे छंटने लगे  हैं और आगामी एक दशक तक उद्योग – व्यापार के सभी क्षेत्रों में रोजगार की स्थिति बहुत ही  अच्छी रहेगी | केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में घोषित कुछ रियायतों से उद्योग जगत खासा प्रभावित है और जिसका असर तत्काल परिलक्षित होने भी लगा | कोरोना रूपी त्रासदी ने भारत के आम आदमी की सोच में जो आमूल परिवर्तन किये उसके प्रभावस्वरूप बड़ी संख्या में लोगों ने आपदा में अवसरों का सृजन करने का चमत्कार कर दिखाया | ढर्रे से हटकर उच्च शिक्षित्त युवा पेशेवरों ने जिस प्रकार की उद्यमी विविधता का परिचय दिया उसने कम पूंजी में आय के नए स्रोत तलाशने की राह दिखाई है | सेवा क्षेत्र के अकल्पनीय विकास ने स्व - रोजगार के जो अवसर  उत्पन्न किये उससे ये साबित हो गया है कि देश विपरीत हालातों में भी अपना लक्ष्य  नहीं भूला , अपितु उसने आगे बढ़ने के नए रास्ते भी बना लिए जो किसी भी राष्ट्र के आत्मविश्वास और संघर्षशीलता का परिचायक होता है | हालाँकि अर्थव्यवस्था के सामने चुनैतियां पूरी तरह से खत्म हो गईं ये सोचना जल्दबाजी होगी क्योंकि कोरोना के बाद की वैश्विक व्यवस्था में काफी कुछ बदला हुआ होगा और उसी के बीच भारत को अपने लिए सम्मानजनक और सुरक्षित जगह बनानी होगी | विशाल उपभोक्ता बाजार के कारण दुनिया भर के निवेशक यदि भारत में रूचि दिखा रहे हैं तो वह हवा – हवाई नहीं है | शेयर बाजार के सूचकांक का 60 हजार के पार चला जाना भले ही आम आदमी के लिए मायने न रखता हो किन्तु कारोबारी गतिविधियों के लिए वह मौसम की भविष्यवाणी जैसा होता है | महंगाई , विशेष रूप से पेट्रोल – डीजल के निरंतर बढ़ते दाम हालाँकि समस्या बन रहे हैं लेकिन देश में वैकल्पिक ईंधन का उपयोग बढ़ाने की दिशा में हो रहे प्रयास देर सवेर रंग लायेंगे | उस दृष्टि से आने वाले कुछ साल निश्चित तौर पर संक्रांति काल होंगे | लेकिन जिस तरह दूसरे महायुद्ध के उपरांत दुनिया का शक्ति संतुलन और आर्थिक केंद्र बदले , ठीक वैसे ही कोरोना काल  के बाद होना सुनिश्चित है और उसमें भारत की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रहेगी | कोरोना से उबरने के बाद देश के आम आदमी में नजर आ रहा आत्मविश्वास  सुखद और सुरक्षित भविष्य के  संकेत दे रहा है | शारदेय नवरात्रि और दुर्गा पूजा के दौरान दिख रहा उत्साह और दीपावली के पूर्व  बाजार से मिल रहे अग्रिम संकेत अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आकलन को प्रामाणिक साबित कर रहे हैं |  

-रवीन्द्र वाजपेयी

 

 

Wednesday 13 October 2021

लखीमपुर खीरी : इंसानियत विहीन सियासत सम्मानित नहीं हो सकती



लखीमपुर खीरी में गत दिवस हाल ही में मारे गये किसानों का उठावना संपन्न हुआ | इसमें कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा सहित अनेक राजनेता शरीक हुए किन्तु उन्हें किसानों ने मंच , माला और माइक से दूर ही रखा | इस आयोजन में तय हुआ कि मारे गये चार किसानों के  अस्थिकलश देश के हर जिले में  भेजे जायेंगे | राजनीतिक दल भी अपने नेताओं की मौत पर जन सहानुभूति बटोरने के लिए ऐसा करते रहे हैं | कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे आन्दोलन के संदर्भ में इस तरह का निर्णय अस्वाभाविक नहीं कहा जाएगा क्योंकि हमारे देश में भावनाओं को भुनाकर जनसमर्थन हासिल करने का तरीका बहुत सामान्य  है | चूँकि किसानों का आन्दोलन पंजाब , हरियाणा , पश्चिमी उ.प्र और राजस्थान के अलावा दिल्ली की सीमा के आगे नहीं बढ़ पा रहा इसलिए लखीमपुर खीरी की घटना के सहारे उसका फैलाव करने की रणनीति  बनाई गई है |  जिस तरह से उक्त किसानों की मौत हुई वह बहुत ही नृशंस था | लेकिन किसान आन्दोलन के नेताओं को ये नहीं भूलना चाहिए कि उस घटना में कुछ  अन्य लोगों की भी हत्या उन लोगों द्वारा की गई थी  जो खून का बदला खून की मानसिकता के वशीभूत होकर हैवानियत पर उतारू हो गये | चूंकि शुरुवात किसानों की हत्या से हुई इसलिए उनके समर्थकों द्वारा की गई जवाबी हत्याओं का औचित्य साबित करने का प्रयास भी  किया गया  | लखीमपुर खीरी में संवेदना व्यक्त करने गये राजनेता भी किसानों के अलावा मारे गये अन्य पांच लोगों में शामिल एक पत्रकार के घर ही गये | ऐसे में ये सवाल उठना लाजमी है कि किसान और पत्रकार के अलावा जिन लोगों को बलवाइयों ने बेरहमी से पीटकर मार डाला क्या वे इन्सान नहीं थे और क्या उनके परिजन सांत्वना और सहानुभूति के हकदार नहीं थे ? स्मरणीय है श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुए दंगे में निरपराध सिखों की हत्या के आरोप में कांग्रेस के अनेक नेताओं को अदालत ने सजा दी थी | उसी तर्ज पर लखीमपुर खीरी में किसानों की हत्या के बाद प्रतिक्रियास्वरूप की गई बाकी  हत्याओं के आरोपियों को भी दंड दिया जाना जरूरी है | उन मृतकों के परिजनों के साथ ही भाजपा के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं में भी इस बात को लेकर नाराजगी है कि उ.प्र सरकार के मंत्रियों सहित संगठन के नेताओं ने लखीमपुर खीरी आने के बावजूद उनके घरों में जाने की जरूरत नहीं समझी | इन मृतकों को समुचित मुआवजा और आश्रित को नौकरी आदि का आश्वासन भी संभवतः नहीं मिला | किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत के अलावा विपक्ष के तमाम नेता केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र के इस्तीफे की मांग पर अड़े हुए हैं लेकिन उनमें से किसी ने भी गैर किसानों को मारने वालों की पहिचान कर उन्हें सजा दिलवाने के बारे में कुछ नहीं कहा | इस दोहरे रवैये के कारण ही लखीमपुर खीरी और निकटवर्ती इलाकों में जातिगत भावनाएं उबाल पर हैं | सत्ता और विपक्ष दोनों का ये दायित्व है कि वे बलवे के दौरान जान गंवाने वाले सभी व्यक्तियों के प्रति एक जैसी  सहानुभूति प्रदर्शित करें | दुर्भाग्य से मौत को भी राजनीतिक रंग दिया जाने लगा है | इंदिरा जी की हत्या चूँकि उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा की गई थी इसलिए दिल्ली सहित देश के अनेक हिस्सों में हर सिख को हत्यारा मानकर उसके साथ अमानुषिक व्यवहार किया गया | लखीमपुर खीरी में मारे गये सभी लोग किसी आन्दोलन या पार्टी का हिस्सा होने से पहले मनुष्य थे | इसलिए सभी मौतों के प्रति एक सामान सोच रखते हुए उनके परिजनों को ये एहसास करवाना जरूरी है कि  शासन , प्रशासन , समाज और राजनीतिक दल उनके शोक में सहभागी हैं | जैसी खबरें आ रही हैं उनके अनुसार लखीमपुर खीरी में मरने वालों के परिजनों को सांत्वना और सहायता देने  से ज्यादा प्रयास वोटों की फसल काटने का हो  रहा है | कांग्रेस , सपा , बसपा , अकाली और भाजपा इस बात का हिसाब लगाने में जुटे हैं कि उ.प्र , उत्तराखंड और पंजाब के  आगामी विधानसभा चुनाव में लखीमपुर खीरी को कैसे भुनाया जावे ? विपक्षी दलों को लगता है कि केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री का इस्तीफा होने से उन्हें चुनावी लाभ होगा | दूसरी तरफ भाजपा भी इस बात का आकलन कर रही है कि मंत्री को हटाने पर उनके सजातीय ब्राह्मण मतदाता नाराज तो नहीं होंगे | ये स्थिति वाकई शोचनीय है | राजनीति में भावनाओं का भी अपना महत्व है | जहाँ – जहाँ भी लोकतंत्र है वहां राजनीतिक नेता जनभावनाओं के अनुरूप रणनीति बनाया करते हैं | लेकिन आम जनता की मौतों का  भी राजनीतिक नफे – नुकसान के लिए उपयोग करना निश्चित रूप से दुखद है | लखीमपुर खीरी की  पूरी घटना निंदनीय है | सत्ता के मद में की गई हैवानियत के साथ ही बदले की आग में जलते हुए की गई हत्याएं एक जैसे अपराध हैं | इसीलिये किसी को कम या ज्यादा मान लेना एकपक्षीय होगा | जो लोग किसानों की मौत पर मातम मना रहे हैं उन्हें उस दिन जवाबी हिंसा का शिकार हुए अन्य लोगों के लिए भी आंसू बहाना चाहिए क्योंकि इंसानियत के बिना की जाने वाली सियासत  कभी भी सम्मान प्राप्त नहीं कर सकती |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 12 October 2021

वोटों के लिए सिखों को मुख्यधारा से अलग करना खतरनाक होगा



उ.प्र में हुई लखीमपुर खीरी की घटना निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण थी  जिसमें चार किसानों के अलावा पांच अन्य लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा | किसानों को तो तेज गति से आते हुए वाहनों ने कुचल डाला जबकि बाकी  को क्रोधित भीड़ ने पीटकर मार डाला  | उस हादसे की देश भर में तीखी प्रतिक्रिया हुई | चूँकि किसानों की मौत के लिए केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री के बेटे को दोषी माना गया इसलिए राजनीति भी जमकर चली जिससे कुछ दिनों तक लखीमपुर खीरी और आसपास का इलाका राजनीतिक नेताओं के आवागमन का साक्षी बना रहा | चूंकि  हमारे देश में ये सब होता रहता है इसलिए किसी को इस पर आश्चर्य नहीं हुआ किन्तु जैसी जानकारी आई है उसके अनुसार कुछ लोग इस घटना को दो सम्प्रदायों के बीच का विवाद बताकर जहर फ़ैलाने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं  | हालाँकि मंत्री पुत्र की गिरफ्तारी में हुए विलम्ब से राजनीतिक बिरादरी को शोर मचाने का पर्याप्त अवसर मिला गया किन्तु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खुद होकर संज्ञान लेने के बाद कानूनी प्रक्रिया तेज हो गई और दोनों पक्षों के अनेक  आरोपी पकड़े जाकर जांच भी शुरू कर दी गयी है | हालांकि जिस इलाके में उक्त घटना हुई वहां पूरी तरह से शांति व्याप्त है लेकिन राजनेता जैसी  चालें चल रहे हैं उसकी वजह से ये आशंका है कि किसान आन्दोलन की तरह ये घटना भी एक राज्य और समुदाय से न जुड़ जाए | स्मरणीय है लखीमपुर खीरी के अलावा उ.प्र में तराई के हल्दवानी और पीलीभीत  जिलों में सिखों की काफी आबादी है | देश विभाजन के समय आये अनेक सिख शरणार्थियों को तराई इलाके में खेती हेतु भूमि दी गई थी | जिन्होंने अपने परिश्रम से उस इलाके को चमन बना दिया | लेकिन आज तक इस क्षेत्र में कभी सिखों को लेकर कोई विवाद नहीं देखने मिला | भले ही पंजाब में खलिस्तानी आतंक के समय जरूर तराई क्षेत्र में कुछ घटनाएँ हुईं पर  वहां  की आग से यहाँ का सिख समुदाय अछूता रहा | लेकिन लखीमपुर खीरी में मारे गये अधिकतर किसान चूंकि सिख थे इसलिए उनके बहाने पंजाब में सिखों को इस बात के लिए बरगलाया जा रहा है कि उ.प्र में सिखों पर अत्याचार हो रहे हैं | इस घटना को किसान आन्दोलन से सम्बद्ध करते हुए वहां  ये प्रचार भी किया जा रहा है कि केंद्र और उ.प्र  सरकार  सिख  विरोधी है | उ.प्र में तो एक – दो इलाके छोड़कर सिख  मतदाता उतने प्रभावशाली नहीं हैं लेकिन पंजाब में इसका उल्टा है जहाँ की पूरी राजनीति उनके नियन्त्रण में है | ये परम संतोष का विषय है कि खालिस्तानी आतंक का  पंजाब के सिख समुदाय ने बड़ी बहादुरी से सामना करते हुए अपनी राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया था | अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में हुई सैन्य कार्रवाई और उसके बाद श्रीमती इंदिरा गांधी की ह्त्या  के बाद दिल्ली में हुए सिखों के कत्ल ए आम से उत्पन्न कटुता भी जल्द भुला दी गई और कालान्तर में  सिख समुदाय ने पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनवाने में संकोच नहीं किया | ये बात सच है कि खालिस्तान के बीज अभी भी यहाँ – वहां बिखरे पड़े हैं  किन्तु सिख समुदाय ने उनको पनपने नहीं देता | किसान आन्दोलन में भी खलिस्तान समर्थक तत्वों ने घुसपैठ की थी किन्तु उन्हें ज्यादा महत्व नहीं मिला | बाकी किसानों ने भी जल्द उनके मंसूबों को भांप लिया | लेकिन लखीमपुर खीरी की घटना में अनेक सिख युवक जरनैल सिंह भिंडरावाले की फोटो वाली  जर्सी पहिने हिंसा करते दिखे और बाद में कुछ नेता पंजाब जाकर सिखों को भड़काने में जुटे हुए हैं | गत दिवस महाराष्ट्र में लखीमपुर खीरी की घटना के विरोध में सरकार  प्रायोजित बंद के दौरान जिस तरह से जबरदस्ती की गई उससे ये संकेत मिला है कि सियासत के सौदागर चिंगारी को आग में बदलने की फिराक में हैं | उल्लेखनीय है सरकार में एक साथ रहते हुए  भी जहाँ शिवसेना और शरद पवार की पार्टी रांकापा एक साथ नजर आईं वहीं कांग्रेस ने अपनी खिचड़ी अलग से पकाई |  संदर्भित घटना के इतने दिनों बाद सैकड़ों किमी दूर किसी राज्य में सरकार समर्थित बंद का औचित्य समझ से परे है | अनेक जानकार इस बारे में चिंता व्यक्त कर चुके हैं कि देश भर में सिखों को भड़काने का षडयंत्र रचा जा रहा है | यद्यपि इसके पीछे पंजाब के आगामी चुनाव हैं लेकिन इस आशंका को पूरी तरह नष्ट  करना जरूरी है | महाराष्ट्र में तो हाल – फिलहाल चुनाव होना नहीं है इसलिए वहां का  बंद लोगों की परेशानी का सबब बन गया | देखा - देखी कुछ और राज्यों में भी इस तरह के आयोजन हो सकते हैं लेकिन राजनीति चलाने वालों को ये ध्यान रखना चाहिए कि वे जाने – अनजाने सिख समुदाय को मुख्य धारा से अलग  करने का खतरनाक खेल न खेलें | पंजाब में रहने वाले सभी सिख एक ही विचारधारा या मानसिकता के नहीं हैं | भले ही उन पर पंजाब का ठप्पा लगा हो लेकिन आज की स्थिति में ये समुदाय देश के हर हिस्से में है | ऐसे में ये निहायत जरूरी है कि नब्बे के दशक में उनको लेकर बनाई गई अवधारणा को दोहराने से बचा जाए क्योंकि चुनाव तो आते – जाते रहते हैं किन्तु देश की एकता के साथ छेड़छाड़ किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं होगी | लखीमपुर खीरी में जो हुआ उसको उपेक्षित तो नहीं  किया जा सकता किन्तु उस बहाने अन्य  राज्यों में भी सद्भाव बिगाड़ने का  प्रयास  बेहद नुकसानदेय है | लखीमपुर खीरी  की  अपराधिक घटना के दोषियों को कड़ी सजा मिलनी ही  चाहिए , चाहे वे किसानों को कुचलने वाले हों या फिर बाकी लोगों को पीटकर मार डालने वाले बलवाई | राजनेताओं को उस आग में जितनी रोटी सेकनी थी उतनी वे सेंक चुके है | इसके आगे वे ऐसा ही करेंगे तो रोटी और उनके हाथ दोनों जलने वाली स्थिति बन जायेगी | ऐसी ही हरकतें नागरिकता संशोधन कानून के विरोध और किसान आन्दोलन को लेकर भी हुईं जिनके कारण दोनों ही पटरी से उतर गये | 21 वीं सदी में हमारा देश बहुत सारे बदलावों का गवाह बन रहा है लेकिन  राजनीति वोटों के मकड़जाल से निकल नहीं पा रही | तभी तो लखीमपुर खीरी में जा – जाकर आंसू बहाने वालों में से किसी ने भी कश्मीर में मारे गये लोगों के परिजनों को सांत्वना और सहायता देने के बारे में नहीं सोचा |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 11 October 2021

सौर ऊर्जा के बिना आत्मनिर्भर भारत का सपना पूरा नहीं होगा



कोरोना ग्रसित काफी मरीजों को बीमारी से उबरने के बाद भी स्वास्थ्य संबंधी अनेक समस्याओं से जूझना पड़ रहा है | इसे दवाइयों से होने वाली प्रतिक्रिया के अलावा शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में कमी से जोड़कर भी देखा जा सकता है | दरअसल कोरोना के इलाज को लेकर प्रारम्भिक स्थिति में चिकित्सा जगत काफी हद तक अनजान था जिसकी वजह से इलाज का प्रयोगात्मक तरीका अपनाया गया | जो दवाएं शुरुवाती तौर पर कारगर मानकर  दी जाती रहीं उन पर बाद में  अनुपयोगी  और नुकसानदेय मानकर रोक लगा दी गई | दुनिया भर में जो टीके खोजे गए उनकी प्रामाणिकता और प्रभावशीलता के बारे में अब तक भ्रम की स्थिति भी हुई है | कुछ टीकों को  अनेक देशों  द्वारा मान्यता नहीं दिए जाने से वहां जाने के इच्छुक लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है | कोरोना के आगमन को लगभग दो साल होने को आये किन्तु अभी तक दुनिया उसका स्रोत नहीं जान सकी है और न ही ये कहने की स्थिति है कि दवाओं और टीकों से उसकी पुनरावृत्ति को रोकना संभव हो गया है | अब तो  कहा जाने लगा है कि  हमें कोरोना के  साथ रहने की आदत  डालनी होगी | कहने का आशय ये है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद कोरोना ने ही पूरे विश्व को एक साथ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित किया है | जिस तरह उस महायुद्ध के उपरांत विश्व के शक्ति संतुलन के साथ ही आर्थिक हालात बदले , उसी तरह की सम्भावना कोरोना के बाद उत्पन्न होने लगी है | बीते दो साल में वैश्विक अर्थव्यवस्था पूरी तरह हिल गई है |  आर्थिक दृष्टि  से सम्पन्न देश तक संकट में फंस गये हैं |  लॉक डाउन के कारण आयात – निर्यात में आई बाधा की वजह से कच्चे माल की आपूर्ति प्रभावित होने का असर उत्पादन पर पड़ने से अनेक आवश्यक वस्तुओं का अभाव हो गया जिनमें दवा और चिकित्सा उपकरण भी हैं | इसी तरह ऑटोमोबाइल , इलेक्ट्रानिक्स , कप्म्यूटर के निर्माण में प्रयुक्त होने वाले छोटे – छोटे उपकरण उपलब्ध न होने से  आपूर्ति पर विपरीत असर पड़ा  है जिस  वजह से कीमतें  भी  स्वाभविक रूप से बढ़ी हैं | लेकिन बीते कुछ दिनों से पूरी दुनिया जिस संकट से परेशान है वह है उर्जा अर्थात बिजली | कोयला आधारित ताप विद्युत गृहों में कोयले का भंडार  घटने के कारण बिजली की उपलब्धता कम होने से चीन और ब्रिटेन जैसे देशों तक में उसकी कटौती के हालात पैदा हो गये हैं | कोरोना के चलते कोयला उत्पादक देशों में काम बंद रहने से समुचित उत्खनन नहीं हो सका | कोरोना की दूसरी लहर के बाद औद्योगिक गतिविधियाँ एकाएक बढ़ने से बिजली की मांग में तो अप्रत्याशित वृद्धि होने लगी किन्तु कोयले का उत्पादन उस अनुपात में नहीं बढ़ने से आपूर्ति में रूकावट आ रही है | इस वजह से दुनिया के तमाम बड़े देशों में बिजली उत्पादन  प्रभावित हो रहा है | वैश्विक  अर्थव्यवस्था से अभिन्न रूप से जुड़ चुका भारत  भी इससे  अछूता नहीं है | हालाँकि पर्यावरण संरक्षण के मद्देनजर कोयले से बिजली बनाने वाले संयंत्रों को धीरे – धीरे बंद किया जा रहा है | लेकिन अभी वह स्थिति भी नहीं आई जिसमें विद्युत उत्पादन के वैकल्पिक स्रोत के तौर पर पनबिजली , पवन चक्की और सौर ऊर्जा से काम चल सके | यद्यपि अनेक देश सौर ऊर्जा के जरिये बिजली उत्पादन में महारत हासिल करते हुए अपनी जरूरत से ज्यादा विद्युत् उत्पादन कर रहे हैं | लेकिन भारत सरीखे विशाल देश में अभी सौर उर्जा के साथ ही पवन चक्की द्वारा बिजली उत्पादन इस मात्रा में नहीं पहुँच सका जहां वह कोयले से बनने वाली बिजली को पूरी तरह विदा कह सके | यही वजह है कि पिछले कुछ दिनों से समूचे भारत में बिजली संकट पैदा हो गया है | ताप विद्युत संयंत्रों के पास कुछ ही दिनों का कोयला शेष होने से भारी बिजली कटौती की आशंका बढ़ती जा रही है | यद्यपि सरकार ये भरोसा दिला रही है कि पर्याप्त कोयले का प्रबंध कर लिया जावेगा जिससे आम नागरिकों , किसानों और उद्योगपतियों को परेशानी नहीं होगी  किन्तु वस्तुस्थिति ये है कि कोयले की कमी से बिजली उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होने जा रहा है | इस संकट के लिए सरकार कितनी दोषी है ये फ़िलहाल कह पाना जल्दबाजी होगी | जैसी जानकारी आ रही है  उसके अनुसार कोयला निर्यातक देश भी कोरोना काल में अपनी क्षमतानुरूप उत्पादन नहीं कर सके और  भारत भी इससे अछूता नहीं रहा | अर्थव्यवस्था की सुस्त रफ़्तार के कारण भी  कोयला उत्खनन कम हुआ था | हालांकि कोरोना की दूसरी लहर के कमजोर पड़ते ही कारोबारी जगत की  सक्रियता तो बढ़ी किन्तु बारिश के मौसम में कोयला खदानों में पानी  भर जाने से उत्खनन प्रभावित हुआ जिसके कारण विद्युत संयंत्रों की जरूरत पूरी नहीं हो पा रही | ऐसे में  जिन प्रदेशों में जरूरत से ज्यादा बिजली बना करती थी वे भी कटौती के लिए मजबूर हो चले हैं | इस संकट से  कच्चे तेल की  मांग भी बढ़ने लगी और  देखते – देखते उसके दाम भी आसमान छूने लगे | इस तरह भारत के लोगों को दोहरे संकट का सामना करना पड़ रहा है | भले ही राज्य और केंद्र दोनों ये आश्वासन दे रहे हों कि कोयले के आपूर्ति पूर्ववत हो जायेगी तथा बिजली का संकट नहीं होने दिया जावेगा लेकिन इससे अलग हटकर देखें तो भारत जैसे देश में साल भर पर्याप्त धूप रहने के बावजूद सौर उर्जा से बिजली बनाने का काम काफी पिछड़ गया | इसकी प्रमुख वजह देश में उसके उपकरण नहीं बनना भी है | लेकिन इस दिशा में जैसे प्रयास सरकारी और निजी  क्षेत्र द्वारा किये जाने चाहिए थे वे नहीं हुए | भले ही सरकार ने सौर ऊर्जा संयंत्र लगवाने पर सब्सिडी की व्यवस्था बनाई किन्तु उसके साजो – सामान का देश में उत्पादन हो सके इस दिशा में पर्याप्त कोशिशें नहीं हुई |  मौजूदा संकट को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को चाहिए वे सौर उर्जा के अधिकतम उपयोग की नीति बनाकर उसे युद्धस्तर पर अमल में लाने की कार्ययोजना बनाएं | कोरोना के बाद की दुनिया निश्चित तौर पर पहले से अलग और बेहतर रहेगी | भारत के लिए आने वाले समय में अनंत  संभावनाएं हैं जिन्हें भुनाने के लिए हमें सौर उर्जा के क्षेत्र में पेशेवर सोच के साथ आगे बढ़ना होगा | संतोष का विषय है कि देश के दिग्गज उद्योगपति इस दिशा में सोचने लगे  हैं | समय आ गया है जब भारत में राजमार्गों के  कायाकल्प की तरह से ही सौर ऊर्जा का उत्पादन बढ़ाने के लिए भी भगीरथी प्रयास किये जाएँ | यदि 21 वीं सदी को भारत की बनाना है तो सौर ऊर्जा के समुचित उपयोग में दक्षता हासिल करना जरूरी है क्योंकि  आत्मनिर्भर भारत का सपना उसके बिना पूरा नहीं हो सकेगा |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 9 October 2021

क्या शिया नमाजी मुसलमान नहीं थे




अफगानिस्तान के कुन्दूज शहर की एक मस्जिद में जुमे की नमाज के दौरान हुए विस्फोट में लगभग 100 नमाजियों के मारे जाने की  खबर है | विस्फोट आत्मघाती हमले से होने का संदेह व्यक्त किया जा रहा है | मारे गये लोग शिया मुस्लिम थे और इस हमले के लिए आईएस ( इस्लामिक स्टेट) नामक संगठन को जिम्मेदार माना जा रहा है,  जो सुन्नी मुसलमानों का समर्थक है | अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता आईएस को हज़म नहीं  हो रही | सत्ता हस्तांतरण के दौरान काबुल हवाई अड्डे के बाहर हुए बम धमाकों में  भी उसी का हाथ था | ये भी माना जाता है कि उसकी  गतिविधियां पाकिस्तान से निर्देशित होती हैं जिन्हें इमरान सरकार से प्रश्रय और प्रोत्साहन मिलता है जो अफगानिस्तान में दोमुंही नीति पर चल रही   है | पहले तो उसने तालिबान लड़ाकों को अफगानिस्तान पर काबिज होने के लिए हर तरह की सहायता दी | यहाँ तक कि अनेक इलाकों में तो तालिबान की शक्ल में पाकिस्तानी सैनिक ही लड़ते रहे | लेकिन ज्योंहीं अमेरिका ने वहां से पलायन किया और सत्ता पर तालिबान बैठे त्योंही आईएस को तालिबान के विरुद्ध सक्रिय कर दिया | दरअसल इमरान सरकार तालिबान नेताओं की नीयत को लेकर आशंकित है जो पाकिस्तान के बड़े भूभाग को अफगानिस्तान का हिस्सा मानकर उसे वापिस लेना चाहते हैं | पाकिस्तान के पश्चिमी सीमान्त इलाकों में तालिबानी अड्डे पहले से ही बने हुए हैं जिन्हें खाली करवाना आज की तिथि में असंभव है | यही सोचकर उसने आईएस के रूप में एक मुसीबत तालिबानी सत्ता के लिए खड़ी कर दी है | हालाँकि तालिबान भी सुन्नी समर्थक हैं जिनके सत्ता में आते ही शिया आबादी में भय व्याप्त है | अनेक शियाओं की  ह्त्या के साथ ही उनके एक बड़े नेता की मूर्ति भी गिरा दी गयी | हजारा नामक शिया मुसलमानों को तो तालिबान काफ़िर मानते हुए गैर इस्लामी मानते हैं | हाल ही में शियाओं की उलेमा काउन्सिल ने तालिबान से सभी सम्प्रदायों के प्रति सद्भाव रखने की अपील भी की थी | ये देखते हुए गत दिवस शिया मस्जिद में हुए विस्फोट को अफगानिस्तान के बिगड़ते हालातों का ताजा प्रमाण कहा जा सकता है | इस घटना से अफगानिस्तान के पड़ोस में स्थित ईरान का नाराज होना स्वाभाविक है जो वैसे तो शिया मुसलमानों का सबसे बड़ा देश है किन्तु अमेरिका से  दुश्मनी की वजह से सुन्नी समर्थक तालिबान की वापिसी का पक्षधर रहा | गत दिवस हुई घटना के कारण दुनिया भर में फैले शिया मुसलमानों में गुस्सा और डर दोनों व्याप्त हैं क्योंकि  अफगानिस्तान के वर्तमान हालात पूरी तरह से अनिश्चित और तनावपूर्ण हैं | सत्ता मिलने के बाद भी तालिबान पूरी तरह अपनी सरकार नहीं बना सके हैं | उनके गुटीय झगड़े हिसंक रूप लेते रहते हैं | सरकार में शामिल कुछ बड़े नेताओं के जीवित रहने को लेकर अनिश्चतता बनी हुई है | कुछ हिस्सों में अभी तक कबीलाई सत्ता जारी है जो काबुल के अधीन होने के प्रति हिचक रखती है | इस माहौल में शिया मुसलमानों की मस्जिद में  जिस तरह से खून खराबा हुआ वह नए गृहयुद्ध की जमीन तैयार कर सकता है | इस घटना से  तालिबान की जीत का जश्न मना रहे दुनिया भर के मुसलमानों के सामने धर्मसंकट की स्थिति आ खड़ी हुई है | बेगुनाह शिया नमाजियों की नृशंस हत्या से ईरान की नाराजगी तालिबान को भारी पड़ सकती है | मध्य और पश्चिम एशिया के शिया बाहुल्य वाले  देश भी तालिबानी सत्ता के दौर में  शियाओं पर अत्याचारों को पसंद नहीं करेंगे और उस सूरत में खस्ता आर्थिक स्थिति से उबरना अफगानिस्तान के लिए मुश्किल हो जाएगा | अमेरिका  जैसी महाशक्ति को पलायन के लिए मजबूर करने में सफल होने के बाद से तालिबान के प्रति दुनिया भर के मुसलमानों के मन में प्रशंसा का भाव उत्पन्न हो गया था | उसकी कट्टर और आतंकवादी छवि के बावजूद इस्लाम के नाम पर उसे हाथों  – हाथ उठाते हुए दावा  किया जाने लगा कि अब तालिबान पहले जैसे क्रूर न होकर समन्वयवादी हैं | प्रारंभिक बयानों में उनकी तरफ से जिस तरह के आश्वासन दिए गये उनसे भी आशा का संचार हुआ था परन्तु जल्द  ही ये बात उजागर हो गई कि तालिबान के व्यवहार और नीतियों में लेशमात्र भी बदलाव नहीं आया | ये देखते हुए अफगानिस्तान को केवल इस्लामिक नहीं वरन सुन्नी इस्लामिक देश कहना ज्यादा सही होगा | आईएस को भले ही इस हादसे के लिए जिम्मेदार माना जावे लेकिन तालिबान भी तो शियाओं से उतनी ही घृणा करते हैं | कुल मिलाकर  मुसलमानों का आपसी संघर्ष मुस्लिम देशों की एकता में बाधक होने के साथ ही पश्चिम एशिया में युद्ध की आग को बुझने ही नहीं दे रहा | अफगानिस्तान में दो दशक बाद इस्लामी राज लौटा है ,  लेकिन पूत के पाँव पालने में नजर आने की कहावत अभी से चरितार्थ होने लगी है | हो सकता है आईएस ने जानबूझकर शियाओं को अपना निशाना बनाया हो जिससे तालिबान की छवि विश्व बिरादरी में खराब हो | पाकिस्तान भी आईएस को इसीलिये  आगे बढ़ा रहा है ताकि  अफगानिस्तान में आंतरिक उथल - पुथल बनी रहे और तालिबान अपना घर बचाने की चिंता में डूबे रहें | लेकिन इस्लाम को मानने वाले समझदार लोगों को इस बारे में विचार करना होगा कि क्या शिया संप्रदाय के लोग मुसलमान नहीं  हैं , जिन्हें नमाज पड़ते समय बेरहमी से मार दिया गया  | तालिबान सत्ता भले ही आईएस को कठघरे में खड़ा करते हुए अपनी चमड़ी बचाने की कोशिश करे किन्तु उसके अपने लड़ाके भी तो शिया मुसलमानों पर अमानुषिक अत्याचार करने में आगे – आगे रहते हैं | नमाज पढ़ने वालों की  सामूहिक हत्या सरीखे घृणित अपराध के कर्ताधर्ता अपने को मुसलमान भले कहते रहें किन्तु वे इंसान कहलाने के काबिल तो  नहीं हो सकते | मशहूर शायर निदा फाज़ली ने ऐसी ही किसी घटना पर व्यथित होकर लिखा था  :-

उठ – उठ के मस्जिदों से नमाजी चले गए , दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया |

- रवीन्द्र वाजपेयी
 

Friday 8 October 2021

कश्मीर घाटी का जन सँख्या असंतुलन दूर करना जरूरी



कश्मीर घाटी  से लगातार तीसरे दिन बुरी खबर आई | बीते मंगलवार को श्रीनगर में तीन लोगों  की हत्या  के बाद बुधवार को  एक कश्मीरी पंडित दवा व्यवसायी की उसके परिसर में  गोली मारकर हत्या कर दी गई थी | गत दिवस भी श्रीनगर के एक सरकारी विद्यालय में कुछ आतंकवादी घुसे और सभी शिक्षकों के पहिचान पत्र देखने के बाद उनमें से दो को  मौत के घाट उतारकर भाग गये | मृतकों में एक सिख महिला प्राचार्य और दूसरा हिन्दू शिक्षक था | इस घटना की जिम्मेदारी जिस टीआरएफ नामक आतंकवादी संगठन ने ली उसकी जड़ें पाकिस्तान में बताई जाती हैं और वह लश्कर ए तैयबा की ही शाखा है जिसका उद्देश्य गैर मुस्लिमों को निशाना बनाना है | उसके प्रवक्ता अहमद खालिद ने एक बयान में कहा कि उनके संगठन ने पोस्टर के माध्यम से 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस समारोह नहीं मनाने कहा था लेकिन मारे गये दोनों शिक्षकों ने अभिभावकों और विद्यार्थियों को समारोह में शामिल होने को बाध्य किया | जैसी जानकारी आ रही है उसके अनुसार आतंकवादियों ने छोटी – छोटी घटनाओं के जरिये घाटी में रह रहे हिन्दुओं और सिखों में दहशत फ़ैलाने की योजना बनाई है | मंगलवार को जिन तीन लोगों को मारा गया उनमें कश्मीरी पंडित और स्थानीय व्यक्ति के अलावा बिहार का एक श्रमिक भी था | इस तरह तीन दिनों के भीतर राजधानी श्रीनगर में हुईं छह हत्याओं में पांच गैर मुस्लिम हैं | कल हुई वारदात में तो हत्यारों ने बाकायदा धर्म का पता कर  हत्या की | आज ही खबर आई है कि कश्मीर से पलायन कर चुके पंडितों की  संपत्ति पर किये गए अवैध कब्जे खाली करवाए जाने से भूमाफिया काफी नाराज है | राज्य सरकार ने घाटी से बाहर विस्थापित पंडितों से उनके संपत्ति का ब्यौरा पोर्टल पर मांगकर उस पर हुए अवैध कब्जे हटवाने का जो अभियान छेड़ा उससे कब्जेदार बौखलाए हुए हैं | ये जानकारी भी मिली है कि उक्त हत्याएं स्थानीय अपराधियों को पैसा देकर इसलिए करवाई जा रही हैं जिससे घाटी में रह रहे गैर मुस्लिमों के मन में खौफ पैदा हो और जो कश्मीरी पंडित घाटी  में लौटने की तैयारी कर रहे हैं उनका  उत्साह  ठंडा हो जाये |  बीते कुछ दिनों से अलगाववादियों ने  छोटी घटनाओं के जरिये दहशत फ़ैलाने की जो रणनीति प्रदर्शित की है उसका परिणाम जम्मू क्षेत्र के जो लोग घाटी में रह रहे हैं उनके घर लौटने से मिलने लगा है | कुछ समय पहले तक आतंकवादियों ने पुलिस और सुरक्षा बलों में कार्यरत मुस्लिमों को मारने का सिलसिला भी चलाया था जिसकी वजह से स्थानीय जनता में नाराजगी व्याप्त थी | शायद  इसीलिये अब मुस्लिमों को छोड़कर हिन्दू और सिखों को निशाना बनाया जा रहा है | हालांकि सुरक्षा बल भी घाटी के भीतर आतंकवादियों को घेरकर मारने में जुटे हैं और आये दिन उनके खात्मे की खबर भी आती है | लेकिन हत्याओं की इस श्रृंखला ने  संकेत दिया है कि अफगानिस्तान में तालिबानी हुकुमत के स्थापित होते ही कश्मीर घाटी में आतंकवाद को नए सिरे से खड़ा करने का प्रयास हो रहा है | इसीलिये इन घटनाओं को दूरगामी प्रभाव के मद्देनजर देखा जाना चाहिए | जम्मू में विधानसभा की सीटें बढ़ाकर कश्मीर घाटी का राजनीतिक प्रभुत्व कम करने से वहां  के राजनीतिक छत्रपों में घबराहट है |  अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार को ये बात समझ में आने लगी है कि विधानसभा सीटों का परिसीमन होने के बाद उनका आभामंडल फीका पड़ जाएगा | घाटी के  बाकी नेताओं को भी इस बात की  चिंता है कि अगर कश्मीरी पंडितों घाटी में लौटे तो इससे वहां भी राजनीति में उनकी हिस्सेदारी बढ़ने के साथ ही  भविष्य में कारोबार और नौकरियों में भी उनकी मौजूदगी नजर आयेगी | 1990 में पंडितों के पलायन के बाद घाटी में मुस्लिम समुदाय तकरीबन 99 फीसदी  हो गया जिससे आतंकवाद को पनपने के लिए अनुकूल हालात मिले | लेकिन बीते दो साल में  गैर मुस्लिमों की आवक - जावक  बढ़ने लगी थी | पर्यटन के क्षेत्र में भी बाहर से आये व्यवसायी संभावनाएं तलाशने लगे थे | जाहिर है यदि इस तरह हिन्दू और सिखों को मारने का सिलसिला जारी रहा तो फिर गैर मुस्लिमों को जान की चिंता सतायेगी और पर्याप्त सुरक्षा न मिली तो वे पलायन करने मजबूर होंगे | लेकिन इतनी जल्दी हताश होने की जरूरत भी नहीं है | केंद्र सरकार ने अचानक उत्पन्न परिस्थिति से निपटने के लिए उच्च स्तरीय बैठक बुलाई है वहीं जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने भी मौतों का हिसाब बराबर करने की बात कही है | लेकिन इस तरह की समस्या तब तक आती रहेगी जब तक  कश्मीर घाटी का जनसँख्या संतुलन मुस्लिमों के पक्ष में झुका रहेगा | केंद्र सरकार को चाहिए वह कश्मीरी पंडितों के अलावा देश के अन्य राज्यों के लोगों को वहां बसने की अनुमति के साथ उनकी सुरक्षा का समुचित प्रबंध भी करे | सेवा निवृत्त  फौजियों को घाटी में कृषि हेतु भूमि देकर बसाने जैसी योजना भी समय – समय पर चर्चा में आई है | उन्हें शस्त्र लायसेंस भी दिए जाएं जिससे समय पड़ने पर वे अलगाववादी तत्वों को उन्हीं की भाषा में जवाब दे सकें | पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद यदि नियंत्रण में आया तो उसका एक कारण वहां जनसँख्या का असंतुलन न होने के साथ उसका अन्य राज्यों से घिरा होना था | कश्मीर घाटी के साथ ये समस्या जरूर है कि उसकी सीमा पाकिस्तान से मिलने से आतंकवाद का आयात आसानी से हो जाता है जिसमें उसका मुस्लिम बहुल होना सहायक बन जाता है | धारा 370 के खात्मे के बाद घाटी के अलगाववादी ये तो समझ गये हैं कि विशेष स्थिति वाला पुराना दौर तो आने से रहा | इसलिए वे इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि बाहर  से आने वालों के मन में  असुरक्षा का भाव पैदा कर दिया जाए | हालाँकि धर्मनिरपेक्षता का झन्डा उठाकर घूमने वालों को  घाटी में जनसंख्या असंतुलन  खत्म करने की योजना में साम्प्रदायिकता नजर आते देर नहीं लगेगी लेकिन ये बात अक्षरशः सही है कि देश के जिस भाग में भी हिन्दू अल्पमत में आते हैं वहां अलगाववादी ताकतें मजबूत हो जाती हैं | कश्मीर घाटी के भीतर गैर मुस्लिमों की संख्या मुट्ठी भर होने के कारण भारत के प्रति निष्ठावान मुस्लिम भी डर के कारण चुप रहने मजबूर हो जाते हैं | अनेक मुस्लिम पुलिसकर्मी और फौजियों की  आतंकवादियों ने जिस बेरहमी से हत्या की  उससे आम कश्मीरी मुस्लिम भी खौफ खाता है | केंद्र सरकार को चाहिए कश्मीर घाटी के जनसँख्या असंतुलन को दूर करने के लिए भी  वैसा ही साहस दिखाए जैसा धारा 370 हटाने में दिखाया था | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 7 October 2021

बिंदरू की हत्या कश्मीरी पंडितों को रोकने की साजिश का हिस्सा है




श्रीनगर में गत दिवस एक प्रतिष्ठित कश्मीरी पंडित दवा व्यवसायी माखनलाल बिंदरू की ह्त्या को आतंकवादियों की हताशा से जोड़कर देखा जा रहा है | आतंकवादियों ने उनके प्रतिष्ठान में घुसकर उन्हें गोली मार दी | 1990 में कश्मीरी पंडितों के सामूहिक पलायन के भयावह दौर में भी उन्होंने श्रीनगर नहीं छोड़ा | बीते कुछ समय से सुरक्षा बल लगातार आतंकवादियों को ढूंढकर मार रहे हैं | सीमा पार से घुसपैठ में भी कमी आई है | इस कारण घाटी में बचे - खुचे अलगाववादी बौखलाहट में हैं | उनको सबसे ज्यादा गुस्सा इस बात पर है कि आम जनता भी शान्ति के पक्ष में खड़ी नजर आ रही है | इसका सबसे बड़ा लाभ ये हुआ कि घाटी में इस साल पर्यटकों की संख्या ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए | कश्मीरी युवाओं को भी ये बात समझ में आने लगी है कि उनका भविष्य अलगाववादियों के साथ रहने से अंधकारमय हो जाएगा और जिस बन्दूक को उठाकर वे निर्दोष लोगों की हत्या करेंगे वही एक दिन उनकी मौत का जरिया बनेगी | जनजीवन सामान्य होने से अलगाववादियों के आश्रयस्थल भी लगातार कम होते जा रहे हैं | पंचायत चुनाव निर्विघ्न संपन्न होने के बाद घाटी के भीतरी हिस्सों में पहली बार विकास के छोटे – छोटे काम शुरू हो सके जिससे वहां के लोग आश्चर्यचकित हैं | आतंकवाद से दिखावटी दूरी बनाये रखते हुए अलगाववाद और पाकिस्तान परस्ती का प्रतीक बन चुकी हुर्रियत कांफ्रेंस की कमर भी टूट चुकी है | उसके नेताओं पर नियन्त्रण लगाये जाने का असर ये हुआ कि सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने और आतंकवादियों के जनाजे में जनसैलाब के उमड़ने जैसे दृश्य अब नहीं दिखाई देते | जम्मू कश्मीर के उप राज्यपाल मनोज सिन्हा ने जिस कुशलता से घाटी के जिम्मेदार लोगों से सीधे संवाद का तरीका अपनाया उससे भी माहौल सकारात्मक होने लगा है | जैसी जानकारी आ रही है उसके अनुसार घाटी से भगाये गये कश्मीरी पंडितों को दोबारा वहां बसाने की तैयारियां भी प्रशासनिक स्त्तर पर चल रही हैं | हालाँकि अलगाववाद के पोषक गुटों को उनकी वापिसी किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं है | कुछ बड़े नेता तो इससे घाटी में जनसँख्या का संतुलन बिगड़ने की आशंका भी व्यक्त कर चुके हैं | अतीत में सुरक्षा के लिहाज से कश्मीरी पंडितों को वापिस लाकर उनके लिए अलग आवासीय क्षेत्र बनाने की योजना बनी तब फारुख अब्दुल्ला जैसे नेताओं ने भी उसका ये कहते हुए विरोध किया था कि इससे सामुदायिक भेदभाव और बढ़ेगा | लेकिन दूसरी तरफ ये भी कहा जाता रहा कि बिना पंडितों के लौटे कश्मीर अधूरा है | मोदी सरकार द्वारा धारा 370 को हटा देने के बाद से जिस तेजी से हालात बदले उनमें कश्मीरी पंडितों की वापिसी के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल होने लगी थी. | ऐसा लगता है आतंकवादी इसी कारण चिंतित हैं और उसी वजह से दवा व्यवसायी माखनलाल बिंदरू की ह्त्या की गई जो आतंकवाद के चरमोत्कर्ष के समय भी घाटी छोड़कर नहीं गये | निश्चित तौर पर ये बहुत ही निंदनीय कृत्य है | पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने यद्यपि उनके घर जाकर इसे अमानवीय कृत्य तो बता दिया लेकिन कश्मीरी पंडितों की वापिसी को लेकर वे और उनकी पार्टी दोगलापन दिखाते आये हैं | यही हाल महबूबा मुफ्ती का भी है | संदर्भित ह्त्या दरअसल कश्मीरी पंडितों की वापिसी को रोकने की साजिश का ही हिस्सा है | हालाँकि आतंकवादी अब पहले जैसे ताकतवर तो नहीं लगते किन्तु स्व. बिंदरू के साथ जो हुआ उसके कारण घाटी में लौटने के इच्छुक पंडितों का हौसला कमजोर अवश्य पड़ सकता है और यही आतंकवादी चाहते भी हैं | स्व. बिंदरू की बेटी ने अपने पिता की हत्या पर कहा कि तुम्हारे हाथ में बन्दूक है तो हमारे पास पिता द्वारा दिलाई गई शिक्षा है | ये बात सर्वविदित है कि कश्मीरी पंडित घाटी के सर्वाधिक शिक्षित लोगों में होते थे | सरकारी नौकरियों के अलावा व्यवसाय में भी वे अग्रणी थे | इसलिए उनकी वापिसी अलगावादियों को रास नहीं आयेगी | श्रीनगर के साहसिक दवा व्यवसायी की हत्या भी इसी कारण की गयी ताकि देश के बाकी हिस्सों में जा बसे पंडित वापिस लौटने की हिम्मत ही न कर पाएं | ऐसे में जम्मू कश्मीर प्रशासन और केंद्र सरकार को माकूल कदम उठाने होंगे | जिस तरह धारा 370 को खत्म करना एक चुनौती थी ठीक वैसे ही कश्मीरी पंडितों का घाटी में पुनर्वास भी बहुत बड़ा काम है जिसे किये बिना केंद्र सरकार की पूरी मेहनत पर पानी फिर जायेगा | सरकार को चाहिए उनकी सुरक्षा और सुविधाओं का सामुचित प्रबंध करे | कश्मीरी पंडित हमारी संस्कृति के संवाहक रहे हैं | देश के पहले प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरु भी इसी समुदाय से थे और उनके प्रपौत्र राहुल गांधी भी अपने को सारस्वत गोत्र धारी कश्मीरी ब्राह्मण बताते हैं | बीते कुछ समय से घाटी में रहने वाले हिन्दुओं का मनोबल बढ़ा है | जन्माष्टमी पर निकली शोभा यात्रा के अलावा स्वाधीनता दिवस पर श्रीनगर के लालचौक में पाकिस्तानी ध्वज के बजाय तिरंगा फहराया जाना राष्ट्रवादी भावनाओं के मजबूत होने का प्रमाण है जिसे अलगाववादी पचा नहीं पा रहे और इसीलिये बीच – बीच में भय का वातावरण बनाने का काम करते हैं | लेकिन माखनलाल बिंदरू की हत्या से घबराए बिना केंद्र और राज्य प्रशासन को कश्मीरी पंडितों की घर वापिसी की प्रक्रिया को तेज करना चाहिए ताकि धारा 370 हटाये जाने का उद्देश्य पूरा हो सके |

- रवीन्द्र वाजपेयी