Saturday 30 October 2021

सड़क कोई भी रोके गलत है : आन्दोलन के तौर – तरीकों में सुधार जरूरी



किसान आन्दोलन के कारण दिल्ली आने वाले तमाम रास्तों पर अवरोधक लगाकर आवागमन रोक दिया गया था | बीते 11 महीनों से इन रास्तों पर गुजरने वाले लोगों को लंबा चक्कर लगाकर जाना पड़ रहा था | सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में इस पर अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए किसान संगठनों को फटकारने के साथ ही दिल्ली पुलिस से भी सवाल किये | गत दिवस पुलिस द्वारा अपनी ओर से लगाये गए कटीले तार तथा अन्य अवरोध हटाने का काम प्रारंभ कर दिया गया | इस पर किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा कि इससे साफ़ हो गया कि रास्ते उनके द्वारा नहीं रोके गए थे और अब जब दिल्ली में घुसने की राह खोल दी गई तो किसान अपना अनाज बेचने संसद तक जायेंगे | दरअसल किसान आन्दोलन के तहत दिल्ली में हजारों ट्रैक्टरों के प्रवेश को रोकने के लिए प्रशासन ने सड़कों पर अवरोधक लगाये थे | दूसरी तरफ किसानों का धरना जारी था | इसके कारण वाहन चालकों को वैकल्पिक मार्गों का उपयोग करने की मजबूरी झेलनी पड़ी | दिल्ली पुलिस ने अपने अवरोधक तो हटा लिए लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या किसान भी अपना धरना  समाप्त करेंगे या दिल्ली में घुसने की अपनी  घोषणा को अमल में लायेंगे ? यदि वे ऐसा करने का प्रयास करते है जिसका संकेत श्री टिकैत ने दे भी दिया तब राष्ट्रीय राजधानी में कानून व्यवस्था के साथ यातायात प्रबंधन भी गड़बड़ा सकता है | किसान आन्दोलन के नेतागण दिल्ली  स्थित जंतर मंतर पर धरना देना चाहते थे जो धरना – प्रदर्शनों आदि के लिए नियत है | लेकिन 1988 में स्व. महेंद्र सिंह टिकैत द्वारा संसद के निकट बोट क्लब पर बुलाई किसान पंचायत के बाद उत्पन्न हालात के मद्देनजर राजधानी में इस तरह के आयोजनों की  अनुमति बंद किये जाने से मौजूदा किसान आन्दोलन को भी दिल्ली की सीमा पर  ही रोकने का प्रशासनिक प्रबंध किया गया | लगभग एक साल  बाद पुलिस द्वारा अवरोधक हटाकर रास्ता खोल दिए जाने से आम जनता के लिए तो आवागमन सुलभ हो गया लेकिन किसान संगठन अपना आन्दोलन दिल्ली के भीतर लाने की जिद पाल बैठे तब अप्रिय स्थितियां बन सकती हैं | यद्यपि इस बीच ये अटकलें भी लग रही हैं कि केद्र सरकार ने किसान आन्दोलन को ठंडा करने की रणनीति बना ली है जिसके अंतर्गत उनकी मांगों को इस तरह पूरा किया जावेगा जिससे सरकार का सम्मान भी बना रहे और किसान भी संतुष्ट हो जाएँ | लेकिन  वह संयुक्त किसान मोर्चे को किसी भी तरह का श्रेय लेने से बचना चाहती है और इसीलिये ये सम्भावना बन रही है कि पंजाब के निवर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह को मध्यस्थ बनाकर कृषि कानूनों संबंधी कोई समझौता कर लिया जावे | हालाँकि ये राजनीतिक कयास ही  हैं | कैप्टेन का कांग्रेस के विरोध में मैदान में कूदना और भाजपा के निकट आने के संकेत से इन कयासों को बल मिल रहा है | केंद्र सरकार को  भी ये लग रहा है कि भले ही दिल्ली के प्रवेश द्वारों पर किसानों के धरने में भीड़ लगातार घटती जा रही है और अन्य  स्थानों पर हो रहे आंदोलनों में भी पहले जैसा जोश नहीं बचा लेकिन पांच राज्यों विशेष रूप से उ.प्र, पंजाब और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव में किसान आन्दोलन भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है | लखीमपुर खीरी में किसानों की नृशंस हत्या में केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री के बेटे के आरोपी  होने से भी पार्टी की छवि पर आंच आई है | सरकार को लगता है वह किसान संगठनों की पूरी न सही किन्तु कुछ मांगों को भी मान लेती है तो आन्दोलन और कमजोर  पड़ सकता है | भाजपा जानती है कि पंजाब में तो  उसके पास कुछ खोने के लिए नहीं है लेकिन आन्दोलन का असर हरियाणा पर भी पड़ रहा है | ये भी खबर है  कि राकेश टिकैत से नाराज  संयुक्त किसान मोर्चा के कुछ नेता अंदर – अंदर केंद्र सरकार के सम्पर्क में हैं | वैसे लखीमपुर खीरी काण्ड के बाद जिस तरह श्री टिकैत ने उ.प्र सरकार की मदद करते हुए मृतक किसानों के  परिवारों को मुआवजा दिलवाने की व्यवस्था करवाई उसके बाद से ये भी कहा जाने लगा कि वे भी केंद्र सरकार के निकट आ गये हैं  | हालाँकि अभी तक स्थिति   साफ़ न होने से पक्के तौर पर कुछ भी नहीं  कहा जा सकता लेकिन इतना तो तय है कि केंद्र सरकार और किसान संगठन विवाद का हल निकालने की मानसिकता बना चुके हैं और इसी वजह से दिल्ली पुलिस ने हरियाणा और उ.प्र सीमा से लगे रास्ते खोलने की प्रक्रिया शुरू कर दी है | लेकिन इस  सबसे हटकर मुद्दा ये है कि क्या लगातार कई महीनों तक ऐसे रास्तों पर यातायात अवरुद्ध करना वाजिब है , जिन पर प्रतिदिन लाखों लोग आवाजाही करते हैं | ये मुद्दा सरकार और आन्दोलन करने वालों के लिए समान रूप से विचारणीय है | देश की राजधानी में पूरे देश भर से लोगों का आना होता है | पड़ोसी राज्यों से तो लाखों लोग प्रतिदिन नौकरी और अन्य कार्यों से दिल्ली आते हैं | अन्य शहरों में भी इस तरह की समस्या उत्पन्न होती रहती है | दुर्भाग्य से हमारे देश में लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल दिया गया है जिसके लिए राजनीतिक दल पूर्णरूपण दोषी हैं,  जिन्होंने आंदोलनों के नाम पर कानून – व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाने का चलन प्रारम्भ किया | किसान आज भले ही  रेल रोक रहे हों लेकिन उन्होंने भी ये तरीका राजनीतिक लोगों से सीखा | प. बंगाल में वाममोर्चे के शासन के दौरान सरकार प्रायोजित बंद का तरीका शुरू हुआ | स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के दौरान अन्य बातों के अलावा आन्दोलन के तौर – तरीकों पर भी विचार और समीक्षा होनी चाहिए | आन्दोलन के अव्यवस्थित होने का नतीजा ही लखीमपुर खीरी में हुई हत्याओं के रूप में सामने आ चुका है  | उसके पहले दिल्ली में चल रहे धरना स्थलों पर भी  अनेक किसानों की मौत हो चुकी है | निहंगों द्वारा एक व्यक्ति को बेरहमी से  मार डालने की वारदात  भी आंदोलन के अनियंत्रित होने का प्रमाण है | किसान आन्दोलन की देखा सीखी आने वाले समय में दूसरा कोई संगठन भी यदि इसी तरह से रास्तों पर कब्जा करने लगे तो फिर अनावश्यक विवाद पैदा होंगे | दिल्ली में ही धरना स्थल के निकटवर्ती ग्रामीण इलाकों की जनता और छोटे व्यापारी  आक्रोशित होकर संघर्ष पर उतारू हो गए थे | इस तरह की परिस्थितियां दोबारा न बनें ये देखना सभी पक्षों का दायित्व है | अपने हितों के लिए संघर्ष करना भले ही मौलिक अधिकार हो लेकिन ऐसा करते समय दूसरे वर्गों को तकलीफ न उठाना पड़े ये ध्यान रखना भी जरूरी है |

- रवीन्द्र वाजपेयी


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