Saturday 2 October 2021

जनता को परेशान करने वाले आन्दोलन सहानुभूति खो बैठते हैं



 सर्वोच्च न्यायालय ने संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा दिल्ली के प्रवेश मार्गों पर दिए जा रहे  धरने के कारण आवागमन में हो रही परेशानियों पर जिस तरह नाराजगी व्यक्त की वह पूरी तरह न्यायोचित और जनहितकारी है | अनेक महीनों से दिल्ली आने – जाने वाले लाखों लोगों को किसानों द्वारा व्यस्त मार्गों पर अपना डेरा जमाये जाने से प्रतिदिन मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा  है | दूध और सब्जियों जैसी  आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित होने के साथ ही दफ्तर जाने – आने वालों को लम्बे रास्ते का उपयोग करना पड़ता है जिससे उनके समय और ईंधन दोनों का अपव्यय होता है | केंद्र के अलावा हरियाणा और उ.प्र की सरकार चाहतीं  तो बलपूर्वक आन्दोलनकारियों  को खदेड़ सकती थीं किन्तु  वैसा करने से हिंसा पनप सकती थी  | और फिर पुलिस द्वारा की जाने वाली कार्रवाई में निर्दोष लोग भी लपेटे में आ जाते हैं | धरना स्थल से उठाये जाने वाले आन्दोलनकारी लौटते समय रास्ते  में उत्पात मचाते इस बात का भी डर था | गणतंत्र दिवस पर  दिल्ली में शांतिपूर्ण आन्दोलन के नाम पर जो तांडव किया गया उसके मद्देनजर भी सरकार और पुलिस फूंक – फूंककर कदम रखते रहे | किसानों के नाम पर उपद्रव करने वाले अपने मंसूबों में कामयाब न हो जाएँ ये चिंता भी सरकारी एजेंसियों को सताती रही | यही कारण था कि आन्दोलनकारी किसानों पर किसी भी तरह के बलप्रयोग को टाला गया  | यद्यपि इससे सरकार की कमजोरी भी सामने आती रही | ऐसा ही शाहीन बाग़ में मुस्लिम समुदाय द्वारा बीच सड़क पर दिए गये धरने में देखने मिला था | यदि कोरोना न आया होता तब शाहीन बाग का धरना भी क्या पता अनिश्चितकालीन जारी रहता क्योंकि जिस नागरिकता संशोधन क़ानून के विरुद्ध वह आन्दोलन किया गया उसे वापिस लेने के प्रति केंद्र  सरकार ने लेशमात्र भी रूचि नहीं दिखाई और न ही आन्दोलनकारियों से बातचीत ही की गई | सर्वोच्च न्यायालय के सामने वह विषय भी आया था जिस पर उसने वार्ताकार भी नियुक्त किये  | बाद में कोरोना के कारण शाहीन बाग़ खाली कारवाया गया | ज़ाहिर है संयुक्त किसान  मोर्चा के कर्ताधर्ताओं को भी उसी से सड़क घेरकर दबाव बनाने की प्रेरणा मिली | ये बात भी सही है कि जो तबका शाहीन बाग़ में सड़क कब्जाकर बैठने वालों को उकसाता रहा वही किसान आन्दोलन में घुस आया | लेकिन इस बार मामला लम्बा खिंच गया | शुरुवात में तो किसानों को अन्नदाता मानकर जनता ने तकलीफों को सहा भी किन्तु जब लोगों को लगा कि आन्दोलन में राजनीति घुस आई है तो समाज के बड़े वर्ग में उसे लेकर उदासीनता आ गई | और फिर जब उसमें खलिस्तानी और नक्सली तत्वों की  घुसपैठ का खुलासा होने लगा तब लोगों में गुस्सा बढ़ने लगा | लेकिन संतोष का विषय ये रहा कि कोई विवाद नहीं हुआ | समस्या बढ़ती देख कुछ लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ाई दिखाते हुए  संयुक्त किसान  मोर्चे से तीखे सवाल करते हुए उनके तर्कों को बेमानी ठहराया | इस बारे में अंतिम फैसला अब देश की सबसे बड़ी अदालत को करना है किन्तु जैसा होता आया है उस आधार पर देखें तो न्यायपालिका अंततः कार्यपालिका ( सरकार ) पर ही आन्दोलन से निपटने की जिम्मेदारी डाल देगी क्योंकि कानून व्यवस्था बनाये रखना उसकी जिम्मेदारी है | किसानों का कहना है उनको दिल्ली के भीतर स्थित जंतर मंतर पर धरने की अनुमति दी जाए | लेकिन सरकार को अंदेशा है कि ऐसा करने से राजधानी की व्यवस्था चौपट हो जायेगी | चूँकि केंद्र सरकार और संयुक्त किसान मोर्चा के बीच संवाद प्रक्रिया पूरी तरह रुकी हुई है  इसलिए आन्दोलन खत्म नहीं  किया जा रहा | हालाँकि सरकार इस बात से मन ही  मन खुश है कि उसकी धार दिन ब दिन कमजोर होती जा रही है | वहीं किसान नेताओं को भी ये पता है कि एक बार धरना समेट लिया गया तो दोबारा किसानों को बुलाना असम्भव हो जाएगा | इसीलिए वे आन्दोलन को किसी न किसी तरह जीवित तो  रखे हुए हैं किन्तु उसके कारण जनजीवन पर जो बुरा असर पड़ रहा है वह चिंता का विषय है | हमारे देश में सड़क बनाई  तो चलने के लिये जाती है लेकिन उस पर चका जाम जैसे आयोजन भी धड़ल्ले से होते  हैं जिसके लिए अपराध भी पंजीबद्ध किया जाता है लेकिन सजा अपवादस्वरूप ही किसी को मिली होगी | दिल्ली में चल रहे किसानों के धरने के विरुद्ध कोई मामला दर्ज हुआ या नहीं ये तो पता नहीं लेकिन हुआ  हो तो भी अब तक किसी पर कार्रवाई नहीं होने से ये लगता है कि कानून – व्यवस्था लागू करने वाले भी भीड़ के दबाव के आगे लाचार होकर रह जाते हैं | सबसे बड़ी बात ये है कि ऐसे धरने आदि से चूँकि केवल जनता को परेशानी होती है इसलिए पुलिस और प्रशासन भी ढील दिए रहता है | लेकिन जिस रास्ते से वीआईपी तबका निकलता है उस पर किसी भी प्रकार की बाधा खड़ी करने वालों को बिना देर किये बलपूर्वक हटा दिया जाता है | शाहीन बाग़ के धरने को संचार माध्यमों के साथ ही एक वर्ग विशेष द्वारा जिस तरह से महिमामंडित किया गया उससे इस तरह के आयोजनों को प्रोत्साहन मिला वरना किसान आन्दोलन के नेता उसका अनुसरण नहीं करते | सर्वोच्च न्यायालय ने आन्दोलनकारियों को जिस तरह से लताड़ लगाई उससे तो यही  संकेत मिला है कि वह सड़क घेरकर जनता के लिए परेशानी पैदा करने के तरीके पर स्थयी रूप से रोक लगा देगा | हालाँकि इसके लिए भी वह केंद्र सरकार को ही आदेश जारी करेगा किन्त्तु राजनीतिक दलों के साथ ही जनता से जुड़े संगठनों का भी ये फर्ज है कि वे अपनी मांगों के  लिए किये जाने वाले आंदोलनों में आम जनता की परेशानियों का भी ध्यान रखें वरना वे  जन समर्थन और सहानुभूति  खो बैठते हैं | किसान आन्दोलन के साथ  भी वैसा ही हो रहा है |


- रवीन्द्र वाजपेयी


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