Wednesday 31 January 2024
अंतरिम बजट में मध्यम आय वर्ग वालों के हितों का संरक्षण भी जरूरी
Tuesday 30 January 2024
सूर्योदय योजना : सौर ऊर्जा क्रांति की दिशा में बड़ा कदम
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि वे हर समय किसी न किसी योजना या कार्यक्रम के बारे में न सिर्फ सोचते अपितु उसे कार्य रूप में परिणित भी करते हैं। राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से लौटकर उन्होंने प्रधानमंत्री सूर्योदय योजना के अंतर्गत एक करोड़ घरों की छत पर सोलर पैनल (सौर ऊर्जा विद्युत संयंत्र ) लगाए जाने की घोषणा कर दी। इसके जरिए गरीब और मध्यम वर्गीय लोगों के बिजली बिलों में कमी आने के साथ ही देश बिजली के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ेगा। हालांकि देश के अधिकतर हिस्से विद्युत संकट से उबर चुके हैं किंतु सच्चाई ये है कि सरकार नियंत्रित विद्युत मंडलों को भले ही कंपनी में बदल दिया गया हो किंतु उनके द्वारा उत्पादित बिजली बेहद महंगी है। निजी क्षेत्र से सस्ती बिजली खरीदकर घरेलू और व्यवसायिक उपभोक्ताओं को कई गुना ज्यादा दरों पर बिजली बेची जाती है। दूसरी तरफ वोटों की सौदागरी के फेर में मुफ्त और सस्ती बिजली का चलन विद्युत मंडलों की कमर तोड़े डाल रहा है। कुल मिलाकर वोट बैंक की राजनीति ने बिजली उत्पादन से जुड़ी सरकारी व्यवस्था को मुनाफाखोर बना दिया। सरकारी संस्थान वैसे भी सफेद हाथी बन चुके हैं। ये बात भी बिलकुल सही है कि बिजली की खपत भी निरंतर बढ़ती जा रही है। पर्यावरण संरक्षण के लिए किए जा रहे वैश्विक प्रयासों के अंतर्गत कोयले से बिजली बनाने वाले संयंत्र बंद होने से बिजली उत्पादन के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश की गई है जिनमें पवन ऊर्जा , परमाणु ऊर्जा और सौर ऊर्जा शामिल हैं। लेकिन इनमें सबसे सस्ती सूर्य किरणों से बनाई जाने वाली ऊर्जा ही है। दुनिया के तमाम ऐसे देशों ने भी जिनमें धूप काफी कम होती है , सौर ऊर्जा उत्पादन में काफी प्रगति कर ली। हमारा पड़ोसी और विकास की दौड़ में प्रमुख प्रतिद्वंदी चीन तो सौर ऊर्जा उत्पादन में बहुत आगे निकल चुका है। हालांकि भारत इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ तो रहा है किंतु देश में सौर ऊर्जा संबंधी उपकरणों का उत्पादन काफी देर से शुरू होने की वजह से आयातित सोलर पैनल काफी महंगे पड़ते हैं। सरकार इस पर सब्सिडी देती है किंतु अभी भी इसे लगाने पर जो खर्च आता है वह काम आय वालों के बस के बाहर है। इसके अलावा जो उपभोक्ता अपनी छतों पर सोलर पैनल लगवाना चाहते हैं उनको बिजली विभाग की नौकरशाही खून के आंसू रुलाती है। इविचारणीय बात ये है कि भारत का मौसम जिस प्रकार का है उसके कारण देश के अधिकांश हिस्सों में मानसून और सर्दियों का कुछ समय छोड़कर सूर्य का पर्याप्त प्रकाश उपलब्ध रहता है। ऐसे में यदि घरों की छतों पर सोलर पैनल लगाने का अभियान युद्ध स्तर पर शुरू करते हुए उन पर सब्सिडी और बढ़ाई जाए तो आने वाले पांच सालों के भीतर भारत सौर ऊर्जा के जरिए सस्ती बिजली का उत्पादन करने में सक्षम होगा। इससे उपभोक्ताओं को तो लाभ होगा ही साथ में उनके उपभोग से बची बिजली सरकारी विद्युत मंडल के काम आयेगी। प्रधानमंत्री ने जिस तरह शौचालय , स्वच्छता , और अटल जल योजना , रसोई गैस और आवास जैसी मूलभूत जरूरतों को राष्ट्रीय कार्यक्रम बना दिया वैसे ही यदि सूर्योदय योजना को राष्ट्रीय अभियान बनाया जाए तो देश में सौर ऊर्जा क्रांति हो सकती है। बीते एक दशक में शासकीय कार्यालयों के अलावा बड़े औद्योगिक एवं व्यावसायिक संस्थानों के साथ ही अनेक किसानों द्वारा सोलर पैनल लगवाए गए हैं। जिन घरेलू उपभोक्ताओं ने सौर ऊर्जा के लिए अपने घरों की छतों का इस्तेमाल किया उनका अनुभव भी बेहद सुखद है। लेकिन अभी भी इस दिशा में बहुत कुछ होना बाकी है। प्रधानमंत्री चूंकि नवाचार में काफ़ी रुचि लेते हैं इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि सौर ऊर्जा उत्पादन उनकी प्रमुख कार्ययोजना में शामिल होकर रिकॉर्ड तेजी से आगे बढ़ेगा । लेकिन केवल सब्सिडी देने मात्र से यह लक्ष्य पूरा नहीं होने वाला। जिस तरह नए बन रहे भवनों में वर्षा जल संग्रहण (वाटर हार्वेस्टिंग) की व्यवस्था अनिवार्य की गई वही नियम सोलर पैनल के लिए भी बनना चाहिए। स्थानीय निकायों को स्ट्रीट लाइट के लिए भी सौर ऊर्जा का उपयोग बढ़ाने में मदद दी जावे। ग्रामीण क्षेत्रों भी खुला क्षेत्र काफी है। यदि पंचायत स्तर पर सौर ऊर्जा उत्पादन के लक्ष्य निर्धारित कर स्वच्छता अभियान जैसी प्रतियोगिता रखी जावे तो ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर ग्रामों की कल्पना साकार हो सकती है। गरीबों की बस्तियों में भी सामुदायिक सौर ऊर्जा उत्पादन के जरिए मुफ्त और सस्ती बिजली से होने वाले घाटे को कम किया जा सकता है। कुल मिलाकर ये विश्वास करना गलत नहीं होगा कि प्रधानमंत्री सूर्योदय योजना देश में सौर ऊर्जा क्रांति का सूत्रपात कर सकती है।
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रवीन्द्र वाजपेयी
Monday 29 January 2024
ज्ञानवापी में मंदिर के प्रमाण मिलने के बाद हठधर्मिता छोड़ें मुस्लिम
वाराणसी के सुप्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद में पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा की गई खुदाई से उस दावे की पुष्टि हो गई है कि वह हिन्दू मंदिर पर ही बनाई गई थी। इस खुदाई को रोकने मुस्लिम पक्ष द्वारा अदालत में भरपूर दलीलें दी गईं। अपेक्षा तो थी कि स्वाधीनता के बाद केंद्र सरकार मुगल काल में हिन्दू धर्मस्थलों को तोड़कर या उन्हीं ढांचों पर खड़ी की गई मस्जिदों को हिंदुओं को सौंपने की नीति बनाती । लेकिन कांग्रेस सहित अन्य पार्टियां मुसलमानों की नाराजगी से बचने के लिए हिंदुओं के वैध दावों को ठुकराती रहीं। हालांकि अयोध्या विवाद को सुलझाकर सर्वोच्च न्यायालय ने जो रास्ता खोल दिया वह उन सभी धर्मस्थलों को मुक्त करवाने में सहायक होगा जिनको मुस्लिम शासकों ने बलपूर्वक मस्जिद का रूप दे दिया। उस दृष्टि से ज्ञानवापी में किए गए सर्वेक्षण की जो रिपोर्ट अदालत में पेश हुई , उसमें समाहित चित्रों को देखकर कोई भी कह सकता है कि वह मंदिर ही है । मुस्लिम पक्ष को इसका एहसास काफी पहले से था । इसीलिए उन चीजों को छिपा दिया गया था जो हिन्दू धर्म के प्रतीक हैं। सबसे बड़ी बात शिवलिंग का मिलना है। मुस्लिम पक्ष द्वारा इस बारे में वही गलती दोहराई जा रही है जो अयोध्या विवाद में देखने मिली। इसलिए इस विवाद को निपटाने के लिए अदालत ही एकमात्र विकल्प बच रहती है जहां पुख्ता प्रमाणों के आधार पर फैसले होते हैं। अयोध्या में हिन्दू मंदिर होने की बात भी वहां की गई खुदाई से ही तय हुई। वही प्रक्रिया ज्ञानवापी के बारे में भी अपनाई जा रही है। 1991 में केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने जो कानून बनाया उसके अनुसार 15 अगस्त 1947 को किसी भी धर्मस्थल की जो स्थिति थी उसे परिवर्तित नहीं किया जावेगा। लेकिन अयोध्या विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना निर्णय इस आधार पर दिया कि बाबरी ढांचा हिंदुओं के मंदिर को मस्जिद का रूप देकर खड़ा किया गया था। ठीक वही बात ज्ञानवापी के बारे में भी सामने आ रही है। मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि के बारे में भी ऐसा ही दावा है। ये सब देखते हुए मुस्लिम धर्मगुरुओं को अपने समुदाय के लोगों को समझाना चाहिए कि वे हठधर्मिता के बजाय समझदारी और व्यवहारिकता से काम लें। इसमें दो राय नहीं है कि मुगलों द्वारा पूरे देश में हिंदुओं के धर्मस्थलों को नष्ट करने का काम बड़े पैमाने पर हुआ। प्राचीन धर्मस्थलों के बारे में जो तथ्य उभरकर सामने आ रहे हैं वे चौंकाने वाले हैं। उल्लेखनीय है कि देश का बंटवारा धर्म के नाम पर हमारे नेताओं ने स्वीकार किया था। सर्व धर्म समभाव के भारतीय संस्कारों के कारण भले ही मुस्लिमों की बड़ी आबादी भारत में रह गई और पाकिस्तान के उलट भारत ने अपने को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया किंतु ये भी उतना ही सही है कि तत्कालीन शासकों ने मुस्लिम तुष्टीकरण के फेर में बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को धक्का पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यदि सरदार पटेल न होते तब बड़ी बात नहीं सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार भी न हो पाता।अयोध्या का विवाद तो स्वाधीनता के पहले से चला आ रहा था। मथुरा और वाराणसी में हिंदुओं के सर्वोच्च आराध्यों के पवित्र मंदिर के बगल में बनी मस्जिद के हिन्दू मंदिर होने की बात पंडित नेहरू से लेकर तमाम नेताओं को ज्ञात थी । लेकिन उन्होंने इस दिशा में सोचने की तकलीफ इसलिए नहीं उठाई क्योंकि वे हिंदुओं की सहनशक्ति को जानते थे। वरना क्या कारण था कि हिंदुओं की विवाह व्यवस्था संबंधी रीति - रिवाजों को तो उलट - पलट दिया गया किंतु मुस्लिम पर्सनल लॉ को छेड़ने की हिम्मत नहीं हुई। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समान नागरिक संहिता लागू करने पर जोर दिए जाने के बाद भी ज्यादातर राजनीतिक दल उसके लिए राजी नहीं हैं। हालांकि ज्ञानवापी के विवाद पर अदालती निर्णय ही एकमात्र रास्ता बच रहता है परंतु मुस्लिम समाज को ये बात समझ लेनी चाहिए कि जिन राजनीतिक दलों के बहकावे में आकर वह सच्चाई की स्वीकार करने से बचता है उनका मकसद महज उनके वोट हासिल करना है। ऐसे में उनका भला इसी में है कि वे अतीत में मुगल शासकों द्वारा हिंदुओं के धर्मस्थलों पर जबरन कब्जा किए जाने वाली गलती को सुधारने की पहल करते हुए उनकी सद्भावना हासिल करें। बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ समन्वय बनाकर चलने में ही उनका भविष्य सुरक्षित और उज्ज्वल है।
- रवीन्द्र वाजपेयी
Sunday 28 January 2024
नीतीश और भाजपा दोनों को एक दूसरे की जरूरत थी : लालू कुनबे के जेल जाने की संभावना भी बनी बड़ा कारण
आज सुबह तक जो अनिश्चितता बनी हुई थी वह दोपहर आते - आते खत्म हो गई। नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। शाम तक भाजपा और जीतनराम मांझी की पार्टी के सहारे वे दोबारा सरकार बना लेंगे। नई सरकार में जद (यू) के साथ अब भाजपा और श्री मांझी के विधायक बतौर मंत्री दिखाई देंगे। इंडी नामक विपक्षी गठबंधन को जन्म देने वाले नीतीश ने जाति आधारित जनगणना करवाकर भाजपा के लिए चिंताजनक हालात उत्पन्न कर दिए थे। राहुल गांधी तो इसे 2024 के लोकसभा चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाने में जुट गए। हालांकि म.प्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा कारगर नहीं रहा किंतु इतना तो माना ही जा सकता था कि नीतीश विपक्षी गठबंधन के सबसे प्रमुख नेता के तौर पर राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभर रहे थे। उनको गठबंधन के संयोजक पद के अलावा प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाए जाने की संभावना भी काफी प्रबल थी। इंडी की पिछली बैठक में संयोजक का मसला तो अनिर्णीत ही रहा किंतु ममता बैनर्जी ने प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का नाम उछालकर नया दांव चल दिया। अरविंद केजरीवाल द्वारा उसका समर्थन करना भी चौंकाने वाला रहा। यद्यपि श्री खरगे ने उक्त प्रस्ताव पर सहमति नहीं दी लेकिन नीतीश को ये खटक गया कि तेजस्वी यादव के अलावा अखिलेश यादव ने भी ममता के प्रस्ताव का विरोध नहीं किया। उन्हें अपेक्षा थी कि सोनिया गांधी तो कम से कम ममता की पहल को महत्व नहीं देंगी किंतु उन्होंने भी मौन साधे रखा। इस बात से नीतीश उखड़ गए। उनको ये लगने लगा कि जिस गठबंधन को आकार देने के लिए वे महीनों से जुटे हुए थे और अपने से कनिष्ट नेताओं से भी जा - जाकर मिले , यदि वही उनको उपेक्षित कर रहा है तब उसके साथ रहने में कोई लाभ नहीं होने वाला। इधर बिहार में महागठबंधन के मुख्य घटक राजद की गतिविधियों से भी वे चौकन्ने थे। बीच में ये अटकलें भी लगीं कि जद (यू) के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह भीतर - भीतर लालू के साथ गोटियां बिठाते हुए नीतीश को हटाने की बिसात बिछा रहे थे। इसीलिए नीतीश उनको हटाकर पार्टी अध्यक्ष पद पर खुद आसीन हो गए। और तभी से उनके महागठबंधन से अलग होने की खबरें उड़ने लगीं। हालांकि भाजपा के साथ दोबारा जुड़ना आसान नहीं था क्योंकि बीते लगभग डेढ़ साल में दोनों तरफ से बयानों के जो जहर बुझे तीर चले उनके बाद पुनर्मिलन बेहद मुश्किल लग रहा था। पहले भाजपा नीतीश को लेकर उतनी आक्रामक नहीं होती थी किंतु 2022 के अलगाव के बाद कटुता चरम पर जा चुकी थी। नीतीश ने भाजपा के साथ आने के बजाय मर जाना पसंद करूंगा जैसा बयान दिया तो भाजपा ने जवाब में यहां तक कह दिया कि वे आना भी चाहेंगे तो पार्टी अपने दरवाजे नहीं खोलेगी। लेकिन राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी दोनों स्थायी नहीं होतीं वाली उक्ति को सही साबित करते हुए नीतीश और भाजपा एक बार फिर साथ आ गए। लेकिन इस बार ये जुगलबंदी महज बिहार पर असर नहीं डालेगी , अपितु आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से इसका प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर पड़े बिना नहीं रहेगा । जिस विपक्षी गठबंधन को जन्म देने के लिए नीतीश ने जी - जान से मेहनत की उसको उनके इस पैंतरे से जबरदस्त धक्का पहुंचा है क्योंकि तमाम विपक्षी दलों को एक साथ लाने का असली श्रेय उन्हीं को है। ये बात भी सही है कि लालू प्रसाद यादव अपने बेटे तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनवाने का दबाव बना रहे थे । यदि नीतीश को इंडी का संयोजक बना दिया गया होता तो वे तेजस्वी की ताजपोशी करवाने राजी भी हो जाते किंतु उस संभावना के कमजोर पड़ते ही उन्होंने मुख्यमंत्री पद न छोड़ने का मन बना लिया। आज त्यागपत्र देने के बाद नीतीश ने आरोप लगाया कि राजद के मंत्री काम नहीं कर रहे थे , इसलिए उन्होंने महागठबंधन तोड़ दिया परंतु इस अलगाव का सबसे बड़ा कारण यह है कि लालू परिवार के अनेक सदस्य ईडी और सीबीआई के शिकंजे में हैं । और कब किसकी गिरफ्तारी हो जाए कोई नहीं जानता। ऐसा होने पर उनकी और सरकार दोनों की छवि खराब होती । नीतीश को ये बात अच्छी तरह पता है कि भले ही लगातार पलटी मारने के कारण उनको पलटूराम कहा जाने लगा हो किंतु भ्रष्टाचार के मामले में वे आज भी बेदाग हैं और यही उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। भाजपा ने भी उनकी इसी खासियत के कारण न चाहते हुए भी एक बार फिर गले लगाया। ये बात भी सही है कि शुरुआत में नीतीश को बिहार की सत्ता के उच्च शिखर पर पहुंचाने में भाजपा ही बतौर सीढ़ी काम आई। लालू के साथ तो उनका गठजोड़ केंद्र की राजनीति में श्री मोदी के प्रवेश की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ किंतु उसे छोड़कर भी वे एक बार भाजपा के साथ लौटे थे। दरअसल आज के नीतीश में वह दमखम नहीं रहा गया था कि वे लालू कुनबे के दबाव को झेल पाते । ऐसे में उन्हें अपने बचे हुए राजनीतिक जीवन में सुरक्षित ही नहीं सम्मानजनक स्थिति की जरूरत थी जिसके लिए भाजपा ही सर्वोत्तम विकल्प था जो बिहार में वह एक बड़ी वैकल्पिक ताकत बन चुकी है । और उसे भी जातीय समीकरणों के लिहाज से किसी बड़े चेहरे की जरूरत थी जो नीतीश से बेहतर दूसरा नहीं हो सकता था। नीतीश के इस कदम ने भाजपा को चिंता से उबार लिया है वहीं लालू के साथ ही कांग्रेस और अंततः इंडी गठबंधन के लिए अपशकुन उत्पन्न कर दिया । बिहार में हुए परिवर्तन के बाद लालू और उनके परिवार से सत्ता रूपी सुरक्षा चक्र छिन गया है। इसके बाद जांच एजेंसियों को उनकी घेराबंदी करना आसान हो जाएगा । दूसरी तरफ इंडी गठबंधन में भी तेजस्वी की वजनदारी हल्की हो जायेगी। राजद के अनेक नेता सुरक्षित भविष्य की तलाश में अब भाजपा या जद (यू) में संभावनाएं तलाश सकते हैं। भाजपा के हाथ में उ.प्र से सटा एक बड़ा राज्य और आ आने से झारखंड , प.बंगाल और उड़ीसा में भी एनडीए को जबरदस्त लाभ होना तय है। कांग्रेस के लिए ये बदलाव बड़ा धक्का है क्योंकि अब ये आवाज चारों तरफ से उठने लगी है कि विपक्षी गठबंधन के मजबूत न होने के लिए राहुल गांधी का लापरवाह रवैया ही जिम्मेदार है। जिन्होंने न्याय यात्रा निकालने के पहले इंडी के घटक दलों से कोई सहमति नहीं ले। बीते दो - तीन दिनों के भीतर इस गठबंधन को जिस तरह के झटके लगे हैं उनसे ये आशंका मजबूत होती जा रही है कि लोकसभा चुनाव आते - आते तक विपक्षी दलों की एकता में और भी दरारें आएंगी। हो सकता है न्याय यात्रा खत्म होते - होते कुछ और धक्के इस गठबंधन को लग जाएं क्योंकि इसमें शामिल दलों में न साम्यता और न ही समन्वय।
- रवीन्द्र वाजपेयी
Friday 26 January 2024
भारतीयता के प्रति समर्पित नेतृत्व के हाथों में ही देश सुरक्षित रह सकता है
Thursday 25 January 2024
विपक्षी एकता का गुब्बारा फूलने से पहले ही फूटने के कगार पर
Tuesday 23 January 2024
भारत रत्न ने याद दिलाया कोई कर्पूरी ठाकुर भी थे !
राम मंदिर : सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में जन जाग्रति का प्रतीक
अयोध्या स्थित राम मंदिर में प्राण - प्रतिष्ठा का महोत्सव न सिर्फ भारत अपितु समूचे विश्व में जिस उत्साह से मनाया गया वह निश्चित रूप से ऐतिहासिक कहा जाएगा । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उक्त अवसर पर अपने उद्बोधन में सही कहा कि आने वाले एक हजार सालों बाद भी 22 जनवरी 2024 की तिथि लोगों को इस महान दिवस की याद दिलाती रहेगी। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि प्राण - प्रतिष्ठा का आयोजन अपनी भव्यता के लिए तो विश्व भर में चर्चा का विषय बना ही लेकिन उसके साथ अरबों सनातन धर्मियों को उसने भावनात्मक तौर पर भी जोड़ दिया। आयोजन के पहले देश के ज्यादातर विपक्षी दलों ने तरह - तरह के बहाने बनाकर उसका बहिष्कार किया। वामपंथी मानसिकता के बुद्धिजीवियों और पत्रकारों ने भी राम मंदिर के शुभारंभ को लेकर अनर्गल बातें कीं। यहां तक कि सनातन परंपरा के सबसे बड़े धर्माचार्य शंकराचार्यों द्वारा भी इस आयोजन में रीति - रिवाजों का पालन न किए जाने के आधार पर उससे दूरी बनाए रखने की घोषणा करने के साथ ही जिस तरह की बयानबाजी की उसके कारण अप्रिय स्थिति बन गई। इस विवाद का सबसे दुखद पहलू ये रहा कि पहली बार आम जनता द्वारा शंकराचार्यों के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणियां की गईं। यद्यपि उनके एतराज के बाद भी राम जन्मभूमि न्यास के आमंत्रण पर सनातन धर्म से जुड़े तमाम प्रमुख संत,महात्मा तो प्राण - प्रतिष्ठा समारोह में शामिल हुए ही लेकिन उनके अलावा जैन , सिख और बौद्ध धर्मगुरु भी कल अयोध्या में इस ऐतिहासिक पल के साक्षी रहे। एक - दो मुस्लिम धार्मिक हस्तियां भी नजर आईं। उद्योग, मनोरंजन , क्रीड़ा , साहित्य जैसे विभिन्न क्षेत्रों के नामचीन चेहरे जिस उत्साह के साथ प्राण - प्रतिष्ठा समारोह में नजर आए वह अपने आप में बहुत कुछ कह गया। सुरक्षा प्रबंधों को दुरस्त रखने के अलावा अव्यवस्था को रोकने के लिए आयोजन स्थल पर केवल 8 हजार आमंत्रित जनों की ही उपस्थिति रखी गई । लेकिन न सिर्फ भारत अपितु दुनिया भर में जिस तरह से उक्त आयोजन का सीधा प्रसारण टेलीविजन के साथ ही इंटरनेट के जरिए विभिन्न संचार माध्यमों पर देखा गया , वह अपने आप में एक कीर्तिमान तो है ही किंतु वह इस बात का प्रमाण भी है कि इस मंदिर के निर्माण से सनातन और हिंदुत्व के प्रति दुनिया भर में नए सिरे से रुचि पैदा हुई है । वरना दुबई के बुर्ज खलीफा , पेरिस की ईफिल टॉवर और न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर जैसे विश्व प्रसिद्ध स्थानों पर अयोध्या के पूरे समारोह का सीधा प्रसारण न दिखाया जाता। अनेक देशों के राजनेताओं ने अपने यहां स्थित हिन्दू मंदिरों में जाकर भारत के प्रति अपना लगाव प्रदर्शित किया। इस आयोजन का विराट स्वरूप और सफलता मंदिर की व्यवस्था देख रहे न्यास के अलावा प्रधानमंत्री श्री मोदी और उ.प्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उस समन्वित सोच का परिणाम है जिसने अयोध्या को देखते - देखते देश के सबसे सुंदर और सुविधा संपन्न नगरों की सूची में स्थान दिलवा दिया। इसी तरह सनातन संस्कृति के अभूतपूर्व पुनर्जागरण के तौर पर समाज के प्रत्येक वर्ग ने बीते दो दिनों में जिस उमंग और उत्साह से राम मंदिर में प्राण - प्रतिष्ठा को राष्ट्रीय पर्व का स्वरूप प्रदान किया वह सामाजिक समरसता का संदेश वाहक बन गया। देश के प्रत्येक हिस्से में जिस प्रकार का हर्षोल्लास देखा गया उसने पूरी दुनिया को यह एहसास करवा दिया कि भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में जो जन जाग्रति आई है वह वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहेगी। रास्वसंघ के सरसंघचालक डा.मोहन भागवत ने उक्त आयोजन में सही कहा कि राम मंदिर , राष्ट्र मंदिर है। प्रधान मंत्री श्री मोदी ने यही समय है , सही समय है जैसी बात कहकर भारत के आत्मविश्वास का प्रकटीकरण तो किया ही लेकिन उन्होंने देव से देश और राम से राष्ट्र तक का जो संदेश दिया वह सही मायनों में इस भव्य आयोजन की परिणिति है। कोरोना नामक महामारी से लड़ने के लिए प्रधानमंत्री ने जब एक दिन के जनता कर्फ्यू का आह्वान किया तब लोगों को उसका उद्देश्य समझ नहीं आया था। उसके बाद उन्होंने देशवासियों से शंख और घंटे बजाने के साथ ही घरों पर दीपमालिका का आग्रह किया । उस समय भी उसका मजाक उड़ाने वाले कम नहीं थे किंतु उक्त दोनों प्रयोग सफल रहे । उसके जरिए प्रधानमंत्री ने लोगों में एकजुटता और विश्वास का जो संचार किया उसी के कारण लॉक डाउन जैसी असुविधाजनक स्थिति में भी अनुशासन और व्यवस्था बनी रही। राम मंदिर में प्राण - प्रतिष्ठा के जरिए भी उसी तरह का सामंजस्य और एकजुटता का संचार हुआ है। जिसका लाभ देश को एकजुट रखने में मिलेगा ये विश्वास किया जा सकता है।
-रवीन्द्र वाजपेयी
Monday 22 January 2024
भारत के नए विश्वास की प्राण प्रतिष्ठा
Saturday 20 January 2024
उत्साह , उमंग और हर्ष के चरमोत्कर्ष से पूरा देश राम मय हो गया
इसके पहले भारत में किसी तिथि की इतनी बेसब्री से प्रतीक्षा 15 अगस्त 1947 की ही की गई होगी , जिस दिन देश को सैकड़ों सालों की गुलामी के बाद आजादी मिलने वाली थी। तीन चौथाई सदी के बाद देश एक बार फिर प्रतीक्षारत है। अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा को मात्र 2 दिन शेष हैं। सर्वत्र अभूतपूर्व उत्साह , उमंग और हर्ष का चरमोत्कर्ष है। यह वातावरण प्रभु श्री राम के लंका विजय के उपरांत अयोध्या लौटने के पूर्व वहां के निवासियों की मनःस्थिति का जीवंत आभास करवा रहा है। लेकिन यह हर्षोल्लास अयोध्या या भारत की सीमाओं को तोड़कर विश्वव्यापी है। अनेक देशों में बसे हिन्दू धर्मावलंबी तो राम मंदिर में प्राण - प्रतिष्ठा को लेकर उत्साहित हैं ही ,अनेक ऐसे देश भी इसमें सहभागिता दे रहे हैं जो अन्य किसी धर्म का पालन करते हैं । यह इस बात का प्रमाण है कि श्री राम की स्वीकार्यता पूरे विश्व में है। उस दृष्टि से 22 जनवरी 2024 की तिथि विश्व इतिहास में सदा के लिए अमर रहेगी। राम मंदिर के निर्माण में किस - किस का योगदान रहा ये इस समय सोचने का कोई अर्थ नहीं है। 1949 में बाबरी ढांचे में मूर्तियों के प्रकटीकरण से लेकर अब तक जो कुछ भी घटा वह तो नई पीढ़ी को ज्ञात हो जाता है किंतु बीते सैकड़ों सालों में हजारों ज्ञात -अज्ञात लोगों ने राम जन्मभूमि पर मुस्लिम शासकों के संरक्षण में कब्जा कर जो ढांचा खड़ा किया , उसको हटाने के लिए अपना बलिदान दिया । उस दृष्टि से आने वाली 22 जनवरी उन राम भक्तों के सपनों के साकार होने का दिन होगा । भारत जैसे हिन्दू बहुल देश में प्रभु श्री राम की जन्मस्थली को मुक्त करवाने में जिस तरह के अवरोध उत्पन्न किए गए वे अकल्पनीय हैं । यदि सोमनाथ के साथ ही राम जन्मभूमि का मसला भी तत्कालीन नेहरू सरकार सुलझा लेती तब शायद इसे लेकर राजनीति करने का किसी को अवसर नहीं मिलता । लेकिन दुर्भाग्य है कि देश की बहुसंख्यक आबादी के आराध्य श्री राम की जन्मभूमि को मुगलकालीन अवैध कब्जे से मुक्त करवाने का कार्य अदालत के फैसले से संभव हो सका। और वह प्रक्रिया भी बरसों नहीं दशकों तक चली। यह भी कम दुखद नहीं है कि उस फैसले के बाद भी मंदिर निर्माण में अड़ंगे लगाने वाले विघ्नसंतोषी अपनी हरकतों से बाज नहीं आए। यहां तक कि प्राण - प्रतिष्ठा के ऐतिहासिक आयोजन की पूरी तैयारियां हो जाने के बाद भी उसे विफल करवाने में एक वर्ग जी जान से जुटा है। कुछ धर्माचार्य भी इस मुहिम में शामिल हो गए हैं। हिन्दू समाज की इसी चारित्रिक कमजोरी के कारण देश ने लगातार विदेशी आक्रमण सहने के बाद सैकड़ों सालों की गुलामी सही। स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार संसद में कहा था कि राम मंदिर का निर्माण राष्ट्रीय स्वाभिमान का मुद्दा है। उनका वह वक्तव्य सही मायने में एक संदेश था जिसमें राजनीति नहीं थी। सही बात तो ये है कि राम मंदिर का विरोध करने वालों ने ही इसे वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बना दिया। कांग्रेस और अन्य कुछ दल मुस्लिम मतों के कारण इस मुद्दे पर हिंदुओं के न्यायोचित दावों की अनदेखी करते रहे। प्रतिक्रिया स्वरूप इस मामले ने दूसरा मोड़ ले लिया । सबसे बड़ी बात ये हुई कि बाबरी ढांचे की तरफदारी मुस्लिम धर्मगुरुओं के साथ ही साथ धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार बने हिन्दू नेतागण भी करते रहे । इससे हिन्दू जनमानस में रोष उत्पन्न हुआ । निश्चित रूप से भाजपा ने इसका लाभ उठाया और वह मुख्यधारा की पार्टी बनने के बाद देश की सत्ता पर काबिज हो गई। राम मंदिर का श्रेय उसे न मिल पाए इसके लिए उसके राजनीतिक और वैचारिक विरोधियों ने हर संभव प्रयास किए जिन्हें षडयंत्र भी कहना गलत नहीं होगा। लेकिन उनका विरोध जितना तीव्र हुआ भाजपा को उतना ज्यादा लाभ मिलता गया। प्राण - प्रतिष्ठा के ऐतिहासिक आयोजन को रोकने और धर्म विरोधी साबित करने के लिए जो कुछ भी किया जा रहा है वह जितना हास्यास्पद है , उतना ही दुखद भी। लेकिन ये परम संतोष का विषय है कि देश के जनमानस ने आधुनिक मंथराओं को पूरी तरह तिरस्कृत कर दिया है। यहां तक कि कतिपय धर्माचार्यों की आपत्तियों का संज्ञान भी नहीं लिया जा रहा। यह बात भी बेहद उत्साहवर्धक है कि देश भर में फैले लाखों सनातनी धर्मगुरु , पंडित , पुरोहित और कथावाचक पूरे प्राण - प्रण से 22 जनवरी के आयोजन को भव्य और अविस्मरणीय बनाने में जुटे हुए हैं । देश का प्रत्येक कोना इन दिनों राम मय हो गया है। इतना बड़ा चमत्कार दैवीय कृपा से ही हो सकता है। ऐसे में जो लोग प्राण - प्रतिष्ठा के आयोजन को विफल करना चाह रहे हैं वे भारतीय जनमानस को पढ़ने में बुरी तरह विफल हैं। उनके इसी आचरण की वजह से वे जनता की निगाह से उतरते चले गए और बची खुची कसर आगामी लोकसभा चुनाव में पूरी हो जाएगी।
- रवीन्द्र वाजपेयी
Friday 19 January 2024
मोरबी के बाद गुजरात सरकार सतर्क होती तो वडोदरा में इतनी जानें न जातीं
वडोदरा में एक विद्यालय के बच्चे शिक्षकों के साथ स्थानीय हरणी झील में नौका विहार कर रहे थे। मोबाइल से सेल्फी लेते समय कुछ बच्चे एक तरफ जमा हो गए जिससे संतुलन बिगड़ा और नाव पलट गई। एक दर्जन से ज्यादा बच्चे और 2 शिक्षक काल के गाल में समा गए। यद्यपि 10 बच्चों और 2 शिक्षकों को बचा लिया गया। नाव के असंतुलित होकर पलट जाने को दुर्घटना का कारण बताया जाना तो समझ में आता है किंतु नौका में बैठे किसी भी बच्चे और शिक्षक का लाइफ जैकेट नहीं पहने होना निश्चित रूप से दुखद है। विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों के अनुभवहीन होने की बात तो स्वाभाविक है किंतु उनके साथ गए शिक्षकों द्वारा लाइफ जैकेट पहनने का ध्यान न रखा जाना भी अव्वल दर्जे की लापरवाही है। उससे भी बड़ी गलती उक्त झील में नाव चलाने वाली एजेंसी या ठेकेदार की मानी जानी चाहिए। जो जानकारी आई उसके मुताबिक हरणी झील वडोदरा नगर निगम के अधीन है। जाहिर है उसमें नौका विहार का ठेका होता होगा। लेकिन सुरक्षा प्रबंधों की जांच करना निगम अधिकारियों के साथ ही प्रशासन का भी दायित्व है। अक्सर देखने में आया है कि इस तरह के स्थानों पर नाव में बैठने वाला कोई व्यक्ति लाइफ जैकेट के लिए जिद करता है तो उसे दे दी जाती है किंतु वह भी उसकी हैसियत देखकर। जिस एजेंसी या व्यक्ति को उक्त झील में नाव चलाने का ठेका दिया गया होगा उसमें लाइफ जैकेट की शर्त जरूर जुड़ी होगी किंतु नगर निगम और स्थानीय प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारियों को इस तरफ देखने की फुरसत भी नहीं मिली । निश्चित तौर पर इस अनदेखी के लिए ठेकेदार से किसी न किसी रूप में उन्हें सौजन्य भेंट प्राप्त होती होगी। प्रारंभिक जांच के बाद बताया गया कि 15 सवारियों की क्षमता वाली नाव में दोगुने लोगों का बैठना भी दुर्घटना का कारण बना। सरकारी परंपरानुसार मृतकों के परिवारजनों को मुआवजा और घायलों को सहायता राशि की घोषणा कर दी गई। उल्लेखनीय है अक्टूबर 2022 में गुजरात के ही मोरबी में एक पुल पर स्वीकृत संख्या से ज्यादा पर्यटकों के जमा होने से वह टूट गया था जिसमें 140 से ज्यादा लोग मारे गए। ब्रिटिशकाल के उस पुल को मरम्मत के बाद लोगों के लिए खोला गया था किंतु उसके लिए तकनीकी अनापत्ति नहीं ली गई और क्षमता से ज्यादा लोगों के आ जाने से वह टूटा । उक्त पुल पर लोग टिकिट खरीदकर नदी का मनोरम दृश्य देखने आते थे। इसका भी बाकायदा ठेका होता है । सुधार कार्य के लिए कुछ समय के लिए बंद किए जाने के बाद जब पुल को जनता के लिए दोबारा शुरू किया गया तब ये देखने की जरूरत ही नहीं समझी गई कि काम ठीक तरीके से हुआ अथवा नहीं। वडोदरा की झील में दर्दनाक हादसा भी ठेकेदार की लापरवाही के साथ ही प्रशासन की उदासीनता का दुष्परिणाम है। क्षमता से दोगुनी सवारियां बिठाने के बावजूद यदि उनको लाइफ जैकेट पहना दी जाती तब नाव पलटने के बाद भी ज्यादातर लोगों को बचाया जा सकता था। दुर्भाग्य ये है कि इस तरह की घटनाओं को रोकना जिनकी जिम्मेदारी है वे सभी अव्वल दर्जे के भ्रष्ट और निकम्मे हैं। वडोदरा की ताजा घटना ने अनेक सवाल खड़े कर दिए हैं। जहां - जहां नाव का उपयोग होता है वहां उसके डूबने या पलटने के खतरे को रोकने के इंतजाम कानूनी अनिवार्यता होना चाहिए । साथ ही जो भी लोग इन दुर्घटनाओं के लिए दोषी पाए जाएं उनको इतना कड़ा दंड दिया जाए जिससे कि इस तरह के कार्यों में लगे बाकी लोग सजा के नाम से डरने लगें। मौजूदा जो चलन है उसमें कसूरवारों को बचाने के लिए सत्ताधारी नेता और बड़े नौकरशाह सक्रिय भूमिका निभाते हैं परंतु अपने थोड़े से लाभ के लिए लोगों की जिंदगी छीन लेने वाले को तो हत्यारा ही कहा जाएगा और उसे उसी के अनुरूप सजा भी मिलनी चाहिए। मरने वालों और घायलों को मुआवजा देना तो जायज भी है और जरूरी भी लेकिन ऐसा करने के साथ ये भी उतना ही जरूरी है कि इस तरह की दुर्घटनाओं को रोकने के प्रति पूरी तरह सावधानी रखी जाए और जिस तरह वी.आई.पी सुरक्षा के प्रति शासन और प्रशासन मुस्तैद रहते हैं वैसी ही सतर्कता आम जनता के बारे में भी रखी जाए । संदर्भित घटना में प्राथमिक गलती तो उस ठेकेदार की है जिसके पास नौका विहार का काम था । लेकिन वडोदरा नगर निगम के उन अधिकारियों को भी कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए जिनके पास झील संबंधी व्यवस्थाओं का प्रभार था। ठेके पर दिए जाने वाले काम में नौकरशाही द्वारा जो अनुचित लाभ लिए जाते हैं उसके बदले ठेकेदार को नियम विरुद्ध काम करने की छूट दे दी जाती है। प्रत्येक घटना के बाद कुछ दिन तो सब चाक - चौबंद रहता है किंतु जल्द ही पुराना ढर्रा लौट आता है। मोरबी की घटना के बाद गुजरात सरकार ने अगर ऐसे स्थानों पर जहां लोग आमोद - प्रमोद हेतु एकत्र होते हों , सुरक्षा प्रबंधों को लागू करने के प्रति सावधानी बरती होती तब शायद वडोदरा में इतने लोगों की जान न जाती।
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रवीन्द्र वाजपेयी
Thursday 18 January 2024
पाकिस्तान अपने ही बनाए जाल में खुद फंसता जा रहा
Wednesday 17 January 2024
1990 वाली गलती 2024 में भी दोहरा रहा विपक्ष
Tuesday 16 January 2024
सनातन धर्म के धर्माचार्यों के बीच सामंजस्य बेहद जरूरी
शंकराचार्य का पद बेहद सम्मानित है किंतु जब वे गद्दी के लिए एक दूसरे पर व्यक्तिगत आरोप लगाते हैं तब इस पद की गरिमा कम होती है। ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य को लेकर ब्रह्मलीन स्वामी स्वरूपानंद जी और स्वामी वासुदेवानंद जी के बीच मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय तक गया जिसने फैसला स्वरूपानंद जी के पक्ष में दिया। उनकी मृत्यु के बाद स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी को उनका उत्तराधिकारी बनाने के घोषणा हुई जिस पर वासुदेवानंद जी ने आपत्ति उठाते हुए खुद को उस पीठ का शंकराचार्य घोषित कर दिया। यही नहीं तो गोवर्धन पीठ के जगद्गुरु स्वामी निश्चलानंद जी ने भी उनकी नियुक्ति पर ऐतराज जताया। ये मामला भी अदालत में गया। यहां तक कि अविमुक्तेश्वरानंद जी की जाति पर भी सवाल उठा दिए गए। दुख की बात ये है कि जो धर्माचार्य स्वयं को सनातन धर्म का सबसे बड़ा संरक्षक और प्रवक्ता बताते हैं वे पदवी और उससे जुड़ी धन - संपत्ति का अधिकार पाने के लिए अदालत में शपथपत्र दाखिल करते हैं। होना तो ये चाहिए कि सनातन धर्म के धर्माचार्यों के बीच होने वाले इस प्रकार के विवादों का हल करने के लिए धर्म संसद या अखाड़ा परिषद जैसी किसी संस्था के निर्णय को अंतिम माना जाए। उल्लेखनीय है स्वामी स्वरूपानंद जी और वासुदेवानंद जी के शिष्य भी आपस में बंटे हुए थे। हाल ही में निश्चलानंद जी ने भी शंकराचार्यों की बढ़ती संख्या पर नाराजगी व्यक्त की थी। कुंभ मेले में महामंडलेश्वर का पद प्राप्त अनेक साधु - संन्यासी विवादग्रस्त हुए। आद्य शंकराचार्य ने मूल रूप से चार पीठ बनाई थीं। कालांतर में धर्म प्रचार की सुविधा और बेहतर प्रबंधन को ध्यान रखते हुए अनेक उप पीठ बनाई गईं। लेकिन इसकी आड़ में अनेक स्वयंभू शंकराचार्य भी पनपे जिनकी प्रामाणिकता को लेकर प्रमुख धर्माचार्य भी आपस में उलझते रहे। यहां तक कि कुंभ मेले के दौरान स्थान आवंटन के अलावा शाही स्नान जैसे अवसरों पर महत्व को लेकर मतभेद अप्रिय रूप ले लेते हैं। कहने का आशय ये कि सांसारिक मोह - माया को त्यागने का उपदेश देने वाले साधु - संत भी जब साधारण लोगों की तरह आरोप - प्रत्यारोप में उलझ जाते हैं तो उससे उनके प्रति श्रद्धा में कमी आती है। जगद्गुरु संबोधन ही अपने आप में सम्मान का भाव उत्पन्न करने वाला होता है परंतु जब इस पद को हासिल करने के लिए भी होड़ मचती है तब इसकी प्रतिष्ठा में ह्रास होना स्वाभाविक है । और इस पदवी से वंचित रह जाने वाले जब अपनी कुंठा व्यक्त करते हैं तब उनमें और एक साधारण इंसान के बीच का फर्क समाप्त हो जाता है। वर्तमान में राम जन्मभूमि पर निर्मित मंदिर के शुभारंभ समारोह में नहीं जाने को लेकर शंकराचार्य काफी चर्चाओं में हैं। उनमें से एक दो खुलकर बयानबाजी भी कर रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि 22 जनवरी को अयोध्या में होने जा रहे आयोजन में नहीं जाने के लिए चारों मुख्य शंकराचार्य एक मत हैं। लेकिन इनके बीच की ये एकता भी इस विशिष्ट मुद्दे पर तो नजर आ रही है किंतु जो मतभेद अन्य मुद्दों पर उनके बीच हैं क्या वे भी इसी तरह सुलझ जायेंगे ये बड़ा सवाल है। बीते कुछ दिनों में शंकराचार्य जिस प्रकार राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरे वह इस लिहाज से अच्छा है कि समस्त प्रमुख धर्माचार्य पूरी तरह सक्रिय हैं। अन्यथा सोशल मीडिया पर ये सवाल तेजी से उठाए जा रहे हैं कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर ये मौन ही रहते हैं। धार्मिक विषयों पर हुए अनेक आंदोलनों में शंकराचार्यों की अनुपस्थिति को लेकर भी आलोचनात्मक टिप्पणियां सुनाई दे रही हैं। ऐसे में अब ये जरूरी हो गया है कि सनातन धर्म से जुड़े जितने भी प्रमुख धर्माचार्य हैं वे सब आपसी तालमेल बनाएं और किसी भी बड़े मामले में अपनी राय समय रहते दें। राम मंदिर के मामले में बात जब मूर्तियां रखने तक आ गई तब आपत्तियां व्यक्त करने से विशाल हिंदू समाज पक्ष - विपक्ष में विभाजित होने लगा है। लोगों में इस बात की चर्चा है कि शंकराचार्य एक ऐतिहासिक आयोजन के विरोध में मात्र इसलिए एकजुट हो गए क्योंकि उन्हें उनकी अपेक्षानुसार महत्व नहीं मिला। अब एक बात तो तय है कि 22 जनवरी का कार्यक्रम यथावत रहेगा और ये भी कि इसमें शामिल न होकर चारों प्रमुख शंकराचार्य फिलहाल तो अलग - थलग पड़ जायेंगे क्योंकि हिन्दुओं का बहुमत इस आयोजन से उत्साहित और प्रफुल्लित है। हालांकि ये स्थिति अच्छी इसलिए नहीं है क्योंकि सनातन विरोधी मानसिकता वाले वर्ग को इस विवाद के बहाने अपना उल्लू सीधा करने का अवसर मिल रहा है। सबसे बड़ी बात ये है कि शंकराचार्यों द्वारा व्यक्त जी जा रही आपत्तियों को सभी धर्मगुरुओं का समर्थन नहीं मिल रहा।
- रवीन्द्र वाजपेयी
Saturday 13 January 2024
विपक्षी गठबंधन में टकराहट के बीच राहुल का यात्रा निकालना नुकसानदेह
कांग्रेस नेता राहुल गांधी कल मकर संक्रांति से भारत जोड़ो यात्रा का द्वितीय चरण प्रारंभ करने जा रहे हैं। 20 मार्च को इसका मुंबई में समापन होगा। इसे भारत जोड़ो न्याय यात्रा नाम दिया गया है । कांग्रेस को लगता है कि मणिपुर से मुंबई तक की इस यात्रा से उसे लोकसभा चुनाव में लाभ होगा । पिछली यात्रा के बाद उसे हिमाचल , कर्नाटक और तेलंगाना में सफलता मिली थी। लेकिन छत्तीसगढ़ और राजस्थान उसके हाथ से खिसक गए। म.प्र में यद्यपि भाजपा काबिज थी किंतु कांग्रेस ये हवा फैलाने में कामयाब हो गई थी कि प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर है। लेकिन परिणाम आए तो उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। उसके बाद कहा जाने लगा कि भाजपा उत्तरी भारत और कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल दक्षिणी राज्यों में मजबूत हैं। ये बात भी सामने आई कि न्याय यात्रा के मार्ग में आने वाले ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस सत्ता से बाहर है। कुछ में क्षेत्रीय दलों के साथ वह सरकार में शामिल तो है किंतु उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। ऐसे में यात्रा से किसे मजबूती मिलेगी ये सवाल उठ रहा है। जो क्षेत्रीय दल भाजपा विरोधी हैं वे भी कांग्रेस की ताकत बढ़ने देना नहीं चाहेंगे। तेलंगाना में के.सी.राव के सत्ता से बाहर हो जाने पर अन्य क्षेत्रीय दल भी चौकन्ने हो गए हैं। उल्लेखनीय है उक्त राज्य के चुनाव में कांग्रेस ने श्री राव पर भाजपा की बी टीम होने का खूब प्रचार किया। हालांकि बीआरएस, इंडिया गठबंधन का हिस्सा नहीं थी किंतु भाजपा से भी उसकी दुश्मनी खुलकर सामने आ गई थी। ऐसे में कांग्रेस के साथ गठबंधन में शरीक क्षेत्रीय पार्टियां अपने प्रभाव की कीमत पर कांग्रेस के उत्थान को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं करेंगी। प.बंगाल से इसके संकेत मिलने भी लगे हैं। ममता बैनर्जी भले ही इंडिया गठबंधन में हैं किंतु अपने राज्य में वे कांग्रेस और वामपंथी दलों को मात्र 2 सीटें देने पर अड़ी हुई हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी दीदी और मोदी के बीच अदृश्य गठबंधन की बात उछालकर तृणमूल और भाजपा के बीच गुप्त समझौते का आरोप खुले आम लगा रहे हैं। इसी का परिणाम है कि आज इंडिया गठबंधन के नेताओं की जो आभासी ( वर्चुअल ) बैठक चल रही है उससे ममता ने दूरी बना ली है। नीतीश कुमार को गठबंधन का संयोजक बनाए जाने की अटकलों से भी वे नाराज हैं। यहां तक कि नीतीश भी बैठक में शामिल नहीं हुए।इस माहौल में यदि श्री गांधी मणिपुर से मुंबई तक क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले राज्यों के बड़े हिस्से से गुजरेंगे तब इंडिया गठबंधन के सदस्य होने के बाद भी वे उनको अपेक्षित सहयोग देंगे , इसमें संदेह है। और फिर ऐसे समय जब गठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर टांग खिचौवल चल रही हो तब श्री गांधी का यात्रा पर निकल जाना रणनीतिक दृष्टि से भी बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं लगता। कांग्रेस को ये देखना और सोचना चाहिए कि भाजपा ने पांच राज्यों के चुनावों से फुरसत होने के बाद एक दिन भी व्यर्थ नहीं गंवाया और लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गई। जिन सीटों पर वह 2019 में हारी थी उनके उम्मीदवार वह जल्द घोषित करने के संकेत दे रही है । इसी तरह जिन राज्यों में कमजोर है उनमें भी उसने मोर्चेबंदी शुरू कर दी है। इसके विपरीत कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर उठने वाले मुद्दों पर अपनी नीति स्पष्ट करने असमर्थ नजर आ रही है। इसका सबसे नया उदाहरण राममंदिर के शुभारंभ पर अयोध्या में आयोजित समारोह में शामिल न होने का निर्णय लेने में किया गया विलंब है। इसके कारण पार्टी का एक बड़ा वर्ग अपने को असहज महसूस कर रहा है। कुछ ने खुलकर शीर्ष नेतृत्व के फैसले को आत्मघाती बताने में हिचक नहीं की। राहुल को यद्यपि न्योता ही नहीं मिला किंतु इस ज्वलंत विषय पर वे स्पष्ट रूप से कुछ नहीं बोल सके। ऐसे में आवश्यकता इस बात की थी कि वे बजाय सवा दो महीनों की लंबी यात्रा निकालने के , गठबंधन के घटक दलों के बीच सामंजस्य बिठाने का काम करते, जिनके बीच वैचारिक मतभेद और महत्वाकांक्षाओं का टकराव सर्वविदित है। केवल भाजपा को हराने के उद्देश्य से वे सब एक साथ आए हैं। और सीटों का बंटवारा ही उनकी एकमात्र रणनीति है। कहने को सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे गठबंधन के सदस्यों के बीच तालमेल स्थापित करने में जुटे हैं। लेकिन इस महत्वपूर्ण कार्य में राहुल की अन्मयस्कता के कारण ही प्रधानमंत्री पद के लिए उनके नाम को आगे किए जाने के लिए कोई सहयोगी दल सामने नहीं आया। पिछली बैठक में ममता ने श्री खरगे का नाम उछालकर एक तरह से श्री गांधी की किरकिरी करवा दी। लोकसभा चुनाव की रणनीति तय करने के समय उनका दिल्ली से दूर रहना कांग्रेस और गठबंधन दोनों ही लिए नुकसान का सौदा हो सकता है। वैसे भी म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बुरी तरह हारने के बाद से कांग्रेस को लेकर उसके समर्थक वर्ग में ही जबर्दस्त निराशा है।
- रवीन्द्र वाजपेयी
Friday 12 January 2024
स्वच्छता सर्वेक्षण के अच्छे परिणाम किंतु अभी बहुत कुछ करना जरूरी
राष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षण के परिणाम गत दिवस घोषित हो गए जिनमें म.प्र के इंदौर शहर ने एक बार फिर बाजी मारी । गुजरात का सूरत नगर भी उसके साथ सह विजेता है क्योंकि दोनों को एक जैसे अंक मिले। सूरत पहले भी देश के सबसे स्वच्छ शहर होने का गौरव हासिल कर चुका था परंतु इंदौर की प्रशंसा करनी होगी जिसने अपने समृद्ध इतिहास , समन्वित सामाजिक जीवन , खान - पान के शौक और व्यवसायिक गतिविधियों के साथ ही स्वच्छता में भी राष्ट्रीय स्तर पर अपना सम्मानजनक स्थान बना लिया। देश के अनेक शहर इस प्रतियोगिता में चमकने के बाद अपना स्थान बरकरार नहीं रख सके । कुछ तो काफी ऊपर रहने के बाद नीचे लुढ़क आए। लेकिन इंदौर ने शिखर पर पहुंचने के बाद उस पर बने रहने का जो कारनामा कर दिखाया उसके लिए वहां की नगर निगम और नेता तो तारीफ के हकदार हैं ही किंतु सबसे ज्यादा श्रेय दिया जाना चाहिए इंदौर वासियों को जिन्होंने स्वच्छता को अपना स्वभाव बना लिया है। वरना शासकीय फरमान और दंड व्यवस्था के बावजूद यदि जनता सहयोग न करे तो इस तरह की सफलता हासिल करना असंभव होता है। जिस तरह स्व . अटल बिहारी वाजपेयी को देश में सड़क क्रांति लाने के लिए याद किया जाता है उसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छता को राष्ट्रीय अभियान बनाकर अभिनंदन योग्य कार्य किया। शुरुआत में उसे चोचलेबाजी समझकर उसका उपहास किया गया किंतु धीरे - धीरे इस अभियान को गंभीरता से लिया जाने लगा । यद्यपि ये कहना तो गलत होगा कि देश ने स्वच्छता के मामले में पूरी तरह सफलता हासिल कर ली है किंतु इस प्रतिस्पर्धा के कारण छोटे - छोटे शहरों तक में जागरूकता और दायित्वबोध दिखाई देने लगा है। इसका उदाहरण उन शहरों की स्थिति में आया सुधार है जिनके दामन पर सर्वेक्षण के शुरुआती सालों में सबसे गंदा होने का दाग लगा। प्रदेशों की राजधानियों को एक बार छोड़ दें किंतु छोटे और मध्यम श्रेणी के शहरों में भी स्वच्छता एक मुद्दा बनने लगा है। रेल गाड़ी के वातानुकूलित डिब्बों में सफर करने वाले तक पहले गंदगी करने से बाज नहीं आते थे , लेकिन अब हालात काफी सुधरे हैं। स्वच्छता की स्थिति को बेहतर करने में घरों से कचरा एकत्र करने की व्यवस्था का भी बड़ा योगदान है। चाट और चाय बेचने वाले ठेले और गुमटी वाले भी डस्टबिन रखने लगे हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि छोटे - छोटे बच्चे भी इस दिशा में प्रेरित हो रहे हैं। लेकिन शहरों से अलग कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी स्वच्छता को लेकर काफी कुछ करने की गुंजाइश है। लोगों को ये समझाना जरूरी है कि स्वच्छता केवल किसी क्षेत्र की सुंदरता नहीं बढ़ाती अपितु उसके वाशिंदों के स्वास्थ्य और मानसिकता को भी प्रभावित करती है। इसके साथ ही देश में पर्यटन की वृद्धि में भी स्वच्छता की बड़ी भूमिका है। भारत उस दृष्टि से काफी पीछे रह जाता है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दारा लक्षद्वीप में पर्यटन की सम्भावना पर की गई टिप्पणी पर मालदीव के कुछ मंत्रियों द्वारा जो कटाक्ष किया गया उसमें गंदगी का भी उल्लेख था। भले ही उस बात ने दूसरा मोड़ ले लिया किंतु जो यथार्थ है उसे तो स्वीकार करना ही होगा। हमारे देश में प्राकृतिक और ऐतिहासिक दोनों ही दृष्टियों से पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं। लेकिन स्वच्छता की कमी की वजह से हम उनका अपेक्षित लाभ नहीं ले पाते। विशाल जनसंख्या के अलावा गरीबी और अशिक्षा भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। बढ़ते शहरीकरण ने पहले तो महानगरों का बोझ बढ़ाया किंतु अब मध्यम श्रेणी के शहर भी उससे प्रभावित होने लगे हैं। इसका असर गंदगी के ढेर बढ़ने के तौर पर देखने मिलने लगा है। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में भी जहां देखो वहां प्लास्टिक बिखरा दिख जाता है। तीर्थस्थलों में आवाजाही बढ़ने से वहां भी स्वच्छता बनाए रखना आसान नहीं है। लेकिन इस अभियान के राष्ट्रव्यापी फैलाव से नई पीढ़ी में जो सुखद बदलाव आया वह उम्मीद जगाने वाला है। हमारा पड़ोसी चीन भारी - भरकम जनसंख्या के बावजूद यदि अन्य विकसित देशों की तरह ही साफ -सुथरा बन सका तो उसमें वहां की जनता का भी योगदान है। यद्यपि हमारे देश में चीन जैसी तानाशाही नहीं है किंतु लोगों के मन में ये बात बिठाने की ज़रूरत है कि वे देश की तरक्की और अपनी बेहतर जिंदगी चाहते हैं तो फिर कुछ शहरों को ही नहीं बल्कि पूरे देश को स्वच्छ रखना जरूरी है। बीते कुछ समय से ग्रामीण पर्यटन को विकसित करने का प्रयास हो रहा है और उसके प्रारंभिक परिणाम भी अच्छे आए हैं। लेकिन इसे पूरी तरह सफल बनाने के लिए स्वच्छता के स्तर को अपेक्षित ऊंचाई तक ले जाना होगा । इस वर्ष सर्वेक्षण के जो परिणाम आए उनमें कुछ नए शहर भी स्वच्छता पायदान में ऊपर आए हैं। चूंकि प्रतिस्पर्धा शहरों की आबादी के पैमाने पर होने लगी है इसलिए छोटे - छोटे शहरों के पास भी राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा और प्रसिद्धि हासिल करने का अवसर है। हमारे देश में निजी स्तर पर तो स्वच्छता का पाठ पढ़ाया जाता है किंतु केवल अपना घर साफ - सुथरा रहे और बाहर गंदगी बिखरी पड़ी हो तो वह स्थिति अच्छी नहीं कही जाएगी। इसलिए स्वच्छता को सामूहिक सोच और संस्कार बनाना पड़ेगा ।
-रवीन्द्र वाजपेयी
Thursday 11 January 2024
विधानसभा अध्यक्ष के निर्णय लेने की समय सीमा तय होनी चाहिए
Wednesday 10 January 2024
22 जनवरी सदियों से दोहराए जा रहे संकल्प के पूरा होने का अवसर होगी
Tuesday 9 January 2024
लक्षद्वीप की प्रशंसा के जरिए मोदी द्वारा मालदीव की रीढ़ पर कड़ा प्रहार
हिन्द महासागर में स्थित द्वीपनुमा देश मालदीव इन दिनों चर्चा में है। कुछ समय पहले वहां चीन समर्थक मोहम्मद मुइज्जू राष्ट्रपति चुन लिए गए। उनके चुनाव प्रचार में भारत विरोध स्पष्ट रूप से झलक रहा था। जबकि पूर्ववर्ती राष्ट्रपति मोहम्मद सोलिह खुलकर भारत के साथ थे। मुइज्जू ने चुनाव जीतने के साथ ही वहां मौजूद भारतीय सैनिकों को वापस बुलाने की मांग कर डाली। दरअसल वहां कुछ ऐसे काम चल रहे हैं जिनके कारण भारतीय सेना के कुछ लोग मालदीव में हैं। हेलीकाप्टर एवं कुछ अन्य उपकरणों के संचालन के लिए दोनों देशों में हुए समझौते के अंतर्गत वे सैनिक वहां पदस्थ हैं । हालांकि ये संख्या इतनी बड़ी नहीं कि उसके आंतरिक मामलों में दखल दे सके। मुस्लिम बहुल मालदीव के साथ भारत के रिश्ते काफी अच्छे रहे। इस देश की मुख्य आय पर्यटन है । यहां के समुद्र तट बेहद खूबसूरत हैं। चूंकि भारत से यह देश करीब है इसलिए यहां से प्रतिवर्ष लाखों सैलानी मालदीव घूमने जाते रहे हैं। अनेक भारतीय फिल्मों की शूटिंग भी यहां हो चुकी है। लेकिन राष्ट्रपति मुइज्जू ने जब भारत विरोधी मोर्चा खोला तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लक्षद्वीप नामक भारतीय टापू की यात्रा के दौरान वहां के समुद्र तट पर घूमते अपने चित्रों के साथ भारतीय सैलानियों को लक्षद्वीप आने की समझाइश देते हुए उसके प्राकृतिक सौंदर्य की प्रशंसा कर डाली। वैसे भी प्रधानमंत्री जहां जाते हैं वहां की खूबियों का बखान करना नहीं भूलते। कुछ समय पहले वे उ.प्र के पिथौरागढ़ में स्थित आदि कैलाश गए थे जहां से तिब्बत स्थित कैलाश पर्वत नजर आता है। उनकी इस यात्रा के चित्र प्रसारित होते ही आदि कैलाश एक नए पर्यटन केंद्र के तौर पर प्रसिद्ध हो गया। 2019 के लोकसभा चुनाव का प्रचार बंद होते ही प्रधानमंत्री केदारनाथ की एक गुफा में जाकर रहे जिसके बाद उस धाम और गुफा दोनों के प्रति रुचि बढ़ी जिसका परिणाम वहां जाने वालों की संख्या में हुई अकल्पनीय वृद्धि के रूप में सामने आया। श्री मोदी ने घरेलू पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए गुजरात में सरदार पटेल की जो स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी बनवाई उस पर हुए खर्च को लेकर तमाम आलोचनाएं हुईं किंतु उस प्रकल्प के पूर्ण होते ही वह स्थान देश के प्रमुख पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित हो गया। वाराणसी में विश्वनाथ और उज्जैन के महाकाल मंदिरों के परिसर का उन्नयन भी कुछ लोगों को रास नहीं आ रहा था किंतु आज उसके चमत्कारिक लाभ देखने मिल रहे हैं। हालांकि श्री मोदी के मन में लक्षद्वीप के पर्यटन को बढ़ावा देने का भाव था या आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर वहां के मतदाताओं को लुभाने की सोच , ये तो वही जानें किंतु उनकी सहज टिप्पणी पर मालदीव की नई सरकार के कुछ मंत्रियों के हल्के स्तर के बयानों के बाद से मालदीव और लक्षद्वीप के बीच प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई। भारत में जिस तेजी से मालदीव के बहिष्कार और लक्षद्वीप के प्रति उत्सुकता उत्पन्न हुई उसने मालदीव की अकड़ ढीली कर दी। राष्ट्रपति मुइज्जू ने चीन की यात्रा पर रवाना होने से पहले ही भारत और मोदी विरोधी टिप्पणी करने वाले तीन मंत्रियों की छुट्टी करते हुए विवाद को ठंडा करने का प्रयास किया किंतु तब तक उसे जो नुकसान होना था वह तो हो ही चुका था। मालदीव जाने वाले भारतीय पर्यटकों द्वारा यात्रा रद्द होने की खबरें आने लगीं। इसी के साथ ही लक्षद्वीप के प्रति जबरदस्त रुझान देखा जाने लगा। अनेक अभिनेताओं और प्रमुख हस्तियों द्वारा मालदीव की बजाय लक्षद्वीप को प्राथमिकता देने की अपील किए जाने से मुइज्जू सरकार सकते में आ गई। भारत सरकार ने भी उनके राजदूत को बुलाकर कड़े शब्दों में समझा दिया। सबसे बड़ी बात ये हुई कि मालदीव के भीतर ही नए राष्ट्रपति के भारत विरोधी रवैए की आलोचना शुरू हो गई। उनको याद दिलाया जाने लगा कि दशकों पहले जब श्रीलंका से चीन की शह पर आए सशस्त्र आतंकवादियों ने मालदीव पर कब्जा कर लिया तब भारतीय सेना ने जाकर ही उनको वहां से भागने मजबूर किया था। कुल मिलाकर इस घटनाक्रम में प्रधानमंत्री श्री मोदी की दूरदर्शिता और भारत की कूटनीतिक दृढ़ता एक बार फिर प्रमाणित हो गई । मालदीव की नई सरकार के भारत विरोधी रुख के जवाब में प्रधानमंत्री ने लक्षद्वीप के समुद्र तट पर टहलते हुए थोड़े शब्दों में जो कुछ कहा उसका इतना बड़ा असर होगा ये किसी ने नहीं सोचा था। राष्ट्रपति मुइज्जू के भारत विरोधी बयानों का सीधा जवाब देने के बजाय उन्होंने मालदीव की पर्यटन रूपी रीढ़ पर प्रहार कर दिया। निश्चित रूप से ये बहुत ही चतुराई भरा दांव था जिसका जबरदस्त असर देखने मिला। भले ही राष्ट्रपति बनने के बाद मुइज्जू सबसे पहले चीन की यात्रा पर गए हों किंतु नई दिल्ली के कड़े रुख के बाद उनको ये तो महसूस हो ही गया होगा कि भारत से ऐंठना उतना सरल नहीं जितना वे समझ बैठे थे।
- रवीन्द्र वाजपेयी
Monday 8 January 2024
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Thursday 4 January 2024
म.प्र के मुख्यमंत्री ने नौकरशाही को औकात बताकर अच्छी शुरुआत की
अक्सर ये बात सुनने में आती है कि अंग्रेज तो चले गए , किंतु अपनी संतानें छोड़ गए। संतानों से आशय अंग्रेजी मानसिकता से प्रेरित और प्रभावित उन व्यक्तियों से है जो आजादी के 76 वर्ष बाद भी मानसिक दासता से ग्रसित हैं। ऐसी ही एक बिरादरी है भारतीय सिविल सेवा में चयनित प्रशासनिक अधिकारियों की। सरकार की विभिन्न शाखाओं में इनकी नियुक्ति होती है, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा में रहते हैं आई.ए.एस और आई.पी.एस अधिकारी । जनता से इनका सीधा जुड़ाव होता है और वह भी रोजमर्रे की जिंदगी से जुड़े कार्यों की खातिर। इन्हें कुछ लोग काले अंग्रेज भी कहते हैं जिसकी वजह आम जनता के प्रति इनका उपेक्षा पूर्ण व्यवहार है । ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि प्रशासन और पुलिस विभाग में बैठे आला अफसरों में आज भी अंग्रेजी ठसक दिखाई देती है जिसके कारण ये तबका श्रेष्ठता के भाव में डूबा रहता है। यद्यपि सभी एक समान नहीं होते । प्रशासन और पुलिस के अनेक अधिकारी आम जनता के साथ बहुत ही सौजन्यता से पेश आते हैं किंतु इस तबके के प्रति आम तौर पर अवधारणा यही है कि ये खुद को विशिष्ट और आम जन को भेड़ - बकरी समझते हैं। इसी मानसिकता के कारण इनका एक अलग वर्ग बन गया है जिसके मन में अंग्रेजी राज की राय बहादुर वाली अकड़ कायम है। किसी काम के लिए आने वाले साधारण व्यक्ति के प्रति इनका व्यवहार देखकर ये कहने के लिए मजबूर हो जाना पड़ता है कि आजादी सिद्धांत के रूप में तो मिल गई किंतु व्यवहार में अभी भी उसका एहसास नहीं होता। हालांकि नौकरशाह नामक इस जमात को इतना उच्छश्रृंखल बनाने के लिए हमारे राजनेता ही जिम्मेदार हैं जो निजी स्वार्थवश इनको जनता के प्रति लापरवाह और अनुदार होने की छूट देते हैं। यदि सत्ताधारी राजनेता ईमानदार और जनता के प्रति समर्पित हों तो आई.ए.एस और आई.पी.एस को ये अनुभव करवा सकते हैं कि वे जनता के नौकर हैं और इसलिए उन्हें मालिक बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से सत्ता में आने के बाद ज्यादातर नेतागण गलत कामों में लिप्त हो जाते हैं जिनमें इन नौकरशाहों की सहायता लिए जाने की वजह से वे इन के कान पकड़ने का साहस नहीं कर पाते। हमारे देश में शासकीय दफ्तरों में जो भ्रष्टाचार और भर्राशाही है।उसका कारण सत्ताधारी नेताओं और इन नौकरशाहों का गठजोड़ ही है। ऐसा नहीं है कि सभी नेता इनके सरपरस्त हों किंतु अधिकतर के बारे में ये कहा जा सकता है। इस लिहाज से म.प्र के नए मुख्यमंत्री डा.मोहन यादव ने विगत दिवस एक साहसिक कदम उठाते हुए शाजापुर के जिला कलेक्टर का इसलिए तबादला कर उनको भोपाल स्थित राज्य सचिवालय में पदस्थ कर दिया क्योंकि एक दिन पूर्व ही हिट एंड रन संबंधी नए कानूनी प्रावधान के विरुद्ध वाहन चालकों की हड़ताल के दौरान हड़ताली चालकों से चर्चा के दौरान कलेक्टर साहब ने एक चालक को गुस्से में ये कह दिया कि तुम्हारी औकात क्या है ? दरअसल कलेक्टर के लहजे पर ऐतराज जताते हुए उस चालक ने कहा था कि आप ठीक से बात कीजिए जिस पर साहब बहादुर तैश में आ गए और चालक से उसकी औकात पूछने की हद तक बढ़ गए। उक्त वार्तालाप का वीडियो भी प्रसारित हो गया। मुख्यमंत्री ने एक वाहन चालक से अभद्र बातचीत करने के दंडस्वरूप कलेक्टर का तत्काल तबादला कर पूरी नौकरशाही को जो संदेश दिया वह निश्चित रूप से स्वागत योग्य है। डा.यादव की ये टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि वे स्वयं एक श्रमिक परिवार से आते हैं इसलिए गरीब का अपमान उन्हें बर्दाश्त नहीं होगा। हालांकि इसके पहले भी इस तरह के तबादले सत्ता में बैठे नेताओं द्वारा किए गए किंतु नौकरशाहों पर उसका खास असर नहीं होता क्योंकि हर बड़ा अधिकारी किसी न किसी नेता का कृपापात्र है। जिन कलेक्टर साहब का मुख्यमंत्री ने तबादला किया वे भी देर सवेर जुगाड़ लगाकर फिर अपनी मनपसंद जगह पहुंच जाएंगे । ये देखते हुए मुख्यमंत्री को ऐसे तेवर बरकरार रखते हुए बाकी मंत्रियों को भी ये हिदायत दे देना चाहिए कि वे नौकरशाहों को मुंह लगाना बंद कर दें। इसका आशय ये भी नहीं है कि आई.ए.एस और आई.पी.एस अधिकारियों को अपेक्षित सम्मान और महत्व न मिले । आखिर शासन उनके बिना चल भी नहीं सकता किंतु उनको ये एहसास तो करवाना ही होगा कि वे आम जनता को गुलाम न समझें।
-रवीन्द्र वाजपेयी
Wednesday 3 January 2024
क्षेत्रीय दलों के सामने राष्ट्रीय दलों की लाचारी लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह
बिहार में छाई राजनीतिक अस्थिरता समाप्त हो पाती उसके पूर्व ही आदिवासी बहुल पड़ोसी राज्य झारखंड में भी सत्ता डगमगाने लगी है। ईडी द्वारा भेजे गए आधा दर्जन समन की उपेक्षा करने के बाद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की अकड़ ढीली होने लगी है। उनको इस बात का डर सता रहा है कि वे गिरफ्तार कर लिए जाएंगे। उस स्थिति में राज्य की सत्ता हाथ से न खिसक जाए इसलिए वे अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। एक विधायक ने अपनी सीट भी खाली कर दी है जिससे वे उपचुनाव जीतकर विधायक बन सकें। स्मरणीय है चारा घोटाले में जेल जाने पर लालू प्रसाद यादव ने भी अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवा दिया था। हालांकि हेमंत अभी गिरफ्तार नहीं हुए हैं किंतु उनके पैंतरे उस आशंका को मजबूत कर रहे हैं । उनके विरुद्ध राज्यपाल द्वारा की गई एक जांच के निष्कर्ष भी उजागर होने हैं। कुल मिलाकर उनका जेल जाना निश्चित है ऐसा राजनीति और कानून के जानकार मान रहे हैं। लेकिन ऐसा होने पर उनकी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के किसी अन्य नेता की बजाय अपनी पत्नी को सत्ता में बिठाने की गोटियां बिठाने से एक बार फिर ये आरोप प्रमाणित हो जाता है कि क्षेत्रीय दलों के मुखिया जनभावनाओं का दोहन करते हुए अपने और अपने परिजनों को ही सत्ता का सुख प्रदान करने प्रयासरत रहते हैं। जम्मू कश्मीर से तमिलनाडु तक जितने भी छोटे क्षेत्रीय दल कार्यरत हैं वे सभी परिवारवाद के पोषक रहे हैं। बिहार में जनता दल (यू) जरूर नीतीश कुमार की जेबी पार्टी है किंतु उन्होंने उसे परिवार से मुक्त रखा जिसके लिए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। लेकिन नेशनल कांफ्रेंस , पीडीपी, अकाली दल , सपा, बसपा, लोकदल , राजद , तृणमूल कांग्रेस , झामुमो, शिवसेना , बीआरएस , वाईएसआर कांग्रेस , द्रमुक आदि सभी का जन्म जिन नेताओं के हाथों हुआ वे सभी किसी क्षेत्र , जाति या भाषा के नाम पर ताकतवर बने किंतु धीरे - धीरे शुरुआती संघर्ष के साथियों को दरकिनार करते हुए अपने परिवार के लोगों को ही पार्टी का वारिस बना लिया । हालांकि परिवार को विरासत सौंपने का सिलसिला प्रारंभ कांग्रेस से हुआ । चूंकि ज्यादातर पार्टियां उससे निकले नेताओं द्वारा स्थापित की गईं इसीलिए वे भी अपने परिवारजन को उत्तराधिकारी बनाने की नीति पर आगे बढ़ गए। नतीजा ये हुआ कि पूरे देश में कुछ परिवार पुराने राजा - महाराजाओं जैसे सामंतशाह बनकर उभरे। हेमंत सोरेन को भी राजगद्दी उनकी योग्यता से नहीं अपितु उनके पिता शिबू सोरेन के कारण प्राप्त हो सकी। जिसे वे आपातकालीन व्यवस्था के तहत अपनी पत्नी को सौंपने की तैयारी में हैं। फारुख और उमर अब्दुल्ला , महबूबा मुफ्ती , ओमप्रकाश ,अभय , दुष्यंत चौटाला , जयंत चौधरी , अखिलेश , डिंपल , शिवपाल सहित पूरा यादव कुनबा , मायावती के भतीजे आनंद , लालू का पूरा परिवार , ममता बैनर्जी के भतीजे अभिषेक , नवीन पटनायक , जगनमोहन रेड्डी , के.सी राव का परिवार , स्टालिन और उनके भाई -बहिन, ठाकरे परिवार आदि भारतीय राजनीति के वे कुनबे हैं जो क्षेत्रीय के साथ ही राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने की स्थिति में आ गए हैं। विपक्ष द्वारा बनाए गए इंडिया गठबंधन में कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी भी इन नेताओं के आगे झुकने बाध्य है। गठबंधन के संयोजक के अलावा सीटों के बंटवारे के फार्मूले पर भी क्षेत्रीय नेता कांग्रेस पर हावी हैं। इसका सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है देश के संघीय ढांचे को क्योंकि क्षेत्रीय दलों द्वारा शासित अनेक राज्यों ने केंद्रीय एजेंसियों को अपने यहां आने से रोक रखा है। इसी तरह केंद्र सरकार द्वारा जारी आदेशों की भी खुलकर अवहेलना की जाती है। अब्दुल्ला और मुफ्ती ने धारा 370 हटाए जाने पर तिरंगा थामने वाला नहीं मिलेगा जैसा बयान दे डाला , वहीं तमिलनाडु से हिन्दी के विरोध में देश से अलग हो जाने जैसी धमकी आती है। ये सब देखते हुए कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को चाहिए कि वे अपने राजनीतिक लाभ के लिए ऐसे नेताओं से दूरी बनाएं जिनका दृष्टिकोण बेहद सीमित है। हेमंत सोरेन यदि अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाते हैं तो उसमें असंवैधानिक कुछ भी नहीं किंतु संसदीय प्रजातंत्र के भविष्य के लिए ये शुभ संकेत नहीं हैं।
- रवीन्द्र वाजपेयी
Tuesday 2 January 2024
हिट एंड रन : चालकों की हड़ताल से उठे सवालों का उत्तर भी ढूंढ़ना होगा
किसी को टक्कर मारकर भाग जाने (हिट एंड रन) जैसे कृत्य के लिए 10 लाख रु. का जुर्माना और सात साल की सजा का जो प्रावधान हाल ही में किया गया उसके विरोध में म. प्र सहित अनेक राज्यों के ट्रक , बस और टैंकर चालक बीते दो दिनों से हड़ताल पर हैं । इसके कारण जरूरी चीजों की आपूर्ति प्रभावित होने के साथ ही यात्रियों को भी भारी परेशानी हो रही है। पेट्रोल पंप खाली हो जाने से निजी वाहन चालक भी मुसीबत झेलने मजबूर हैं। । वाहन चालकों का तर्क है कि गलती न होने पर भी घटनास्थल पर उपस्थित जनता टक्कर मारने वाले चालक की बेरहमी से पिटाई करती है। अनेक चालकों की तो मौत भी पिटाई से हुई। वाहन में आग लगाने जैसी वारदात भी आम हैं। इसलिए घटनास्थल पर रुके रहना जान के लिए खतरनाक होता है । चालकों ने उन्हें मिलने वाले वेतन , भत्ते एवं अन्य सुविधाओं को बेहद कम बताते हुए सजा के नए प्रावधान वापस लेने की बात कही है। उनके तर्क विश्लेषण का विषय हैं किन्तु इतना तो है कि टक्कर मारने वाले चालक के रुक जाने पर उसकी और वाहन दोनों की खैर नहीं होती । और बड़े वाहन वाले को ही गलत ठहराकर गुस्सा उतारा जाता है। लेकिन दूसरा पहलू ये भी है कि टक्कर होने के बाद अपनी रक्षा के लिए भागे चालक को निकटस्थ पुलिस थाने में जाकर घटना की जानकारी देते हुए कानून की शरण लेनी चाहिए। यदि वाहन का समुचित बीमा हो तो उसमें दुर्घटना का मुआवजा देने की व्यवस्था भी रहती है। लेकिन इसके लिए वाहन संबंधी कागजात तथा चालक का लायसेंस नियमानुसार होना चाहिए। ज्यादातर मामलों में चूंकि ये चीजें दुरुस्त नहीं होतीं , इसलिए भी दुर्घटना के बाद चालक घटनास्थल पर नहीं रुकते। कुछ दिन पूर्व जबलपुर के निकट बरगी में किसी अज्ञात वाहन ने एक मोटर सायकिल को टक्कर मारी और बिना रुके चला गया। मोटर सायकिल पर बैठी तीन सवारियों में से एक महिला की मौत हो गई। दोपहिया वाहन पर तीन लोगों को बिठाना भी गैर कानूनी है। ऐसे में दुर्घटना का दोषी मोटर सायकिल चलाने वाले को कहा जाए या उस अज्ञात वाहन चालक को जो टक्कर होने के बाद फुर्र हो गया? ऐसे अनेक सवाल इस हड़ताल से उठ खड़े हुए हैं। हमारे देश में सड़क परिवहन में सुरक्षा का सवाल आए दिन उठता है। प्रतिवर्ष लाखों लोग दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। उच्चस्तरीय राजमार्गों के विकास के बाद सड़क परिवहन में अकल्पनीय वृद्धि हुई है। तकनीकी दृष्टि से उत्कृष्ट वाहन भी भारतीय सड़कों पर नजर आते हैं। लेकिन इन महंगे वाहनों के दुर्घटनाग्रस्त होने की खबरें भी नित्य मिलती हैं। प्रसिद्ध उद्योगपति सायरस मिस्त्री की मौत जिस कार दुर्घटना में हुई वह दुनिया की बेहतरीन कारों में गिनी जाती थी। ये सब देखते हुए देश में सड़क परिवहन को सुरक्षित रखने के पुख्ता प्रबंध भी करना होंगे। जिन राज्यों में गोवंश को काटे जाने पर प्रतिबंध है वहां राजमार्गों पर गायों के झुंड दुर्घटना का कारण बन जाते हैं। जिस वाहन से टकराकर गाय घायल होती या मारी जाती है उसका चालक भी तेजी से भाग जाता है क्योंकि रुकने पर वहां मौजूद लोग उसकी पिटाई करने के साथ ही बतौर मुआवजा मोटी रकम भुगतान करने का दबाव बनाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हड़ताल करने वाले चालकों के पक्ष को भी गंभीरता से समझने की ज़रूरत है। हमारे देश में माल ढोने वाले वाहनों के अलावा व्यवसायिक यात्री वाहन लगातार सड़कों पर दौड़ते हैं। जिन क्षेत्रों में रेल सुविधा नहीं हैं उनके लिए तो सड़क यातायात ही एकमात्र विकल्प है। ग्रामीण सड़कों के विकास की वजह से अब गांव भी बैलगाड़ी युग से बाहर आ चुके हैं। इसीलिए दुर्घटनाएं भी समाचारों का स्थायी हिस्सा बन गई हैं। हड़ताल तो शासन - प्रशासन समझा - बुझाकर खत्म करवा लेगा और वाहन मालिक भी ज्यादा दिन तक अपनी गाड़ी को खड़ा नहीं रख सकते। लेकिन इन वाहनों की फिटनेस और जरूरी दस्तावेजों के अलावा चालक का समुचित प्रशिक्षण और लायसेंस जैसी अनिवार्य चीजों पर भी ध्यान देना चाहिए क्योंकि सभी दुर्घटनाओं में वाहन चालक निर्दोष हो , ये जरूरी नहीं हो सकता। ये बात जरूर सोचने वाली है कि टक्कर होने के बाद चालक और वाहन को नुकसान पहुंचाने वालों के विरुद्ध भी कड़ाई होनी चाहिए क्योंकि किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने की छूट नहीं दी जा सकती। चालकों की हड़ताल से जो मुद्दे सामने आए हैं उन पर सरकार को गंभीरता से विचार करते हुए यदि नए प्रावधानों में कुछ विसंगति है तो उसे दूर करने में हिचक नहीं होनी चाहिए।
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रवीन्द्र वाजपेयी