Tuesday 31 May 2022

गलतियों को सुधारने की बजाय दोहराने की गलती कर रही कांग्रेस



 देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस किसी परिचय की मोहताज नहीं है | कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से सिक्किम तक लोग उसे जानते हैं | भले ही बीते आठ  साल से वह केंद्र की सत्ता से बाहर है और बतौर विपक्ष भी संसद में उसकी उपस्थिति प्रभावशाली नहीं है किन्तु लोकतंत्र की भलाई चाहने वाले जो लोग मजबूत विपक्ष की चाहत रखते हैं उन सबकी नजर घूम – फिरकर कांग्रेस पर ही आकर टिकती है | और इसका कारण उसका राष्ट्रीय स्वरूप ही है  | यद्यपि  देश के बड़े हिस्से में उसका प्रभाव नगण्य हो गया है | राजस्थान और छत्तीसगढ़ के अलावा वह किसी और राज्य में अपने बलबूते सत्ता में नहीं है | पंजाब उसके हाथ से हाल ही में निकला हैं | महाराष्ट्र और झारखंड में वह गठबंधन सरकार में कनिष्ट हिस्सेदार है | संसद में मुख्य विपक्षी दल होने से भी वह वंचित है | वैसे इस स्थिति से किसी भी पार्टी को गुजरना पड़ सकता है | भाजपा भी 1984 की राजीव लहर में दो सीटों पर सिमटकर रह गई थी | लेकिन कांग्रेस की वर्तमान दुरावस्था पर देशव्यापी चर्चा इसलिए होती है क्योंकि उसने बीते 75 साल   में अधिकतर समय देश और प्रदेशों पर राज ही नहीं किया अपितु वह एक संस्कृति के तौर पर स्थापित हो चुकी थी | इसलिए चंद अपवाद छोड़ दें तो अधिकांश राजनीतिक दल या तो उससे टूटकर बने या फिर उनकी नीति – रीति उससे प्रभावित है | यहाँ तक कि वामपंथी दल भी लम्बे समय तक कांग्रेस के पक्षधर रहे और दक्षिणपंथी कहे जाने वाले डा. मनमोहन सिंह की सरकार के सहारा बने | आज भाजपा अपने चरमोत्कर्ष पर है किन्तु आये दिन ये सुनने में आता है कि सत्ता की आपाधापी में उसका भी कांग्रेसीकरण होता जा रहा है | लेकिन इससे हटकर सवाल ये है कि इस ऐतिहासिक पार्टी का ये हाल आखिरकार कैसे हो गया और क्या वह इससे उबर सकेगी ?  2014 में जब नरेंद्र मोदी नामक धूमकेतु राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर उभरा तब ये किसी ने नहीं सोचा था कि कांग्रेस हाशिये पर जाने मजबूर हो जायेगी | लेकिन अपनी वापसी के लिए  संगठन और कार्यप्रणाली में जिस तरह का सुधार और संशोधन करना चाहिए था उसकी जगह वह अपने प्रतिद्वंदी की कमियां तलाशने की गलती करती रही | दुष्परिणाम ये हुआ कि उसका भविष्य समझे जाने वाले राहुल गांधी तक को केरल जाकर शरण लेना पड़ी | 2014 में उनको कड़ी टक्कर देने के बाद स्मृति ईरानी ने अमेठी निर्वाचन क्षेत्र में  आवाजाही बनाये रखी जबकि बतौर सांसद श्री गांधी महीनों वहां नहीं जाते थे | 2019 में इसी कारण उनका तम्बू वहां से उखड़ गया | उसके बावजूद भी न तो गांधी परिवार और न ही पार्टी के अन्य बड़े नेताओं ने उन गलतियों को जानकर  दूर करने का कोई प्रयास किया जो इस दुर्गति की वजह बनीं | 2014 से 2019 के बीच कांग्रेस सोनिया गांधी के हाथ से राहुल के नियंत्रण में आ गई थी | उन्होंने अपनी बहिन प्रियंका को भी पारिवारिक विरासत में हिस्सेदार बनाकर उ.प्र का प्रभार सौंप दिया | इस आधार पर  पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजे इन दोनों के खाते में दर्ज हुए | राहुल ने जिम्मेदारी ली और अध्यक्ष पद छोड़ दिया |  महीनों चली अनिश्चितता के बाद बजाय किसी नये चेहरे को नेतृत्व सौंपने के घूम – फिरकर श्रीमती गांधी के कन्धों पर ही दोबारा बोझ लाद दिया गया जो बढ़ती आयु और अस्वस्थता के कारण पहले जैसी सक्रिय नहीं रह पाईं | इसका परिणाम पार्टी के भीतर बढ़ते असंतोष के तौर दिखने लगा | जिसका प्रमाण जी – 23 नामक नेताओं के एक गुट के खुलकर सामने आने से मिला जिसने संगठन चुनाव और कांग्रेस कार्यसमिति के पुनर्गठन के साथ ही पूर्णकालिक अध्यक्ष जैसे मुद्दे उठाये | इस गुट का अपराध ये जरूर रहा कि उसने अपनी मांगों को लेकर जो पत्र श्रीमती गांधी को भेजा उसे सार्वजनिक कर दिया और उसके बाद फिर बयानबाजी भी करते रहे | हालाँकि उस गुट के नेताओं में अग्रणी माने जा रहे गुलाम नबी आजाद , कपिल सिब्बल , आनंद शर्मा आदि ने हमेशा ये दोहराया कि वे पार्टी की बेहतरी चाहते हैं लेकिन उनकी बातों को बगावत समझा गया | इसी तरह पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को नीचा दिखने के लिए नवजोत सिद्धू को भेजने की मूर्खता हुई  | उनको प्रदेश अध्यक्ष बनाने का विरोध सांसद मनीष तिवारी और पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड तक ने किया | उसके बाद की दास्ताँ सबके सामने है | उ.प्र मे तो  खैर कोई  सम्भावना थी भी नहीं लेकिन उत्तराखंड और गोवा में कांग्रेस अपनी गलतियों से हारी | लेकिन इन सब विफलताओं का दायित्व किसके सिर पर आये ये सोचने की फुर्सत किसी को नहीं है | राजस्थान में गहलोत – पायलट विवाद उलझा पड़ा है | गुजरात में हार्दिक पटेल जैसे आये वैसे ही चलते बने | ऐसे में पार्टी द्वारा राज्यसभा उम्मीदवारों की घोषणा किये जाने के बाद  पूरे देश से ये सवाल उठ रहा है कि क्या गांधी परिवार कांग्रेस का बहादुर शाह जफर बनने को उतारू है ? राजस्थान  और छत्तीसगढ़ से पूरी की पूरी टिकिटें उन बाहरी नेताओं को दे दी गईं जो इस परिवार के दरबारी हैं | जी – 23 में रहे कपिल सिब्बल ने तो सपा से जुगाड़ भिडाकर राज्यसभा में आने का इन्तजाम कर लिया वहीं विवेक तन्खा को म.प्र में कमलनाथ ने दूसरा मौका दिलवा दिया | लेकिन गुलाम नबी आजाद और आनंद  शर्मा को जी – 23 बनाने की सजा दे दी गई  | पार्टी प्रवक्ता के रूप में अच्छा काम कर रहे पवन खेडा ने तो अपना दर्द सोशल मीडिया पर साझा भी कर दिया | राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आगामी साल चुनाव होने वाले हैं इसलिए बगावत तो शायद न हो लेकिन बताया जाता है वहां  के मुख्यमंत्री गांधी परिवार के इस रवैये से खिन्न हैं | ये सब देखते हुए जो लोग कांग्रेस की वापसी की लेशमात्र सम्भावना देखते थे वे भी हताश हो चले हैं | मोदी विरोधी अनेक पत्रकार और विश्लेषक भी राज्यसभा टिकिटों के वितरण को लेकर  ये कहते सुने जा सकते हैं कि उसका पुनरुद्धार सम्भव नहीं है | पता नहीं राहुल को जनभावनाओं के अलावा पार्टी के भीतर धधक रहे ज्वालामुखी का आभास है या नहीं क्योंकि जिस तरह एक के बाद एक गलती उनके द्वारा दोहराई जा रही है वह डूबते जहाज में नये  छेद करने जैसा ही है | प्रबंधन शास्त्र अपनी गलतियों से सीखने की समझाइश देता है , लेकिन विदेश से प्रबंधन में शिक्षित होने  के  बावजूद राहुल गांधी  गलतियों को दोहराने पर आमादा हैं | लगता है उदयपुर में हुए नव  संकल्प और चिंतन शिविर में बुद्धिविलास और उपदेश बाजी ज्यादा हुई काम की बातें कम। 


-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 30 May 2022

जमीयत उलेमा ए हिंद : जुबान नर्म किन्तु बातें गर्म



उ.प्र. के सहारनपुर जिले में स्थित मुस्लिम धर्मावलम्बियों का केंद्र देवबंद बीते दो – तीन दिनों से खबरों में बना हुआ है  | इसका कारण वहां आयोजित जमीयत उलेमा ए हिंद का जलसा रहा जिसमें कई  हजार उलेमा जमा हुए और तमाम धार्मिक – राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा के उपरांत उसके निष्कर्ष जाहिर किये गए | जलसा ऐसे समय हुआ जब  मुस्लिम समाज अपने धार्मिक और सामजिक रीति - रिवाजों के साथ ही प्राचीन धर्मस्थलों के स्वरूप को बदले जाने की आशंका से ग्रसित है | जलसे में जमीयत के एक बड़े नेता ने इस बारे  में साफ तौर पर कहा भी कि उनका विवाद हिन्दुओं से नहीं हुकूमत से है | मुस्लिमों को ये सन्देश भी दिया गया कि वे उत्तेजित न हों अन्यथा विरोधियों का मकसद पूरा हो जाएगा | साथ ही मुल्क की बेहतरी के लिए काम करने की बातें भी की गईं | हालाँकि शरीयत , ज्ञानवापी  और हिजाब जैसे मुद्दों पर खुलकर विरोध सामने आया परंतु वक्ताओं के स्वर में परम्परागत आक्रामकता नहीं थी और गर्म बातें भी नर्म भाषा में कही गईं | इससे  संकेत मिला कि उलेमा भी भांप गए हैं कि तुष्टीकरण वाला दौर चूंकि नहीं रहा इसलिए तैश में आकर बात करने से नुकसान हो जाएगा | ऐसा नहीं है कि मीठी – मीठी बातें ही हुईं किन्तु जमीयत के बड़े नेताओं ने सरकार की आलोचना भी इस तरह की जिससे उनकी मासूमियत झलके | बावजूद इसके उलेमाओं के जरिये देश भर में फैले मुसलमानों को ये पैगाम दे दिया गया कि धार्मिक रवायतों और मस्जिदों  के बारे में समझौता नहीं किया जाएगा | जो प्रस्ताव पारित किये गये उनमें इस बात को साफ तौर पर कह दिया गया है कि समान नागरिक संहिता किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं की जायेगी क्योंकि ये इस्लाम के मौलिक सिद्धांतों के विरुद्ध है | इसी तरह ज्ञानवापी विवाद को लेकर हो रही जनचर्चाओं और बहस पर ऐतराज जताते हुए ये तंज कसने में भी कोई संकोच नहीं किया गया कि गड़े  मुर्दे उखाड़ने से कुछ हसिल नहीं होने वाला | और भी तमाम बातें हुईं जो संचार माध्यमों के जरिये सभी के संज्ञान में आ चुकी हैं | उस दृष्टि से  जलसे का समय बेहद महत्वपूर्ण है | तीन तलाक और हिजाब पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद से मुस्लिम समुदाय में इस बात की चिंता है कि मोदी सरकार  द्वारा समान नागरिक संहिता लागू किये जाने  की कोशिश के विरोध में  विपक्षी दल पहले जैसी मजबूती नहीं दिखायेंगे  | इस सोच के पीछे की वजह है कांग्रेस का हिन्दू मतों की ओर बढता झुकाव | बीते कुछ सालों से जिस तरह राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा हिन्दू धार्मिक स्थलों में जाकर पूजा – अर्चना करने लगे हैं उससे मुस्लिम समुदाय  असमंजस में है | भले ही सपा , राजद और तृणमूल कांग्रेस सरीखे क्षेत्रीय दल  अभी भी पूरी तरह मुसलमानों की मिजाजपुर्सी करते  हैं परन्तु वे भी खुद को हिन्दू साबित करने में पीछे नहीं  रहते | अखिलेश यादव का अयोध्या जाना , ममता बैनर्जी का मंच पर कालीपाठ करना और लालू परिवार में  छठ पूजा का प्रदर्शन उसी का हिस्सा है | ऐसे में मुसलमानों को फ़िक्र इस बात की है कि  कोई भी राष्ट्रीय पार्टी नहीं जो उनके साथ चट्टान की तरह खड़े होने का साहस दिखाए | ज्ञानवापी विवाद पर जिस तरह गैर भाजपा दल मुस्लिम पक्ष के समर्थन में आने से बच रहे हैं उसका असर  जलसे में देखने मिला | इसीलिये मुसलमानों को उग्र होने से बचने की सलाह दी गई | उलेमाओं को भी एक बात समझ आ चुकी है कि उनका समाज जितना आक्रामक होता है  उतनी ही तेजी से हिन्दू ध्रुवीकरण हो जाता है | इसका ताजा  उदाहरण उ.प्र विधानसभा चुनाव में देखने मिला जहाँ  पश्चिमी  उ.प्र के हिन्दू बहुल इलाकों  में सपा द्वारा उतारे गए अनेक मुस्लिम उम्मीदवारों को लोकदल के समर्थन  के बावजूद जाट मतदाताओं ने नकार दिया |  उलेमाओं की परेशानी  का एक कारण  असदुद्दीन ओवैसी भी हैं जो हैदराबाद की सीमा से बाहर आकर उत्तर भारत के मुसलमानों की अगुआई करने की  कोशिश में लगे हैं | उनकी राजनीति तीखे बयानों से भरी होने से मुस्लिम  विरोधी ध्रुवीकरण का कारण बन रही है | उलेमाओं को लगने लगा है कि मौजूदा माहौल में मुस्लिम समुदाय मैदान में उतरकर केंद्र सरकार का जितना विरोध करता है उतनी ही तेज प्रतिक्रया उसके विरुद्ध होती है | सीईएए के विरुद्ध दिल्ली के शाहीन बाग़ में दिए गए धरने से भी मुस्लिमों के बारे में राष्ट्रव्यापी नकारात्मक छवि बनी | उलेमा  इस बात से भी परेशान हैं कि कुछ संगठन बिना बताये कुछ भी कर बैठते हैं जिसका खामियाजा अंततः पूरे समुदाय को भोगना पड़ता है | मसलन हिजाब का विवाद जिस तरह कर्नाटक मेें उठाया गया उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी उसे इस्लाम का हिस्सा मानने से इंकार  कर दिया | ये सब देखते हुए जलसे में सीधे टकराव को  टालकर  भी अपनी बात पर अड़े रहने की नीति अपनाते हुए समान नागरिक संहिता के विरोध में जिस तरह की प्रातिक्रिया आई वह काफी कुछ कहती है | ऐसा लगता है उलेमा ज्ञानवापी पर अदालत के फैसले का इन्तजार कर रहे है | कुल मिलाकर यह जलसा जिस तनावपूर्ण माहौल में शुरू हुआ था उतना तैश वहाँ नजर नहीं आया | लेकिन जमीयत के वरिष्ट नेताओं द्वारा जिस दबी जुबान से अपनी मांगों पर अडिग रहने और समान नागरिक संहिता  के मुद्दे पर अपने रुख में ज़रा भी ढील न देने के जो संकेत दिए उससे यही लगता है कि मुस्लिम  समुदाय अपनी कार्यप्रणाली  बदलने का मन बना चुका है | वह क्या और कैसी होगी ये शायद  ज्ञानवापी मामले में अदालत के फैसले के बाद स्पष्ट हो जाएगा | वैसे जलसे में आये उलेमा मानसिक दबाव  में  भी दिखे  क्योंकि मौजूदा माहौल में आम मुसलमान राजनीतिक नेताओं के साथ ही अपने उलेमाओं से भी नाराज है जो धर्म के नाम पर उसे उकसाकर दूर खड़े हो जाते हैं और बुलडोजर उसके आशियाने पर चलता है |


- रवीन्द्र वाजपेयी



Saturday 28 May 2022

बुकर पुरस्कार : अनुवाद रूपी कृत्रिम इत्र में मिट्टी की सुगंध कहाँ



 किसी भारतीय लेखक की कृति को विदेश में सम्मान मिले इससे अधिक  हर्ष का विषय क्या हो सकता है ? उस दृष्टि से गीतांजलि श्री नामक लेखिका के हिंदी उपन्यास 'रेत समाधि' को बुकर पुरस्कार मिलना निश्चित तौर पर साहित्य प्रेमियों के साथ ही पूरे देश के लिए गौरव का विषय है | पुरस्कार मिलते ही गीतांजलि रातों – रात  सितारा हैसियत में आ गईं | उनको साहित्य अकादमी या अन्य कोई भारतीय पुरस्कार मिलता तब शायद चर्चा इतनी गर्म न होती | लेकिन बुकर पुरस्कार देने वालों की चमड़ी चूंकि गोरी है इसलिए उसके साथ श्रेष्ठता का वही भाव जुड़ा है जिसने हमें सैकड़ों साल तक दासता का दंश दिया | अचानक ये कहा जाने लगा कि दक्षिण एशियाई भाषाओं के प्रति वैश्विक रूचि और सम्मान बढ़ रहा है | लेकिन इस खुशी के पीछे यह  विडंबना भी है कि 'रेत समाधि' के अंग्रेजी अनुवाद को निर्णायक मंडल ने पुरस्कार योग्य समझा और इसीलिये गीतांजलि ने उसकी अनुवादक डेजी राकवेल के साथ सम्मान ग्रहण किया | डेजी , पूरी तरह पेशेवर हैं और उर्दू तथा हिन्दी की अनेक कृतियों का  अनुवाद कर चुकी हैं | गीतांजलि की अन्य कृतियाँ भी अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवादित हो चुकी हैं | उस दृष्टि से माना जा सकता है कि बुकर पुरस्कार के प्रायोजकों की निगाह उनके सृजन पर रही होगी | फिर भी ये सत्य तो स्वीकारना ही होगा कि संदर्भित  उपन्यास के आंग्ल अनुवाद 'टूम ऑफ सैंड' को पुरस्कार योग्य समझा गया | इसमें दो मत नहीं हैं कि कथानक में बदलाव नहीं होने के बावजूद मूल भाषा में मिट्टी की जो सुगंध होती है वह अनुवाद रूपी कृत्रिम इत्र में संभव नहीं | तुलसीकृत रामचरित मानस का जो आनंद अवधी में है वैसी अनुभूति उसके अनुवाद में कतई नहीं हो सकती | यह पुरस्कार ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा रहे देशों के संगठन राष्ट्रकुल ( कॉमनवेल्थ ) के सदस्य देशों के लेखकों को दिया जाता है और गीतांजलि के पहले भी अनेक भारतीय लेखक  उससे पुरस्कृत हो चुके हैं | लेकिन 'रेत समाधि' मूल रूप से हिन्दी में है इसलिए इसे  महत्वपूर्ण माना जा रहा है | वैसे  हिन्दी ही क्यों  अन्य भारतीय भाषा की किसी कृति को दुनिया में कहीं भी सम्मान मिलना गौरवान्वित करता है | लेकिन उसके वहां की भाषा में अनुवादित होने की शर्त ठेस पहुंचाने के साथ गोरी चमड़ी वालों के सामने हमारी हीनभावना का परिचायक है | फिल्मों के लिए 'ऑस्कर' नामक अमेरिका के सुप्रसिद्ध अकादमी अवार्ड्स के लिए चक्कर  काटते भारतीय फिल्मकारों पर अमिताभ बच्चन की ये टिप्पणी काफी सटीक थी कि दुनिया  भर में सबसे  ज्यादा फिल्में  बनाने वाले भारत में दिए जाने वाले फिल्मी अवार्ड्स के लिए जब कोई विदेशी फिल्मकार प्रयास नहीं करता तब हम ऑस्कर के लिए क्यों मरे जाते हैं ?  इसी तरह उन्होनें हालीवुड की तर्ज पर बालीवुड शब्द के उपयोग पर ऐतराज करते हुए उसे भारतीय फिल्म उद्योग कहे जाने पर जोर दिया | ऑस्कर अवार्ड्स समारोह को फिल्म जगत का सबसे सबसे बड़ा आयोजन माना जाता है | लेकिन बीते अनेक सालों से 'आइफा' नामक भारतीय फिल्मों के अवार्ड्स समारोह का आयोजन विदेशों में होने लगा है जिसकी भव्यता और लोकप्रियता ऑस्कर से बीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं कही जा सकती | ये देखते हुए हमें अपनी मौलिकता पर गर्व करने की आदत डालनी होगी | हिन्दी या अन्य भारतीय भाषी व्यक्ति द्वारा अपने विदेशी नस्ल के कुत्ते को अंग्रेजी में पुचकारना और निर्देशित करना भी मन के कोने में छिपी हीन भावना का एहसास कराता है | हिन्दी फिल्मों में अभिनय के लिए अवार्ड जीतने वाले अभिनेताओं और अभिनेत्रियों द्वरा मंच पर आकर अटकती हुई अंग्रेजी में बोलने से भी वही हीनता प्रकट होती है | यहाँ प्रश्न भाषायी कट्टरता का न होकर अपनी समृद्ध विरासत की परिपूर्णता के प्रति आदरभाव का है | अंग्रेजी पढ़ना , लिखना या बोलना बुरा नहीं | किसी भी भाषा में पारंगत होना ज्ञानवृद्धि में सहायक होता है किंतु उसके लिए अपनी भाषा की उपेक्षा एक तरह की कृतघ्नता है | आज जब भारत और भारतीयता का लोहा सारी दुनिया मान रही है और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी , सुषमा स्वराज तथा  नरेंद्र मोदी ने संरासंघ के मंच से हिन्दी में संबोधन देकर पूरे विश्व को ये सन्देश दे दिया कि भारत अंग्रेजी सत्ता के साथ ही   अंग्रेजी भाषा की दासता से मुक्त होने का आत्मबल भी अर्जित कर चुका है |  इस भावना को विस्तार देने के लिए जरूरी है कि हम अपने , अपनी और अपनों पर गर्व करने का संस्कार पुनर्जीवित करें | गीतांजलि को मिला बुकर पुरस्कार  निश्चित रूप से भारत का भी सम्मान है जिसके जरिये भारतीय प्रतिभा का वैश्विक मूल्यांकन हो सका | लेकिन असली गौरव उस दिन होगा जिस दिन किसी भारतीय साहित्यिक कृति को उसकी  मूल  भाषा में ही सम्मान प्राप्त होगा | इस बारे में  ये विचार भी मन में उठता है कि  'रेत समाधि' उपन्यास के अंग्रेजी अनुवाद को बुकर पुरस्कार मिलने से पहले उसे  कितनी ख्याति और लोकप्रियता हासिल हुई ? ज्ञात रहे विदेशी प्रशंसा , पुरस्कार और  प्रमाणपत्र प्राप्त होने के पीछे भी अनेक रहस्य छिपे होते हैं | दुनिया के सबसे सम्मानित माने जाने वाले नोबल शांति पुरस्कार हेतु आज तक महात्मा गांधी का चयन नहीं किया  जबकि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा को राष्ट्रपति बनने के कुछ समय बाद ही जब शांति का नोबल सम्मान देने की घोषणा हुई तब उनकी प्रतिक्रिया थी किस लिए ? कहने का आशय ये है कि चाहे बुकर हो , ऑस्कर हो या नोबल | इस सबके पीछे एक सोची --  समझी रणनीति काम करती है | विश्व सुन्दरी का चयन भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के संवर्धन हेतु किया जाता है | समय आ गया है जब हमें अपने श्रेष्ठ व्यक्तित्वों और उनके कृतित्व का समुचित मूल्यांकन करने की संस्कृति विकसित करनी चाहिए | उस दृष्टि से आईपीएल में कितनी भी विसंगतियां हों  लेकिन इस आयोजन ने इंग्लिश काउंटी और ऑस्ट्रेलियाई क्लब क्रिकेट की चमक फीकी करते हुए दुनिया को दिखा दिया कि हमारी प्रबन्धन क्षमता और पेशेवर दक्षता किसी से कम नहीं , अपितु कुछ मायनों में बेहतर है | साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे ही आत्मविश्वास की जरूरत है ताकि विदेशी लेखक अपनी कृतियों का अनुवाद भारतीय भाषाओं में करते हुए ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कार हेतु चक्कर काटते  नजर आने लगें | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 27 May 2022

परिवारवाद लोकतंत्र में नव सामन्तवाद का जनक है



प्रधानमंत्री नरेन्द्र  मोदी ने गत दिवस हैदराबाद में परिवारवादी राजनीतिक दलों को देश का दुश्मन  बताते हुए कहा कि वे केवल राजनीतिक समस्या ही  नहीं  अपितु लोकतंत्र और युवाओं के भी शत्रु हैं | उनका निशाना वैसे तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की पार्टी तेलंगाना राज्य समिति ( टीआरएस ) पर था जो इन दिनों श्री मोदी से बेहद नाराज हैं और आगामी लोकसभा चुनाव में तीसरे मोर्चे को पुनर्जीवित करने में जुटे हुए हैं | लेकिन इस टिप्पणी के जरिये उन्होंने आन्ध्र और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री क्रमशः जगन रेड्डी और स्टालिन को भी घेरने का  प्रयास किया जो अपने पिता के उत्तराधिकारी बनकर  सत्ता में जा पहुंचे | दरअसल तमिलनाडु की द्रमुक  , आन्ध्र की वाईएसआर कांग्रेस  और  तेलंगाना की टीआरएस तीनों पारिवारिक पार्टियाँ हैं | जगन रेड्डी और स्टालिन जहाँ अपने पिता की विरासत के सहारे सत्ता तक पहुंचे वहीं श्री राव की पार्टी में भी उनके परिवार का वर्चस्व है | इसी  तरह अविभाजित आंध्र की राजनीति में बड़ी ताकत रही तेलुगु देशम भी परिवारवाद के शिकंजे में फंसी रही | कर्नाटक तक सीमित जनता दल ( सेकुलर ) भी देवगौड़ा परिवार की निजी मिल्कियत बनी हुई है | वास्तविकता ये है कि परिवारवाद  भारतीय राजनीति के साथ इस तरह घुला - मिला है कि उसे अलग कर पाना कठिन हो गया है | वैसे इसका प्रारम्भ  देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस से ही माना जाता है जो नेहरु – गांधी परिवार से बंधकर रह गयी | बाद में जबसे क्षेत्रीय दलों का उभार शुरू हुआ तबसे परिवारवाद स्थायी रूप से स्थापित हो गया | देश में जितने भी क्षेत्रीय दल हैं , सभी उसके  शिकंजे में फंसे हुए हैं | उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी राजनीति से पूरी तरह निर्लिप्त थे लेकिन अपने पिता बीजू पटनायक की मौत के बाद वे उनकी जगह लेने आये और ऐसे जमे कि मोदी लहर भी उनको हिला नहीं सकी | बंगाल में तृणमूल कांग्रेस पार्टी ममता बैनर्जी ने जब बनाई तब वह परिवारवाद से मुक्त थी लेकिन अब उनके भतीजे बतौर उत्तराधिकारी  सामने आ गये हैं | पंजाब में अकाली दल , महाराष्ट्र में शिवसेना और राकांपा , हरियाणा में इनेलोद , उ.प्र में सपा , लोकदल और काफी हद तक बसपा भी परिवार में सिमटकर रह गये हैं | बिहार में राजद और लालू परिवार समानार्थी हैं | कश्मीर की राजनीति भी अब तक नेशनल कान्फ्रेन्स और पीडीपी नामक जिन दो क्षेत्रीय दलों के इर्द गिर्द सिमटी रही , वे भी परिवारवाद की पोषक रहे | वामपंथी पार्टियाँ अवश्य इस बुराई से मुक्त कही जा सकती हैं और कुछ हद तक भाजपा भी ये कह सकती है कि भले ही उसमें भी नेताओं के परिजनों को उपकृत किया जाने लगा है लेकिन अभी भी वह परिवारवाद में पूरी तरह डूबी नहीं है | हाल ही में श्री मोदी ने परिवार के भीतर टिकिटें देने पर रोक के संकेत दिए | उसी के बाद कांग्रेस ने भी  उदयपुर के नव संकल्प - चिन्तन शिविर में ये फैसला किया कि गांधी परिवार को अपवाद मानकर बाकी नेताओं के परिजनों को टिकिट देने के लिए कुछ मानदंड तय किये जाएं | जाहिर है इसका कारण भाजपा द्वारा परिवारवाद के लिए कांग्रेस पर लगाये जाने वाले आरोप ही थे किन्तु इस बहाने उसको ये तो समझ में आने ही लगा कि गांधी परिवार का एक  छत्र कब्ज़ा अब पार्टी जनों को भी पसंद नहीं आ रहा | राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा चुनावी राजनीति में बुरी तरह विफल साबित हो चुके हैं | सोनिया गांधी भी बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण पूर्ववत सक्रिय नहीं रहीं | सही बात ये है कि अन्य विपक्षी दल भी कांग्रेस के नेतृत्व में  भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने से इसीलिये हिचकने लगे हैं क्योंकि वे भी राहुल को प्रधानमंत्री बनाने सहमत नहीं हैं | ये बात भी सही है कि परिवार आधारित पार्टियों का सुनहरा दौर अब ढलान पर है | मसलन तृणमूल कांग्रेस में भतीजे अभिषेक से ममता के मतभेद सामने आ चुके हैं | लालू और मुलायम के परिवार में भी यादवी संघर्ष खुलेआम जारी है | हरियाणा में चौटाला परिवार भी बिखर गया है | स्व. बाल ठाकरे के भतीजे राज का अपने चचेरे भाई उद्धव से बैर भाव जग जाहिर है | कश्मीर में पीडीपी पर मुफ्ती और नेशनल कांफ्रेंस पर अब्दुल्ला परिवार के आधिपत्य से नाराज अनेक नेताओं ने किनारा कर लिया | तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार में खींचातानी है स्टालिन के अग्रज अलागिरी भी अलग मोर्चा खोले हुए हैं | देवगौड़ा परिवार की राजनीति भी ढलान पर है | नवीन पटनायक अविवाहित हैं लेकिन उन्होंने अपने कुनबे से किसी को आगे बढाने का काम नहीं किया  इसलिए उन पर परिवारवाद का आरोप नहीं लगता |  प्रकाश सिंह बादल के बिस्तर पकड लेने के बाद अकाली दल का भविष्य भी अँधेरे में है | ये सब देखकर लगता है कि प्रधानमंत्री ने समय की नब्ज पर हाथ रख दिया है | परिवारवाद को लोकतंत्र के साथ ही  युवाओं का शत्रु बताकर उन्होंने राजनीतिक दलों में कार्यरत उन नौजवानों को लुभाने का दांव चला है जो परिवारवाद के कारण उपेक्षित रह जाते हैं | भाजपा के शीर्ष नेताओं में स्व.दीनदयाल उपाध्याय और  स्व.अटलबिहारी वाजपेयी के अलावा लालकृष्ण आडवाणीं और डा. मुरली मानोहार जोशी का कोई भी परिजन उनके उत्तराधिकारी के तौर पर  नहीं है | जिन नेताओं की पत्नी या बेटे – बेटी संगठन या सत्ता में हैं भी तो वे शीर्ष नेतृत्व की श्रेणी में नहीं आते | वामपंथी दलों में वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण अगली पीढी सक्रिय होने के बावजूद राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करती | प्रधानमंत्री ने तो अपने परिवार को सदैव अपनी राजनीति से दूर रखा | इसलिए जब वे परिवारवाद पर हमला करते हैं तब कोई भी उनकी प्रामाणिकता को चुनौती नहीं दे पाता | उ.प्र में भाजपा को हालिया चुनावी सफलता मिलने के पीछे  मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी रहे जिनके 5 वर्षीय शासनकाल में उनके परिजन कभी लखनऊ तक नहीं आये | सपा ने गत दिवस लोकदल नेता जयंत चौधरी को राज्यसभा में  भेजने हेतु समर्थन देने का जो निर्णय किया वह परिवारवाद का विरोध होने के कारण  ही सम्भव हो सका | सुनने में आया है कि अखिलेश यादव अपनी पत्नी डिम्पल को उच्च सदन में भेजना चाहते थे , जो पिछला  लोकसभा चुनाव कन्नौज से हार चुकी हैं | लेकिन जयंत की नाराजगी देखते हुए उनको  डिम्पल का नाम वापिस लेना पड़ा | ये बात पूरी तरह सही है कि परिवारवाद के चलते अनेक युवा कार्यकर्ताओं का हक़ छीन  लिया जाता है | ऐसे में प्रधानमंत्री ने दक्षिण भारत में उस बाबत  जो कुछ कहा वह हवा में छोड़ा गया  तीर न होकर बाकायदा लक्ष्य पर दागी गई मिसाइल है | सर्वविदित है कि क्षेत्रीय दलों के साथ ही कांग्रेस भी परिवारवाद के चंगुल में फंसी है | इस वजह से इनका जनाधार खिसकता जा रहा है | सबसे बड़ा नुकसान ये है कि परिवारवादी राजनीति पूरी तरह सिद्धान्विहीन होती है जिसमें नीचे गिरकर भी सौदेबाजी किये जाने से परहेज नहीं क्या जाता | सता के लिए   अवसरवाद भी परिवार से चिपकी राजनीति का ही दुष्परिणाम है | यद्यपि क्षेत्रीय दल बनते तो राजनीतिक सिद्धांतों के नाम पर हैं लेकिन धीरे – धीरे उनका एकमात्र उसूल  परिवार के हितों का संरक्षण और संवर्धन रह जाता है | इसीलिए पिछड़ी जातियों की  भलाई  के लिए बनी सपा और राजद  केवल दो परिवारों के उत्थान तक सीमित रह गई हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 26 May 2022

आठ साल : सबसे बड़ी बात देश का आत्मविश्वास बढ़ा है



 प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी के साथ जुड़े दो संयोग ऐसे हैं जिनके कारण अनेक राजनेताओं को उनसे ईर्ष्या होती होगी | भाजपा संगठन का काम करने वाले  इस प्रचारक को अचानक गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जब बिठाया गया तब तक वे कभी विधानसभा गये ही नहीं थे | चुनावी राजनीति से तो संगठन का काम करते हुए उनका पाला पड़ता रहा किन्तु राज्य की सत्ता सँभालने के लिए वे  अनुभवहीन थे | लेकिन 12 वर्ष तक गुजरात की सत्ता में रहते हुए उन्होंने जो कीर्तिमान स्थापित किये उनकी  वजह से ही वे राष्ट्रीय राजनीति में जगह बनाने में सफल होते गए | फिर आया दूसरा संयोग  जब वे पहले ऐसे प्रधानमंत्री बने जो इसके पूर्व  संसद  के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे |  आज से ठीक आठ साल पहले उन्होंने  सत्ता संभाली थी | तब  किसी ने ये नहीं सोचा था कि यह व्यक्ति  सफलता के नये  शिखर खड़े कर देगा  | उनके पूर्ववर्ती डा. मनमोहन सिंह  ईमानदार , सुयोग्य और अनुभवी नेता थे लेकिन उनके पास निर्णय लेने की आजादी नहीं थी | जिस वजह से घपलों – घोटालों की मानो बाढ़ सी आ गई | ऐसे में श्री मोदी के सामने पहली प्राथमिकता  निर्णय क्षमता साबित करने के साथ ही सरकार की छवि को बेदाग बनाना था | और उस दृष्टि से 15 अगस्त 2014 को लाल किले  से पहले संबोधन में ही उन्होंने ये संकेत  दे दिया कि वे  बड़े फैसले करने के साथ ही उन्हें लागू करवाने में विश्वास करते हैं |  आठ साल का ये सफर आसान नहीं  रहा | 2014 की प्रचंड विजय के बाद ही भाजपा को दिल्ली और बिहार में जिस तरह पराजय झेलनी पड़ी उससे कहा जाने लगा कि वह जीत बुलबुला थी | लेकिन गुजरात दंगों को लेकर वैश्विक स्तर पर खलनायक की छवि से जूझ चुका ये शख्स अपनी पकड़ कायम रखने में सफल साबित हो गया जब 2017 में उ.प्र  विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इकतरफा जीत हासिल की और वह भी नोटबंदी लागू होने के बाद जिसने पूरे देश की अर्थव्यवस्था को झकझोर दिया था | राजनीतिक दृष्टि से श्री मोदी का कार्यकाल सफलताओं और असफलताओं के बीच झूलता रहा  है | पूर्वोत्तर में असम , मणिपुर और त्रिपुरा में वे भाजपा की सरकार बनवाने में कामयाब रहे लेकिन बंगाल में  ममता बैनर्जी का वर्चस्व तोड़ने में विफल रहे | इसी तरह उड़ीसा में नवीन पटनायक के जादू की काट भी नहीं तलाश सके  | तमिलनाडु , केरल , आंध्र में भाजपा को लोग जानने तो लगे लेकिन अभी भी मंजिल उसके लिए दूर बनी हुई है | महाराष्ट्र में शिवसेना और पंजाब में अकाली दल से अलगाव प्रधानमंत्री की राजनीतिक विफलता कही जाती है | वहीं बिहार में नीतीश कुमार से  गठबंधन के बावजूद उन पर  नकेल कसने  में वे  कामयाब नहीं हैं |  लेकिन केवल  राजनीतिक सफलता  उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन करने का आधार नहीं  बन सकती | दरअसल बीते आठ साल में उनकी सरकार ने जो साहसिक फैसले किये उन्होंने देश को ऐसी दिशा में मोड़ दिया है जहां से उसमें विश्वशक्ति बनने की ललक पैदा हुई है | इस अवधि  में भारत ने आन्तरिक और वैश्विक दोनों ही क्षेत्रों में इस विश्वास को मजबूत किया है कि हम प्रतिस्पर्धा में जीतने के हौसले के साथ उतरे हैं | आर्थिक  विकास के साथ ही देश की सामरिक शक्ति में वृद्धि के कारण चीन जैसी महाशक्ति के साथ आँख मिलाकर बात करने का आत्मबल हम अर्जित कर सके | वहीं धारा 370  का विलोपन पूरी दुनिया को ये सन्देश देने में सफल रहा कि हम वैश्विक जनमत को अपनी मर्जी से मोड़ने में सक्षम हैं | यही वजह है कि अमेरिका , ब्रिटेन , फ़्रांस , जर्मनी , रूस , ऑस्ट्रेलिया  भारत से  सम्बन्ध रखने लालायित हैं |  सऊदी अरब और सं . अरब अमीरात के साथ हमारे रिश्ते मधुरता के चरम पर हैं | विश्व के सभी महत्वपूर्ण  आर्थिक और कूटनीतिक मंचों पर भारत की सम्मानजनक मौजूदगी काफी कुछ कह रही है | वस्तुतः  श्री मोदी  वैश्विक नेता के तौर पर स्थापित  हुए हैं  | विदेश यात्राओं के दौरान वे भारतीय समुदाय के बीच वे जिस तरह का माहौल बनाते हैं उससे देश की प्रतिष्ठा बढ़ी है | कोरोना काल के दौरान जब पूरी दुनिया हलाकान हो उठी थी तब भारत ने जिस तरह महामारी का सामना किया उसका लोहा पूरी दुनिया ने माना | ऐसा नहीं है कि गलतियां उस दौरान नहीं हुईं किन्तु उनको सुधारने की तत्परता ने स्थिति को नियन्त्रण से बाहर नहीं होने से दिया | 80 करोड़ लोगों को मुफ्त खाद्यान्न और 135 करोड़ की विशाल आबादी का टीकाकरण पूरे विश्व में चर्चित और प्रशंसित है | हालांकि इसके बाद बढ़ी महंगाई प्रधानमंत्री  की सफलताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। लेकिन उनके प्रति जनता के  मन में जो विश्वास है उसी के चलते 'मोदी है तो मुमकिन है ' केवल चुनावी नारा न रहकर जनता के मन में बैठ गई भावना है | बीते आठ  वर्ष केवल इसलिए काबिले गौर नहीं हैं क्योंकि श्री मोदी ऐसे पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री हैं जो इतने लम्बे समय से पद पर हैं अपितु इसलिए कि उन्होंने सत्ता चलाने की संस्कृति में बड़े बदलाव किये हैं | कार्यकुशल लोगों को मंत्रीमंडल में स्थान देना इसका प्रमाण है | खुद कठोर परिश्रम कर वे मंत्रीमंडलीय साथियों के साथ ही नौकरशाहों को भी मुस्तैद रहने प्रेरित करते हैं | निर्णय लेने के बाद उसे लागू  करने की प्रतिबद्धता के बावजूद समय की नजाकत देखते हुए कदम पीछे खींचने में संकोच न करने की उनकी नीति विशेष उल्लेखनीय रही है | कृषि कानून इसका ताजा उदाहरण हैं | पूरी दुनिया आज इस बात को मान बैठी है कि भारत एक महाशक्ति के तौर पर तेजी से उभर रहा है तो इसका काफी श्रेय प्रधानमंत्री को जाता है | वरना जिस अमेरिका ने एक ज़माने में उन्हें वीजा देने से इंकार कर दिया था उसके राष्ट्रपति अब  अनुरोध की मुद्रा में दिखाई देते हैं | यूक्रेन संकट के दौरान राष्ट्रीय हितों के लिहाज से तटस्थता की नीति अपनाकर श्री मोदी ने जिस साहस का परिचय दिया वह मामूली बात नहीं है | लेकिन ये मान लेना सच्चाई से आँखें चुराना होगा कि  रामराज आ ही गया है | आज भी देश में गरीबी , बेरोजगारी , बेघरबारी है | शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र की कमियां  विकसित होने के दावे पर सवाल खड़े करने का आधार है | ये धारणा भी बहुत तेजी से फैली है कि मोदी सरकार सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने पर आमादा है और देश चंद पूंजीपतियों के शिकंजे में फंसता जा रहा है | लेकिन ये भी सही है कि जनधन खातों में सीधे राशि जमा करने के साथ ही मुफ्त खाद्यान्न , प्रधानमन्त्री आवास योजना , उज्ज्वला और  ग्रमीण सड़कों के साथ ही राजमार्गों का विकास जैसे कार्यों ने आशाओं का संचार भी किया है | वहीं शौचालय और राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान जैसे कार्यक्रमों ने जीवन शैली में सुधार की प्रवृत्ति विकसित की है | विदेश चले गए हजारों नौजवान बीते कुछ सालों में यदि स्वदेश लौटे हैं तो उसमें इस विश्वास की बड़ी भूमिका है कि मेरा देश बदल रहा है | आठ साल किसी देश के जीवन में बहुत नहीं माने जाते लेकिन किसी राजनेता को कसौटी पर कसने के लिए जरूर पर्याप्त हैं | और उस आधार पर श्री मोदी उन  मानदंडों पर सक्षम और सफल साबित हुए हैं जो किसी चुने हुए सत्ताधारी नेता से अपेक्षित हैं | हालाँकि अभी मंजिल काफ़ी दूर है लेकिन परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ये दावा कर रहे हैं कि 2024 तक देश की सड़कें अमेरिका की टक्कर की हो जायेंगी तो वह उस आत्मविश्वास का प्रमाण है जो इन सालों में अर्जित किया गया है | ऐसा नहीं है कि 2014  के पहले देश चल नहीं रहा था लेकिन सभी मोर्चों पर एक साथ तेज गति से काम करने की हिम्मत पहले नजर नहीं आई | और इसीलिए श्री मोदी सबसे अलग कहे जा सकते हैं | वैचारिक स्तर पर भी अपनी पार्टी की नीतियों पर  जिस दृढ़ता के साथ उन्होंने अमल किया उससे  प्रमाणित हो गया कि प्रधानमंत्री पद उनके लिए साध्य न होकर साधन है |  उनके दूसरे कार्यकाल में अभी दो साल शेष हैं | लेकिन उसके पूर्व अनेक  चुनौतियों से उनको जूझना होगा |  बावजूद इसके प्रधानमंत्री अपनी धुन में चलते रहते हैं और इसीलिये  आप चाहें प्रशंसा करें या आलोचना किन्तु उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 25 May 2022

मंत्री की बर्खास्तगी स्वागतयोग्य लेकिन सवाल और भी उठ रहे हैं



पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान द्वारा अपने स्वास्थ्य मंत्री विजय सिंगला को बर्खास्त करने के साथ ही गिरफ्तार कर जेल भिजवाये जाने के फैसले को प्रदूषित हो चुकी भारतीय राजनीति में ताजी हवा के झोके जैसा देखा जा रहा है | मंत्री महोदय द्वारा स्वास्थ्य विभाग की निविदाओं में अपने ओएसडी के मार्फत एक अधिकारी से कमीशन मांगे जाने संबंधी रिकॉर्डिंग होने के बाद श्री मान ने उनसे उस बारे में सफाई मांगी और ज्योंहीं श्री सिंगला ने  स्वीकार किया कि आवाज उन्ही की है त्योंही मुख्यमंत्री के निर्देश पर प्रकरण दर्ज कर आगे की कार्रवाई की गयी | कहा जा रहा है कि स्वास्थ्य मंत्री द्वारा खरीदी में शुक्राने के नाम पर उगाही की शिकायतें मिलने से बीते दो माह से उन पर निगाह रखी जा रही थी  | आखिर में उनका स्टिंग ऑपरेशन किया गया जिसका नतीजा बर्खास्तगी और जेल जाने के रूप में निकला | ये भी खबर आई है कि दो मंत्री और भी मुख्यमंत्री की निगरानी पर हैं जिनके विरुद्ध भ्रष्टाचार की शिकायतें मिली हैं | उक्त घटना के बाद श्री मान ने स्पष्ट किया कि वे चाहते तो मामले को दबा देते किन्तु ऐसा करना जनता के साथ विश्वासघात होता |  मुख्यमंत्री की इस ताबड़तोड़ कार्रवाई की दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने जमकर तारीफ की | राजनीति से अलग जो लोग हैं उन्हें श्री मान का ये अंदाज बेहद पसंद आया , वहीं  अपेक्षानुरूप राजनीतिक प्रतिक्रियाओं में इसे नाटकबाजी , मुंह छिपाने का प्रयास और दिखावा निरुपित किया गया | सोशल मीडिया पर भी  आम आदमी पार्टी को लेकर तरह – तरह की  बातें कही  गईं | मुख्य निशाना इस बात पर था कि श्री केजरीवाल ने पंजाब के मुख्यमंत्री की कार्रवाई पर तो पीठ थपथपाई लेकिन दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार के अनेक मंत्री और विधायकों पर जब इसी तरह के आरोप लगे तब एक मंत्री को छोड़कर बाकी के विरुद्ध ऐसी कारवाई करने में वे पीछे रहे | दूसरी बात जो  चर्चा में है वह ये कि पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री का स्टिंग न हुआ होता तब शायद मुख्यमंत्री इस तरह का कदम उठाने से बचते रहते | वे कहें कितना भी किन्तु एक बात तो माननी पड़ेगी कि यदि वे इस तरह की कार्रवाई न करते तब भी शिकायतकर्ता अधिकारी  मंत्री जी के कोप से बचने कुछ न कुछ कदम उठाता जिससे मान सरकार कठघरे में खड़ी हो जाती | लेकिन इस घटना से ये स्पष्ट हो गया कि आम आदमी पार्टी को भी दूध का धुला मान लेना सही नहीं होगा | बर्खास्त किये गये स्वास्थ्य मंत्री बीते सात साल से पार्टी में है | हाल ही में उन्होने विधानसभा चुनाव भी बड़े अंतर  से जीता | लेकिन इतने लम्बे समय से पार्टी में रहने के बावजूद सत्ता में आते ही यदि वे भ्रष्टाचार में लिप्त हो गये तो इसका अर्थ ये निकालना गलत नहीं होगा कि नई राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी भी कमोबेश अन्य राजनीतिक दलों की तरह से ही है | पंजाब के दो और  मंत्रियों के भ्रष्टाचार में डूबे होने की आशंका जताए जाने से भी  लगता है कि  जो पकड़ा गया वह चोर वाली कहावत  चरितार्थ हो रही है और ये भी कि उसके  साथ जुड़े लोग बाहरी तौर पर भले ही कितने भी साफ़ – सुथरे हों लेकिन सत्ता में आते ही वे आम राजनेताओं की तरह से ही आचरण करने लग जाते हैं | दिल्ली में जब आम आदमी पार्टी की सरकार पहली बार बनी तब मुख्यमंत्री श्री केजरीवाल ने वाहन , आवास , वेतन - भत्ते आदि को लेकर जितना आदर्शवाद प्रचारित किया वह धीरे – धीरे हवा - हवाई हो गया | विधायकों का वेतन कई गुना बढ़ाये जाने के साथ ही पार्टी के अनेक नेताओं को किसी न किसी पद पर बिठाकर मोटी रकम का भुगतान किया जाने लगा | इसी तरह राज्यसभा की सीटों के लिए दो धनकुबेरों को उपकृत किये जाने पर पार्टी को नैतिकता के आधार पर समर्थन दे रहे तमाम लोगों ने खुलकर आलोचना की | पंजाब से भी हाल ही में एक उद्योगपति को संसद के उच्च सदन में भेजा गया हैं | हालाँकि ऐसा करना  कोई अपराध नहीं है क्योंकि कांग्रेस और भाजपा के अलावा सपा , राजद , शिवसेना भी पूंजीपतियों को राज्यसभा के जरिये सांसद बनाती रही हैं | इसके पीछे कोई सैद्धांतिक वजह न होकर चुनावी चंदे का गणित होता है | लेकिन भ्रष्टाचार के विरुद्ध चले जनांदोलन से निकली पार्टी ने जल्द ही ये साबित कर दिया कि वह कोई स्वर्ग से उतरी हुई  नहीं है | और इसीलिये उसके प्रेरणास्रोत अन्ना हजारे को तो किनारे किया ही गया अपितु पार्टी की संस्थापक टोली के सदस्य शान्ति भूषण , प्रो.योगेन्द्र यादव  ,  कुमार विश्वास , प्रशांत भूषण और पत्रकारिता छोड़ इस पार्टी में आये आशुतोष को भी निकाल बाहर किया गया | पंजाब में भी 2014 में चुने गये कुछ सांसद खिन्न होकर बाहर आ गये | सही बात ये है कि अन्य क्षेत्रीय दलों की तरह ही आम आदमी पार्टी भी कुछ नेताओं की जेब में है | दिल्ली के बाद पंजाब में  उसकी जीत के पीछे मतदाताओं का  कांग्रेस , भाजपा और अकाली दल से मोहभंग हो जाना रहा | स्वास्थ्य मंत्री के खिलाफ श्री मान द्वारा उठाया  गया दंडात्मक कदम निश्चित रूप से स्वागतयोग्य है लेकिन ये आम आदमी पार्टी के लिए भी विचारणीय है कि उसके साथ बरसों से जुड़े लोगों का आचरण लेश मात्र भी नहीं बदला | इससे साबित होता है कि जिस तरह अवसरवादी लोग अपने लाभ के लिए अन्य राजनीतिक दलों में घुसपैठ करते हैं उसी तरह से सत्ता के लालच में मौकापरस्त लोग आम आदमी पार्टी में आ रहे हैं | वरना महज दो महीनों के भीतर पंजाब सरकार में भ्रष्टाचार सतह पर नहीं आया होता | और जब दो अन्य मंत्रियों को भी संदेह की निगाह से देखा जा रहा है तब तो मामला और भी गम्भीर हो जाता है | लेकिन इस सबके बाद भी बर्खास्त किये गए मंत्री का बयान आना बाकी है जिन्होंने अदालत से बाहर आते समय केवल इतना कहा कि उनको फंसाया गया है | विश्वास के संकट में घिरी राजनीति के इस दौर में ये समझना बहुत कठिन होता जा रहा है कि कौन सच बोल रहा है और कौन झूठों का सरदार है ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 24 May 2022

क्वाड : चीन की चिंता का कारण भारत का बढ़ता प्रभाव है



जापान की राजधानी टोक्यो में क्वाड नामक चार देशों के रणनीतिक गठबंधन की बैठक ऐसे समय हो रही है जब दुनिया कोरोना महामारी से उबरने के बाद रूस और यूक्रेन में युद्ध के कारण अनपेक्षित संकट में घिर  गई है | इसके कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ ही कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के अलावा  खाद्यान्न की आपूर्ति भी गड़बड़ा गई है | उल्लेखनीय बात ये है कि हिन्द – प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा और सहयोग के लिए बने  क्वाड के चार देशों में से तीन अमेरिका , जापान और आस्ट्रेलिया जहाँ रूस द्वारा यूक्रेन में की जा रही सैन्य कार्रवाई के विरुद्ध मुखर हैं  जबकि भारत ने  तटस्थता की नीति अपनाई हुई है | जैसा कि माना जाता है  क्वाड का गठन हिन्द – प्रशांत क्षेत्र में चीन के विस्तारवाद को रोकने के लिए किया गया था | चूंकि इसमें अमेरिका भी शामिल है इसलिए चीन  भन्नाता रहता है | उसे इस बात की  शिकायत है कि इसके बहाने अमेरिका उसकी घेराबंदी कर रहा है जिसमें भारत ,जापान और आस्ट्रेलिया उसके साथ हैं | लेकिन ये भी सच है कि वह जिस तरह से अपनी समुद्री सीमा बढ़ाना चाह रहा है उससे न सिर्फ दक्षिण एशियाई देश अपितु जापान और आस्ट्रेलिया तक आतंकित हैं | जापान के अनेक द्वीपों पर तो वह अपना दावा लंबे समय से करता आ रहा है | सबसे बड़ी आशंका ताइवान को हड़पने की उसकी योजना है | वन चाइना नीति को लेकर वह बीते कुछ दिनों से ज्यादा ही आक्रामक है | ये भी कहा जा रहा है कि यदि रूस ने यूक्रेन पर हमला न किया होता तो चीन वैसी ही कार्रवाई ताइवान में करने वाला था | अमेरिका ने भी जवाबी तैयारी के तहत अपने युद्धपोत और मिसाइलें ताइवान की रक्षा के लिए तैनात कर दिए थे | चीन द्वारा आये दिन उसकी वायुसीमा का उल्लंघन किया जाता है | ऐसे में  इस बैठक से चीन का बौखलाना  स्वाभाविक ही है | गत दिवस अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने चीन को चेतावनी  देते हुए कहा कि ताइवान पर हमला करने के गंभीर परिणाम उसे भुगतने होंगे | लेकिन ऐसा कहते हुए उन्होंने वन चाइना नीति को सैद्धांतिक तौर पर स्वीकार भी किया | उनकी ये बात अमेरिका की  विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करती है क्योंकि यूक्रेन पर रूस के  हमले  की आशंका के बीच अमेरिका सदैव  गम्भीर परिणाम भुगतने की धमकी देता रहा | लेकिन जब रूस ने यूक्रेन पर चढ़ाई कर दी तब बाइडेन ने उसके  नाटो सदस्य न होने का बहाना बनाकर सेनाएं भेजने से इंकार कर दिया | हालाँकि वह और उसके समर्थक देश यूक्रेन को आर्थिक और सामरिक सहायता तो दे रहे हैं लेकिन रूस जैसी महाशक्ति से टकराने के लिए जिस तरह यूक्रेन को अकेला छोड़ दिया गया उससे अमेरिका की साख गिरी है | हालाँकि ताइवान में अमेरिका की फौजी उपस्थिति है  | लेकिन ये आशंका आधारहीन नहीं है कि यदि चीन ने ताइवान पर कब्जा करने का दुस्साहस किया तब अमेरिका किस हद तक बचाव में उतरेगा क्योंकि वह चीन पर जवाबी वार करता है तब स्थिति भयावह हो सकती है | हालाँकि यूक्रेन संकट में रूस  के फंस  जाने के बाद चीन शायद इस मामले में जल्दबाजी न करे लेकिन जिस तरह से उसने क्वाड को नाटो की संज्ञा देते हुए  ताइवान मामले से अमेरिका को दूर रहने की समझाइश दी वह भी काबिले गौर है | जैसी कि खबरें आ रही हैं उनके अनुसार कोरोना के बाद से चीन आंतरिक और वैश्विक दोनों दृष्टि से कमजोर हुआ है | ये भी संयोग है  कि जिस तरह  रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने  आजीवन सत्ता में रहने का प्रबंध कर लिया था उसी तरह से चीन में शी जिनपिंग ने भी  निर्बाध शासन करते रहने की व्यवस्था कर ली थी किन्तु यूक्रेन पर हमला करने के बाद जहाँ पुतिन वैश्विक खलनायक बनकर अकेले पड़ गये ठीक वैसी ही स्थिति कमोबेश जिनपिंग की भी नजर आ रही है | रूस पर तो अमेरिका और उसके समर्थक देशों ने आर्थिक प्रतिबन्ध थोप दिए  किन्तु कोरोना वायरस के लिए जिम्मेदार मानते हुए भी चीन के साथ ऐसा न करने के बावजूद भी जिस तरह से उसका आर्थिक बहिष्कार  किया जाने लगा और अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने वहाँ से अपना कारोबार समेटकर वियतनाम , इंडोनेशिया , थाईलैंड और भारत का रुख किया उसकी वजह से उसकी अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ने लगा | कोरोना की तीसरी लहर ने देश के अनेक शहरों में  लॉक डाउन की स्थिति बना रखी है जिसके कारण सरकार के विरुद्ध असंतोष बढ़ रहा है | चीन में बना टीका असरकारक न होने से टीकाकरण  भी गड़बड़ा गया है | इन सब वजहों से जिनपिंग की पकड कमजोर होती जा रही है | चीन को लग रहा है कि क्वाड में भारत का होना कूटनीतिक तौर पर उसके असर को कम करने वाला है | बीते कुछ समय से आस्ट्रेलिया और भारत के बीच जिस तरह से सामरिक निकटता बढ़ी वह उसको परेशान कर रही है | दो वर्ष पहले लद्दाख की गलवान घाटी में हुई सैन्य झड़प के बाद भारत द्वारा जिस पैमाने पर सैन्य तैयारियां की गईं उससे भी जिनपिंग परेशान हैं |  चीन के लिये हैरानी की बात ये भी है कि यूक्रेन संकट पर तटस्थ रुख पर कायम रहने के बावजूद भारत के प्रति अमेरिका का रवैया सहयोगात्मक बना हुआ है | यहाँ तक कि बाइडेन के दबाव के बाद भी भारत ने रूस से न सिर्फ कच्चे तेल का सौदा किया बल्कि गेंहू के निर्यात पर रोक लगाने में  भी संकोच नहीं किया | ये सब देखकर चीन को लगता है कि क्वाड भी नाटो जैसा ही संगठन है जिसका एकमात्र उद्देश्य उसके प्रभावक्षेत्र को सीमित रखते हुए उस पर दबाव बनाये रखना है | सबसे बड़ी बात ये है कि भारत एक स्वतंत्र शक्ति के तौर पर  न सिर्फ एशिया बल्कि समूचे विश्व में अपने पैर जमा रहा है | श्रीलंका के आर्थिक संकट के लिए भी जिस तरह से चीन को दोषी  माना जा रहा है उससे भी जिनपिंग कमजोर हुए हैं | कुल मिलाकर क्वाड की यह बैठक भले ही अमेरिका के राष्ट्रपति की उपस्थिति में हो रही है लेकिन उसमें भारत की भागीदारी सबसे ज्यादा मायने रखती है क्योंकि समूचे एशिया में हम  ही ऐसे देश हैं जो चीन  को उसी की भाषा में जवाब देने का साहस रखते हैं  | प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की इस बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि वे विश्व की आर्थिक और सामरिक  महाशक्तियों के साथ भारत के बराबरी के सम्बन्ध बनाने में सफल रहे | क्वाड की मौजूदा बैठक में अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा रूस की आलोचना के बाद भी श्री मोदी का तटस्थ रहना ये दर्शाता है कि भारतीय विदेश नीति अब पूरी तरह दबावरहित है |  

-रवीन्द्र वाजपेयी



Monday 23 May 2022

उत्तराखंड में तीर्थयात्रियों की भीड़ और कचरे के ढेर खतरनाक संकेत

मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस : संपादकीय
- रवीन्द्र वाजपेयी 

उत्तराखंड में तीर्थयात्रियों की भीड़ और कचरे के ढेर खतरनाक संकेत

गर्मियां शुरू होते ही पहाड़ों की सैर हेतु निकलने वाले सैलानियों के कारण  शिमला , मसूरी , कश्मीर , नैनीताल , दार्जिलिंग , ऊँटी , गंगटोक , लेह  आदि में  भारी भीड़ उमड़ती है | पहले तो ये शौक सम्पन्न  वर्ग तक ही सीमित था लेकिन बीते कुछ दशकों से मध्यमवर्ग में भी सैर - सपाटे की प्रवृत्ति तेजी से विकसित हुई है | इस वजह से हिल स्टेशन अब पहले  जैसे शांत नहीं रहे | होटलों आदि की संख्या  में वृद्धि ने भी पर्यटन को बढ़ावा दिया | आवागमन के साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने से पहाड़ों में आना - जाना आसान हुआ है | लेकिन इसका विपरीत असर भी देखने में आ रहा है |  शिमला जैसे खूबसूरत हिल स्टेशन में पीने के पानी की किल्लत है | श्रीनगर और नैनीताल की झीलें दुर्गन्ध फँकने लगी हैं | मसूरी में दिन के समय पंखे चलाने पड़ते हैं | लेकिन इन सबसे अलग देश का सबसे पुराना पर्यटन है तीर्थ यात्रियों द्वारा की जानी वाले धार्मिक स्थलों की यात्राएं और उनमें भी उत्तराखंड की पर्वतमालाओं में स्थित बद्रीनाथ , केदारनाथ , यमुनोत्री और गंगोत्री नामक स्थलों की यात्रा | पर्वतीय क्षेत्र होने से सर्दियों में यहाँ आवागमन अवरुद्ध रहता है | अक्षय तृतीया के अवसर पर इन धामों की विधिवत यात्रा प्रारंभ  होती है | अतीत में तो यात्री ऋषिकेश से पैदल जाते थे | 1962 में हुए  चीन के  हमले के बाद सीमा सड़क संगठन द्वारा सड़कों के विकास के फलस्वरूप बद्रीनाथ और गंगोत्री तक वाहन जाने लगे किन्तु केदारनाथ और यमुनोत्री के लिए अभी भी कुछ किमी पैदल , खच्चर अथवा पालकी इत्यादि से जाना पड़ता है | लेकिन उन रास्तों में भी  काफी सुधार हो जाने से तीर्थयात्री साल दर साल बढ़ते गये | बीते दो साल से कोरोना के कारण यात्रा में व्यवधान हुआ लेकिन इस वर्ष ज्योंही यात्रा की अनुमति दी गई त्योंही पहले दिन से ही इन चार धामों में यात्रियीं का  सैलाब आ गया | पहाड़ी क्षेत्रों में  फोर लेन सड़कें बन जाने से भी यात्रियों की संख्या में आशातीत वृद्धि देखी जा रही है | अब तो सर्दियों के मौसम में भी इस क्षेत्र में आने - जाने वालों की  संख्या  आश्चर्यजनक तौर पर बढ़ी है | इसका लाभ वहाँ की  अर्थव्यवस्था को तो जबर्दस्त होने लगा है परन्तु पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से देखने पर पहाड़ों पर बेतहाशा भीड़ का होना खतरे से खाली नहीं है | केदारनाथ त्रासदी के पूर्व से भी उत्तराखंड में भूकंप और भूस्खलन की घटनाएँ लगातार होने से चिंता के बादल घने होते जा रहे हैं | ग्लेशियर सिकुड़ने से गंगा और यमुना के अस्तित्व तक पर संकट मंडराने लगा है | टिहरी बांध बनने के पूर्व जो चिंताएं व्यक्त की जा रही थीं वे कुछ हद तक सही साबित होने से इस समूचे क्षेत्र के प्राकृतिक संतुलन में गड़बड़ी के संकेत आपदाओं के रूप में मिलने लगे हैं | लेकिन दुख इस बात का है कि सब कुछ जानने और समझने के बावजूद लोग इन तीर्थों की पवित्रता के प्रति लापरवाह हो चले हैं | ताजा उदाहरण उत्तराखंड में चार धाम यात्रा शुरू होते ही तीर्थ यात्रियों की भीड़ उमड़ने से उत्पन्न समस्याओं से मिला है | पट खुलने वाले दिन ही दर्शन हेतु उम्मीद से ज्यादा तीर्थयात्रियों के आ जाने से अव्यवस्था व्याप्त हो गई | रास्ते में जाम लगने से यातायात को लेकर किये गये तमाम इंतजाम अपर्याप्त साबित हो गये | दो वर्ष बाद यात्रा खुलने से तीर्थयात्रियों का उत्साह निश्चित रूप से प्रशंसनीय कहा जायेगा | चार धाम के पण्डे , दुकानदार , खच्चर मालिक , पालकी मजदूर आदि इससे खुश नजर आने लगे | दो वर्ष की मंदी के बाद उनके चेहरों पर खुशी नजर आ रही है  | उत्तराखंड  में सड़कों का विकास जिस तेजी  से किया गया उसकी वजह से वहां आना – जाना सुलभ हो जाने से भी यात्रियों का सैलाब आ गया है | भीड़ के कारण जो अफरातफरी मची उसकी वजह से आधा दर्जन यात्रियों की हृदयाघात से  मौत हो गयी | आज जो समाचार आया  उसके  अनुसार उक्त तीर्थस्थलों में कचरे के ढेर लग जाने से सफाई की समस्या पैदा हो गई है | खाली प्लास्टिक बोतलें , पाउच और ऐसी ही अन्य सामग्री चारों तरफ बिखरी पड़ी है  पहाड़ों पर चूंकि खुला स्थान कम होता है इसलिए यही कचरा वहां बहने वाली नदियों और झरनों में जाकर मिल जाता है | बेमौसम बरसात भी  इस समस्या को और गम्भीर बना देती है | अनेक यात्रियों ने अपने मोबाईल से कचरे के चित्र खींचकर सोशल मीडिया पर प्रसारित किये हैं जिन्हें देखकर हर उस व्यक्ति को पीड़ा हो रही है जिसकी पर्यावरण संरक्षण में ज़रा  सी भी  रूचि है | ये देखते हुए जरूरी हो जाता है कि उत्तराखंड में  चार धाम यात्रा के लिए यात्रियों की संख्या सीमित किये जाने की  व्यवस्था हो | भले ही सड़कें कितनी भी उच्चस्तरीय हों  और ठहरने की सुविधाजनक व्यवस्था भी बन  जाए लेकिन पहाड़ की अपनी सहनशक्ति होती है | प्रकृति अपने  सौदर्य का दर्शन करने की अनुमति तो सभी को देती है लेकिन उससे छेड़छाड़ एक हद के बाद बर्दाश्त नहीं कर पाती और इस वास्तविकता से उत्तराखंड जाने वाले तीर्थयात्री अनेक मर्तबा रूबरू हो चुके हैं | बावजूद उसके आस्था जिस तरह उफान ले रही है वह प्रकृति के प्रति अपराध की श्रेणी में रखी जाने लायक है | इस वर्ष यात्रा का मौसम शुरू होते ही जिस तरह से भीड़ और कचरे के ढेर नजर आ रहे हैं उसकी वजह से ये आशंका करना बेमानी नहीं होगा कि आने वाले दिनों में कुछ न कुछ अशुभ घट सकता है | बुद्धिमत्ता इसी में है कि केंद्र और उत्तराखंड सरकार दोनों मिलकर चार धाम आने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या नियंत्रित करने के पुख्ता इंतजाम करें | देश भर में फैले धर्माचार्यों से भी अपेक्षा है कि वे अपने अनुयायियों को आस्था की आड़ में प्रकृति के साथ अत्याचार करने से रोकने आगे आयें | उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है | यह ऋषियों की तपोभूमि है | गंगा और यमुना जैसी नदियाँ इससे निकलती हैं | आयुर्वैदिक औषधियों में काम आने वाली  बेशकीमती जड़ी – बूटियाँ यहाँ के पहाड़ों में पैदा होती हैं | लेकिन बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप की वजह से उत्तराखंड का नैसर्गिक स्वरूप नष्ट होने के कगार पर है | बद्रीनाथ के पहले एक रास्ता हेमकुंड साहेब को जाता है जो  सिखों का तीर्थ होने से बड़ी संख्या में सिख श्रृद्धालु भी उत्तराखंड आते हैं | इस वजह से यहाँ का तापमान भी बढ़ता जा रहा है जिसे सहन न  करने के कारण ग्लेशियर पिघलने लगे हैं | हर साल कोई न कोई घटना ऐसी हो जाती है  जो प्राकृतिक आपदा की शक्ल में हमें चेतावनी देती है | लेकिन इसे नासमझी कहें या हेकड़ी  कि हम उनकी अनदेखी करते जा रहे हैं |  इसके पहले कि कोई बड़ी अनहोनी हो जाये सरकार को समुचित इंतजाम करते हुए चार धाम यात्रा को  यात्रियों के साथ ही प्रकृति के लिहाज  से भी सुरक्षित बनाने का प्रबंध करना चाहिए |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 21 May 2022

औरंगजेब निर्मित मस्जिद नहीं अब्दुल कलाम की मिसाइल पर गर्व करें मुस्लिम



वाराणसी के  ज्ञानवापी  प्रकरण की सुनवाई जिला न्यायाधीश को सौंपने के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस हेतु 8 सप्ताह की अवधि तय करते हुए उस जांच रिपोर्ट की गोपनीयता भंग होने पर नाराजगी व्यक्त की जिसमें मस्जिद परिसर के वुजुखाने में शिवलिंग पाए जाने के अलावा दीवारों पर अनेक ऐसी  आकृतियाँ देखी गईं जो हिन्दू मंदिर होने का प्रमाण हैं | मुस्लिम पक्ष ने इन निष्कर्षों को ही नहीं नकारा अपितु जांच की वैधानिकता को  भी चुनौती दे डाली  | लेकिन सर्वोच्च न्यायालय  ने उसको नजरअंदाज करते हुए प्रकरण को निचली अदालत के बजाय जिला न्यायाधीश के समक्ष भेजकर कहा कि वुजुखाने को सील रखते हुए  नमाज के लिए स्थानीय प्रशासन जरूरी व्य्वास्थाएं करे | इस प्रकार  सर्वोच्च न्यायालय ने फ़िलहाल इस दलील को सिरे से ख़ारिज कर दिया कि 1991 के पूजा स्थल कानून के अंतर्गत ज्ञानवापी में सर्वेक्षण नहीं करवाया जा सकता  | वैसे स्थानीय निचली अदालत ने जो  कमीशन मस्जिद में सर्वेक्षण हेतु गठित किया था यदि उसके साथ पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के दल भी भेजे जाते जो अवलोकन और विश्लेषण अधिक बारीकी से हुआ होता |  इस तरह के विवादों में पुरातत्व विशेषज्ञों की राय ही प्रामाणिक  मानी जा सकती है जिनके निष्कर्ष  ठोस तथ्यों पर आधारित्त होते हैं | अभी तक  ज्ञानवापी के भीतर जितना भी सर्वेक्षण हुआ वह सतही होने के बावजूद यदि हिन्दू मंदिर के प्रमाण दे रहा है तब पुरातत्व विशेषज्ञ  खोजबीन करेंगे तो  हिन्दू पक्ष के दावों की पुष्टि होने की सम्भावना और बढ़ जायेगी  | वाराणसी के इतिहास से भली – भांति वाकिफ अनेक वरिष्ट जनों ने शहर की रजिया मस्जिद में भी ऐसे  ही सर्वेक्षण  की मांग की है क्योंकि उसे  भी  मंदिर तोड़कर बनाए जाने के प्रमाण अनेक शोधकर्ताओं ने दिए हैं । औरंगजेब निर्मित मस्जिद नहीं  अब्दुल कलाम की मिसाइल पर गर्व करें मुस्लिम

वाराणसी के  ज्ञानवापी  प्रकरण की सुनवाई जिला न्यायाधीश को सौंपने के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस हेतु 8 सप्ताह की अवधि तय करते हुए उस जांच रिपोर्ट की गोपनीयता भंग होने पर नाराजगी व्यक्त की जिसमें मस्जिद परिसर के वुजुखाने में शिवलिंग पाए जाने के अलावा दीवारों पर अनेक ऐसी  आकृतियाँ देखी गईं जो हिन्दू मंदिर होने का प्रमाण हैं | मुस्लिम पक्ष ने इन निष्कर्षों को ही नहीं नकारा अपितु जांच की वैधानिकता को  भी चुनौती दे डाली  | लेकिन सर्वोच्च न्यायालय  ने उसको नजरअंदाज करते हुए प्रकरण को निचली अदालत के बजाय जिला न्यायाधीश के समक्ष भेजकर कहा कि वुजुखाने को सील रखते हुए  नमाज के लिए स्थानीय प्रशासन जरूरी व्य्वास्थाएं करे | इस प्रकार  सर्वोच्च न्यायालय ने फ़िलहाल इस दलील को सिरे से ख़ारिज कर दिया कि 1991 के पूजा स्थल कानून के अंतर्गत ज्ञानवापी में सर्वेक्षण नहीं करवाया जा सकता  | वैसे स्थानीय निचली अदालत ने जो  कमीशन मस्जिद में सर्वेक्षण हेतु गठित किया था यदि उसके साथ पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के दल भी भेजे जाते जो अवलोकन और विश्लेषण अधिक बारीकी से हुआ होता |  इस तरह के विवादों में पुरातत्व विशेषज्ञों की राय ही प्रामाणिक  मानी जा सकती है जिनके निष्कर्ष  ठोस तथ्यों पर आधारित्त होते हैं | अभी तक  ज्ञानवापी के भीतर जितना भी सर्वेक्षण हुआ वह सतही होने के बावजूद यदि हिन्दू मंदिर के प्रमाण दे रहा है तब पुरातत्व विशेषज्ञ  खोजबीन करेंगे तो  हिन्दू पक्ष के दावों की पुष्टि होने की सम्भावना और बढ़ जायेगी  | वाराणसी के इतिहास से भली – भांति वाकिफ अनेक वरिष्ट जनों ने शहर की रजिया मस्जिद में भी ऐसे  ही सर्वेक्षण  की मांग की है क्योंकि उसे  भी  मंदिर तोड़कर बनाए जाने के प्रमाण अनेक शोधकर्ताओं ने दिए हैं । अब तक मुस्लिम पक्ष को इस बात का भरोसा था कि 1991 के कानून की आड़ लेकर वह ज्ञानवापी में छिपे हिन्दू संस्कृति के प्रतीकों पर पर्दा पड़ा रहने देगा किन्त्तु सर्वोच्च न्यायालय ने जाँच पर रोक न लगाकर एक रास्ता खोल दिया है | इस बारे में मुस्लिम धर्मगुरुओं के साथ ही ओवैसी जैसे राजनीतिक नेताओं को ये समझ लेना चाहिए कि इतिहास की उन सच्चाइयों से पर्दा उठाना समय की  मांग है जिन्हें अब तक छिपाकर रखा गया | ज्ञानवापी और उसके बाद उठ रहे ऐसे ही विवादों पर न्यायालय के फैसले को मानने की प्रतिबद्धता तो मुस्लिम  पक्ष भी लगातार दोहरा रहा है  लेकिन आगे बढ़कर उसे औरंगजेब सहित  उन तमाम मुग़ल बादशाहों तथा उनकी सरपरस्ती में पनपे छोटे – छोटे मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दू धर्मस्थलों के तोड़ने और उनके स्थान पर मस्जिदें बनाने जैसे कार्यों की निंदा करने का साहस भी प्रदर्शित करना चाहिए | आजकल अनेक मुस्लिम ये तर्क देते हैं कि भारत में मोहम्मद गौरी सहित अन्य  मुस्लिम  आक्रान्ताओं का आगमन तत्कालीन हिन्दू शासकों के आमन्त्रण पर हुआ जिन्होंने  अपने स्वार्थवश उनको भारत में घुसने का मौका दिया |  लेकिन  ऐसे लोगों  को ये नहीं  भूलना चाहिए कि उन हिंदू शासकों को भारतीय समाज ने गद्दार की श्रेणी में रखा | जयचंद का नाम लेते  ही घृणा  का भाव मन में आने लगता है | लेकिन मुस्लिम  समाज में क्या औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर किये गए अत्याचारों के प्रति किसी भी प्रकार की नाराजगी या अफ़सोस है ? ज्ञानवापी या उस जैसे अनेक धर्म स्थल ऐसे स्थल हैं जिनको  मुग़लकाल में   मस्जिद में तब्दील कर दिया गया | ज्ञानवापी में मंदिर के प्रमाण मिलने की खबर के बाद सोशल मीडिया पर अनेक प्राचीन जैन मंदिरों के बारे में जानकारी आ रही है जिनका विध्वंस कर मस्जिद बनाई गईं  | बेहतर हो मुस्लिम समाज ऐसे तमाम विवादित स्थलों की विस्तृत जाँच पुरातत्व विशेषज्ञों से करवाने की पेशकश करे | और  ये प्रमाणित होने पर कि उनका निर्माण हिन्दू , जैन या किसी अन्य गैर मुस्लिम धर्म स्थल को तोड़कर  किया  गया था तब उन स्थलों को मूल धर्मावलम्बियों को सहर्ष सौंपकर उनकी प्रशंसा अर्जित  करना चाहिए |  यदि ओवैसी जैसे नेता राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए भड़काऊ बयान देने से बाज नहीं आयेंगे तो मुस्लिम समाज के उस तबके का ही नुकसान होगा जो  विवादों से दूर रहकर  अपनी रोजी  – रोटी की चिंता में लगा रहता है | इसका उदाहरण वाराणसी के माहौल से मिलता है जहां किसी भी प्रकार के तनाव का संकेत नहीं है | वैसे  आम मुसलमान समझता जा रहा है कि वोटों के ठेकेदार उसकी आड़ में अपनी रोटियां सेंकते रहते हैं |   अनेक मुल्ला - मौलवी भी ये कहते  हुए सुने जा रहे हैं कि जिन मस्जिदों में मंदिर होने के प्रमाण मिल रहे हैं उनको हिन्दू समाज को सौंप देना चाहिए | ज्ञानवापी प्रकरण में जो प्राम्भिक सबूत मिले हैं यदि उनसे  मंदिर होने की बात सच साबित हो जाती है  तब मुस्लिम समुदाय को जीत  - हार की सोच से ऊपर उठकर समझदारी का परिचय देना चाहिए | आज के दौर में मुस्लिम  समाज का आदर्श औरंगजेब के अत्याचारों की बजाय प्रोफेसर अब्दुल कलाम जैसे होना चाहिए जो केवल इसलिए नहीं कि अल्पसंख्यक थे अपितु अपनी सकारात्मक राष्ट्रीय सोच की वजह से गैर राजनीतिक होते हुए भी देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर प्रतिष्ठित हुए और वह भी उस पार्टी के प्रधानमंत्री रहते हुए जिसको मुस्लिम विरोधी प्रचारित किया जाता रहा है | उस लिहाज से ज्ञानवापी देश में मुस्लिम समाज के लिए सोच बदलने का एक स्वर्णिम अवसर है जिसका लाभ उसे उठाना चाहिए | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 20 May 2022

जाखड़ और भाजपा दोनों को एक दूसरे की जरूरत थी



पंजाब कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने पार्टी छोड़ने के बाद गत दिवस भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर अनिश्चितता को विराम दे दिया | उनके पिता स्व. बलराम जाखड़ कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में रहे जिन्होंने लोकसभा अध्यक्ष और केंद्रीय कृषि मंत्री के अलावा म.प्र के राज्यपाल पद को भी सुशोभित किया था | इसी कारण जब सुनील ने कांग्रेस छोड़ी तब पार्टी से 50 साल के रिश्ते का जिक्र करना नहीं भूले | उनकी नाराजगी तो उसी समय शुरू हो गयी थी जब उनकी जगह नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस का चेहरा बनाने की कोशिश की गई  | लेकिन मुख्यमंत्री नहीं बन पाने के कारण वे जो बचकानी हरकतें करते रहे उनका दुष्परिणाम कांग्रेस के  सत्ता गंवाने के तौर पर सामने आ गया | दरअसल श्री जाखड़ को उम्मीद रही होगी कि कांग्रेस वरिष्टता के मद्देनजर उन्हें सत्ता और संगठन में कुछ  ज्यादा महत्व देगी | कैप्टन अमरिंदर सिंह के हटने के बाद कांग्रेस विधायक दल का बहुमत भी उन्हीं के साथ था किन्तु श्रीमती अंबिका सोनी ने ये कहते हुए उनका रास्ता रोक दिया कि पंजाब में पगड़ी धारी मुख्यमंत्री ही ठीक रहेगा | बाद में टिकिट वितरण के समय भी उनकी बातों को अनसुना किया जाता रहा | इसे लेकर श्री जाखड़ ने बयानों के जरिये अपनी नाराजगी भी जताई किन्तु पार्टी हाईकमान ने अपेक्षित भाव नहीं दिया | यदि कांग्रेस वहाँ दोबारा सरकार बना ले जाती  तब शायद वे ऐसा  कदम न उठाते | लेकिन चुनाव नतीजों के बाद उनको ये लगने लगा कि इस राज्य में पार्टी की वापसी बहुत कठिन है | आम आदमी पार्टी में जाने का निर्णय भी वे ले सकते थे किन्तु उसमें भी उनको अपने लिए संभावनाएं नहीं दिखीं | रही बात  अकाली दल की तो वहाँ बादल परिवार के अलावा अन्य किसी के लिए ख़ास गुंजाईश नहीं होने से अंततः श्री जाखड़ ने भाजपा का दामन थामा जो इन दिनों दूसरी पार्टियों विशेष रूप से कांग्रेस से आये हुए लोगों के लिए लाल कालीन बिछाने में तनिक भी संकोच नहीं करती | और सबसे बड़ी बात ये है कि अकाली दल से रिश्ता टूट जाने के बाद से भाजपा को पंजाब में ऐसे किसी व्यक्तित्व की तलाश थी जिसकी पकड़ हिन्दुओं के अलावा सिखों में भी हो | लम्बे समय तक अकाली दल के साथ रहने से भाजपा पंजाब में न तो  अपना संगठन खड़ा कर सकी  और और न ही स्वतंत्र जनाधार | हालाँकि इस राज्य में हिन्दुओं की संख्या तकरीबन 39 प्रतिशत है लेकिन राजनीति पर सिखों का ही  प्रभुत्व रहा | अकाली दल के साथ रहने से भाजपा उसी के आसरे रही परन्तु  कृषि कानूनों को लेकर दोनों के बीच शुरू हुआ टकराव बाद में  अलगाव के तौर पर सामने आया | हाल ही में हुए चुनाव में अकाली दल को जो नुकसान हुआ उसमें भाजपा सामर्थक हिन्दुओं का उससे दूर चला जाना भी एक कारण रहा | यद्यपि कैप्टन अमरिंदर से समझौते   के बावजूद  भाजपा खाली हाथ रही लेकिन बादल परिवार सहित कैप्टन और नवजोत सिद्धू की हार के बाद पंजाब में  भविष्य नजर आने के बावजूद उसके पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो हिन्दुओं के साथ सिखों में भी सम्पर्क रखता हो |  इसीलिये जब श्री  जाखड़ ने कांग्रेस छोड़ी तो भाजपा ने उनको लपकने में न संकोच किया और  न ही देरी |  देखने वाली बात ये होगी कि भाजपा उन्हें कितना महत्व देती है क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी इस राज्य में बड़ी ताकत बनकर उतरेगी | विधानसभा चुनाव में उसे जो सफलता मिली उस कारण उसका हौसला काफी बुलंद है | कांग्रेस पूरी तरह अनाथ पड़ी  है वहीं बादल परिवार का सफाया होने से अकाली दल अस्तित्व के संकट से गुजर रहा है | भाजपा इस शून्य को भरने की फ़िराक में है और इसी के चलते उसने श्री जाखड़ को सहर्ष शामिल कर लिया | उनके चेहरे के बल पर भाजपा राज्य के लगभग 40 फीसदी हिन्दुओं के अलावा उन सिखों को भी लुभाने का प्रयास करेगी जो अकाली दल और कांग्रेस के सफाए के बाद नया ठिकाना तलाश रहे हैं | चूंकि पंजाब के भीतर आम आदमी पार्टी में नये विशेष रूप से अनुभवी नेताओं  के लिए ज्यादा जगह  नहीं है इसलिए श्री जाखड़  के लिए भाजपा ही बेहतर विकल्प थी जो खुद भी किसी ऐसे नेता की जरूरत महसूस कर रही थी जिसे पंजाब की जमीनी सच्चाइयां पता हों | कैप्टन अमरिंदर सिंह चूंकि वयोवृद्ध हो चुके हैं इसलिए वे भाजपा के लिए उपयोगी नहीं रहे जबकि श्री जाखड़ की उम्र उन्हें सक्रिय रहने का अवसर देती है | कुल मिलाकर देखें तो दोनों को एक दूसरे की जरूरत थी | अगले  लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा जिस तरह से तैयारियां करने में जुटी है उस दृष्टि से श्री जाखड़ को  अपने साथ लाकर उसने पंजाब में स्वयं को आम आदमी पार्टी के मुकाबले खडा करने की रणनीति बनाई है | उसको लग रहा है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे श्री जाखड़ की मदद से वह राज्य के उन क्षेत्रों तक पकड़ और पहुँच बना लेगी जहाँ उसका जनाधार कमजोर है | पंजाब में कांग्रेस के भीतर जिस तरह की निराशा है उसे देखते हुए श्री जाखड़ की देखादेखी कुछ और कांग्रेसी भी जल्द भाजपाई बन जाएँ तो आश्चर्य नहीं होगा | बीते कुछ सालों  में  भाजपा ने बाहर  से आये नेताओं को जमक्रर महिमामंडित किया | हेमंता बिस्वा सरमा , ज्योतिरादित्य सिंधिया और मानक साहा कांग्रेस से भाजपा में आकर जिस तरह सत्ता का सुख भोग रहे हैं उसने भी श्री जाखड़ को इस पार्टी में आने प्रोत्साहित किया | जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है तो उसका हाईकमान बीते कुछ वर्षों से  से बेहद लापरवाह हो चला है जिसकी वजह से पार्टी छोड़ने वालों की संख्या बढ़ती ही  जा रही है  | गुजरात कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हार्दिक पटेल के पार्टी से बाहर आने  के पीछे भी शीर्ष नेताओं की  उपेक्षवृत्ति ही वजह बन गयी |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 19 May 2022

अयोध्या वाली भूल दोहराने से बचे मुस्लिम समुदाय



वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद में अदालती आदेश पर करवाए गये सर्वेक्षण के दौरान अनेक ऐसे प्रमाण  प्राप्त होने का दावा किया जा रहा है जिनसे  इस बात की  पुष्टि हो रही है कि मस्जिद का निर्माण मंदिर तोड़कर किया गया था तथा उसके स्थापत्य में हिन्दू प्रतीक चिन्ह नजर आते हैं | इनमें सबसे बड़ा मस्जिद में बने वुजुखाने के बीचों बीच कुए जैसी दीवार के भीतर मिला शिवलिंग बताया जा रहा है जिसकी सुरक्षा के लिए स्थानीय के साथ ही सर्वोच्च न्यायलय ने भी आदेश दिया है | हिन्दू पक्ष कह रहा है कि कुए की दीवार तोड़ दी जावे तो शिवलिंग पूरी तरह दिखने लगेगा | जबकि मुस्लिम पक्ष का साफ़ कहना है कि वह दरअसल एक फव्वारा है | इस  दलील के पक्ष में अजमेर सहित अनेक मस्जिदों के चित्र भी पेश किये जा रहे हैं | सर्वोच्च न्यायालय ने आज भी इस मामले में  सुनवाई की वहीं दूसरी तरफ स्थानीय न्यायालय  के समक्ष पेश की जाने वाली  रिपोर्ट भी इस विवाद को निर्णायक मोड़ तक ले जायेगी | लेकिन 1991 में पारित पूजा स्थलों की  15 अगस्त 1947 वाली  स्थिति को बनाए रखने वाले कानून के मुताबिक मस्जिद के मौजूदा स्वरूप को न बदला जा सकता है और  न ही किसी भी प्रकार का बदलाव किया जाना संभव है | मुस्लिम पक्ष भी इसी आधार पर मामले की  सुनवाई और सर्वेक्षण के  आदेश  को उक्त क़ानून का उल्लंघन बताकर सर्वोच्च न्यायालय से ये मांग कर  रहा है कि यह प्रकरण विचार योग्य ही नहीं है | शायद उसकी मंशा पूरी हो भी जाती लेकिन मस्जिद  में सर्वेक्षण दल को शिवलिंग मिलने की बात सामने आते ही सर्वोच्च न्यायालय को भी ये कहना पड़ा कि यदि शिवलिंग है तब उसका संरक्षण करने हेतु उस स्थल को सील कर दिया जावे लेकिन नमाज पढ़ने की सुविधा  भी दी जाए |  लेकिन मुसलमानों के नेता और धर्मगुरु झुकने राजी नहीं हैं | उनको पक्का भरोसा है कि 1991 का कानून मस्जिद का रक्षा कवच बनेगा | लेकिन उस कानून के अंतर्गत किसी ऐतिहासिक स्थल में छिपे या दबे प्राचीन काल के प्रतीक चिन्ह या पुरातात्विक अवशेषों का पता लगाने पर रोक नहीं लगाई जा सकती | ज्ञानवापी मस्जिद में किये गये सर्वेक्षण से चार शताब्दि पूर्व के इतिहास तथा पुरातात्विक संपदा की जानकारी यदि मिलती है तब वह भी तो अध्ययन और शोध का विषय है | ऐसा लगता है मस्जिद प्रबंधन को भय है कि यदि अदालत ने  खुदाई के आदेश दे दिए और उनमें भी मंदिर के प्रमाण मिल गये तब मस्जिद पर उनका दावा कानूनन सही किन्तु नैतिक दृष्टि से कमजोर पड़ जाएगा | और तो और वुजुखाने में मिला शिवलिंग ही यदि प्रामाणिक   साबित हो गया तब तो मुस्लिम पक्ष के सामने अजीबोगरीब स्थिति उत्पन्न होगी क्योंकि मस्जिद में किसी भी तरह की मूर्ति इस्लाम के मौलिक सिद्धांत के विरुद्ध है | शायद यही वजह है कि मस्जिद में हिन्दू मंदिर के प्रमाण पाये  जाने का खंडन करने के साथ ही  बार – बार 1991 के कानून को ढाल बनाया जा रहा है | इस बारे में मुस्लिम समाज के शिक्षित वर्ग को चाहिए वह मस्जिद प्रबंधन को हठधर्मिता छोड़ सर्वेक्षण और खुदाई जैसे कामों में सहायता देने प्रेरित करे | इससे उनकी नकारात्मक छवि में कुछ सुधार होगा | वैसे भी असदुद्दीन ओवैसी के अलावा अनेक  मुस्लिम बुद्धिजीवी और मौलवियों ने भी इस बात का समर्थन किया है कि ज्ञानवापी मस्जिद काशी विश्वनाथ मंदिर के एक हिस्से को तोड़कर बनाई गयी थी और मुस्लिम इतिहासकारों ने भी इस तथ्य को अपने दस्तावेजों में स्वीकार  किया है इसलिए वह स्थल  विश्वनाथ मंदिर को सौंप देना चाहिए | इसी तरह की सलाह मथुरा की  शाही  मस्जिद के बारे में भी आई है जिसका प्रकरण भी अदालत में पेश हो चुका है | जहाँ तक बात 1991 के कानून की तो उसके बारे में सुनने में आया है  है कि अब सिख एवं जैन समुदाय भी मुग़ल शासकों द्वारा कब्जा किये गये उनके धर्मस्थानों को मुक्त करवाने के लिये इच्छुक है क्योंकि  उक्त कानून आस्था की स्वतंत्रता में बाधक बन गया है | ये भी याद रखने वाले बात है कि पीवी नरसिम्हाराव सरकार के जमाने में जब वह कानून संसद में आया तब भाजपा ने उसका पुरजोर विरोध किया था | उसे देखते हुए बड़ी बात नहीं है कि प्रधानमंत्री धारा 370 की तरह इस कानून को भी खत्म करने जैसा साहसिक कदम उठायें | अध्यादेश के जरिये तात्कालिक प्रभाव से भी उसको बेअसर किया जा सकता है या फिर काशी विश्वनाथ और श्रीकृष्ण जन्मभूमि से सटी क्रमशः ज्ञानवापी और शाही मस्जिदों को उससे बाहर करने का प्रावधान भी विकल्प हो सकता  है | चूंकि संसद में सत्ता पक्ष के पास पर्याप्त  बहुमत है इसलिए अध्यादेश पारित होने में कोई दिक्कत नहीं होगी |  लेकिन वैसा होने पर मुस्लिम पक्ष पूरी तरह विकल्पहीन होकर रह जाएगा | ये देखते हुए उसके लिए ही नहीं अपितु देश के लिए भी ये जरूरी है कि काशी विश्वनाथ  और श्रीकृष्ण जन्मभूमि परिसर में मुगलकाल में बनाई गई  मस्जिदें हटा दी जाएं और उनको बदले  में अन्यत्र भूमि उपलब्ध करवाई दी जावे जैसा अयोध्या में किया गया | और फिर ऐसा भी नहीं है कि मस्जिदें हटाई नहीं जातीं | पाकिस्तान और सऊदी अरब तक में सड़कें  चौड़ी करने अथवा ऐसी ही किसी सार्वजनिक जरूरत की  खातिर मजारें और मस्जिदें हटाई जा चुकी हैं  | भारत में भी बड़ी  संख्या में मंदिर  और मजारें विकास कार्यों की भेंट चढ़ गये | बेहतर होगा मुस्लिम समाज इस सच्चाई को जाने कि बीते सात दशकों से वे जिन राजनीतिक दलों और नेताओं का अन्धानुकरण करते रहे उन्होंने इस समुदाय को विकास की मुख्यधारा से दूर रखते हुए धर्मान्ध बनाये रखने में रूचि ली ताकि उनका स्वार्थ सिद्ध होता रहे | लेकिन आज वे दल और नेता पूरी तरह जनता की निगाह में गिर चुके हैं जिससे मुसलमान सियासी तौर पर अनाथ और अकेला रह गया है | मुस्लिम गोलबंदी  की प्रतिक्रियास्वरूप हुए  हिन्दू ध्रुवीकरण ने तमाम राजनीतिक दलों को उनसे दूर रहने के लिए बाध्य कर दिया है |  यदि मुसलमान वक़्त की नब्ज को समझकर फैसले करना सीख लें  तो उन्हें  मुख्य धारा में शामिल होने से कोई नहीं रोक सकेगा | ज्ञानवापी मस्जिद के रूप में उनको  एक सुनहरा अवसर मिला है | यदि वे  इसका लाभ नहीं उठा सके तो  किसी और को दोष देने का अधिकार भी वे खो देंगे  | अयोध्या मामले में  दुविधा और बहकावे में फंसे रहकर वे अपना बड़ा नुकसान पहले ही कर चुके हैं  | 



Wednesday 18 May 2022

दुनिया के खाद्यान्न संकट में भारत के लिए निर्यात के अच्छे अवसर



 हर संकट कुछ न कुछ सबक दे जाता है | इसका ताजा उदाहरण है यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे युद्ध से उत्पन्न वैश्विक परिस्थितियां | युद्ध में उलझे ये देश दुनिया को बड़ी मात्रा में गेंहू की आपूर्ति करते रहे हैं जिसके  अचानक ठप्प हो जाने से पूरी दुनिया में खाद्यान्न   संकट पैदा हो गया | इसका लाभ भारत जैसे देश को मिला जो अपनी जरूरत से ज्यादा गेंहू पैदा करने लगा है | बीते दो सालों से 80 करोड़ जनता को मुफ्त अनाज देने वाली खाद्यान्न सुरक्षा और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के अंतर्गत मुफ्त अनाज देने की व्यवस्था इसी आधार पर की जा सकी | किसी भी संकट का सामना करने के लिए सरकार के पास खाद्यान्न का भरपूर स्टॉक गोदामों में होने से निश्चिंतता बनी रहती है | लेकिन इस वर्ष मार्च में ही तापमान बढ़ जाने से गेंहू का उत्पादन कम हुआ जिससे सरकारी खरीद पर असर पड़ा | दरअसल यूक्रेन संकट के कारण भारतीय गेंहू की मांग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अचानक बढ़ जाने से ज्यादातर किसानों को सरकारी मंडी जाने की जरूरत नहीं पड़ी | इसका कारण निजी क्षेत्र के व्यापारी उसके खेत में ही आकर खरीदी कर ले गये और वह भी सरकारी मूल्य से ज्यादा पर  | ज़ाहिर है वे भी निर्यात के जरिये कमाई करना चाहते थे | परिणामस्वरूप  सरकारी खरीद लक्ष्य से काफी कम हुई वहीं खुले बाजार में गेंहू और उससे बने आटे के दाम भी ऊपर जाने लगे | हालाँकि निर्यात में वृद्धि  से व्यापार  घाटा कम होने के आसार बढ़े वहीं  भारत के अनाज को नए खरीददार मिलने से किसान और निर्यातक  दोनों को लाभ हुआ | लेकिन इसका विपरीत असर घरेलू मोर्चे पर होता देख केंद्र सरकार ने 13 मई तक हुए सौदों के बाद गेंहू का निर्यात रोक दिया जिसका असर भी तत्काल नजर आने लगा | बाजार में गेंहू के दाम घटने से उपलब्धता बढ़ गयी जिससे खाद्यान्न की मंहगाई  भी कुछ कम हुई | यह फैसला किसानों और निर्यातकों को जरूर खला होगा लेकिन अर्थशास्त्रियों ने इसका स्वागत किया | लेकिन जो ताजा समाचार मिल रहे हैं उनके अनुसार अमेरिका ये कहते हुए भारत पर गेंहू के निर्यात से प्रतिबंध हटाने का दबाव डाल रहा है कि अन्यथा दुनिया में खाद्यान्न संकट पैदा हो जाएगा | जी – 7 देशों की बैठक में भी ये मुद्दा उठने की उम्मीद है |  दरअसल रूस और यूक्रेन से पूरी तरह गेंहू का निर्यात रुकने से भारत उसके बड़े आपूर्तिकर्ता के तौर पर सामने आया | हालाँकि प्रतिबन्ध के बावजूद अभी भी पुराने सौदों को पूरा किया जा रहा है | लेकिन इस संकट  में भी एक नई सम्भावना निकलकर आ रही है | रूस और यूक्रेन का युद्ध जिस स्थिति में आ गया है उसमें उसके लम्बा खिंचने के आसार हैं |  देर – सवेर उसके समाप्त होने के बाद भी इन दोनों देशों से खाद्यान्न विशेष रूप से गेंहूं का निर्यात या फिर उसकी मात्रा  पूर्ववत नहीं रह सकेगी | उस स्थिति में भारत विश्व की खाद्य जरूरत पूरी  करने के साथ ही गेंहू को उसी तरह अपनी अर्थव्यवस्था के लिए रणनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर सकता है जैसे कि कच्चा तेल के उत्पादक देश करते आ रहे हैं | इस बारे  में  उल्लेखनीय है कि तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक की तर्ज पर कुछ साल पहले  दक्षिण पूर्व एशिया के देशों इंडोनेशिया , फिलिपीन्स , थाईलैंड आदि ने चावल का पूल बनाकर वैश्विक बाजारों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई | तेल उत्पादक देश भी अपने नफे - नुकसान के हिसाब से कच्चे तेल के उत्पादन का फैसला करते हैं ताकि दाम उनके अनुकूल रहें | इस बारे में अमेरिका का उल्लेख करना भी प्रासंगिक है जो तेल के खेल को नियंत्रित करने के लिए प. एशिया में युद्ध के हालात बनाये रखता है किन्तु अपने तेल भंडारों को किसी वैश्विक आपातकाल के लिए सुरक्षित रखे है | हाल ही में मलेशिया ने भी दुनिया भर में खाद्य तेल की मारामारी  के बीच पाम आयल का निर्यात पहले तो बंद कर दिया जिससे उसकी घरेलू जरूरत में रूकावट न आये किन्तु बाद में उसमें कुछ ढील दी | भारत ने भी गेंहू निर्यात आंशिक तौर पर ही प्रतिबंधित किया है | लेकिन इस दौरान ये बात साबित हो गई कि दुनिया के बदलते हुए आर्थिक परिदृश्य में भारत भी अपने खाद्यान्न को एक कूटनीतिक हाथियार के तौर पर इस्तेमाल कर सकता है | इसे वस्तु विनिमय का जरिया भी बनाए जाने की सम्भावना है | रही बात अमेंरिका और जी – 7 देशों के दबाव की तो भारत उनके सामने अपनी जरूरतों को रखकर फायदेमंद सौदे करने का प्रयास करे और यदि  अनुकूल नतीजे आयें तो भविष्य में खाद्यान्न निर्यातक के तौर पर हमारा देश दुनिया भर में अपनी धाक जमा सकेगा | इस बारे में एक बात याद रखनी चाहिए कि आज की दुनिया पूरी तरह से व्यावसायिक हो गई है | जितनी भी लड़ाइयाँ और शांति प्रयास होते हैं उनके पीछे भी कहीं न कहीं व्यावसायिक  हित ही होते हैं | वर्तमान में रूस और यूक्रेन के बीच का युद्ध भी महज सीमा विवाद न होकर पूरी तरह से आर्थिक लाभ के लिए हो रहा है | भारत ने जिस तरह इस विवाद में तटस्थ रहकर अपना कूटनीतिक  कौशल दिखाया ठीक वैसे ही उसे अपने व्यावसायिक हित सुरक्षित रखते हुए नए अवसर तलाशने पर ध्यान देना चाहिए | संयोगवश गेंहू एवं अन्य खाद्यान्न  इसमें मददगार हो सकते हैं  | लेकिन सबसे पहले अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करना चाहिए | जो देश भारत द्वारा  गेंहू के निर्यात पर नियंत्रण का विरोध कर रहे हैं  वे भी  अपने राष्ट्रीय हितों की चिंता में हैं | वैश्विक मंचों  में आदर्श की बातें चाहे जितनी भी क्यों न हों लेकिन अंततः ले - देकर बात व्यावसायिक हितों पर आकर टिक जाती है | केंद्र सरकार ने गेंहूं के नए निर्यात सौदों को रोकने का एक कारण अपने पड़ोसियों की खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति भी बताया है | एक बड़ा देश होने के नाते अपने दायित्व के प्रति सजगता से ही हमारी छवि दुनिया भर में एक जिम्मेदार देश के तौर पर बनी है | इसे बनाये रखते हुए हम खाद्यान्न निर्यात के जरिये ऐसी तमाम चीजों का आयात बदले में कर सकते हैं जिनके लिए अभी हमें  भारी – भरकम विदेशी मुद्रा देनी पड़ती है | रूस – यूक्रेन युद्ध  इस दृष्टि से हमारे लिए विदेश व्यापार के मोर्चे पर अनेक अवसर  लेकर आया है | लेकिन इनका लाभ तभी मिल सकेगा जब हमारे पास उनका लाभ उठाने की ठोस कार्ययोजना हो | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


 

Tuesday 17 May 2022

अयोध्या , मथुरा और काशी में मुगलिया आतंक के प्रतीक शर्म का विषय



 वाराणसी के ऐतिहासिक विश्वनाथ मदिर परिसर में ही बनी ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर चल रहे विवाद में गत दिवस बड़ा मोड़ आ गया जब उसको हिन्दू मन्दिर तोड़कर बनाये जाने संबंधी दावे की जाँच हेतु  निचली अदालत ने जो कमीशन नियुक्त किया था उसने  सर्वेक्षण के दौरान मस्जिद के वजूखाने मे विशाल शिवलिंग देखे जाने की  बात करते हुए अदालत को सूचना दी जिसने तत्काल उस स्थल को सील करने का निर्देश दिया | कमीशन आज अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपेगा | दूसरी तरफ मस्जिद की इंतजामिया कमेटी ने निचली अदालत द्वारा कमीशन के जरिये जांच करवाए जाने को अवैध निरुपित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई |  ज्ञानवापी मस्जिद के सामने नंदी की जो मूर्ति है उसका मुंह भी वजूखाने की तरफ होने से हिन्दू पक्ष लम्बे समय से ये दावा करता आ रहा है कि मस्जिद के भीतर शिवलिंग है और औरंगजेब के शासनकाल में विश्वनाथ मंदिर पर जबरन कब्जा करते हुए उक्त मस्जिद तान दी गयी थी | अदालत में ये दावा किये हुए भी तीन दशक से ज्यादा व्यतीत हो चुका है | मुस्लिम पक्ष अपनी सफाई में  कह रहा है कि 1991 में संसद द्वारा पारित कानून के बाद अब किसी धार्मिक स्थल का  स्वरूप  बदला नहीं जा सकेगा | असदुद्दीन ओवैसी ने भी इसी आधार पर निचली अदालत की कार्रवाई को असंवैधानिक बताया और ये कहने का दुस्साहस भी किया कि ज्ञानवापी थी , है और रहेगी | यद्यपि शिवलिंग की जो आकृति मिली उसकी प्रमाणिकता पुरातत्व विशेषज्ञ ही साबित कर सकेंगे जिसे दूसरा पक्ष  फुहारे का नाम दे रहा है |  लेकिन शिवलिंग के अलावा  मस्जिद के गुम्बद और दीवारों पर उकेरी गयी जो आकृतियाँ कमीशन के संज्ञान में आई हैं वे हिन्दू संस्कृत्ति से मेल खाती बताई जाती हैं | अदालत क्या फैसला देगी और 1991 का कानून उसमें  कितने आड़े आएगा ये तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन मुस्लिम पक्ष इस बात को तो नहीं  झुठला सकता कि वह समूचा इलाका विश्वनाथ मंदिर का है जहाँ इस्लामिक संस्कृति का कोई ऐतिहासिक प्रमाण ज्ञानवापी मस्जिद बनाये  जाने के पूर्व नहीं मिलता | मस्जिद की तरफ मुंह किये बैठी नंदी की प्रस्तर प्रतिमा भी   अपने आप में काफी कुछ कह जाती है | गत दिवस ज्योंही  शिवलिंग मिलने की बात सामने आई त्योंही जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने तंज कसा कि इनको हर जगह भगवान मिल जाते हैं | लेकिन क्या महबूबा और मुस्लिम धर्मगुरुओं में से किसी के पास  इस सवाल  का उत्तर है कि मुग़ल शासकों द्वारा हिन्दुओं के तीन बड़े आराध्यों श्री राम , श्रीकृष्ण और महादेव से  जुड़े पवित्र स्थलों पर मस्जिद बनाने के पीछे कौन सी सद्भावना थी ? ज़ाहिर तौर पर ये मुगलिया सल्तनत  की धर्मान्धता और हिन्दुओं को आतंकित करने के मकसद से किया गया पाप था जिसका प्रायश्चियत करने की बजाय सीनाजोरी की जा रही है | इस्लाम के जन्म के हजारों वर्ष पहले से अयोध्या , मथुरा और काशी सनातनी हिन्दुओं के लिए पवित्र स्थान रहे हैं | मुगल शासकों द्वारा वहां जाकर मस्जिदें बनाने का उद्देश्य हिन्दुओं को आतंकित करना ही था | आजादी के बाद भारत ने धर्म निरपेक्षता अपना ली और  सभी धर्मों  को अपनी उपासना पद्धति का इस शर्त के साथ पालन करने की स्वतंत्रता दी जिससे दूसरों के धर्म का अनादर न हो | प्रश्न ये है  कि हिन्दुओं ने तो मुसलमानों की जिद पूरी करते हुए उनको एक अलग  मुल्क दे दिया तो क्या मुसलमान हिन्दुओं की आस्था  के सबसे बड़े केन्द्रों में मुगल शासकों और उनके सिपहसालारों द्वारा तलवार की नोंक पर खड़ी की गईं मस्जिदें हटाकर सद्भावना अर्जित करने की सौजन्यता नहीं  दिखा सकते ताकि  गंगा – जमुनी संस्कृति  को बल मिले | लेकिन मुस्लिम समुदाय के नेता और विशेष तौर पर मुल्ला – मौलवी अपना उल्लू सीधा करने के लिए जैसी  ऐंठ  दिखाते हैं वही दोनों समुदायों के बीच अविश्वास की सबसे बड़ी वजह है |  सामान्य बातचीत  में तो गुलाम नबी आजाद जैसे तमाम लोग ये बात स्वीकार करते हैं कि उनके पूर्वज हिन्दू थे परन्तु  इस तरह के विवाद उठते ही उन्हें बाबर और औरंगजेब में अपना अतीत नजर आता है | महबूबा मुफ्ती ने कल जो बयान दिया उसमें ये भी कहा गया कि  ज्यादातर  विदेशी पर्यटक मुग़लों द्वारा बनाये गए भवनों  को देखने आते हैं | शायद उनका संकेत ताजमहल , लालकिला और  फतेहपुर सीकरी जैसी इमारतों को लेकर था किन्तु उनको शायद ये पता नहीं होगा कि विदेशी पर्यटकों को बाबरी ढांचे ,  ज्ञानवापी तथा मथुरा में कृष्ण भूमि से सटी शाही मस्जिद देखने में कोई रूचि कभी नहीं रही | सही बात ये है कि आजादी के बाद मुसलमान कांग्रेस के चंगुल में फँसे रहे और उसके बाद में लालू और मुलायम जैसे नेताओं ने उनका राजनीतिक शोषण किया | इसके पहले कि वे कुछ संभल पाते ओवैसी सरीखे चालाक उनको बरगलाने लग गये | लेकिन इस समाज का जो शिक्षित वर्ग है वह भी जब कट्टरपंथियों के बहकावे में मुगलकालीन सोच का शिकार होकर अपने को इस मुल्क का मालिक समझने लगता है तब हंसी आती  है | ज्ञानवापी के साथ ही मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि की दीवार से सटाकर बनाई गई मस्जिद भी  इस्लामिक आतंक का जीता जगता प्रमाण हैं  | बाबरी और ज्ञानवापी को लेकर छाती पीटने  वाले ओवैसी उस वक़्त को याद क्यों नहीं करते जब देश के बाहर से आये लुटेरों ने हिंसा  के बल पर हिन्दुओं के अनगिनत धार्मिक स्थल तोड़ दिए और अयोध्या , मथुरा तथा काशी में जान - बूझकर ऐसे स्थलों पर मस्जिदें खडी कीं जिनसे हिन्दू आहत होने के साथ ही आतंकित भी हों | ये देखते हुए  आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में मुगलकालीन बर्बरता के निशानों को मिटाना राष्ट्रहित में होगा | याद रहे भावी  पीढ़ियों को भारत के प्राचीन गौरव से परिचित कराए बिना विश्व गुरु और महाशक्ति बनने का सपना साकार नहीं हो सकेगा |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 16 May 2022

मोदी की नेपाल यात्रा : सही समय पर सही कदम



प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं को सैर – सपाटा और धन की बर्बादी बताने वाले अब उतने मुखर नहीं रहे क्योंकि विरोधियों को भी  ये एहसास होने लगा है कि इन यात्राओं से वैश्विक मंचों पर भारत के पक्ष में माहौल  निर्मित हुआ है | कूटनीतिक मोर्चे पर न सिर्फ पाकिस्तान अपितु चीन की तुलना में  भी श्री  मोदी ज्यादा असरकारक साबित हुए हैं | हाल ही में उनकी डेनमार्क , जर्मनी और फ्रांस की यात्रा बहुत ही सफल रही | रूस - यूक्रेन युद्ध के बीच  यूरोपीय देशों में जाकर भारत के कूटनीतिक , आर्थिक और सामरिक हितों के लिए प्रधानमंत्री के प्रयासों की सर्वत्र सराहना हुई | उसी क्रम में आज वे नेपाल की यात्रा पर पहुंचे  | हालांकि उनका ये दौरा कुछ घन्टों का ही है  किन्तु बुद्ध पूर्णिमा के दिन नेपाल स्थित उनकी जन्मस्थली लुंबिनी जाने का श्री मोदी का निर्णय हमेशा की तरह उनकी  विदेश यात्रा को सार्थकता प्रदान करने में  सहायक होगा | वहां के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा उनकी अगवानी हेतु एक दिन पहले ही लुंबिनी आ चुके थे | गौतम बुद्ध की जन्मस्थली में बुद्ध पूर्णिमा पर उनके जाने से न सिर्फ भारत और नेपाल अपितु दुनिया भर के बौद्ध देशों में जो सकारात्मक सन्देश जाएगा वह मोजूदा अंतर्राष्ट्रीय हालातों में बेहद जरूरी एवं लाभदायक माना जा रहा है | इस बारे में ये उल्लेखनीय है कि श्री देउबा  के प्रधानमंत्री बनने के बाद दोनों देशों के सम्बन्ध काफी सुधरे हैं | अन्यथा पिछले प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली तो पूरी तरह चीन की गोद में बैठकर  भारत के साथ सीमा विवाद के नाम पर  युद्ध तक के लिए आमादा हो गये थे | हालाँकि मोदी सरकार ने भी उस शरारत पर बेहद कड़ा रुख अपनाते हुए नेपाल की आपूर्ति रोकने जैसा कदम उठाते हुए कूटनीतिक दृढ़ता का परिचय दिया | संयोगवश ओली सरकार का अति चीन प्रेम उन्हें ले डूबा और श्री देउबा प्रधानमंत्री बनाये गए जिन्होंने  दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए  भारत यात्रा भी की जिसमें काशी विश्वनाथ मंदिर का दर्शन भी शामिल था | अब बुद्ध पूर्णिमा के दिन श्री मोदी के लुंबिनी पहुंचने से जो सन्देश निकलने वाला है वह भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में जाए  बिना नहीं रहेगा | लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर श्रीलंका पर होगा जो इन दिनों अभूतपूर्व संकट में घिरा है और उसका कारण भी चीन को ही माना जा रहा है | यहाँ ये जान लेना भी जरूरी है कि नेपाल भी कमोबेश श्रीलंका जैसी ही स्थिति में है | उसने भी चीन से अनाप – शनाप कर्ज ले रखा है और देर – सवेर वह आर्थिक  दिवालियेपन की ओर बढ़ रहा है | गैर जरूरी चीजों का आयात रोककर उसने   संकट की स्वीकारोक्ति भी कर दी | ऐसे में नेपाल की विकास परियोजनाओं में काफी आर्थिक सहायता करने वाले भारत के लिए दोहरी चिंता का कारण उत्पन्न हो गया है | पहला तो ये कि आर्थिक आपात्काल की स्थिति में नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता पैदा होना अवश्यम्भावी है जिसका परिणाम दोबारा माओवादियों का सत्ता में लौटना हो सकता है जो हमारे हितों के विरुद्ध होगा क्योंकि उस स्थिति में चीन का वर्चस्व इस पहाड़ी देश पर और बढ़ जाएगा जिसकी गिद्ध दृष्टि नेपाल पर उसी दिन से लगी  हुई है जबसे उसने तिब्बत पर बलात कब्जा किया था | और दूसरा ये कि यदि नेपाल में भी श्रीलंका जैसे हालात उत्पन्न हुए तब वहां से बड़ी संख्या में लोग भारत आयेंगे जिसकी वजह से शरणार्थी संकट पैदा होगा | दरअसल  भारत के आजाद होने के बाद जो लोग सत्ता में आते रहे उनमें से  अधिकतर ने नेपाल के हिन्दू राजघराने की बजाय उसके विरोधियों का साथ दिया जो भीतर ही भीतर चीन की तरफदारी करते रहे | इसी का दुष्परिणाम राजशाही के पतन के बाद माओवादी सत्ता के तौर पर देखने मिला जिसने भारत के साथ रिश्ते बिगाड़ने में रूचि ली | लेकिन जैसे संकेत मिले हैं उनके अनुसार नेपाल में भी एक वर्ग ऐसा है जो चीन की कुटिल चाल को समझकर उसके विरुद्ध सडकों पर उतर आया है | देउबा सरकार आने के बाद नेपाल ने भारत के प्रति दोस्ताना रवैया दिखाया है | इसका एक कारण श्रीलंका का हश्र भी है | वहां के लोगों को ये बात अच्छी तरह समझ में आ गई है कि चीन जो सहायता देता है उसका उद्देश्य अंततः नेपाल को कर्ज के बोझ तले दबाकर हड़पना है | भारत के लिए हालाँकि इन दोनों देशों को कर्ज से उबारना तो टेढ़ी खीर है लेकिन इस स्थिति का लाभ लेकर वे चीन के शिकंजे में न चले जाएँ इसलिए हमें सतर्क रहना पडेगा | उस दृष्टि से श्रीलंका को धन और जरूरी सामान की आपूर्ति कर भारत ने वहां के लोगों में  अपने लिए समर्थन और सम्मान अर्जित करते हुए जबरदस्त कूटनीतिक दांव चला है | नेपाल में यद्यपि अभी श्रीलंका जैसी स्थिति नहीं बनी लेकिन यदि तुरंत उपाय न किये गए तो जल्द ही आर्थिक अराजकता देखने मिल सकती है | और तब चीन वहां सीधा हस्तक्षेप करने की स्थिति में होगा क्योंकि  दोनों की सीमाएं मिली हुई हैं | इसलिए श्री मोदी की संक्षिप्त नेपाल यात्रा से भी बड़े परिणाम निकलने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता | हालाँकि चीन इसके बाद कुछ न कुछ करे बिना नहीं रहेगा लेकिन मौजूदा वैश्विक माहौल में वह पहले जैसी आक्रामकता दिखाने की  स्थिति में नहीं है | कूटनीति के मोर्चे पर श्री  मोदी की सक्रियता और आत्मविश्वास ने भारत को एक बड़ी  अंतर्राष्ट्रीय ताकत के रूप में स्थापित कर दिया है | नेपाल यात्रा उस दिशा में एक कारगर कदम है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 14 May 2022

चिंतन शिविर : कर्ज उतारने की शुरुवात प्रथम परिवार ही क्यों न करे



कांग्रेस का बहुप्रतीक्षित नव संकल्प चिंतन शिविर गत दिवस राजस्थान के उदयपुर शहर में शुरु हुआ | तीन दिन के  इस आयोजन में पार्टी अपनी भावी योजनाओं के साथ ही उस रणनीति का निर्धारण करेगी जिससे वह 2024 में सत्ता में भले न आ सके किन्तु कम से कम वजनदार विपक्ष के तौर पर तो संसद में उसकी उपस्थिति हो | पांच राज्यों के हालिया चुनाव में मुंह के बल गिरने के बाद उसको चिंतन का खयाल आया | शिविर के कुछ दिन पूर्व कांग्रेस की डूबती नैया को पार लगाने के लिए प्रशांत किशोर उभरे थे जिन्होंने कुछ सुझाव और कार्ययोजनाएं आला नेतृत्व के सामने रखीं | उस दौरान उनके कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा काफी तेजी से चली किन्तु जल्द ही उन्होंने खुद होकर उसका खंडन कर दिया  | लेकिन जैसे संकेत उदयपुर से आ रहे हैं उनके अनुसार उनके ही  सुझावों में से अनेक पर पार्टी  विचार कर रही है जिनमें मुख्यतः युवा चेहरों को आगे लाना है | एक परिवार एक उम्मीदवार के सिद्धांत को लागू करने के साथ ही किसी पद पर आने से पहले पांच साल संगठन का काम करने की शर्त के साथ ही ये भी तय किये जाने की खबर है कि एक बार पद पर रहने के बाद दोबारा उपकृत किये जाने के लिए तीन वर्ष प्रतीक्षा करनी होगी | लेकिन गांधी परिवार इस नियम से ऊपर रहेगा | शिविर स्थल पर नेताओं के जो पोस्टर लगाये गए हैं उनमें नेहरू - गांधी परिवार के बजाय सरदार पटेल , नेताजी सुभाष चन्द्र बोस , बाबू राजेन्द्र प्रसाद आदि को महत्व दिया गया है | प्रथम दिन पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टीजनों से आह्वान किया कि पार्टी ने हमें बहुत कुछ दिया लेकिन जब वह संकट में है तो हमें उसके उपकारों का बदला चुकाना चाहिये | उल्लेखनीय है शिविर में शामिल 400 नेताओं में अधिकतर  गांधी परिवार समर्थक ही हैं इसलिए उम्मीद तो यही है कि अंततः उसी का प्रशस्तिगान करते हुए सब अपने घर लौट जायेंगे | पार्टी वाकई चाहती है कि वह  दुरावस्था से बाहर आये  तो उसे यथास्थितिवाद त्यागना होगा ? श्रीमती गांधी का ये कहना बहुत सही है कि पार्टी ने जो दिया उसे लौटाना सबका कर्तव्य है किन्तु क्या इस नेक कार्य की शुरुवात उनके परिवार से ही नहीं होनी चाहिए क्योंकि अपने पूर्वजों की पुण्याई के नाम पर कांग्रेस का सबसे ज्यादा लाभ तो मौजूदा गांधी परिवार ने ही उठाया और आज भी उसे सारी बंदिशों से परे रखने का राग दरबारी ये डर दिखाकर गाया जा रहा है कि वरना पार्टी बिखर जायेगी | शिविर में अतीत की गलतियों पर विचार करते हुए भविष्य में उन्हें न दोहराए जाने का संकल्प लिए जाने की बात  कही जा रही है | लेकिन जब तक उनके जिम्मेदार लोगों को दंड न दिया जाए तब तक शायद ही कुछ हासिल हो सकेगा | पिछले लोकसभा चुनाव के तीन साल बाद हो रहे इस शिविर में सबसे पहले इस बात पर विचार होना चाहिए कि 2019 की  हार के बाद जब राहुल गांधी ने नैतिकता के नाम पर अध्यक्ष पद छोड़कर किसी गैर गांधी को आगे लाये जाने की बात कही थी तब महीनों अनिश्चितता बनाये रखकर आख़िरकार श्रीमती गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त करने का औचित्य क्या था , जो स्वास्थ्य संबंधी कारणों से मैदानी प्रचार करने में असमर्थ हो चुकी थीं | दूसरी बात ये है कि जब श्री गांधी ने अध्यक्षता त्याग दी तब बजाय दूसरे युवा नेताओं में संभावनाएं तलाशकर आगे करने के वे और उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा ही पार्टी में सारे निर्णय लेती रहीं | यदि पार्टी की कमान किसी अन्य के पास आई होती तो बीते तीन साल में उसकी छवि और पहिचान राष्ट्रीय स्तर पर बन जाती | देश की सबसे पुरानी पार्टी होने के कारण  भले ही चुनावी मैदान में वह पहले जैसी दमदार न रही हो लेकिन राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर उसी का नाम लिया जा सकता है | विपक्ष का कोई भी गठबंधन उसके बिना कारगर नहीं हो सकता | बुरे से बुरे दौर में भी  उसके पास प्रतिबद्ध मतदाता हैं किन्तु एक ही  खूंटे  से बंधे रहने के कारण उसकी चेतना शिथिल पड़ गई | ऐसे में आवश्यकता है वह अपने मौजूदा ढांचे के साथ ही सोच भी बदले अन्यथा ये शिविर भी आये , बैठे , खाये  – पिये खिसके से ज्यादा कुछ साबित नहीं होगा | कांग्रेस में जितने भी असंतुष्ट हैं उनकी  शिकायत केवल  और केवल गांधी परिवार के एकाधिकार को लेकर है | उन्हें ये लगता है और जो सही भी है कि लगातार दो लोकसभा चुनाव हारने और संसद में मान्यता प्राप्त विपक्ष का दर्जा तक गंवाने के बाद भी शीर्ष नेतृत्व किसी अन्य को अवसर देने राजी नहीं है | संगठन के चुनाव न हो पाने से नई पौध तैयार नहीं हो पा रही | जनाधार और अच्छी छवि के लोगों को दूर रखते हुए परिवार की परिक्रमा करने वालों को उपकृत किया जाता है | जब गांधी परिवार के नेतृत्व को देश का जनमानस केंद्र और राज्य दोनों में लगातार अस्वीकृति करता आ रहा है तब किसी और को आजमाने में हिचक क्यों है , इस प्रश्न का समुचित उत्तर तलाशे बिना ऐसे कई चिन्तन शिविर भी कांग्रेस को  दुरावस्था से नहीं  निकाल पाएंगे | आगामी लोकसभा चुनाव के पहले अनेक राज्यों के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं जिनमें कुछ ऐसे भी हैं जहां वह भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंदी है | इनमें से राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसकी सरकार है | हिमाचल और गुजरात में वह मुख्य विपक्षी दल है लेकिन आम आदमी पार्टी उससे वह दर्जा छीनने के लिए कमर कस रही है | इन्हें लेकर पार्टी कितनी गम्भीर है इसका एक उदाहरण गुजरात कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हार्दिक पटेल का ताजा बयान है जिसके अनुसार उन्होंने  राहुल गांधी से मिलने का समय माँगा तब जवाब मिला अभी व्यस्त हूँ और दो सप्ताह बाद बताऊंगा | नाराज चल रहे हार्दिक न्यौते के बावजूद उदयपुर शिविर में शरीक नहीं हुए | ऐसी ही बेरुखी राहुल ने बरसों पहले असम कांग्रेस के बड़े नेता हेमंता बिस्वा शर्मा के साथ दिखाई थी जिससे रुष्ट होकर वे भाजपा में चले गए और आज असम के मुख्यमंत्री हैं | हार्दिक के भी भाजपाई बनने की अटकलें जोरों पर हैं | यदि वैसा हुआ तब गुजरात में कांग्रेस लड़ाई से पहले ही पराजयबोध  का शिकार हो जायेगी | राजस्थान की गुत्थी उलझाये रखने में भी गांधी परिवार की अनिर्णय की प्रवृत्ति है | और यदि फैसला होता भी है तो पंजाब जैसा जिसकी वजह से अच्छा भला राज्य हाथ से निकल गया | उदयपुर में हो रहे इस आयोजन में लिए जाने वाले निर्णय  आज या कल सामने आयेंगे  लेकिन  कांग्रेस वाकई अपना उदय चाहती है तब उसे अपनी सेना का पुनर्गठन करते हुए ,किसी  ऊर्जावान सेनापति के हाथ कमान सौंपनी होगी वरना प. बंगाल और उ.प्र जैसे शर्मनाक नतीजे अन्य राज्यों में भी उसे देखने मिल जाएँ तो आश्चर्य नहीं होगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 13 May 2022

ज्ञानवापी : 31 साल बाद भी मामला प्रारंभिक स्थिति में



अक्सर अदालतों में बैठे न्यायाधीश सरकार को आदेश देते हैं कि फलां काम इस तारीख तक हो जाना चाहिए  | ऐसा न करने पर मानहानि का खतरा रहता है | दो दिन पहले म.प्र में ओबीसी आरक्षण के पचड़े में रुके पंचायत और नगरीय चुनाव संबंधी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को निश्चित तारीख तक कुछ  दस्तावेज सौंपने कहा था जो वह पेश नहीं कर सकी और तब उसने बिना आरक्षण के ही चुनाव करवाने का फरमान जारी कर दिया | इसी तरह दशकों तक लटके रहे राम जन्मभूमि के विवाद को सुलझाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दैनिक सुनवाई की गई | आशय ये है कि जिन मामलों को न्यायपालिका सुलझाना चाहती है उनका निराकारण तेजी से हो जाता है वरना  पेशी  बढ़ती जाती है | हालाँकि न्यायपालिका की कार्यपद्धति  कानून द्वारा  बनाये कायदों से नियंत्रित रहती है | लेकिन जो मामला समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित करता हो ,  उसको प्राथमिकता के साथ निपटाना जरूरी होता है  | ऐसा इसलिए आवश्यक  है क्योंकि अपीलों का सिलसिला  सर्वोच्च न्यायालय तक चलता है | ऐसे में  प्राथमिक न्यायालयीन प्रक्रिया ही  बीरबल की खिचड़ी जैसी रही तो अंतिम निर्णय होने में कितना वक्त लगेगा इसका अंदाजा साधारण व्यक्ति तक लगा सकता है | उस दृष्टि से सही मायनों में वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर में बनी ज्ञानवापी  मस्जिद संबंधी  मामले में गत दिवस निचली अदालत ने जो आदेश दिया उसकी तह में जाने से पता चला कि वर्ष 1991 में कुछ लोग इस दावे के साथ अदालत जा पहुंचे कि उक्त मस्जिद 1669 में औरंगजेब के  शासनकाल में विश्वनाथ मंदिर तोड़कर बनाई गयी थी | बीते 31 साल से इस मामले में न्यायालय ने क्या किया ये शोध का विषय है | यद्यपि बीते कुछ समय से  इसमें  गति आई और अदालत ने एक अधिवक्ता को बतौर कमिश्नर मस्जिद में जाकर दावे की सत्यता पता करने कहा |  लेकिन जब वे  वहां गये तब उपस्थित मौलवियों और मुस्लिम जनता ने उनको घुसने से ही रोका | मस्जिद के कुछ हिस्से ताले  में बंद हैं जिनके बारे में वादी का कहना है कि उनकी ठीक से जाँच करने पर हिन्दू मंदिर के प्रमाण मिल जायेंगे | मुस्लिम समुदाय की तरफ से तमाम  ऐतराज पहले भी लगाये जा चुके हैं और वर्तमान में भी अदालती आदेश को मानने के बारे में असहमति के स्वर सुनाई दे रहे हैं | सम्भवतः इसी से रुष्ट होकर गत दिवस अदालत ने कड़ा रुख दिखाते हुए दो अतिरिक्त कमिश्नर और नियुक्त करते हुए आदेश पारित किया कि मस्जिद में तहखाने से लेकर हर जगह का  सर्वेक्षण और वीडियोग्राफी करवाकर 17 मई तक पूरी रिपोर्ट  पेश की जावे | साथ ही कह दिया कि जहां ताले बंद हैं उन्हें या तो खोला जाए या फिर तोड़ दिया जाए | उसने ये निर्देश भी दिया कि सर्वे के दौरान कमिश्नरों के अलावा सम्बंधित अधिवक्ता और  प्रशासनिक अमला ही रहेगा | इस  आदेश से  लगता है जैसे 31 साल पहले प्रस्तुत  मामले का संज्ञान अब जाकर लिया गया है | सर्वे दल जो रिपोर्ट देगा उस आधार पर  फैसला हो जायेगा ये मान लेना मूर्खता होगी क्योंकि ऐसे विषयों में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की जाँच ही प्रामाणिक मानी जाती है |  राममंदिर मसले का हल भी खुदाई में मिले प्राचीन  अवशेषों के आधार पर ही संभव हो सका | ज्ञानवापी मस्जिद में भी यही तरीका आजमाना अपेक्षित है  | बहरहाल जब अदालत ने  मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाये जाने के दावे की पुष्टि हेतु ऐतिहासिक प्रमाण एकत्र करने की पहल की है तब ये उम्मीद की जा सकती है कि इस विवाद को अदालत द्वारा हल किया जाना संभव हो जाएगा | लेकिन इस उम्मीद के साथ ही ये विसंगति भी  है कि तीन दशक से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी यदि ये प्रकरण सबूत जुटाने की प्रारम्भिक अवस्था में ही है तब अंतिम तौर पर निराकरण होते – होते तो न जाने गंगा जी में कितना पानी और बह चुका होगा ? सोचने वाली बात ये है कि इस जैसे मसले के बारे में , जिसका सम्बन्ध न सिर्फ वाराणसी अपितु पूरे देश से है , अदालती प्रक्रिया की गति इतनी धीमी है  | बहरहाल उसने सुस्ती त्यागकर तेज गति से आगे बढ़ने की इच्छा शक्ति प्रदर्शित की है तब मुस्लिम पक्ष से भी  अपेक्षा है कि  सर्वे का काम  सुचारू ढंग से होने दे क्योंकि उसमें बाधा डालने से चोर की दाढी में तिनके वाली उक्ति चरितार्थ हो रही है | वैसे भी  सनातन धर्म के प्राचीनतम आस्था केंद्र के परिसर में मस्जिद होना किसी भी दृष्टि से हजम होने वाली बात नहीं है | सर्वविदित है कि औरंगजेब इस्लामी कट्टरता का प्रतीक था |  विश्वनाथ मंदिर का हिस्सा प्रतीत होती ज्ञानवापी  मस्जिद निश्चित तौर पर उसकी धर्मान्धता का प्रमाण है | आश्चर्य का विषय है कि आजादी के बाद मुगलकालीन अत्याचारों के इन प्रमाणों को नष्ट करने के बारे में क्यों नहीं सोचा गया ? और जब अदालत में मामला दर्ज हुआ तब वहां कछुआ से भी धीमी चाल का नजारा देखने मिला | ऐसे में ये प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि जो आदेश अदालत द्वारा अब दिया गया यही बरसों पहले दिया गया होता तो बड़ी बात नहीं अब तक दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता | बहरहाल अब जब शुरुवात हो ही चुकी है तब इस प्रकरण को भी सर्वोच्च प्राथमिकता  के आधार पर जल्द से जल्द निष्कर्ष तक पहुँचाना चाहिए | इसी तरह मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि से सटाकर बनाई गयी शाही मस्जिद का विवाद भी अदालत में  आ चुका है | बेहतर तो ये होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इन मामलों को उ.प्र उच्च न्यायालय द्वारा अपने हाथ में लिए जाने का निर्देश दे जिससे कि कानूनी लड़ाई का सफर छोटा किया जा सके | अन्यथा इनके लंबित रहने से सामजिक स्तर पर तनाव बना रहेगा | चूंकि ये मामले धार्मिक आस्था से जुड़े हैं इसलिए पूरा देश प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर इनमें रूचि लेता है | और फिर राजनीति करने वालों को भी उनमें अपना हित नजर आने लगता है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 12 May 2022

दंड विधान संहिता के अधिकतर कानून अंग्रेजों के ही बनाये हैं



 जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ | सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी | इस मामले की सुनवाई के दौरान अदालत द्वारा केंद्र सरकार से जिस तरह के सवाल पूछे जा रहे थे उनसे  संकेत मिल रहा था कि वह इस कानून को कालातीत मानते हुए इसके खात्मे की पक्षधर है | उसका बस चलता तो वह इसे रद्द करने का फरमान सुना देती लेकिन केंद्र सरकार द्वारा इसकी समीक्षा करने का का आश्वासन दिए जाने के बाद उसने फ़िलहाल इस पर अस्थायी रोक लगा दी है | अब  सरकार निश्चित समयावधि के भीतर इसके बारे में अपने रिपोर्ट पेश करेगी जिसके बाद ये तय होगा कि अंग्रेजों के दौर के इस कानून की आजाद भारत में जरूरत है या नहीं ? ये विवाद इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि हाल के वर्षों में पूरे देश में सैकड़ों की संख्या में राजद्रोह के प्रकरण दर्ज हुए | इनके बारे में ये अवधारणा है कि ये राजनीतिक बदले की भावना के वशीभूत किये गए और इसका उद्देश्य अपने विरोधी की आवाज दबाना है | सत्ता में बैठे व्यक्ति की आलोचना भी राजद्रोह की परिधि में आने के कारण विपक्ष सहित दूसरे अनेक लोगों पर इस कानून के तहत मुकदमे लगाये गए और गिरफ्तारियां भी हुईं | ऐसे में बात सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंची जिसने लम्बी सुनवाई के बाद गत दिवस कानून को लागू किये जाने पर अगली सुनवाई तक रोक लगा दी | जिन पर ये प्रकरण दर्ज है वे सम्बंधित अदालत में जमानत की अर्जी लगा सकेंगे  | लेकिन तब तक नए मामले राजद्रोह के अंतर्गत दर्ज करना संभव नहीं होगा | और इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं को भी कुछ राहत दे दी | लेकिन इस बारे में प्रश्न ये उठता है कि इस कानून को रद्द करने के बारे में जितना हल्ला अब मचाया जा रहा है वह पहले क्यों नहीं हुआ ? कपिल सिब्बल जैसे दिग्गज अधिवक्ता ने केन्द्रीय मंत्री रहते हुए इस कानून को रद्द करने की अनुशंसा मंत्रीमंडल के समक्ष की हो ऐसा सुनने में नहीं आया | लगता है केंद्र में सत्ता बदलने के बाद राजद्रोह के मामलों में तेजी आने से एक वर्ग विशेष में घबराहट व्याप्त है | जेएनयू , जामिया मिलिया , जादवपुर , उस्मानिया और अलीगढ़ मुस्लिम विवि के परिसर में जिस तरह के देश विरोधी नारे और भाषणबाजी हुई उसके बाद कठोर  कार्रवाई की  आवश्यकता आम नागरिक भी महसूस करने लगा था | भारत तेरे टुकड़े होंगे और कश्मीर क्या मांगे आजादी जैसे नारे देश की  राजधानी में लगाने वालों के विरुद्ध भी यदि कड़े कानूनी कदम नहीं उठाये जाते तब ऐसी ताकतों का हौसला और बुलंद होने का खतरा है | वैसे तो राजद्रोह ही क्यों किसी भी क़ानून का दुरुपयोग नहीं होना चाहिये | लेकिन देश में कुछ लोग और संगठन जिस तह से अराजकता फ़ैलाने पर आमादा हैं उन पर लगाम कसने के लिए कडा क़ानून ही नहीं  अपितु उसे लागू करने के लिए दृढ इच्छा शक्ति की भी जरूरत है | निर्दोष लोगों की हत्या करने वाले नक्सलवादियों के कृत्य को जायज ठहराने वाले कथित बुद्धिजीवियों  के प्रति सौजन्यता बरतना देशहित में नहीं हो सकता | जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने के बाद वहां जिस तरह के कड़े कदम उठाये गये उन्हें मानवाधिकारों का हनन मानने वाला तबका भी हमारे देश में है | ये वही लोग हैं जो बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों के प्रति हमदर्द बने हुए हैं | ऐसे में सवाल ये है कि राजद्रोह जैसे कानून का होना गलत है या उसके दुरुपयोग को रोकना जरूरी है ? हमारे देश में स्वतंत्र न्यायपालिका है जिसने कन्हैया कुमार जैसों को भी जमानत दी | ऐसे में होना ये चाहिए कि किसी कानून के बेजा उपयोग की गुंजाईश समाप्त करने पर विचार हो | केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजुजू द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की गई उसका संज्ञान भी लिया जाना चाहिए | ऐसे संवेदनशील मामलों में न्यायपालिका और सरकार के बीच टकराव उचित नहीं है क्योंकि  दोनों की अपनी – अपनी भूमिका और अहमियत है | लोकतंत्र के सभी स्तंभों के बीच पारस्परिक सम्मान और समन्वय बेहद जरूरी है | न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वह संविधान के अंतर्गत व्यवस्था को चलाये जाने के प्रति सजग रहे | चुनी हुई सत्ता निरंकुश न हो इस पर भी उसे नजर रखनी होती है | लेकिन बीते एक दो दशकों से ये देखने में आया है कि न्यायपालिका भी कई मामलों में सीमोल्लंघन कर जाती है | यद्यपि कई बार ऐसा करना आवश्यक भी होता है लेकिन हर मामले में नहीं | सर्वोच्च न्यायालय को इस बात की चिंता भी करनी चाहिये कि राजद्रोह क़ानून पर अस्थायी रोक लगाए जाने के कारण यदि कोई ऐसा मामला सामने आया जिसमें उसके उपयोग की जरूरत है तब सरकार क्या करेगी ? सवाल और भी हैं लेकिन चूंकि  खुद सरकार ने समीक्षा की बात स्वीकार कर ली है इसलिए उस तक रुकना ही होगा | उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय इस प्रकरण में देशहित को सर्वोपरि मानकर निष्कर्ष निकालेगा | रही बात अंग्रेजों के दौर का कानून होने की तो हमारे देश में जो दंड विधान संहिता है उसके अधिकतर कानून उसी समय के हैं जिनमें से अनेक की उपयोगिता और औचित्य पर सवाल उठते रहे हैं | बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में भी विचार करे |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 11 May 2022

बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव : भाजपा – कांग्रेस की अग्नि परीक्षा



आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने म.प्र में बिना ओबीसी आरक्षण के ही नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव करवाने का आदेश दे दिया | प्रदेश सरकार द्वारा इस वर्ग को 35 फीसदी आरक्षण दिए जाने की मांग उसने ये कहते हुए अस्वीकार कर दी कि वह आवश्यक विवरण उपलब्ध नहीं  करा सकी किन्तु उसके अभाव में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को टालते रहना गलत होगा | राज्य चुनाव आयोग ने भी न्यायालय के निर्देशानुसार चुनाव हेतु अपनी स्वीकृति दे दी | लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ओबीसी आरक्षण के साथ ही चुनाव करवाने की प्रतिबद्धता दोहराते हुए ये घोषणा भी कर डाली कि  सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार  याचिका लगाई जावेगी | वहीं अनेक विधि  विशेषज्ञ कह रहे हैं कि अब  पुनर्विचार याचिका की कोई गुंजाईश ही नहीं है | कांग्रेस और भाजपा के बीच एक – दूसरे को ओबीसी विरोधी साबित करने के लिए आरोप – प्रत्यारोप का दौर भी चल पड़ा है | यदि सर्वोच्च न्यायालय ने पुनर्विचार याचिका स्वीकार नहीं की तब ओबीसी आरक्षण के बिना चुनाव करवाने की बाध्यता होगी | और उस स्थिति में जैसा कहा जा रहा है कि राजनीतिक दल ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवारी ओबीसी वर्ग के लोगों को देकर उनकी नाराजगी से बचना चाहेंगे | जो कुछ भी होना है वह आने वाले कुछ दिनों में ही स्पष्ट हो जायेगा किन्तु सर्वोच्च न्यायालय का रुख देखने से लगता है कि वह अपने  आदेश पर ही कायम रहेगा | ऐसे में ये मानकर चला जा सकता है कि चुनाव जल्द होंगे | चूँकि मानसून सिर पर है इसलिए  चुनाव आयोग के सामने  भी बड़ी दिक्कतें आयेंगीं | विशेष रूप से पंचायत चुनावों में बरसात  बाधा बन सकती है | जहाँ तक बात म.प्र सरकार की है तो भाजपा के लिए भी ये बड़ी चुनौती है | यद्यपि अपने मजबूत संगठन के बलबूते वह कांग्रेस पर भारी नजर आती है लेकिन ये चुनाव स्थानीय मुद्दों पर केन्द्रित होने से पूरे प्रदेश में एक जैसे समीकरण होना जरूरी नहीं रहता | यद्यपि ओबीसी वर्ग में  भाजपा का जनाधार काफी मजबूत है | स्वयं मुख्यमंत्री उसका प्रतिनिधित्व करते हैं और आम जनता के साथ उनका सम्पर्क भी बेहद जीवंत है | लेकिन कांग्रेस द्वारा भाजपा पर ओबीसी विरोधी होने का जो आरोप लगाया जा रहा है उसकी काट निकालना उसके लिए आसान नहीं होगा | और फिर ओबीसी के तुष्टीकरण के लिए उन्हें ज्यादा टिकिटें देने  के अलावा सामान्य वर्ग के प्रभुत्व वाली सीटों से उतारे जाने पर उच्च जातियों के नाराज होने का नुकसान भी संभावित है  | यद्यपि ये समस्या कांग्रेस  के सामने भी रहेगी |  2023 के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा के  लिए स्थानीय निकायों और पंचायत चुनाव जीतना  जरूरी होगा क्योंकि इनके नतीजों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव विधानसभा चुनाव पर पड़े बिना नहीं रहेगा | कांग्रेस के लिए भी ये  जीवन – मरण का सवाल होंगे | यदि वह इनमें सफलता हासिल कर सकी तो उसके लिए 2023 का मुकाबला जीतना आसान हो जायेगा , अन्यथा उसका मनोबल टूटे बिना नहीं रहेगा | इसी तरह भाजपा के लिए भी ये चुनाव इस पार या उस पार वाले होंगे | 2018 के विधानसभा चुनाव की कडवी यादें वह शायद ही भूली होगी | मुख्यमंत्री भी इस बात को समझते हैं कि ये चुनाव  उनके राजनीतिक भविष्य का निर्धारण करने वाले होंगे | मार्च 2020 में सत्ता हासिल होने के बाद चूंकि कोरोना लग गया , उस कारण सरकार को कार्य करने का समुचित अवसर नहीं मिला | इस वजह से आधे – अधूरे पड़े काम भाजपा के लिए मुसीबत बन सकते हैं | उस  काल में सांसद – विधायक भी ज्यादा कुछ न कर सके | कमलनाथ सरकार ने आते ही चूंकि स्थानीय निकाय भंग कर दिए थे इसलिए उनमें नौकरशाही हावी है | जिसके भ्रष्टाचार का खामियाजा  भाजपा के खाते आ सकता है | लेकिन इससे भी बड़ी समस्या जो भाजपा और कांग्रेस दोनों के सामने आने वाली है वह है एक अनार सौ बीमार वाली | यदि चुनाव हुए तो बरसों से टिकिट की आस  लगाये कार्यकर्ताओं की उम्मीदें सातवें आसमान पर होंगीं | ऐसे में जो उससे वंचित रह जायेंगे उनकी नाराजगी दोनों बड़ी पार्टियों को इस चुनाव के बाद विधानसभा के मुकाबले में भी काफ़ी महंगी साबित होगी |  जहाँ तक प्रश्न ओबीसी आरक्षण का है तो ये मुद्दा कानून से ज्यादा राजनीतिक बन गया है | भाजपा और कांग्रेस दोनों अपने को ओबीसी का हितचिन्तक  साबित करने में जुटी हैं  | भाजपा के पास कहने को ये है कि उसने उमाश्री भारती , बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान के रूप में लगातर तीन ओबीसी मुख्यमंत्री दिए जबकि कांग्रेस  के पास प्रदेश स्तर पर पिछड़ी जाति का कद्दावर नेता नहीं है | अरुण यादव को जिस तरह पीछे धकेला गया उसकी वजह से पार्टी  कमजोर हुई है | सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस  ओबीसी आरक्षण के बिना ही चुनाव करवाने का जो आदेश दिया उसके परिप्रेक्ष्य में भाजपा और कांग्रेस दोनों को अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा | आरक्षण का प्रावधान हुए बिना भी वे इस वर्ग को कितना अवसर देंगीं यह  इन चुनावों से स्पष्ट हो जाएगा | यदि उन्हें समुचित प्रतिनिधित्व बिना  आरक्षण के ही मिल सके तब हो सकता है भविष्य में इसे लेकर बनाया जाने वाला दबाव कुछ कम हो | वैसे भी राजनीतिक दलों को अपने स्तर पर इस तरह की रचना  करनी चाहिये जिससे समाज के सभी वर्गों के साथ न्याय हो सके और विकास की मुख्यधारा से कोई भी इसलिए वंचित न रहे क्योंकि वह दलित अथवा पिछड़ी जाति में जन्मा है | इसी के साथ ये भी जरूरी है कि आरक्षित वर्ग के जो राजनीतिक नेता स्थापित हो चुके हैं वे  अपने परिवार के दायरे से निकलकर समूचे  समाज के वंचित वर्ग के उत्थान को प्राथमिकता दें  जो कि आरक्षण का मूल उद्देश्य है |  

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 10 May 2022

कमजोर नेतृत्व खालिस्तानी आतंक की वापसी की वजह बन रहा



ऐसा लगता है पंजाब को जलाने की बड़ी साजिश रची जा रही है | पटियाला में खालिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने वाली रैली पर सिख संगठन द्वारा किये हमले के बाद काली मंदिर में जिस तरह से निहंगों द्वारा आतंक फैलाया गया वह सामान्य बात नहीं थी | पंजाब के किसी हिन्दू धार्मिक स्थल में घुसकर सिखों द्वारा तलवारें लहराने का यह संभवतः पहला अवसर था | अन्यथा गुरुद्वारों में जहाँ हिन्दू श्रद्धालु बड़ी संख्या में देखे जाते हैं वहीं मंदिरों में सिखों की आवाजाही भी बहुत ही सामान्य बात है | वैष्णो देवी और अमरनाथ यात्रा में भी सिखों की अच्छी खासी संख्या होती है | नब्बे के दशक में जब खालिस्तानी आतंक पंजाब में छाया था तब भी हिन्दू – सिख भाईचारा यथावत रहा | लेकिन ऐसा लगता है किसान आन्दोलन की नमी से पनपे खालिस्तानी बीज पंजाब की धरती पर अंकुरित होने लगे हैं | निहंगों द्वारा की गई कुछ हिंसक वारदातों के बाद ये महसूस किया जाने लगा है कि देश विरोधी शक्तियां इस सीमावर्ती राज्य में पाँव फ़ैलाने के लिये प्रयासरत हैं | बीते कुछ दिनों के भीतर ही जो संदिग्ध पकड़े  गये उनके पास से विस्फोटक पदार्थ भी मिले | गत दिवस चंडीगढ़ के निकट पंजाब के मोहाली में स्थित इंटेलिजेंस विंग के मुख्यालय पर रॉकेट से हुए हमले से उन तमाम आशंकाओं की पुष्टि हो गई जिनके अनुसार पंजाब में आतंकवाद नए सिरे से सिर उठाने की फ़िराक में हैं |  हालाँकि रात का समय होने से नुकसान ज्यादा नहीं हुआ अन्यथा दिन के समय जनहानि भी हो सकती थी | बताया जा रहा है कि रॉकेट तकरीबन 80 फीट दूर से फेंका गया |  इस सन्दर्भ में सबसे अधिक चिंता का विषय ये है कि आखिरकार ऐसा क्या और कैसे हो गया कि दशकों से ठंडा पड़ा खालिस्तानी आन्दोलन अचानक गर्म हो उठा | स्मरणीय है जब कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब के किसान जिनमें ज्यादातर सिख थे,दिल्ली आये तब मददगार के तौर पर गुरुद्वारों ने भी धरनास्थल पर लंगर के जरिये सेवा कार्य शुरू किये | शुरुवात में तो वह सामान्य लगा लेकिन जल्द ही वहां  भिंडरावाले के चित्र वाली टी शर्ट और खालिस्तानी झन्डे नजर आने लगे | निहंगों ने भी किसानों के तम्बुओं के साथ अपना डेरा जमा लिया जबकि उन्हें खेती – किसानी से कुछ भी लेना देना नहीं था | सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि किसान आन्दोलन के समर्थन में कैनेडा और ब्रिटेन में भारतीय दूतावास के समक्ष वहां रहने वाले सिख संगठनों द्वारा प्रदर्शन किये गए जिनमें खालिस्तानी नारे भी लगे | वह  आन्दोलन तो जैसे – तैसे खत्म हो गया और कृषि कानून भी वापिस हो गये परन्तु  जिस कांग्रेस सरकार ने आन्दोलन को पंजाब से दिल्ली भेजकर अपना सिरदर्द घटाया था , जनता ने उसे सत्ता से बाहर कर दिया | लेकिन विकल्प के तौर पर आई आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद से जिस तरह खालिस्तान समर्थक सिख संगठन खुले आम उपद्रव मचाने का दुस्साहस कर रहे हैं वह आने वाले बड़े खतरे का संकेत है | आम आदमी पार्टी के खालिस्तानी नेताओं से सम्बन्धों को लेकर अरविन्द केजरीवाल के पुराने साथी डा.कुमार विश्वास ने जो आरोप विधानसभा चुनाव के पूर्व लगाए और फिर हालिया घटनाओं पर प्रतिक्रिया के दौरान उसकी सांकेतिक पुष्टि की वह निश्चित रूप से विवादित मसला है | परन्तु इतना जरूर  कहा जा सकता है कि पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान की  प्रशासनिक क्षमता पर अभी से सवाल उठने शुरू हो गये हैं | इस बारे में ये भी विचारणीय है कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कुर्सी छोड़ने के पूर्व अनेक मर्तबा केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह से अकेले में बात करते हुए सुरक्षा संबंधी कुछ जानकारियाँ दी थीं | निश्चित तौर पर उनके संज्ञान में कुछ न कुछ ऐसा आया होगा जिसे केंद्र सरकार की जानकारी में लाने की जरूरत उन्होंने महसूस की  |  उस समय पंजाब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के पाकिस्तान के निवर्तमान प्रधान मंत्री इमरान खान से याराने की भी राजनीतिक जगत में खूब चर्चा थी | ये भी सुनने में आता रहा कि कैप्टन ने सिद्धू और इमरान के बीच नजदीकी को लेकर भी कुछ जानकारी श्री शाह  को दी थी | हालांकि ऐसी बातों का खुलासा नहीं हो पाता किन्तु बीते एक दो साल के भीतर पंजाब के राजनीतिक  घटनाक्रम पर निगाह डालने से  ये बात सामने आती है कि स्पष्ट बहुमत वाली सरकार और कैप्टन जैसे अनुभवी मुख्यमंत्री  के बावजूद पकिस्तान की सीमा से सटे इस राज्य में कांग्रेस  की अंतर्कलह और पार्टी हाईकमान के ऊलजलूल निर्णयों ने वहां राष्ट्रीय पार्टियों की कब्र खोदने का गुनाह कर डाला | परिणामस्वरूप मिट्टी के नीचे दबे राष्ट्रविरोधी बीज सतह से ऊपर आने लगे हैं | गत दिवस नवजोत और भगवंत के बीच मुलाकात की खबर के बाद मोहाली में ख़ुफ़िया विंग के मुख्यालय पर राकेट से ग्रेनेड फेंके जाने की घटना हो गयी | हालांकि उस  मुलाकात से इसके तार जोड़ना उचित नहीं है लेकिन एक बात जरूर सामने आने लगी है कि पंजाब में जिस नई राजनीति का उदय हुआ उसके पास अनुभवी नेतृत्व का अभाव होने से राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे की अनदेखी करने का खतरा उत्पन्न हो गया है | आम आदमी पार्टी की सरकार ने स्वच्छ प्रशासन का जो संकेत दिया वह बेशक उत्साहवर्धक है लेकिन खालिस्तानी ताकतों पर लगाम न कसी गई तो पंजाब में आतंकवाद की लपटें तेज होने का खतरा बढ़ जाएगा | ऐसा लगता है श्री  मान के पास स्वतंत्र सोच का अभाव है और उनके मार्गदर्शक श्री केजरीवाल आगामी लोकसभा चुनाव के लिहाज से राष्ट्रीय विकल्प बनने के लिए हाथ - पाँव मारने में व्यस्त हैं | ऐसे में देश विरोधी ताकतों को अपना जाल फ़ैलाने का अवसर मिलने की सम्भावना बढ़ रही है |   

- रवीन्द्र वाजपेयी