Thursday 12 May 2022

दंड विधान संहिता के अधिकतर कानून अंग्रेजों के ही बनाये हैं



 जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ | सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी | इस मामले की सुनवाई के दौरान अदालत द्वारा केंद्र सरकार से जिस तरह के सवाल पूछे जा रहे थे उनसे  संकेत मिल रहा था कि वह इस कानून को कालातीत मानते हुए इसके खात्मे की पक्षधर है | उसका बस चलता तो वह इसे रद्द करने का फरमान सुना देती लेकिन केंद्र सरकार द्वारा इसकी समीक्षा करने का का आश्वासन दिए जाने के बाद उसने फ़िलहाल इस पर अस्थायी रोक लगा दी है | अब  सरकार निश्चित समयावधि के भीतर इसके बारे में अपने रिपोर्ट पेश करेगी जिसके बाद ये तय होगा कि अंग्रेजों के दौर के इस कानून की आजाद भारत में जरूरत है या नहीं ? ये विवाद इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि हाल के वर्षों में पूरे देश में सैकड़ों की संख्या में राजद्रोह के प्रकरण दर्ज हुए | इनके बारे में ये अवधारणा है कि ये राजनीतिक बदले की भावना के वशीभूत किये गए और इसका उद्देश्य अपने विरोधी की आवाज दबाना है | सत्ता में बैठे व्यक्ति की आलोचना भी राजद्रोह की परिधि में आने के कारण विपक्ष सहित दूसरे अनेक लोगों पर इस कानून के तहत मुकदमे लगाये गए और गिरफ्तारियां भी हुईं | ऐसे में बात सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंची जिसने लम्बी सुनवाई के बाद गत दिवस कानून को लागू किये जाने पर अगली सुनवाई तक रोक लगा दी | जिन पर ये प्रकरण दर्ज है वे सम्बंधित अदालत में जमानत की अर्जी लगा सकेंगे  | लेकिन तब तक नए मामले राजद्रोह के अंतर्गत दर्ज करना संभव नहीं होगा | और इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं को भी कुछ राहत दे दी | लेकिन इस बारे में प्रश्न ये उठता है कि इस कानून को रद्द करने के बारे में जितना हल्ला अब मचाया जा रहा है वह पहले क्यों नहीं हुआ ? कपिल सिब्बल जैसे दिग्गज अधिवक्ता ने केन्द्रीय मंत्री रहते हुए इस कानून को रद्द करने की अनुशंसा मंत्रीमंडल के समक्ष की हो ऐसा सुनने में नहीं आया | लगता है केंद्र में सत्ता बदलने के बाद राजद्रोह के मामलों में तेजी आने से एक वर्ग विशेष में घबराहट व्याप्त है | जेएनयू , जामिया मिलिया , जादवपुर , उस्मानिया और अलीगढ़ मुस्लिम विवि के परिसर में जिस तरह के देश विरोधी नारे और भाषणबाजी हुई उसके बाद कठोर  कार्रवाई की  आवश्यकता आम नागरिक भी महसूस करने लगा था | भारत तेरे टुकड़े होंगे और कश्मीर क्या मांगे आजादी जैसे नारे देश की  राजधानी में लगाने वालों के विरुद्ध भी यदि कड़े कानूनी कदम नहीं उठाये जाते तब ऐसी ताकतों का हौसला और बुलंद होने का खतरा है | वैसे तो राजद्रोह ही क्यों किसी भी क़ानून का दुरुपयोग नहीं होना चाहिये | लेकिन देश में कुछ लोग और संगठन जिस तह से अराजकता फ़ैलाने पर आमादा हैं उन पर लगाम कसने के लिए कडा क़ानून ही नहीं  अपितु उसे लागू करने के लिए दृढ इच्छा शक्ति की भी जरूरत है | निर्दोष लोगों की हत्या करने वाले नक्सलवादियों के कृत्य को जायज ठहराने वाले कथित बुद्धिजीवियों  के प्रति सौजन्यता बरतना देशहित में नहीं हो सकता | जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने के बाद वहां जिस तरह के कड़े कदम उठाये गये उन्हें मानवाधिकारों का हनन मानने वाला तबका भी हमारे देश में है | ये वही लोग हैं जो बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों के प्रति हमदर्द बने हुए हैं | ऐसे में सवाल ये है कि राजद्रोह जैसे कानून का होना गलत है या उसके दुरुपयोग को रोकना जरूरी है ? हमारे देश में स्वतंत्र न्यायपालिका है जिसने कन्हैया कुमार जैसों को भी जमानत दी | ऐसे में होना ये चाहिए कि किसी कानून के बेजा उपयोग की गुंजाईश समाप्त करने पर विचार हो | केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजुजू द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की गई उसका संज्ञान भी लिया जाना चाहिए | ऐसे संवेदनशील मामलों में न्यायपालिका और सरकार के बीच टकराव उचित नहीं है क्योंकि  दोनों की अपनी – अपनी भूमिका और अहमियत है | लोकतंत्र के सभी स्तंभों के बीच पारस्परिक सम्मान और समन्वय बेहद जरूरी है | न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वह संविधान के अंतर्गत व्यवस्था को चलाये जाने के प्रति सजग रहे | चुनी हुई सत्ता निरंकुश न हो इस पर भी उसे नजर रखनी होती है | लेकिन बीते एक दो दशकों से ये देखने में आया है कि न्यायपालिका भी कई मामलों में सीमोल्लंघन कर जाती है | यद्यपि कई बार ऐसा करना आवश्यक भी होता है लेकिन हर मामले में नहीं | सर्वोच्च न्यायालय को इस बात की चिंता भी करनी चाहिये कि राजद्रोह क़ानून पर अस्थायी रोक लगाए जाने के कारण यदि कोई ऐसा मामला सामने आया जिसमें उसके उपयोग की जरूरत है तब सरकार क्या करेगी ? सवाल और भी हैं लेकिन चूंकि  खुद सरकार ने समीक्षा की बात स्वीकार कर ली है इसलिए उस तक रुकना ही होगा | उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय इस प्रकरण में देशहित को सर्वोपरि मानकर निष्कर्ष निकालेगा | रही बात अंग्रेजों के दौर का कानून होने की तो हमारे देश में जो दंड विधान संहिता है उसके अधिकतर कानून उसी समय के हैं जिनमें से अनेक की उपयोगिता और औचित्य पर सवाल उठते रहे हैं | बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में भी विचार करे |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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