Monday 9 May 2022

विश्व युद्ध रोकने में भारत सक्षम : कूटनीतिक मजबूती का प्रभाव



 रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध को ढाई महीने हो चुके हैं | इसमें दो मत नहीं हैं कि रूसी आक्रमण से यूक्रेन में हर  तरफ तबाही का मंजर है | सभी बड़े शहर मलबे के ढेर बन चुके हैं | रूस  अपार सैन्य शक्ति का उपयोग करते हुए अपने इस पड़ोसी से घुटने टिकवाने की हरसंभव कोशिश कर रहा है | लेकिन अब तक वह ऐसा कुछ भी हासिल नहीं कर सका जिसे विजय कहा जा सके | वैसे  तो ये लड़ाई बेमेल है किन्तु यूक्रेन की सेना और जनता जिस साहस का परिचय दे रही है वह इस जंग का सबसे उल्लेखनीय पहलू है | हालाँकि इसके पीछे अमेरिका और उसके समर्थक देशों द्वारा दी जा रही आर्थिक और सैन्य सहायता का योगदान है | लगभग रोज बर्बादी की तरफ बढ़ रहे देश का हौसला टूटने का नाम नहीं ले रहा जिसके कारण रूस के राष्ट्रपति पुतिन की बौखलाहट बढ़ती जा रही है | यूक्रेन के विरुद्ध उनकी आक्रामकता ने पूर्वी यूरोप के देश हंगरी , रोमानिया आदि को तो भयभीत किया ही लेकिन स्केंडनेवियन देश फिनलैंड और स्वीडन को हाल ही में पुतिन ने जिस तरह धमकाया उसके बाद से ये लगने लगा है कि रूस   अब अन्य यूरोपीय देशों को भी  शिकार बनाना चाहता है | दरअसल पुतिन के गुस्से का कारण ये है कि तमाम यूरोपीय देश यूक्रेन के समर्थन में खुलकर सामने आ गये और अमेरिका के दबाव में उन सभी ने रूस पर बेहद कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए हैं | इसकी वजह से उसका आयात और निर्यात दोनों बुरी तरह प्रभावित हुए हैं | आर्थिक मामलों के जानकारों का आकलन ये है कि इस युद्ध में जहां यूक्रेन में  विध्वंस का आलम है वहीं रूस में  आर्थिक अराजकता फ़ैल गई है | जरूरी चीजों का आयात रुकने से जहां जनता परेशान हो रही है वहीं निर्यात पर रोक लग जाने से उद्योगपति भारी नुकसान उठाने मजबूर हैं | यद्यपि प. यूरोप के अनेक देश रूस से व्यापार करने के इच्छुक हैं क्योंकि कच्चे तेल और गैस के लिए वही उनका सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता था लेकिन अमेरिकी दबाव  के कारण वे आगे नहीं बढ़ पा रहे | इस लड़ाई से दुनिया शीतयुद्ध के पुराने दौर में तो वापिस लौट ही चुकी है लेकिन यदि जल्द शांति स्थापित न हुई तो बात विश्व युद्ध की तरफ बढ़ सकती है | भले ही वह द्वितीय विश्वयुद्ध जैसा  मैदानी न हो जिसमें थल सेना का काफी उपयोग हुआ था लेकिन तकनीक के इस दौर में युद्ध की भयावहता और दुष्प्रभाव पहले से कई गुना ज्यादा बढ़ गए हैं | मसलन रूस ढाई महीनों  में भले ही यूक्रेन को फतह न कर सका हो किन्तु उसने इस देश को बिना जीते ही जिस तरह तबाह किया उससे ये अंदाज लगाया जा सकता है कि युद्ध का विस्तार और भी देशों में हुआ तब दूसरे महा युद्ध के बाद न सिर्फ यूरोप वरन समूचे विश्व में जो आर्थिक विकास हुआ उस पर पानी  फिर जायेगा | दुर्भाग्य ये है कि कि जिस रूस ने हिटलर की विस्तारवादी सोच के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई जीती वही आज उसी तरह की नीतियों के साथ अपने पड़ोसियों को आतंकित करने पर आमादा है | हालाँकि इसके लिए अमेरिका भी कम कसूरवार नहीं है क्योंकि नाटो नामक सैन्य संधि का विस्तार रूस की सीमाओं तक करने के पीछे उसका इरादा इस विश्व शक्ति की घेराबंदी करना था | हालाँकि सोवियत संघ  के विघटन की टीस रूस के ह्रदय में बनी रहने से ही उसने अपने पुराने साथी देशों पर तरह – तरह के दबाव बना रखे हैं | विशेष रूप से पुतिन के सत्ता में आने के बाद से रूस की नीति सोवियत संघ के पुराने घटकों को अपना आर्थिक उपनिवेश बनाने की रही | यूक्रेन उसकी निगाह में ज्यादा ही खटकता रहा क्योंकि एक तो वह बड़ा देश है और दूसरा सैन्य तथा आर्थिक दृष्टि से  काफी विकसित भी था | पूर्वी और प. यूरोप के साथ भौगोलिक निकटता की वजह से उसकी अंतरर्राष्ट्रीय स्थिति भी बेहद मजबूत बनती गयी | रूस को ये बर्दाश्त नहीं हो रहा था और इसीलिए उसने क्रीमिया नामक यूक्रेनी बंदरगाह पर बलात कब्ज़ा कर लिया | उसके बाद से पुतिन के हौसले और बुलंद हुए जिनकी भनक लगते ही यूक्रेन ने नाटो की सदस्यता ग्रहण कर अमेरिकी सैन्य सुरक्षा का इंतजाम करना चाहा और वहीं से इस युद्ध के बीज अंकुरित होने लगे | अब तक जो हुआ उसमें संरासंघ की लाचारी खुलकर सामने आ चुकी है | रूस के वीटो की वजह से सुरक्षा परिषद उसकी निंदा करने तक में असमर्थ रही है |  चीन और भारत के तटस्थ हो जाने से भले ही रूस को सीधी सहायता न मिली हो लेकिन अमेरिकी पक्ष अपने दबदबे को पूरी तरह कायम नहीं कर सका | हालाँकि राष्ट्रपति बाइडेन सहित ब्रिटेन और अन्य अमेरिकी देशों के राष्ट्रप्रमुखों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके साथ आने का अनुरोध भी किया और दबाव भी बनाया लेकिन भारत ने अपने रुख में बदलाव नहीं किया | उसने साफ़ कर दिया कि वह यूक्रेन पर रूस के हमले का समर्थन नहीं करता किन्तु निंदा भी नहीं करेगा | यद्यपि संरासंघ में भारत ने लड़ाई रोके जाने की वकालत भी की | गत सप्ताह अपने यूरोपीय दौरे में श्री मोदी ने साफ़ – साफ़ कहा कि इस युद्ध में किसी की जीत नहीं होगी इसलिए इसे रोकना दुनिया के हित में होगा | उसके बाद ही संरासंघ में रूस ने भी शांति स्थापना के लिए विश्व जनमत के साथ चलने की बात कहकर अपने रुख में नरमी का संकेत तो दिया | लेकिन बीते दो दिनों में नागरिक ठिकानों पर उसके हमले जिस तरह हुए उनके बाद  इस जंग के रुकने की ऊमीदें टूट रही हैं | धीरे – धीरे ये भी स्पष्ट होता जा रहा है कि पुतिन को उन्मादी साबित करने वाला अमेरिका भी इस युद्ध को जारी रखे जाने का हिमायती है | लेकिन वह मैदान में आने की बजाय यूक्रेन को मोहरा बनाये हुए है जिसके राष्ट्रपति जेलेंस्की  अमेरिकी जाल में फंसकर बड़े पहलवान से जबरन लड़ने की मूर्खता कर बैठे | आज यूक्रेन जिस  स्थिति में पहुंच गया है वहां से न पीछे लौटना संभव है और न ही आगे बढ़ने का सामर्थ्य उसके पास है | लेकिन दुनिया के हित में अब इस जंग को रोका जाना जरूरी हो गया है क्योंकि इससे कोरोना के बाद संभलती जा रही वैश्विक अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी है |   अमेरिका सहित लगभग सभी देशों में महंगाई  चरम पर है | आयात करने वाले देशों की कमर टूट रही है वहीं निर्यात पर टिके देश भी तरह – तरह की परेशानी  से जूझ रहे हैं | भले ही  कहने को अब तक विश्वयुद्ध की नौबत नहीं आई लेकिन धीरे – धीरे दुनिया उस ओर बढ़ती लग रही है क्योंकि रूस और अमेरिका के सत्ताप्रमुख  अपने – अपने  वर्चस्व की  खातिर ऐसे हालात  पैदा करने पर आमादा हैं जिनमें युद्ध की लपटें पूरी दुनिया को अपनी लपेट में लिए बिना  नहीं रहेंगी | भारत की भूमिका ऐसे में बहुत ही महत्वपूर्ण हो गयी है क्योंकि श्री मोदी ही उन चंद विश्व नेताओं में हैं जो पुतिन , बाइडेन , जॉन्सन , मेक्रों और जिनपिंग से बात कर सकते हैं | चीन भी हालाँकि इस लड़ाई में तटस्थ है लेकिन उसकी विश्वसनीयता निरंतर कम होने से भारत काफी मजबूत स्थिति  में है | श्री मोदी की ताजा यूरोप यात्रा की सफलता ने कूटनीतिक जगत में भारत की प्रतिष्ठा में जो वृद्धि की है उसकी वजह से इस युद्ध को विश्व युद्ध में परिवर्तित होने से रोकने के लिए दुनिया श्री मोदी से उम्मीदें लगा रही है  | विदेश मंत्री एस. जयशंकर द्वारा किये गए विदेशी दौरों के दौरान भारत के पक्ष को जिस दबंगी के साथ प्रस्तुत किया गया उसकी भी सर्वत्र चर्चा है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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