Friday 27 May 2022

परिवारवाद लोकतंत्र में नव सामन्तवाद का जनक है



प्रधानमंत्री नरेन्द्र  मोदी ने गत दिवस हैदराबाद में परिवारवादी राजनीतिक दलों को देश का दुश्मन  बताते हुए कहा कि वे केवल राजनीतिक समस्या ही  नहीं  अपितु लोकतंत्र और युवाओं के भी शत्रु हैं | उनका निशाना वैसे तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की पार्टी तेलंगाना राज्य समिति ( टीआरएस ) पर था जो इन दिनों श्री मोदी से बेहद नाराज हैं और आगामी लोकसभा चुनाव में तीसरे मोर्चे को पुनर्जीवित करने में जुटे हुए हैं | लेकिन इस टिप्पणी के जरिये उन्होंने आन्ध्र और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री क्रमशः जगन रेड्डी और स्टालिन को भी घेरने का  प्रयास किया जो अपने पिता के उत्तराधिकारी बनकर  सत्ता में जा पहुंचे | दरअसल तमिलनाडु की द्रमुक  , आन्ध्र की वाईएसआर कांग्रेस  और  तेलंगाना की टीआरएस तीनों पारिवारिक पार्टियाँ हैं | जगन रेड्डी और स्टालिन जहाँ अपने पिता की विरासत के सहारे सत्ता तक पहुंचे वहीं श्री राव की पार्टी में भी उनके परिवार का वर्चस्व है | इसी  तरह अविभाजित आंध्र की राजनीति में बड़ी ताकत रही तेलुगु देशम भी परिवारवाद के शिकंजे में फंसी रही | कर्नाटक तक सीमित जनता दल ( सेकुलर ) भी देवगौड़ा परिवार की निजी मिल्कियत बनी हुई है | वास्तविकता ये है कि परिवारवाद  भारतीय राजनीति के साथ इस तरह घुला - मिला है कि उसे अलग कर पाना कठिन हो गया है | वैसे इसका प्रारम्भ  देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस से ही माना जाता है जो नेहरु – गांधी परिवार से बंधकर रह गयी | बाद में जबसे क्षेत्रीय दलों का उभार शुरू हुआ तबसे परिवारवाद स्थायी रूप से स्थापित हो गया | देश में जितने भी क्षेत्रीय दल हैं , सभी उसके  शिकंजे में फंसे हुए हैं | उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी राजनीति से पूरी तरह निर्लिप्त थे लेकिन अपने पिता बीजू पटनायक की मौत के बाद वे उनकी जगह लेने आये और ऐसे जमे कि मोदी लहर भी उनको हिला नहीं सकी | बंगाल में तृणमूल कांग्रेस पार्टी ममता बैनर्जी ने जब बनाई तब वह परिवारवाद से मुक्त थी लेकिन अब उनके भतीजे बतौर उत्तराधिकारी  सामने आ गये हैं | पंजाब में अकाली दल , महाराष्ट्र में शिवसेना और राकांपा , हरियाणा में इनेलोद , उ.प्र में सपा , लोकदल और काफी हद तक बसपा भी परिवार में सिमटकर रह गये हैं | बिहार में राजद और लालू परिवार समानार्थी हैं | कश्मीर की राजनीति भी अब तक नेशनल कान्फ्रेन्स और पीडीपी नामक जिन दो क्षेत्रीय दलों के इर्द गिर्द सिमटी रही , वे भी परिवारवाद की पोषक रहे | वामपंथी पार्टियाँ अवश्य इस बुराई से मुक्त कही जा सकती हैं और कुछ हद तक भाजपा भी ये कह सकती है कि भले ही उसमें भी नेताओं के परिजनों को उपकृत किया जाने लगा है लेकिन अभी भी वह परिवारवाद में पूरी तरह डूबी नहीं है | हाल ही में श्री मोदी ने परिवार के भीतर टिकिटें देने पर रोक के संकेत दिए | उसी के बाद कांग्रेस ने भी  उदयपुर के नव संकल्प - चिन्तन शिविर में ये फैसला किया कि गांधी परिवार को अपवाद मानकर बाकी नेताओं के परिजनों को टिकिट देने के लिए कुछ मानदंड तय किये जाएं | जाहिर है इसका कारण भाजपा द्वारा परिवारवाद के लिए कांग्रेस पर लगाये जाने वाले आरोप ही थे किन्तु इस बहाने उसको ये तो समझ में आने ही लगा कि गांधी परिवार का एक  छत्र कब्ज़ा अब पार्टी जनों को भी पसंद नहीं आ रहा | राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा चुनावी राजनीति में बुरी तरह विफल साबित हो चुके हैं | सोनिया गांधी भी बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण पूर्ववत सक्रिय नहीं रहीं | सही बात ये है कि अन्य विपक्षी दल भी कांग्रेस के नेतृत्व में  भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने से इसीलिये हिचकने लगे हैं क्योंकि वे भी राहुल को प्रधानमंत्री बनाने सहमत नहीं हैं | ये बात भी सही है कि परिवार आधारित पार्टियों का सुनहरा दौर अब ढलान पर है | मसलन तृणमूल कांग्रेस में भतीजे अभिषेक से ममता के मतभेद सामने आ चुके हैं | लालू और मुलायम के परिवार में भी यादवी संघर्ष खुलेआम जारी है | हरियाणा में चौटाला परिवार भी बिखर गया है | स्व. बाल ठाकरे के भतीजे राज का अपने चचेरे भाई उद्धव से बैर भाव जग जाहिर है | कश्मीर में पीडीपी पर मुफ्ती और नेशनल कांफ्रेंस पर अब्दुल्ला परिवार के आधिपत्य से नाराज अनेक नेताओं ने किनारा कर लिया | तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार में खींचातानी है स्टालिन के अग्रज अलागिरी भी अलग मोर्चा खोले हुए हैं | देवगौड़ा परिवार की राजनीति भी ढलान पर है | नवीन पटनायक अविवाहित हैं लेकिन उन्होंने अपने कुनबे से किसी को आगे बढाने का काम नहीं किया  इसलिए उन पर परिवारवाद का आरोप नहीं लगता |  प्रकाश सिंह बादल के बिस्तर पकड लेने के बाद अकाली दल का भविष्य भी अँधेरे में है | ये सब देखकर लगता है कि प्रधानमंत्री ने समय की नब्ज पर हाथ रख दिया है | परिवारवाद को लोकतंत्र के साथ ही  युवाओं का शत्रु बताकर उन्होंने राजनीतिक दलों में कार्यरत उन नौजवानों को लुभाने का दांव चला है जो परिवारवाद के कारण उपेक्षित रह जाते हैं | भाजपा के शीर्ष नेताओं में स्व.दीनदयाल उपाध्याय और  स्व.अटलबिहारी वाजपेयी के अलावा लालकृष्ण आडवाणीं और डा. मुरली मानोहार जोशी का कोई भी परिजन उनके उत्तराधिकारी के तौर पर  नहीं है | जिन नेताओं की पत्नी या बेटे – बेटी संगठन या सत्ता में हैं भी तो वे शीर्ष नेतृत्व की श्रेणी में नहीं आते | वामपंथी दलों में वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण अगली पीढी सक्रिय होने के बावजूद राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करती | प्रधानमंत्री ने तो अपने परिवार को सदैव अपनी राजनीति से दूर रखा | इसलिए जब वे परिवारवाद पर हमला करते हैं तब कोई भी उनकी प्रामाणिकता को चुनौती नहीं दे पाता | उ.प्र में भाजपा को हालिया चुनावी सफलता मिलने के पीछे  मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी रहे जिनके 5 वर्षीय शासनकाल में उनके परिजन कभी लखनऊ तक नहीं आये | सपा ने गत दिवस लोकदल नेता जयंत चौधरी को राज्यसभा में  भेजने हेतु समर्थन देने का जो निर्णय किया वह परिवारवाद का विरोध होने के कारण  ही सम्भव हो सका | सुनने में आया है कि अखिलेश यादव अपनी पत्नी डिम्पल को उच्च सदन में भेजना चाहते थे , जो पिछला  लोकसभा चुनाव कन्नौज से हार चुकी हैं | लेकिन जयंत की नाराजगी देखते हुए उनको  डिम्पल का नाम वापिस लेना पड़ा | ये बात पूरी तरह सही है कि परिवारवाद के चलते अनेक युवा कार्यकर्ताओं का हक़ छीन  लिया जाता है | ऐसे में प्रधानमंत्री ने दक्षिण भारत में उस बाबत  जो कुछ कहा वह हवा में छोड़ा गया  तीर न होकर बाकायदा लक्ष्य पर दागी गई मिसाइल है | सर्वविदित है कि क्षेत्रीय दलों के साथ ही कांग्रेस भी परिवारवाद के चंगुल में फंसी है | इस वजह से इनका जनाधार खिसकता जा रहा है | सबसे बड़ा नुकसान ये है कि परिवारवादी राजनीति पूरी तरह सिद्धान्विहीन होती है जिसमें नीचे गिरकर भी सौदेबाजी किये जाने से परहेज नहीं क्या जाता | सता के लिए   अवसरवाद भी परिवार से चिपकी राजनीति का ही दुष्परिणाम है | यद्यपि क्षेत्रीय दल बनते तो राजनीतिक सिद्धांतों के नाम पर हैं लेकिन धीरे – धीरे उनका एकमात्र उसूल  परिवार के हितों का संरक्षण और संवर्धन रह जाता है | इसीलिए पिछड़ी जातियों की  भलाई  के लिए बनी सपा और राजद  केवल दो परिवारों के उत्थान तक सीमित रह गई हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


No comments:

Post a Comment