Saturday 28 May 2022

बुकर पुरस्कार : अनुवाद रूपी कृत्रिम इत्र में मिट्टी की सुगंध कहाँ



 किसी भारतीय लेखक की कृति को विदेश में सम्मान मिले इससे अधिक  हर्ष का विषय क्या हो सकता है ? उस दृष्टि से गीतांजलि श्री नामक लेखिका के हिंदी उपन्यास 'रेत समाधि' को बुकर पुरस्कार मिलना निश्चित तौर पर साहित्य प्रेमियों के साथ ही पूरे देश के लिए गौरव का विषय है | पुरस्कार मिलते ही गीतांजलि रातों – रात  सितारा हैसियत में आ गईं | उनको साहित्य अकादमी या अन्य कोई भारतीय पुरस्कार मिलता तब शायद चर्चा इतनी गर्म न होती | लेकिन बुकर पुरस्कार देने वालों की चमड़ी चूंकि गोरी है इसलिए उसके साथ श्रेष्ठता का वही भाव जुड़ा है जिसने हमें सैकड़ों साल तक दासता का दंश दिया | अचानक ये कहा जाने लगा कि दक्षिण एशियाई भाषाओं के प्रति वैश्विक रूचि और सम्मान बढ़ रहा है | लेकिन इस खुशी के पीछे यह  विडंबना भी है कि 'रेत समाधि' के अंग्रेजी अनुवाद को निर्णायक मंडल ने पुरस्कार योग्य समझा और इसीलिये गीतांजलि ने उसकी अनुवादक डेजी राकवेल के साथ सम्मान ग्रहण किया | डेजी , पूरी तरह पेशेवर हैं और उर्दू तथा हिन्दी की अनेक कृतियों का  अनुवाद कर चुकी हैं | गीतांजलि की अन्य कृतियाँ भी अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवादित हो चुकी हैं | उस दृष्टि से माना जा सकता है कि बुकर पुरस्कार के प्रायोजकों की निगाह उनके सृजन पर रही होगी | फिर भी ये सत्य तो स्वीकारना ही होगा कि संदर्भित  उपन्यास के आंग्ल अनुवाद 'टूम ऑफ सैंड' को पुरस्कार योग्य समझा गया | इसमें दो मत नहीं हैं कि कथानक में बदलाव नहीं होने के बावजूद मूल भाषा में मिट्टी की जो सुगंध होती है वह अनुवाद रूपी कृत्रिम इत्र में संभव नहीं | तुलसीकृत रामचरित मानस का जो आनंद अवधी में है वैसी अनुभूति उसके अनुवाद में कतई नहीं हो सकती | यह पुरस्कार ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा रहे देशों के संगठन राष्ट्रकुल ( कॉमनवेल्थ ) के सदस्य देशों के लेखकों को दिया जाता है और गीतांजलि के पहले भी अनेक भारतीय लेखक  उससे पुरस्कृत हो चुके हैं | लेकिन 'रेत समाधि' मूल रूप से हिन्दी में है इसलिए इसे  महत्वपूर्ण माना जा रहा है | वैसे  हिन्दी ही क्यों  अन्य भारतीय भाषा की किसी कृति को दुनिया में कहीं भी सम्मान मिलना गौरवान्वित करता है | लेकिन उसके वहां की भाषा में अनुवादित होने की शर्त ठेस पहुंचाने के साथ गोरी चमड़ी वालों के सामने हमारी हीनभावना का परिचायक है | फिल्मों के लिए 'ऑस्कर' नामक अमेरिका के सुप्रसिद्ध अकादमी अवार्ड्स के लिए चक्कर  काटते भारतीय फिल्मकारों पर अमिताभ बच्चन की ये टिप्पणी काफी सटीक थी कि दुनिया  भर में सबसे  ज्यादा फिल्में  बनाने वाले भारत में दिए जाने वाले फिल्मी अवार्ड्स के लिए जब कोई विदेशी फिल्मकार प्रयास नहीं करता तब हम ऑस्कर के लिए क्यों मरे जाते हैं ?  इसी तरह उन्होनें हालीवुड की तर्ज पर बालीवुड शब्द के उपयोग पर ऐतराज करते हुए उसे भारतीय फिल्म उद्योग कहे जाने पर जोर दिया | ऑस्कर अवार्ड्स समारोह को फिल्म जगत का सबसे सबसे बड़ा आयोजन माना जाता है | लेकिन बीते अनेक सालों से 'आइफा' नामक भारतीय फिल्मों के अवार्ड्स समारोह का आयोजन विदेशों में होने लगा है जिसकी भव्यता और लोकप्रियता ऑस्कर से बीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं कही जा सकती | ये देखते हुए हमें अपनी मौलिकता पर गर्व करने की आदत डालनी होगी | हिन्दी या अन्य भारतीय भाषी व्यक्ति द्वारा अपने विदेशी नस्ल के कुत्ते को अंग्रेजी में पुचकारना और निर्देशित करना भी मन के कोने में छिपी हीन भावना का एहसास कराता है | हिन्दी फिल्मों में अभिनय के लिए अवार्ड जीतने वाले अभिनेताओं और अभिनेत्रियों द्वरा मंच पर आकर अटकती हुई अंग्रेजी में बोलने से भी वही हीनता प्रकट होती है | यहाँ प्रश्न भाषायी कट्टरता का न होकर अपनी समृद्ध विरासत की परिपूर्णता के प्रति आदरभाव का है | अंग्रेजी पढ़ना , लिखना या बोलना बुरा नहीं | किसी भी भाषा में पारंगत होना ज्ञानवृद्धि में सहायक होता है किंतु उसके लिए अपनी भाषा की उपेक्षा एक तरह की कृतघ्नता है | आज जब भारत और भारतीयता का लोहा सारी दुनिया मान रही है और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी , सुषमा स्वराज तथा  नरेंद्र मोदी ने संरासंघ के मंच से हिन्दी में संबोधन देकर पूरे विश्व को ये सन्देश दे दिया कि भारत अंग्रेजी सत्ता के साथ ही   अंग्रेजी भाषा की दासता से मुक्त होने का आत्मबल भी अर्जित कर चुका है |  इस भावना को विस्तार देने के लिए जरूरी है कि हम अपने , अपनी और अपनों पर गर्व करने का संस्कार पुनर्जीवित करें | गीतांजलि को मिला बुकर पुरस्कार  निश्चित रूप से भारत का भी सम्मान है जिसके जरिये भारतीय प्रतिभा का वैश्विक मूल्यांकन हो सका | लेकिन असली गौरव उस दिन होगा जिस दिन किसी भारतीय साहित्यिक कृति को उसकी  मूल  भाषा में ही सम्मान प्राप्त होगा | इस बारे में  ये विचार भी मन में उठता है कि  'रेत समाधि' उपन्यास के अंग्रेजी अनुवाद को बुकर पुरस्कार मिलने से पहले उसे  कितनी ख्याति और लोकप्रियता हासिल हुई ? ज्ञात रहे विदेशी प्रशंसा , पुरस्कार और  प्रमाणपत्र प्राप्त होने के पीछे भी अनेक रहस्य छिपे होते हैं | दुनिया के सबसे सम्मानित माने जाने वाले नोबल शांति पुरस्कार हेतु आज तक महात्मा गांधी का चयन नहीं किया  जबकि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा को राष्ट्रपति बनने के कुछ समय बाद ही जब शांति का नोबल सम्मान देने की घोषणा हुई तब उनकी प्रतिक्रिया थी किस लिए ? कहने का आशय ये है कि चाहे बुकर हो , ऑस्कर हो या नोबल | इस सबके पीछे एक सोची --  समझी रणनीति काम करती है | विश्व सुन्दरी का चयन भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के संवर्धन हेतु किया जाता है | समय आ गया है जब हमें अपने श्रेष्ठ व्यक्तित्वों और उनके कृतित्व का समुचित मूल्यांकन करने की संस्कृति विकसित करनी चाहिए | उस दृष्टि से आईपीएल में कितनी भी विसंगतियां हों  लेकिन इस आयोजन ने इंग्लिश काउंटी और ऑस्ट्रेलियाई क्लब क्रिकेट की चमक फीकी करते हुए दुनिया को दिखा दिया कि हमारी प्रबन्धन क्षमता और पेशेवर दक्षता किसी से कम नहीं , अपितु कुछ मायनों में बेहतर है | साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे ही आत्मविश्वास की जरूरत है ताकि विदेशी लेखक अपनी कृतियों का अनुवाद भारतीय भाषाओं में करते हुए ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कार हेतु चक्कर काटते  नजर आने लगें | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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